Tumgik
#भूत था
subhashdagar123 · 12 days
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6266114847 · 2 months
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rampal1985 · 2 months
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सतगुरु पुरूष कबीर हैं, चारों युग प्रमाण।
झूठे गुरूवा मर गए, हो गए भूत मसान।।
इसका जीता जागता उदाहरण है कि राधास्वामी पंथ एक निगुरा पंथ है जिसका कोई गुरु नहीं था और इस पंथ के प्रवर्तक शिवदयाल जी मृत्यु के उपरांत प्रेत बन गए।
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buzz-london · 5 months
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*मजे लीजिए और* *पढ़ने के बाद आगे धकेल दीजिए...😉🤪* ●○●○●○●○●○ बर्बाद होने के लिए जरूरी नहीं कि शराब या जुआ खेला जाय! बर्बाद होने के लिए आप 2024 में Congress को वोट भी दे सकते है ! ●○●○●○●○●○ पागल वो नहीं जिसे भूत पिशाच दिखाई देते हैं! पागल तो वो है जिसे राहुल गाँधी में देश का भविष्य दिखाई देता है! ●○●○●○●○●○ "भारत रत्न" का मज़ाक तो तब बना था जब नेहरू ने चीन से युद्ध हारने के बाद भी खुद को भारत रत्न दिया था! ●○●○●○●○●○ आपका एक गलत वोट आपके घर तक आतंकवादी ला सकता है ! और एक सही वोट उन्हें सीमा पर ही निबटा सकता है ! जीवन आपका और निर्णय भी आपका! ●○●○●○●○●○ "प्रियंका" विश्व की पहली ऐसी नेता हैं, जिसका "मायका" और "ससुराल" दोनों जमानत पर चल रहे हैं! मगर फिर भी उनकी पार्टी नारे लगाती है कि चौकीदार चोर है! ●○●○●○●○●○ बाबर का बाप उजबेकिस्तान का, मां मंगोलिया की, वह मरा अफगानिस्तान में और उसका मकबरा काबुल में मगर "बाबरी मस्जिद चाहिये अयोध्या में ? मजे की बात ये कि समर्थन भी काग्रेस ही कर रही है! ●○●○●○●‍○●○ रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलयुग आएगा! माँ बाप की शादी चर्च में होगी और बेटा "ब्राह्मण” कहलाएगा ! ●○●○●○●○●○ धर्म बदला, जाति बदली, बदल दिया है गोत्र! "दादा गड़े कब्र में, पंडित बन गया पौत्र! ●○●○●○●○●○ एक जमाना था जब जनता आंदोलन करती थी, और नेता घर बैठ के मजे लेते थे! मगर आज मोदी जी ने एसी परिस्थिती कर दी है की भ्रष्ट नेता आंदोलन कर रहे हैं, और जनता शाँत बैठकर घर पर मज़े ले रही है ! इसे कहते हैं अच्छे दिन ! ●○●○●○●○●○ विदेश के नेता मोदी के पीछे पागल हैं, और भारत के नेता मोदी के कारण पागल हैं ! कोई शक ! ●○●○●○●○●○ केवल फेविकोल ही नहीं जोड़ता, मोदी का डर भी जोड़ता हैं ! ●○●○●○●○●○ चौकीदार को वोट देना पक्का नही था, लेकिन जिस तरह चोरों को इकठ्ठा होते हुए देखा, तो प्रण कर लिया कि चौकीदार रखना जरूरी है। ●○●○●○●○●○ गद्दारी के किले ढह गए राष्ट्रवाद की तोप से, सांप - नेवले एक हो गए, मोदी तेरे खौफ से ! देश बेचने वाले एक हो सकते हैं, तो देश बचाने वाले क्यों नहीं एक हो सकते ? ●○●○●○●○●○ 77-इमर्जेंसी, 84-सिक्ख , 90-कश्मीरी हिंदु नरसंहार तब तक संविधान सुरक्षित था! 7 वर्षों में 1300 आतंकी मरने से संविधान खतरे में आ गया! ●○●○●○●○●○ जिस प्रियंका वाड्रा को कांग्रेसी माँ दुर्गा का अवतार बता रहे हैं, उसके बच्चों का नाम 'रेहान और मारिया' है! सोचा सबको बता ही दें ! ●○●○●○●○●○ भाजपा का विरोध करने वाले 22 दलों की कुल पारिवारिक संपत्ति सिर्फ-300 लाख करोड़ रुपये है, जो कि देश का 10 साल का बजट है ! सोचा बता दूँ… ●○●○●○●○●○ एक बार गलती की थी, तो 10 साल के लिए बिना आवाज का प्रधानमंत्री मिला था! इस बार गलती करेंगे, तो बिन दिमाग का प्रधानमंत्री मिलेगा ! ●○●○●○●○●○ विकास पागल हो सकता है, परन्तु पागल का विकास नहीं हो सकता! इसलिए मोदी और योगी है देश के लिए उपयोगी... ●○●○●○●○●○ नमो को वोट दिया जा सकता है, परन्तु नमूने को नहीं! ●○●○●○●○●○ हमारे प्रधानमंत्री के चाहे कितने ही कार्टून बना लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन एक कार्टून को प्रधानमंत्री कभी नहीं बनाया जा सकता है। मैसेज को डकारना नहीं है,आगे भेजना है... *नए भारत का वैश्विक संकल्प...* *सनातन वैदिक धर्म...विश्व धर्म* *अखंड हिंदु राष्ट्र भारत...विश्व गुरु भारत* *धर्मो रक्षति रक्षितः...*🚩
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mala-dasi · 2 months
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#राधास्वामी_निगुरा_पंथ
राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी है जिनका जन्म आगरा शहर की मुहल्ला पन्नी गली में 25 अगस्त 1818 को हुआ। श्री शिवदयाल जी का कोई गुरु नहीं था, स्वयं ही हठयोग क्रिया करके, बन्द कमरे में सूरत शब्द का अभ्यास किया करते थे। तथा मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्त न करके भूत योनि में गये और अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश करके हुक्का पिया करते।
RadhaSoami Exposed
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taapsee · 2 months
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#राधास्वामी_निगुरा_पंथ
श्री शिवदयाल जी है जिनका जन्म आगरा शहर की मुहल्ला पन्नी गली में 25 अगस्त 1818 को हुआ। श्री शिवदयाल जी का कोई गुरु नहीं था, स्वयं ही हठयोग क्रिया करके, बन्द कमरे में सूरत शब्द का अभ्यास किया करते थे। तथा मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्त न करके भूत योनि में गये।
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cbmehar · 12 days
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#परमात्मा_दुखीको_सुखी_करताहै
सत भक्ति से लाभ
लाखों का कर्ज और भूत प्रेत की बाधा से था परेशान।
संत रामपाल जी महाराज जी के शरण में आने के बाद अब कर्ज भी नहीं है और भूत प्रेत की बाधा से छुटकारा मिल गया।
- बुद्धिमान विश्वकर्मा, प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
Kabir Is God
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rajgour987 · 12 days
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#परमात्मा_दुखीको_सुखी_करताहै
लाखों का कर्ज और भूत प्रेत की बाधा से था परेशान
बुद्धिमान विश्वकर्मा, प्रयागराज (UP)
संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में आने बाद अब कर्जा भी नहीं है और भूत प्रेत की बाधा से भी छुटकारा मिल गया।
Kabir Is God
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sstkabir-0809 · 11 months
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( #MuktiBodh_Part117 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part118
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 231
◆ वाणी नं. 146 :-
गरीब, बाण लगाया बालिया, प्रभास क्षेत्र कै मांहि।
सुक्ष्म देही स्वर्गहिं गये, यहां कुछ बिछर्या नाहिं।।146।।
◆ सरलार्थ :- श्री कृष्ण जी के पैर में बालिया नामक शिकारी ने तीर मारा। श्री कृष्ण जी की मृत्यु ��ो गई, परंतु सुक्ष्म शरीर स्वर्ग चला गया।(146)
◆ वाणी नं. 147- 149 :-
गरीब, दुर्बासा कोपे तहां, समझ न आई नीच।
छप्पन कोटि जादौं कटे, मची रुधिर की कीच।।147।।
गरीब, गूदड़ गर्भ बनाय करि, कीन्हीं बहुत मजाक।
डरिये सांई संत सैं, सुखदे बोलै साख।।148।।
गरीब, दश हजार पुत्र कटे, गोपी काब्यौं लूटि।
गनिका चढी बिवान में, भाव भक्ति सें छूटि।।149।।
◆ सरलार्थ :- एक समय दुर्वासा ऋषि द्वारिका नगरी के पास वन में आकर ठहरा। धूना अग्नि लगाकर तपस्या करने लगा। दुर्वासा ऋषि श्री कृष्ण जी के आध्यात्मिक गुरू थे।
{ऋषि संदीपनी श्री कृष्ण के अक्षर ज्ञान करवाने वाले शिक्षक (गुरू) थे।} दुर्वासा जी की ख्याति चारों ओर द्वारका नगरी में फैल गई कि ऐसे पहुँचे हुए ऋषि हैं। भूत, भविष्य तथा वर्तमान की सब जानते हैं। द्वारिका के निवासी श्री कृष्ण से अधिक किसी भी ऋषि व देव को नहीं मानते थे। उनको अभिमान था कि हमारे साथ श्री कृष्ण हैं। कोई भी देव, ऋषि व साधु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। श्री कृष्ण को सर्वशक्तिमान मान रखा था।
द्वारिका के नौजवानों को शरारत सूझी। आपस में विचार किया कि साधु लोग ढोंगी होते हैं। इनकी पोल खोलनी चाहिए। चलो दुर्वासा ऋषि की परीक्षा लेते हैं। श्री कृष्ण के पुत्र प्रधूमन ने गर्भवती स्त्री का स्वांग धारण किया। पेट के ऊपर छोटा कड़ाहा बाँधा। उसके ऊपर रूई-लोगड़ रखकर वस्त्र बाँधकर स्त्री के कपड़े पहना दिए। उसका एक पति बना लिया। सात-आठ नौजवान यादव उनके साथ दुर्वासा के डेरे में गए और प्रणाम करके
निवेदन किया कि ऋषि जी आपका बहुत नाम सुना है कि आप भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानते हैं। ये पति-पत्नी हैं। इनके विवाह के बारह वर्ष बाद परमात्मा ने संतान की आश पूरी की है। ये यह जानना चाहते हैं कि गर्भ में लड़का होगा या लड़की। ये यह जानने के लिए उतावले हो रहे हैं। कृपया बताने का कष्ट करें। दुर्वासा ऋषि ने ध्यान लगाकर देखा तो सब समझ में आ गया। क्रोध में भरकर बोला, बताऊँ क्या होगा? सबने एक स्वर में कहा कि हाँ! ऋषि जी बताओ। दुर्वासा बोला कि इस गर्भ से यादव कुल का नाश होगा। चले जाओ यहाँ से। सब भाग लिए। गाँव में बुद्धिमान बुजुर्गों को पता चला कि बच्चों ने ऋषि दुर्वासा के साथ मजाक कर दिया। ऋषि ने यादव कुल का नाश होने का शॉप दे दिया है। जुल्म हो गया। सब मरेंगे। अब क्या उपाय किया जाए? सब मिलकर अपने गुरू तथा राजा श्री कृष्ण जी के पास गए तथा सब हाल कह सुनाया। श्री कृष्ण जी से कहा कि इस कहर से आप ही बचा सकते हो। श्री कृष्ण जी ने कहा कि उन सब बच्चों को साथ लेकर ऋषि दुर्वासा के पास जाओ। इनसे क्षमा मँगवाओ। तुम भी बच्चों की ओर से क्षमा माँगो। सब मिलकर ऋषि दुर्वासा के पास गए तथा बच्चों से गलती की क्षमा याचना करवाई। स्वयं भी क्षमा याचना की। ऋषि दुर्वासा बोले कि वचन वापिस नहीं हो सकता। सब वापिस श्री कृष्ण के पास आए तथा कहा कि दुर्वासा के शॉप से बचने का उपाय बताऐं। श्री कृष्ण ने कहा कि जो-जो वस्तु गर्भ स्वांग में प्रयोग की थी। उनका नामों-निशान मिटा दो। उन्हीं से अपने कुल का नाश होना कहा है। कपड़े-रूई-लोगड़ को जलाकर उनकी राख को प्रभास क्षेत्रा में नदी में डाल दो। जो लोहे की कड़ाही है, उसे पत्थर पर घिसा-घिसाकर चूरा बनाकर प्रभास क्षेत्र में दरिया में डाल दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। द्वारिकावासियों ने अपने गुरू श्री कृष्ण जी के आदेश का पालन किया। लोहे की कड़ाही का एक कड़ा एक व्यक्ति को घिसाने के लिए दिया था। उसने कुछ घिसाया, पूरा नहीं घिसा। वैसे ही जमना दरिया में फैंक दिया।
घिसने से उस कड़े में चमक आ गई थी। एक मछली ने उसे खाने की वस्तु समझकर खा लिया। उस मछली को एक बालिया नाम के भील ने पकड़कर काटा तो कड़ा निकला। उसका लोहा पक्का था। बालिया ने उससे अपने तीर का आगे वाला हिस्सा विषाक्त बनवा
लिया। कड़ाहे का जो लोहे का चूर्ण दरिया में डाला था, उसका तेज-तीखे पत्तों वाला घास उग गया। पत्ते तलवार की तरह पैने थे। कपड़ों तथा रूई-लोगड़ (पुरानी रूई) की राख का
भी घास उग गया।
क्रमशः_________________
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब सं��� रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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subhashdagar123 · 7 months
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राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी है जिनका जन्म आगरा शहर की मुहल्ला पन्नी गली में 25 अगस्त 1818 को हुआ। श्री शिवदयाल जी का कोई गुरु नहीं था, स्वयं ही हठयोग क्रिया करके, बन्द कमरे में सूरत शब्द का अभ्यास किया करते थे। तथा मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्त न करके भूत योनि में गये और अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश करके हुक्का पिया करते।
🫴🏻 अवश्य देखें
ईश्वर टी.वी. पर सुबह 6:00
श्रद्धा MH ONE टी. वी. पर दोपहर 2:00
साधना टी. वी. पर शाम 7:30
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dilip775 · 2 months
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राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी है जिनका जन्म आगरा शहर की मुहल्ला पन्नी गली में 25 अगस्त 1818 को हुआ। श्री शिवदयाल जी का कोई गुरु नहीं था, स्वयं ही हठयोग क्रिया करके, बन्द कमरे में सूरत शब्द का अभ्यास किया करते थे। तथा मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्त न करके भूत योनि में गये और अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश करके हुक्का पिया करते।
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birendra27 · 2 months
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#राधास्वामी_निगुरा_पंथ
#RadhaSoamiExposed
#SantRampalJiMaharaj
राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी है का कोई गुरु नहीं था, स्वयं ही हठयोग क्रिया । तथा मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्त न करके भूत योनि में गये और अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश करके हुक्का पिया करते।
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junusworld · 1 year
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🍁कबीर परमेश्वर चारों युगों में आते हैं।🍁
कबीर परमेश्वर 600 वर्ष पहले सिर्फ कलयुग में ही लीला करने नहीं आए बल्कि वे चारों युगों में आते हैं।
पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) वेदों के ज्ञान से भी पूर्व सतलोक में विद्यमान थे तथा अपना वास्तविक ज्ञान (तत्वज्ञान) देने के लिए चारों युगों में भी स्वयं प्रकट हुए हैं।
सतयुग में सतसुकृत नाम से, त्रेतायुग में मुनिन्द्र नाम से, द्वापर युग में करूणामय नाम से तथा कलयुग में वास्तविक कविर्देव (कबीर प्रभु) नाम से प्रकट हुए हैं।
यजुर्वेद के अध्याय नं. 29 के श्लोक नं. 25:-
जिस समय पूर्ण परमात्मा प्रकट होता है उस समय सर्व ऋषि व सन्त जन शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा कर रहे होते हैं। तब अपने तत्वज्ञान का संदेशवाहक बन कर स्वयं ही कबीर प्रभु ही आता है।
कबीर परमेश्वर चारों युगों में अपने सत्य ज्ञान का प्रचार करने आते हैं।
सतगुरु पुरुष कबीर हैं, चारों युग प्रवान।
झूठे गुरुवा मर गए, हो गए भूत मसान।।
कबीर परमात्मा अन्य रूप धारण करके कभी भी प्रकट होकर अपनी लीला करके अन्तर्ध्यान हो जाते हैं। उस समय लीला करने आए परमेश्वर को प्रभु चाहने वाले श्रद्धालु नहीं पहचान पाते, क्योंकि सर्व महर्षियों व संत कहलाने वालों ने प्रभु को निराकार बताया है। वास्तव में परमात्मा आकार में है। मनुष्य सदृश शरीर युक्त है।
परमेश्वर का शरीर नाड़ियों के योग से बना पांच तत्व का नहीं है। एक नूर तत्व से बना है। पूर्ण परमात्मा जब चाहे यहाँ प्रकट हो जाते हैं वे कभी मां से जन्म नहीं लेते क्योंकि वे सर्व के उत्पत्ति कर्ता हैं।
द्वापर युग में भक्ति को जिंदा रखने के लिए कबीर परमेश्वर ने ही द्रौपदी का चीर बढ़ाया जिसे जन समाज मानता है कि वह भगवान कृष्ण ने बढ़ाया। कृष्ण भगवान तो उस वक्त अपनी पत्नी रुकमणी के साथ चौसर खेल रहे थे।
गरीब, पीतांबर कूं पारि करि, द्रौपदी दिन्ही लीर।
अंधेकू कोपीन कसि, धनी कबीर बधाये चीर।।
कोई कहता था कि त्रेता युग में हनुमान जी ने पत्थर पर राम का नाम लिख दिया था इसलिए पत्थर तैर गये। कोई कहता था कि नल-नील ने पुल बनाया था। कोई कहता था कि श्रीराम ने पुल बनाया था। परन्तु सत्य यह है कि समुद्र पर पुल त्रेतायुग में ऋषि मुनिदर जी रूप में आए कबीर साहेब जी के आशीर्वाद से बना। प्रमाणित वाणी:-
रहे नल नील जतन कर हार। तब सतगुरू से करी पुकार।।
जा सत रेखा लिखी अपार, सिन्धु पर शिला तिराने वाले। धन-धन सतगुरु सत कबीर, भक्त की पीर मिटाने वाले।।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17
शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्रम् अत्येति रेभन्।।
विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कविर्गिभिः अर्थात् कबीर बाणी द्वारा पुण्यात्मा अनुयायियों को कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा वर्णन करता है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही होता है।
#SantRampalJiMaharaj
#AppearanceOfGodKabirInKalyug
#GodKabir_Appears_In_4_Yugas
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पवित्र पुस्तक "कबीर परमेश्वर"
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secretenemystrawberry · 9 months
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पित्तर पूजा, भूत पूजा, देवताओं की पूजा यानि अस्थियाँ उठाकर गंगा में जल प्रवाह करना, तेरहवीं करना, महीना करना, वर्षी करना, श्राद्ध करना, पिंड भरवाना, गरुड़ पुराण का पाठ मृत्यु के पश्चात् करना आदि-आदि यह शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना आचरण शुरू हुआ जो वर्तमान सन् 2013 तक चल रहा है। जो सत्ययुग के एक लाख वर्ष बीत जाने के बाद से प्रारंभ हुआ था। जिस शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करने वालों को कोई लाभ नहीं
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indian-mythology · 2 years
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माथुर ब्राह्मणों के गोत्र 7 हैं। ये प्राचीन सप्त ऋषियों की प्रतिष्ठा में उन्हीं के द्वारा स्थापित हुए थे। इनकी ऐतिहासिकता संदेह से परे है। इन सात गोत्रों के गोत्रकार ऋषियों की परम्परा में नाम इस प्रकार हैं।
दक्ष गोत्र
कुत्स गोत्र
वशिष्ठ गोत्र
भार्गव गोत्र
भारद्वाज गोत्र
धौम्य गोत्र
सौश्रवस गोत्र
दक्ष गोत्र परिचय
दक्ष गोत्र प्रजापति ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में सर्व प्रतिष्ठित प्रजापतियों के पति (10 ब्रह्मपुत्रों की धर्म परिषद के अध्यक्ष) रूप में सर्वोपरि सम्मानित थे। 9400 वि0पू0 की ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि के केन्द्र ब्रह्मपुर्या माथुर महर्षियों के क्षेत्र मालाधारी गली ब्रह्मपुरी पद्मनाभ स्थल के ये अधिष्ठाता थे।
आदि प्रयागतीर्थ मथुरा के उत्तरगोल सूर्यपुर में प्रजापत्य याज्ञ करके प्रजापति विभु स्वयंभू ब्रह्मदेव ने इन्हें समष्ट वेद-वेदज्ञ यज्ञ कर्मकर्ता प्रजापितयों का अधिष्ठाता नियुक्त किया था। ऋग्वेद में इनके मन्त्र हैं। देवों से पूजित होने और बड़े-बड़े यज्ञों, संस्कारों, धार्मिक कृत्यों के सर्बश्रेष्ठ नियन्ता होने के कारण ये अपार विद्याओं के समुद्र तथा अपार द्रव्य राशि के स्वामी थे। इनका अपना विशाल आश्रम मथुरा के सुयार्श्व गिरि पर था ऐसी हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है।
इन्होंने अपने दक्षपुर (छौंका पाइसा) में महासत्र का आयोजन करके माथुर महर्षियों की ब्रह्मविद्या से अर्चना करके समस्त सुपार्श्व गिरि को सुवर्ण से आच्छादित कर उसकी शिखरों को रत्नों से देदीप्यमान कर उस समय (9400 वि0पू0) एक मात्र कर्मनिष्ठ लोकवंद्य देवपूजित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों को दान में अर्पित कीं और उन्हें यह निर्देश दिया कि वे अनकी प्रदत्त पुण्य भूमि को खण्ड-खण्ड करके कभी विभाजित न करें उसका सम्मिलित रूप से उपभोग करते रहें।
उनके इस निर्देश पर भी उन ब्राह्मणों के वंशजों ने लोभ वश स्वर्ण बटोरकर उस शोभायमान पर्वत की श्री हीन करके कई खण्डों में विभाजित कर डाला। इस अनैतिक आचरण से खिन्न और कुपित होकर महामान्य दक्ष ने उन्हें शाप दिया कि वे लालची, कलही, भिक्षुक और कुल मान्यता से शून्य प्रतिष्ठा हीन हो जायेगें। महापुण्य दक्ष के सुपाश्व के विभिन्न शिखिर खण्ड मथुरा में आज भी पाइसा नामों से (गजा पाइसा, नगला पाइसा, शीतला पाइसा, कुत्स पाइसा, छौंका पाइसा) नामों से प्रसिद्ध हैं ध्यान देने की बात हे कि पाइसा शब्द का प्रयोग भारत के और किसी भी स्थान में कही भी प्रयुक्त नहीं है।
दक्ष यज्ञ- प्रजापति दक्ष ने अनेक बहु दक्षिणा युक्त यज्ञ किये। इनमें वह यज्ञ सर्वाधिक विख्यात है जिसमें इनका कन्या सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राणों की आहुति दी तथा भगवान यछ्र के गण रूप से वीरभद्र द्वारा देवों और ऋषियों का महाप्रतारण हुआ। पुराणों के अनुसार महात्मा दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्यायें हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर होने से महान गौरव पद को प्राप्त हुए।
उन्होंने स्वाहा पुत्री अग्निदेव प्रमथ माथुर को दी जिससे वे माथुरों के गोत्रकार बनकर मातामह बने। उन्होंने स्वधा नाम की पुत्री पितगों को दौं अत: पितृगण भी उनकी जामाता बनकर श्राद्धों में आदर पाते रहे। उनको उबसे छोटी स्नेहमयी लाडली पुत्री सती थी जो त्र्यंवक रूद्रदेव को ब्याही गयी। इतने प्रधान देवों का पितृ तुल्य श्वसुर पदधारी होने से दक्ष को महाअभियान हो गया। एक वार ब्रह्माजी की सभा (ब्रह्म कुण्ड गोवर्धन शिखर) पर उनके पहुँचने पर सभी देवों ने उन्हें नमन और अभ्युत्थान दिया परन्तु भगवान रूद्र गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे इससे उन्होंने रूद्र द्वारा अपना अपमान किया जाना अनुभव किया और प्रतिकार रूप में एक विशाल यज्ञमूर्ति प्रभविष्णु की अर्चना युक्त जो अष्टभुज धारी महाविष्णु थे एक यज्ञ का आयोजन मथुरा में यमुना तट पर कनखल तीर्थ में आयोजन किया।
 इस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अहंकारवश रूद्र को आमन्त्रित नहीं करते हुए यज्ञवेदी पर उनका देव आसन भी नहीं स्थापित किया। देवी सती यज्ञ में बिना बुलाये ही माता पिता के स्नेह से आतुर होकर पधारीं और यज्ञ मण्डप में भगवान रूद्र का आसग न देख महाक्षुब्ध होकर यज्ञाग्नि के विशाल कुण्ड में दलांग लगाकर आत्माहुति दे दी। तब रूद्र भगवान की भृकुटी भंग से उनके गण वीरभद्र (भील सरदार) ने भूत सेना लेकर यज्ञ का विध्वंश किया जिसमें पूषा, भग, भृगु आदि सभासद ताड़ित और दण्डित हुए और अन्त में शिरच्छेद के बाद अजामुख दक्ष भगवान रूद्र कों शरणागत हुआ। भगवान रूद्र की यह एतिहासिक घटना 9358 वि0पू0 की है तथा ब्रह्मर्षि देश के मथुरा सूरसेनपुर में घटित हुई । विद्वान मूल तथ्यों से भटक जाने के कारण हरिद्वार इसे या अन्यत्र कहीं खोजते-फिरते हैं जबकि हरिद्वार (गंगाद्वार) भगीरथ के गंगावतरण के समय 4771 वि0पू0 में स्थापित हुआ।
मथुरा में यमुना के तठ पर अभी भी कनखस तीर्थ एक अति पुरत्तन पुराण वर्णित तीर्थ मौजूद है, यही समीप में भगवान रूद्र का त्र्यंवक (तिंदुक) तीर्थ तथा वीरभद्र गणों और मरूतों के युद्ध का स्थल मरूत क्षेत्र (मारू गली) सती मांता का पुरातन मठ (दाऊजी मन्दिर जहाँ क्षुरधारी मरूत ढाल बरवार वारे हनुमान के नाम से स्थित हैं। मथुरा में ही भूतनगर (नगला भूतिया) वीरभद्रेश्वरूद्रदेव , दक्षपुरी छौंका पाइसा तथा उसके निवासी दक्ष गोत्रिय माथुर छौंका वंश (महाक्रोधी , अभिमानी) अभी स्थित हैं। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गयी है।
दक्ष वेद-प्रशस्त देव सम्मानित राजर्षि थें। इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग्0 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरूण किये जाने का कथन ऋग्0 10-143-1 में है। वे दक्ष स्मृति नाम के धर्मशास्त्र के कर्ता है जिसमें आश्रम धर्म , आचार धर्म , आशीच , श्राद्ध, संस्कारों, व्यवहार धर्म तथा सुवर्ण दान के महान्म के प्रकरण कहे गये हैं।
मन्वन्तरों में समयों में सप्तऋषियों में आद्य स्थापना
मानव वंशों को "स्वस्वं चरित्र शिक्षेरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:" का निर्णायक उद्घघोष प्रवर्तित करने वाले स्वायंभू मनुदेव के समय के सप्तऋषियों की धर्मपरिषद में माथुरों के आदि महापुरूषों में दक्ष आदि का प्रमाण है।
1- स्वायंभूमनु का मन्वन्तर काल 9000 वि0पू0 चैत्र शुक्ल 3 के समय उनके सप्तऋषि मण्डल में
1. आँगिरस, 2. अत्रि, 3. क्रतु, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. मरोचि, 7. वशिष्ठ समाहित थे।
इनमें से ब्रतु, पुलस्त्य , पुलह के वंश आसुरी सम्पर्क में आकर ब्रह्मर्षि देश से बाहर उत्तर, पश्चिम भूखण्डों एशिया यूरोप सुदूर दक्षिण आदि में चले गये। आँगिरस (कुत्स) , दक्ष (आत्रेय वंश) मरोचि (कश्यप धौम्यवंश) वशिष्ठ (वेदव्यास वंश) मुरा मण्डल में अनु राजधानी में रहे तथापि देव, दानव, आसुर पोरोहिव्यधारी इन वहिर्गत महर्षियों को भी विश्व संगठन प्रवर्तक मान मनु महाराज ने इन्हें मण्डल बाह्य नहीं किया।
2- स्वारोर्चिष मन्वतर- 9962 वि0पू0 भाद्र पद कृष्ण 3 के प्रवर्तन समय के सप्त ऋषियों में माथुर वंश के भार्गव गोत्रिय और्व तथा आंगिरस वंशज वृहस्पति देव, आत्रेय पुत्र निश्च्यवन अन्य 4 महर्षियों के मण्डल में स्थापित हुए। 3- उत्तम मन्वर - (8530 वि0पू0 पाल्गुन कृष्ण 3 को स्थापित) मन्वतन्र के सप्तऋषि मण्डल के वशिष्ठ वंशों माथुर महर्षि ऊध्ववाहु शुक सदन सुतया आदि सम्मानित हुए थे। 4- तामस मनु क मन्वंतर - (8360 वि0पू0 पौष शुक्ल 1 में) माथुरों का अग्नि (प्रमथ) वंश चैत्र ज्योर्तिधीम धात् आदि सदस्यों के रूप में स्थापित था। 5- रैवत मन्वंतर - (8186 वि0पू0 आषाढ़ शुक्ल 10) स्थापित में सप्तर्षि मण्डल में माथुर महामुमि वशिष्ठ के वंशज सत्यनेत्र, अर्ध्वबाहु, वेदबाहु, वेदशिरा आदि धर्म प्रवर्तक थे। 6- चाक्षुष मन्वंतर - (7428 वि0पू0 माघ शुक्ल 7) प्रवर्तित के सप्तर्षि मण्डल में भगवान आदि नारायण (गताश्रम नारायण) के अशंभूत्त विराट मत्स्यपति ब्रजमण्डल संस्थापक भगवान विराज, श्रीयमुना जी के पिता विवस्वान सूर्य परिवार के विवस्वंतदेव, सहिणु सुधामा, सुमेधा आदि माथुर मुनीन्द्र लोकधर्म प्रतिपालक रहे। इस मन्वन्तर में ही बैकुण्ठलोक के स्थापक भगवान बैकुण्ठनाथ (बैकुण्ठतीर्थ मथुरा) तथा विरजरूप में प्रभु दीर्घ विस्णु के लोक संस्थापक अवतार हुए। 7- वेवस्वत मन्वंतर - (6379 वि0पू0 श्रावण कृष्ण 8) प्रवर्तित के महाविश्व विस्तृत सप्तऋषि मण्डल में माथुर ब्राह्माणों के पूजनीय पुर्व पुरूष अत्रि (दक्ष गोत्र) , कश्यप (धौम्य पूर्वज) , यमदंग्नि (भार्गव गोत्र) परशुराम अवतार के पिता वशिष्ठ (महर्षि वेदव्यास के पूर्वज ) विश्वामित्र सौश्रवस गोत्र पूर्व पुरूष ) देवपूजित विश्वधर्म के संचालक थे। केवल गौतम महर्षि जो गौतम आश्रम (गोकर्ण) टीला कैलाश) पर रहते थे आंगिरसों से विरोध उत्पन्म हो जाने के कारण भगवान माहेश्वर रूद्र की अनुज्ञा से मथुरा त्याग कर कुवेरबन (वर्तमान वृन्दावन) में (गौतमपारा) बसाकर जाकर रह गये। इनके वंशज गौतम ब्राह्मण अभी भी इस स्थान पर बसते हैं। इन ऋषियों के वंशधर बाद के व्यतीत मन्वन्तरों में सप्तर्षि मण्डलों में भी स्थापिय रहे।
यह भी प्रमाणित तथ्य है कि इन सभी मन्वन्तरों की स्थापना आद्य मनु की पुरी मथुरा सूरसेनपुरी में ही परम्पराबद्ध रूप से होती रहीं और ये ब्रह्मर्षि देश के पवित्र देवक्षेत्र में जहाँ-तहाँ स्थापित ह�� धर्म प्रशासन चलाते रहे। इस प्रकार परम सुनिश्चित सुपुष्ठ इतिहास परम्परा और शास्त्र प्रमाण से माथुर ब्राह्मणों की प्राचीनता और पदगरिमा की प्रशस्त स्थिति स्पष्ट है। अनेक युगों में ऋषियों की उपस्थिति
प्राय: यह शंका उठाई जाती है कि देव और ऋषि एक ही रूप में प्राय: प्रत्येक काल और युग में उपस्थित दीखते हैं जिससे उनकी आयु और जीवन स्थिति में अति असंवद्धता प्रगट होती है। इस सन्दर्भ में शास्त्र पद्धति की एक महत्वपूर्ण बात हमें जान लेनी चाहिये। भारतीय परम्परा के संस्थापकों ने देवों ब्रह्मपुत्र ऋषियों के लिये अजरामर रूप में बने रहने के लिये अमरत्व की एक विशेष प्रक्रिया स्थपित की थी जिसके अनुसार जिन देवों और ऋषि-महार्षियों को त्रिकाल व्याप्त पदों पर प्रितष्ठित किये गये थे उनके वे पद पीठ आसन या गादी नाम से स्थिर थे। ब्रह्मा, इन्द्र , अग्नि, वरूण , कुवेर, यम, सूर्य , चन्द, आदि देव कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु ये प्रतिष्ठा सपद थे। इन पदों पर एक व्यक्ति के पद मुक्त होने से तत्काल पूर्व ही दूसरे पदधारी की प्रतिष्ठा कर दी जाती थी जिससे साधारण प्रजा को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता था कि कौन पदधारी कब बदला। ब्रह्मा, इन्द्र, आदि अनेक हुए हैं इसी प्रकार कश्यप , अत्रि , वशिष्ठ, अंगिरा , नारद, भृगु, दक्ष आदि बहुत से हुए हैं वे सभी अपने पदों पर आसनारूढ या पदारूढ होते रहे हैं। इसी कारण से वेदों-पुराणों में किसी देवता या महर्षि का बृद्धता से लाठी टेककर चलना या उनकी मृत्यु होने का कथन नहीं है। वे प्राय: सामर्थ्यशाली दशा में ही पद मुक्त होकर उत्तर ध्रुव के महाप्रयाण लोक को प्रस्थान कर जाते थे। इस तथ्य का आधुनिक काल में प्रमाण जगद्गुरु शंकराचार्य की पाद पीट है जहां शंकराचार्य देव आदि स्थापना से अभी तक अजर-अमर बने विराजमान हैं। देवों, ऋषियों का प्रत्येक युग में एक उसी नाम से वर्तमान रहने का यही गूढातिगूढ रहस्य है जिसे हमें समझ लेना चाहिये।
दक्ष गोत्र के प्रवर - गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सन्मानित या यशस्वी पुरूष होते हैं वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के में गोत्रकार के अतिरकित और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के तीन प्रवर हैं। 1. आत्रेये 2. गाविष्ठर 3. पूर्वातिथि।
1. आत्रेय - महर्षि अत्रि के पुत्र थे। ये चन्द्र पुत्र अत्रि के छोटे पुत्र थे। महर्षि दक्ष के पुत्र न होने से इन्हें मानस पुत्र बनाया था तथा चन्द्रमा दत्तात्नेय के माह होने पर भी दक्ष वंश में चले जाने से इन्हें अत्रिवंश में नहीं गिना गया। ये वेदज्ञ विपुल यज्ञ कर्ता थे। मंटी ऋषि के के ये शिष्य थे तथा इनने वैत्तरेय संहिता का पद पाठ निर्धारण किया था। इनकी शास्त्रीय रचना आत्नेयी शिक्षा तथा आत्नेयी संहिता है। 2. गाविष्ठर - ये यज्ञ और वेद विद्या के महान आचार्य थे। समाइगय राजेश्वर वभ्रु के यज्ञों को इनने गृत्समद ऋषि के सा सम्पन्न कराये थे। 3. पूर्वातिथि - ये अत्रि कुल के महान आचार्य थे। इनका समय 8758 वि0पू0 है। भारतीय इतिहास काल में दक्ष दो हुए हैं। पहले दक्ष प्रजापति पुत्र दक्ष दूसरे प्राचेतस दक्ष। माथुरों के गोत्रकार प्रथम दक्ष है। दक्षों का वेद ऋग्वेद है। शाखा आश्वलायनी है तथा कुलदेवी महाविद्या देवी है। इनकी 4 अल्ल हैं 1. दक्ष, 2. ककोर, 3. पूरवे, 4. साजने। अल्ल उपजाति या आस्पद को कहते है। मनु ने इसे 'विख्याति' नाम दिया हे। आस्पद का अर्थ है आदर्शपद जो कुल के आदर्श कर्म या स्थान को संकेत करता है। जिस संज्ञा से समूह की लोक के ख्याति होती है उसे आख्यात या आख्या कहा जाता है। अलंकृति सूचक कुल नाम को अल्ह या अल्ल कहते है। दक्ष - ये दक्ष प्रजापति के पदासीन ज्येष्ठ (टीकैत) पुत्रों का वर्ग है। ये अधिक तर द्विजातियों के यज्ञोपवीत, विवाह , यज्ञ, अनुष्ठान आदि संस्कार कराते है। दक्ष ये मूल अल्ल है। 2. ककोर - ये यादवों की कुकुर शाखा के कुलाचार्य थे। इनका पुरा मथुरा में कुकुरपुरी , घाटी ककोरन के नाम से स्थित है। ये यादवों के पुरोहित होने से बड़े समृद्ध और सम्पत्तियों के स्वामी थे। कौंकेरा, ककोरी, कक्कु, कांकरौली, कांकरवार, ककोड़ा इनके विस्तार क्षेत्र थे। इस वंश में महापूजय श्री उजागरदेव जी वामन राजाओं के पुरोहित बड़े चौबेजी थे जो बादशाह अकबर के दरबार में सम्मान पाते थे। 3. पूरवे - ये सम्राट पुरूरवा च्रन्द्रवंशी के पुरोहित कुल में से हैं।
4. साजने या फैंचरे - ये साध्यजनों के पति गन्धर्वराज उपरिचर वसु (फैंचरी ब्रज) के पुरोहित थे। उपरिचर वसु बहुत शक्तिशाली सम्राट था। जिस इन्द्रदेव ने अपना ध्वज (झण्डा) देकर इन्द्र ध्वज पूजन की उत्सव विधि का उपदेश किया था। जिसे गंधारी केतुओं ने सद्दे और अलम के रूप में पूजना और उत्सव में प्रयुक्त तथा रण में फहराना सीखा। उपरिचय मगध देश के जरासंध परिवार का पूर्व पुरूष था तथा मत्स्य देश के राजा सम्स्या और वेद व्यास माता मत्स्यगन्धा सत्यवती भी इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। उसका राज्य गोपाचल क्षेत्र (ग्वालियर) में पिछोर पचाड़ गांग क्षेत्र में था। 5.सोखिया - मीठे वर्ग में यह अल्ल है जो सौंख खेड़ा में शौनक क्षेत्र में बसने से प्रख्यात हुई है। 6. जुनारिया - यह अल्ल अब देखने में नहीं आती है जान्हवी गंगा के प्रवर्तक जन्हु ऋषि (राजा) के प्रशासन क्षेत्र पुण्य क्षेत्र तीर्थों के केन्द्र में निवास करने से यह नाम प्रसिद्ध था जो जान्हवी के लो�� होने के साथ ही अलक्ष हो गया है।
दक्ष का बहुत बड़ा परिवार था। प्रथम दक्ष (9400 वि0पू0) की 16 कन्याओं से प्रजापति ब्रह्मा, ऋग्वेद प्रतिष्ठापक अग्निदेव , पितृदेव तथा सती के पतिदेव रूद्र से प्राय: सभी देवों और ऋषियों के परिवार बढ़े और फंले। दूसरे प्रचेतरा दक्ष (7822 वि0पू0) में इसकी 60 कन्याओं में से ऋषि कश्यप आदि द्वारा सारे विश्व (यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका) के मानव वंश विश्व में विस्तारित हुए। अत: माथुरों का दक्ष वंश सारे संसार की जातियों और भूखण्डों का आद्य जनक और संस्कृति शिक्षक है ऐसा सिद्ध होता है।
कुत्स गोत्र
दक्ष के बाद कुत्स गोत्र सर्वाधिक व्यापक महान और पूजनीय सिद्ध होता है। कुत्स वंश के आद्य पुरूष महर्षि अंगिरा थे। जिनका वेदों पुराणों में सर्वाधिक वर्णन है। अंगिरा और भृगु आद्य अग्नि उत्पादक यज्ञ प्रवर्तक थे, तथा अग्निदेव (प्रमथो) के साथ समस्त विश्व में पर्यटन कर जंगली प्रजाओं को अग्नि का प्रयोग बताकर उन्हें सभ्यता के पथ में आगे बढ़ाने का इनने प्रयास किया था।
कुत्स महर्षि - आंगिरसों के कुल में उत्पन्न हुए थे। कुत्स का समय (6103 वि0पू0) है, तथा इनका मथुरा में आश्रम कुत्स सुपार्श्व श्रंग (कुत्स पाइसा या अपभ्रंश में कुत्ता पाइसा) कहा जाता है। कुत्स आचार शिथिल लोगों की कठोर शब्दों में भर्त्सना (कुत्सा) करते थे।, जो उनकी धर्म दृढ़ता और सावधान मनस्थिति का द्योतक था। इसी से आतंकित होकर प्रताड़ित जन उनके नाम को कुत्स कसे कुत्ता बनाने लगे। महर्षि कुत्स का एक और आश्रम गुजरात में भी था जिसे कुत्सारण्य की जगह ऐसे ही लोग 'कुतियाना गाँव' कहने लगे। कुत्स बड़े स्वरूप वान थे एक बार इन्द्र के महल में सजधज कर जाने पर इन्द्रानी इन्दे पहिचान न सकी क्योंकि ये वज्र धारथ कर इन्द्र के साथ संग्रामों में जाते थे। इन्द्र से इनकी ऐसी मित्रता थी कि एक बार सूर्य देव से इनका विरोध होने पर इन्द्र ने सूर्य के रथ का एक पहिया निकाल लिया तथा दूसरा भी निकाल कर इन्हें दे दिया 2। एक बार घर आने पर कहना न मानकर घर जाने को तैयार इन्द्र को इनने रस्सियों से बाँध लिया।3।। इनके वंशधर कौत्स ने अयोध्या सम्राट रघु (4181 वि0पू0) से अपने गुरु विश्वामित्र के शिष्य बरतन्तु (तेतूरा गाँव मथुरा) को गुरुदक्षिणा देने को 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा माँगी। रघु उस समय महान विश्वजित यज्ञ में सारा कोष दान कर चुके थे। कोषगारपति की सूचना से उद्विन्न हो रघु न कुवेर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। सायंकाल रथ आयुधों से सजवाया, प्रात: ही चढ़ाई करने वाले थे, तभी रात्रि में कुबेर ने स्वर्ण वृष्टि कर राज्य का पूरा कोष स्वर्ग से भर गया है। रघु ने हर्षित होकर कौत्स मुनि से सम्पूर्ण कोष का सुवर्ण ले जाने की प्रार्थना की परन्तु कौत्स ने कहा- "राजन् मैं 14 कोटि से एक कौड़ी भी ज़्यादा नहीं लूंगा। इतना ही तों मुझे गुरुदक्षिणा में देना है" राजा चंकित रह गया और आज्ञानुसार द्रव्य बरतन्तु मुनि के आश्रम में ऊँटों-गाड़ी , बैलों से पहुँचाया। माथुरों का 6000 वर्ष पूर्व असाधारण त्याग का वह एक सर्व पुरातन महान प्रमाण है।
कौत्स मान्धाता के गुरु थे। इनको भगीरथ ने अपनी कन्या दी थी ये बेद मंत्र कर्ता बड़े परिवार के स्वामी थे अत: इनके परिवार के 70 ऋषियों के नाम ऋग्वेद मण्डल में मंडल 1 3,5,810 में उपलब्ध है। इनके पुत्र अंगिरा के अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव, अश्विनौ, उषा , सूर्य रूद्र, रात्रि, सोम, भृगुगण आदि की स्तुति के मन्त्र ऋग्वेद मंडल 1 में है। इससे इनका इन सभी वैदिक देवों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनेक यज्ञों में उपस्थित होना तथा इन देवों से इन्हें प्रभूत दक्षिणा गो, स्वर्ण मिलने का संकेत मिलता है। कुत्स के 12 शिष्यों के मन्त्र ऋग् 5-31 में हैं। वेद वर्णन से ज्ञात होता है कि दस्युभज इनके इन्द्रादि द्वारा सम्मान से कुपित थे, अत: इनके परम मित्र इन्द्र ने इनकी रक्षा के लिये शुष्ण (सुसनेर) कुयव (जावरा) (सापर बड़ौद) वासी दस्युओं को मारकर उनके दुर्ग ध्वस्त किये थे। शत्रुओं द्वारा कूप में डाले गये इनका इन्द्र ने उद्धार किया 3। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कुत्स को वेतसु (तस्सोखर) तुग्र (ताल गाँव) , मधैम (दियानौ मथुरा) नाम के क्षेत्र अर्पण किये थे।
आंगिरस - आंगिरस वंश से इनकी परम्परा निरन्तर चलती है। इनका समय 9400 वि0पू0 चलता है। इनका आश्रम मथुरा में अम्बरीष टीले के सामने स्यायंभूमनु के सरस्वती तटवर्ती विन्दुसरोवर के यमुना तट समीप है जिसे प्राचीन बाराह पुराण के मथुरा महात्म में "आंगिरस तीर्थ लिखा है। प्राचीन ऋषियों में आंगिरसों का महत्व सर्वाधिक है। ये इतने गौरवशाली थे कि सवय नामक इन्द्र स्वयं आकर इन्हें पिता बनाकर इनका पुत्र बनकर इनके घर में रहा था। "अभूदिन्द्र: स्वयं तस्यं तनय: सव्य नामक:। अंगिरावंश वेदों के स्तोत्र पढ़ने में अद्वितीय परिगत थे। इनके स्तोत्र द्वारस्तंभों की तरह स्थिरता युक्त और अचल है। इन्द्र ने अंगिराओं ने (इंगलैड के ब्रात्य ब्रिटिशों के शिक्षकों के ) साथ पणियों (फिनशियनों) द्वारा चुराई गायें (पिनियन पर्वत) पर पायीं। इन्द्र से यह प्रार्थना भी की गयी है। कि - 'हे सर्वशक्तिशाली देव जिन्होंने नौमहीना (नवम्बर) में यज्ञ समाप्त किया है तथा दस महीना (दिसम्बर) में यज्ञ की पूर्ति की हैं, ऐसे सप्त संख्याओं वाले सद्गति पात्र महा मेधावी के सुखकर स्तोत्रों से तुम स्तुत किये गये हो । अंगिराओं ने मन्त्रों द्वारा अग्निदेव (माथुर देव) की स्तुति करके महावली और दृढ अंगों वाले (पानीपत वासी) पणि असुर को मन्त्र वल से नष्ट कर दिया था तथा हम अन्य ऋषियों के लिये द्युलोक (ब्रहमण्डल द्यौसरेस द्यौतानौ) देव क्षेत्र का मार्ग खोल दिया था। अंगिरसों ने इन्द्र के लिये अन्न अर्पित कर, अग्नि ज्वालाओं द्वारा इन्द्र का पूजन और हविदान कर यज्ञ कर्म के प्रधान पुरूषों के रूप अशव गौ तथा बहुत सा द्रव्य प्राप्त किया। अंगिरावंशी अंगिरसों ने मथुरा के भांडीरबन में "आंगिरससत्र" किया जिसमें विष्णु से कल्याण कामना का संकल्प था। इसी सत्र में श्रीकृष्ण बल राम ने अपने सखा भेज कर यज्ञान्न (मधुयुवत पुरोडाश) की याचना की और यज्ञ पत्नियों द्वारा सत्कृत और पूर्ण तृप्त होकर माथुरों की कर्म श्रेष्ठता का बंदन करते हुए इन्हें सदैव घृत पूर्णित और उत्तम भोजनों से सर्वत्र सब युगो में आदरित होने का वरदान दिया।
माथुर ब्राह्मणों के उच्चतिउच्च सदाचार और ज्ञान गौरव के आगे नत मस्तक होकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने आंगिरस प्रवरी घोर अंगिरस महर्षि से उपनिषदों का अध्ययन करके दुर्लभ ब्रह्मा विद्या भी प्राप्ति की जिसका उपयोग उन्होंने "श्री मद् भागवद गीता" में करके विश्व को सर्वोच्च दार्शसिक तत्व चिंतन के पथ पर चलने का दर्शन शास्त्र दिया। आंगिरसों की वैदिक वाणी से उत्पन्न आसुरी वैकृत भाषायें ग्रीस देश की ग्रीक, इगलेंड की आंगिरसी इंगलिश तथा अंगोला की महाबृषो "हवशियों" की भाषा अंगोलियन हैं , जो आंगिरसी शिक्षा के लिये कभी समर्पित थीं। आंगिरसों ने धर्म शास्त्र ग्रन्थ समृतियों का भी प्रवर्तन किया है। आंगिरा ने मथुरा के चित्रकेतु राजा वि0पू0 9332 के मृत पुत्र को जीवितकर ज्ञानोपदेश कराया । आंगरिसों ने स्वर्ग जाने में आदित्यों से स्पर्धा की तब आदित्य पहिले स्वर्ग पहुंच गय आंगिरा 60 वर्ष यज्ञ करने के बाद स्वर्ग पहंचे। आंगिरस पहिले ब्राह्मण थे जिनने सर्व प्रथम वाणी (भाषा) और छंद रचना ज्ञान देवों से प्राप्त दिया। आंगिरसों के परिवारों में गौत्र प्रवर्तक ऋषियों के नाम इस ��्रकार हैं-बृहस्पति भारद्वाज , आश्वलायन, गालव, पैल, कात्यायन, वामदेव, मुद्गल , मार्कड, तैतरेय, शौंग, (शुंग) , पतंजल्लि, दीर्घतमा, शुक्ल, मांधाता , यौवनाश्व , अंवरीष आदि ।
यौवनाश्व प्रवर – कुत्स गोत्र का यौवनाश्व प्रवर युवनाश्व पुत्र चक्रवर्ती सम्राट मांधाता के आत्म समर्पण का द्योतक है। मान्धाता यौवनाश्व का समय 5576 वि0पू0 है। भागवत के कथन से यौवनाश्व मांधाता पुत्र अंवरीष का पुत्र था जो अंगिराओं के शिष्यत्व से क्षातियोपेत ब्राह्मण बने। मांधाता यौवनाश्व चक्रवर्ती सूर्यवंशी सम्राट था और इसका साम्राज्य पश्चिम समुद्र तट कच्छ करांची (दांता राज्य) से पूर्व में जापान द्वीप तक था जो सूर्य उदय और सूर्य अस्त का क्षेत्र था। मथुरा के नमक व्यापार पर एकाधिकार के लिये लवणासुर ने इसका राज्य छीन लिया। यह मथुरा माथुर ब्राह्मणों और माथुरों के आराध्य वाराह देव का परम भक्त था तथा वाराह देव की पूजा इसने सारे भारत वर्ष में फैलायी थी। भरना मथुरा के क्षेत्र वासी महर्षि सौभरि से इसने श्री यमुना महारानी का पंचाग उपासना मार्ग ग्रहण किया और उन्हें अपनी 50 कन्यायें देकर उनका राजवैभव विस्तृत किया। ऋग्वेद में इनका मन्त्र 10-134 पर है।
कुत्स गोत्र का वेद ऋग्वेद शाखा आशवलायनी तथा कुल देवी महाविद्या जी है। कुत्स गोत्र के आस्पद भी बहुत महत्व पूर्ण हैं जो अपनी प्रमाणिक श्रेष्ठता के विस्तार को प्रतिपादित करते हैं।
1. मिहारी - ये सबसे अधिक ज्ञानी गुणी लोक सम्मानित और समाज के सरदार शीर्ष वर्ग में से हैं। यही एक ऐसा वर्ग है जो अपने महा महिमा मंडित आद्य पूर्वज श्री ज्ञान तपो मूर्ति उद्धवाचार्य देव के गुणों का गर्व करता हुआ एक ही उनके 200 से भी अधिक परिवारों में माथुर पुरी के प्रधान केन्द्र स्थान मिहार पुरा में अवस्थित हैं प्रलय में भी नष्ट न होने वाले ब्रज द्युलोक महालोक (महजन तप) महारानौ महरौली के आद्यक्षेत्र से वाराह यज्ञ में उतर कर मथुरापुरी में आकर पूजित होकर स्थापित हुए। नन्द जशोदा तथा ब्रज के गो संस्कृति के अधिष्ठाता गोपों घोषपालों देवों के गोष्ठ रक्षकजनों को नंद मैहैर, मैहेर जसोध, मैहर गोपेशनंद आदि अपने शिष्यतत्व पद देकर तथा प्रख्यात ज्योतिर्बिद विक्रम के नवरत्न शिरोमणि बाराह मिहिर को भी बाद की प्रतिष्ठा से प्ररित किया। महलोंक के ये महामहर्षि प्रजापति दक्ष के पड़ौस में बसकर भी अपना कोई पाइसा न बनाकर दक्ष के कोप से मुक्त तथा दक्ष की प्रतिष्ठा युक्त मेत्री से विभूषित रहे। इन्होने गोप प्रजाओं को सादा पौष्टिक आहार महेरी खाने की सरल "सादाजीवन उच्च विचार मयी" पद्धति देकर सहज स्वाभिमानी बनाया। कहते हैं नंदराय गोपपति ने इन्हीं की सेवा कर आशीर्वाद साधना से पूर्ण पुरूषोत्तम श्री कृष्ण और धीर गंभीर लोक नमरकृत श्री बलराम देव जैसे पुत्र प्राप्त किय�� थे प्रमाण रूप पुरातन "कंस मेला" में दौनों भाई कंस विजय कर इनकहीं की गोद में विराजते विश्राम आरती अंगीकार करते हैं । इनके पुर के समीप वेश्रवण कुवेर का पुर (सरवन पुरा) है तथा रत्न सरोवर तथा स्वर्ण कलशधारी रत्नेश्वर शिव का देवस्थान है। जिसे "सोने का कलसा" वाला देव अभी भी कहा जाता है।
2. शांडिल्य- ये नंद गोपकुल के पुरोहित थे। इनका शाँडिल्य भक्तिसूत्र नारद भक्तिसूत्र के बाद भक्ति सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण बलराम की रक्षा हेतु सदा प्रयत्नशील रहते थे। इनका वंश प्राचीन है। कर्मपुराण के अनुसार थे असित (देवल) के पुत्र 5014 वि0पू0 में विद्यमान थे। महाभारत से इनकी संशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में विद्यमान थे । महाभारत से इनकी वंशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में भी थी। कृष्णकाल में इनका समय 3107 वि0पू0 है। इनका धर्मशास्त्र 'सांडिल्य स्मृति' हैं।
3. अकोर - यह अल्ल प्राय: विलुप्त है। मथुरा के समीप अर्कस्थ अकोस गांव में ये रहते थे। जो अर्क सूर्य का स्थल प्राचीन मथुरा के पंच स्थलों में से था।
4. धोरमई - ये मथुरा के निकट ध्रुवपुरी घौरैरा के वासी थे। धोरवई ध्रुव का अटल पद (अटल्ला चौकी) वर्तमान ब्रन्दावन के निकट है। धुरवा, धुरैरा (रज के ) धुर्रा , धुरपद, गाढी का धुरा, धुरंथर, ध्रुव काल के माथुरी भाषा के शब्द हैं।
5. गुनारे - मथुरा के मधुवन के समीप फाल्गुनतीर्थ पालीखेड़ा तथा फालैन में इनका निवास था। ब्रज के फाल्गुनी यज्ञ (होली) के महीना में ही अर्जुन का जन्म होने पर इन्होंने फाल्गुनी बालक के जन्म का महोत्सव किया था। गुना क्षेत्र ग्वालियर गोपाचल में भी हैं। इनका समय 3110 वि0पू0 के लगभग है।
6. खलहरे - ये यज्ञ कर्म में ब्रीहि यव धान्य उलूखलों मे कूटकर यज्ञहवि प्रस्तुत करते थे। ऐसे उलूखलनंदराय के भी गोकुल में थे जिनमें से एक ऊखल से श्री कृष्ण को माता यशोदा ने बाँधा था तभी से उनका नाम दामोदर पड़ा । महावन में ऊखल बंधन का स्थान अभी है। यहीं यमलार्जुन तीर्थ भी है।
7. मारोठिया - 49 मरूतगणों का प्रदेश मरूधन्व (मारवाड़) प्रसिद्ध है। मरूतों की पुरी मारौठ तथा मरूदगण वंशी (आंधी तूफान के देवता) मारौठिया, मराठा, राठौर प्रसिद्ध हैं ये दक्ष यज्ञ के समय अपने मरूत क्षेत्र (मारू गली) में दक्ष और देव पक्ष की रक्षा हेतु वीरभद्र की भूतसेना से लड़े थे। मारूगली में भी मारू राजा का महल मारू देवता, मारूगण, तीरभद्र वीर प्रतिमां अभी मथुरा में है।
8. सनौरे - ये 12 अदित्यों में पूषन सूर्य के वंशधर हैं। उशीनर देश के राजा शिवि महादानी के ये पुरोहित थे। ब्रज में अपने क्षेत्र चौमां में ये सन (पटसन फुलसन अलसी) कुटवा कर ऋषियां और ब्रह्मचारियों के लिये क्षौममेखला और क्षौमपट कारीगरों से बनवाकर प्रस्तुत करते थे।
9. सौनियां - ये ब्रजसीमा सोनहद के वासी थे। गंधारी शकुनी को शकुन शाऊत्र सगुनौती विद्या सिखाने से तथा सगुन चिरैया द्वारा प्रश्नोत्तर देने से "शाकुने तु बृहस्पति" के प्रमाण से अंगिराओं की विद्या के आचार्य थे सगुनियों से सौनियां नाम पाया । ये मीठों में ही हैं।
10. सद्द - ये सद्द देवों की देवसद या ऋषियों की धर्म परिषद के धर्म निर्णायक सदस्य 'सद्द' हैं। इनकी परिषद् परम्परा मौर्य गुप्तकाल तक स्थापित थी सद्दू पांड़े की वैठक श्री नाथ जी के समय की जतीपुरा में है। वर्हिषद प्रियब्रत वंशी सम्राट की पुरी वहेड़ी उत्तर पाँचाल में अभी वर्तमान है। यहीं प्रियब्रत पुरी पीलीभीत तथा हविर्धान की हविर्धानी हल्द्वानी है इनका ही अपभ्रंश नाम सद्द है।
11. कुसकिया - ये विश्वामित्र के दादा कुशिक के पुर कुशकगली मथुरा के प्राचीन निवासी हैं। ये मीठों में है। कुशिकापुर के लोग पीछे मुसलिम बना लिये गये तथा कुशिकपुर पर मसजिद बना कर कब्जा कर लिया गया। कुशिक के पुत्र गाधि का गाधीपुरा (नया गोकुल के निकट) तथा विश्वामित्र तीर्थ स्वामीघाट मथुरा ही में हैं।
12. सिरोहिया - ये सिरोही राज्य में जाकर आश्रय पाने से सिरोहिया कहे गये। ये भी मीठे वर्ग में हैं। किसी समय सिरोही की तलवारें बहुत नामी होती थीं। असुर असिलोमा के अश्वारोही सैनिक दल की यह प्राचीन पुरी थी।
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