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विदेशी मुद्रा
किसी भी अन्य देश की तरह हमें भी अपने आयात का मूल्य चुकाने के लिए विदेशी मुद्रा की आवश्यकता है। पेट्रोल व डीजल संबंधी हमारी लगभग 80% आवश्यकता आयात से ही पूरी होती है! हमें आयात का मूल्य अमेरिकी डॉलर या अन्य विदेशी मुद्राओं में चुकाना होता है। हालाँकि भारत भी बहुत सी वस्तुओं और आई.टी. जैसी सेवाओं का निर्यात कर डॉलर, यूरो, येन आदि जैसी विदेशी मुद्राएँ अर्जित करता है;
लेकिन यह कुल आयातित बिल की राशि को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
भुगतान शेष—डेफिसिट (घाटा)
विदेशी मुद्रा अर्जित करने के अतिरिक्त हम विदेशी निवेश को आकर्षित करनेवाले देश भी हैं। बहुराष्ट्रीय व विदेशी कंपनियों को हमारे देश में कुछ खास क्षेत्रों में निवेश की अनुमति है। इस तरह वे विदेशी मुद्रा लाते हैं। भारत में उनके सीधे निवेश करने को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफ.डी.आई. कहा जाता है। विदेशी किसी भी देश में केवल तभी निवेश करते हैं, जब उन्हें इनका कोई मूल्य दिखाई देता है। सन् 1991 के बाद भारत अच्छी मात्रा में विदेशी निवेश को आकर्षित कर रहा है। आँकड़े अपनी गवाही खुद देते हैं।
(यदि एक डॉलर 60 रुपए का हो तो 1 अरब डॉलर का मतलब लगभग 6,000 करोड़ रुपए हुआ।)
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देश को लाभ
कृषि और औद्योगिक विकास न होने पर लोगों को उनकी जरूरत की चीजें उचित दाम पर नहीं मिल सकेंगी। वे दिन गए, जब लोगों को कुछ भी पाने के लिए लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी प��़ती थी। मात्र 20-25 साल पहले हमारे देश में लोगों को हर चीज के लिए काफी लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, फिर चाहे वे चावल या गेहूँ जैसी साधारण, लेकिन आवश्यक चीजें ही क्यों न हों। वे भी अपर्याप्त व सीमित हुआ करती थीं। निस्संदेह इसका कारण भी था। लगभग हर दूसरे या तीसरे साल अकाल पड़ता या बाढ़ आया करती। हरित क्रांति के कारण आज अकाल का अस्तित्व केवल इतिहास की पुस्तकों तक है। एक समय ऐसा भी था, जब भारतीय उन अमेरिकी जहाजों की प्रतीक्षा करते थे, जो गेहूँ लेकर आया करते थे। किसी को दोपहिया वाहन खरीदना हो तो वह खरीद सकता था; लेकिन केवल लंब्रेटा (सिर्फ एक ब्रांड) स्कूटर होता था। साथ ही उसे पहले से बुक करवाना होता था। वाहन की डिलीवरी 6 से 12 महीनों बाद होती थी। कार का मतलब सिर्फ एंबेसडर या फिएट होता था। घर बनाने की इच्छा रखनेवालों को बहुत पहले से योजना बनानी होती थी, क्योंकि सीमेंट दुष्प्राप्य था और केवल सरकार ही इसे आवंटित कर सकती थी। यह डीजल की भाँति नियंत्रित उत्पाद था! युवाओं को विवाह से काफी पहले एल.पी.जी. कनेक्शन बुक करवाना होता था, अन्यथा उन्हें केरोसिन स्टोव से काम चलाना पड़ता। एल.पी.जी. कनेक्शन की माँग हमेशा बनी रहती और काले बाजार में यह बहुत महँगा था। सरकार-प्रदत्त दूध का कार्ड भी कुछ अलग नहीं था। संक्षेप में, व्यक्ति को हर चीज की पहले ही से योजना बनाकर कतार में प्रतीक्षा करनी होती थी। आज की तरह तब भी रेलवे का परिचालन केवल सरकार ही करती थी। बहुत से उत्पाद केवल स��कार ही बनाया करती थी। निजी कंपनियों को भी गंभीर रूप से नियंत्रित किया जाता था। भेल (पावर उपकरण), बेल (इलेक्ट्रॉनिक्स), बी.ई.एम.एल. (लोडर्स और डंपर्स), सेल (स्टील), नेल्को (अल्युमिनियम), आई.डी.पी.एल. (दवाइयाँ), ए.ए.वी.आई.एन. (तमिलनाडु में दुग्ध) उत्पादन क्षेत्र की कुछ सरकारी कंपनियों के उदाहरण हैं। हीरो साइकल्स, बाद में हीरो होंडा, केवल साइकिलों का निर्माण करती थी। उत्पादन की मात्रा बढ़ाने के लिए लाइसेंस के रूप में सरकार की अनुमति लेना आवश्यक था। वे प्रतिवर्ष 10,000 से अधिक साइकिलों का निर्माण नहीं कर सकते थे। आज बतौर उपभोक्ता, हमें किसी भी और सब चीजों में विकल्प मौजूद हैं। क्रेडिट कार्ड के माध्यम से व्यक्ति जो चाहे, खरीद सकता है। व्यक्ति को सामान खरीदने के लिए बाहर जाने की भी जरूरत नहीं है। इ-कॉमर्स की बदौलत कार से लेकर घर, फोन आदि हर सामान कभी भी और कहीं भी खरीदा जा सकता है। हर चीज हर समय और कितनी भी मात्रा में हमेशा उपलब्ध है। जनसंख्या में निरंतर वृद्धि के बावजूद ऐसा कैसे संभव हो सका? यह किसने संभव बनाया? क्या सरकार ने और उद्योग आरंभ किए? क्या यह सरकारी समिति आंदोलन के कारण संभव हो सका? हमारी अर्थव्यवस्था में हुए रूपांतरण और वस्तुओं व सेवाओं की आसान उपलब्धता के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव द्वारा आरंभ की गई नई आर्थिक नीति और उससे उत्पन्न उदारीकरण का धन्यवाद। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। उदार आर्थिक नीतियों और विनियंत्रित उद्योगों से बाजार में वस्तुओं व सेवाओं की बाढ़ आ गई। सैकड़ों-हजारों छोटे व मध्यम उद्योगपतियों ने आगे आकर इसे संभव बनाया। वे छोटे और मध्यम उद्योग विकसित होकर विशाल उपक्रमों जितने बड़े हुए। आज भारत में हमारे यहाँ 3,000 से भी अधिक कंपनियाँ सूचीबद्ध हैं। गैर-सूचीबद्ध कंपनियों की संख्या तो और भी अधिक है। कंपनियों का सूचीबद्ध होना केवल शेयर बाजार प्रारूप से ही संभव है। रिलायंस इंडस्ट्रीज, जिसका 50 साल पहले अस्तित्व भी नहीं था, आज भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई है। विक्रय व कुल कारोबार नहीं, बल्कि कर अदायगी के बाद वर्ष 2013-14 के लिए उसका वार्षिक मुनाफा 21,984 करोड़ था। बजाज ऑटो, टेल्को, अशोक लेलैंड और टी.वी.एस. मोटर्स, एम एंड एम आदि के न होने पर आज हमारा परिवहन क्षेत्र कहाँ होता! जरा रैनबैक्सी, डॉ. रेड्डी लैब और सिपला जैसी फार्मा कंपनियों के योगदान की कल्पना कीजिए। आई.टी. क्षेत्र में टी.सी.एस., इन्फोसिस, विप्रो, एच.सी.एल., महिंद्रा एवं सत्यम; रियल एस्टेट में डी.एल.एफ., यूनिटेक और आई.वी.आर.सी.एल.; इन्फ्रास्ट्रक्चर में एल एंड टी, जे.पी. एसोसिएट्स—इन सभी ने भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा बदला है। ये सभी कंपनियाँ न तो सरकार के और न ही निजी स्वामित्व में थीं। इसके मालिक लाखों छोटे निवेशक हैं, जिनकी बचत को संयुक्त कर इसकी इक्विटी कैपिटल बनी। इन्होंने वस्तुओं व सेवाओं का निर्माण करते हुए लोगों की बढ़ती माँगों को पूरा किया। इसे दरशाने के लिए हम वर्ष 2016-17 में भारत में बिके कुछ वाहनों की संख्या देखते हैं।
घरेलू मोटर वाहन बिक्री (2016-17)
यात्री वाहन—37,91,540
व्यावसायिक वाहन—8,10,286
दोपहिया वाहन—1,99,29,485
तीन-पहिया वाहन—7,83,149
कुल 2,53,14,460
स्रोत : सियाम
सिर्फ 12 माह के भीतर 2,53,00,000 से भी अधिक वाहनों का निर्माण व विक्रय हुआ। इससे करोड़ों लोगों को रोजगार मिला। उन सबने राज्य व केंद्र सरकारों को आय कर, बिक्री कर, उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क चुकाया।
सरकारी राजस्व
केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2017-18 (बजट में) के दौरान राजस्व के तौर पर निम्न राशि एकत्रित की।
करोड़ रुपए में
कॉरपोरेट कर 5,38,745
व्यक्तिगत आय कर 4,41,255
धन कर 950
केंद्रीय (केंद्र सरकार) उत्पाद शुल्क 4,06,900 सीमा शुल्क 2,45,000
सेवा कर 2,75,000
गैर कर राजस्व 2,88,757
कुल मिलाकर यह 20 लाख करोड़ से भी अधिक होता है।
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हम संक्षेप में, वित्तीय संपत्ति में हर तरह के निवेश की पड़ताल करेंगे, न कि भौतिक संपत्ति में निवेश की।
वित्तीय संपत्ति शुरुआत के लिए सबसे पहले वित्तीय संपत्तियों की एक सूची बना लेते हैं।
1. जमा
• डाकघर आवर्ती जमा
• बैंक में सावधि/मियादी जमा
• बैंकों में आवर्ती जमा।
2. सरकारी निवेश योजनाएँ
• राष्ट्रीय बचत प्रमाण-पत्र (एन.एस.सी.)
• लोक भविष्य निधि (पी.पी.एफ.)
• किसान विकास पत्र (के.वी.पी.)।
3. ऋण निवेश
• सार्वजनिक क्षेत्र के बॉण्ड (उदा. बिजली वित्त विभाग)
• केंद्र सरकार की प्रतिभूतियाँ
• ट्रेजरी बिल
• राज्य सरकारों के बॉण्ड
• सरकार/कॉरपोरेट द्वारा जारी डिबेंचर (ऋण-पत्र)
• वित्तीय संस्थाओं (आई.एफ.सी.आई., आई.डी.बी.आई. आदि) द्वारा जारी बॉण्ड।
4. म्यूचुअल फंड
• डेब्ट (ऋण) से संबंधित (मूल पूँजी की सुरक्षा हेतु महत्त्वपूर्ण)
• ग्रोथ ओरिएंटिड (निवेशकों के प्रतिफल/ रिटर्न हेतु महत्त्वपूर्ण)
• संतुलित (आंशिक डेब्ट और आंशिक ग्रोथ ओरिएंटिड इक्विटी)।
5. ई.एल.एस.एस
6. शेयर
• इक्विटी शेयर
• प्रिफरेंस शेयर (तरजीह शेयर)
• एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स (ई.टी.एफ.) निवेश शेयर।
7. डेरिवेटिव्ज उत्पाद
• फ्यूचर
• ऑप्शन
• इंडेक्स फंड्स।
8. बीमा
• बंदोबस्ती बीमा पॉलिसी (एंडोवमेंट पॉलिसी)
• संपूर्ण जीवन पॉलिसी
• टर्म इंश्योरेंस पॉलिसी
• मनी बैक पॉलिसी
• यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस योजनाएँ (यू.एल.आई.पी.)
• पेंशन उत्पाद
• बच्चों के लिए पॉलिसी।
��ोई भी व्यक्ति उपर्युक्त सूची में से अपने हालात व जरूरत के मुताबिक किसी को भी चुन सकता है। एक से अधिक विकल्प को चुनना चाहिए और निवेश के अनुपात में समय-समय पर बदलाव करते रहना चाहिए। बल्कि एक संतुलित दृष्टिकोण लेकर चलना चाहिए और विभिन्न राशि विभिन्न योजनाओं में निवेश करनी चाहिए। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को इन सबके बारे में जानकारी होना आवश्यक है।
#sharemarket #investing #investment #businessconsultant #workfromhome
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स्रोत: सिक्योरिटी इंडस्ट्री एंड फाइनेंशियल मार्केट एसोसिएशन (एस.आई.एफ.एम.ए.)
[ध्यान रहे कि प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग (एस.ई.सी.) का नियम 144–ए मान्यताप्राप्त संस्थागत निवेशकों (इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर) को निजी तौर पर प्रस्तुत प्रतिभूतियों पर दो वर्ष की स्वामित्व अवधि (होल्डिंग पीरियड) की आवश्यकता को संशोधित करता है और आपस में अपनी स्थितियों का व्यापार करने की अनुमति प्रदान करता है।]
यह सारणी चौंकानेवाले तथ्य प्रस्तुत ��रती है कि निगमित बॉण्ड बाजार में निवेश श्रेणी की तुलना में उच्च प्रतिफल अनुबंध-पत्रों अर्थात् जंक बॉण्ड का दैनिक औसत कारोबार भले ही मात्रा में कम रहा हो, लेकिन इसके प्रति बाजार का रुझान कुछ अधिक अच्छा ही रहा है। जैसे 2002 से 2008 के बीच निवेश श्रेणी के निगमित अनुबंध-पत्रों का कुल औसत दैनिक कारोबार 12.7 अरब डॉलर से घटकर 9.2 करोड़ डॉलर रह गया था अर्थात् उसमें 3.5 अरब डॉलर की गिरावट आई थी, जबकि इसी अवधि में उच्च प्रतिफल अनुबंध-पत्रों के कारोबार का दैनिक औसत अपने वर्ष 2002 की मात्रा 5.1 अरब डॉलर से नीचे नहीं गया था। लेकिन बाद के आठ वर्षों में यदि निवेश श्रेणी के निगमित अनुबंध-पत्रों के औसत दैनिक कारोबार में वृद्धि हुई थी, तो गैर-निवेश श्रेणी में रहते हुए भी उच्च प्रतिफल अनुबंध-पत्रों के कारोबार में लगातार वृद्धि ही हुई थी। इस दौरान निवेश श्रेणी के औसत दैनिक कारोबार में 9.3 अरब डॉलर की वृद्धि हुई थी, तो उच्च प्रतिफल अनुबंध-पत्रों का कारोबार भी 6.5 अरब डॉलर बढ़ गया था। अब अमेरिकी ऋण बाजार में सार्वजनिक कारोबारवाले उच्च प्रतिफल निगमित अनुबंध-पत्रों के प्रतिनिधि सूचकांक ‘बोफा मेरिल लिंच यू.एस. हाई यील्ड इंडेक्स’ में शामिल ऋण उपकरणों के अंकित मूल्य (फेस वैल्यू) संबंधी सारणी को देखें तो पता चलता है कि 31 जनवरी, 2010 से 31 मार्च, 2016 के बीच, तथाकथित गैर-निवेश श्रेणी या सट्टेबाजी श्रेणी के ‘कबाड़ अनुबंध-पत्रों’ (जंक बॉण्ड) के अंकित मूल्य 840 अरब डॉलर से 1,337.3 अरब डॉलर के स्तर पर पहुँच गए थे। याद रहे कि अंकित मूल्य परिपक्वता अवधि पूरी होने पर जारीकर्ता द्वारा निवेशकों को वापस लौटाए जानेवाली राशि को कहते हैं। हाँ, 31 मार्च, 2016 के बाद, इन ‘जंक बॉण्ड’ के कुल अंकित मूल्य में लगभग 99 अरब डॉलर की गिरावट आई थी, और आगे इस कारोबार के घटने की आशंका भी प्रकट की जाने लगी थी।
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डॉटकॉम बुलबुला : ( Dot Com Bubble )

1990 के दशक में, विशेष रूप से सूचना-प्रौद्योगिकी (इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) क्षेत्र में क्रांतिकारी उन्नति हुई थी, जब इंटरनेट के व्यापक व्यावसायीकरण ने अमेरिकी पूँजी बाजार में ऐतिहासिक विस्तार का नेतृत्व किया था। वैसे तो इंटेल, सिस्को व ओरेकल जैसी कंपनियाँ प्रौद्योगिकी क्षेत्र के आधारभूत विकास को आगे बढ़ा रही थीं, लेकिन इंटरनेट सेवाओं की नई शुरू हुई कंपनियों ने 1995 में अमेरिकी स्वामित्व बाजार में अप्रत्याशित तेजी का वातावरण बनाया था और सस्ते धन, आसान पूँजी, बाजार के अति-आत्मविश्वास व विशुद्ध अटकलबाजियों ने स्वामित्व बाजार के ‘बुलबुले’ में हवा भरनी शुरू कर दी थी। उद्यम-पूँजीपतियों (वेंचर कैपिटलिस्ट) ने जादुई लाभ की आशा में किसी भी ‘डॉटकॉम’ नामवाली कंपनी में अंधाधुंध निवेश शुरू कर दिया था। मूल्यांकन के परंपरागत आधारभूत मानकों को पूरी तरह से अनदेखा कर कंपनियों का मूल्यांकन उसके भविष्य की आय व लाभ पर किया जाने लगा था, जो अगले कई वर्षों बाद संबंधित कंपनियों के व्यवसाय-प्रारूप सफल होने के बाद ही शुरू होनेवाले थे। ऐसे में जिन कंपनियों ने अभी राजस्व व लाभ अर्जित करना शुरू नहीं किया था, कई कंपनियों ने अभी अपने उत्पाद को अंतिम रूप नहीं दिया, वे अपने प्रारंभिक सार्वजनिक प्रस्ताव (इनिशियल पब्लिक ऑफर/आई.पी.ओ.) के साथ स्वामित्व बाजार में आ गई थीं। वर्ष 1999 में, 457 आई.पी.ओ. थे, जिनमें से अधिकांश इंटरनेट व प्रौद्योगिकी से संबंधित थे। उन 457 आई.पी.ओ. में, 117 कारोबार के पहले दिन ही कीमत में दोगुने हो गए थे और स्वामित्व बाजार में उन्माद की स्थिति बनने लगी थी। ऐसे में 1995 से 2000 के बीच सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों के बहुमतवाले स्वामित्व बाजार सूचकांक ‘नैस्डेक कंपोजिट’ 1000 अंकों से उछलकर 5000 अंकों को पार करने लगा था, और 10 मार्च, 2000 को 5048 के अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच गया था। उसके ठीक बाद, डेल व सिस्को जैसी कंपनियों की स्वामित्व हिस्सेदारियों की भारी बिकवाली शुरू हो गई थी, और ‘इंटरनेट बुलबुला’ फूटने का क्रम शुरू हो गया था। भय का वातावरण लगातार गहरा होता चला गया था, और आम निवेशकों ने बिकवाली तेज कर दी थी। परिणाम यह हुआ था कि मार्च से सितंबर 2000 के बीच 280 इंटरनेट सेवा कंपनियों की स्वामित्व हिस्सेदारियों के बाजार मूल्यों में कुल 1755 अरब डॉलर की गिरावट आ गई थी। हालाँकि नैस्डेक की दुर्घटना अमेरिका की 30 सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारोबार का प्रतिनिधित्व करनेवाले स्वामित्व बाजार सूचकांक—डॉव जोन्स इंडस्ट्रियल एवरेज (डी.जे.आई.ए.) पर ��पेक्षाकृत बहुत कम प्रभाव पड़ा था, लेकिन 11 सितंबर, 2011 के आतंकवादी हमले ने समूचे बाजार की कमर तोड़ दी थी। उस हमले में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर परिसर के 110 मंजिलों वाले दोनों भवन ध्वस्त हो गए थे, 2996 लोग मारे गए थे व 6000 से अधिक घायल हुए थे और लगभग 10 अरब डॉलर मूल्य के आधारभूत ढाँचे व संपत्तियों की क्षति हुई थी। इसके कारण 11 से 16 सितंबर तक अमेरिका के सभी स्वामित्व बाजार बंद रहे थे, और जब 17 सितंबर को बाजार खुला तो डी.जे.आई.ए. में 684 अंकों (7.1 प्रतिशत) की ऐतिहासिक एकदिवसीय गिरावट आई थी और यह 8921 अंकों पर बंद हुआ था। फिर सप्ताह के अंत तक डी.जे.आई.ए. ने कुल 1,369.7 अंकों (14.3 प्रतिशत) की ऐतिहासिक साप्ताहिक गिरावट का कीर्तिमान स्थापित किया था, जब तत्कालीन डॉलर मूल्य पर अमेरिकी स्वामित्व बाजारों के मूल्यांकन में लगभग 1,400 अरब डॉलर की क्षति हुई थी। 2001 में 17.35 लाख नौकरियाँ कम हो गई थीं और अमेरिका सहित विश्व की अर्थव्यवस्थाओं में मंदी का वातावरण गहराने लगा था।

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वित्तीय भाषा में, उच्च प्रतिफल अनुबंध-पत्र (हाई यील्ड बॉण्ड) को गैर-निवेश-श्रेणी अनुबंध-पत्र (नॉन-इंवेस्टमेंट ग्रेड बॉण्ड) कहा जाता है, लेकिन पूँजी बाजार में प्रचलित बोलचाल की भाषा में ‘सट्टेबाजी-श्रेणी अनुबंध-पत्र’ (स्पेकुलेटिव बॉण्ड) या ‘कबाड़ अनुबंध-पत्र’ (जंक बॉण्ड) भी कहा जाता है। सैद्धांतिक रूप से यह भी विशेष प्रकार का ऋण उपकरण (डेट इंस्ट्रूमेंट) है, जो उच्चतर गुणवत्तावाले अनुबंध-पत्रों की तुलना में अधिक प्रतिफल देता है, इसीलिए निवेशकों को आकर्षित भी करता है। लेकिन इस प्रकार के अनुबंध-पत्रों में ब्याज-भुगतान-चूक (इंटरेस्ट पेमेंट डिफॉल्ट) के उच्चतर जोखिम के साथ-साथ दिवालिएपन की स्थिति में मूलधन (प्रिंसिपल अमाउंट) के भी डूब जाने, अधोमूल्यन (अंडर वैल्यूएशन) व अन्य साख-संबंधी घटनाओं (क्रेडिट इवेंट) के जोखिम शामिल होते हैं। हालाँकि 1970 के दशक के आरंभ में अमेरिकी स्वामित्व बाजार में इस प्रकार के लगभग दर्जन भर ऋण उपकरण ही प्रस्तुत किए थे, लेकिन फिर भी दूरदर्शी बेंजामिन ग्राहम ने उनमें निवेश के विरुद्ध कड़ी चेतावनी दी थी।
वैसे याद रहे कि हर प्रकार के ऋण उपकरणों में कई प्रकार के जोखिम होते हैं, जिनमें ब्याज दर जोखिम (इंटरेस्ट रेट रिस्क), साख जोखिम (क्रेडिट रिस्क), मुद्रास्फीति जोखिम (इन्फ्लेशनरी रिस्क), मुद्रा जोखिम (करेंसी रिस्क), अवधि जोखिम (ड्यूरेशन रिस्क), उत्तलता जोखिम (कोन्वेक्सिटी रिस्क), मूलधन पुनर्भुगतान जोखिम (प्रिंसिपल रीपेमेंट रिस्क), बहाव-आय जोखिम (स्ट्रीमिंग इनकम रिस्क), तरलता जोखिम (लिक्विडिटी रिस्क), भुगतान-चूक जोखिम (डिफॉल्ट रिस्क), परिपक्वता जोखिम (मैच्योरिटी रिस्क), पुनर्निवेश जोखिम (री-इंवेस्टमेंट रिस्क), बाजार जोखिम (मार्किट रिस्क), राजनीतिक जोखिम (पोलिटिकल रिस्क) व कराधान समायोजन जोखिम (टैक्सेशन एडजस्टमेंट रिस्क) शामिल हो सकते हैं।
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"माध्यमिक ऋण बाजार (सेकेंडरी डेट मार्केट) को व्यापक रूप से दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है—थोक ऋण बाजार (होलसेल डेट मार्केट) व खुदरा ऋण बाजार (रिटेल डेट मार्केट)। थोक ऋण बाजार में बैंक, वित्तीय संस्थाएँ, भारतीय रिजर्व बैंक, बीमा कंपनियाँ, पारस्परिक निधियाँ (म्यूचुअल फंड), निगमित कंपनियाँ व विदेशी संस्थागत निवेशक (फॉरेन इंस्टिट्यूशनल इंवेस्टर/एफ.आई.आई.) कारोबार करते हैं, जबकि खुदरा ऋण बाजार व्यक्ति-विशेष निवेशक, वृत्ति निधियाँ (पेंशन फंड), निजी न्यास (प्राइवेट ट्रस्ट), गैर-साहूकारी वित्तीय संस्थान (नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल इंस्टिट्यूशन/एन.बी.एफ.सी.) व अन्य वैधानिक संस्थाएँ कारोबार करती हैं।"
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