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silencesazish · 2 hours ago
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9 घंटे की नौकरी और 15 घंटे की ज़िंदगी : थकते जिस्म, बुझते सपने
थकान से भरी कमाई
कागज़ पर लिखा है – नौकरी सिर्फ़ 9 घंटे की है।
हकीकत में रोज़ 12 से 15 घंटे का खून-पसीना देना पड़ता है।
महीने के 25–30 दिन ऐसे ही गुजरते हैं।
तनख्वाह आती है – 45 हज़ार।
और महीने के आखिर में जेब में बचते हैं सिर्फ़ 500 रुपये।
खर्च कहाँ उड़ जाता है?
किराया और बिजली का बिल हाथ बाँध लेते हैं।
बच्चों की पढ़ाई और घर की छोटी-छोटी ज़रूरतें कभी रुकती ही नहीं।
दवाइयाँ और रोज़मर्रा का राशन सबसे ज़्यादा चुभते हैं।
कोई शौक़ नहीं, कोई ऐशो-आराम नहीं… फिर भी जेब ख़ाली।
कभी-कभी लगता है जैसे ज़िंदगी मज़ाक बना रही हो।
दिल का बोझ
5 महीने बाद बच्चे का मुंडन संस्कार है।
हर पिता चाहता है कि वो दिन यादगार बने, रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाए, बच्चे के माथे पर हँसी देखे।
लेकिन दिल पूछता है –
“जब जेब ही ख़ाली है तो सपनों को कैसे सजाऊँ?”
हर रात का सवाल
रात को जब बच्चा सो जाता है, तब एक पिता की आँखों में नींद नहीं आती।
सोचता हूँ –
क्या मैं इतना भी नहीं कर पा रहा कि अपने बच्चे के लिए कुछ बचा सकूँ?
क्या मेरी मेहनत सिर्फ़ पेट भरने के लिए रह गई है?
क्या मेरे सपने इतने सस्ते हो गए हैं कि महीने के आखिर में 500 रुपये भी भारी लगने लगे हैं?
सच यही है
महंगाई सैलरी से तेज़ भाग रही है।
ओवरटाइम से तन थक जाता है, लेकिन घर का हिसाब नहीं बदलता।
और बचत… वो तो बस एक सपना बनकर रह गई है।
अब रास्ता क्या है?
हर खर्च का हिसाब लिखना ज़रूरी है।
छोटे-छोटे एक्स्ट्रा काम ढूँढना ही होगा – चाहे weekend पर या किसी दोस्त के साथ।
महीने की शुरुआत में थोड़ा पैसा ज़बरदस्ती अलग रखना होगा।
निचोड़
नौकरी सिर्फ़ तनख्वाह नहीं, उम्मीद भी देती है।
लेकिन जब उम्मीद ही टूटने लगे तो इंसान अंदर से बिखरने लगता है।
आज लाखों परिवार उसी हालात में हैं –
कमाते सब हैं, लेकिन बचा कोई नहीं पाता।
असल दर्द ये नहीं कि पैसे कम हैं… असल दर्द ये है कि मेहनत के बाद भी अपने बच्चों के सपनों के लिए हाथ तंग पड़ जाता है।
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silencesazish · 8 hours ago
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ऑफिस का असली खेल, क्यों मेहनती कर्मचारी भी बन जाते हैं हंसी का पात्र? 
फिस सिर्फ़ काम करने की जगह नहीं, बल्कि रिश्तों और व्यवहार का भी मैदान होता है। लेकिन जब यहाँ राजनीति (Politics) और ग्रुपिज़्म हावी हो जाए, तो मेहनती लोग धीरे-धीरे हाशिए पर चले जाते हैं। असली टैलेंट को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है और आगे बढ़ जाते हैं वही लोग जो राजनीति और ग्रुपबाज़ी के खेल में माहिर होते हैं।
समस्या
ग्रुपिज़्म (Groupism) – ऑफिस में अलग-अलग गुट बन जाते हैं और हर निर्णय पर उन्हीं का दबदबा रहता है।
पॉलिटिक्स का ज़हर – असली मेहनत से ज़्यादा लॉबिंग और राजनीति काम आती है।
मेहनती कर्मचारियों की अनदेखी – जिनके पास काम करने की क्षमता है, वो पीछे रह जाते हैं।
असमान माहौल – ग्रुप से जुड़े लोगों को मौके मिलते हैं, बाकियों को नहीं।
मेरी एक कहानी
मेरी आदत थी कि मैं रोज़ सबसे पहले ऑफिस पहुँचता और सबसे आख़िर में निकलता। काम करना मुझे बोझ नहीं लगता था, बल्कि ज़िम्मेदारी लगता था।
लेकिन मेरी इस आदत पर मेरे कुछ सहकर्मी तंज कसते। हँसते हुए कहते —
“अरे, आप तो ऑफिस के नवरत्नों में से एक हो!”
उनकी ये बातें मज़ाक के लहजे में होती थीं, लेकिन अंदर ही अंदर ये एहसास कराती थीं कि ऑफिस में मेहनत करने की क़द्र नहीं है। यहाँ काम ��े ज़्यादा मायने रखता था — किस ग्रुप का हिस्सा हो और पॉलिटिक्स में कितना माहिर हो।
उस दिन साफ़ हो गया कि ऑफिस में मेहनत नहीं, बल्कि ग्रुपिज़्म और पॉलिटिक्स ही असली पासपोर्ट है तरक्की का।
असर
ऑफिस में भरोसा और पारदर्शिता खत्म हो जाती है।
कर्मचारियों के बीच ईर्ष्या और नफ़रत बढ़ने लगती है।
मेहनती लोग निराश होकर नौकरी बदल देते हैं।
कंपनी का भी नुकसान होता है क्योंकि असली टैलेंट दब जाता है।
समाधान
ग्रुपिज़्म खत्म करना – हर कर्मचारी को बराबर अवसर दिए जाएँ।
राजनीति की रोकथाम – पारदर्शी और निष्पक्ष निर्णय प्रणाली बनाई जाए।
टीमवर्क को बढ़ावा – गुटबाज़ी की बजाय सहयोग की संस्कृति हो।
मेहनत की क़द्र – प्रमोशन और प्रोजेक्ट सिर्फ़ काम की गुणवत्ता पर आधारित हों।
निष्कर्ष
ऑफिस पॉलिटिक्स और ग्रुपिज़्म वो ज़हर हैं जो धीरे-धीरे मेहनती कर्मचारियों का उत्साह मार देते हैं। जहाँ राजनीति और गुटबाज़ी का बोलबाला होता है, वहाँ मेहनत करने वाला इंसान हमेशा पीछे रह जाता है।
याद रखिए — जहाँ पॉलिटिक्स और ग्रुपिज़्म जीतते हैं, वहाँ टैलेंट टिक नहीं पाता।
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silencesazish · 8 hours ago
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“ऑफिस की अदृश्य दीवारें: पॉलिटिक्स और ग्रुपिज़्म”
ऑफिस सिर्फ़ काम करने की जगह नहीं, बल्कि रिश्तों और व्यवहार का भी मैदान होता है। लेकिन जब यहाँ राजनीति (Politics) और ग्रुपिज़्म हावी हो जाए, तो मेहनती लोग धीरे-धीरे हाशिए पर चले जाते हैं। असली टैलेंट को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है और आगे बढ़ जाते हैं वही लोग जो राजनीति और ग्रुपबाज़ी के खेल में माहिर होते हैं।
समस्या
ग्रुपिज़्म (Groupism) – ऑफिस में अलग-अलग गुट बन जाते हैं और हर निर्णय पर उन्हीं का दबदबा रहता है।
पॉलिटिक्स का ज़हर – असली मेहनत से ज़्यादा लॉबिंग और राजनीति काम आती है।
मेहनती कर्मचारियों की अनदेखी – जिनके पास काम करने की क्षमता है, वो पीछे रह जाते हैं।
असमान माहौल – ग्रुप से जुड़े लोगों को मौके मिलते हैं, बाकियों को नहीं।
मेरी एक कहानी
मेरी आदत थी कि मैं अपने काम पर ही ध्यान देता, किसी ग्रुप में शामिल नहीं होता। मुझे लगता था कि ऑफिस में तरक्की का रास्ता सिर्फ़ मेहनत और ईमानदारी है।
लेकिन धीरे-धीरे मैंने देखा कि यहाँ काम से ज़्यादा अहमियत ग्रुप का हिस्सा बनने की है। एक बार मुझे एक प्रोजेक्ट के लिए चुना जाना चाहिए था, क्योंकि उसी क्षेत्र में मेरा अनुभव सबसे ज़्यादा था। पर आख़िरी समय पर प्रोजेक्ट उन लोगों को दे दिया गया जो बॉस के ग्रुप के साथ रहते थे।
उस दिन मुझे पहली बार एहसास हुआ कि यहाँ मेहनत नहीं, बल्कि ग्रुपिज़्म और पॉलिटिक्स ही असली पासपोर्ट है आगे बढ़ने का। उस पल मैंने खुद से पूछा — “क्या ईमानदारी से काम करना ही मेरी सबसे बड़ी गलती है?”
असर
ऑफिस में भरोसा और पारदर्शिता खत्म हो जाती है।
कर्मचारियों के बीच ईर्ष्या और नफ़रत बढ़ने लगती है।
मेहनती लोग निराश होकर नौकरी बदल देते हैं।
कंपनी का भी नुकसान होता है क्योंकि असली टैलेंट दब जाता है।
समाधान
ग्रुपिज़्म खत्म करना – हर कर्मचारी को बराबर अवसर दिए जाएँ।
राजनीति की रोकथाम – पारदर्शी और निष्पक्ष निर्णय प्रणाली बनाई जाए।
टीमवर्क को बढ़ावा – गुटबाज़ी की बजाय सहयोग की संस्कृति हो।
मेहनत की क़द्र – प्रमोशन और प्रोजेक्ट सिर्फ़ काम की गुणवत्ता पर आधारित हों।
निष्कर्ष
ऑफिस पॉलिटिक्स और ग्रुपिज़्म वो ज़हर हैं जो धीरे-धीरे मेहनती कर्मचारियों का उत्साह मार देते हैं। जहाँ राजनीति और गुटबाज़ी का बोलबाला होता है, वहाँ मेहनत करने वाला इंसान हमेशा पीछे रह जाता है।
याद रखिए — जहाँ पॉलिटिक्स और ग्रुपिज़्म जीतते हैं, वहाँ टैलेंट टिक नहीं पाता।
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silencesazish · 8 hours ago
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ऑफिस की सच्चाई: जहाँ मेहनत हार जाती है और चमचागिरी जीत जाती है,
हर इंसान अपने काम के ज़रिये तरक्की करना चाहता है। ऑफिस जाना सिर्फ़ तनख़्वाह कमाने का साधन नहीं होता, बल्कि यह अपने करियर को नई ऊँचाई देने का ज़रिया भी होता है। लेकिन जब ऑफिस कल्चर ऐसा हो जहाँ मेहनत की बजाय चमचागिरी को महत्व दिया जाए और विकास व अवसरों की कमी हो, तो मेहनत करने वाला भी थककर पीछे हटने लगता है।
समस्या
मेहनत का फल न मिलना – कड़ी मेहनत और समर्पण के बावजूद प्रमोशन या नई ज़िम्मेदारी न मिलना।
चमचागिरी का कल्चर – जो बॉस की हर बात पर ताली बजाएँ, वही आगे बढ़ते हैं।
ट्रेनिंग और स्किल डेवलपमेंट का अभाव – कर्मचारियों को नई स्किल सीखने का मौका न देना।
कैरियर ग्रोथ का रास्ता बंद होना – सालों काम करने के बाद भी वही पद और वही स्थिति।
मेरी एक कहानी
मेरी आदत थी कि मैं रोज़ सबसे पहले ऑफिस पहुँचता और सबसे आखिर में निकलता। काम में कोई कमी नहीं छोड़ता था, हर टार्गेट समय से पहले पूरा करता, और नए आइडिया भी देता। मुझे पूरा भरोसा था कि इस बार प्रमोशन लिस्ट में मेरा नाम ज़रूर होगा।
लेकिन जब लिस्ट आई तो उसमें सिर्फ़ उन्हीं लोगों के नाम थे जो बॉस की चमचागिरी करते थे। वो लोग काम भले ही आधा करते, लेकिन हर समय बॉस की तारीफों में डूबे रहते।
उस दिन मुझे पहली बार महसूस हुआ कि यहाँ मेहनत से ज़्यादा अहमियत सिर्फ़ “हाँ में हाँ मिलाने” और चमचागिरी की है। उस पल का दर्द शब्दों में बयां नहीं हो सकता। धीरे-धीरे मेरा उत्साह और भरोसा टूटने लगा।
असर
मेहनती कर्मचारी का आत्मविश्वास खत्म होने लगता है।
ऑफिस का माहौल नकारात्मक और राजनीति-प्रधान हो जाता है।
चमचागिरी करने वाले लोग आगे निकल जाते हैं, और असली टैलेंट पीछे रह जाता है।
कंपनी का भी नुकसान होता है, क्योंकि अच्छे कर्मचारी टिकते नहीं।
समाधान
पारदर्शिता (Transparency) – प्रमोशन और अवसर सबके लिए बराबरी से तय हों।
मेहनत की क़द्र – चमचागिरी की बजाय काम और परिणाम को महत्व दिया जाए।
ट्रेनिंग और स्किल डेवलपमेंट – कर्मचारियों को आगे बढ़ने का मौका दिया जाए।
सकारात्मक माहौल – राजनीति और ग्रुपबाज़ी की बजाय टीमवर्क को बढ़ावा मिले।
निष्कर्ष
विकास और अवसरों की कमी सिर्फ़ कर्मचारी की समस्या नहीं, बल्कि पूरी संस्था के लिए खतरा है। अगर ऑफिस में चमचागिरी को तरक्की का रास्ता बना दिया जाए, तो मेहनती लोग धीरे-धीरे टूट जाते हैं और संस्था अपना असली टैलेंट खो देती है।
याद रखिए — जहाँ मेहनत की क़द्र नहीं होती और चमचागिरी हावी हो जाती है, वहाँ टैलेंट टिकता नहीं।
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silencesazish · 3 days ago
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आत्मसम्मान खोकर नौकरी करना एक इंसान की कहानी और सीख
Bilkul dost, yeh raha aapke liye poora Hindi blog aapke diye hue topic par:
आत्मसम्मान खोकर नौकरी करना: एक इंसान की कहानी और सीख
परिचय
आजकल हर कोई नौकरी पाने के लिए बहुत संघर्ष करता है। कभी-कभी इंसान अपने आत्मसम्मान को भी पीछे छोड़ देता है, सिर्फ नौकरी बनाए रखने के लिए। यह कहानी ऐसे ही एक इंसान की है, जो रोज़मर्रा के ऑफिस के दबाव और राजनीतिक खेलों में अपने आत्मसम्मान को खोता चला गया।
कहानी
रवि ने हमेशा मेहनत से पढ़ाई की और अच्छा करियर बनाने का सपना देखा। लेकिन पहली नौकरी में उसे जल्दी ही एहसास हुआ कि सिर्फ काम करना ही काफी नहीं है। ऑफिस में कुछ लोग केवल अपने फायदे के लिए काम करते हैं।
रवि को अपने सीनियर्स के unreasonable काम और हर समय खुश रहने की मांगें सहनी पड़ती थीं। कई बार उसे अपनी मर्यादा और आत्मसम्मान को तिलांजलि देनी पड़ी। उसे लगता था, “अगर मैंने इनकी बात नहीं मानी, तो मेरी नौकरी चली जाएगी।”
धीरे-धीरे रवि का आत्मविश्वास टूटने लगा। वह खुश नहीं था, लेकिन बाहर से हमेशा मुस्कुराता रहता था।
सहानुभूति (Sympathy / Emotional Connect)
ऐसे कई लोग हैं जो रवि जैसी स्थिति में हैं। हममें से बहुत लोग कभी न कभी अपने आत्मसम्मान को नौकरी के लिए compromise करते हैं। यह सोचकर कि “काम से कहीं और जाना मुश्किल है,” इंसान अपनी इज्जत को पीछे छोड़ देता है।
कारण (Reason)
आर्थिक दबाव: नौकरी खोने का डर।
ऑफिस की राजनीति: कुछ लोग अपनी ताकत दिखाने के लिए दूसरों का सम्मान कम करते हैं।
प्रतिस्पर्धा: हर कोई सफल होना चाहता है, इसलिए कोई भी compromise कर सकता है।
असर (Impact / Effect)
आत्मसम्मान कम होना और आत्मविश्वास टूटना।
मानसिक दबाव और तनाव बढ़ना।
जीवन और रिश्तों पर नकारात्मक प्रभाव।
समाधान (Solution / How to Cope)
अपनी boundaries निर्धारित करें: कब “ना” कहना है, जानें।
Assertive communication सीखें, ताकि बिना अपमान के अपनी बात रख सकें।
बेहतर अवसर खोजें और अपने कौशल को बढ़ाएं।
Mental health का ध्यान रखें और support network बनाएं।
सीख (Lesson / Moral)
किसी भी नौकरी के लिए अपना आत्मसम्मान मत खोइए। Short-term survival के लिए long-term self-respect को compromise करना सही नहीं है। आपकी इज्जत और आत्मसम्मान ही आपकी सबसे बड़ी ताकत हैं।
समापन (Conclusion)
रवि की कहानी हमें याद दिलाती है कि नौकरी की मजबूरी में भी आत्मसम्मान को प्राथमिकता देना जरूरी है। जीवन में सफलता और सम्मान दोनों चाहिए, लेकिन आत्मसम्मान के बिना कोई भी जीत अधूरी है।
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silencesazish · 3 days ago
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मेरी कहानी – बिखरती ज़िंदगी
1. भूमिका (Introduction)
आज की कॉर्पोरेट दुनिया में इंसान कामयाबी की तलाश में इतना व्यस्त हो गया है कि असली ज़िंदगी कहीं पीछे छूटती जा रही है। पैसा और नाम तो मिल रहा है, लेकिन सुकून और अपनापन धीरे-धीरे हाथ से निकल रहा है।
2. मेरी कहानी (Personal Touch)
मैंने भी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा नौकरी की भागदौड़ में गुज़ारा। सुबह से रात तक ऑफिस, टारगेट्स और मीटिंग्स में ही दिन बीत जाते।
घर लौटकर भी परिवार के साथ बैठने की बजाय लैपटॉप खोलना ज़रूरी लगता था।
धीरे-धीरे बच्चे मुझसे बातें करना कम करने लगे, पत्नी की शिकायतें बढ़ने लगीं और आईने में खुद को देखने पर एक थका हुआ चेहरा ही दिखाई देता।
3. असली समस्या (The Real Problem)
काम और ज़िम्मेदारियों का असंतुलन
रिश्तों को समय न देना
पैसे के पीछे दौड़ते-दौड़ते सुकून खो देना
खुद के लिए वक्त न निकाल पाना
4. असर (Impact on Life)
परिवार से दूरी
अकेलापन और तनाव
मुस्कान का बोझिल हो जाना
जीवन का खालीपन महसूस होना
5. सहानुभूति (Sympathy Angle)
यह सिर्फ मेरी कहानी नहीं है।
आज लाखों लोग इसी दौर से गुज़र रहे हैं।
हर किसी ने कभी न कभी ये सोचा है कि “काश अपने परिवार क�� और समय दे पाता” या “काश इस दौड़ से थोड़ा रुक पाता।”
6. कारण (Reasons Behind the Imbalance)
कॉर्पोरेट संस्कृति का दबाव
काम को प्राथमिकता देकर निजी जीवन को पीछे छोड़ना
समय प्रबंधन की कमी
समाज की अपेक्षाएँ — ज्यादा पैसा और बड़ा पद पाने की चाह
7. समाधान (Solutions / Way Forward)
Time Management: काम और परिवार के बीच स्पष्ट सीमा तय करना
Quality Time: परिवार के साथ कम समय मिले तो भी उसे पूरा ध्यान देकर बिताना
Self-Care: खुद के लिए समय निकालना, शौक और स्वास्थ्य पर ध्यान देना
Communication: परिवार से खुलकर बात करना और रिश्तों को प्राथमिकता देना
Work-Life Balance: पैसा ज़रूरी है, लेकिन सुकून और रिश्ते उससे भी ज़्यादा अहम हैं
8. अंत (Conclusion)
कामयाबी तभी पूरी मानी जाएगी जब उसमें परिवार का साथ और अपनापन हो। वरना पैसा और पद तो बहुत लोग पा लेते हैं, लेकिन असली खुशी वही है जो अपने प्रियजनों के साथ मिलती है।
क्योंकि अगर इंसान ने रिश्तों को खो दिया, तो बचता सिर्फ़ खालीपन है।
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silencesazish · 13 days ago
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“साइलेंट रिज़ाइन: जब लोग काम छोड़ते नहीं, बस दिल से दूर हो जाते हैं’
ऑफिस में कई बार ऐसा होता है कि लोग अपनी डेस्क पर मौजूद होते हैं, मीटिंग में सिर हिलाते हैं, ईमेल रिप्लाई करते हैं… लेकिन अंदर से उनका कनेक्शन क��म से, टीम से, और कंपनी से टूट चुका होता है। इसे ही आजकल कॉर्पोरेट दुनिया में “Silent Resignation” कहा जाने लगा है।
ये resignation बिना इस्तीफ़े के होता है — न HR को मेल, न बॉस को नोटिस। बस चुपचाप दिल से हट जाना। काम उतना ही करना जितना ज़रूरी है, और उससे ज़्यादा नहीं। न नए आइडिया, न एक्स्ट्रा मेहनत, न टीम को inspire करना।
Silent Resignation के कारण
Toxic leadership – जब बॉस केवल गलती निकालने में माहिर हो।
Growth का अभाव – सालों काम करने के ��ाद भी promotion या सीखने के अवसर न मिलना।
Work-life imbalance – जब काम ज़िंदगी को निगलने लगे।
Recognition की कमी – मेहनत के बाद भी “Thank You” तक न सुनना।
क्यों खतरनाक है ये कल्चर? ये माहौल टीम की energy खींच लेता है। एक demotivated इंसान पूरे ग्रुप का मनोबल गिरा सकता है, और कंपनी का overall performance भी प्रभावित होता है।
समाधान
खुली और ईमानदार बातचीत की आदत डालें।
Employee को सिर्फ target से नहीं, इंसान की तरह देखें।
Appreciation culture को बढ़ावा दें।
Growth और learning के मौके दें।
क्योंकि नौकरी में सिर्फ body नहीं, mind और heart भी चाहिए। और जब दिल अलग हो जाए, तो सिर्फ attendance से कंपनी नहीं चलती।
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silencesazish · 14 days ago
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"मीटिंग का जाल: जब चर्चा काम से ज़्यादा खा जाए टाइम"
ऑफिस में मीटिंग्स का मकसद होता है काम की दिशा तय करना, आइडिया शेयर करना और टीम को एक पेज पर लाना। लेकिन जब मीटिंग्स बेवजह लंबी खिंच जाएं, या ऐसे मुद्दों पर हों जिनका काम से सीधा लेना-देना न हो, तो वो प्रोडक्टिविटी का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाती हैं।
समस्या कहां है?
अनावश्यक मीटिंग्स – हर छोटे फैसले के लिए मीटिंग बुलाना।
स्पष्ट एजेंडा का अभाव – मीटिंग में आने से पहले यह पता न होना कि चर्चा किस पर होगी।
टाइम मैनेजमेंट की कमी – तय समय से ज्यादा खींचना और बार-बार विषय बदलना।
असर क्या पड़ता है?
काम का टाइम कम होना – असली काम के लिए समय ही नहीं बचता।
थकान और चिड़चिड़ापन – लंबी मीटिंग्स से एनर्जी ड्रेन होती है।
निर्णय लेने में देरी – फटाफट हल होने वाले मुद्दे भी दिनों तक लटक जाते हैं।
रियल ऑफिस सीन
सौरभ की टीम को एक नए कैंपेन पर काम करना था। मीटिंग रोज़ होती थी, लेकिन 2 घंटे ��ें बस 20 मिनट ही असली काम की बात होती। बाकी समय चाय, मज़ाक और असंबंधित चर्चाओं में निकल जाता। नतीजा—कैंपेन की डेडलाइन मिस।
समाधान
क्लियर एजेंडा – मीटिंग से पहले विषय और लक्ष्य तय करें।
टाइम लिमिट – तय समय से ज्यादा न बढ़ाएं।
ऑनलाइन अपडेट – हर बात के लिए मीटिंग की ज़रूरत नहीं, ईमेल या चैट का इस्तेमाल करें।
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silencesazish · 14 days ago
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"बे-वजह उंगली: ऑफिस में टोकाटाकी का खेल"
ऑफिस में हर कोई चाहता है कि उसका काम पहचाना जाए और माहौल पॉज़िटिव रहे। लेकिन कभी-कभी एक-आध व्यक्ति पूरे माहौल का स्वाद बिगाड़ देता है—और ये होता है बे-वजह उंगली करना।
क्या है ऑफिस में बे-वजह उंगली करना?
आपके काम में छोटी-छोटी गलतियां निकालना, जबकि वो काम की क्वालिटी पर असर न डालती हों।
हर मीटिंग में मामूली बातों पर सवाल उ��ाना, ताकि अपनी मौजूदगी महसूस कराई जा सके।
ऐसे कामों में दखल देना जिनकी ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है।
ऐसा क्यों होता है?
पावर दिखाने की चाह – दूसरों पर कंट्रोल महसूस करना।
असुरक्षा – डर कि उनकी अहमियत कम न हो जाए।
नेगेटिव माइंडसेट – हर चीज़ में कमी देखने की आदत।
टीम और काम पर असर
मोटिवेशन कम होना – कर्मचारियों को लगता है कि उन पर भरोसा नहीं है।
स्पीड स्लो होना – हर छोटी बात पर रुकावट आती है।
टॉक्सिक कल्चर – टीम में आपसी तालमेल टूटने लगता है।
रियल ऑफिस सीन
अजय एक मार्केटिंग टीम में था। हर हफ्ते रिपोर्ट बनाकर मैनेजर को भेजता था। लेकिन एक सीनियर हर बार ईमेल के फॉन्ट, कलर, या लोगो की पोज़िशन पर उंगली उठाता था—कंटेंट कितना अच्छा है, ये कभी नहीं देखा। नतीजा—टीम का टाइम और एनर्जी बेकार की बातों में खर्च, और डेडलाइन पर असर।
समाधान
क्लियर प्रोसेस – काम के नियम और स्टैंडर्ड पहले से तय करें।
फीडबैक का सही समय – हर मिनट टोकने के बजाय रिव्यू मीटिंग में फीडबैक दें।
ट्रस्ट बिल्डिंग – कर्मचारियों को अपने तरीके से काम करने की आज़ादी दें।
ऑफिस में बे-वजह उंगली करना ऐसा है जैसे क्रिकेट में हर गेंद के बाद बैट्समैन से पूछा जाए—"ये शॉट ऐसे क्यों मारा?" नतीजा—खिलाड़ी खेल पर नहीं, सवालों पर ध्यान देने लगेगा।
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silencesazish · 14 days ago
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"हर सांस पर नज़र: माइक्रो-मैनेजमेंट का कड़वा सच"
दफ्तर में आपने अक्सर सुना होगा—"काम ठीक से करो, अपडेट देते रहो, हर स्टेप मुझसे कन्फ़र्म करो।" अगर यह रोज़-रोज़, हर छोटे काम के लिए कहा जाए, तो समझ लीजिए आप माइक्रो-मैनेजमेंट के शिकार हो चुके हैं।
माइक्रो-मैनेजमेंट है क्या?
माइक्रो-मैनेजमेंट तब होता है जब कोई मैनेजर या लीड अपने टीम के हर छोटे-छोटे काम में दखल देता है—चाहे वो जरूरी हो या नहीं।
कब रिपोर्ट बन रही है
ईमेल किस टोन में लिखना है
किस क्लाइंट को पहले कॉल करना है
यहां तक कि किस फाइल का नाम क्या रखना है
क्यों होता है माइक्रो-मैनेजमेंट?
अविश्वास – मैनेजर को लगता है कि टीम बिना उसके बताए कुछ सही नहीं कर पाएगी।
अत्यधिक परफेक्शन की चाह – हर चीज़ 100% अपनी पसंद के हिसाब से चाहिए।
डर – फेल होने या गलती होने का डर, जो ओवर-कंट्रोल में बदल जाता है।
टीम पर असर
क्रिएटिविटी खत्म – जब हर काम पहले से तय हो, तो नए आइडियाज़ मर जाते हैं।
मोटिवेशन गिरना – कर्मचारियों को लगता है कि उन पर भरोसा ही नहीं है।
स्पीड स्लो होना – हर छोटे डिसीजन के लिए बॉस का इंतज़ार करना पड़ता है।
रियल लाइफ उदाहरण
राम एक सॉफ्टवेयर कंपनी में डेवलपर था। उसके मैनेजर को हर 2 घंटे में अपडेट चाहिए होता था—"कोड कितना हुआ? अगला स्टेप क्या है? स्क्रीनशॉट भेजो।" राम का ज्यादातर टाइम असली काम से ज़्यादा रिपोर्टिंग में चला जाता था। नतीजा—डेडलाइन मिस, तनाव बढ़ा और टीम की हिम्मत टूट गई।
समाधान
भरोसा करें – टीम को काम करने की आज़ादी दें।
क्लियर गोल सेट करें – शुरुआत में दिशा तय कर दें, बीच-बीच में सिर्फ ज़रूरी अपडेट लें।
फीडबैक टाइम पर दें – रोज़-रोज़ टोकने के बजाय हफ्ते में एक रिव्यू रखें।
अगर आप टीम को एक मशीन मानेंगे और हर पुर्ज़े पर हाथ रखेंगे, तो मशीन चलेगी ही नहीं। माइक्रो-मैनेजमेंट का इलाज है भरोसा और स्वतंत्रता।
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silencesazish · 16 days ago
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"तनाव से दोस्ती: मानसिक सुकून की कला"
हम सब ज़िंदगी में कभी न कभी तनाव (Stress) से गुजरते हैं। कभी काम का प्रेशर, कभी रिश्तों की खटास, तो कभी भविष्य की चिंता। लेकिन क्या आपने सोचा है, अगर तनाव को दुश्मन की तरह देखने के बजाय दोस्त की तरह अपनाएं, तो ज़िंदगी कितनी आसान हो सकती है?
🤝 तनाव से दोस्ती क्यों?
तनाव हमें यह बताता है कि कहीं कुछ बदलने की ज़रूरत है। ये एक अलार्म है जो कहता है — "रुक जाओ, सोचो, और अपने रास्ते को सही करो।"
🧘 तनाव को दोस्त बनाने के तरीके
सांसों पर ध्यान दें – 5 मिनट डीप ब्रीदिंग करें।
लिख डालिए – जो भी मन में है, डायरी में उतार दें।
हल्की मूवमेंट – टहलना, योग, स्ट्रेचिंग।
ना कहना सीखें – हर काम अपने ऊपर मत लें।
छोटी-छोटी जीत का जश्न मनाएं – खुद को शाबाशी दें।
💡 याद रखिए
तनाव मिटाने की कोशिश मत कीजिए, बल्कि उसे समझने और संभालने की कला सीखिए। जब आप अपने तनाव के कारण को पहचान लेते हैं, तो आधी लड़ाई वहीं जीत जाते हैं।
"Stress को हराने की नहीं, संभालने की कला सीखो…
ज़िंदगी आसान हो जाएगी।"
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silencesazish · 16 days ago
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"ज़िंदगी का तराज़ू: काम और आराम का संतुलन"
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आज के समय में हम सब किसी न किसी दौड़ में लगे हुए हैं — कोई प्रमोशन की, कोई टारगेट की, तो कोई सिर्फ़ अपने घर का चूल्हा जलानेकी। पर इस भागदौड़ में हम अक्सर एक बहुत ज़रूरी चीज़ भूल जाते हैं — खुद की ज़िंदगी जीना।
वर्क-लाइफ़ बैलेंस सिर्फ़ एक मैनेजमेंट का शब्द नहीं है, ये हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की नींव है। जब तराज़ू के एक पलड़े में काम ज़्यादा हो और दूसरे में आराम कम, तो नतीजा सिर्फ़ थकान, तनाव और रिश्तों में दूरी निकलता है।
💼 काम ज़रूरी है, लेकिन…
काम हमारी ज़रूरत पूरी करता है, पहचान देता है, और सपनों तक पहुँचाता है। लेकिन अगर यही काम हमारे पूरे दिन और दिमाग़ पर कब्ज़ा कर ले, तो ज़िंदगी का असली मज़ा खो जाता है।
☕ आराम और रिश्ते भी निवेश हैं
जब हम परिवार के साथ समय बिताते हैं, शौक़ पूरे करते हैं, या बस चुपचाप चाय की प्याली लेकर बैठते हैं, तो हम अपने दिमाग़ और दिल को रिचार्ज कर रहे होते हैं। यह उतना ही ज़रूरी है जितना काम पर जाना।
⚖️ संतुलन कैसे लाएं?
काम के घंटे तय करें और उन्हें मानें
‘ना’ कहना सीखें
वीकेंड सच में वीकेंड बनाएं
हर दिन अपने लिए कम से कम आधा घंटा निकालें
डिजिटल डिटॉक्स अपनाएं
🕰️ याद रखिए
अंत में, कोई भी इंसान अपने ऑफिस की टेबल पर आखिरी सांस नहीं लेना चाहता। हम सब चाहते हैं कि पीछे मुड़कर देखें तो ज़िंदगी में सिर्फ़ काम नहीं, बल्कि खुशियों, रिश्तों और अपने पलों का खज़ाना हो।
अगर चाहो तो मैं इसको सोशल मीडिया पोस्ट के लिए एकदम झकास कैप्शन और हैशटैग के साथ पैक कर सकता हूँ, ताकि इंस्टा-फेसबुक पर सीधा हिट हो जाए।
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silencesazish · 16 days ago
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"जब सहारा छूट जाए… और दिल पर बोझ बढ़ जाए"
कभी-कभी काम में सबसे बड़ा सहारा वो लोग होते हैं जो हर बार हमारे साथ खड़े रहते हैं। लेकिन आज… हालात अलग हैं। सपोर्ट देने वाली टीम कहीं और है, दबाव डालने वाली टीम अलग। हर चीज़ पहले से प्लान्ड है, जगह तय हो चुकी है, प्लान तैयार है, बस उसे अंजाम देने के लिए ज़रूरी हाथ अब साथ नहीं हैं।
ऊपर से बॉस का दबाव — "आज ही तैयार करो… PPT भी भेजो… कर पाओगे या नहीं?" और फिर वो एक लाइन — "मुझे नहीं लग रहा कि तुमसे होगा" — दिल के आर-पार तीर की तरह लग जाती है।
क्योंकि बात स��र्फ काम की नहीं होती… ये भरोसे की बात होती है। और जब भरोसा हिलता है, तो दिल पर बोझ और भी बढ़ जाता है।
लेकिन शायद… यही पल हमें साबित करने का मौका भी देता है। कि हम सिर्फ सपोर्ट पर नहीं, अपनी हिम्मत और हौसले पर भी खड़े हैं।
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silencesazish · 17 days ago
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एक ऐसा पल… जो रिश्ते तोड़ गया ।
कल रात मैंने ठान लिया था कि काम पूरा करके ही चैन की साँस लूंगा। करीब 15 घंटे लगातार मेहनत करता रहा — एक-एक मिनट पर नज़र, क्योंकि कल विज़िट थी और सब पर दबाव था।
मेरे साथ एक हाउसकीपिंग स्टाफ था। मैंने उससे कहा,
“बस एक घंटा और रुक जाओ… आज बहुत ज़रूरी है।”
लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया,
“नहीं सर, मेरा टाइम हो गया है, मैं जा रहा हूँ… नहीं रुक पाऊँगा।”
उस वक़्त एक तरफ़ विज़िट का प्रेशर, और दूसरी तरफ़ उसका यूँ मुंह मोड़ लेना… गुस्से में मेरे मुँह से निकल गया —
“अगर नहीं रुक सकते तो कल से मत आना।”
वो बोला,
“ठीक है सर, नहीं आऊँगा।”
मैंने उसके सुपरवाइज़र को भी कॉल करके कह दिया,
“कल से ये मत आए।”
अगले दिन शाम को वो आया, माफी मांगते हुए… लेकिन मैंने साफ़ कहा,
“अब कुछ नहीं हो सकता। जब तुम मेरे साथ नहीं खड़े हुए, तो मैं तुम्हारे साथ कैसे खड़ा होऊँ?”
वो चला गया… और मैं सोचता रह गया — क्या मैंने सही किया या ग़लत?
सच कहूँ तो, मैं ऐसा इंसान नहीं हूँ जो किसी की नौकरी छीन ले। लेकिन मन में यही सवाल घूम रहा था — अगर उसके लिए ये नौकरी सच में अहम होती, तो वो एक घंटा और रुकता… जैसे मेरे लिए ये विज़िट अहम थी, तो मैंने 9 घंटे के बजाय 15 घंटे काम किया।
कभी-कभी, साथ न मिलना, दिल तोड़ देता है — चाहे वो एक घंटा ही क्यों न हो।
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silencesazish · 17 days ago
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"MBA की डिग्री थामे, किराने की दुकान का खयाल – औरों की नज़रों में शर्म, खुद की नज़रों में सवाल!"
“बाबू साहब का लड़का MBA करके अब किराने की दुकान चला रहा है।” गांव में किसी के कानों में ये बात पड़ जाए, तो जैसे किसी ने चूल्हे में पानी डाल दिया हो।
कभी-कभी सोचता हूं कि कोई बिज़नेस शुरू करूं। किराने की दुकान, कपड़ों की दुकान, कुछ तो ऐसा जिसमें अपना मालिक मैं खुद बनूं। फिर सोचता हूं, लोग क्या कहेंगे? गांव वाले, रिश्तेदार, यहां तक कि अपने घर वाले भी।
MBA किया है, शहर में नौकरी की, और अब गांव आकर दुकान खोल रहा है? क्या फायदा ऐसे पढ़-लिखने का? बिना डिग्री वाला तो पहले से ही यही कर रहा है...
लेकिन कोई ये क्यों नहीं सोचता कि — नौकरी में दम घुटता है। हर दिन अंदर ही अंदर टूटते हैं हम। एक मुस्कान ओढ़े, दिन भर खड़े रहते हैं, और रात को चुपचाप रोते हैं।
घरवालों को बताने जाओ तो कहते हैं — "जैसा चल रहा है, चलने दो। ज्यादा सोचो मत।" अब उनसे कैसे कहूं कि नौकरी अब सिर्फ एक मजबूरी बन गई है। ना मन लग रहा, ना शरीर साथ दे रहा, और ना ही आत्मा ये सब स्वीकार कर रही है।
कभी लगता है सब छोड़कर, कुछ खुद का शुरू करूं। कुछ छोटा, लेकिन इज्ज़त वाला, अपना वाला, सुकून वाला। पर डर लगता है... डिग्री की बेइज़्ज़ती का, सपनों की हत्या का, और अपनों की बेरुखी का।
सवाल ये नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं। सवाल ये है कि जो कर रहा हूं, क्या वो मुझे ज़िंदा रहने दे रहा है?
शायद कोई नहीं समझेगा, शायद हंसेंगे, शायद ताने मारेंगे...
लेकिन एक दिन जब मैं अपने ही बनाए सपनों की दुकान पर पहला ग्राहक देखूंगा,तो सारा ताना, सारी शर्म, और हर ठहाका पीछे छूट जाएगा।
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silencesazish · 17 days ago
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समय निकाला था आज खुद के लिए... और ज़िन्दगी मुस्कुरा दी
मेरी ताक़त भी "dedication" है और मेरी कमज़ोरी भी। काम के प्रति जो समर्पण है, वही मेरा सबसे बड़ा strength है — पर अपने लिए समय ना निकाल पाना, वही मेरा सबसे बड़ा weakness है।
आज पहली बार — ना कोई मीटिंग, ना कोई कॉल... बस खुद के लिए लंच ब्रेक लिया। और घर गया। जब दरवाज़ा खोला — बच्चों की हँसी सुनाई दी, बीवी की मुस्कान दिखी — ऐसा लगा जैसे जैसे पूरी दुनिया की खुशी थाली में परोसी गई हो।
ना जाने कितने दिन बीत चुके थे, जब दिन के उजाले में अपने बच्चों को देखा हो — वरना तो सुबह वो स्कूल चले जाते हैं और मैं सिर्फ उनका बस्ता देख पाता हूं, उनका चेहरा नहीं।
आज का लंच, सिर्फ खाना नहीं था — वो एक टुकड़ा था उस ज़िन्दगी का, जिसे मैं रोज़ मिस करता हूं।
पर सच जानिए — ये रोज़ नहीं होगा... मैं चाहूं भी तो नहीं कर पाऊंगा...
क्योंकि ज़िन्दगी एक रेस है — और मैं उस रेस का वो दौड़ता हुआ हिस्सा हूं जो खुद से मिलने के लिए भी सांस नहीं ले पाता।
और हां, एक बात और है — कहते हैं, "कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती" तो शायद मैं भी अपनी आदतों और अपनी dedication की टेढ़ी लकीर में ही बंधा हूं। काम के लिए, सब के लिए... लेकिन खुद के लिए नहीं।
💬 "जो लंच में मिला आज — वो खाना नहीं, जिंदगी का स्वाद था..."
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silencesazish · 17 days ago
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मैं थका नहीं हूं, मैं टूटा नहीं हूं — बस नींद से बोझिल हूं थोड़ा
तीन दिन से सोया नहीं हूं। ना दिल से, ना जिस्म से... बस चल रहा हूं — जैसे घड़ी की सुई चलती है। आज ऑफिस में काम करते-करते जब आंखें खुद-ब-खुद बंद होने लगीं, तो समझ में आया कि अब शरीर नहीं, आत्मा थक चुकी है।
सुबह इतनी जल्दी निकलना पड़ा कि नाश्ता भी नहीं कर सका। अब शाम हो चुकी है — कुछ खाया नहीं, पर भूख से ज़्यादा नींद सता रही है। ऐसा लग रहा है कि खाना मिले न मिले, बस नींद मिल जाए — तो शायद ये थकी हुई रूह थोड़ी देर को सुकून पा ले।
छुट्टी भी इस हफ्ते पहले ही ले ली थी। बीवी को उसके मायके से लाने गया था — रात को गया, और सुबह ही वापस निकल पड़ा।
रास्ता लंबा था, नींद दूर थी, और जिम्मेदारियां कंधों पर बैठी थीं। उस दिन भी सारी रात जागा रहा, आज चौथा दिन है — नींद अब आंखों से नहीं, शरीर के हर हिस्से से टपक रही है।
और कल फिर एक विज़िट है —जहां चेहरे पर ताज़गी और जोश दिखाना होगा,जबकि अंदर से सिर्फ सन्नाटा है और भारीपन।
मैं रोया नहीं हूं, पर आंखें खुद-ब-खुद भीग जाती हैं।मैं रुका नहीं हूं, पर थकावट कहती है — अब कुछ पल रुक जा।मैं टूटा नहीं हूं, पर हां... नींद और वक्त से हार रहा हूं।
✍️ "हर मुस्कराते चेहरे के पीछे, एक अधूरी नींद की कहानी होती है..."
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