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Dr. Punam Kumari
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drpunamkumari-blog · 6 years ago
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सुबह का शोरगुल और मौत का सन्नाटा
आम दिनों की तरह ही दिख रही थी आज की सुबह भी अलसायी सी उठकर पत्नी लग गई थी घर के कामों में पति के लिए चाय बनाने से लेकर दोपहर तक के कामों की लंबी फेहरिस्त थी उसके हाथों में । चेहरे पर नयी आभा लिए ,
मुस्कुराते हुए उसे पूरा करने में। झटपट तैयार कर लिए उसने , पति की इस आवाज से पहले ही ,‌ ' तैयार है टिफिन मेरा ' ।
मुस्कुराती हुई टिफिन पकड़ाया था
और आंखों में जल्दी लौटने कि उम्मीद लिए
विदा की थी ।
पर हाय रे काल का क्रूर अन्याय ,
घर से निकलते ही अंधेरे कमरे में छिपी खामोश मौत का साया ,
पीछे पीछे हो लिया था उसके ।
घर से चंद कदम भी तो नहीं चल पाया था वो ,
और कब उससे आगे निकल गया मौत का वह साया ,
चुपके से पता ही नहीं चल पाया ।
सुबह के शोर गुल के बीच मौत का सन्नाटा ,
पसर गया उसके जीवन पर ।
नहीं समझ पाई थी उसकी ,
बदहवास पत्नी और उसके बच्चे ।
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drpunamkumari-blog · 6 years ago
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रिश्तों की मिठास में घुलती कड़वाहट ।
२१वीं शताब्दी की ओर हम अग्रसर है। भौतिकता की आंधी में उड़ते हुए हम तथा कथित संपन्नता और सफलता के उच्चतम स्थान पर काबिज है। समाज ऐसे संभ्रांत  लोगों को ईष्या की नजरों से देखता है। कभी कभी उनकी वर्तमान स्थिति से स्वंय की तुलना कर अफसोस भी करते हैं ,पर ऐसे संपन्न लोग रिश्तों नातों से दूर होते लोग वास्तव में संपन्न हैं ? भौतिक सुख उन्हें बेशक प्राप्त है, लेकिन इतना सब होते हुए भी करता वो रिश्तों की गर्माहट  तथा आतिम्यता के कोमल स्पर्श की सुखद अनुभूति वे महसूस करते हैं।              आज से कुछ ही समय पहले की बात है जब गर्मियों की छुट्टियां हुआ करती थी तब बच्चें नाना नानी के घर जाने की जिद करते थे और उनके आने से घर में रौनक आ जाती । घर बच्चों के शोरगुल तथा रिश्तों की मधुर खुशबू से भर उठता। पर आज समाज की एकल पद्धति तथा भौतिकता की दौड़ में सबसे आगे निकल जाने की जिद से हम इन भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को खोते जा रहे हैं।हम सबने अपना एक सीमित दायरा बना लिया है जिसमें बाहरी किसी भी शख्स का चाहे वह कितना भी करीबी क्युं न हो उनका आना उन्हें स्वीकार नहीं। यदि संपन्नता की तराजू में संतुलन नहीं है तो आतिम्यता और रिश्तों की मिठास घटते घटते शून्यांक पर चली जाती है। रिश्तों की मज़बूत डोर चाहे कितनी भी आतिम्य क्यूं न हो भौतिक संपन्नता में आसमान हैं तो रिश्ते वास्तविक मूल्यों और आदर्शों को खोते जा रहे हैं। इसलिए हमें रिश्तों की मिठास को बनाए रखना है। भौतिकता की इस आंधी को रोकना ही होगा। वरना एक दिन ऐसा आएगा जब एक ही परिवार के सदस्य  एक दूसरे से अपरिचित होंगे। पारिवारिक मूल्यों की मर्यादा बहन भाइयों की आतिम्यता समाप्त हो जाएगी। भौतिक संपन्नता हमें सुविधाएं उपलब्�� करातीं है,पर सुकून और संतुष्टि नहीं। हमारे पड़ोस में मिस्टर शर्मा रहते है , मिसेज शर्मा पाश्चात्य सभ्यता और भौतिकता के रंग में डूबी हुई है। घर आए मेहमानों का स्वागत पूरी औपचारिकता के साथ की जाती हैं पर ऊपरी दिखावे और बनावटी पन के साथ , जिसमें अपनत्व और आतिम्यता का नामोनिशान नहीं। जब धीरे धीरे संबंधियों का आना जाना कम हो गया तब उन्हें खालीपन का अहसास हुआ और इसकी पूर्ति के लिए शोशल मिडिया के द्वारा कमेंट और रिप्लाई करके संबंधों को सुधारने का असफल प्रयास करने में लगीं हैं।
 भौतिकता की कुल्हाड़ी रिश्तों के कोमल विरवे को निर्दयता से काट देते हैं और हम उस फल के स्वाद से वंचित रह जाते हैं । रिश्तों की डोर अत्यंत नाजुक होती है। इसमें कडुआहट न आए इसके लिए हमें अपने आपसी मनमुटाव गलतफहमी तथा आरोप प्रत्यारोप  को नजरंदाज करते रहना चाहिए। जहां तक हो सके आत्मिय रिश्तों को संभाल कर सहेज कर रखने का प्रयास करें ताकि हमारे एकाकी जीवन  रंगहीन जीवन में ये रिश्ते रंग भर सकें । हमारे खालीपन को दूर कर सके । हम भौतिक आनन्द उठाते हुए ये भूल जाते हैं कि यदि ज़िंदगी की गाड़ी भौतिकता रूपी पेट्रोल से चलती है तो उसे आकर्षक और सुंदर बनाने का काम में रिश्ते ही करते हैं। ये रिश्ते जहां हमारी सफलता पर मिल कर कहे लगाते हैं प्रशंसा के पुल बांधते हैं वहीं हमारी असफलता पर हमें ढांढ़स भी बंधाते है । निराशा जीवन में आशा का संचार करते हैं। असफलता के कटु अनुभव को मीठे रस में मिलाकर मधुर बनाते हैं। इन भौतिक संसाधनों को पाकर हम फूले नहीं समाते और उसे ही सर्वोपरि मानकर आतिम्य रिश्तों को उपेक्षित करते हैं। ये उपेक्षा यह अनादर जो व्यक्ति झेलता है उसके तिक्त अनुभव को कोई नहीं समझ सकता। भौतिक संपन्नता हमें आंनद प्रदान करती हैं सुखद अहसास कराती हैं , परंतु क्या वह सुख  वह आनंद हमें एकाकी जीवन जीने को विवश नहीं कर रहा ? हम सफलता की सीढ़ी चढ़ते  चलें जातें हैं और एक बार भी पीछे पलटकर नहीं देखते कि इस सफलता को प्राप्त करने में क्या इन आतिम्य लोगों का सहयोग नहीं है? मां बाप बेटे को डॉक्टर इंजीनियर बनाने के लिए क्या क्या त्याग नहीं करते और वही बेटा जब सफल हो  जाता हैं तब इन बुढ़े मां बाप को भाई बहन का त्याग कर देता हैं और आपसी रिश्तों में तनाव आ जाती है ।
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drpunamkumari-blog · 6 years ago
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रिश्तों की मिठास में घुलती कड़वाहट ।
२१वीं शताब्दी की ओर हम अग्रसर है। भौतिकता की आंधी में उड़ते हुए हम तथा कथित संपन्नता और सफलता के उच्चतम स्थान पर काबिज है। समाज ऐसे संभ्रांत  लोगों को ईष्या की नजरों से देखता है। कभी कभी उनकी वर्तमान स्थिति से स्वंय की तुलना कर अफसोस भी करते हैं ,पर ऐसे संपन्न लोग रिश्तों नातों से दूर होते लोग वास्तव में संपन्न हैं ? भौतिक सुख उन्हें बेशक प्राप्त है, लेकिन इतना सब होते हुए भी करता वो रिश्तों की गर्माहट  तथा आतिम्यता के कोमल स्पर्श की सुखद अनुभूति वे महसूस करते हैं।              आज से कुछ ही समय पहले की बात है जब गर्मियों की छुट्टियां हुआ करती थी तब बच्चें नाना नानी के घर जाने की जिद करते थे और उनके आने से घर में रौनक आ जाती । घर बच्चों के शोरगुल तथा रिश्तों की मधुर खुशबू से भर उठता। पर आज समाज की एकल पद्धति तथा भौतिकता की दौड़ में सबसे आगे निकल जाने की जिद से हम इन भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को खोते जा रहे हैं।हम सबने अपना एक सीमित दायरा बना लिया है जिसमें बाहरी किसी भी शख्स का चाहे वह कितना भी करीबी क्युं न हो उनका आना उन्हें स्वीकार नहीं। यदि संपन्नता की तराजू में संतुलन नहीं है तो आतिम्यता और रिश्तों की मिठास घटते घटते शून्यांक पर चली जाती है। रिश्तों की मज़बूत डोर चाहे कितनी भी आतिम्य क्यूं न हो भौतिक संपन्नता में आसमान हैं तो रिश्ते वास्तविक मूल्यों और आदर्शों को खोते जा रहे हैं। इसलिए हमें रिश्तों की मिठास को बनाए रखना है। भौतिकता की इस आंधी को रोकना ही होगा। वरना एक दिन ऐसा आएगा जब एक ही परिवार के सदस्य  एक दूसरे से अपरिचित होंगे। पारिवारिक मूल्यों की मर्यादा बहन भाइयों की आतिम्यता समाप्त हो जाएगी। भौतिक संपन्नता हमें सुविधाएं उपलब्ध करातीं है,पर सुकून और संतुष्टि नहीं। हमारे पड़ोस में मिस्टर शर्मा रहते है , मिसेज शर्मा पाश्चात्य सभ्यता और भौतिकता के रंग में डूबी हुई है। घर आए मेहमानों का स्वागत पूरी औपचारिकता के साथ की जाती हैं पर ऊपरी दिखावे और बनावटी पन के साथ , जिसमें अपनत्व और आतिम्यता का नामोनिशान नहीं। जब धीरे धीरे संबंधियों का आना जाना कम हो गया तब उन्हें खालीपन का अहसास हुआ और इसकी पूर्ति के लिए शोशल मिडिया के द्वारा कमेंट और रिप्लाई करके संबंधों को सुधारने का असफल प्रयास करने में लगीं हैं।
 भौतिकता की कुल्हाड़ी रिश्तों के कोमल विरवे को निर्दयता से काट देते हैं और हम उस फल के स्वाद से वंचित रह जाते हैं । रिश्तों की डोर अत्यंत नाजुक होती है। इसमें कडुआहट न आए इसके लिए हमें अपने आपसी मनमुटाव गलतफहमी तथा आरोप प्रत्यारोप  को नजरंदाज करते रहना चाहिए। जहां तक हो सके आत्मिय रिश्तों को संभाल कर सहेज कर रखने का प्रयास करें ताकि हमारे एकाकी जीवन  रंगहीन जीवन में ये रिश्ते रंग भर सकें । हमारे खालीपन को दूर कर सके । हम भौतिक आनन्द उठाते हुए ये भूल जाते हैं कि यदि ज़िंदगी की गाड़ी भौतिकता रूपी पेट्रोल से चलती है तो उसे आकर्षक और सुंदर बनाने का काम में रिश्ते ही करते हैं। ये रिश्ते जहां हमारी सफलता पर मिल कर कहे लगाते हैं प्रशंसा के पुल बांधते हैं वहीं हमारी असफलता पर हमें ढांढ़स भी बंधाते है । निराशा जीवन में आशा का संचार करते हैं। असफलता के कटु अनुभव को मीठे रस में मिलाकर मधुर बनाते हैं। इन भौतिक संसाधनों को पाकर हम फूले नहीं समाते और उसे ही सर्वोपरि मानकर आतिम्य रिश्तों को उपेक्षित करते हैं। ये उपेक्षा यह अनादर जो व्यक्ति झेलता है उसके तिक्त अनुभव को कोई नहीं समझ सकता। भौतिक संपन्नता हमें आंनद प्रदान करती हैं सुखद अहसास कराती हैं , परंतु क्या वह सुख  वह आनंद हमें एकाकी जीवन जीने को विवश नहीं कर रहा ? हम सफलता की सीढ़ी चढ़ते  चलें जातें हैं और एक बार भी पीछे पलटकर नहीं देखते कि इस सफलता को प्राप्त करने में क्या इन आतिम्य लोगों का सहयोग नहीं है? मां बाप बेटे को डॉक्टर इंजीनियर बनाने के लिए क्या क्या त्याग नहीं करते और वही बेटा जब सफल हो  जाता हैं तब इन बुढ़े मां बाप को भाई बहन का त्��ाग कर देता हैं और आपसी रिश्तों में तनाव आ जाती है ।
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