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जटेपुर- उत्तरी -आयरलैंड
Jatepur Uttari & Northern Ireland
जटेपुर उत्तरी गोरखपुर का एक साइलेंटली नेस्टल्ड (silently nestled) मोहल्ला हुआ।
जब एल पी जी आने में ही थी और उसके आ जाने के काफ़ी बाद तक सुबह शाम की सुलगती सिगड़ियां, जलते कोयले की महक और एक उद्यमशील लोगो के बसने वाली जगह का कौतूहल लिए हुए था जटेपुर।
छोटी लाइन का गोदाम, ट्रेन एवं इंजन यार्ड के साथ साथ nautanwa जाने वाली मीटर गेज और स्��ॉल गेज की रेलवे लाइन इस मोहल्ले के पुराने पड़ोसी रहे।
गोरखपुर में पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्यालय एवं मुख्य यांत्रिकी कारखाने के चलते काफ़ी लोग रेलवे में विभिन्�� प्रकार की नौकरियों में कार्यरत थे।
रेलवे का बड़ा केंद्र होने के नाते टाउनशिप, लाइब्रेरी रेलवे अस्पताल जैसे कई संस्थान गोरखपुर में ना सिर्फ पनपे बल्कि अपने क्षेत्रों में प्रभुता को प्राप्त हुए।
मेरा परिचय गोरखपुर से और इस प्रतापी मोहल्ले से अपने ननिहाल के नाते हुआ।
मेरे नाना जी रेलवे के यांत्रिकी कारखाने में इंजीनियर रहे अभी पेंशनर हैं। जटेपुर में ही घर है, हालांकि अब नए घर में हैं,
पहले जब मैं प्राइमरी स्कूल में रहा उस वक्त घर दूसरा था।
तिमंजिला इन ए वे (in a way) ट्रेन यार्ड एंड छोटी लाइन व्यू के साथ।
भाप का इंजन तब कुछ जगह में प्रयोग में था और इसी यार्ड में आता था धुलाई पुछायी या मरम्मत के लिए।
nautanwa जाने वाली ट्रेन मीटर गेज ट्रैक पे चलती और उसके फाटक पे रुक जाने से नौकरीपेशा लोग उसे कोसते अपने लेट हो जाने पर।
आजकल नैरो या मीटर गेज या भाप का इंजन तो नहीं रहा पर फाटक जनित उलझन अथवा कुढ़न बरकरार है 😊
मैं ये सब सुनता, …….घूमता टहलता, या समोसे लेकर घर लौटते वक्त।
नानी का घर वैसे तो सबके लिए ही एक सिग्नेचर मूल्य लिए हुए रहता है - मेरे लिए वह नानी से स्नेह, ममत्व, खाने का स्वाद, निफ़्रामी की पराकाष्ठा , नानाजी से मैथोडिकल यांत्रिकी, टूल वर्क, व्यवस्था की समझ और मामा जी से इंडक्शन टू एडोलोसेंस इन ए सेफ स्पेस ऑफ़ ए चाइल्ड ( induction to adolescence in the safe space of a child) जैसी भावनाओं में व्यक्त हुआ।
मेरा पेट वैसा आज तक नहीं भरता जैसा नानी के अपने हाथ से खिलाए भरता था। लेकिन मुझे लगता है की वो मेरे साथ ही हैं स्फूर्ति के रूप में, जो मेरे खाना बनाते वक्त मुझमें रहती है।
स्वाद पर तो कोई स्पर्धा में भी कहीं नहीं टिकता।
रेलवे की लाइब्रेरी से मामा एक दिन “द रेलवे रेवोलुशन” नाम की एक निहायती खूबसूरत पिक्चर बुक या कहिए कॉफ़ी टेबल बुक लाए।
मैं गर्मी की छुट्टियों में गोरखपुर उसी तिमंजिला घर में था।
सारी छुट्टियां उस किताब क�� सारे स्टीम लोकोमोटिव और उनके डीजल अथवा इलेक्ट्रिक वंशजों को निहारते हुए मैंने बितायीं - पहली मंजिल के पूजा वाले कमरे के बाहर वाले बिस्तर पे।
Maedb नाम का एक बहुत शक्तिशाली क्लास ३ स्टीम लोकोमोटिव भी था उस किताब में और वो पृष्ठ मुझे अत्यधिक भाता था।
जब भी ट्रेन अथवा इंजन की आवाज़ आती तो भाग के जाया करता था छत पे उस मैजेस्टिक व्यू के लिए।
खड़ा रहता था इंजन या ट्रेन के गुज़र जाने के बाद भी थोड़ी देर । बहुत अच्छा लगता था वहाँ से ट्रेन/ इंजन देखना।
मेरा ट्रेन गुज़र जाने के बाद शून्य में निहारना अक्सर पिंकी मौसी अवरोधित करती थी।
या तो बादलों के चलते अरगनी से कपड़े लेने आतीं या ऊपर वाले किचन स्टोर से कुछ समान लेने।
ट्रेन - लोकोमोटिव - पटरी - उसके बदलना- सिग्नलिंग सिस्टम ये सब बहुत फ़ॉर्मेटिव जिज्ञासाएँ रहीं मेरे बचपन की।
आज जब बेलफास्ट आयरलैंड के अलस्टर म्यूजियम ऑफ़ ट्रांसपोर्टेशन में ख़ुद को पाया तो वापिस वहीं जटेपुर उत्तरी के घर की छत पे पहुँच गया।
नानी की बड़ी याद आई - सिगड़ी की महक एक डिस्टिंक्ट मेमोरी है। 😊
चित्र आभार - प्रिया बडोला
चित्र में लोकोमोटिव 🚂- Maedb है। क्लास ३ स्टीम लोकोमोटिव और आयरलैंड में चलने वाला सबसे शक्तिशाली भाप का इंजन।





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सनीमा
सलीम: क्या ज़िल ए इलाही एक बाग़ी का क़ुसूर मुआफ़ करने आए हैं।
अकबर: ये बदनसीब बाप जिसे दुनिया शहंशाह कहती है, अपने रूठे हुए बेटे को मनाने आया है, उससे मोहब्बत माँगने आया है।
सलीम: बेटे की मोहब्बत बर्बाद करके मोहब्बत माँगने चाहते हैं आप, शहंशाह बाप का भेस बदल के आया है।
अकबर: (रोते हुए) शहंशाह रोया नहीं करते शेखू, बाप की आँखों में आँसू हैं। ये ग़रीब बाप शहंशाह अकबर के उसूलों से मजबूर है।
सलीम: और सलीम अपनी मोहब्बत से।
अकबर: शेखू ! (फफकते हुए ) मोहब्बत दिलों को फ़तह कर सकती है फ़ौजों को नहीं।तुम्हारे जज़्बात शहंशाह की बेपनाह ताक़त का मुक़ाबला नहीं कर सकते ।
सलीम: इसका फ़ैसला जंग करेगी।
अकबर: (सख़्त आवाज़ में) सलीम ।।।।। शहंशाह के फ़ैसले को जंग का इंतेज़ार नहीं। जंग के नक्कारे की पहली चोभ अनारकली की मौत का ऐलान कर देगी ।
सलीम ने ग़ुस्से में तलवार उठा ली
अकबर : (निहत्था) शेखू । इसी दिन के लिए हमने माँगा था तुम्हें ? बेटे की ज़िद अगर बाप के सिर से पूरी होती है तो बाप हाज़िर है। (गर्दन झुकाते हुए)
ये लेख थोड़ा नाटकीय शुरुआत लिए ज़रूर है लेकिन मेरे हिसाब से सामाजिक संरचना और पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते युवा के अंतर्विरोध को समझने में सनीमा की भूमिका को शायद कुछ हद तक समझा पाए। यह ऊपर लिखी पंक्तियाँ मुग़ल ए आज़म फ़ीचर फ़िल्म के आख़िरी समय के अकबर और सलीम की बात चीत की हैं। अनारकली के प्रेम में सलीम अपने पिता से जंग करने पे आमादा थे। वे अपने तंबू में चहलक़दमी कर रहे थे और अकबर जंग के लिए तैय्यार हो रहे थे। जंग शुरू होने से पहले शहंशाह से ऊपर पिता को रख अकबर अपने रूठे हुए बेटे को मनाने गए जहाँ पर ये घटित हुआ।
यहाँ तक बात कॉंटेक्स्ट सेट्टिंग की थी। अब अगर आप क़रीब से देखें तो बग़ावत एक फ़ैशनबल चीज़ है करने के लिए, यह बात बॉलीवुड या सनीमा सन 1960 से ही प्रोपोगेट कर रहा है। अब तकलीफ़ यह है की इस पर सवाल कोई उठाए तो वो पिछड़ा या प्रगतिशील सोच ना रखने वाला कहा जाएगा। इसीलिए प्रसंग से भटके बिना और इंटोलेरेंस का रिस्क लिए बिना खुले दिमाग़ से इसका विश्लेषण करते हैं।
एक पिता बहुत ही अलग क़िस्म का किरदार होता है। मुझे ये भी लगता है की सिर्फ़ इस बात से की कोई एक पिता है, वो एक अलग स्थान पा जाता है। औलाद के दुनिया में आने के समय हर पिता भावनाओं से लिप्त रहता है। उसकी दुनिया बदल रही होती है, उसे ज़िम्मेदारी का और भी ज़्यादा एहसास हो रहा होता है। और वो अभी अपने बच्चे को पूरी नज़र देख भी नहीं पाया होता तब तक या तो मिलने का समय ख़त्म हो जाता है या टी पी ए का फ़ॉर्म भरने जाना होता है या कोई समान लेने जाना होता है या मिलने वालों को अटेंड करना होता है । ऐसा कुछ भी होना ग़लत नहीं है ना हम इन घटनाओं को तोल रहे हैं ।पिता अंदर भावों से परिपूर्ण कई बार आँसू भी आने का प्रयास करते हैं लेकिन भीड़ या काम देख लौट जाते हैं या किसी को बिना पता चले वो पिता अपने रुमाल में उन्हें ठिकाना दे देता है।शायद आँसू उसकी इन मजबूरियों को समझते हैं । आँसुओं से या भावनाओं से उसका रिश्ता गहरा है, शायद तभी आँसू भी ये समझ के की शायद अभी इसे औरों को हिम्मत देनी हो, उसकी पलकों की आड़ में बैठ जाते हैं। छलकना तो दुशवारी हो जाएगी। अब ये जो जीवन का क्रम या घटना का क्रम है ना, वो आपका हमारा निजी है । भाव निजी हैं, उनके संप्रेषण का माध्यम या वो सम्प्रेषित करने ना करने का निर्णय भी निजी है । सनीमा या किसी और को ये हक़ नहीं की इस निजी व्यवस्था में अवरोध या एक अधकचरा सा विचार डाले । उसका निजी हो सकता है ।
सनीमा भी मजबूर मालूम पड़ता है, काहे से की, उसमें बौद्धिक बल इतना नहीं हुआ की वो सही संदेशों के बल पे पैसा कमा ले । जो अटपटा होता है वो झट से बिकता है। अटपटा होना शायद सही ग़लत से ऊपर समझा जाता है। समस्या इस लिए हो जाती है की सनीमा के उपभोग में अलग अलग क़िस्म के लोग अलग अलग क़िस्म के संदेश अपने दिमाग़ में ले जाते हैं। प्रेम में होना कोई ग़लत बात नहीं। लेकिन स्वयं से सवाल ये भी हो की किस क़ीमत पे या किस क़ीमत के लिए या किस हद तक। सनीमा हदें नहीं बताता क्यूँकि वहाँ तो हीरो चाँद ले आने की बात करता है। और जबकि प्रेमियों का एक दूसरे का आकलन इस बात पे भी होना चाहिए की अगर प्यार को अंजाम मिला, शादी ब्याह हुआ तो नियम से लाने वाली चीज़ घर में दूध दही फल सब्ज़ी इत्यादि होंगी, उस लिस्ट में चाँद नहीं होता।
मुग़ल ए आज़म में वो पिता अपने रूठे बेटे को मनाने आया था और उसने कोई अपमानजनक या भड़काऊ बात नहीं कही, वो तो स्नेहिल हो अपने बेटे से बात करने आया था जो कि जंग लड़ने पे आमादा था। जवाब में शेखू तल्ख़ी से ये कहता है की मेरी मोहब्बत बर्बाद कर के मोहब्बत माँगना चाहते हैं आप। ये शर्त लेके तो शेखू भी नहीं पैदा हुए होंगे। अलग अलग सनीमा देखिए ज़्यादातर हर एक में संस्कृति, परम्परा, या बड़े बुज़ुर्गों को अलग ही तरीक़े से पेश किया गया है। ऐसा दिखाया गया है कि वो बिलकुल रूढ़िवादी, खण्डूस और खलनायक नुमा हैं।आपके हमारे घर में ऐसा नहीं है। और हो सकता है कहीं हो भी, पर अगर कोई चीज़ अनुसरणीय नहीं है तो काहे दिखाना । लेकिन अफ़सोस की बात है कि अव्वल सनीमा के पास इल्म कम है, दूसरा समाज में उपभोक्ता जो ख़रीद रहा है, बॉलीवुड वो बना रहा है। पिता के लिए त्याग भी कुछ करना हो तो हँसते खेलते कर दे कोई, उसमें शर्त नहीं होती।
बग़ावत का, हदों से गुज़र जाने का, कोई भी क़ीमत चुका देने का काम परदे पे ही ठीक लगता है और सनीमा के किरदारों की हमारे घरों में उपयोगिता कम है। जितने रुपए की टिकट लगे उसी अनुपात में अपने ज़हन में जगह दे आदमी तो ठीक रहता है। हम लोगों की तनख़्वाह शाह रूख खान जैसे हाथ पसारने या ढिंगा चिका करने से नहीं आती।
सनीमा का ये असर सिर्फ़ माता पिता बड़े बुज़ुर्ग परिवार जैसे आयामों पे ही नहीं बल्कि हर उस आयाम पे है जिससे राष्ट्रीय चरित्र या राष्ट्रीय बल का निर्माण होता है। शिक्षक हो नारी हो चाहे और कोई हो सब को हल्का ही आंकता है इनका विचार। देश को देश के काम आने वाले, घर परिवार को साथ में लेके चल��े वाले कमासुत लोग ज़्यादा चाहिए सनीमा चार काम भी रिलीज़ होगा तो चलेगा।
सनीमा देखने पर कोई गाइडलाइन नहीं तय कर रहे, बस ये कह रहे हैं की सनीमा जो अब तक चीख़ चीख़ के शेखू और अनारकली पे हुए जुर्म की कहानियाँ सुनाता आ रहा है, बस ये देख लीजिए की वो आपके ज़हन में कहीं परिभाषाएँ तो नहीं बदल दे रहा। प्यार की, माँ बाप की, परिवार की, नारी की शिक्षक की या समाज के किसी भी घटक की क्यूँकि सनीमा लगेगा उतरेगा, माँ पिताजी,रिश्ते, जीवन की ज़रूरतें वहीं रहेंगी और सनीमा कहीं नहीं होगा,,,,,,,कोई दूसरा लग गया होगा।
सनीमा का आइ क्यू आपसे बहुत कम है इतना भरोसा मत कीजिए।
याद है ना ,,,,,,उस लिस्ट में चाँद नहीं होता ।
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