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Random
रोज़ एक ‘काश’ के साथ शुरू करते हैं और ‘शायद’ पर आके खत्म कुछ मिजाज़ तुम्हारा भी अलग था कुछ बातें मेरी भी अलग थी कभी तुमने चाहा कि मैं समझ जाऊं कभी मैंने सोचा कि सिर्फ मैं ही क्यों सोचूं कभी यार कि तरह मनाया तुमने कभी बच्चों कि तरह रूठी मैं कभी तुम कुछ ना बोले औरकभी तुम सब समझ गए मेरे कुछ बिना बोले कभी मैंने तुम्हें थामा और कभी तुमने मुझे संभाला और ऐसे ही ये साल हमारा बीत गया…
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मेरे आसमान का रंग कभी नीला नही थाउसमे रोशनी थी सफेदी थीथोड़ी सी लाली थी और बहुत से बादल थेरुई के फाहे से काले सफेद केसरकहीं कहीं सितारे भी छिटके थेऔर ध्यान से देखने पर जुगनू भी दिख जाते थेलोगो ने बताया आसमान नीला ही है तुम्हारा भीलोगों के कहने पर मान लियाएक आंख बंद करके देखने की कोशिश कीपलक कई बार झपका के भी देखापर नीला कहां से है ये न दिखासब बोलते आस पास के देखो कितना नीला है येपर मुझे दिखता तो…
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विदाई
धीरे धीरे सब ठीक हो ही जाता हैहिचकोले खाता पानी भी आगे चलकर शांत हो जाता हैसब पूछते हैं सारा सामान आ गया ना?मैं जवाब में हां पता नहीं क्यों दे ही नही पाती कैसे बताऊं सब सामान नहीं आ रहामेरे कमरे कि गर्माहट जो वापस आते ही मुझे महसूस होती थी उसे कहां रखूं जो इतने सालों से इखट्टा की थी किताबें वो कैसे एक साथ ले जाऊंउन किताबों में जो कहानियां पढ़ी थी वो कैसे एक साथ रख लूंवापस आकर जो मेरे बिस्तर की…
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तुम्हारे लिए
कोई लंबा सा उपन्यास नहींछोटी छोटी सी कहानियां हो तुमबड़ी गंभीर सी बातें नहींहल्के फुल्के से किस्से हो तुम��र्मी से भरा हुआ दिन नहीठंडी सी शाम हो तुमथकान से भरी हुई नींद नहीगुदगुदा सा सपना हो तुम मेरी सोमवार सी ज़िंदगी मेंइतवार से हो तुम…. अचिता
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तुम्हारे लिए पहली कविता
हूं तो मै अब भी वैसी जैसी पहले थीबस…अब रंग देखते वक्त ये सोचती हूं कि तुम पर कौन सा रंग सबसे ज़्यादा फबेगाभीड़ में खड़े-खड़े जब तुम ध्यान आते हो तो मैं यूं ही हंसने लगती हूंआजकल अपनी शाम कि चाय तुम्हारे साथ पीना ज़्यादा पसन्द करती हूंकभी कभी जब अपने बाल अपने कान के पीछे करती हूं तो जाने क्यों अपने आप तुम्हारी उंगलियों याद आ जाती हैंतुम्हारा नाम लेता कोई और है और पलट मैं जाती हूंतुम्हारी नर्म…
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तुम्हारे जाने के बाद कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ाबस मैंने हर शक्स में तुमको ढूंढना अब शुरु कर दिया है….
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मुझे कभी वो लोग समझ नही आते जिनको एक मोड़ पे आके अपना रास्ता मिल जाता हैं… या वो जो भटकते हुए मंज़िल तक पहुँच जाते हैंकैसे ये दूसरा हिस्सा ढूँढ लेते हैं अपनी पहेली का? कैसे इनका खांचा दूसरे में फिट बैठ जाता हैं?मुझसे तो आजतक इनमें से कुछ भी नही हो पाया…एक रास्ता पकड़ती हूँ तो लगता है अरे ��ूसरा वाला ज़्यादा अच्छा था। इसमें तो छाया भी नही, बकवास करने के लिए कोई इनसान भी नही…आधे रास्ते पहुँच के लगता है…
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तुम
तुमएक बेकल सा ख़्याल होमेरी हंसी के बीच जो अचानक याद आ जाता हैऔर मैं यूं ही भीड़ के बीच खो जाती हूंतुममेरा एक अधूरा अफसाना होजिसे मैं अक्सर अकेले में गुनगुनाती हूंऔर हंसते हंसते अंत में रो देती हूं तुममेरी वो अधूरी राह होजिस पर मैं चली तो बहुत उत्साह से थीपर चलते चलते एक अलग ही मोड़ पर मुड़ कर खो गई तुममेरा वो सुबह का अधूरा सपना होजिसका अंत मैं रोज़ रात नया लिखना शुरू करती हूं पर सुबह होते होते…
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बदलाव
हम सोच भी नहीं पातेऔर एक दिन अचानक बदलाव हमारे बगल से होते हुए निकल जाता हैहम बस अनुमान लगाते रह जाते हैऔर वो सब कुछ होता चला जाता है जो हमने बस अभी तक सोचा ही थाअपने नए दिनों में बैठ कर पुराने दिनों को सोचते हैंवर्तमान में चलते हुए अपने भविष्य कि आहट सुनने लगते हैं‘हम’ से हटकर ‘मैं’ पर ध्यान देने लगते हैंअपने अतीत कि कहानियाँ दोहराते हुए माफ़ी मांगने कि तमाम कोशिशें करते हैंकई बार बिना वज़ह…
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कई बार होगाकई दफा होगाजब आपको लगेगा आपने क्यूं किया येक्यूं ना बोल पाए जो बोलना था जब वक़्त थाक्यूं सब जानते हुए भी हम चुप रहे और होने दिया जो हो रहा थाक्यूं हमने ज़ज्बातों कि खिल्ली उड़वायीक्यूं हम सोचते रहे और उलझन पर उलझन बढ़ाते रहेबेवजह बेमतलब बातें इतनी बढ़ाते रहे पर जब ये होगा ठीक ��सी वक़्तहम खोए होंगे और एक फूल खिल चुका होगा उस पौधे में जो तुम लगभग भूल चुके होगेतुम्हारी अधूरी कविता जो एक…
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कई बार होगाकई दफा होगाजब आपको लगेगा आपने क्यूं किया येक्यूं ना बोल पाए जो बोलना था जब वक़्त थाक्यूं सब जानते हुए भी हम चुप रहे और होने दिया जो हो रहा थाक्यूं हमने ज़ज्बातों कि खिल्ली उड़वायीक्यूं हम सोचते रहे और उलझन पर उलझन बढ़ाते रहेपर जब ये होगा ठीक उसी वक़्तएक फूल खिल चुका होगा उस पौधे में जो तुम लगभग भूल गए होगेया एक अधूरी कविता अचानक से पूरी हो जाएगीवो बचपन में पढ़ी हुई कहानी फिर एक रात…
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दिसम्बर
हर बार कि तरह इस बार भी ये लगाअब तक मेरे हाथ में थापर फिर भी ये साल मेरे हाथ से फिसलता जाता हैधीरे-धीरे ठीक जैसे रेत के दानेधीमी रफ़्तार से उँगलियों के बीच सेबस गिरता जा रहा हैइस बार भी बहुत कोशिश किबीता हुआ साल बचा के रखने कीकुछ हिस्सा हर महीने का अपने पास रखने कीमुट्टी बंद कर भीचने कीजितना कस कर बंद करूं उतनी ही तेज़ी से भागताऔर ऐसे ही सारे महीने एक एक करके गिर जातेहर बार कि तरह इस बार भी सिर्फ़…
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एक दिन का किस्सा नहीं है वैसे तुम्हें जाननापर ये किस्सा आजकल मैं रोज दोहराती हूंतुमको समझने चले थेखुद को समझना सीख लियातुमसे बातों का वक़्त चुना थाना जाने वो वक़्त कब मेरा हो गयाख्वाब तुम्हारे देखे थेहकीकत मेरी बन गएरात तुम्हारे लिए लिखी थीमेरी सुबह कि किताब वो बन गईहर बात तुमसे शुरू कि थीना जाने कैसे वो मेरी तरफ मुड़ गईतुमसे तुमको जानना चाहा थाऔर एक दिन यूं ही मैंने खुद को जान लिया
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कुछ खास नहीं था मान करहमने खुद को मना लियाये फिजूल कि बातें हैं कह करहमने दिल को बहला लियाकिसी तरह समझा बुझा केकहानियों से मन हटा लियादुनिया को आखिर दिखा दियाहाँ, हमने आगे बढ़ना सीख लियापर एक सवाल हैना हमने खुद से पूछाना किसी ने हमें सुझायाये बे-फिजूल बातों करकेखास वक़्त ज़या करकेजो हमने सब इकठ्ठा कियाना चाहते हुए भी महसूस कियाअपने लिये रखे वक़्त में भीउनके बारे में ही सोचाऔर कभी कभी तो लंबा…
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दुबारा
किताब पढ़ते वक़्त कुछ पन्नों में निशान लगा देते हैं ताकी पलट कर दुबारा देख सकें।आगे पहुँच जाते है फिर भी पीछे मुड़ के उन पन्नों को पढ़ने का मन करता रहता है। फिर बहुत समय बाद कस के हँसी आती है जब एहसास होता है कि असल में हमें पन्ने-वन्ने में कोई दिलचस्पी नही है हमारी तो आदत ही है ‘आगे बढ़ के पीछे मुड़ना…’
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आज बस और हैकल रात कि दुनिया फिर से नयी बनेगीऔर हमारा पुराना सब कुछ एक नई चादर ओढ़ेहमारा बेसब्री से सुबह में इंतजार कर रहा होगा….
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आदत
एक आदत सी बन गई हैऔर आदतें कभी नहीं छूटतीशायद इसीलिए आज भी मै जाने कैसे तुम्हारे दरवाज़े पर आ के रुक जाती हूँमुझे पता है खुलेगा नही….जंग लगे दरीचे जल्दी खुलते कहांऔर अन्दर से कब से बंद भी हैफिर भी खटखटाती हूंक्यूँ आयी थी मैं…इसका जवाब तो अभी सोचा भी नहीपर कौन से मोड़ से घर तुम्हारा नज़दीक ��ड़ेगा ये अभी भी याद हैऔऱ वो बड़ा सा पेड़ जिसके नीचे मैने पहले जाने कितने बहाने रटे थेजैसे…‘कैसे हो?’‘क्या मुझे…
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