The limitations of philosophy – truth without reality – always and ever counterbalance the limitations of everyday life – reality without truth. (HENRY LEFEBVRE)
Don't wanna be here? Send us removal request.
Text
बहुत दिनों से नज़्म है एक अटकी हुई
मन में कहीं, तो कभी ज़ुबान पर
भटक जाता हूं हर बार, लय पर कभी
अटक जाता हूं मुर्कियों में, या तान पर
बहुत दिनों से पड़ी हुई हैं किताबें
कुछ अनपढ़ी, कुछ अधपढ़ी और
कुछ पर लिख कर रख दिया था नाम बस
खरीद कर हर बार धर देता हूं मचान पर
बहुत दिनों से कुछ परिचय, एकाध रिश्ते हैं
अधूरे, बासी, घेरे हुए है जिनको उदासी
उन्हें झाड़ पोंछ के चमकाने की कोशिश
हर बार नहीं चढ़ पाती परवान पर
बहुत दिनों से कुछ मसले हैं घर परिवार के
जिन्हें टालने की पड़ चुकी आदत, और कभी
जब कदम बढ़े भी तो अटक गई बात हर बार
कुल जमा पूंजी से दोगुने महंगे मकान पर
बहुत दिनों से ये दुनिया वैसी ही है, जैसी थी
बहुत दिनों पहले और बदलने की तमाम कोशिशों के
बावजूद टस से हो के मस नहीं हुई जबकि हर बार
आ ही जाती है बात किसी न किसी की जान पर
अधूरे गीत, किताबें, रिश्ते, चाहतें, मकान, दुकान
महज एक का मुकम्मल होना डाल सकता है
तमाम अधूरी, अधपकी, अधकचरी चीजों में जान
मुअत्तल हैं इंकलाब के सपने इसी मासूम ज्ञान पर।
1 note
·
View note
Text
ढल गया हिज़्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात...
0 notes
Text
Transformation do not happen simply by bringing into the same space bodies who desire change.
The real movement begins when the bodies enter into intense embodied journeys in order to wrestle with incommensurable gaps in lived eperiences and in theoretical and political positions through radical vulnerability.
A necessary component of building situated solidarities across uneven locations, radical vulnerability is inspired by relationships of trust and critical openness that allow for serendipitous and playful co-learming. Yet, this trust and surrender cannot be demanded, nor can such opening up be regarded as a sign of weakness.
Vulnerability becomes radical only when it is becomes a collectively embraced mode in search of the shared creative power it has the potential to enable. This collective creativity- which is never fully attained and always in progress- emerges slowly as we learn to let go of the threads of stories that we have inherited and that have made us, and as those threads get entangled with the words and worlds of our saathis or co-travelers. In such letting go, narratives about our childhoods and our ancestors, our relationships and our losses, our fears and our dreams become collectively owned narratives that enable a hitherto unknown awareness of spatialities and temporalities. Fragments of our journeys reemerge as pangs and evoke new hauntings; they allow us to discover new accents and moves we could not know otherwise; we stumble on unforeseen melodies and languages through which to sing and read our shared fragments within the structures of the sociopolitical, cultural, and affective fields that constitute us relationally.
Radical Vulnerability: Justice, Development, Translation
Richa Nagar, 2021

1 note
·
View note
Text
पिता: पैंतालीसवें का एकालाप
एक दुख खोने का होता है
दूसरा किसी के न होने का
एक और किसी के कभी रहे
होने और किसी अन्य को अभी
अभी खोने से मिलकर बनता है
वर्तमान का खोना उघाड़ देता है
अनहुए अतीत का एक कोना
जहां क्या था नहीं पता बिलकुल भी, और
क्या खोया यह भी नहीं मालूम ठीक ठीक
पर कुछ तो था, कभी, उसका पता लगता है
किसी को खोने से ही, जबकि जो गया
वो वह नहीं जो हुआ रहा होगा कभी, पर
मिला ही नहीं कभी।
साधारण जीवन में साधारण मनुष्यों के दुख भी
साधारण होते हैं
वैसे दुख मुझे छूते नहीं एक तो इसका दुख है,
और दूजे
जो मेरा अपना है वह दुख कम दुख का आवाहन है ज्यादा
सुदूर दो देश-काल को जोड़कर आधा-आधा
साधारण का अभाव और असाधारण का आविष्कार
मेरे अंतर का निरंतर करता रहा है परिष्कार।
तभी तो कई कई रूपों में देखा है
मैंने तुमको कई कई बार
और हर रूप का जोड़कर कुछ न कुछ
सब में से लेकर थोड़ा-थोड़ा उधार
गढ़ा है, पढ़ा है, लिखा है मैंने तुमको
मरता है जब जब कोई रूप
होता है वह तुम्हारा ही प्रतिरूप
तुम्हारे न होने से जन्मना खाली जगह
हो जाती है थोड़ी और विद्रूप।
पिता की याद
प्रतीत्यसमुत्पाद
जीवन एक कमरा
मैं अंधा और कमरे में हाथी
जितना छूता हूं, छूता हूं जहां जहां
कुछ न कुछ पाता हूं वहां
वह गज नहीं गज भर बोध सही
जोड़जाड़ कर उसे बना ही लूंगा
छवि कोई, कोई प्रतिमा उसकी जो
न सही कमरे में पर जीवन में है उतना ही
जितना कोई हाथी।
किसी प्राचीन बौद्ध या जैन कथा
अथवा ऋग्वेद की किसी ऋचा में छुपे
अनेकान्तवाद की एक टहनी हैं पिता
और मैं अनुर्वर, त्रिभंग शालभंजिका
हवा में थामे उनका अनस्तित्व
धरती पर जो मूर्तिमान है उन कुछ लोगों में
जो आसपास बचे हैं मेरे पर जिन्हें खुद
उन्होंने न कभी छुआ, न जाना
सौ सौ लोगों में वे खिलते हैं पर
एक मुझे ही मिलते हैं।
अजीब शय है कि अब
जबकि तय है कि अब
हो चुका निर्णय, नहीं बनना
अपनी संततियों के कष्ट का विषय
नहीं जाएगा रिसकर अगली पीढ़ी तक
तुमसे, तुम्हारे न होने से उपजा
मेरा आत्यंतिक और काल्पनिक दुख
तभी वह और गड़ता है
निरंतर विस्तृत होते भुवन में
तुम्हारा गुरुत्व और बढ़ता है।
पिता, मेरा कमरा अब खाली हो रहा है
सारे हाथी या तो वृद्ध हो गए हैं या पागल
मर रहे हैं सब एक एक कर के
तुम्हारे अभाव को भरने की सुविधा थे जो
या कि मेरे अभावों को टालने का शगल
जो चाहे कह लो, पर उनको खोते जाना और
उसी क्रम में तुम्हारा न से न होते जाना
एक अनिर्वचनीय, कल्पनातीत, निर्भाष्य
निर्वात रचता है
जब कुछ नहीं रह जाता खोने को
तो पाने का ही कौन सा सुख बचता है।
कहा था किसी ब्राह्मण ने आओगे तुम
मेरे अठारवें में, और अड़तीसवें ��क
करता रहा मैं प्रतीक्षा, जबकि
पैंतालीस में पहुंच चुकी अब तितिक्षा
देर कर दी तुमने
कुछ ज्यादा ही देर कर दी।
कमर तोड़ती उम्र और दम तोड़ते कमरे में
एक टेढ़ी कुर्सी के सहारे टिकाकर पीठ
खाली आंखें मीचता हूं
अदेखे को निर्जल सींचता हूं
मरता है हर बार कोई नया
मैं वही पुरानी गठरी बार-बार
फीचता हूं।
4 notes
·
View notes
Text

It's my 8 year anniversary on Tumblr 🥳
0 notes
Text

(The Crisis of Narration, Byung-Chul Han, Polity Press, 2024)
1 note
·
View note
Text
"The extraordinaryness of what we accept as ordinary does not manifest its power over us until we are conscious at the same time of the ordinariness of the extraordinary. A stone on which this coupling breaks we might call a miracle or a holocaust, a departure from and within the ordinary that is not merely extraordinary, but irreversibly traumatic."

Stanley Louis Cavell ( September 1, 1926 – June 19, 2018)
1 note
·
View note
Text
जगहें
यहां आए नौ महीने पूरे हुए
बल्कि दस दिन ज्यादा
इतने में पनप सकता था एक जीवन
बदली जा सकती थी दुनिया
बच सकते थे बचे-खुचे जंगल
लिखी जा सकती थी एक कविता
या कोई उपन्यास, लंबी कहानी
पलट सकती थी सत्ताएं तानाशाहों की
मूर्त हो सकती थीं जिसके रास्ते
कुछ योजनाएं और थोड़ा बहुत लोकमंगल।
जगह बदलने से क्या बदल जाता है
जीवन भी और इतना कि पूर्ववर्ती जगहों
के अभाव में उपजे नए खालीपन से
घुल-मिल कर पुरानी एकरसताएं
नए भ्रम रचती हैं? क्या आदमी
वही रहता है और केवल धरा नचती है
दिशाएं ठगती हैं?
वैसे, हवा इधर बहुत तेज चलती है
लखपत के किले में जैसे हहराकर गोया
फंस गई हो ईंट-पत्थर के परकोटे में
भटकती हुई कहीं और से आकर
जबकि पौधे बदल ही रहे हैं अभी पेड़ों में
जिन पर बसना बोलना सीख रहे
पक्षी सहसा चहचहा उठते हैं भ्रमवश
आधी रात फ्लड लाइट को समझ कर सूरज
और सहसा नींद उचट जाती है
अब जाकर जाना मैंने इतने दिन बाद
ठीक पांच बजे तड़के यहां भी
कहीं से एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई आती है।
जगहें कितनी ही बदलीं मैंने पर
बनी रही मेरी सुबहों में ट्रेन की आवाज
धरती पर अलहदा जगहों को जोड़ती होंगी
शायद कुछ ध्वनियां, छवियां, कोई राज
मसलन, नहीं होती जहां रेल की पटरी
बजती थी वहां भी सुबह एक सीटी
जैसे गाजीपुर या चौबेपुर में पांच बजे ठीक
जबकि इंदिरापुरम में हुआ करता था
और अब शहादरे में भी काफी करीब है
रेलवे स्टेशन तो बनी हुई है
पुरानी लीक।
एक बालकनी है यहां भी
बिलकुल वैसी ही
खड़ा होकर जहां बची हुई दुनिया से
आश्वस्त होना मेरा कायम है आदतन
एक शगल की तरह जब तब
एक मैदान है हरे घास वाला
जैसा वहां था
और उसमें खेलते बच्चे भी
और कभी कभार टहलती हुई औरतें बेढब
दिलाती हैं भरोसा कि हवा कितनी ही
हो जाए संगीन बनी रहेगी उसमें सांस
हम सब की किसी साझे उपक्रम की तरह
उसे कैद करने की साजिशें अपने
उत्कर्ष पर हों जब।
देशकाल में स्थिर यही कुछ छवियां हैं
कुछ ध्वनियां हैं
ट्रेन, बच्चे और औरतें
घास के मैदान, बालकनी और बढ़ते हुए पौधे
ये कहीं नहीं जाते
और हर कहीं चले आते हैं
हमारे साथ याद दिलाते
कि हमारे चले जाने के बाद भी
कायम रहती है हर जगह
एक भीतर और एक बाहर से
मिलकर ही बनती है हर जगह
और दोनों के ठीक बीचोबीच होने के
मुंडेर पर लटका आदमी कभी भीतर
तो कभी बाहर झांकते तलाशता है अर्थ
पाने और खोने के।
दो जगहों का फर्क जितना सच है
उतनी ही वास्तविक हैं खिड़कियां
भीत, परदे, मुंडेर और दीवारें
जिनसे बनती है जगहें और
जगहों को जाने वाले।
4 notes
·
View notes
Text
चाहिए थोड़ा दुख
खबरें देखता रहता हूं दिन भर और
कुछ नहीं लिखता मैं
देखता हूं रील, तस्वीर और वीडियो
दूसरों का नाच गाना सोना नहाना
सब कुछ पर बेमन
सीने में जाने किसका है वजन
जो काटे नहीं कटता वक्त की तरह
गोकि मैं हूं बहुत बहुत व्यस्त और
ऐसा सिर्फ दिखाने के लिए नहीं है चूंकि
मैं फोन नहीं उठाता किसी का
मैं वाकई व्यस्त हूं, और जाने
किन खयालों में मस्त हूं कि अब
कुछ भी छू कर नहीं जाता
निकल लेता है ऊपर से या नीचे से
या दाएं से और बाएं से
सर्र से पर मेरी रूह को तो छोड़ दें
त्वचा तक को कष्ट नहीं होता।
ये जो वजन है
यही दुख का सहन है
वैसे कारण कम नहीं हैं दुखी होने के
दूसरी सहस्राब्दि के तीसरे दशक में, लेकिन
दुख की कमी अखरती है रोज-ब-रोज
जबकि समृद्धि इतनी भी नहीं आई
कि खा पी लें दो चार पुश्तें
या फिर कम से कम जी जाएं विशुद्ध
हरामखोर बन के ही बेटा बेटी
या अकेले मैं ही।
मैंने सिकोड़ लिया खुद को बेहद
तितली से लार्वा बनने के बाद भी
फोन आ जाते हैं दिन में दो चार
और सभी उड़ते हुए से करते हैं बात
चुनाव आ गया बॉस, क्या प्लान है
मेरा मन तो कतई म्लान है यह कह देना
हास्यास्पद बन जाने की हद तक
संन्यस्त हो जाने की उलाहना को आमंत्रित करता
बेकल आदमी का एकल गान है।
एक कल्पना है
जिसका ठोस प्रारूप कागज पर उतारना
इतना कठिन है कि महीनों हो गए
और इतना आसान, कि लगता है
एक रोज बैठूंगा और लिख दूंगा
रोज आता है वह एक रोज
और बीत जाता है रोज
अब उसकी भी तीव्रता चुक रही है
तारीख करीब आ रही है और धौंकनी
धुक धुक रही है
कि क्या 4 जून के बाद भी करते रहना होगा
वही सब चूतियापा
जिसके सहारे काट दिए दस साल
अत्यंत सुरक्षित, सुविधाजनक
बिना खोए एक क्षण भी आपा
बदले में उपजा लिए कुछ रोग जिन्हें
डॉक्टर साहब जीवनशैली जनित कहते हैं
जबकि इस बीच न जीवन ही खास रहा
न कोई शैली, सिवाय खुद को
बचाने की एक अदद थैली
आदमी से बन गए कंगारू
स्वस्थ से हो गए बीमारू
कीड़े पनपते रहे भीतर ही भीतर
बाहर चिल्लाते रहे फासीवाद और
भरता रहा मन में दुचित्तेपन का
गंदा पीला मवाद।
यार, ऐसे तो नहीं जीना था
सिवाय इस राहत के कि
जीने की भौतिक परिस्थितियां ही
गढ़ती हैं मनुष्य को
यह दलील चाहे जितना डिस्काउंट दे दे
लेकिन मन तो जानता है (न) कि
दुनिया के सामने आदमी कितनी फानता है
और घर के भीतर चादर कितनी तानता है।
अगर ये सरकार बदल भी जाए तो क्या होगा मेरा
यही सोच सोच कर हलकान हुआ जाता हूं
जबकि सभी दोस्त ठीक उलटा सोच रहे हैं
जरूरी नहीं कि दोस्त एक जैसा सोचें
बिलकुल इसी लोकतांत्रिक आस्था ने दोस्त
कम कर दिए हैं और जो बच रहे हैं
वे फोन करते हैं और मानकर चलते हैं
मैं उनके जैसी बात कहूंगा हुंकारी भरूंगा
मैं तो अब किसी को फोन नहीं करता
न बाहर जाता हूं मिलने
बहुत जिच की किसी ने तो घर
बुला लेता हूं और जानता हूं कि
दस में से दो आ जाएं तो बहुत
इस तरह कटता है मे��ा क्लेश और
बच जाता है वक्त
चूंकि मैं हूं बहुत बहुत व्यस्त
बचे हुए वक्त में मैं कुछ नहीं करता
यह जानते हुए भी लगातार लोगों से बचता
फिरता हूं क्योंकि वे जब मिलते हैं तो
ऐसा लगता है कि बेहतर होता कुछ न करते
घर पर ही रहते और ऐसा
तकरीबन हर बार होता है
हर दिन बस यही संतोष
मुझे बचा ले जाता है
कि मेरा खाली समय कोई बददिमाग
पॉलिटिकली करेक्ट
बुनियादी रूप से मूर्ख और अतिमहत्वाकांक्षी
लेकिन अनिवार्यत: मुझे जानने वाला मनुष्य
नहीं खाता है।
लोगों को ना करते दुख होता है
ना नहीं करने के अपने दुख हैं
आखिर कितनों की इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं
और मूर्खतापूर्ण लिप्साओं की आत्यंन्तिक रूप से
मौद्रिक परियोजनाओं में
आदमी कंसल्टेंट बन सकता है एक साथ?
आपके बगैर तो ये नहीं होगा
आपका होना तो जरूरी है
रोज दो चार लोग ऐसी बातें कह के मुझे
फुलाते रहते हैं और घंटे भर की ऊर्जा
उनके निजी स्वार्थों की भेंट चढ़ जाती है
इतने में दस आदमी कांग्रेस से भाजपा में और
चार आदमी भाजपा से कांग्रेस में चले जाते हैं
हेडलाइन बदल जाती है
किसी के यहां छापा पड़ जाता है
तो किसी को जेल हो जाती है
फिर अचानक कोई ऐसा नाम ट्रेंड करने लगता है
जिसे जानने में बची हुई ऊर्जा खप जाती है।
मुझे वाकई ये बातें जानने का शौक नहीं
ज्यादा जरूरी यह सोचना है कि अगले टाइम
क्या छौंकना है लौकी, करेला या भिंडी
और किस विधि से उन्हें बनना है
यह और भी अहम है पर संतों के कहे
ये दुनिया एक वहम है और मैं
इस वहम का अनिवार्य नागरिक हूं
और औसत लोगों से दस ग्राम ज्यादा
जागरिक हूं और यह विशिष्टता 2014 के बाद
अर्जित की हुई नहीं है क्योंकि उससे पहले भी
मैं जग रहा था जब सौ करोड़ हिंदू
सो रहा था इस देश का जो आज मुझसे
कहीं ज्यादा जाग चुका है और
मेरे जैसा आदमी बाजार से भाग चुका है
भागा हुआ आदमी घर में दुबक कर
खबरें ही देख सकता है और गाहे-बगाहे सजने वाली
महफिलों में अपने प्रासंगिक होने के सुबूत
उछाल के फेंक सकता है।
दरअसल मैं इसी की तैयारी करता हूं
इसीलिए खबरें देखता रहता हूं
पर लिखता कुछ नहीं
बस देखता हूं दूसरों का नाच गाना
सोना नहाना सब कुछ
नियमित लेकिन बेमन।
कब आ जाए परीक्षा की घड़ी
खींच लिया जाए सरेबाजार और
पूछ दिया जाए बताओ क्या है खबर
और कह सकूं बेधड़क मैं कि सरकार बहादुर
गरीबों में बांटने वाले हैं ईडी के पास आया धन।
छुपा ले जाऊं वो बात जो पता है
सारे जमाने को लेकिन कहने की है मनाही
कि एक स्वतंत्र देश का लोकतांत्रिक ढंग से
चुना गया प्रधानमंत्री कर रहा था सात साल से
धनकुबेरों से हजारों करोड़ रुपये की उगाही
खुलवाकर कुछ लाख गरीबों का खाता जनधन।
सच बोलने और प्रिय बोलने के द्वंद्व का समाधान
मैंने इस तरह किया है
बीते बरसों में जमकर झूठ को जिया है
स्वांग किया है, अभिनय किया है
जहां गाली देनी थी वहां जय-जय किया है
और सीने पर रख लिया है एक पत्थर
विशालकाय
अकेले बैठा पीटता रहता हूं छाती हाय हाय
कि कुछ तो दुख मने, एकाध कविता बने
लगे हाथ कम से कम भ्रम ही हो कि वही हैं हम
जो हुआ करते थे पहले और अकसर सोचा करते थे
किसके बाप में है दम जो साला हमको बदले।
ये तैंतालीस की उम्र का लफड़ा है या जमाने की हवा
छूछी देह ही बरामद हुई हर बार जब-जब
खुद को छुवा
हर सुबह चेहरे पर उग आती है फुंसी गोया
दुख का निशान देह पर उभर आता हो
मिटाने में जिसे आधा दिन गुजर जाता हो
दुख हो या न हो, दिखना नहीं चाहिए
ऐसी मॉडेस्टी ने हमें किसी का नहीं छोड़ा
भरता गया मवाद बढ़ता गया फोड़ा
अल्ला से मेघ पानी छाया कुछ न मांगिए
बस थोड़ा सा जेनुइन दुख जिसे हम भी
गा सकें, बजा सकें और हताशाओं के
अपने मिट्टी के गमले में सजा सकें
और उसे साक्षी मानकर आवाहन करें
प्रकृति का कि लौट आओ ओ आत्मा
कम से कम कुछ तो दो करुणा कि
स्पर्श कर सकें वे लोग, वे जगहें, वे हादसे
जिनकी खबरें देखता रहता हूं मैं
दिन भर और कुछ भी नहीं लिख पाता।
4 notes
·
View notes
Text
इस तरह
- देवी प्रसाद मिश्र
अब इसको इस तरह से करते हैं जिसे उस तरह से करते आए थे।
इस तरह से करने का मतलब होगा कि बिल्कुल नए तरह से करना।
बिल्कुल नए तरह से करने का मायने होगा कि बिल्कुल पुराने तरीके़ से नहीं करना।
लेकिन बिल्कुल नए तरीक़े से बिल्कुल पुराने तरीक़े को भुला पाना आसान नहीं
होगा। अब देखो—बिल्कुल नए तरीके़ में बिल्कुल पुराने तरीके़ के दो शब्द हैं।
तो जो बिल्कुल नया है वह बिल्कुल नया नहीं हो पाता। मतलब कि बहुत नई
भाषा में मैं, तुम, हम, हमारा, तुम्हारा वगै़रह कहाँ बदलते हैं।
बहुत नई भाषा में बहुत पुरानी चीज़ें बनी रहती हैं। इसलिए बहुत नए मनुष्य
में बहुत पुराने मनुष्य का बहुत कुछ होगा। मसलन रक्त का बहना और नंगे होकर नहाना।
12 notes
·
View notes