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जीवन एक पतली सी डोर से लटका हुआ था, बचाव के लिए परमेश्वर का हाथ आया
स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसियालिंग वू, जापान
“अगर मुझे परमेश्वर ने बचाया नहीं होता, तो मैं अभी भी इस संसार में भटक रहा होता,
पाप से घोर संघर्ष करता हुआ और दर्द में; प्रत्येक दिन अंधकारमय और आशाहीन होता हुआ।
अगर मुझे परमेश्वर ने बचाया नहीं होता, मैं अभी भी शैतान के पैरों के नीचे दबा होता,
पाप और उसके आनंद में लिप्त, मेरा जीवन क्या होगा, इस बात से बेखबर।
अगर मुझे परमेश्वर ने बचाया नहीं होता, मैं आज बिना आशीर्वाद के यहाँ होता,
बहुत कम जानकारी होती कि हमें क्यों जीना चाहिए या हमारे जीवन का अर्थ।
अगर मुझे परमेश्वर ने बचाया नहीं होता, मुझे अभी भी मैं विश्वास के बारे में भ्रमित रहता,
अभी भी गुजरते दिनों के खालीपन इस बात से बेखबर कि किस में विश्वास करूँ।
मुझे अब समझ में आ गया है, जैसे जैसे हम चलते हैं परमेश्वर के प्यारे हाथ मेरे हाथ पकड़ लेते हैं।
मैं कभी जाऊँगा नहीं और अपने मार्ग से हटूँगा नहीं क्योंकि मैं इस शानदार मार्ग पर ठहरने के लिए आया हूँ” (“मेमने का अनुसरण करना और नए गीत गाना) अगर मुझे परमेश्वर ने बचाया नहीं होता”) जब भी मैं इस अनुभव के भजन को सुनता हूँ तो यह मेरे मन को छू जाता है। अगर यह परमेश्वर के द्वारा मुझे बचाने के लिए नहीं होता, जैसा कि भजन में वर्णन किया गया है, मैं शायद अभी भी संसार में बिना किसी लक्ष्य के भटक रहा होता, धन के पीछे भागकर खुद को थकाता, इस हद तक कि मैंने अपने प्राण गँवा दिये होते और विदेशी भूमि पर मर गया होता…
मैं अस्सी के दशक का बालक हूँ, और मैं एक साधारण से किसान परिवार में जन्मा हूँ। मेरा छोटा भाई बचपन से ही हमेशा बीमार रहता था। जब मैं 10 वर्ष का था तब मेरे पिता एक दुर्घटना में घायल हो गए थे; उसके दो वर्ष बाद उन्हें लकवा मार गया था। पहले से ही हमारे परिवार की वित्तीय हालत बहुत खराब थी, और पिता के उपचार के कारण हम बुरी तरह से कर्जे में डूब गए। हमारे मित्र और रिश्तेदार डरते थे कि हम कभी भी कर्ज़ चुका नहीं पायेंगे, और वे हमें कर्ज़ में पैसे देने के लिए तैयार नहीं थे। असहाय होकर मुझे घर से दूर काम करने के लिए, 16 वर्ष की आयु में स्कूल छोड़ना पड़ा। गहरी और शांत रात में, मैं अक्सर सोचता था: जब वे युवा थे, मेरी आयु के बराबर की आयु के, वे स्कूल के बाद मस्त होकर खेलते थे, जबकि मुझे खेतों में खेती का काम करना पड़ता था; अब वो मेरी तरह बड़े हो गए हैं, और वे अभी भी स्कूल जा रहे थे, वे अपने माता-पिता के साथ बिगड़ैल बच्चों की तरह हरकते करते हुए, परंतु मुझे अपने परिवार की सहायता करने के लिए कम उम्र में ही काम करना पड़ा और सभी प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा …. उस समय मैंने अपने माता-पिता से कहा कि उन्होंने मुझे जन्म क्यों दिया, और पूछा कि ऐसा क्यों है कि मैं इस संसार में बस कष्ट उठाने और कड़ी मेहनत करने के लिए आया हूँ। परंतु उसके बारे में मैं कुछ नहीं कर सकता था और मैं तो बस इस सच्चाई को केवल स्वीकार कर सकता था। उस समय मेरी सबसे बड़ी इच्छा मेहनत करना, पैसे कमाना, और अपने माता-पिता को आराम पहुँचाना था तथा दूसरों द्वारा नीचा दिखाना स्वीकार नहीं था।
सबसे पहले मैंने एक निजी एल्यूमीनियम मिश्र धातु कारखाने में काम किया। चूंकि मैं एक बाल मज़दूर था, बॉस हमेशा मेरे भोजन और रहने के बारे में अच्छा ध्यान रखते थे। एक वर्ष के बाद, मुझे महसूस हुआ कि मेरा वेतन बहुत कम था, और मैंने फर्नीचर फैक्ट्री में लैकर स्प्रे का काम करने का फैसला किया जहाँ अन्य लोग नहीं जाना चाहते थे। उस समय, जब तक मैं कानून का उल्लंघन नहीं कर रहा था, मुझे इस बात कि कोई परवाह नहीं थी कि मैं क्या काम कर रहा हूँ, अगर मैं उस काम से ज्यादा पैसा कमा सकता था। मेरा लक्ष्य केवल पैसे वाला व्यक्ति बनना था, ताकि मैं दोबारा एक गरीब व्यक्ति का जीवन व्यतीत नहीं करूँ। उसके बाद, मेरे रिश्तेदारों ने मेरा परिचय एक कंपनी से कराया जिसने मुझे काम के लिए देश के बाहर जाने का अवसर प्रदान किया। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कुछ वर्षों बाद मैं विदेश जाऊँगा।
2012 की वसंत में, मेरी इच्छा पूरी हुई जब मैं जापान आया और अपना नया जीवन शुरू किया। मैं जलपोत बनाने के उद्योग में लग गया था, और प्रशिक्षुता के द्वारा मैंने कंपनी के साथ तीन वर्षों का करार तय किया। जब मैंने काम शुरू किया, तो मैं थका हुआ और परेशान था। चूंकि मुझे खाना पकाना नहीं आता था, मैंने एक महीने तक इंस्टेंट नूडल खाये, जब तक कि मुझे ऐसा नहीं लगने लगा कि मैं अब इन्हें और नहीं खा सकता और यह अब बाहर आ जाएँगे तथा मुझे जबरदस्ती भोजन पकाना सीखना पड़ा। मुझे कुछ याद नहीं कि कितने दिनों तक मैंने अधपके चावल खाये। जापान में हम विदेशी थे, इसलिए कंपनी के कर्मचारी हमसे जल्दी ही बुरा व्यवहार करने लगे। वे हमसे बहुत से गंदे, थका देने वाले और खतरनाक काम कराते थे। जब मैं लेककर स्प्रे कर रहा होता था, मुझे बहुत डर लगता था, क्योंकि अगर गैस आग के संपर्क में आती तो वह जल उठती, और अगर मैं उस पर एक क्षण के लिए ध्यान नहीं देता तो वह मेरे जीवन को ख़तरे में डाल सकती थी। परंतु कोई बात नहीं अगर मेरे जीवन में कष्ट हो या मेरे काम में ख़तरा हो, जब तक मैंने अपने परिवार के पास और अधिक धन कमाकर भेजने की सोच रखी है, और खुद के लिए एक कार और एक घर नहीं खरीद लेता, जब मैं वापिस घर जाऊँ और खुद को दूसरों से ऊपर बना लूँ और गरीब न रहूँ, मैं महसूस करता हूँ की मेरे कष्ट वास्तव में तब तक मेरे लिए बुरे नहीं हैं। पलक झपकते ही मेरे जीवन के तीन साल बीत गए, और मेरे वीजे की समयावधि लगभग समाप्त हो चुकी है। कंपनी की करारों के नवीनीकरण की नीति थी, इसलिए और अधिक धन कमाने के लिए, मैंने अपने करार का नवीनीकरण करा कर जापान में काम करने को जारी रखने का निर्णय लिया। मेरे द्वारा करार के नवीनीकरण के कुछ दिनों बाद ही मैं जिस बात ने मुझे आश्चर्यचकित किया वह थी कि मेरा सामना सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार से हुआ।
सितंबर 2015 में, जापान में मिले मेरे एक मित्र ने मुझे, अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्यों के बारे में बताया। जब वह मुझे परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बता रही थी, और मुझे वह रोचक नहीं लग रहा था। मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करने से मेरा भाग्य नहीं बदल पाएगा। उसके शीघ्र बाद, मैंने अपने मित्र को अपने सोचने के ढंग के बारे में और मेरे द्वारा झेले गए कष्टों के बारे में बताया और फिर उससे पूछा “क्या परमेश्वर में विश्वास करने से मेरा भाग्य बदल सकता है? मैंने इतने कष्ट उठाएँ हैं, मैं तो बस एक बदकिस्मत व्यक्ति हूँ। अगर मेरे पास धन होता तो मुझे इतने कष्ट नहीं उठाने पड़ते, और अभी मेरे लिए सबसे वास्तविक चीज़ है धन कमाना। मेरे लिए, परमेश्वर में विश्वास करना कुछ दूर की बात है।” जब मेरे मित्र ने मुझे इस प्रकार बोलते हुए सुना, तो मेरी मित्र ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भाग पढ़ कर सुनाया: “तू प्रतिदिन कहाँ जाएगा, तू क्या करेगा, तू किसका या क्या सामना करेगा, तू क्या कहेगा, साथ क्या होगा – क्या इसमें से किसी की भी भविष्यवाणी की जा सकती है? लोग इन सभी घटनाओं को पहले से नहीं देख सकते हैं, और जिस प्रकार वे विकसित होते हैं उसको तो बिलकुल भी नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं। जीवन में, पहले से देखी न जा सकनेवाली ये घटनाएं हर समय घटित होती हैं, और ये प्रतिदिन घटित होनेवाली घटनाएं हैं। ये दैनिक उतार-चढ़ाव और तरीके जिन्हें वे प्रकट करते हैं, या ऐसे नमूने जिसके परिणामस्वरूप वे घटित होते हैं, वे मानवता को निरन्तर स्मरण दिलानेवाले हैं कि कुछ भी बस यों ही बिना सोचे समझे नहीं होता है, यह कि इन चीज़ों की शाखाओं में विस्तार को, और उनकी अनिवार्यता को मनुष्य की इच्छा के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। हर एक घटना सृष्टिकर्ता की ओर से मानवजाति को दी गई झिड़की को सूचित करती है, और साथ ही यह सन्देश भी देती है कि मानव प्राणी अपनी नियति को नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं, और ठीक उसी समय हर एक घटना अपनी नियति को अपने ही हाथों में लेने के लिए मानवता की निरर्थक, व्यर्थ महत्वाकांक्षा एवं इच्छा का खण्डन है। ये मानवजाति के कान के पास एक के बाद एक मारे गए जोरदार थप्पड़ों के समान हैं, जो लोगों को पुनःविचार करने के लिए बाध्य करते हैं कि अंत में कौन उनकी नियति पर शासन एवं नियन्त्रण करता है। और चूंकि उनकी महत्वाकांक्षाएं एवं इच्छाएं लगातार नाकाम होती हैं और बिखर जाती हैं, तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से एक अचैतन्य स्वीकृति की ओर आ जाते हैं कि नियति ने क्या संजोकर रखा है, और स्वर्ग की इच्छा और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की वास्तविकता की स्वीकृति की ओर आ जाते हैं। सम्पूर्ण मानवजीवन की नियति के इन दैनिक उतार-चढ़ावों से, ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की योजना और उसकी संप्रभुता को प्रकट नहीं करता है; ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सन्देश नहीं देता है कि ‘सृष्टिकर्ता के अधिकार से आगे बढ़ा नहीं जा सकता है,’ जो इस अनन्त सत्य को सूचित नहीं करता है कि ‘सृष्टिकर्ता का अधिकार ही सर्वोच्च है।’” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III” से) इसे सुनने के बाद, मुझे महसूस हुआ की ये शब्द मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं, और मैं यह सोचने से खुद को रोक नहीं पाया की अपने करार का नवीनीकरण कर पाना भी ऐसा लगता था जैसे कि परमेश्वर ने ही इन सभी चीज़ों की व्यवस्था की हो। इसने मुझे जन्म के घर के बारे में भी सोचने के बारे में मजबूर किया और कि मेरा परिवार वह चीज़ है जिसके बारे में मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि कहीं पर वहाँ परमेश्वर का ही नियंत्रण है।
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मेरे मित्र ने मुझे परमेश्वर के वचनों के इस भाग को मुझे पढ़कर सुनाया “स्वयं परमेश्वर जो अद्वितीय है वचन देह में प्रकट होता है आगे जारी है” जो छह मोड़ों के बारे में बात करता है जिसमें से किसी व्यक्ति को भी जीवन में: जन्म में: पहले मोड़ पर; बढ़ने पर: पार करना पड़ता है: दूसरा मोड़; स्वतंत्रता: तीसरा मोड़; विवाह: चौथा मोड़; सन्तति जब मैंने परमेश्वर के वचनों को सुना था। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि परमेश्वर ने इंसान के भाग्य के बारे में इतने स्पष्ट शब्दों में कहा है, और तथ्य बिल्कुल वैसे ही हैं जैसा उनका वर्णन किया गया था। सामान्य हालातों में व्यक्ति अपने जीवन में इन छह मोड़ों का अनुभव होगा। मैंने सोचा कि धरती पर कितने लोग कष्ट उठा रहे हैं, और यह कैसे हो सकता है कि बस मैं ही कष्ट उठा रहा हूँ। वास्तव में अगर भाग्य व्यक्ति की इच्छा के अनुसार होता और वह उसे नियंत्रित कर पाता, तो प्रत्येक व्यक्ति एक बड़े, फैंसी घर में रहने का चयन करता, और तो क्या कोई भी गरीबी और कठिनाइयों से परेशान होता हुए दिखाई देता? वास्तव में, व्यक्ति जिस परिवार में जन्म लेता है वह उसे भी चुन नहीं सकता, और वे इसे भी नहीं चुन सकता कि उसे किस प्रकार के माता-पिता चाहिए। जब वे बड़े हो जाते हैं, किस प्रकार का पति या पत्नी उन्हें मिलते हैं, यह भी उनके हाथ में नहीं हैं… इनके बारे में जब मैंने जितना अधिक सोचा, उतना अधिक ही मैंने पाया कि ये शब्द वास्तविक हैं, और जो कुछ सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने कहा था मैंने अपने दिल में उसे मानना शुरू कर दिया। किस्मत कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो किसी व्यक्ति के द्वारा स्वयं बदली जा सके। तभी से, परमेश्वर को मानने में मेरी रुचि और अधिक बढ़ती गयी, और मैंने माना कि परमेश्वर मौजूद है, और माना कि किसी व्यक्ति की किस्मत उसके खुद के नियंत्रण में नहीं होती है। परंतु मुझे परमेश्वर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, मैं यह सोचता था कि परमेश्वर मुझसे बहुत दूर ���ा। यद्यपि, इसके कुछ समय बाद, एक अनुभव से मुझे सच में लगा कि परमेश्वर मेरे साथ है और वह मुझे देख रहा है और मेरा बचाव कर रहा है।
उस दिन बारिश हो रही थी, और मैं रोज़ की तरह काम पर निकल पड़ा, परंतु मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि मेरे ऊपर आपदा आने वाली थी। सुबह के 10:00 बजे, मैं कार्य स्थल पर काम कर रहा था, तभी अचानक मैंने एक “शोर” की आवाज़ सुनी। मुझे मालूम नहीं था कि वह क्या वस्तु थी जो जमीन पर आकार गिरी थी, और उस से मैं दहशत के मारे कांप उठा। जब मैंने मुड़कर देखा, मैं हक्का-बक्का रह गया, और देखा कि एक 40 सेंटीमीटर व्यास और 4 मीटर लंबी लोहे की पाइप जिसका वजन लगभग आधा टन था, वह क्रेन से गिरी है। मैं जहाँ खड़ा था, वह जमीन पर मुझ से आधा मीटर की दूरी पर गिरी। मैं इतना डर गया था कि उस क्षण मैं स्तब्ध रह गया, और मुझे उस झटके से वापिस अपना होश संभालने में कुछ पल का समय लगा। अपने मन में मैं लगातार चिल्ला रहा था “परमेश्वर आपका धन्यवाद! परमेश्वर आपका धन्यवाद!” अगर परमेश्वर वहाँ पर ना होता और मुझे न देख रहा होता और मुझे बचा न रहा होता, तो वह लोहे की पाइप सीधे ही मुझ पर आ गिरती, और मेरा अमहत्वपूर्ण जीवन समाप्त हो चुका होता।
काम समाप्त करने के बाद जब मैं भाइयों और बहनों के साथ उस दिन की घटना के बारे में वार्तालाप कर रहा था, उन्होंने सहचर्य किया कि वह परमेश्वर के द्वारा किया गया बचाव था। उन्होंने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर सुनाया: “अपने लम्बे जीवन में, मूलत: प्रत्येक व्यक्ति ने अनेक खतरनाक परिस्थितियों का सामना किया है और वह अनेक प्रलोभनों से होकर गुज़र चुका है। यह इसलिए है क्योंकि शैतान बिलकुल तुम्हारे बगल में है, उसकी आंखें निरन्तर तुम्हारे ऊपर जमी होती हैं। वह इसे पसन्द करता है जब तुम पर आपदा आती है, विपदाएँ हैं, जब तुम्हारे लिए कुछ भी सही नहीं होता है तो उसे अच्छा लगता है, और जब तुम शैतान के जाल में फँस जाते तो तो उसे अच्छा लगता है। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह निरन्तर तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है, एक के बाद एक दुर्भाग्य से और एक के बाद एक आपदा से तुम्हें बचा रहा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो कुछ शान्ति एवं आनन्द, आशीषें एवं व्यक्तिगत सुरक्षा-मनुष्य के पास है, वह सब-कुछ वास्तव में परमेश्वर के अधीन है, और वह प्रत्येक प्राणी के जीवन एवं उसकी नियति का मार्गदर्शन एवं निर्धारण करता है।” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “स्वयं परमेश्वर, अद्वितीय VI” से) परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं समझ गया कि लोग प्रतिदिन शैतान के जाल में जी रहे हैं और उन्हें क्रूरतापूर्वक हानि पहुँचाया जाती है। अगर परमेश्वर लोगों को देख न रहा हो और वह उनकी रक्षा न कर रहा हो, तो बहुत समय पहले ही शैतान लोगों को निगल चुका होता। इतने वर्षों में, मुझे मालूम नहीं कि कितनी बार मैंने परमेश्वर को मुझे देखते हुए और मुझे बचाते हुए आनंद उठाया होगा, पर अभी तक मुझे परमेश्वर के बारे में पता नहीं था या मैं उसकी आराधना के बारे में नहीं जानता था; सच मेरा कोई अन्तःकरण नहीं था। उस क्षण से शुरू होकर, मुझे मुक्ति में परमेश्वर का आशीर्वाद बेहतर समझ आने लगा। कि मैं आज तक जीवित रहा इस सबके लिए मैंने मेरी रक्षा करने वाले परमेश्वर के प्रीतिपूर्ण हाथ का धन्यवाद किया और मैंने यह धन्यवाद दिल से किया। आने वाले दिनों में, मैंने अनेक बार भाइयों और बहनों के साथ बैठकों में शामिल हुआ, और नियमिततौर पर कलीसिया में उपस्थित होने लगा, और धीरे धीरे मेरे जीवन में परिवर्तन आने लगे। अब मुझे किसी प्रकार की उत्तेजना, कष्ट, तथा खालीपन नहीं था, जो पहले कभी होता था। हम भाई और बहन मिलकर एक साथ परमेश्वर के वचनों को पढ़ते थे और परमेश्वर के वचनों का सहचर्य करते थे, परमेश्वर की प्रशंसा में गीत गाते, अपने दिलों में मुक्त और स्वतंत्र, एक दूसरे की सहायता करते हुए तथा आध्यात्मिक जीवन में एक दूसरे की मदद करते हुए। किसी ने भी मुझे निम्न नहीं समझा, न ही किसी के मन में निर्धन के लिए घृणा थी और न ही कोई अमीरों की चापलूसी करता था, और मुझे महसूस हुआ कि मैं स्वाभिमान के साथ जीवन जी सकता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के इतने बड़े, सम्मानजनक, और आशीर्वादयुक्त गृह कलीसिया में रहने से मुझे पहले की तुलना में बहुत खुशी और संतोष मिला।
एक दिन, हमारी कंपनी के एक जापानी व्यक्ति को कुछ हो गया। वह वहाँ बहुत लंबे समय से था और पहले ही वह वहाँ कंपनी में दस वर्ष से अधिक का अनुभव ले चुका था। वह इस बात में बहुत विश्वास रखता था कि क्या वह सुरक्षा जागरूकता है या टेक्नोलॉजी है। उस दिन, जब वह काम पर था, वह एक लिफ्टिंग ट्रक चला रहा था और जब 20 मीटर हवा में उठाए हुए वह कुछ काम कर रहा था। उसके संचालन के दौरान, ध्यान की कमी के कारण उससे अपने ऊपर ट्रक की लिकुईफाईड़ गैस लीक हो गयी। उसी समय उसके ऊपर का अन्य कर्मी कुछ वैल्डिंग का काम कर रहा था, और अचानक एक चिंगारी नीचे गिरी और उसके कपड़ों पर पड़ी। जब लीक हुई गैस उस चिंगारी के संपर्क में आई, वह तेज़ी से लपटों में बदल गयी, और आग लग गयी। बहुत से लोग उस बूढ़े कर्मी की तरफ बस यूँ ही घूरते रहे, जो कि उस जगह पर लपटों से घिरा था, परंतु वे बिल्कुल असहाय थे और कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे। पहले ही बहुत देर हो चुकी थी कि उसे बचाने के लिए किसी को खोजा जाये, और कुछ ही मिनटों में वह जलकर मर गया। जब हमने यह दुर्घटना होते हुए देखी, तो बहुत से लोगों ने उसके लिए अफसोस जताया, और मदद नहीं कर पाये परंतु अपने जीवन की बारे में सोचते रहे: आखिरकार यह क्या है, जिसके लिए लोग जीवित हैं? क्योंकि इस प्रकार की घटना बस मेरे पास ही हुई, मैंने सच में यह महसूस किया कि अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर से आया है और उस पर परमेश्वर की नज़र नहीं है और वह उसका बचाव नहीं कर रहा है, तो उनका जीवन हर समय असुरक्षित है। आपदा के समय लोग इतने अमहत्वपूर्ण होते हैं और वे आसानी से ढेर हो सकते हैं, और चाहे वह व्यक्ति कितना भी निपुण क्यों न हो या उसके पास कितना भी अधिक धन ना हो, वे स्वयं को बचा नहीं सकते।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अनुच्छेद पढ़ा : “सृष्टिकर्ता की संप्रभुता एवं पूर्वनिर्धारण के कारण, एक अकेला आत्मा जिसने शून्य से आरम्भ किया था वह परिवार एवं माता पिता को प्राप्त करता है, मानव जाति का एक सदस्य बनने का मौका प्राप्त करता है, मानव जीवन का अनुभव करने एवं इस संसार को देखने का मौका प्राप्त करता है; और साथ ही यह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का भी अनुभव करने का मौका प्राप्त करता है,जिससे सृष्टिकर्ता के द्वारा सृष्टि की अद्भुतता को जान सके, और सबसे बढ़कर, सृष्टिकर्ता के अधिकार को जान सके एवं उसके अधीन हो सके। परन्तु अधिकांश लोग वास्तव में इस दुर्लभ एवं क्षणिक अवसर को लपक नहीं पाते हैं। कोई व्यक्ति नियति के विरुद्ध लड़ते हुए जीवन भर की ऊर्जा को गवां देता है, अपने परिवार को खिलाने पिलाने की कोशिश करते हुए और धन-सम्पत्ति एवं हैसियत के बीच झूलते हुए अपना सारा समय बिता देता है। ऐसी चीज़ें जिन्हें लोग संजोकर रखते हैं वह परिवार, पैसा एवं प्रसिद्धि है; वे इन्हें जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ों के रूप में देखते हैं। सभी लोग अपनी नियति के विषय में शिकायत करते हैं, फिर भी वे अपने दिमाग में इन प्रश्नों को पीछे धकेल देते हैं कि इसे जांचना एवं समझना अति महत्वपूर्ण हैः मनुष्य जीवित क्यों है, मनुष्य को कैसे जीवनयापन करना चाहिए, जीवन का मूल्य एवं अर्थ क्या है। उनका सम्पूर्ण जीवन, चाहे कितने ही वर्षों का क्यों न हो, वहसिर्फ़ प्रसिद्धि एवं सौभाग्य को तलाशते हुए शीघ्रता से गुज़र जाता है, तब तक जब तक कि उनकी युवा अवस्था चली नही��� जाती है, उनके बाल सफेद नहीं हो जाते एवं उनकी त्वचा में झुर्रियां नहीं पड़ जाती हैं; जब तक वे यह नहीं देख लेते हैं कि प्रसिद्धि एवं सौभाग्य किसी को बुढ़ापे की ओर सरकने से रोक नहीं सकते हैं, यह कि धन हृदय के खालीपन को भर नहीं सकता है; जब तक वे यह नहीं समझ लेते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म, उम्र के बढ़ने, बीमारी एवं मृत्यु के नियम से बच नहीं सकता है, और यह कि जो कुछ नियति ने संजोकर रखा हैं कोई उससे बच नहीं सकता है। जब उन्हें जीवन के अंतिम घटनाक्रम का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है केवल तभी वे सचमुच में समझ पाते हैं कि यदि कोई करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का मालिक हो जाता है, भले ही किसी को विशेष अधिकार प्राप्त है एवं वह ऊंचे पद पर रहा है, फिर भी कोई भी व्यक्ति मृत्यु से नहीं बच सकता है, प्रत्येक मनुष्य अपनी मूल स्थिति में वापस लौटेगा : एक अकेला आत्मा, जिसके नाम कुछ भी नहीं है।” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III” से) परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं पूरी तरह से हिल चुका था: लोगों की आत्माएं परमेश्वर से आती हैं, और वे परमेश्वर द्वारा संसार में ही भेजी जाती हैं। परंतु लोग फिर भी परमेश्वर में विश्वास रखना और उसकी आराधना करना नहीं चाहते, और वे परमेश्वर के प्राधिकारिता को अनुभव करने के अवसर के खजाने को भुनाना नहीं चाहते, बस वे तो केवल धन, प्रसिद्धि और रिश्तों के लिए जीना जानते हैं। पर वे सभी ज़ोर जबरदस्ती से अपने भाग्य की व्यवस्था को हटाने का प्रयास करने में व्यस्त हैं, पर लोगों को इन चीज़ों के पीछे भागकर क्या मिलेगा? क्या कभी किसी ने सोचा है इनमें से कौन सी चीज़ – रिश्ते, प्रसिद्धि, या धन – घटित होने वाली मृत्यु से कैसे बचा सकती हैं? मेरे पुराने सहकर्मी की मृत्यु की ओर देखिए – क्या वह इस तथ्य का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं है? जिन बातों को मैंने पहले चाहा, उन चीज़ों के बारे में सोचना, क्या एक जैसी बात नहीं है? जब मैं विदेश में काम करने गया, मैं बस कुछ और अधिक पैसे कमाने के लिए कोई भी गंदा, थकाने वाला, या खतरनाक काम ले लेता था, जिससे लोग मुझे सम्मान से देखें, और इससे मैं गरीबी की जिल्लत सहने से बच जाऊँगा। जबकि मैं सभी प्रकार के कष्टों से गुजर चुका हूँ, मैंने कभी भी अपने जीवन जीने के तरीके को बदलने के बारे में नहीं सोचा। मैंने तो हमेशा बस उसी रास्ते का अनुसरण किया। मेरे दिल में, मुझे नहीं मालूम कि परमेश्वर है, या मुझे ज्ञात हो कि इंसान की किस्मत परमेश्वर के हाथों में होती है। अपने भाग्य को बदलने के लिए मैंने खुद पर भरोसा किया, और मैंने परमेश्वर के आयोजन से बचने के लिए संघर्ष किया। जिस मार्ग पर मैं चल रहा था, क्या वह तबाही की ओर जाने वाला नहीं था? अगर वह परमेश्वर की मुक्ति के लिए नहीं था, या परमेश्वर मुझे देख रहा है और मुझे बचा रहा है, मुझे बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरा छोटा सा जीवन बहुत समय पहले ही शैतान द्वारा छीन लिया गया होता। इसके बाद भी, मेरा जीवन अब जैसा, कैसे खुशहाल और सार्थक बन सकता था? अंत में मैंने देखा कि जीवन का अर्थ धन या प्रसिद्धि कमाना नहीं था, इसका अर्थ दूसरों से आगे निकलना ताकि वे लोग तुम्हें बड़ा माने, भी नहीं है, परंतु इसका अर्थ परमेश्वर की मौजूदगी में आना, परमेश्वर की आराधना करना और उससे मुक्ति पाना, और शैतान की हानि से बच निकालना। मैं जितना अधिक इस प्रकार से सोचता हूँ, मैं उतना अधिक प्रभावित होता हूँ। मैं देखता हूँ कि मैं परमेश्वर में विश्वास रख पाता हूँ, और यही परमेश्वर द्वारा विशेष आशीर्वाद सहित मेरे साथ व्यवहार है। मुझे मालूम नहीं कि मैं किस प्रकार परमेश्वर की ओर मेरे दिल में मौजूद कृतज्ञता की भावना व्यक्त करूँ, और इसलिए मैंने, परमेश्वर की प्रशंसा प्रदर्शित करने और मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करने के लिए एक भजन सीखा “अगर मुझे परमेश्वर ने नहीं बचाया होता”!
                                                                       स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन से, मुझे अपनी जिंदगी की दिशा मिली
नोवो फिलिपीन्स
मेरा नाम नोवो है, मैं फिलिपिनो हूं। जब मैं छोटा था तो मुझे अपनी मां से परमेश्वर पर विश्वास मिला। मैं अपने भाई-बहनों के साथ धर्मोपदेश सुनने कलीसिया जाया करता था। भले ही मैं सालों से परमेश्वर पर विश्वास करता आ रहा था, लेकिन मुझे लगा कि मैं एक नास्तिक की तरह था। अपने दिल से, मैं पूरे दिन यह सोचने लगा था कि कैसे ज्यादा धन कमाया जाए और बेहतर जिंदगी जी जाए। इसके अलावा, मैं अक्सर अपने दोस्तों के साथ बाहर जाकर पीने लगा था। अतिरिक्त धन आ जाने पर, मैं बाहर जाकर जुआ भी खेलने लगा था। भले ही मैं यह जानता था कि मैं जो कर रहा था वह पाप था और मैं अक्सर ही परमेश्वर से प्रार्थना करके यह कहा करता था कि मैं अपनी ये बुरी आदतें बदल दूंगा, लेकिन मैंने कभी भी इस पर अमल नहीं किया। इस प्रकार से, मैं लगातार विकृत हो रहा था। मैं ध्यान से परमेश्वर की ठीक से पूजा नहीं करता था। हर हफ्ते, मैं एक बेपरवाह तरीके से कुछ आसान सी प्रार्थनाएं बस करता था। कभी—कभी, मैं बहुत हताशा महसूस करता था क्योंकि मैं जानता था कि जब परमेश्वर की वापसी होगी, वे हर किसी के कर्मों का फैसला करेंगे। फिर वे यह निर्णय करेंगे कि कौन स्वर्ग में जाएगा और कौन नरक में। मुझे महसूस होता था कि मैं विकृत हो गया था और परमेश्वर मुझे माफ नहीं करेगा। इसके बाद, मैंने शादी कर ली और बच्चे पैदा किए। मैं बस अपनी पत्नी और अपने बच्चों के बारे में सोचता था। अगर अपने धर्म की ब���त की जाए, तो मैंने इसे दिमाग के किसी कोने में दबा दिया था। अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए और अमीर बनने की अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए, मैंने अच्छा काम खोजने हेतु देश छोड़ने का फैसला लिया। परिणामस्वरूप, मैं ताइवान पहुंच गया। काम पाने के बाद भी, मैंने अपनी पिछली जीवनशैली को नहीं बदला था। अपने खाली समय में, मैं अपने साथियों के साथ पीने और गाने के लिए बाहर चले जाया करता था। मैं एक नास्तिक की जिंदगी जी रहा था।
2011 में, मैं ताइवान के एक कारखाने में वेल्डर के रूप में काम करता था। 2012 के एक दिन, ताइवान के एक सहकर्मी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं कैथॉलिक हूं। मैं उत्तर दिया कि हां मैं था। इसके बाद, उसने मुझे अपने कलीसिया में धार्मिक संगीत सभा के लिए आमंत्रित किया। फिर, रविवार की एक सुबह, प्रभात के समय, वह हमें लेने के लिए कारखाने आई और हमें अपने दोस्त के घर ले गई। वहां, मेरी मुलाकात भाई जोसेफ से हुई। उन्होंने मुझसे पूछा, “भाई, क्या आपको प्रभु यीशु की वापसी की उम्मीद है?” मैंने कहा कि मुझे थी। जोसेफ ने फिर से मुझसे पूछा, “क्या आप जानते हैं कि जब प्रभु यीशु वापस आएंगे तो वे क्या काम करेंगे।” मैंने उत्तर दिया, “वे एक सफेद सिंहासन पर बैठेंगे और मानवता का निर्णय करके लोगों को विभिन्न समूहों में विभाजित करेंगे। इसके बाद, हर इंसान के आचरण व कर्मों के आधार पर परमेश्वर निर्णय लेंगे कि वह स्वर्ग जाएगा या नर्क।” भाई जोसेफ ने फिर से मुझसे पूछा, “अगर हम आपसे कहें कि प्रभु यीशु वापस आ चुके हैं और निर्णय का कार्य कर रहे हैं, तो क्या आप विश्वास करेंगे।” जब मैंने उसे ऐसा कहते हुए सुना तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा: क्या वाकई प्रभु यीशु वापस आ गए हैं? यह कैसे संभव है? अगर वे वापस आ गए होते तो क्या उन्होंने हमारा निर्णय न कर लिया होगा? मैंने महान सफेद सिंहासन सामने कोई निर्णय नहीं देखा है! हालांकि, मैंने सीधे उससे यह प्रश्न नहीं किया क्योंकि मुझे लगता था कि परमेश्वर का निर्णय एक रहस्य है और परमेश्वर की बुद्धि इंसान के लिए अ​परिमेय है। हो सकता है कि मेरा दृष्टिकोण सही न हो। मुझे लगता कि सबसे पहले उनके दृष्टिकोण को सुनना सही होगा। परिणामस्वरूप, मैंने उत्तर दिया, “यह ऐसा कुछ है जिसे सुनिश्चित करने की हिम्मत मैंने अभी तक नहीं की। कृपया और बताएं।” इसके बाद, भाई जोसेफ और अन्य लोगों ने बाइबल के कई अवतरण दिखाए जिनमें उन निर्णयों के कार्य के बारे में बताया गया था जो वह वापस लौटने के बाद करगा। इस चयन से दो पद्य निम्न प्रकार से हैं: “जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा (यूहन्ना 12:48)।” “क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए (1पतरस 4:17)।” जब मैंने इन पूर्वानुमानों को देखा, तो मैंने उन बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया जो इन भाईयों और बहनों को कहनी थी। मुझे लग रहा था कि उन्होंने जो भी बातें मुझसे साझा की हैं वह सच थी क्योंकि मैं जानता था कि बाइबल में परमेश्वर के कार्य को दर्ज किया गया था।
इसके बाद, भाई जोसेफ ने हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के दो और अवतरण पढ़ाए: “न्याय का कार्य परमेश्वर का स्वयं का कार्य है, इसलिए स्वभाविक तौर पर इसे परमेश्वर के द्वारा ही अवश्य किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत्य के माध्यम से मनुष्य को जीतना न्याय है, इसलिए यह निर्विवाद है कि तब भी परमेश्वर मनुष्यों के मध्य अपना कार्य करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होता है। अर्थात्, अंत के दिनों में, मसीह पृथ्वी के चारों ओर मनुष्यों को सिखाने के लिए और सभी सत्यों को उन्हें ज्ञात करवाने के लिए सत्य का उपयोग करेगा। यही परमेश्वर के न्याय का कार्य है।” “अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को प्रकट करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्य शामिल हैं, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर केन्द्रित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह प्रगट करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का अवतार और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन की शक्ति है। जब परमेश्वर न्याय का कार्य करता है, तो वह केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है, बल्कि लम्बे समय तक प्रकाशन, व्यवहार, और काँट-छाँट कार्यान्वित करता है। इस प्रकार का प्रकाशन, व्यवहार और काँट-छाँट साधारण वचनों से नहीं बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके का कार्य ही न्याय समझा जाता है, केवल इसी प्रकार के न्याय के द्वारा ही मनुष्य को समझाया जा सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य परमेश्वर के असली चेहरे और उसके विद्रोहीशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ उत्पन्न करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और मनुष्य की समझ में न आ सकने वाले रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसके भ्रष्टाचार के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्य का सार ही उन सभी के लिए वास्तव में परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है।” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है” से)।
जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन को पूरा पढ़ लिया, तो उन्होंने मुझसे फिर से बात करना शुरू कर दी। उन्होंने यह समझने में मेरी मदद की कि परमेश्वर का कार्य बिल्कुल असली था और यह आलौकिक नहीं था। अंत के दिनों में परमेश्वर के निर्णय का कार्य वैसा नहीं था जैसी मैंने कल्पना की थी — परमेश्वर आकाश में एक बड़ी सी मेज बनाएंगे और बड़े सफेद सिंहासन में बैठेंगे। हर कोई परमेश्वर के आगे खड़ा होगा और वह हमारे पापों को ब्यौरा देते हुए यह निर्धारित करेंगे कि हम अच्छे थे या बुरे। इसके बाद, वह यह निर्णय लेंगे कि हम स्वर्ग जाएंगे या नर्क जाएंगे। इसके स्थान पर, परमेश्वर ने अपने वचनों को व्यक्त करने और इंसान के भ्रष्टाचार व अवज्ञा को प्रकट करने के लिए असलियत में अवतार लिया था। वह इंसान के पापों का निर्णय करता हैं और अपनी खुद की भ्रष्ट प्रवृत्ति को पहच���नने में इंसान की मदद करते हैं। इसके बाद, वह हमारे अंदर की पापी प्रवृत्ति को दूर कर देते हैं और सुबह पाप करने व शाम को स्वीकार करने के हमारी जिंदगी के दर्द को खत्म कर देते हैं। वह हमें सच्चे मायनों में उन्हें समझने में मदद करते हैं ताकि हम शुद्धिकरण व उद्धार पा सकें। इस तरह से, इंसान स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हो जाएगा। वे जो अंत के दिन के निर्णय कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं और अपनी जिंदगी के स्वभाव को नहीं बदलते हैं, उन्हें अंत के दिन में अग्निकुंड में फेंक दिया जाएगा। इस प्रकार से अपने निर्णय का कार्य करके, परमेश्वर सचमुच इंसान की यथार्थ जरूरत को सुनिश्चित करते हैं। मैंने अपने बारे में सोचा भले ही मैंने कई सालों तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो और अकसर परमेश्वर की प्रार्थना की हो और अपने पापों को स्वीकारा हो, लेकिन अब भी मैं एक पापभरी जिंदगी जी रहा हूं। मैंने जुआ खेला, शराब पी, झूठ बोले और धोखा दिया। मैंने लगातार पाप किए, उन्हें स्वीकार और फिर पाप किया। मेरी जिंदगी दुखों से भरी थी। स्पष्ट रूप से, हमें सचमुच जरूरत है कि परमेश्वर आकर निर्णय व उद्धार करने के अपने कार्य को पूरा करें। बाइबल कहती है: और उस पवित्रता के खोजी हो जिसके बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा। (इब्रानियों 12:14)। प्रभु पवित्र है। अगर इंसान अपने पापों से खुद ही प्रायश्चित नहीं करता है, तो वह परमेश्वर का चेहरा देखने योग्य नहीं है। मानिए कि यह वैसा मार्ग है जैसा हम इसके होने की कल्पना करते हैं। परमेश्वर अंत के दिनों में आएंगे और इंसान का निर्णय लेने के लिए हवा में सफेद सिंहासन स्थापित करेंगे। वह सीधे इंसान के अंत को निर्धारित करेंगे। अगर यही बात है, तो कैसे इंसान अपने पापों का प्रायश्चित करे? क्या इंसान को निन्दित या दंडित नहीं किया गया है? ऐसा लगता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही संभवतः लौट आया प्रभु यीशु है। मुझे गंभीरता के साथ इस खोजना व जांचना चाहिए। मुझे परमेश्वर का स्वागत करने के मौके को नहीं गंवाना चाहिए।
इसके बाद, उन्होंने मुझे वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक दी। मैं बहुत खुश था। अपने घर वापस लौट आने के बाद, मैं पूरी रात परमेश्वर के वचनों को पढ़ता रहा। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ें: “तुम लोगों के मुँह में छल और गंदगी, विश्वासघात और अभिमान की बातें भरी पड़ी है। तुम लोगों ने मुझ से कभी भी ईमानदारी या पवित्रता की बातें नहीं कही, न ही मेरे वचनों का अनुभव करने और मेरी आज्ञा का पालन करने के बारे में वचन कहे हैं। यह कैसा विश्वास है? तुम लोगों के हृदयों में अभिलाषाएँ और धन भरा हुआ है; तुम्हारे दिमागों में संसारिक चीजें भरी हुई है। हर दिन, तुम लोग हिसाब लगाते हो कि मुझसे कैसे प्राप्त करें, आँकलन करते रहते हो कि तुम लोगों मुझ से कितना धन और कितनी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं। हर दिन, तुम लोग और भी अधिक आशीषें अपने ऊपर बरसने का इंतज़ार करते हो ताकि तुम लोग और भी अधिक सुखदायक चीज़ों का आनन्द ले सकें। प्रत्येक क्षण तुम्हारे विचारों में जो रहता है वह मैं या वह मुझसे आने वाला सत्य नहीं है, बल्कि तुम लोगों के पति (पत्नी), पुत्र, पुत्रियाँ, या तुम क्या खाते या पहनते हो, और कैसे तुम लोग और भी अधिक बेहतर और बड़ी खुशी उठा सकते हो, आता है। भले ही तुम लोग अपने पेट को ऊपर तक भर लो, तब भी क्या तुम लोग एक लाश से जरा सा ही अधिक नहीं हो? भले ही तुम लोग अपने स्वरूप को भव्यता के साथ सजा लो, तब भी क्या तुम लोग एक चलती-फिरती लाश नहीं हो जिसमें कोई जीवन नहीं है? तुम लोग तब तक अपने पेट के लिए कठिन परिश्रम करते हो जब तक कि तुम लोगों के सिर के बाल सफेद नहीं हो जाते हैं, फिर भी कोई भी मेरे कार्य के लिए एक बाल तक बलिदान करने का इच्छुक नहीं होता है। तुम लोग अपने शरीर के लिए, और अपने पुत्रों और पुत्रियों के लिए प्रवास करते हो, परिश्रम करते हो, और अपने दिमाग को कष्ट देते हो, फिर भी कोई भी इस बात की चिंता या इसका विचार नहीं करता है कि मेरे हृदय और मन में क्या है। तुम लोग मुझ से क्या प्राप्त करने की आशा रखते हो?” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “कई बुलाए जाते हैं, किन्तु कुछ ही चुने जाते हैं” से)। मुझे लगा कि परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को एक तेज तलवार की तरह चीर दिया। इन वचनों ने मेरी जिंदगी की स्थिति को बिल्कुल यथार्थ प्रकट किया था। उन्होंने मेरे अंदरुनी दिल की असली स्थिति का वर्णन किया था। मैं जानता था कि केवल परमेश्वर ही इंसान के दिल को जांच सकते हैं और परमेश्वर ही इंसान के भ्रष्टाचार को प्रकट कर सकते हैं। मुझे लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन वाकई परमेश्वर के वचन हैं। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि मेरी खुद की निष्ठा झूठ और लालच से भरी हुई थी। मैं परमेश्वर का नाम बस लेता था लेकिन मेरे दिल में परमेश्वर नहीं थे। मुझे बस अपना परिवार, अपने काम और अपनी खुद की अपेक्षाओं से ही मतलब था। हर दिन, मैं बस यही सोचता था कि कैसे मैं ज्यादा धन कमा सकता हूं और कैसे अपने परिवार को एक ज्यादा बेहतर जिंदगी जीने में मदद कर सकता हूं। भले ही मैंने कई बार परमेश्वर से यह कहा था कि मैं उन्हें प्यार करूंगा, लेकिन मैंने वह नहीं किया जो मैं करने के लिए कहा था। मैं लगातार परमेश्वर की अवमानना करता रहा। साथ ही, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा और उनसे कहता रहा कि वह मुझे और आशीर्वाद दें, क्योंकि मेरा​ विश्वास था कि परमेश्वर अनंतकाल तक प्यार के परमेश्वर थे और परमेश्वर ने हमेशा ही इंसान के लिए दया दिखाई थी, और भले ही मैंने पाप किया हो, परमेश्वर फिर भी मेरे पापों को माफ कर देंगा, मुझ पर दया दिखाएंगा और मुझे आशीर्वाद देंगे। हालांकि, जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पूरा पढ़ लिया, तो मुझे समझ आ गया था कि किसी को भी परमेश्वर के धर्मी स्वभाव का अपमान करने की अनुमति नहीं है। मेरे दिल ने परमेश्वर का आदर करना शुरू कर दिया था। न्याय व ताड़ना पर परमेश्वर के वचनों के कारण मुझे अपने अतीत पर अफसोस महसूस होने लगा था। मैं बहुत दुखी था और मैं अपने बिस्तर पर रो रहा था। पहली बार, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए फूट—फूट कर रो रहा था और पश्चाताप कर रहा था, “हे प्रमेश्वर, कृपा कर मेरे पापों के लिए मुझे माफ करें। मैंने हर बात में आपकी अवमानना की। मैंने आपको धोखा दिया है। मैं आपके साथ रहने के योग्य नहीं हूं। मुझे दंड मिलना चाहिए। परमेश्वर, मुझे पछतावा करने और बचने का मौका देने के लिए धन्यवाद। अब से, सत्य के मार्ग में चलने का पूरा प्रयास करूंगा। मैं अपने सच्च दिल से आपको प्यार करूंगा।…” प्रार्थना करने के बाद, मैंने खुद से कहा कि मुझे परमेश्वर का न्याय पाने की जरूरत है ताकि मैं अपनी जिंदगी बदल सकूं जो पाप करने और स्वीकारने के चक्र में फंसी हुई थी। मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और वचनों को पढ़ना था और प्राय: ही उन पर विचार करना था ताकि मैं ज्यादा से ज्यादा सच को समझ पाऊं और अपनी देह को त्यागने की शक्ति एकत्रित कर पाऊं, सच को अभ्यास में लाऊं और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करूं।
इसके बाद से, मैं अपने काम में अपने साथ वचन देह में प्रकट होता है की प्रति ले जाया करता था। काम में अपने खाली समय के दौरान, मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ता और उन पर विचार करता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से, मैंने जाना कि मेरा व्यवहार व विचार कितने भ्रष्ट व विद्रोही थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: “तुम्हें अपनी सच्ची दशा के अनुसार चरण दर चरण प्रार्थना करनी चाहिए, और यह पवित्र आत्मा के द्वारा होनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य के लिए उसकी माँगों को पूरा करते हुए परमेश्वर के साथ वार्तालाप करनी चाहिए। जब तुम अपनी प्रार्थनाओं का अभ्यास करना आरंभ करते हो तो सबसे पहले अपना हृदय परमेश्वर को दो। परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास न करो; केवल परमेश्वर से अपने हृदय की बातों को कहने की कोशिश करो। जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो तो इस प्रकार कहो: ‘हे परमेश्वर! केवल आज ही मैंने यह महसूस किया है कि मैं तेरी आज्ञा का उल्लंघन किया करता था। मैं पूरी तरह से भ्रष्ट और घृणित हूँ। पहले मैं अपने समय को बर्बाद कर रहा था; आज से मैं तेरे लिए जीऊँगा। मैं अर्थपूर्ण जीवन जीऊँगा, और तेरी इच्छा को पूरी करूँगा। मैं जानता हूँ कि तेरा आत्मा सदैव मेरे भीतर कार्य करता है, और सदैव मुझे प्रज्ज्वलित और प्रकाशित करता है, ताकि मैं तेरे समक्ष प्रभावशाली और मजबूत गवाही दे सकूँ, जिससे मैं हमारे भीतर शैतान को तेरी महिमा, तेरी गवाही और तेरी विजय दिखाऊँ।’ जब तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारा हृदय पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाएगा, इस प्रकार से प्रार्थना कर लेने के बाद तुम्हारा हृदय परमेश्वर के निकट होगा …” (“वचन देह में प्रकट होता है” से “प्रार्थना की क्रिया के विषय में” से)। परमेश्वर के वचनों में, मुझे एक मार्ग मिला जिससे मैं अपने भ्रष्ट आचरण को ठीक कर सकता था। मैं सच्चे नजरिए के साथ अपने दिल की गहराई से परमेश्वर से प्रार्थना करनी शुरू कर दी। इस तरह की प्रार्थना के साथ, मैं तुरंत ही यह महसूस कर सकता था कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे। मेरे अंदर, निष्ठा और ताकत थी। मैं जैसे जिया करता था अब मैंने वैसे जीना छोड़ दिया था और मेरे दिल में जो भ्रष्ट विचार व धारणाएं थी अब वे कर्म में परिवर्तित नहीं होती थी। अब मैं वह जिंदगी नहीं जीता था जिसमें मैं पहले पाप करता था और फिर उनका पछतावा किया करता था। बल्कि, मैं वाकई परमेश्वर की रोशनी में जीने लगा था। अब मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद का मार्गदर्शन करने लगा था। मेरे कई दृष्टिकोण भी बदल गए थे। मैं पहले की तुलना में ज्यादा खुशी से जीने लगा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने मेरी जिंदगी के लिए मुझे एक उचित लक्ष्य दे दिया था। अब मैं अपने दिमाग को बहुत ज्यादा नहीं खपाता हूँ और विलासितापूर्ण जिंदगी जीने की कोशिश नहीं करता हूँ जैसा कि मैं पहले किया करता था। मुझे अन्य लोगों की तुलना में अब श्रेष्ठता नहीं चाहिए थी। बल्कि, अपने भ्रष्ट व्यवहार से मुक्त होने और शुद्धिकरण व उद्धार पाने के लिए सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयास करता हूँ। मैं सभी मामलों में परमेश्वर के वचनों का पालन और परमेश्वर के प्रेम को अदा करने के लिए इंसान के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने का भी प्रयास करता हूँ।
जुलाई 2014 में, मैं फिलिपीन्स लौट आया। मैं यह जानकर काफी खुश था कि परमेश्वर ने फिलिपीन्स से कई भाईयों व बहनों को चुना था। आज, मैं कलीसिया की जिंदगी जीता हूं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कलीसिया में अपने भाईयों व बहनों के साथ परमेश्वर के वचनों के बारे में बातचीत करता हूं। हम एक—दूसरे की मदद व सहयोग करते हैं और हम सभी सच के मार्ग पर चलने के, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने और उद्धार पाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। हम अपने देश में और अन्य देशों में लोगों के समक्ष अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए भी कड़ी मेहनत कर रहे हैं। हम उन्हें बताना चाहते हैं कि प्रभु यीशु वापस आ गए हैं और हम चाहते हैं कि वे भी अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार पाएं जैसे हमने पाया है। धन्यवाद सर्वशक्तिमान परमेश्वर! अब, मेरी जिंदगी हर रोज पूरी और खुशमय है। अब मैं उस विकृत व पतित जिंदगी से पूरी तरह से छुटकारा पा चुका हूं। स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे अपने जीवन के लक्ष्य और दिशा को खोजने में मार्गदर्शन दिया है। मुझे लगता है कि इसी प्रकार से जीने से हम एक अर्थपूर्ण जीवन जी सकते हैं!
                                                        स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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Welcome the second coming of the Lord Jesus | Hindi Gospel Preaching "स्वर्गिक राज्य का मेरा स्वप्न"
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 काफी कुछ ईसाई निम्नलिखित के बारे में भ्रमित हैं: चूंकि हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, हमें हमारे पापों को माफ कर दिया गया है और अनुग्रह से बचाया गया है, इसलिए हम अभी भी दिन में पाप करते हैं और शाम को कबूल करते हैं, पाप के बंधन से बचने में असमर्थ हैं ? प्रभु यीशु ने स्पष्ट रूप से कहा:"मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है।दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है।"(यूहन्ना 8:34-35)(© BSI )बाइबल कहती है: "इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ।" (पतरस 1:16) (© BSI )
 ईश्वर पवित्र है, इसलिए यदि हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं, तो हमें पाप को दूर करना चाहिए और शुद्धि प्राप्त करनी चाहिए।  और फिर भी हम हर समय पाप करते हैं और हम पूरी तरह से गंदे हैं और शैतान के हैं।  हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य कैसे हो सकते हैं?  यह कार्यक्रम आपको पापों को दूर करने और स्वर्ग के राज्य में बसाए जाने का मार्ग लाएगा।  
कृपया देखने का आनंद लें!
Welcome the second coming of the Lord Jesus | Hindi Gospel Preaching "स्वर्गिक राज्य का मेरा स्वप्न"
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जैसे ही कोई दक्षिण कोरियाई पादरी प्रभु के आगमन की उत्‍सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा होता है, तो उसे चमकती पूर्वी बिजली के बारे में पता चलता है जो चीन में प्रकट हुई है, जो यह गवाही देती है कि प्रभु पहले ही लौट चुका है। वह सच्‍चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने के लिए चीन जाता है। कई असफलताओं के बाद वह सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों को पढ़ने में समर्थ होता है, लेकिन जैसे ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों के माध्‍यम से प्रभु की आवाज़ को पहचाता है, तो अचानक ही उसे सीसीपी सरकार द्वारा गिरफ़्तार करके कोरिया निर्वासित कर दिया जाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों को नहीं पढ़ पाने के कारण वह बहुत परेशान और मायूस अनुभव करता है... एक दिन अनायास उसे सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की कलीसिया की सुसमाचार की वेबसाईट का पता चलता है और वह कलीसिया के साथ सम्‍पर्क स्‍थापित करता है। सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की कलीसिया के गवाहों की गवाही और संगति के माध्‍यम से, वह पूरी तरह यह निर्धारित करता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर ही प्रभु यीशु की वापसी है। वह प्रसन्‍नतापूर्वक अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर का कार्य स्‍वीकार कर लेता है और स्‍वर्ग के राज्‍य में प्रवेश करने का मार्ग पा लेता है। स्‍वर्ग के राज्‍य का उसका अवसर अंतत: सच्‍चाई बन जाता है।
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मसीही वीडियो प्रभु यीशु के फिर से लौटने का सुसमाचार लाता है तथा प्रभु के स्वर्ग राज्य में ऊपर उठाए जाने के मार्ग का स्वागत करता है!  देखिए ऑनलाइन मुफ्त मे!
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"कितनी सुंदर वाणी।" क्लिप 1 - प्रभु यीशु के पुनरागमन की भविष्‍यवाणियां कैसे सच होती हैं?
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Hindi Gospel Preaching| "कितनी सुंदर वाणी।" क्लिप 1 - प्रभु यीशु के पुनरागमन की भविष्‍यवाणियां कैसे सच होती हैं?
धार्मिक मंडलियों में कई लोग प्रभु के बादलों पर सवार होकर नीचे उतरने की भविष्‍यवाणी से चिपके रहकर यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि प्रभु इस तरीके से आकर उन्‍हें स्‍वर्ग के राज्‍य में आरोहित करेंगे, लेकिन वे प्रभु के गुप्‍त आगमन की भविष्‍यवाणियों को अनदेखा कर देते हैं: "देख, मैं चोर के समान आता हूँ" (प्रकाशितवाक्य 16:15)। (© BSI) "आधी रात को धूम मची: 'देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो'" (मत्ती 25:6)। (© BSI)  तो प्रभु के पुनरागमन की ये भविष्‍यवाणियां कैसे पूरी होती हैं? और किस तरह हम प्रभु के लौटने का स्‍वागत करने वाली समझदार कुंवारियां बनें?   
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सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में वह सभी सत्य समाहित है जिसे मनुष्य को समझने की आवशकता है, और जो उसे नए युग में ले जाता है
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Hindi Gospel Video "भक्ति का भेद - भाग 2" क्लिप 2 - देहधारी परमेश्वर को कैसे समझें
अंत के दिनों में, परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य करने के लिए देहधारी हुए हैं। लेकिन चूंकि हम देहधारण की सच्चाई को नहीं समझते हैं, हम देहधारी परमेश्वर को एक साधारण व्यक्ति की तरह मानते हैं, हम परमेश्वर की वाणी को पहचान नहीं सकते और हम तो यह भी नहीं जानते कि प्रभु का स्वागत कैसे किया जाए — यहाँ तक कि हम परमेश्वर का अनादर और उनकी निंदा करने के लिए धार्मिक दुनिया और सत्ताधारी ताकतों का अनुसरण करने लगते हैं — परिस्थिति उससे अलग नहीं है जब परमेश्वर ने अनुग्रह के युग का अपना कार्य करने के लिए प्रभु यीशु के रूप में देहधारण किया था। इसलिए, ऐसा प्रतीत होता है कि देहधारण के सत्य को समझना परमेश्वर को जानने की हमारी कुंजी है। तो फिर असल में देहधारण है क्या? देहधारण का सार क्या है?   
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हम किस प्रकार समझ सकते हैं कि यीशु मसीह का सार मार्ग, सत्य, और जीवन हैं? सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ें, आप जीवन के कई रहस्यों के बारे में खोज पाएंगे।
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Hindi Gospel Video "परमेश्‍वर का नाम बदल गया है?!" क्लिप 3 - परमेश्वर के नाम का महत्‍व 
“यहोवा” और “यीशु” व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में परमेश्वर के नाम थे, और प्रकाशितवाक्य में यह भविष्यवाणी की गयी है कि अंत के दिनों में परमेश्वर एक नया नाम अपनायेंगे। परमेश्वर को अलग-अलग युगों में विभिन्न नामों से क्यों पुकारा जाता है? इन दो नामों “यहोवा” और “यीशु” का क्य��� महत्‍व है? यह लघु वीडियो आपके लिए इस रहस्य पर से परदा उठायेगा।
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जो आज परमेश्वर के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं
परमेश्वर की गवाही देने के लिए और बड़े लाल अजगर को शर्मिन्दा करने के लिए तुम्हारे पास एक सिद्धांत, एक शर्त होनी चाहिए: अपने दिल में तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना चाहिए। यदि तू परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं करेगा तो तेरे पास शैतान को शर्मिन्दा करने का कोई तरीका नहीं होगा। अपने जीवन के विकास द्वारा, तुम बड़े लाल अजगर को त्यागते हो और उसका अत्यधिक तिरस्कार करते हो, और केवल तभी बड़ा लाल अजगर पूरी तरह से शर्मिन्दा होगा। जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक होगे, उतना ही अधिक परमेश्वर के प्रति तुम्हारे प्रेम का सबूत होगा और उस बड़े लाल अजगर के लिए घृणा होगी; जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करोगे, उतना ही अधिक सत्य के प्रति तुम्हारी अभिलाषा का सबूत होगा। जो लोग परमेश्वर के वचन की लालसा नहीं करते हैं वे बिना जीवन के होते हैं। ऐसे लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों से बाहर ही रहते हैं और जो सिर्फ धर्म से संबंधित होते हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर के वचनों की और भी अधिक गहरी समझ होती है क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचनों की अभिलाषा नहीं करते हो तो तुम वास्तव में उसके वचन को खा और पी नहीं सकते हो और यदि तुम्हें परमेश्वर के वचनों का ज्ञान नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार से परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते या उसे संतुष्ट नहीं कर सकते।
परमेश्वर पर अपने विश्वास में, तुम्हें परमेश्वर को कैसे जानना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर को उसके आज के वचनों और कार्य के आधार पर जानना चाहिए, बिना किसी भटकाव या भ्रान्ति के, और अन्य सभी चीजों से पहले तुम्हें परमेश्वर के कार्य को जानना चाहिए। यही परमेश्वर को जानने का आधार है। वे सभी विभिन्न भ्रांतियां जिनमें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध स्वीकृति नहीं है, वे धार्मिक अवधारणाएं हैं, वे ऐसी स्वीकृति हैं जो पथभ्रष्ट और गलत हैं। धार्मिक अगुवाओं की सबसे बड़ी कुशलता यह है कि वे अतीत में स्वीकृत परमेश्वर के वचनों को लेकर आते हैं और परमेश्वर के आज के वचनों के विरुद्ध उनकी जांच करते हैं। यदि आज के समय में परमेश्वर की सेवा करते समय, तुम पवित्र आत्मा द्वारा अतीत में कही गई प्रबुद्ध बातों को पकड़े रहते हो, तो तुम्हारी सेवा रुकावट उत्पन्न करेगी और तुम्हारे अभ्यास पुराने हो जाएँगे और धार्मिक अनुष्ठान से कुछ अधिक नहीं होंगे। यदि तुम यह विश्‍वास करते हो जो परमेश्‍वर की सेवा करते हैं उन्‍हें बाह्य रूप में विनम्र और धैर्यवान होना चाहिए..., और यदि तुम आज इस प्रकार की जानकारी को अभ्यास में लाते हो तो ऐसा ज्ञान धार्मिक अवधारणा है, और इस प्रकार का अभ्यास एक पाखण्डी कार्य बन गया है। "धार्मिक अवधारणाएं" उन बातों को दर्शाती हैं जो अप्रचलित और पुराने ढंग की हैं (परमेश्वर के द्वारा पहले कहे गए वचनों और पवित्र आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर प्रकट किए गए प्रकाश की स्वीकृति समेत), और यदि वे आज अभ्यास में लाए जाते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं, और मनुष्य को कोई भी लाभ नहीं देते हैं। यदि मनुष्य अपने भीतर की उन बातों को शुद्ध नहीं कर पाता है जो धार्मिक अवधारणाओं से आती हैं, तो वे बातें मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की सेवकाई में बहुत बड़ी बाधा बन जाएँगी। धार्मिक अवधारणाओं वाले लोग पवित्र आत्मा के कार्यों के साथ किसी भी प्रकार से कदम से कदम नहीं मिला सकते हैं, वे एक कदम, फिर दो कदम पीछे हो जाएंगे—क्योंकि ये धार्मिक अवधारणाएं मनुष्य को असाधारण रूप से आत्मतुष्ट और घमण्डी बना देती हैं। परमेश्वर ��तीत में कही गई बातों और किए गए कार्यों की कोई ललक महसूस नहीं करता है, यदि कुछ अप्रचलित हो गया है, तो वह उसे समाप्त कर देता है। निश्चय ही तुम अपनी अवधारणाओं को त्यागने में सक्षम हो? यदि तुम परमेश्वर के पूर्व में कहे गए वचनों पर बने रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि तुम परमेश्वर के कार्य को जानते हो? यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रकाश को आज स्वीकार करने में असमर्थ हो, और उसके बजाय अतीत के प्रकाश से चिपके रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध हो सकता है कि तुम परमेश्वर के नक्शेकदम पर चलते हो? क्या तुम अभी भी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में असमर्थ हो? यदि ऐसा है, तो तुम परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाओगे।
यदि मनुष्य धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ दे, तो वह आज परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य को मापने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करेगा, और उसके बजाय सीधे तौर पर उनका पालन करेगा। भले ही परमेश्वर का आज का कार्य साफ़ तौर पर अतीत के कार्य से अलग है, तुम अतीत के विचारों का त्याग कर पाते हो और आज सीधे तौर पर परमेश्वर के वचनों का पालन कर पाते हो। यदि तुम इस प्रकार के ज्ञान के योग्य हो कि तुम आज परमेश्वर के कार्य को सबसे मुख्य स्थान द��ते हो, भले ही उसने अतीत में किसी भी तरह से कार्य किया हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जो अपनी अवधारणों को छोड़ चुका है, जो परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, और जो परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन करने में सक्षम है और परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण करता है। इस तरह, तुम ऐसे व्यक्ति होगे जो सचमुच परमेश्वर का आज्ञापालन करता है। तुम परमेश्वर के कार्य का विश्लेषण या अध्ययन नहीं करते हो; यह कुछ ऐसा है कि मानो परमेश्वर अपने अतीत के कार्य को भूल गया है और तुम भी उसे भूल गए हो। वर्तमान ही वर्तमान है, और अतीत, बीता हुआ कल हो गया है, और चूँकि परमेश्वर ने जो कुछ अतीत में किया था, आज उसे अलग कर दिया है, इसलिए तुम्हें भी उसमें टिके नहीं रहना चाहिए। केवल तभी तुम वैसे व्यक्ति बन पाओगे जो परमेश्वर का पूरी तरह से आज्ञापालन करता है और जिसने अपनी धार्मिक अवधारणाओं को पूरी तरह से त्याग दिया है।
क्योंकि परमेश्वर के कार्य में हमेशा नई-नई प्रगति होती है, इसलिए यहां पर नया कार्य है, और इसलिए अप्रचलित और पुराना कार्य भी है। यह पुराना और नया कार्य परस्पर विरोधी नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक है; प्रत्येक कदम पिछले कदम के बाद आता है। क्योंकि नया कार्य हो रहा है, इसलिए पुरानी चीजें निस्संदेह समाप्त कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मनुष्य की लम्बे समय से चली आ रही कुछ प्रथाओं और पारंपरिक कहावतों ने, मनुष्य के कई सालों के अनुभवों और शिक्षाओं के साथ मिलकर, मनुष्य के दिमाग में सभी प्रकार की अवधारणाएं बना दी हैं। फिर भी मनुष्यों के द्वारा इस प्रकार की अवधारणाएं बनाने की और भी अधिक अनुकूल बात यह है कि परमेश्वर ने अभी तक अपना वास्तविक चेहरा और निहित स्वभाव मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं किया है, और साथ ही प्राचीन समय के पारंपरिक सिद्धांतों का बहुत सालों से विस्तार हुआ है। इस प्रकार यह कहना सही होगा कि परमेश्वर में मनुष्यों के विश्वास में, विभिन्न अवधारणाओं का प्रभाव रहा है जिसके कारण मनुष्य के ज्ञान में निरंतर उत्पत्ति और विकास हुआ है जिसमें उसके पास परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की धारणाएं हैं—इस परिणाम के साथ कि परमेश्वर की सेवा करने वाले कई धार्मिक लोग उसके शत्रु बन बैठे हैं। इसलिए, लोगों की धार्मिक अवधारणाएं जितनी अधिक मजबूत होती हैं, वे परमेश्वर का विरोध उतना ही अधिक करते हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही अधिक दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता है, और वह कभी भी सिद्धांत नहीं बनता, इसके बजाय, निरंतर बदलता रहता है और कमोवेश परिवर्तित होता रहता है। यह कार्य स्वयं परमेश्वर के निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है। यही परमेश्वर के कार्य का निहित सिद्धांत और अनेक उपायों में से एक है जिससे परमेश्वर अपने प्रबंधन को पूर्ण करता है। यदि परमेश्वर इस प्रकार से कार्य न करे, तो मनुष्य बदल नहीं पाएगा या परमेश्वर को जान नहीं पाएगा, और शैतान पराजित नहीं होगा। इसलिए, उसके कार्य में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो अनिश्चित दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में ये समय-समय पर होने वाले परिवर्तन हैं। हालाँकि, मनुष्य जिस प्रकार से परमेश्वर पर विश्वास करता है, वह बहुत भिन्न है। वह पुराने, परिचित सिद्धांतों और पद्धतियों से चिपका रहता है, और जितने अधिक वे पुराने होते हैं उतने ही अधिक उसे प्रिय होते हैं। मनुष्य का मूर्ख दिमाग, एक ऐसा दिमाग जो पत्थर के समान दुराग्रही है, परमेश्वर के इतने सारे अथाह नए कार्यों और वचनों को कैसे स्वीकार कर सकता है? मनुष्य हमेशा नए रहने वाले और कभी भी पुराने न होने वाले परमेश्वर से घृणा करता है; वह हमेशा ही प्राचीन सफेद बाल वाले और स्थिर परमेश्वर को पसंद करता है। इस प्रकार, क्योंकि परमेश्वर और मनुष्य, दोनों की अपनी-अपनी पसंद है, मनुष्य परमेश्वर का बैरी बन गया है। इनमें से बहुत से विरोधाभास आज भी मौजूद हैं, ऐसे समय में जब परमेश्वर लगभग छः हजार सालों से नया कार्य कर रहा है। तब, वे किसी भी इलाज से परे हैं। हो सकता है कि यह मनुष्य की हठ के कारण या किसी मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के प्रबंधन के नियमों की अनुल्लंघनीयता के कारण हो—परन्तु वे पादरी और महिलाएँ अभी भी फटी-पुरानी किताबों और दस्तावेजों से चिपके रहते हैं, जबकि परमेश्वर अपने प्रबंधन के अपूर्ण कार्य को ऐसे आगे बढ़ाता जाता है मानो उसके साथ कोई है ही नहीं। हालांकि ये विरोधाभास परमेश्वर और मनुष्यों को शत्रु बनाते हैं, और इनमें कभी मेल भी नहीं हो सकता है, परमेश्वर उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है, जैसे कि वे होकर भी नहीं हैं। फिर भी मनुष्य, अभी भी अपनी आस्थाओं और अवधारणाओं से चिपका रहता है, और उन्हें कभी भी छोड़ता नहीं है। फिर भी एक बात बिल्कुल स्पष्ट है: हालांकि मनुष्य अपने रुख से विचलित नहीं होता है, परमेश्वर के कदम हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं और वह अपना रुख परिस्थितियों के अनुसार हमेशा बदलता रहता है, और अंत में, यह मनुष्य ही होगा जो बिना लड़ाई लड़े हार जाएगा। परमेश्वर, इस समय, अपने हरा दिए गए दुश्मनों का सबसे बड़ा शत्रु है, और इंसानों में जो हार गए हैं और वे जो अभी भी हारने के लिए बचे हैं, उनके मध्य विजेता भी मौजूद हैं। परमेश्वर के साथ कौन प्रतिस्पर्धा कर सकता है और विजयी हो सकता है? मनुष्य की अवधारणाएं परमेश्वर से आती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि उनमें से कई परमेश्वर के कार्यों के द्वारा ही उत्पन्न हुई हैं। फिर भी परमेश्वर इस कारण से मनुष्यों को नहीं क्षमा करता है, इसके अलावा, न ही वह परमेश्वर के कार्य के बाहर खेप-दर-खेप "परमेश्वर के लिए" ऐसे उत्पाद उत्पन्न करने के लिए मनुष्य की प्रशंसा करता है। इसके बजाय, वह मनुष्यों की अवधारणाओं और पुरानी, पवित्र आस्थाओं के कारण बहुत ही ज्यादा चिढ़ा हुआ है और यहां तक कि वह उन तिथियों की भी उपेक्षा करता है जिसमें ये अवधारणाएं सबसे पहले सामने आई थीं। वह इस बात को बिल्कुल स्वीकार नहीं करता है कि ये अवधारणाएँ उसके कार्य के कारण बनी हैं, क्योंकि मनुष्य की अवधारणाएं मनुष्यों के द्वारा ही फैलाई जाती हैं; उनका स्रोत मनुष्यों की सोच और दिमाग है, परमेश्वर नहीं बल्कि शैतान है। परमेश्वर का इरादा हमेशा यही रहा है कि उसके कार्य नए और जीवित रहें, पुराने या मृत नहीं, और जिन बातों को वह मनुष्यों को दृढ़ता से थामे रखने के लिए कहता है वह युगों और कालों में विभाजित है, न कि अनन्त और स्थिर है। यह इसलिए क्योंकि वह परमेश्वर है जो मनुष्य को जीवित और नया बनने के योग्य बनाता है, बजाय शैतान के जो मनुष्य को मृत और पुराना बने रहने देना चाहता है। क्या तुम सब अभी भी यह नहीं समझते हो? तुम में परमेश्वर के प्रति अवधारणाएं हैं और तुम उन्हें छोड़ पाने में सक्षम नहीं हो क्योंकि तुम संकीर्ण दिमाग वाले हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर के कार्य में बहुत कम बोध है, या इसलिए कि परमेश्वर का कार्य मानवीय इच्छाओं के अनुसार नहीं है—इसके अलावा, न ही ऐसा इसलिए है कि परमेश्वर अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा बेपरवाह रहता है। तुम अपनी अवधारणाओं को इसलिए नहीं छोड़ सकते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता की अत्यधिक कमी है और क्योंकि तुममें परमेश्वर की सृष्टि की थोड़ी सी भी समानता नहीं है, इसलिए नहीं कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ों को कठिन बना रहा है। यह सब कुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और इसका परमेश्वर के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है; सारे कष्ट और दुर्भाग्य केवल मनुष्य के कारण ही आये हैं। परमेश्वर के इरादे हमेशा नेक होते हैं: वह तुम्हें अवधारणा बनाने का कारण देना नहीं चाहता, बल्कि वह चाहता है कि युगों के बदल��े के साथ-साथ तुम भी बदल जाओ और नए होते जाओ। फिर भी तुम फ़र्क नहीं कर सकते हो और हमेशा या तो अध्ययन या फिर विश्लेषण कर रहे होते हो। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ें मुश्किल बना रहा है, बल्कि तुममें परमेश्वर के लिए आदर नहीं है, और तुम्हारी अवज्ञा भी बहुत ज्यादा है। एक छोटा सा प्राणी जो पहले परमेश्वर के द्वारा दिया गया था, उसका बहुत ही नगण्य भाग लेने का साहस करता है, और परमेश्वर पर आक्रमण करने के लिए उसे पलट देता है—क्या यह मनुष्यों के द्वारा अवज्ञा नहीं है? यह कहना उचित है कि परमेश्वर के सामने अपने विचारों को व्यक्त करने में मनुष्य पूरी तरह से अयोग्य है, और अपनी इच्छानुसार बेकार, बदबूदार, सड़े हुए सिद्धांतों के साथ ही साथ उन खोटी अवधारणाओं को व्यक्त करने में तो और भी अयोग्य है। क्या ये और भी बेकार नहीं हैं?
परमेश्वर की सचमुच सेवा करने वाला व्यक्ति वह है जो परमेश्वर के हृदय के करीब है और परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाने के योग्य है, और जो अपनी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में सक्षम है। यदि तुम चाहते हो कि परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना फलदायी हो, तो तुम्हें अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा। यदि तुम परमेश्वर की सेवा करने की इच्छा रखते हो, तो यह तुम्हारे लिए और भी आवश्यक होगा कि तुम सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करो और अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के वचनों का पालन करो। परमेश्वर की सेवा करने के लिए व्यक्ति में यह सब गुण होना चाहिए। यदि तुममें इस ज्ञान की कमी है, जैसे ही तुम परमेश्वर की सेवा करोगे, तुम उसमें रुकावटें और बाधाएँ उत्पन्न करोगे, और यदि तुम अपनी अवधारणाओं को पकड़े रहोगे, तो तुम निश्चित तौर पर परमेश्वर के द्वारा फिर कभी न उठ पाने के लिए गिरा दिए जाओगे। उदाहरण के लिए, वर्तमान को देखो। आज के बहुत सारे कथन और कार्य बाइबल के अनुरूप नहीं हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्व में किए गए कार्य के साथ असंगत भी हैं, और यदि आज्ञा मानने की इच्छा तुम्हारे अंदर नहीं है तो किसी भी समय तुम्हारा पतन हो सकता है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा और अपने विचारों को ठीक करना होगा। भविष्य में कही जाने वाली बहुत सारी बातें अतीत में कही गई बातों से असंगत होगी, और यदि अब तुममें आज्ञापालन की इच्छा की कमी होगी, तो तुम अपने सामने आने वाले मार्ग पर चल नहीं पाओगे। यदि परमेश्वर के कार्य करने का कोई एक तरीका तुम्हारे भीतर जड़ जमा लेता है और तुम उसे कभी छोड़ते नहीं हो, तो यह तरीका तुम्हारी धार्मिक अवधारणा बन जाएगा। यदि परमेश्वर क्या है, इस सवाल ने तुम्हारे भीतर जड़ जमा ली है तो तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, और यदि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन बनने के योग्य हैं, तो तुम्हारे भीतर परमेश्वर के बारे में अवधारणाएं अब और नहीं होंगी। जो कोई परमेश्वर के बारे में सही ज्ञान रखता है उसमें कोई भी अवधारणा नहीं होगी, और वह सिद्धांतों का पालन नहीं करेगा।
इन प्रश्नों को पूछकर अपने आप को जगाओ:
1. क्या तुम्हारा भीतर का ज्ञान परमेश्वर की सेवकाई करने में विघ्न डालता है?
2. तुम्हारे दैनिक जीवन में कितनी धार्मिक प्रथाएँ हैं? यदि तुम मात्र भक्ति का रूप दिखाते हो, तो क्या इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा जीवन विकसित और परिपक्व हो गया है?
3. जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, क्या तुम अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग कर पाते हो?
4. जब तुम प्रार्थना करते हो, तो क्या धार्मिक अनुष्ठानों से दूर हो पाते हो?
5. क्या तुम परमेश्वर के द्वारा उपयोग में लाने के योग्य हो?
6. तुम्हारी परमेश्वर के ज्ञान में कितनी धार्मिक अवधारणाएं हैं?
                                                                 स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
अनुशंसित: "वचन देह में प्रकट होता है" पढ़े और सुने पवित्र आत्मा कलीसियाओं से क्या कह रही है।
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परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तविकता पर केंद्रित होना चाहिए, न कि धार्मिक रीति-रिवाजों पर
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तुम कितनी धार्म��क परम्पराओं का पालन करते हो? कितनी बार तुमने परमेश्वर के वचन का विरोध किया है और अपने तरीके से चले हो? कितनी बार तुम परमेश्वर के वचनों को इसलिए अभ्यास में लाए हो क्योंकि तुम उसके उत्तरदायित्व के बारे में सच में विचारशील हो और उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हो? परमेश्वर के वचन को समझो और उसे अभ्यास में लाओ। क्रियाओं और कर्मों में उच्च सिद्धांत वाले बनो; यह नियम में बंधना या बेमन से बस दिखावे के लिए ऐसा करना नहीं है। बल्कि, यह एक सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचन में जीवन व्यतीत करना है। केवल इस प्रकार का अभ्यास ही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। ऐसी कोई भी प्रथा जो परमेश्वर को प्रसन्न करती हो कोई नियम नहीं है बल्कि सत्य का अभ्यास है।
कुछ लोगों में अपनी ओर ध्यान खींचने की विशेष प्रवृत्ति होती है। अपने भाई-बहनों की उपस्थिति में, वे कहते हैं कि वह परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ है, परंतु उनकी पीठ पीछे, वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं और पूरी तरह से कुछ और ही करते हैं। क्या वे धार्मिक फरीसियों जैसे नहीं हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो सच में परमेश्वर से प्यार करता है और जिसमें सत्य है वह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है, परंतु वह बाहर से ऐसा प्रकट नहीं करता है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह सत्य का अभ्यास करने को तैयार रहता है और अपने विवेक के विरुद्ध जाकर नहीं बोलता है या कार्य नहीं करता है। चाहे परिस्थिति कुछ भी हो, जब मामले उठते हैं तो वह बुद्धि का प्रदर्शन करता है और अपने कर्मों में उच्च सिद्धांत वाला होता है। इस तरह का व्यक्ति ही वह व्यक्ति है जो सच में सेवा करता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता के लिए दिखावटी प्रेम करते हैं। वे कई दिनों तक चिंता में अपनी भौंहें चढ़ा कर अपने दिन बिताते हैं, एक बनावटी अच्छा व्यक्ति होने का नाटक करते हैं, और एक दयनीय मुखाकृति का दिखावा करते हैं। कितना तिरस्करणीय है! यदि तुम उनसे प��छते कि "तुम परमेश्वर के प्रति किस प्रकार से आभारी हो? कृपया मुझे बताओ!" तो वे निरुत्तर हो जाते। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा मत करो, बल्कि परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम दर्शाने के लिए अपने वास्तविक अभ्यास का उपयोग करो, और एक सच्चे हृदय से उससे प्रार्थना करो। जो परमेश्वर के साथ व्यवहार करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करते हैं वे सभी पाखंडी हैं। कुछ लोग प्रत्येक प्रार्थना के साथ परमेश्वर के प्रति आभार के बारे में बोलते हैं, और जब कभी भी वे प्रार्थना करते हैं, तो पवित्र आत्मा के द्रवित हुए बिना ही रोना आरंभ कर देते हैं। इस तरह के मनुष्य धार्मिक रिवाजों और अवधारणाओं से सम्पन्न होते हैं; वे सदैव यह विश्वास करते हुए ऐसे रीति-रिवाजों और अवधारणाओं के साथ जीते हैं कि ऐसी क्रियाएँ परमेश्वर को प्रसन्न करती हैं, और यह कि सतही धार्मिकता या दुःखभरे आँसुओं का परमेश्वर समर्थन करता है। ऐसे बेतुके लोगों से कौन सी भलाई आ सकती है? अपनी विनम्रता का प्रदर्शन करने के लिए, कुछ लोग दूसरों की उपस्थिति में अनुग्रह का दिखावा करते हैं। कुछ लोग दूसरों के सामने जानबूझकर किसी नितान्त शक्तिहीन मेमने की तरह चापलूस होते हैं। क्या यह राज्य के लोगों का चाल-चलन है? राज्य के व्यक्ति को जीवंत और स्वतंत्र, भोला-भाला और स्पष्ट, ईमानदार और प्यारा होना चाहिए; एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्रता की स्थिति में हो। उसमें चरित्र और प्रतिष्ठा हो, और जहाँ कहीं जाए वह गवाही दे सकता हो; वह परमेश्वर और मनुष्य दोनों का प्यारा हो। वे जो विश्वास में नौसिखिये होते हैं उनके पास बहुत से बाहरी अभ्यास होते हैं; उन्हें सबसे पहले निपटान और काट-छांट की एक अवधि से अवश्य गुज़रना चाहिए। जिनके हृदय में परमेश्वर का विश्वास है वे बाहरी रूप से दूसरों को अलग नहीं दिखते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ और कर्म दूसरों के लिए प्रशंसनीय हैं। केवल ऐसे ही व्यक्ति परमेश्वर के वचनों पर जीवन बिताने वाले समझे जा सकते हैं। यदि तुम इस व्यक्ति को प्रतिदिन सुसमाचार का उपदेश देते हो, और उसे उद्धार में ला रहे हो, तब भी अंत में, तुम नियमों और सिद्धांतों में जी रहे हो, तब तुम परमेश्वर के लिए महिमा नहीं ला सकते हो। इस प्रकार के चाल-चलन के लोग धार्मिक लोग हैं, और पाखंडी भी हैं।
जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, वे पूछते हैं, "बहन, इन दिनों तुम कैसी रही हो?" वह उत्तर देती है, "मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हूँ और कि मैं उसके हृदय की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हूँ।" दूसरी कहती है, "मैं भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ और उसे संतुष्ट करने में असमर्थ हूँ।" ये कुछ वाक्य और वचन अकेले ही उनके हृदयों की गहराई की अधम चीजों को व्यक्त करते हैं। ऐसे वचन अत्यधिक घृणित और अत्यंत अरुचिकर हैं। ऐसे मनुष्यों की प्रकृति परमेश्वर का विरोध करती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं वे वही संचारित करते हैं जो उनके हृदयों में होता है और संवाद में अपने हृदय को खोल देते हैं। उनमें एक भी झूठा श्रम, कोई शिष्टताएँ या खोखली मधुर बातें नहीं होती है। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी पार्थिव नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें, बिना किसी समझ के, बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है। जब कोई दूसरा गाता है, तो वह नाचने लगता है, यहाँ तक कि यह समझे बिना कि उसके बरतन का चावल पहले से ही जला हुआ है। लोगों के इस प्रकार के चाल-चलन धार्मिक या सम्माननीय नहीं हैं, और बहुत ही तुच्छ हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ है! जब कुछ लोग आत्मा में जीवन के मामलों के बारे में संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं, यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते हैं, फिर भी वे अपने हृदयों में उसके प्रति एक सच्चे प्यार को कायम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरों से कोई लेना देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि किसी मनुष्य के प्रति। इसलिए इस बारे में लगातार दूसरों से कहना तुम्हारे किस उपयोग का है? तुम्हें अवश्य सत्य में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।
मनुष्य के सतही अच्छे कर्म किस चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं? वे देह की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, और यहाँ तक कि बाहरी सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते है, केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा का प्रतिनिधित्व करते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, तब भी तुम दूसरे को जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते हो या परमेश्वर से प्रेम करने के लिए दूसरों को उत्तेजित नहीं कर सकते हो। क्या तुम विश्वास करते हो कि ऐसे कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करेंगे? तुम विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर के हृदय की इच्छा है, यह आत्मा की इच्छा है, किन्तु सच में यह बेतुका है! तुम विश्वास करते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम चाहते हो, उसी में परमेश्वर आनंदित होता है। क्या जो तुम्हें अच्छा लगता है, परमेश्वर को अच्छा लगने का प्रतिनिधित्व कर सकता है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो तुम्हें अच्छा लगता है निश्चित रूप से यह वही है जिससे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर घृणा करता है और अस्वीकार करता है। यदि तुम कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो। इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना नहीं करते हो, और इसके बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर के हृदय की इच्छा को पूरा किया जा सकता है? यदि तुम्हारी क्रियाएँ सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम मनुष्यों में सबसे व्यर्थ हो। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसके केवल सतही अच्छे कर्म हैं, किन्तु सच्चाई से रहित हैं? ऐसे लोग पाखंडी फरीसी और धार्मिक लोग हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते हो और परिवर्तन नहीं कर सकते हो, तो तुम लोगों के पाखंड के तत्व और भी अधिक बढ़ जाएँगे। पाखंड के तत्व जितना अधिक होते हैं, परमेश्वर के प्रति विरोध उतना ही अधिक होता है, और अंत में, इस तरह के मनुष्य निश्चित रूप से त्याग दिए जाएँगे।
                                                                       स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
मसीही जीवन के इस भाग से।से ईसाइयों को पारस्परिक संबंधों, विवाह, अपने बच्चों को शिक्षित करने, प्रार्थना कैसे करें, आदि के बारे में सवालों के जवाब खोजने में मदद मिलेगी।
आप अपने विश्वास में आ रही किसी भी समस्या या कठिनाई के बारे में हमसे बात कर सकते हैं। परमेश्वर आपका मार्गदर्शन करें।: http://bit.ly/2pVA2EI
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Hindi Christian Movie | सुसमाचार दूत | Preaching the Gospel of the Kingdom of Heaven to All Peoples
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"क्या तू अपने कधों पर बोझ, अपना महान अदेश और अपनी उत्तरदायित्व के प्रति जागृत है? मिशन के प्रति तेरा ऐतिहासिक एहसास कहाँ चला गया? … कार्य को बढ़ाने हेतु योजनाओं में तुम्हारा अगला कदम क्या है? तुझे चरवाहे के रूप में देखने हेतु कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं? क्या तेरा कार्य काफी कठिन सा है?......"
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ईसाई चेन यिशिन कई वर्षों से प्रभु में विश्वास करती रही है, और उसने अंत के दिनों में प्रभु यीशु—सर्वशक्तिमान परमेश्वर की वापसी का स्वागत करने का सौभाग्य पाया है! उसे इंसान को बचाने की सर्वशक्तिमान परमेश्वर की उत्कट इच्छा समझ में आ गई और यह भी समझ में आ गया कि एक सृजित प्राणी का लक्ष्य और दायित्व क्या होना चाहिये। इसलिए उसने सुसमाचार का प्रचार और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देनी आरंभ कर दी। इस कार्य के लिये वह शहर-शहर, प्रांत-प्रांत घूमने लगी। इस दौरान उसे धार्मिक मंडलियों के दमन और अस्वीकृति का भी सामना करना पड़ा। सीसीपी ने उसका पीछा किया, उसे यातना दी। उसने अनेक दुख और पीड़ाएँ सहीं। मगर परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से वह अपने लक्ष्य पर डटी रही और बेख़ौफ़ तथा साहसपूर्वक आगे बढ़ती रही...
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आप अपने विश्वास में आ रही किसी भी समस्या या कठिनाई के बारे में हमसे बात कर सकते हैं। परमेश्वर आपका मार्गदर्शन करें।: http://bit.ly/2pVA2EI
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Hindi Christian Movie Trailer | सुसमाचार दूत | Bear the Cross and Preach the Gospel
प्रभु यीशु ने कहा, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है।" बाइबल: मत्ती 4:17 प्रभु यीशु ने कहा, "तुम सारे जगत में जाकर सारी सृष्‍टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो।" बाइबल: मरकुस 16:15
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प्रभु यीशु ने कहा, "देखो, मैं तुम्हें भेड़ों के समान भेड़ियों के बीच में भेजता हूँ, इसलिये साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोले बनो।" बाइबल: मत्ती 10:16
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Hindi Christian Movie Trailer | सुसमाचार दूत | Bear the Cross and Preach the Gospel
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ईसाई चेन यिशिन कई वर्षों से प्रभु में विश्वास करती रही है, और उसने अंत के दिनों में प्रभु यीशु—सर्वशक्तिमान परमेश्वर की वापसी का स्वागत करने का सौभाग्य पाया है! उसे  इंसान को बचाने की सर्वशक्तिमान परमेश्वर की उत्कट इच्छा समझ में आ गई और यह भी समझ में आ गया कि एक सृजित प्राणी का लक्ष्य और दायित्व क्या होना चाहिये।  इसलिए उसने सुसमाचार का प्रचार और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देनी आरंभ कर दी। इस कार्य के लिये वह शहर-शहर, प्रांत-प्रांत घूमने लगी। इस दौरान उसे धार्मिक मंडलियों के दमन और अस्वीकृति का भी सामना करना पड़ा। सीसीपी ने उसका पीछा किया, उसे यातना दी। उसने अनेक दुख और पीड़ाएँ सहीं। मगर परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से वह अपने लक्ष्य पर डटी रही और बेख़ौफ़ तथा साहसपूर्वक आगे बढ़ती रही...
अब अंत के दिन है, यीशु मसीह का दूसरा आगमन की भविष्यवाणियां मूल रूप से पूरी हो चुकी हैं। तो हम किस प्रकार बुद्धिमान कुंवारी बने जो प्रभु का स्वागत करते हैं? जवाब जानने के लिए अभी पढ़ें और देखें।
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परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तविकता पर केंद्रित होना चाहिए, न कि धार्मिक रीति-रिवाजों पर
मसीही जीवन के इस भाग से।से ईसाइयों को पारस्परिक संबंधों, विवाह, अपने बच्चों को शिक्षित करने, प्रार्थना कैसे करें, आदि के बारे में सवालों के जवाब खोजने में मदद मिलेगी।स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुएतुम कितनी धार्मिक परम्पराओं का पालन करते हो? कितनी बार तुमने परमेश्वर के वचन का विरोध किया है और अपने तरीके से चले हो? कितनी बार तुम परमेश्वर के वचनों को इसलिए अभ्यास में लाए हो क्योंकि तुम उसके उत्तरदायित्व के बारे में सच में विचारशील हो और उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हो? परमेश्वर के वचन को समझो और उसे अभ्यास में लाओ। क्रियाओं और कर्मों में उच्च सिद्धांत वाले बनो; यह नियम में बंधना या बेमन से बस दिखावे के लिए ऐसा करना नहीं है। बल्कि, यह एक सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचन में जीवन व्यतीत करना है। केवल इस प्रकार का अभ्यास ही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। ऐसी कोई भी प्रथा जो परमेश्वर को प्रसन्न करती हो कोई नियम नहीं है बल्कि सत्य का अभ्यास है।
कुछ लोगों में अपनी ओर ध्यान खींचने की विशेष प्रवृत्ति होती है। अपने भाई-बहनों की उपस्थिति में, वे कहते हैं कि वह परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ है, परंतु उनकी पीठ पीछे, वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं और पूरी तरह से कुछ और ही करते हैं। क्या वे धार्मिक फरीसियों जैसे नहीं हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो सच में परमेश्वर से प्यार करता है और जिसमें सत्य है वह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है, परंतु वह बाहर से ऐसा प्रकट नहीं करता है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह सत्य का अभ्यास करने को तैयार रहता है और अपने विवेक के विरुद्ध जाकर नहीं बोलता है या कार्य नहीं करता है। चाहे परिस्थिति कुछ भी हो, जब मामले उठते हैं तो वह बुद्धि का प्रदर्शन करता है और अपने कर्मों में उच्च सिद्धांत वाला होता है। इस तरह का व्यक्ति ही वह व्यक्ति है जो सच में सेवा करता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता के लिए दिखावटी प्रेम करते हैं। वे कई दिनों तक चिंता में अपनी भौंहें चढ़ा कर अपने दिन बिताते हैं, एक बनावटी अच्छा व्यक्ति होने का नाटक करते हैं, और एक दयनीय मुखाकृति का दिखावा करते हैं। कितना तिरस्करणीय है! यदि तुम उनसे पूछते कि "तुम परमेश्वर के प्रति किस प्रकार से आभारी हो? कृपया मुझे बताओ!" तो वे निरुत्तर हो जाते। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा मत करो, बल्कि परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम दर्शाने के लिए अपने वास्तविक अभ्यास का उपयोग करो, और एक सच्चे हृदय से उससे प्रार्थना करो। जो परमेश्वर के साथ व्यवहार करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करते हैं वे सभी पाखंडी हैं। कुछ लोग प्रत्येक प्रार्थना के साथ परमेश्वर के प्रति आभार के बारे में बोलते हैं, और जब कभी भी वे प्रार्थना करते हैं, तो पवित्र आत्मा के द्रवित हुए बिना ही रोना आरंभ कर देते हैं। इस तरह के मनुष्य धार्मिक रिवाजों और अवधारणाओं से सम्पन्न होते हैं; वे सदैव यह विश्वास करते हुए ऐसे रीति-रिवाजों और अवधारणाओं के साथ जीते हैं कि ऐसी क्रियाएँ परमेश्वर को प्रसन्न करती हैं, और यह कि सतही धार्मिकता या दुःखभरे आँसुओं का परमेश्वर समर्थन करता है। ऐसे बेतुके लोगों से कौन सी भलाई आ सकती है? अपनी विनम्रता का प्रदर्शन करने के लिए, कुछ लोग दूसरों की उपस्थिति में अनुग्रह का दिखावा करते हैं। कुछ लोग दूसरों के सामने जानबूझकर किसी नितान्त शक्तिहीन मेमने की तरह चापलूस होते हैं। क्या यह राज्य के लोगों का चाल-चलन है? राज्य के व्यक्ति को जीवंत और स्वतंत्र, भोला-भाला और स्पष्ट, ईमानदार और प्यारा होना चाहिए; एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्रता की स्थिति में हो। उसमें चरित्र और प्रतिष्ठा हो, और जहाँ कहीं जाए वह गवाही दे सकता हो; वह परमेश्वर और मनुष्य दोनों का प्यारा हो। वे जो विश्वास में नौसिखिये होते हैं उनके पास बहुत से बाहरी अभ्यास होते हैं; उन्हें सबसे पहले निपटान और काट-छांट की एक अवधि से अवश्य गुज़रना चाहिए। जिनके हृदय में परमेश्वर का विश्वास है वे बाहरी रूप से दूसरों को अलग नहीं दिखते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ और कर्म दूसरों के लिए प्रशंसनीय हैं। केवल ऐसे ही व्यक्ति परमेश्वर के वचनों पर जीवन बिताने वाले समझे जा सकते हैं। यदि तुम इस व्यक्ति को प्रतिदिन सुसमाचार का उपदेश देते हो, और उसे उद्धार में ला रहे हो, तब भी अंत में, तुम नियमों और सिद्धांतों में जी रहे हो, तब तुम परमेश्वर के लिए महिमा नहीं ला सकते हो। इस प्रकार के चाल-चलन के लोग धार्मिक लोग हैं, और पाखंडी भी हैं।
जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, वे पूछते हैं, "बहन, इन दिनों तुम कैसी रही हो?" वह उत्तर देती है, "मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हूँ और कि मैं उसके हृदय की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हूँ।" दूसरी कहती है, "मैं भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ और उसे संतुष्ट करने में असमर्थ हूँ।" ये कुछ वाक्य और वचन अकेले ही उनके हृदयों की गहराई की अधम चीजों को व्यक्त करते हैं। ऐसे वचन अत्यधिक घृणित और अत्यंत अरुचिकर हैं। ऐसे मनुष्यों की प्रकृति परमेश्वर का विरोध करती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं वे वही संचारित करते हैं जो उनके हृदयों में होता है और संवाद में अपने हृदय को खोल देते हैं। उनमें एक भी झूठा श्रम, कोई शिष्टताएँ या खोखली मधुर बातें नहीं होती है। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी पार्थिव नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें, बिना किसी समझ के, बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है। जब कोई दूसरा गाता है, तो वह नाचने लगता है, यहाँ तक कि यह समझे बिना कि उसके बरतन का चावल पहले से ही जला हुआ है। लोगों के इस प्रकार के चाल-चलन धार्मिक या सम्माननीय नहीं हैं, और बहुत ही तुच्छ हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्��ियाँ है! जब कुछ लोग आत्मा में जीवन के मामलों के बारे में संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं, यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते हैं, फिर भी वे अपने हृदयों में उसके प्रति एक सच्चे प्यार को कायम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरों से कोई लेना देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि किसी मनुष्य के प्रति। इसलिए इस बारे में लगातार दूसरों से कहना तुम्हारे किस उपयोग का है? तुम्हें अवश्य सत्य में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।
मनुष्य के सतही अच्छे कर्म किस चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं? वे देह की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, और यहाँ तक कि बाहरी सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते है, केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा का प्रतिनिधित्व करते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, तब भी तुम दूसरे को जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते हो या परमेश्वर से प्रेम करने के लिए दूसरों को उत्तेजित नहीं कर सकते हो। क्या तुम विश्वास करते हो कि ऐसे कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करेंगे? तुम विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर के हृदय की इच्छा है, यह आत्मा की इच्छा है, किन्तु सच में यह बेतुका है! तुम विश्वास करते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम चाहते हो, उसी में परमेश्वर आनंदित होता है। क्या जो तुम्हें अच्छा लगता है, परमेश्वर को अच्छा लगने का प्रतिनिधित्व कर सकता है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो तुम्हें अच्छा लगता है निश्चित रूप से यह वही है जिससे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर घृणा करता है और अस्वीकार करता है। यदि तुम कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो। इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना नहीं करते हो, और इसके बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर के हृदय की इच्छा को पूरा किया जा सकता है? यदि तुम्हारी क्रियाएँ सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम मनुष्यों में सबसे व्यर्थ हो। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसके केवल सतही अच्छे कर्म हैं, किन्तु सच्चाई से रहित हैं? ऐसे लोग पाखंडी फरीसी और धार्मिक लोग हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते हो और परिवर्तन नहीं कर सकते हो, तो तुम लोगों के पाखंड के तत्व और भी अधिक बढ़ जाएँगे। पाखंड के तत्व जितना अधिक होते हैं, परमेश्वर के प्रति विरोध उतना ही अधिक होता है, और अंत में, इस तरह के मनुष्य निश्चित रूप से त्याग दिए जाएँगे।
                                                                  स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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जो आज परमेश्वर के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं
परमेश्वर की गवाही देने के लिए और बड़े लाल अजगर को शर्मिन्दा करने के लिए तुम्हारे पास एक सिद्धांत, एक शर्त होनी चाहिए: अपने दिल में तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना चाहिए। यदि तू परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं करेगा तो तेरे पास शैतान को शर्मिन्दा करने का कोई तरीका नहीं होगा। अपने जीवन के विकास द्वारा, तुम बड़े लाल अजगर को त्यागते हो और उसका अत्यधिक तिरस्कार करते हो, और केवल तभी बड़ा लाल अजगर पूरी तरह से शर्मिन्दा होगा। जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक होगे, उतना ही अधिक परमेश्वर के प्रति तुम्हारे प्रेम का सबूत होगा और उस बड़े लाल अजगर के लिए घृणा होगी; जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करोगे, उतना ही अधिक सत्य के प्रति तुम्हारी अभिलाषा का सबूत होगा। जो लोग परमेश्वर के वचन की लालसा नहीं करते हैं वे बिना जीवन के होते हैं। ऐसे लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों से बाहर ही रहते हैं और जो सिर्फ धर्म से संबंधित होते हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर के वचनों की और भी अधिक गहरी समझ होती है क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचनों की अभिलाषा नहीं करते हो तो तुम वास्तव में उसके वचन को खा और पी नहीं सकते हो और यदि तुम्हें परमेश्वर के वचनों का ज्ञान नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार से परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते या उसे संतुष्ट नहीं कर सकते।
परमेश्वर पर अपने विश्वास में, तुम्हें परमेश्वर को कैसे जानना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर को उसके आज के वचनों और कार्य के आधार पर जानना चाहिए, बिना किसी भटकाव या भ्रान्ति के, और अन्य सभी चीजों से पहले तुम्हें परमेश्वर के कार्य को जानना चाहिए। यही परमेश्वर को जानने का आधार है। वे सभी विभिन्न भ्रांतियां जिनमें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध स्वीकृति नहीं है, वे धार्मिक अवधारणाएं हैं, वे ऐसी स्वीकृति हैं जो पथभ्रष्ट और गलत हैं। धार्मिक अगुवाओं की सबसे बड़ी कुशलता यह है कि वे अतीत में स्वीकृत परमेश्वर के वचनों को लेकर आते हैं और परमेश्वर के आज के वचनों के विरुद्ध उनकी जांच करते हैं। यदि आज के समय में परमेश्वर की सेवा करते समय, तुम पवित्र आत्मा द्वारा अतीत में कही गई प्रबुद्ध बातों को पकड़े रहते हो, तो तुम्हारी सेवा रुकावट उत्पन्न करेगी और तुम्हारे अभ्यास पुराने हो जाएँगे और धार्मिक अनुष्ठान से कुछ अधि�� नहीं होंगे। यदि तुम यह विश्‍वास करते हो जो परमेश्‍वर की सेवा करते हैं उन्‍हें बाह्य रूप में विनम्र और धैर्यवान होना चाहिए..., और यदि तुम आज इस प्रकार की जानकारी को अभ्यास में लाते हो तो ऐसा ज्ञान धार्मिक अवधारणा है, और इस प्रकार का अभ्यास एक पाखण्डी कार्य बन गया है। "धार्मिक अवधारणाएं" उन बातों को दर्शाती हैं जो अप्रचलित और पुराने ढंग की हैं (परमेश्वर के द्वारा पहले कहे गए वचनों और पवित्र आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर प्रकट किए गए प्रकाश की स्वीकृति समेत), और यदि वे आज अभ्यास में लाए जाते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं, और मनुष्य को कोई भी लाभ नहीं देते हैं। यदि मनुष्य अपने भीतर की उन बातों को शुद्ध नहीं कर पाता है जो धार्मिक अवधारणाओं से आती हैं, तो वे बातें मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की सेवकाई में बहुत बड़ी बाधा बन जाएँगी। धार्मिक अवधारणाओं वाले लोग पवित्र आत्मा के कार्यों के साथ किसी भी प्रकार से कदम से कदम नहीं मिला सकते हैं, वे एक कदम, फिर दो कदम पीछे हो जाएंगे—क्योंकि ये धार्मिक अवधारणाएं मनुष्य को असाधारण रूप से आत्मतुष्ट और घमण्डी बना देती हैं। परमेश्वर अतीत में कही गई बातों और किए गए कार्यों की कोई ललक महसूस नहीं करता है, यदि कुछ अप्रचलित हो गया है, तो वह उसे समाप्त कर देता है। निश्चय ही तुम अपनी अवधारणाओं को त्यागने में सक्षम हो? यदि तुम परमेश्वर के पूर्व में कहे गए वचनों पर बने रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि तुम परमेश्वर के कार्य को जानते हो? यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रकाश को आज स्वीकार करने में असमर्थ हो, और उसके बजाय अतीत के प्रकाश से चिपके रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध हो सकता है कि तुम परमेश्वर के नक्शेकदम पर चलते हो? क्या तुम अभी भी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में असमर्थ हो? यदि ऐसा है, तो तुम परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाओगे।
यदि मनुष्य धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ दे, तो वह आज परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य को मापने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करेगा, और उसके बजाय सीधे तौर पर उनका पालन करेगा। भले ही परमेश्वर का आज का कार्य साफ़ तौर पर अतीत के कार्य से अलग है, तुम अतीत के विचारों का त्याग कर पाते हो और आज सीधे तौर पर परमेश्वर के वचनों का पालन कर पाते हो। यदि तुम इस प्रकार के ज्ञान के योग्य हो कि तुम आज परमेश्वर के कार्य को सबसे मुख्य स्थान देते हो, भले ही उसने अतीत में किसी भी तरह से कार्य किया हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जो अपनी अवधारणों को छोड़ चुका है, जो परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, और जो परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन करने में सक्षम है और परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण करता है। इस तरह, तुम ऐसे व्यक्ति होगे जो सचमुच परमेश्वर का आज्ञापालन करता है। तुम परमेश्वर के कार्य का विश्लेषण या अध्ययन नहीं करते हो; यह कुछ ऐसा है कि मानो परमेश्वर अपने अतीत के कार्य को भूल गया है और तुम भी उसे भूल गए हो। वर्तमान ही वर्तमान है, और अतीत, बीता हुआ कल हो गया है, और चूँकि परमेश्वर ने जो कुछ अतीत में किया था, आज उसे अलग कर दिया है, इसलिए तुम्हें भी उसमें टिके नहीं रहना चाहिए। केवल तभी तुम वैसे व्यक्ति बन पाओगे जो परमेश्वर का पूरी तरह से आज्ञापालन करता है और जिसने अपनी धार्मिक अवधारणाओं को पूरी तरह से त्याग दिया है।
क्योंकि परमेश्वर के कार्य में हमेशा नई-नई प्रगति होती है, इसलिए यहां पर नया कार्य है, और इसलिए अप्रचलित और पुराना कार्य भी है। यह पुराना और नया कार्य परस्पर विरोधी नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक है; प्रत्येक कदम पिछले कदम के बाद आता है। क्योंकि नया कार्य हो रहा है, इसलिए पुरानी चीजें निस्संदेह समाप्त कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मनुष्य की लम्बे समय से चली आ रही कुछ प्रथाओं और पारंपरिक कहावतों ने, मनुष्य के कई सालों के अनुभवों और शिक्षाओं के साथ मिलकर, मनुष्य के दिमाग में सभी प्रकार की अवधारणाएं बना दी हैं। फिर भी मनुष्यों के द्वारा इस प्रकार की अवधारणाएं बनाने की और भी अधिक अनुकूल बात यह है कि परमेश्वर ने अभी तक अपना वास्तविक चेहरा और निहित स्वभाव मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं किया है, और साथ ही प्राचीन समय के पारंपरिक सिद्धांतों का बहुत सालों से विस्तार हुआ है। इस प्रकार यह कहना सही होगा कि परमेश्वर में मनुष्यों के विश्वास में, विभिन्न अवधारणाओं का प्रभाव रहा है जिसके कारण मनुष्य के ज्ञान में निरंतर उत्पत्ति और विकास हुआ है जिसमें उसके पास परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की धारणाएं हैं—इस परिणाम के साथ कि परमेश्वर की सेवा करने वाले कई धार्मिक लोग उसके शत्रु बन बैठे हैं। इसलिए, लोगों की धार्मिक अवधारणाएं जितनी अधिक मजबूत होती हैं, वे परमेश्वर का विरोध उतना ही अधिक करते हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही अधिक दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता है, और वह कभी भी सिद्धांत नहीं बनता, इसके बजाय, निरंतर बदलता रहता है और कमोवेश परिवर्तित होता रहता है। यह कार्य स्वयं परमेश्वर के निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है। यही परमेश्वर के कार्य का निहित सिद्धांत और अनेक उपायों में से एक है जिससे परमेश्वर अपने प्रबंधन को पूर्ण करता है। यदि परमेश्वर इस प्रकार से कार्य न करे, तो मनुष्य बदल नहीं पाएगा या परमेश्वर को जान नहीं पाएगा, और शैतान पराजित नहीं होगा। इसलिए, उसके कार्य में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो अनिश्चित दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में ये समय-समय पर होने वाले परिवर्तन हैं। हालाँकि, मनुष्य जिस प्रकार से परमेश्वर पर विश्वास करता है, वह बहुत भिन्न है। वह पुराने, परिचित सिद्धांतों और पद्धतियों से चिपका रहता है, और जितने अधिक वे पुराने होते हैं उतने ही अधिक उसे प्रिय होते हैं। मनुष्य का मूर्ख दिमाग, एक ऐसा दिमाग जो पत्थर के समान दुराग्रही है, परमेश्वर के इतने सारे अथाह नए कार्यों और वचनों को कैसे स्वीकार कर सकता है? मनुष्य हमेशा नए रहने वाले और कभी भी पुराने न होने वाले परमेश्वर से घृणा करता है; वह हमेशा ही प्राचीन सफेद बाल वाले और स्थिर परमेश्वर को पसंद करता है। इस प्रकार, क्योंकि परमेश्वर और मनुष्य, दोनों की अपनी-अपनी पसंद है, मनुष्य परमेश्वर का बैरी बन गया है। इनमें से बहुत से विरोधाभास आज भी मौजूद हैं, ऐसे समय में जब परमेश्वर लगभग छः हजार सालों से नया कार्य कर रहा है। तब, वे किसी भी इलाज से परे हैं। हो सकता है कि यह मनुष्य की हठ के कारण या किसी मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के प्रबंधन के नियमों की अनुल्लंघनीयता के कारण हो—परन्तु वे पादरी और महिलाएँ अभी भी फटी-पुरानी किताबों और दस्तावेजों से चिपके रहते हैं, जबकि परमेश्वर अपने प्रबंधन के अपूर्ण कार्य को ऐसे आगे बढ़ाता जाता है मानो उसके साथ कोई है ही नहीं। हालांकि ये विरोधाभास परमेश्वर और मनुष्यों को शत्रु बनाते हैं, और इनमें कभी मेल भी नहीं हो सकता है, परमेश्वर उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है, जैसे कि वे होकर भी नहीं हैं। फिर भी मनुष्य, अभी भी अपनी आस्थाओं और अवधारणाओं से चिपका रहता है, और उन्हें कभी भी छोड़ता नहीं है। फिर भी एक बात बिल्कुल स्पष्ट है: हालांकि मनुष्य अपने रुख से विचलित नहीं होता है, परमेश्वर के कदम हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं और वह अपना रुख परिस्थितियों के अनुसार हमेशा बदलता रहता है, और अंत में, यह मनुष्य ही होगा जो बिना लड़ाई लड़े हार जाएगा। परमेश्वर, इस समय, अपने हरा दिए गए दुश्मनों का सबसे बड़ा शत्रु है, और इंसानों में जो हार गए हैं और वे जो अभी भी हारने के लिए बचे हैं, उनके मध्य विजेता भी मौजूद हैं। परमेश्वर के साथ कौन प्रतिस्पर्धा कर सकता है और विजयी हो सकता है? मनुष्य की अवधारणाएं परमेश्वर से आती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि उनमें से कई परमेश्वर के कार्यों के द्वारा ही उत्पन्न हुई हैं। फिर भी परमेश्वर इस कारण से मनुष्यों को नहीं क्षमा करता है, इसके अलावा, न ही वह परमेश्वर के कार्य के बाहर खेप-दर-खेप "परमेश्वर के लिए" ऐसे उत्पाद उत्पन्न करने के लिए मनुष्य की प्रशंसा करता है। इसके बजाय, वह मनुष्यों की अवधारणाओं और पुरानी, पवित्र आस्थाओं के कारण बहुत ही ज्यादा चिढ़ा हुआ है और यहां तक कि वह उन तिथियों की भी उपेक्षा करता है जिसमें ये अवधारणाएं सबसे पहले सामने आई थीं। वह इस बात को बिल्कुल स्वीकार नहीं करता है कि ये अवधारणाएँ उसके कार्य के कारण बनी हैं, क्योंकि मनुष्य की अवधारणाएं मनुष्यों के द्वारा ही फैलाई जाती हैं; उनका स्रोत मनुष्यों की सोच और दिमाग है, परमेश्वर नहीं बल्कि शैतान है। परमेश्वर का इरादा हमेशा यही रहा है कि उसके कार्य नए और जीवित रहें, पुराने या मृत नहीं, और जिन बातों को वह मनुष्यों को दृढ़ता से थामे रखने के लिए कहता है वह युगों और कालों में विभाजित है, न कि अनन्त और स्थिर है। यह इसलिए क्योंकि वह परमेश्वर है जो मनुष्य को जीवित और नया बनने के योग्य बनाता है, बजाय शैतान के जो मनुष्य को मृत और पुराना बने रहने देना चाहता है। क्या तुम सब अभी भी यह नहीं समझते हो? तुम में परमेश्वर के प्रति अवधारणाएं हैं और तुम उन्हें छोड़ पाने में सक्षम नहीं हो क्योंकि तुम संकीर्ण दिमाग वाले हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर के कार्य में बहुत कम बोध है, या इसलिए कि परमेश्वर का कार्य मानवीय इच्छाओं के अनुसार नहीं है—इसके अलावा, न ही ऐसा इसलिए है कि परमेश्वर अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा बेपरवाह रहता है। तुम अपनी अवधारणाओं को इसलिए नहीं छोड़ सकते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता की अत्यधिक कमी है और क्योंकि तुममें परमेश्वर की सृष्टि की थोड़ी सी भी समानता नहीं है, इसलिए नहीं कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ों को कठिन बना रहा है। यह सब कुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और इसका परमेश्वर के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है; सारे कष्ट और दुर्भाग्य केवल मनुष्य के कारण ही आये हैं। परमेश्वर के इरादे हमेशा नेक होते हैं: वह तुम्हें अवधारणा बनाने का कारण देना नहीं चाहता, बल्कि वह चाहता है कि युगों के बदलने के साथ-साथ तुम भी बदल जाओ और नए होते जाओ। फिर भी तुम फ़र्क नहीं कर सकते हो और हमेशा या तो अध्ययन या फिर विश्लेषण कर रहे होते हो। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ें मुश्किल बना रहा है, बल्कि तुममें परमेश्वर के लिए आदर नहीं है, और तुम्हारी अवज्ञा भी बहुत ज्यादा है। एक छोटा सा प्राणी जो पहले परमेश्वर के द्वारा दिया गया था, उसका बहुत ही नगण्य भाग लेने का साहस करता है, और परमेश्वर पर आक्रमण करने के लिए उसे पलट देता है—क्या यह मनुष्यों के द्वारा अवज्ञा नहीं है? यह कहना उचित है कि परमेश्वर के सामने अपने विचारों को व्यक्त ��रने में मनुष्य पूरी तरह से अयोग्य ��ै, और अपनी इच्छानुसार बेकार, बदबूदार, सड़े हुए सिद्धांतों के साथ ही साथ उन खोटी अवधारणाओं को व्यक्त करने में तो और भी अयोग्य है। क्या ये और भी बेकार नहीं हैं?
परमेश्वर की सचमुच सेवा करने वाला व्यक्ति वह है जो परमेश्वर के हृदय के करीब है और परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाने के योग्य है, और जो अपनी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में सक्षम है। यदि तुम चाहते हो कि परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना फलदायी हो, तो तुम्हें अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा। यदि तुम परमेश्वर की सेवा करने की इच्छा रखते हो, तो यह तुम्हारे लिए और भी आवश्यक होगा कि तुम सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करो और अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के वचनों का पालन करो। परमेश्वर की सेवा करने के लिए व्यक्ति में यह सब गुण होना चाहिए। यदि तुममें इस ज्ञान की कमी है, जैसे ही तुम परमेश्वर की सेवा करोगे, तुम उसमें रुकावटें और बाधाएँ उत्पन्न करोगे, और यदि तुम अपनी अवधारणाओं को पकड़े रहोगे, तो तुम निश्चित तौर पर परमेश्वर के द्वारा फिर कभी न उठ पाने के लिए गिरा दिए जाओगे। उदाहरण के लिए, वर्तमान को देखो। आज के बहुत सारे कथन और कार्य बाइबल के अनुरूप नहीं हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्व में किए गए कार्य के साथ असंगत भी हैं, और यदि आज्ञा मानने की इच्छा तुम्हारे अंदर नहीं है तो किसी भी समय तुम्हारा पतन हो सकता है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा और अपने विचारों को ठीक करना होगा। भविष्य में कही जाने वाली बहुत सारी बातें अतीत में कही गई बातों से असंगत होगी, और यदि अब तुममें आज्ञापालन की इच्छा की कमी होगी, तो तुम अपने सामने आने वाले मार्ग पर चल नहीं पाओगे। यदि परमेश्वर के कार्य करने का कोई एक तरीका तुम्हारे भीतर जड़ जमा लेता है और तुम उसे कभी छोड़ते नहीं हो, तो यह तरीका तुम्हारी धार्मिक अवधारणा बन जाएगा। यदि परमेश्वर क्या है, इस सवाल ने तुम्हारे भीतर जड़ जमा ली है तो तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, और यदि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन बनने के योग्य हैं, तो तुम्हारे भीतर परमेश्वर के बारे में अवधारणाएं अब और नहीं होंगी। जो कोई परमेश्वर के बारे में सही ज्ञान रखता है उसमें कोई भी अवधारणा नहीं होगी, और वह सिद्धांतों का पालन नहीं करेगा।
इन प्रश्नों को पूछकर अपने आप को जगाओ:
1. क्या तुम्हारा भीतर का ज्ञान परमेश्वर की सेवकाई करने में विघ्न डालता है?
2. तुम्हारे दैनिक जीवन में कितनी धार्मिक प्रथाएँ हैं? यदि तुम मात्र भक्ति का रूप दिखाते हो, तो क्या इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा जीवन विकसित और परिपक्व हो गया है?
3. जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, क्या तुम अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग कर पाते हो?
4. जब तुम प्रार्थना करते हो, तो क्या धार्मिक अनुष्ठानों से दूर हो पाते हो?
5. क्या तुम परमेश्वर के द्वारा उपयोग में लाने के योग्य हो?
6. तुम्हारी परमेश्वर के ज्ञान में कितनी धार्मिक अवधारणाएं हैं?
                                                              स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तविकता पर केंद्रित होना चाहिए, न कि धार्मिक रीति-रिवाजों पर
तुम कितनी धार्मिक परम्पराओं का पालन करते हो? कितनी बार तुमने परमेश्वर के वचन का विरोध किया है और अपने तरीके से चले हो? कितनी बार तुम परमेश्वर के वचनों को इसलिए अभ्यास में लाए हो क्योंकि तुम उसके उत्तरदायित्व के बारे में सच में विचारशील हो और उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हो? परमेश्वर के वचन को समझो और उसे अभ्यास में लाओ। क्रियाओं और कर्मों में उच्च सिद्धांत वाले बनो; यह नियम में बंधना या बेमन से बस दिखावे के लिए ऐसा करना नहीं है। बल्कि, यह एक सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचन में जीवन व्यतीत करना है। केवल इस प्रकार का अभ्यास ही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। ऐसी कोई भी प्रथा जो परमेश्वर को प्रसन्न करती हो कोई नियम नहीं है बल्कि सत्य का अभ्यास है।
कुछ लोगों में अपनी ओर ध्यान खींचने की विशेष प्रवृत्ति होती है। अपने भाई-बहनों की उपस्थिति में, वे कहते हैं कि वह परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ है, परंतु उनकी पीठ पीछे, वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं और पूरी तरह से कुछ और ही करते हैं। क्या वे धार्मिक फरीसियों जैसे नहीं हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो सच में परमेश्वर से प्यार करता है और जिसमें सत्य है वह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है, परंतु वह बाहर से ऐसा प्रकट नहीं करता है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह सत्य का अभ्यास करने को तैयार रहता है और अपने विवेक के विरुद्ध जाकर नहीं बोलता है या कार्य नहीं करता है। चाहे परिस्थिति कुछ भी हो, जब मामले उठते हैं तो वह बुद्धि का प्रदर्शन करता है और अपने कर्मों में उच्च सिद्धांत वाला होता है। इस तरह का व्यक्ति ही वह व्यक्ति है जो सच में सेवा करता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता के लिए दिखावटी प्रेम करते हैं। वे कई दिनों तक चिंता में अपनी भौंहें चढ़ा कर अपने दिन बिताते हैं, एक बनावटी अच्छा व्यक्ति होने का नाटक करते हैं, और एक दयनीय मुखाकृति का दिखावा करते हैं। कितना तिरस्करणीय है! यदि तुम उनसे पूछते कि "तुम परमेश्वर के प्रति किस प्रकार से आभारी हो? कृपया मुझे बताओ!" तो वे निरुत्तर हो जाते। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा मत करो, बल्कि परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम दर्शाने के लिए अपने वास्तविक अभ्यास का उपयोग करो, और एक सच्चे हृदय से उससे प्रार्थना करो। जो परमेश्वर के साथ व्यवहार करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करते हैं वे सभी पाखंडी हैं। कुछ लोग प्रत्येक प्रार्थना के साथ परमेश्वर के प्रति आभार के बारे में बोलते हैं, और जब कभी भी वे प्रार्थना करते हैं, तो पवित्र आत्मा के द्रवित हुए बिना ही रोना आरंभ कर देते हैं। इस तरह के मनुष्य धार्मिक रिवाजों और अवधारणाओं से सम्पन्न होते हैं; वे सदैव यह विश्वास करते हुए ऐसे रीति-रिवाजों और अवधारणाओं के साथ जीते हैं कि ऐसी क्रियाएँ परमेश्वर को प्रसन्न करती हैं, और यह कि सतही धार्मिकता या दुःखभरे आँसुओं का परमेश्वर समर्थन करता है। ऐसे बेतुके लोगों से कौन सी भलाई आ सकती है? अपनी विनम्रता का प्रदर्शन करने के लिए, कुछ लोग दूसरों की उपस्थिति में अनुग्रह का दिखावा करते हैं। कुछ लोग दूसरों के सामने जानबूझकर किसी नितान्त शक्तिहीन मेमने की तरह चापलूस होते हैं। क्या यह राज्य के लोगों का चाल-चलन है? राज्य के व्यक्ति को जीवंत और स्वतंत्र, भोला-भाला और स्पष्ट, ईमानदार और प्यारा होना चाहिए; एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्रता की स्थिति में हो। उसमें चरित्र और प्रतिष्ठा हो, और जहाँ कहीं जाए वह गवाही दे सकता हो; वह परमेश्वर और मनुष्य दोनों का प्यारा हो। वे जो विश्वास में नौसिखिये होते हैं उनके पास बहुत से बाहरी अभ्यास होते हैं; उन्हें सबसे पहले निपटान और काट-छांट की एक अवधि से अवश्य गुज़रना चाहिए। जिनके हृदय में परमेश्वर का विश्वास है वे बाहरी रूप से दूसरों को अलग नहीं दिखते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ और कर्म दूसरों के लिए प्रशंसनीय हैं। केवल ऐसे ही व्यक्ति परमेश्वर के वचनों पर जीवन बिताने वाले समझे जा सकते हैं। यदि तुम इस व्यक्ति को प्रतिदिन सुसमाचार का उपदेश देते हो, और उसे उद्धार में ला रहे हो, तब भी अंत में, तुम नियमों और सिद्धांतों में जी रहे हो, तब तुम परमेश्वर के लिए महिमा नहीं ला सकते हो। इस प्रकार के चाल-चलन के लोग धार्मिक लोग हैं, और पाखंडी भी हैं।
जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, वे पूछते हैं, "बहन, इन दिनों तुम कैसी रही हो?" वह उत्तर देती है, "मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हूँ और कि मैं उसके हृदय की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हूँ।" दूसरी कहती है, "मैं भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ और उसे संतुष्ट करने में असमर्थ हूँ।" ये कुछ वाक्य और वचन अकेले ही उनके हृदयों की गहराई की अधम चीजों को व्यक्त करते हैं। ऐसे वचन अत्यधिक घृणित और अत्यंत अरुचिकर हैं। ऐसे मनुष्यों की प्रकृति परमेश्वर का विरोध करती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं वे वही संचारित करते हैं जो उनके हृदयों में होता है और संवाद में अपने हृदय को खोल देते हैं। उनमें एक भी झूठा श्रम, कोई शिष्टताएँ या खोखली मधुर बातें नहीं होती है। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी पार्थिव नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें, बिना किसी समझ के, बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है। जब कोई दूसरा गाता है, तो वह नाचने लगता है, यहाँ तक कि यह समझे बिना कि उसके बरतन का चावल पहले से ही जला हुआ है। लोगों के इस प्रकार के चाल-चलन धार्मिक या सम्माननीय नहीं हैं, और बहुत ही तुच्छ हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ है! जब कुछ लोग आत्मा में जीवन के मामलों के बारे में संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं, यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते हैं, फिर भी वे अपने हृदयों में उसके प्रति एक सच्चे प्यार को कायम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरों से कोई लेना देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि किसी मनुष्य के प्रति। इसलिए इस बारे में लगातार दूसरों से कहना तुम्हारे किस उपयोग का है? तुम्हें अवश्य सत्य में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।
मनुष्य के सतही अच्छे कर्म किस चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं? वे देह की इच्छाओं का प���रतिनिधित्व करते हैं, और यहाँ तक कि बाहरी सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते है, केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा का प्रतिनिधित्व करते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, तब भी तुम दूसरे को जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते हो या परमेश्वर से प्रेम करने के लिए दूसरों को उत्तेजित नहीं कर सकते हो। क्या तुम विश्वास करते हो कि ऐसे कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करेंगे? तुम विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर के हृदय की इच्छा है, यह आत्मा की इच्छा है, किन्तु सच में यह बेतुका है! तुम विश्वास करते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम चाहते हो, उसी में परमेश्वर आनंदित होता है। क्या जो तुम्हें अच्छा लगता है, परमेश्वर को अच्छा लगने का प्रतिनिधित्व कर सकता है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो तुम्हें अच्छा लगता है निश्चित रूप से यह वही है जिससे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर घृणा करता है और अस्वीकार करता है। यदि तुम कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो। इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना नहीं करते हो, और इसके बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर के हृदय की इच्छा को पूरा किया जा सकता है? यदि तुम्हारी क्रियाएँ सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम मनुष्यों में सबसे व्यर्थ हो। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसके केवल सतही अच्छे कर्म हैं, किन्तु सच्चाई से रहित हैं? ऐसे लोग पाखंडी फरीसी और धार्मिक लोग हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते हो और परिवर्तन नहीं कर सकते हो, तो तुम लोगों के पाखंड के तत्व और भी अधिक बढ़ जाएँगे। पाखंड के तत्व जितना अधिक होते हैं, परमेश्वर के प्रति विरोध उतना ही अधिक होता है, और अंत में, इस तरह के मनुष्य निश्चित रूप से त्याग दिए जाएँगे।
                                                                  स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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परमेश्वर के वचन "परमेश्वर को जानना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है" (अंश II)
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर की सम्पत्ति और परमेश्वरत्व, परमेश्वर का सत्व, परमेश्वर का स्वभाव—यह सब कुछ मानवजाति को उसके वचन के माध्यम से समझाया जा चुका है। जब इंसान परमेश्वर के वचन को अनुभव करेगा, तो परमेश्वर के कहे हुए वचन के पीछे छिपे हुए उद्देश्यों को समझेगा, तो उनके अनुपालन की प्रक्रिया में, परमेश्वर के वचन की पृष्ठभूमि तथा स्रोत और परमेश्वर के वचन के अभिप्रेरित प्रभाव को समझेगा तथा सराहना करेगा। मानवजाति के लिए, ये सभी वे बातें हैं जो जीवन और सत्य में प्रवेश करने और परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए मनुष्य को अवश्य ही अनुभव करनी और समझनी चाहिए, परमेश्वर के अभिप्राय को समझना चाहिए, अपने स्वभाव में परिवर्तित हो जाना चाहिये और परमेश्वर की सम्प्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित हो जाना चाहिये। जब मनुष्य अनुभव करता, समझता और इन बातों में प्रवेश करता है, उसी वक्त वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ को प्राप्त कर लेता है, और साथ ही वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त करता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य के द्वारा कल्पना करने या मानने से नहीं आती है, परन्तु उसके द्वारा जिसे उसने समझा है, अनुभव किया है, महसूस किया है और अपने आप में पक्का किया। केवल इन बातों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और अपने आप में पक्का करने के बाद ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य का ज्ञान संतोष प्राप्त करता है। केवल वही ज्ञान वास्तविक, असली और सही है जो वह इस समय प्राप्त करता है और उसके वचनों का मूल्यांकन, करने, महसूस करने और अपने आप में पक्का करने के द्वारा परमेश्वर के प्रति सही समझ और ज्ञान को प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के संवाद के मध्य, मनुष्य परमेश्वर की समझ और उसके उद्देश्यों को समझ सकता है, परमेश्वर की सम्पत्ति और परमेश्वरत्व को सही तौर पर जान सकता है, परमेश्वर की वास्तविक समझ और तत्व को ग्रहण कर सकता है, धीरे-धीरे परमेश्वर के स्वभाव को जान और समझ पाता है, एक पूरी निश्चितता के साथ परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व की सही परिभाषा और परमेश्वर की पहचान और स्थान के ज्ञान तथा उसकी मौलिक छवि प्राप्त करता है। इस प्रकार की सहभागिता के मध्य, मनुष्य थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, परमेश्वर के प्रति उसके विचार, अब वह खाली हवा में अपने विचारों को नहीं दौड़ाता या उसके बारे में अपनी गलतधारणों पर लगाम लगाता है या उसे गलत नहीं समझता या उसकी भर्त्सना नहीं करता या उस पर अपना निर्णय नहीं थोपता या उस पर संदेह नहीं करता। फलस्वरुप, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद कम होंगे, परमेश्वर के साथ झड़प कम होगी, और ऐसे मौके कम आयेंगे जब वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करता है। इसके विपरीत, मनुष्य का परमेश्वर के प्रति सरोकार और समर्पण बढ़ता ही जाता है और परमेश्वर के प्रति उ���का आदर और अधिक गम्भीर होने के साथ-साथ वास्तविक होता जाता है। इस प्रकार के संवाद के मध्य में, मनुष्य सत्य के प्रावधान और जीवन के बपतिस्मा को केवल प्राप्त नहीं करता, अपितु उसी समय वह परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान को भी प्राप्त करता है। इस प्रकार के संवाद के मध्य में न केवल मनुष्य की प्रकृति में परिवर्तन होता जाता है और वह उद्धार को प्राप्त करता है, अपितु उसी समय वास्तविक आदर को एकत्रित करता है और परमेश्वर के प्रति प्राणी के रूप में आराधना करता है। इस प्रकार की सहभागिता रखने के कारण, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा एक खाली कागज की तरह नहीं रहता या सिर्फ़ मुख से उच्चारित प्रतिज्ञाओं के समान, या खाली हवा को पकड़ना और मूर्तिकरण का प्रारुप नहीं होता है; केवल इस प्रकार की सहभागिता में मनुष्य दिन प्रतिदिन परिपक्वता की ओर धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अब धीरे-धीरे उसकी प्रकृति परिवर्तित होती जाएगी और धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति उसका अनिश्चित और संदेहयुक्त विश्वास एक सच्चे समर्पण और सरोकार, वास्तविक आदर में बदल जाता है; और मनुष्य परमेश्वर के अनुसरण में, धीरे-धीरे निष्क्रियता से सक्रियता में विकसित होता जाता है, एक ऐसे मनुष्य से जिसपर कार्य किया गया हो से सकारात्मक कार्यशील मनुष्य में विकसित हो जाता है; केवल इसी प्रकार की सहभागिता से ही मनुष्य में वास्तविक समझ आ सकती है और वह परमेश्वर की अवधारणा को, परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान को समझ सकता है। क्योंकि अधिकतर लोगों ने परमेश्वर के साथ वास्तविक सहभागिता में प्रवेश ही नहीं किया है, परमेश्वर के प्रति उनकी समझ उनकी विद्या शब्दों और सिद्धांतों पर आकर ठहर जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, चाहे वे कितने ही सालों से परमेश्वर पर विश्वास करते हुए आ रहे हों, परन्तु वे परमेश्वर को जानने के बारे में अभी भी अपनी आरम्भिक अवस्था में ही हैं, आदर-भक्ति के आधारभूत प्रारुपों पर ही अटके हुए हैं, अपने पौराणिक रंग और सामंती अंधविश्वास की साज-सज्जा पर ही लगे हुए हैं। यदि मनुष्य की परमेश्वर के प्रति समझ उसके प्रारम्भ बिन्दु पर ही रुकी हुई है तो इसका अर्थ यह है कि एक तरह से यह अस्तित्वहीन ही है। मनुष्य की परमेश्वर के स्थान और पहचान के पुष्टीकरण अलावा, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा अभी भी अस्पष्ट और अनिश्चित है। ऐसा होने से, परमेश्वर के लिए मनुष्य की श्रद्धा वास्तविक कहां होगी? तुम कितनी ही दृढ़ता से उसके अस्तित्व पर विश्वास करते हो यह बात परमेश्वर के ज्ञान के लिए काफी नहीं है, न ही परमेश्वर के प्रति श्रद्धा के लिए यह काफी है। इससे कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ता कि तुमने उसकी आशीषों और अनुग्रह का कितना आनन्द लिया हो, यह बात परमेश्वर के ज्ञान के लिए काफी नहीं है। इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम अपना सर्वस्व पवित्र करने के लिए कितने उत्सुक हो और प्रभु के लिए अपना सब कुछ त्यागने को भी तैयार हो, लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर के ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिये चिरपरिचित हो गये हैं, या तुम्हें उसका वचन जबानी भी याद है और उन्हें वापस जल्दी-जल्दी दोहरा सकते हो; लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर के ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। परमेश्वर के पीछे चलने की मनुष्य की अभिलाषा कितनी भी तीव्र हो, यदि उसके पास परमेश्वर की वास्तविक सहभागिता नहीं होगी या परमेश्वर के वचन का वास्तविक अनुभव नहीं किया होगा, तो परमेश्वर का ज्ञान बिल्कुल कोरा या एक अंतहीन स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं होगा; तो इसका अर्थ यह है कि तुमने परमेश्वर के साथ बहुत करीब से बातचीत की हो या उससे रूबरू हुए हो, परमेश्वर के ज्ञान की जानकारी में तुम फिर भी शून्य हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्श के अलावा और कुछ भी नहीं है।“— "परमेश्वर को जानना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है" से उद्धृत
                                                                      स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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हिंदी मसीही भजन | सबसे असल है परमेश्वर का प्रेम
ईश्वर के तुम सब में जीत के कार्य, ये कितना महान उद्धार है। तुम में से हर एक शख़्स, भरा है पाप और अनैतिकता से। अब तुम हुए रूबरू ईश्वर से, वो ताड़ना देता है और न्याय करता है। तुम पाते हो उसका महान उद्धार, तुम पाते हो उसका महानतम प्यार। ईश्वर जो भी करता है वो प्यार है। तुम्हारे पापों का न्याय करता है। ताकि परखो तुम खुद को। ताकि तुम्हें प्राप्त हो उद्धार। ईश्वर जो भी करता है वो प्यार है। तुम्हारे पापों का न्याय करता है। ताकि परखो तुम खुद को। ताकि तुम्हें प्राप्त हो उद्धार।
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अंधकार के प्रभाव से बच निकलें और आप परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाएँगे
अंधकार का प्रभाव क्या है? "अंधकार का प्रभाव", शैतान का प्रभाव है, जो लोगों को धोखा देता, भ्रष्ट करता, बांधता और नियंत्रित करता है; शैतान का प्रभाव एक ऐसा प्रभाव है जिसमें मृत्यु का प्रभामण्डल है। जो भी शैतान के प्रभुत्व के भीतर रहते हैं वे नष्ट हो जाने के लिए अभिशप्त हैं।
परमेश्वर में आस्था पाने के बाद, आप अंधकार के प्रभाव से कैसे बच सकते हैं? आपके ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद, आप अपना हृदय पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मोड़ दें, इस बिंदु पर, आपका हृदय परमेश्वर की आत्मा से प्रेरित है, आप अपने आप को पूरी तरह से देने के लिए तैयार हैं, और इस क्षण में, आप अंधकार के प्रभाव से बच निकले हैं। यदि वह सब कुछ जो मनुष्य करता है परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के साथ सही बैठता है, तो वह कोई ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के वचनों के अंदर रहता है, वह कोई ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर की निगरानी और सुरक्षा के अधीन रहता है। यदि लोग परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में असमर्थ हैं, हमेशा परमेश्वर को मूर्ख बना रहे हैं और परमेश्वर के साथ लापरवाह तरीके से कार्य कर रहे हैं, परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर रहे हैं, तो ऐसे सभी मनुष्य अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं। जिन लोगों ने परमेश्वर द्वारा उद्धार को नहीं प्राप्त किया है, वे सब शैतान की प्रभुता के अधीन रह रहे हैं, अर्थात्, वे सभी अंधकार के प्रभाव में रहते हैं। जो लोग ईश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, वे शैतान की प्रभुता के अधीन रह रहे हैं। यहाँ तक कि जो लोग परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं, वे जरूरी नहीं कि परमेश्वर के प्रकाश में रह रहे हों, क्योंकि जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, जरूरी नहीं कि परमेश्वर के वचनों के अंदर जा रहे हों, और जरूरी नहीं कि वे ऐसे मनुष्य हों जो परमेश्वर का पालन कर सकते हों। मनुष्य केवल परमेश्वर पर विश्वास करता है, और मनुष्य को परमेश्वर को जानने की विफलता के कारण, वह अभी भी पुराने नियमों के भीतर रह रहा है, मृत वचनों के भीतर जी रहा है, एक ऐसा जीवन जी रहा है जो अंधकारमय और अनिश्चित है, परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से शुद्ध नहीं किया गया है, पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा जीता नहीं गया है। इसलिए, जबकि कहने की आवश्यकता नहीं कि जो लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं, यहाँ तक कि जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अभी भी अंधकार के प्रभाव में रह रहे हों, क्योंकि पवित्र आत्मा ने उन पर काम नहीं किया है। जिन लोगों ने परमेश्वर का अनुग्रह या परमेश्वर की दया नहीं प्राप्त की है, जो पवित्र आत्मा द्वारा किए गये कार्य को नहीं देख सकते हैं, वे सभी अंधकार के प्रभाव में जी रहे हैं; जो लोग केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैंमगर परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे भी अधिकांश समय अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता हैमगर अपना अधिकांश जीवन अंधकार के प्रभाव में जीते हुए बिताता है, तो इस व्यक्ति का अस्तित्व अपना अर्थ को खो चुका है, उन लोगों की तो बात ही छोड़ें जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं।
वे सभी लोग परमेश्वर के काम को स्वीकार नहीं कर सकते हैं या जो परमेश्वर को स्वीकार तो करते हैं लेकिन परमेश्वर की माँगों को पूरा करने में असमर्थ हैं, वे अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं; जो लोग सच्चाई का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर की मांगों को पूरा करने में सक्षम हैं, वे परमेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करेंगे, और वे अंधकार के प्रभाव से बच निकलेंगे। वे मनुष्य जिन्हें मुक्त नहीं किया गया है, जो हमेशा कुछ चीजों के द्वारा नियंत्रित होते हैं, अपने ह्रदय को परमेश्वर को नहीं दे पाते है, ये वे मनुष्य हैं जो शैतान के बंधन के अधीन हैं, और वे मौत के वातावरण में रह रहे हैं। जो अपने स्वयं के कर्तव्यों के प्रति बेईमान हैं, जो परमेश्वर के आदेश के प्रति बेईमान हैं, जो कलीसिया में अपना कार्य नहीं कर रहे हैं, वे अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं। वे जानबूझकर कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रहे हैं, जो जानबूझकर भाइयों और बहनों के बीच संबंधों को नष्ट कर रहे हैं, जो अपने स्वयं के गिरोहों को इकट्ठा कर रहे हैं, वे और भी गहराई से अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं, वे शैतान के बंधन में रह रहे हैं। जिनका परमेश्वर के साथ एक असामान्य रिश्ता है, जो हमेशा अनावश्यक अभिलाषाओं वाले हैं, जो हमेशा हर परिस्थिति से लाभ लेना चाहते हैं, जो कभी अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं लाना चाहते हैं, ये ऐसे मनुष्य हैं जो अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं। जो लोग हमेशा मैले-कुचैले हैं, सत्य के अपने अभ्यास में गंभीर नहीं हैं, परमेश्वर की इच्छाओं को पूरा करने के इच्छुक नहीं हैं, जो केवल अपने ही शरीर को संतुष्ट कर रहे हैं, ये भी ऐसे मनुष्य हैं जो अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं, और वे मृत्यु में ढके हुए हैं। जो लोग परमेश्वर के लिए काम करते समय चालबाजी और धोखे को काम में लाते हैं, परमेश्वर के साथ लापरवाहतरीके से व्यवहार कर रहे हैं, परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं, हमेशा स्वयं के लिए सोचते रह रहे हैं, ऐसे मनुष्य अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर से प्यार नहीं कर सकते हैं, जो सच्चाई अनुसरण नहीं कर रहे हैं, जो अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हैं, वे अंधकार के प्रभाव में रह रहे हैं।
यदि आप परमेश्वर द्वारा प्रशंसा किया जाना चाहते हैं, तो आपको सबसे पहले शैतान के अंधकार के प्रभाव से अवश्य बच निकलना चाहिए, अपना ह्रदय परमेश्वर के लिए खोल देना चाहिए, और इसे पूरी तरह से परमेश्वर की और मोड़ देना चाहिए। क्या जिन कामों को आप अभी कर रहे हैं वे परमेश्वर द्वारा प्रशंसा की जाती हैं? क्या आपने अपना ह्रदय परमेश्वर की ओर मोड़ दिया है? आपने जो काम किये हैं, क्या ये वही हैं जो परमेश्वर ने आपसे अपेक्षा किए हैं? क्या वे सत्य के साथ सही बैठते हैं? आपको हमेशा अवश्य अपने आप की जाँच करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने पर एकाग्र करना चाहिए, अपने ह्रदय को परमेश्वर के सामने रख देना चाहिए, ईमानदारी से परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, और निष्ठा के साथ परमेश्वर के लिए खर्च करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों को निश्चित रूप से परमेश्वर की प्रशंसा मिलेगी।
जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, वे शैतान के प्रभाव से किसी भी तरह नहीं बच सकते हैं। जो लोग ईमानदारी से अपना जीवन नहीं जीते हैं, जो दूसरों के सामने किसी ऐसे व्यक्ति के जैसा होने का नाटक करते हैं जो वे नहीं हैं, जो नम्रता, धैर्य और प्रेम का दिखावा करते हैं, जबकि मूल रूप में वे कपटी, धूर्त हैं और परमेश्वर के प्रति उनकी कोई निष्ठा नहीं हैं, ऐसे मनुष्य अंधकार के प्रभाव में रहने वाले लोगों के विशिष्ट नमूने हैं, वे सर्पों के सँपोले हैं। जो लोग हमेशा अपने ही लाभ के लिए परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, जो अभिमानी और घमंडी हैं, जो खुद का दिखावा करते हैं, हमेशा अपनी हैसियत की रक्षा करते हैं, ये ऐसे मनुष्य हैं जो शैतान से प्यार करते हैं और सत्य का विरोध करते हैं, वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और पूरी तरह से शैतान के संबंधी हैं। जो लोग परमेश्वर के बोझ के प्रति सतर्क नहीं हैं, स्वच्छ ह्रदय से परमेश्वर की सेवा नहीं कर रहे हैं, हमेशा स्वयं के और अपने परिवार के हितों के लिए चिंतित हैं, परमेश्वर के लिए खर्च करने के लिए हर चीज का परित्याग करने में सक्षम नहीं हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी ज़िंदगी कभी नहीं जीते हैं, वे परमेश्वर के वचनों के बाहर जी रहे हैं। ऐसे लोगों को परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं होगी।
जब परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, तो यह इसलिए था कि मनुष्य परमेश्वर की समृद्धता का आनंद ले, मनुष्य वास्तव में उनसे प्यार करे और ��स तरह से, मनुष्य उनके प्रकाश में रहे। आज, जो लोग परमेश्वर से प्रेम नहीं कर पाते हैं, परमेश्वर के बोझ के प्रति सतर्क नहीं हैं, परमेश्वर को पूरी तरह से अपना ह्रदय समर्पित नहीं कर पाते हैं, परमेश्वर के ह्रदय को स्वयं का हृदय नहीं मान पाते हैं, परमेश्वर के बोझ का दायित्व अपने ऊपर नहीं ले पाते हैं, परमेश्वर का प्रकाश ऐसे किसी भी मनुष्य पर नहीं चमक रहा है, इसलिए वे सभी अंधकार के प्रभाव में जी रहे हैं। ऐसे मनुष्य ऐसे रास्ते पर हैं जो परमेश्वर की इच्छा के ठीक विपरीत जाता है और जो कुछ भी वे करते हैं उसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है। उनकी शैतान के साथ दलदल में लोट रहे हैं और वे ऐसे लोग हैं जो अंधकार के प्रभाव में जी रहे हैं। यदि आप हमेशा परमेश्वर के वचनों को खा और पी सकते हैं और साथ ही परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति सतर्क रह सकते हैं और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं, तो आप परमेश्वर के हैं, तो आप ऐसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर के वचनों के अंदर जी रहे हैं। क्या आप शैतान के शासन से बच निकलने और परमेश्वर के प्रकाश में रहने के लिए तैयार हैं? यदि आप परमेश्वर के वचनों के अंदर रहते हैं, तो पवित्र आत्मा को अपना काम करने का अवसर मिलेगा; यदि आप शैतान के प्रभाव में रहते हैं, तो पवित्र आत्मा के पास कोई भी काम करने का अवसर नहीं होगा। पवित्र आत्मा मनुष्यों पर जो काम करती है, वह प्रकाश जिसे परमात्मा मनुष्यों पर चमकता है, वह विश्वास जो परमात्मा मनुष्य को प्रदान करता है केवल एक पल तक रहता है; यदि मनुष्य सावधान न हो और ध्यान नहीं दे, तो पवित्र आत्मा द्वारा किया गया कार्य उनके पास से गुजर जाएगा। यदि मनुष्य परमेश्वर के वचनों के अंदर रहते हैं, तो पवित्र आत्मा उनके साथ रहेगी और उन पर काम करेगी; अगर मनुष्य परमेश्वर के वचनों के अंदर नहीं जी रहे हैं, तो वे शैतान के बंधन में जी रहे हैं। भ्रष्ट स्वभाव में रहने वाले मनुष्यों में पवित्र आत्मा की उपस्थिति नहीं होती है और पवित्र आत्मा उन पर काम नहीं करती है। यदि आप परमेश्वर के वचनों के क्षेत्र में जी रहे हैं, यदि आप परमेश्वर द्वारा अपेक्षित परिस्थिति में जी रहे हैं, तो आप परमेश्वर के हैं, और परमेश्वर का काम आप पर किया जाएगा; अगर आप परमेश्वर की अपेक्षाओं के क्षेत्र में नहीं जी रहे हैं, बल्कि इसके बजाय शैतान के क्षेत्र में जी रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप शैतान के भ्रष्टाचार के अधीन जी रहे हैं। केवल परमेश्वर के वचनों के अंतर्गत रहने के द्वारा, अपना ह्रदय परमेश्वर को समर्पित करके, आप परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं; आपको अवश्य वैसा करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहते हैं, आपको परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की बुनियाद और अपने जीवन की वास्तविकता अवश्य बनाना चाहिए, तभी आप परमेश्वर के होंगे। यदि आप परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ईमानदारी से अभ्यास करते हैं, तो परमेश्वर आप में काम करेंगे, और फिर आप परमेश्वर की आशीष के अधीन रहेंगे, आप परमेश्वर भावाभिव्यक्ति की रोशनी में रहेंगे, आप पवित्र आत्मा द्वारा किए जाने वाले कार्य को भी समझ में सक्षम होंगे, और आप परमेश्वर की उपस्थिति का आनंद महसूस करेंगे।
अंधकार के प्रभाव से बच निकलने के लिए, पहले आपको परमेश्वर के प्रति वफादार अवश्य होना चाहिए और सत्य का अनुसरण करने की उत्सुकता अवश्य होनी चाहिए, तभी आपके पास सही परिस्थिति होगी। अंधकार के प्रभाव से बच निकलने के लिए सही परिस्थिति में रहना जरूरी है। सही परिस्थिति न होने का मतलब है कि आप ईश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं और आपमें सच्चाई की खोज करने को उत्सुकता नहीं है, फिर अंधकार के प्रभाव से बच निकलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। अंधकार के प्रभाव से मनुष्य का बच निकलना मेरे वचनों पर आधारित है, और अगर मनुष्य मेरे वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकता है, तो मनुष्य अंधकार के प्रभाव के बंधन से बच निकल नहीं सकता है। सही परिस्थिति में जीने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में जीना, परमेश्वर के प्रति वफादार होने की परिस्थिति में जीना, सत्य को खोजने की परिस्थिति में जीना, ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खर्च करने की वास्तविकता में जीना, वास्तव में परमेश्वर के प्यार की स्थिति में जीना। जो लोग इन परिस्थितियों में और इस वास्तविकता के भीतर रहते हैं, वे धीरे-धीरे रूपांतरित हो जाते हैं, जैसे-जैसे वे सत्य में अधिक गहराई से प्रवेश करते हैं, और वे परमेश्वर के काम की गहराई के साथ रूपांतरित हो जाते हैं, जब तक कि अंततः वे परमेश्वर द्वारा निश्चित रूप से जीत नहीं लिए जाएँगे, और वे परमेश्वर से वास्तव में प्यार नहीं करने लगेंगे। जो लोग अंधकार के प्रभाव से बच निकले हैं वे धीरे-धीरे परमेश्वर की इच्छा को समझ पाएँगे, परमेश्वर की इच्छा को समझेंगे, और अंततः परमेश्वर के विश्वासपात्र हो जाएँगे; न केवल उन्हें परमेश्वर की कोई धारणा नहीं होगी, परमेश्वर के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं होगा, वे उन धारणाओं और विद्रोह से और भी अधिक घृणा करेंगे जो उनमें पहले थे, अपने ह्रदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्यार पैदा करेंगे। जो अंधकार के प्रभाव से बच निकलने में असमर्थ हैं, वे अपनी देह के साथ व्यस्त हैं, और वे विद्रोह से भरे हुए हैं; उनका ह्रदय मानव धारणाओं और जीवन के दर्शन से, और साथ ही अपने स्वयं के इरादों और विचार-विमर्शों से भरा है। परमेश्वर को मनुष्य के केवल प्यार की अपेक्षा है, परमेश्वर को अपेक्षा है कि मनुष्य उनके वचनों और उनके लिए मनुष्य के प्यार द्वारा पूरी तरह से व्यस्त रहे। परमेश्वर के वचनों के भीतर रहना, यह पता लगाना कि कौन सा मनुष्य परमेश्वर के वचनों के अंदर से तलाश करता है, परमेश्वर के वचनों के परिणामस्वरूप परमेश्वर से प्यार करना, परमेश्वर के वचनों के परिणामस्वरूप इधर-उधर भागना, परमेश्वर के वचनों के परिणामस्वरूप जीना, ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य को प्राप्त करनी चाहिए। सब कुछ अवश्य परमेश्वर के वचनों पर निर्मित किया जाना चाहिए, और केवल तभी मनुष्य परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हो पाऐंगे। यदि मनुष्य परमेश्वर के वचनों से सज्जित नहीं है, तो आदमी केवल शैतान द्वारा ग्रस्त एक भुनगा है। इसे अपने स्वयं के दिल में तोलें, परमेश्वर के कितने वचनों ने आपके अंदर जड़ जमा ली है? किन चीजो में आप परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जी रहे हैं? किन चीजों में आप परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन नहीं जी रहे हैं? यदि आप पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के कब्जे में नहीं हैं, तो आप किस सीमा तक कब्जे में किए गए हैं? अपने रोजमर्रा के जीवन में, क्या आप शैतान द्वारा नियंत्रित किए जा हैं, या क्या आपका परमेश्वर के वचनों द्वारा मार्गदर्शन किया जा रहा है हैं? क्या आपकी प्रार्थनाएँ परमेश्वर के वचनों से शुरू हुई हैं? क्या आप परमेश्वर के वचनों के ज्ञान के कारण अपनी नकारात्मक परिस्थितियों से बाहर आए गए? परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव के रूप में मानना, यही है वह जिसमें हर एक को प्रवेश करना चाहिए। यदि आपके जीवन में परमेश्वर के वचन विद्यमान नहीं हैं, तो आप अंधकार के प्रभाव में जी रहे हैं, आप परमेश्वर के विद्रोही हैं, आप परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, आप परमेश्वर के नाम का अपमान कर रहे हैं, और इस तरह के मनुष्यों का परमेश्वर में विश्वास पूरी तरह से एक शरारत है, एक रुकावट है। आपका कितना जीवन परमेश्वर के वचनों के अनुसार रहा है? आपका जीवन कितना परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं रहा है? कि परमेश्वर के जिन वचनों की आपसे अपेक्षा थी, उनमें से कितने आप परपूरे हुए हैं? कितने आप में खो गए हैं? क्या आपने ऐसी चीजों की बारीकी से जाँच की है?
अंधकार के प्रभाव से बच निकलने के लिए, एक तरफ, इसे पवित्र आत्मा द्वारा किए गए कार्य की आवश्यकता होती है, जबकि दूसरी तरफ इसे मनुष्य से समर्पित सहयोग की आवश्यकता होती है। मैं क्यों कहता हूँ कि आदमी सही रास्ते पर नहीं है? यदि कोई व्यक्ति सही रास्ते पर है, तो सबसे पहले, वह अपना हृदय ईश्वर को समर्पित कर पाएगा, और यह ऐसा कार्य है जिसमें प्रवेश करने के लिए लंबे समय की आवश्यकता होती है, क्योंकि मानव जाति हमेशा से अंधकार के प्रभाव में रहती आ रही है, हजारों सालों से शैतान की दासता के अधीन रह रही है, इसलिए यह प्रवेश एक या दो दिन में प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आज मैंने इस मुद्दे को इस तरह से उठाया है कि लोग अपनी स्वयं की स्थिति को समझ सकें; अंधकार का प्रभाव क्या है और प्रकाश के भीतर रहना क्या है इस बारे में समझ सके,जब मनुष्य इन बातों को पहचान पाता है, तो प्रवेश संभव हो जाता है। क्योंकि इससे पहले कि आप शैतान के प्रभाव से बच निकलें आपको पता अवश्य होना चाहिए कि शैतान का प्रभाव क्या है, और केवल तभी आप धीरे-धीरे स्वयं को इससे छुटकारा दिलाने के मार्ग तक पहुँचेंगे। इसके जहाँ तक उसके बाद क्या करना है, यह मनुष्य का खुद का मामला है। आपको अवश्य हमेशा सकारात्मक होकर प्रवेश करना चाहिए, आपको अवश्य कभी भी निष्क्रियता से इंतजार नहीं करना चाहिए, और इसी तरह आपको परमेश्वर द्वारा जीत लिया जाएगा।
                                                                      स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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