Tumgik
hellodkdblog · 5 years
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मुहूर्त:
मुहूर्त: अर्थात किसी महत्वपूर्ण कार्य को प्रारंभ करने का शुभ समय। ****************************************************************
-ज्योतिष शास्त्र मूलतः “काल शास्त्र” है । काल अर्थात समय की गति को जानने का शास्त्र।समय! कभी हमारे अनुकूल होता है तो कभी हमारे प्रतिकूल भी।
किन्तु ज्योतिष कहता है….” मेरे सुझाए मार्ग पर चल। मै तुझे बताऊंगा कि समय! कब तेरे अनुकूल है और कब तेरे प्रतिकूल। फिर देख…….।”
किसी कार्य को प्रारंभ करने के लिए अनुकूल समय ही उसका “शुभ मुहूर्त” कहलाता है।
ज्योतिष अपनी गणना के आधार पर कहता --- “शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया गया कार्य निर्विघ्न रूप से शीघ्र ही सम्पन्न होता है । उसमें किसी प्रकार का कोई विघ्न नहीं पड़ता है।“
ज्योतिष (जातक) फलित में शुभ-अशुभ काल, समय या मुहूर्त दो प्रकार से देखा जाता है।
1-जातक की जन्मपत्रिका में चंद्रराशि के आधार पर :-
: जातक की जन्मपत्रिका में चंद्रराशि के आधार पर देखा जाता है कि वर्तमान काल में चंद्र किस विशेष नक्षत्र पर संचार कर रहा है।
जैसी कार्य की प्रकृति और स्वभाव है वैसी ही प्रकृति और स्वभाव के नक्षत्र पर चंद्र का गोचर होने पर उस कार्य को प्रारंभ करने का मुहूर्त निश्चित किया जाता है।
हां मुहूर्त या कहें “लग्नशुध्दी” जांचने के कुछ अन्य मांपदण्ड भी हैं।
2--स्वयंसिध्द मुहूर्त के आधार पर।
स्वयंसिध्द मुहूर्त:                                                                                   *******************
निम्न साढे तीन दिन पूर्णकालिक अर्थात पूरे दिन के लिए मुहूर्त माने गए है, जो जीवन के समस्त क्रिया-कलापों में सदा परम शुभ मुहूर्त हैं।
पंचॉग द्वारा इन तिथियों का निर्धारण हो जाने के पश्चात इनमें अन्य किसी शुध्दि की आवश्कता नहीं होती। अतः ये स्वयंसिध्द मुहूर्त कहलाते है। इन स्वयंसिध्द मुहूर्त के दिन सभी प्रकार के शुभकार्य संपन्न कराए जा सकते है।
जैसे:
1-साढे तीन स्वयंसिध्द मुहूर्त:-                                                        *****************************
1-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
2-बैशाख शुक्ल तृतिया (अक्षय तृतिया )
3-अश्विन शुक्ल दशमी (विजया दशमी )
4-दीपावली के प्रदोष काल का आधा भाग ।
2-चार अन्य स्वयंसिध्द मुहूर्त :-                                                       *****************************
-उपरोक्त साढे तीन स्वयंसिध्द मुहूर्त के अतिरिक्त देश के अन्य भू-भाग में लोकमान्यताऔं के अनुसार निम्न चार मुहूर्त भी स्वयंसिध्द मुहूर्त की श्रणी में माने जाते हैं :
1-आषाढ़ शुक्ल नवमी (भड्डल नवमी)
2-कार्तिक शुक्ल एकादशी ( देवोत्थान एकादशी )
3-माघ शुक्ल पंचमी (बसंन्त पंचमी )
4-फाल्गुन शुक्ल द्वितिया (फुलेरा दूज )।
दैनिक स्वयंसिध्द मुहूर्त:-                                                                    ************************
-"अभिजीत मुहूर्त " प्रत्येक दिन में आने वाला एक ऐसा 48-मिनट का ऐसा समय है जिसमे आप लगभग सभी शुभ कार्य कर सकते हैं।
ज्योतिष के अनुसार एक सूर्योदय से लेकर अगले सूर्योदय तक का समय कुल 30 मुहूर्तों में विभक्त है।
इस प्रकार लगभग 48-मिनट का एक मुहूर्त होता है।
अभिजीत मुहूर्त प्रत्येक दिन मध्यान्ह से करीब 24 मिनट पहले प्रारम्भ होकर मध्यान्ह के 24 मिनट बाद समाप्त हो जाता है।
यदि सूर्योदय ठीक 6 बजे हुआ था तो दोपहर 12 बजे से ठीक 24 मिनट पहले प्रारम्भ होकर यह दोपहर 12:24 पर समाप्त होगी।
अभिजीत मुहूर्त में लगभग सभी शुभ कर्मों में ग्राह्य हैं।
केवल दक्षिण दिशा की यात्रा और "बुधवार" का दिन त्यागना होता है।
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hellodkdblog · 5 years
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सनातन(हिन्दू ) परम्परा:
सनातन(हिन्दू ) परम्परा:
​सनातन (हिन्दू) परम्परा मूलतः चार वर्ण 1-ब्राह्मण , 2-क्षत्रीय, 3-वैश्य और 4-क्षुद्र में व्यवस्थित की गई थी। य़ह वर्णव्यवस्था विशुध्द रूप से व्यवसायपरक थी।   शास्त्रज्ञ ब्राह्मण कहलाए, शस्त्रज्ञ क्षत्रीय, कृषक और व्यवसायी वणिक या वैश्य कहलाए और इन व्यवसायों के अतिरिक्त जन शूद्र कहलाए गए।  श्रीमद् भगवद्गीता के श्लोक ॥4-13॥ और ॥18-141॥ उपरोक्त कथन के साक्षी हैं।
भृगु संहिता’ में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने।  
भृगु संहिता’ में उल्लेख  है कि -- यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे।  
-ऋग्वेद (9/112/3) के अनुसार एक ही कुल (परिवार) में (सभी वर्णी) चारों वर्णों के कर्म करने वाले हो सकते हैं।
मनुस्मृति में उल्लेख  है कि -- “षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥  और भविष्य पुराण में उल्लेख  है कि ---”वेदाध्ययनमप्येत ....... विप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः॥” पूर्व में किसी भी वर्ण में जन्मा व्यक्ति अपना आचारण  बदलने से शूद्र से ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण से शूद्र । यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण में जन्में व्यक्ति पर भी लागू होती है । क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । (विष्णु पुराण 4.8.1) वायु पुराण , विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण कहते हैं कि “शौनक ऋषि “ के पुत्र कर्म और आचारण भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए|
वर्ण परिवर्तन के अनेंक उदाहरण हमें हमारे ग्रंथों में मिलते हैः 
(1) ऋषि ऐतरेय और ऐलूष ऋषि ! ऋषि बनने से पूर्व वे न केवल शूद्रकुल में जन्में थे अपितु एक दुर्दान्त अपराधी भी थे।   परन्तु बाद में विद्याअध्ययन और अपने विशुध्द आचरण से वे कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने “ऐतरेय ब्राह्मण” और “ऐतरेय उपनिषद” की रचना की | (ऐतरेय ब्राह्मण -19.)  ।
(2) -सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए ।  
(3) -भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए ।   
(4) -राजा रथोतर और हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए ।  (विष्णु पुराण ४.३.५) 
(5) राजा दक्ष के पुत्र “पृषध” शूद्र हो गए थे, तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)  उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार “शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता” तो पृषध ये कैसे कर पाए? 
(6) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया ।  (विष्णु पुराण ४.१.१३) 
(7) नाभाग वैश्य के एक पुत्र धृष्ट थे परन्तु वे ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने पुनः क्षत्रिय वर्ण अपनाया |  आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए ।  (विष्णु पुराण ४.२.२) 
(8) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने ।  
(9) भगवान राम के पूर्वज राजा रघु का एक पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ ।  
(10)  विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |  विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया । 
(11) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) । 
(12) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए ।
सनातन (हिन्दू ) परम्परा में सर्वप्रथम एक कुलीन व्यक्ति की कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न एकादश बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होता है।
[1] गोत्र।   [2] प्रवर।     [3] वेद।    [4] उपवेद।    [5] शाखा।  [6] सूत्र। [7] छन्द।   [8] शिखा।   [9] पाद।   [10] देवता।  [11] द्वार।
अतः उपरोक्त ग्यारह मापदण्ड़ो में से वे तत्व जो वेदों का अध्ययन, अध्यापन और कर्मकाण्ड़ से सम्बन्धित हैं उन मापदण्ड़ो को केवल ब्राह्मण कर्मणा वर्ण के लिए तथा निम्न चार योग्यताए गैर ब्राह्मण वर्ण वालों के लिए अनिवार्य हैं।
[1 ] गोत्र ।   [2 ] प्रवर ।   [8] शिखा ।    [10] देवता ।  
[1] गोत्र : गोत्र से आशय है कि किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जिस ऋषि से प्रारम्भ होती है वहीं उस वंश का गोत्र भी प्रचलित होता है।
इन गोत्रों को "गण" नाम दिया गया। यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा।
गोत्र शब्द एक अर्थ में “ गो ” अर्थात् पृथ्वी का पर्याय भी है ओर “ त्र ” का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है।
गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए।
पाणिनीय सूत्रों के अनुसार:  ' अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम् '   4-1-162. अर्थात् पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं।
जैसाकि बोधयन के महाप्रवराध्याय में लिखा है कि :
"कश्यपत्रि र्भरद्वाजो विस्वमित्रोथ गौतमः।
वशिष्ठो जमदग्निश्च सप्त यते ऋषयस्तथा।।"
सप्त ऋषिभ्योनमः। ***************
1-कश्यप*, 2-अत्रि*, 3-भारद्वाज,*, 4-विश्‍वामित्रा,* 5-गौतम,* 6-वसिष्ठ,* 7-जमदग्नि* ।
इन कुल सात ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की  वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी अलग-अलग 7-ऋषिगोत्र कहलाते हैं।
-अगस्त्य (अंगिरा ) ऋषि भी  कालान्तर में आठवे गौत्रकारक ऋषि बने। किन्तु इनकी शाखा/प्रवर/उपगोत्र/गण नहीं बना।
- कालान्तर में ऋषि पुलह (9), -पुलस्ति (10), और - क्रतु (11)  ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार हुआ है।
-कालान्तर में भृगु ऋषि को भी 12-वां गौत्रकारक ऋषि माना गया है।
- कालान्तर में जिनके गोत्र ज्ञात न हों उन्हें काश्यपगोत्रीय माना जाना निश्चित हुआ। 
{ गोत्रस्य त्वपरिज्ञाने काश्यपं गोत्रमुच्यते।                                                           यस्मादाह श्रुतिस्सर्वाः प्रजाः कश्यपसंभवाः।।  (हेमाद्रि चन्द्रिका)}
इस प्रकार हम सब सनातनी हिन्दू धर्म को मानने वाले कुल 11- ऋषियों की सन्ताने हैं।
[2] प्रवर : गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद अपनी कुल परम्परा  में होने वाले अन्य किसी महान व्यक्ति के नाम से उसी गोत्र में विभाजन हुआ । जैसे अत्री ऋषि के गौत्र में मुद्गल।    मुद्गल अत्री ऋषि के गोत्र के प्रवर कहलाते हें ।      सभी 11- गोत्र में अधिकतम पांच प्रवर तक स्वीकारने की आज्ञा है। 
[3 ] वेद:  गोत्रकार ऋषियों के जिस “वेद” का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया है, उस के अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि  का भार उसकी संतान पर पड��ता हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक विशिष्ट वेद होता है।
[4] उपवेद:  प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये ।
[5] शाखा:  कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से ��न्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
[6] सूत्र:  व्यक्ति वेद से सम्बद्ध शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !
[7] छन्द: वेद, उपवेद, शाखा और सूत्र के अनुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परासम्मत “छन्द” का भी ज्ञान होना चाहिए।
[8] शिखा: अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है ।
[9] पाद:  देवपूजन कर्म में बैठने से पूर्व पुरोहित एवं ऋत्विक जन अपने अंगों का प्रच्छालन करते हैं। अपने -अपने गोत्र के अनुसार  वे पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते है, इसे ही पाद कहते है।
[10] देवता:  सनातन (हिन्दू) धर्म में श्रीगणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा और सूर्य इत्यादि पञ्च देवों की दैनिक पूजन का विधान है। किन्तु गौत्र की परम्परा के अनुसार उपरोक्त पञ्च देवों में से कोई एक उनके आराध्‍य देव निश्चित किए जाते हैं। इसी प्रकार कुल के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों [माता-पिता आदि ] के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है । प्रत्येक सनातनी को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए -
(क) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।  (ख) कुल देवता अथवा कुल देवी । (ग) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।
[11] द्वार:  यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है।
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hellodkdblog · 5 years
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स्त्री जातक:-
स्त्री जातक:- भाग-9.
योग संख्या-22.
वैधव्य योग:-
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सुगमज्योतिष स्त्रीजातक/श्लोक-1 एवं 2 के अनुसार प्रबल वैधव्य योग:-
सप्तमेशो अष्टमें यस्या: सप्तमें निधनाधिपा:।
पापेक्षण युताद् बाला वैधव्यं लभते ध्रुवम्।।
भावार्थ:-
*******: जिस स्त्रीजातक की जन्मपत्रिका में चन्द्रलग्न या जन्मलग्न (जो बलवान हो) से सातवें भाव का स्वामिग्रह आठवें भाव में और आठवें भाव का स्वामिग्रह सातवें भाव में हो,
और ये दोनों ग्रह **नैसर्गिक क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो निश्चित ही उसका वैधव्य हो जाता है।
योग संख्या-23.
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सप्तम-अष्टपती षष्टे व्यये वा पाप पीड़ितौ।
तदा वैधव्य माप्नोति नारी नैवात्र संशय:।।
भावार्थ:-
*****:- जिस स्त्रीजातक की जन्मपत्रिका में चन्द्रलग्न या जन्मलग्न (जो बलवान हो) से सातवें भाव और आठवें भाव के स्वामिग्रह छठे या आठवें भाव में युति या अलग-अलग भी हों,
और ये दोनों ग्रह नैसर्गिक क्रूर ग्रह से यु्ति में हों या देखे जा रहे हों तो निश्चित ही उसका वैधव्य हो जाता है।
योग संख्या-24.                                                                                            ************
बृहद जातक: स्त्री-14. के अनुसार:-
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क्रूरेअष्टमे विधवता निधनेश्वरोअंशे,
यस्य स्थितो वयसि तस्य समेप्रदिष्टा।
सत्स्वर्थगेषु मरणं स्वयमैवतस्या,
कन्यातगोहरिषु चा अल्पसुतत्वमिन्दो।।
वैधव्यता के संबंध में अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य:-
***********************************
1-लग्न से अष्टम भाव में नैसर्गिक क्रूरग्रह (जैसे शनि,मंगल, राहु, केतु या सूर्य ) हो वे पाप दृष्टि में भी हो तो स्त्री विधवा होती है।
विशेष:- सूर्य को स्वभावत: क्रूर ग्रह माना गया है अतः:जहां-जहां ऋषियों ने " क्रूर " शब्द का प्रयोग किया है वहां सूर्य को भी सम्मलित किया जाएगा।
इसी प्रकार जहां-जहां ऋषियों ने " पाप ग्रह " शब्द का प्रयोग किया है वहां सूर्य को सम्मलित नहीं किया जाएगा। क्योंकि सूर्य को स्वभावत: क्रूर ग्रह तो माना गया है लेकिन पापग्रह नहीं।
क्या अन्तर है क्रूर और पाप स्वभाव के ग्रहों के फलित में?
क्रूर ग्रह केवल भाव से संबंधित कष्ट देते है किन्तु पापा ग्रह उस भाव का नाश कर सकते हैं यदि बलवान हों तो।
2-अष्टमेष के नवांशराशि के स्वामि की दशा-अन्तर्दशा में स्त्री विधवा होती है।
3-शुभग्रह दूसरे भाव में हो तो स्त्री की सुहागन मृत्यु। अर्थात पति से पहले म‌त्यु हो।
4-चंद्रमा 2,5,6,या 8 में हो तो संतान कम होती है।
5-आठवे भाव में क्रूर ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो देरी से मरण होता है। एक प्रकार से यह दीर्घायु योग है।
6-किसी पापग्रह को चंद्र और मंगल देखे तो निश्चित ही पति का शीघ्र मरण। अर्थात वैधव्यता हो जाती है।
योग संख्या-24                                                                                             ************
** कार्ये पापे कोणेवा ।।
च०पाद/जैमिनी सूत्रम्- 13/ 4.
इसे ऐसा पढ़े:-
वैधवी योगान्निश्चयेन.... कार्ये पापे कोणेवा।।
अर्थात्त: एकादश भाव और उसका कोणभाव अर्थात तीसरे भाव में पापग्रह हों और वह पापग्रह दर्शाया देखा जा रहा हो तो वैधव्यता देते हैं।
योग संख्या-25.                                                                                           **************
जैमिनी सूत्रम् च०पाद 8-9 के अनुसार:-
**उच्चे विलंबात् नीचे क्षिप्रम्।।   चंद्रकुजदृष्टौ निश्चयेन।।
अर्थात :- चंद्र औ��� मंगल की दृष्टि से निम्न योगों में वैधव्यता के संभावित काल का निश्चय करें।
1-आठवे भाव में क्रूर ग्रह अपनी उच्चराशि में हो तो विलंब से वैध्व्य होता है।
2-आठवे नभाव में पापग्रह हो जिस पर चंद्र और मंगल की दृष्टि बन रही हो तो देरी से वैधव्य होता है।
योग संख्या:- 26
सुगम ज्योतिष वैधव्य योग        श्लौक-2
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चंद्र: पापेन संयुक्तश् चन्द्रो वा पाप मध्यग:।
चंद्रात् सप्ताषष्टमें पापा भर्तुर्‌ नाशकरा मत:।।
भावार्थ:- यदि चंद्रमा नैसर्गिक पाप ग्रह से देखा जा रहा हो। या चंद्रमा पापकर्तरी दोष में हो और चंद्रमा से सातवें या आठवें भाव में कोई नैसर्गिक पाप ग्रह हो तो पति का नाश हो सकता है। ऐसे योग वाली वह स्त्री विधवा हो सकती है।
अगामि लेख में "चाल चरित्र" ।।
स्त्री जातक:- भाग-10.                                                                                     *******************
योग संख्या-27.
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विवादास्पद प्रकृति:-
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सारावली अध्याय-8/17 के अनुसार:-
एकै केन फलं स्याद दृष्टे नान्यै: कुजादिभि: पावै:।
सर्वे: स्वगृहं त्यवक्ता गच्छन्ति वेश्या वदं युवति।।
भावार्थ:- यदि किसी महिला जातक का चंद्रग्रह सभी तीनों पापक ग्रहों जैसे: मंगल, शनि,राहु आदि से देखा जा रहा हो तो:
वह महिला अपना कुल-परिवार त्याग कर नगरवधु सा स्वच्छन्द जीवन जीती हैं।
योगसख्या-28.                                                                                         **************
सारावली अध्याय-45/19.के अनुसार:-
सौरारगृहे तद्वच्छ शिनि सशुक्रे विलग्नगे जाता।
मात्रा साकं कुलटा क्रूरग्रह विक्षिते भवति।।
भावार्थ:- यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली का लग्नभाव **क्रूरराशि वाला हो,
और इस लग्नभाव में " चंद्र एवं शुक्र की युति " बैठी हो, साथ ही..
इस युति को कोई पापी ग्रह देख रहा है तो इस महिला का चरित्र दूषित हो सकता है।
**क्रूरराशि वाला लग्न किसे कहते हैं?
-यदि जन्मकुंडली का लग्न भाव मंगल की राशियों ( मेष या बृश्चिक) या शनि की राशियों (मकर या कुंभ ) का हो तो उसे क्रूरराशि वाला लग्न कहते हैं।
वैसे भी क्रूरराशि वाले लग्न के ये जातक जीवन भर अपने स्वास्थ्य की चिंता में ग्रस्त रहते हैं।
पति के अतिरिक्त पुरुष की कामना करने वाली:-
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योगसख्या-29.                                                                                        ***************
सारावली अध्याय-45/18.के अनुसार:-
अन्योन्यभाग गतयो सित-कुजयो  रन्यपुरुष सक्ता स्यात्।
द्यूने शिशिरकरे वा स्याद्युवतिर् अनुज्ञया भर्तु:।।
भावार्थ:- यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली में शुक्र और मंगलग्रह एक दूसरे की राशि में हों, या
नवमांशकुंडली में एक दूसरे की राशि में हों तो:
वह महिला पति के अतिरिक्त अन्यपुरुष मित्र भी रख सकती है।
2- शुक्र और मंगल के उपरोक्त योग के साथ यदि जन्मकुंडली के सातवे भाव में चंद्रमा भी हो:
तो उस महिला के अन्यपरुष से मित्रता संबन्ध में उसके पति की भी सहमति हो सकती है। या अपनी स्त्री के इस व्यवहार के बारे में वह सब कुछ जानता है।
दुर्भाग्यवान स्त्री:-                                                                                        *****************
योग संख्या-30
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सारावली अध्याय-45/14.के अनुसार:-
शुक्रासितौ यदि परस्पर भागसस्थौ,   शौक्रे च दृष्टि पथगावूदये घटांशे।
स्त्रीणा मतीव मदन अग्निमद: प्रवृध्द,   सत्रीभि: समंच पुरुषाकृति भूर्लभन्ते।।
भावार्थ यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली में:
1- जन्मकुंडली में शुक्र और शनिग्रह परस्पर समसप्तक हों या
2- शुक्र और शनिग्रह नवमांशकुंडली में एक दूसरे की राशि में हों या
3-जन्मकुंडली के लग्नभाव में शुक की राशि (2/7) हो किन्तु नवमांशकुंडली का लग्न शनि की राशि (10/11) में हों :
तो वह महिला बलात्कर आदि से पीड़ित हो सकती है।
वह स्वयं नारि सुलभ लज्जा को त्याग कर सकती है।
वह अति कामातुर या अतिक्रुध्द व्यवहार कर सकती है।
एक महिला जिसे दस्युसुंदरी कहा गया।
वह Member of Parliament भी बनी किन्तु भयंकर पापाचरण से पीड़ित हुई। (DOB-10-08-1963, 12.00, Bhind, MP)
योग संख्या-30 का यह एक सशक्त उदाहरण है।
आप स्वयं यह कुंडली बना कर ज्योतिष का चमत्कार देखें।
स्त्री जातक:- भाग-11.
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योग संख्या-31
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सर्वार्थ चिन्तामणि: अध्याय-6/62 के अनुसार:-
विवाह के पश्चात भाग्योदय:-
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भाग्यं विवाहात् परतो वदन्ति    शुक्रे अस्तगे चोप चयान्विते वा।
कुटुंबमेता दृश भावयुक्ते      लग्नेश्वरे वा शुभदृष्टि योगे।।
भावार्थ:- यदि किसी जातक का शुक्र :-
(क)- सातवें भाव में हो या
(ख)- उपचय 3, 6, 10 या 11 वे भाव में हो,या
(ग)- दूसरे भाव में हो,
और लग्नेश केन्द्र या त्रिकोण भावों में बैठ कर किसी शुभग्रह की दृष्टि में हो तो विवाह के पश्चात उसका भाग्योदय होता है।
योग संख्या-32
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सर्वार्थ चिन्तामणि: अध्याय-6/63. के अनुसार:-
विवाह के पश्चात भाग्यहीनता:-
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तत्कारके दारपतौ कुटुंबनाथे विलग्नाधिपतौ च द:स्थे।
नीच-अरि-मूढांशगते सपापे भाग्यं विवाहात् प्रविनाशमेति।।
भावार्थ:- यदि सप्तमेश, सप्तम का कारक ग्रह शुक्र, लग्नेश और धनेश ये चारों ग्रह यदि 6,8 या 12 वे भाव में हों तो विवाह के तुरन्त पश्चात दंपति के भाग्य की अवनति होती है।
योग संख्या-32
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अवनति के पश्चात पुन: उन्नति का योग:-
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ग्सर्वार्थ चिन्तामणि: अध्याय-6/ 64 वे श्लोक में कहते हैं:-
......
शुभान्विते शोभनदृष्टिपाते नाशात्परं भाग्य मुपैति जात:।।
भावार्थ:- यदि सप्तमेश, सप्तम का कारक ग्रह शुक्र, लग्नेश और धनेश ये चारों ग्रह यदि 6,8 या 12 वे भाव में हों,
किन्तु इन ग्रहों पर केवल शुभग्रह की दृष्टि हो तो अवनति के पश्चात दंपति के भाग्य की पुनः: उन्नति हो सकती है।
योग संख्या-33
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सदा भाग्यवती योग:-
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एव एक सुरराज पुरो वा     कैन्द्रे गो अपि नव-पंचमगो वा।
शुभ ग्रहस्य विलोक्यतो वा,   शेष खेचरबलेन न किंवा।।
किसी स्त्री जातक की जन्मपत्रिका के किसी केन्द्र या त्रिकोण भाव में (संख्या 1,4,7,10, 5,9, में) बृहस्पति स्थित हों और.....
इस बृहस्पति पर किसी शुभग्रह की दृष्टि हो
तो फिर आशुभ ग्रह कुछ नही कर सकते।
जीवन मंगलमय रहता है।
स्त्री जातक:- भाग-12.
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योग संख्या-34
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सौभाग्यवान जातिका
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सुगम ज्योतिष,जातकोध्याय-2राजयोग:02.
केन्द्रे च सौम्या यदि पृष्ठभाज (3,6,9,12) पाप:   कलत्रभावे च मनुष्य राशे।
राज्ञी भवेत् स्त्री बहुकोष युक्ता,       नित्यं प्रशान्ता च सुपुत्रिणी च।।
भावार्थ:- यदि किसी स्त्रीजातक की पत्रिका के जन्मलग्न में केन्द्र भावों में सौम्यग्रह (चंद्र,बुध,शुक्र और बृहस्पति) हों,
साथ ही 3,6,9 और 12वे भाव में पाप -क्रूर ग्रह (मंगल, शनि,राहु,केतु और सूर्य भी) एवं
सातवें भाव में नरराशि (विसमराशि) हो तो वह स्त्री बहुत धनवान, पुत्रवान और सौभाग्यवान होती है।
योग संख्या-35
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पतिव्रता जातिका:-
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सर्वार्थ चिंतामणि अध्याय-6/13 के अनुसार:-
स्वर्क्षे कुटुम्बपती कलत्र भावे   यदा त्वेक कलत्र भाक् स्याता ।।
भावार्थ:- यदि किसी स्त्रीजातक की पत्रिका के जन्मलग्न में यदि कुटुम्ब भाव (2) और कलत्रभाव (7) का स्वामि अपनी राशि या अपनी उच्च राशि में हों तो जातिका एकनिष्ठ पतिव्रता रहती है।
पतिव्रता जातिका:-
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सर्वार्थ चिंतामणि अध्याय-6/43 के अनुसार:-
गुरु सहिते-दृष्टे दारनाथे बलान्विते।   काले वा तथा भावे पतिव्रत परायणा।।
भावार्थ: यदि किसी स्त्रीजातक की पत्रिका के जन्मलग्न में यदि दारनाथ (7th lord) बलवान हो, बृहस्पति के साथ हो या बृहस्पति की दृष्टि में हो तथा
दारभाव (7th house) का स्थाई कारक ग्रह "शुक्र" बलवान हो तो जातिका एकनिष्ठ होती हैं।
पतिव्रता जातिका:-
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सर्वार्थ चिंतामणि अध्याय-6/45 के अनुसार:-
योग संख्या-36
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कलत्राधिपतौ केंद्र शुभग्रह निरीक्षिते।   शुभांशे शुभराशौ वा पतिव्रता परायणा।।
भावार्थ:- यदि किसी जातिका का कलत्राधिपति (lord of 7th house)
क- केंद्रभाव में हो, या
ख- शुभराशियों (2,3,4,6,7,9,12) में हो या
ग- नवांश कुंडली में शुभराशियों (2,3,4,6,7, 9, 12) में हो, तथा
जन्मलग्नकुंडली में किसी नैसर्गिक शुभग्रह (बलवान बुध,शुक्र,चंद्र या बृहस्पति) से **देखा** जा रहा हो (युति नही ) तो जातिका् एकनिष्ठ पतिव्रता होती हैं।
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hellodkdblog · 5 years
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स्त्री जातक:-
स्त्रीजातक : भाग-1.
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स्त्री जातक फलित पर हम अब जिन योगों की चर्चा करेंगे वे बहुत सटीक हैं।लेकिन इससे पहले हम यह स्मरण रखें कि नारी स्वभाव से सहजशील है, वह परवश आचरण कर सकती है अत: मात्र एक अशुभयोग के आधार पर किसी महिला के चरित्र पर अन्तिम राय बना लेना ज्योतिष के प्रति अपराध ही होगा। यह एक अति संवेदनशील विषय है। अन्तत: वह हमारी जननी है।
मनुस्मृति ( मूलत: देवीभागवत) अध्याय 3, श्लोक 56 में कहा गया हैं :
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रियाः ।।
जहां स्त्रीजाति का आदर होता है वहां देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता वहां संपन्न किये गये सभी कार्य असफल होते हैं।
योग संख्या-01.
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सोमात्मिका: स्त्रिय: सर्वा पुरुषा भाष करात्मका:।
तासां चंद्रबलात् स्त्रीणां नृणां सर्व हि सूर्यत:।।   ( वशिष्ठ संहिता )
अर्थात : स्त्रियां चन्द्र के अंशबल से और पुरुष सूर्य के अंशबल से उत्पन्न होते हैं। अतः:स्त्री का शुभाशुभ चंद्र के और पुरुष का शुभाशुभ सूर्य के बल से होना चाहिए।
उपरोक्त कथन का "सुगमज्योतिष" भी समर्थन करता है:-
-पुयोषितां जन्मफलं तु तुल्य किवात्र राशिश्वर लग्नतश्च।।
: स्त्रीजातक विशेष विचार श्लोक-2.                                                                 ************
भावार्थ: स्त्री तथा पुरुष जातक का फलित समान ही होता है। किन्तु स्त्रियों के जन्मफल के विचार उनके चंद्र को लग्न मानकर करने चाहिए।आधुनिक ज्योतिष में इसे महिला के संबंध में 1-लग्नभाव-लग्नेश और 2-चंद्रभाव और चंद्र से जो बलवान हो उसका चयन करें। 
इसी प्रकार पुरुष जातक फलित के लिए 1-लग्नभाव-लग्नेश और 2-सूर्यभाव और सूर्य से जो बलवान हो उसका चयन करें।
ऋषि पराशर के शिष्य लग्नभाव ही को प्रधान मानते हैं। वे स्त्रीजातक और पुरुषजातक की फलित विधि में भेद नही करते।
स्त्रीजातक : भाग-2
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स्त्रीजातक की कुंडली की विशेषता:
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योग संख्या -2:                                                                                               **********
फलदीपिका एवं सुगमज्योतिष : स्त्रीजातक विशेष विचार श्लोक-3 के अनुसार:-
वैधव्यं निधनगृहे पतिसौभाग्यं सुखं च यामित्रे।
सौन्दर्यं लग्नगृहे विचिन्तयेत् पुत्र सम्पदं नवमे।।
भावार्थ: लग्न या चंद्र जो भी भाव बलवान हो उससे आठवे भाव से महिला के पति की आयु, सातवे भाव से पति की प्राप्ति और कामसुख, लग्नभाव से रुप और सौन्दर्य और नवमभाव से सन्तान और सम्पत्ति का सुख के संबंध में जानना चाहिए।
योग संख्या -3:                                                                                             ************  
सुगमज्योतिष : स्त्रीजातक विशेष विचार:
श्लोक-3 के अनुसार:
एषु स्थानेषु युवत्या: क्रूरास्तु नेष्ट फलदा।
भुवनेश विवर्जिता: सदा चिन्त्या:।।
अर्थात् : उपरोक्त भावों में( 1, 8, 7 और 9) में नैसर्गिक क्रूरग्रह अनिष्ट फल देते हैं। लेकिन ये क्रूरग्रह यदि अपने इन भावों में ही बैठे हो अर्थात् स्वराशिस्थ हों तो शुभफल ही देंगे, इस तथ्य को स्मरण रखें।
योग संख्या -4:                                                                                             ************
सुगमज्योतिष : स्त्रीजातक विशेष विचार श्लोक-4 के अनुसार:
नारिणां जन्मकाले कुज-शनि तमस: कोणकेन्द्रेषु शस्ता-
श्चन्द्रोsस्ते च प्रशस्तो बुध-सित-गुरुव: सर्व भावेषु शस्ता:।।
अर्थात् : स्त्रीजातक की जन्मलग्न कुंडली में मंगल,शनि और राहु कोण और केन्द्रभावौं में शुभ फलदायक सिद्ध होते हैं।
-चंद्रमा सातवें भाव में शुभ फलदायक होता है।
-बुध, शुक्र और बृहस्पति सभी भावों में शुभ फलदायक माने जाते हैं।
-लग्नेश सातवें भाव में और सप्तमेश लाभ भाव में और लाभेश पांचवें भाव में श्रेष्ठ फल देते हैं।
स्त्री जातक:- भाग-3.
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योग संख्या-5:                                                                                            **************
सारावली के अध्याय 3 श्लोक संख्या 9 के अनुसार:
द्वादसमण्डल भगणं तस्यार्धे सिंहतो रविर्नाथ:।
कर्कटक अत्प्रतिलोमं शशी तथान्ये अपि तत्स्थानात्।
भावार्थ:- अनन्त आकाश को कुल बारह भगों में बांटा गया है।शनि, बृहस्पति, सूर्य, बुध, शुक्र और चंद्र (पृथ्वी) आदि सात ग्रह इन बारह स्थानों ( भगण ) पर क्रमस: भ्रमण करते रहते हैं।इन बारह स्थानों (राशियों) का नाम क्रमस: मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, बृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन है।
सिंहराशि से क्रमवार छ राशियों ( सिंह, कन्या, तुला, बृश्चिक, धनु, मकर) का एक अर्धमण्डल (अर्धवृत्त) है। इस मण्डल का स्वामित्व "सूर्य" को दिया गया है।
इसी प्रकार कुंभराशि से क्रमवार छ राशियों जैसे: कुंभ, मीन, मेष, वृष, मिथुन और कर्क तक की राशियों का एक अन्य अर्धमण्डल (अर्धवृत्त)। इस अर्धवृत का स्वामित्व "चंद्र" को दिया गया है।
योग संख्या-6:                                                                                          ************** 
सारावली-3/10.
भानोर्धे विहगै: शूरास्तेजस्विनश्च साहसिका:।
शशिनो मृदव: सौम्या: सौभाग्य युता प्रजायन्ते।।
भावार्थ:- यदि किसी व्यक्ति की जन्मपत्रिका में सूर्यादि सभी सात ग्रह सूर्य के आधीन छ राशियों के क्षेत्र (सिंह, कन्या, तुला, बृश्चिक, धनु, मकर) में हो तो वह जातक शौर्यवान, तेजस्वी और अदम्य साहसी होता है।इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति की जन्मपत्रिका में सूर्यादि सभी सात ग्रह चंद्र के आधीन छ राशियों के क्षेत्र (कुंभ, मीन, मेष, वृष, मिथुन और कर्क ) में हो तो वह जातक सरल और शान्त स्वभाव का शत्रुहीन और सुखभोगी होता है।
उपरोक्त योग को यदि हम श्री रघुकुल गुरु श्री वशिष्ठ कृत " वशिष्ठ संहिता " के अनुसार देखते है कि, " स्त्रियां चन्द्र के अंशबल से और पुरुष सूर्य के अंशबल से उत्पन्न होते हैं।"गुरु वशिष्ठ के उपरोक्त आदेश पर हम कह सकते हैं कि, " यदि किसी महिला की जन्मपत्रिका में सूर्यादि सभी सात ग्रह चंद्र के आधीन छ राशियों के क्षेत्र (कुंभ, मीन, मेष, वृष, मिथुन और कर्क ) में हो तो वह जातिका एक सर्वगुण सम्मपन्न राजयोगी होगी होगी।
स्त्री जातक:- भाग-4
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योग संख्या 07.                                                                                           *************
पति कि प्यारी और धन-ऐश्वर्य से पूर्ण:-
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बृध्द यवन जातक: अध्याय 63 श्लोक-11 के अनुसार:
वक्रस्तृतीये रिपुसंस्थितो
षडवर्गशुध्दो रवि जश्च लाभे।
स्थिरे विलग्ने गुरू मा च युक्ते
राज्ञी भवेत् स्त्री पतिवल्लभा।।
भावार्थ:- जिस महिला की जन्मपत्रिका मैं :
(क)- तीसरे या छठे भाव में मंगल हो या शनि हो या
(ख)- एकादस भाव में मंगल हो या शनि हो
और और ये दोनों ग्रह षड(सप्त) वर्ग मैं शुध्द हो। या
(ग)- स्थिरराशियों ( 2,5,8,11) के लग्नभाव मैं बृहस्पति हो;
तो उपरोक्त योगों में वह महिला अपने पति कि प्यारी और धन-संपत्ति से पूर्ण होती है।
ग्रह कब शुध्द होता है ?                                                                                 *************
-कोई भी ग्रह जब सप्तवर्गकुंडलियों मैं तीन से अधिक वर्गकुंडलियों में अपनी राशि में, अपनी उच्चराशि में या अपने अधिमित्रग्रह की राशियों में आते है तो ग्रह शुध्द (शुभ फलदायक ) माना जाता है।षट्वर्ग : लग्न, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, द्वादशांश, त्रिशांश ये छः वर्ग होते है।सप्तवर्ग : उपरोक्त षट्वर्ग मे सप्तांश जोड़ देने पर सप्तवर्ग हो जाते है।विशेष: 1-सूर्य और चंद्र का त्रिशांश वर्ग नहीं होता।
2-होरा वर्ग केवल सूर्य और चंद्र का होता है शेष 05 ग्रहों मंगल से शनि तक का नहीं।
इस प्रकार से हम सभी 07 ग्रहों का अध्ययन केवल 06 वर्गों में ही कर पाते हैं।
योग संख्या 08.
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प्रकृतिस्थ लग्नेन्द्वो: समभे सच्छोल रुपाढ्या।
भूषण गुणैरुपेता शुभवीक्षित योश्च युवति: स्याता।।
सारावली-45/13.
भावार्थ: यदि महिला जातक के दोनों लग्न ( जन्म और चंद्र) समराशि (12,2,4 में विशेषकर) हों तो वह पतिव्रता और सुन्दर चरित्र की होती है।
ऐसे दोनों लग्न यदि किसी नैसर्गिक सौम्यग्रह से देखे जाए तो निश्चित ही वह अलंकारों से युक्त नित्य रमणी बनी रहती है।
स्त्री जातक:- भाग-5
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योग संख्या 09.
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पिता एवं ससुराल पक्ष के लिए धनदात्री महिला :-
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होरारत्न: अध्याय-10 श्लोक-18के अनुसार:-
सौम्य क्षेत्रे उदये चंद्रे सार्धं शुक्रेण सा वधु:।
सुखी पिता पर्तिद्वेषा नित्यम स्थिरचारिणी।।
भावार्थ:- किसी स्त्री जातक का जन्मलग्न बुध की राशियों वाला (3 या 6) हो तथा
इस लग्नभाव में शुक्र और चंद्र की युति हो तो ऐसी महिला अपने पिता के घर में अपने लिए सभी प्रकार के सुख के साधन उत्पन्न कराती है और सुखी जीवन जीती है।अपने विवाह के पश्चात ऐसी महिलाए अपने ससुराल में भी अपना ऐश्वर्य और पूर्ण नियंत्रण बनाए रखती हैं।
संक्षेप में यह कन्या साक्षात लक्ष्मी और दुर्गा का स्वरुप होती है।
योग संख्या 10.
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होरारत्न: अध्याय-10 श्लोक-19 के अनुसार:-
चन्द्रज्ञौ यदि लग्नस्थौ कुलाढ्या ब्रह्मवादिनी।
न शुक्रो यदि लग्नस्थौ सौम्य स्थाने कुलाढ्या।।
भावार्थ:- किसी स्त्री जातक का जन्मलग्न बुध की राशियों वाला (3 या 6) हो, तथा इस लग्नभाव में शुक्र आसीन हो या न भी आसीन हो तो भी ऐसी महिला सभी प्रकार से सुखी जीवन जीती है।[ उपरोक्त योगों के संबंध में कुछ विद्वानों का मत है कि यदि मिथुन लग्न हो तो कर्क और मीन के नवांश में न हो।यदि कन्या लग्न हो तो धनु और मीन के नवांश में न हो।]
योग संख्या-11.
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जातक पारिजात के अध्याय -16 श्लोक-10 के अनुसार :-
युगल में विलग्ने कुज-सौम्य-जीव,
शुक्रैर्बलिष्ठे: खलु जातकन्या।
विख्यात-नाम्नी सकलार्थ तत्त्व,
बुध्दिप्रसिध्दा भवतीह साध्वी।।
भावार्थ:- यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली का लग्नभाव समराशि का हो,मंगल, बृहस्पति,शुक्र और बुध बलवान हों तो वह जातिका सर्वगुणसंपन्न, विख्यात और दूसरों की पथप्रदर्शक (साध्वी ) होती है।विशेष: इस योग में केवल लग्न का ही समराशि में होना अनिवार्य है। ग्रहों का नहीं।
योग संख्या-12.
***************
जातक पारिजात के अध्याय -16 श्लोक-21 के अनुसार :-
पतिवल्लभा सद् ग्रहांशे।।
भावार्थ:- यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली के लग्नभाव में या सातवे भाव में कोई भी राशि हो लेकिन नवमांशकुंडली के सातवे भाव में शुभग्रहों (बुध, बृहस्पति, सूर्य या शुक्र ) की राशियां आती हो और
2-वह नवांश राशीश लग्नकुंडली में शुभ प्रभाव रखता हो तो वह महिला अपने पति की प्राणवल्लभा होती है।3-साथ ही उस महिला का पति सर्वगुणसंपन्न होता है।
यह महिला के लिए सुखदायक स्थिति होती है।
स्त्री ��ातक:- भाग-6
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मन-वाणी-कर्म से सत्यनिष्ठ महिला:-
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योग संख्या 13.
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जातक पारिजात के अध्याय -16 श्लोक-25 के अनुसार :-
कलत्रराश्य अंशगते महीने मन्देक्षिते दुर्भ गमेति कन्या।
शुक्रांशके सौम्यदृशा समेते कलत्रराशौ पतिवल्लभा स्यात्।।
भावार्थ: - किसी स्त्री जातक के लग्नभाव में बलवान चंद्र और बुध की युति हो तो ऐसी महिला ईश्वर के प्रति अपने मन-वाणी-कर्म से सत्यनिष्ठ होती हैं।
[उपरोक्त योग के संबंध में कुछ विद्वानों का मत भी है कि लग्नभाव मंगल की राशि 1 या 8 का न हो।]
योग संख्या 14.
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सुगमज्योतिष स्त्रीजातक/श्लोक-10 के अनुसार :-
सौम्याभ्याम् प्रवरा शुभत्रय युते जाता भवेद् भूपते:।
सौम्यर्केन पतिप्रिया मदनभे दृष्टे युते जन्मनि।।
भावार्थ:- किसी स्त्री जातक के सातवेभाव में तीन सौम्यग्रह (चंद्र-बुध- बृहस्पति-शुक्र में से) हों तो वह स्त्री रानी के समान जीवन जीती है।
2- यदि सातवें भाव में केवल एक सौम्यवह ग्रह ही हो लेकिन वह सौम्यग्रह द्वारा देखा जा रहा हो तो वह स्त्री अपने पति (जो बड़ा अधिकारी, मंत्री आदि हो) की प्राण-प्यारी होती है।
उपरोक्त कथन की पुष्टि जातक पारिजात अध्याय-16 श्लोक-34 भी करता है:-
राज अमात्य वरांगना यदि शुभे कामं गते कन्यका।
मारस्थे तु शुभत्रये गुणवती राज्ञी भवेद् भूपते।।
योग संख्या 15.
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सामान्यतः लग्नभाव में स्थित चंद्रमा को (स्वराशिस्थ या अपनी उच्चराशि में स्थित के अतिरिक्त ) शुभ नहीं माना जाता किन्तु जातक पारिजात, अध्याय-16 श्लोक-36 का मत है कि:
स्त्रीजन्मलग्ने.....सर्वत्र चंद्रे सति तत्र जाता,
सुखान्विता वीतरतिप्रिया स्यात् ।।
भावार्थ- यदि किसी स्त्रीजातक की जन्मकुंडली के लग्नभाव में बलवान चन्द्र हो तो वह महिला सुन्दर,पति की प्यारी और सुखी रहती है। वह अपने वैवाहिक सुख और जीवन का संयत और संतुलित विधि से एक वीतरागी संन्यासी की तरह से निर्वहन करती है।।
बलवान चन्द्र से सामान्य आशय :-
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जन्मकुंडली में स्थित सूर्य से आगे तीसरे भाव और सूर्य से पीछे के तीसरे भाव में चंद्र को (सभी राशियों में) बलवान माना जाता है केवल अपने नीच नवांश में न हो।
स्त्री जातक:- भाग-7.
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विवाह अवश्य होगा:-
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सुगमज्योतिष स्त्रीजातक/श्लोक-4 के अनुसार :-
योग संख्या:-16.
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सप्तमेशे त्रिकोणस्थे केन्द्रे वा शुभवीक्षिते।
गुरुयुक्तं यदा मित्रे पतिसौख्यं ध्रुवम भवेत्।।
भावार्थ:-
1-यदि किसी स्त्री जातक की जन्मकुंडली केे सातवेभाव का स्वामि किसी केन्द्र अथवा त्रिकोण भाव में हो, या
2-किसी सौम्यग्रह के साथ युति में हो, या
3-बृहस्पति या किसी सौम्यग्रह से दृष्ट हो तो उसे पति का सुख अवश्य मिलता है।
बहुसंबंध या द्विविवाह:-
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जातकतत्तवम्-सप्तमविवेक-78-88. के अनुसार:-
सपापा: लग्नार्थारीशा: सप्तमें बहुदारा।।
भावार्थ:- लग्न (1),अर्थ (2) और अरि (6) भावों के स्वामि यदि लग्न से सातवें भाव में हों तो एक से अधिक विवाह और,
यदि यह युति पापदृष्ट भी हो तो अत्यधिक शारीरिक संबंध हो सकते हैं।
योगसंख्या-17.
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-मदायेशौ बलिनौ कोणगौ बहुदारा:।।
भावार्थ:- यदि मद (7) और आय (11) भावों के स्वामिग्रह किसी त्रिकोण भाव में हों तो एक से अधिक विवाह और,
यदि यह युति पापदृष्ट भी हो तो अत्यधिक शारीरिक संबंध हो सकते हैं।
योगसंख्या-18.
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-दारायपौ युतौ व अन्योन्येक्षितो बहुदारा।।
भावार्थ:- यदि दार (7) और आय (11) भावों के स्वामिग्रह किसी भी प्रकार से *संबंध बनाए हों।
तो एक से अधिक विवाह और,
यदि यह युति पापदृष्ट भी हो तो अत्यधिक शारीरिक संबंध हो सकते हैं।
*संबंध से आशय: ग्रह आपस में चार प्रकार से संबंध बनाते हैं।
1-युति, 2-एक-दूसरे को देखना, 3- एक-दूसरे की राशि में आना।
चौथे संबंध पर पराशरीय/वरा: मतानुसार कोई ग्रह यदि जिस राशि पर आसीन हो उस राशि के स्वामिग्रह को भी देखता भी हो तो यह भी द्विग्रही संबंध है, किन्तु आधुनिक विद्वानों की मानना है कि यह ग्रह का एकल संबंध है, द्विग्रही नहीं।
"फलदीपिका" एक पांचवां संबंध भी कहती हैं।
"फलदीपिका" किन्हीं दो ग्रहों के परस्पर 1, 4, 7 और 10 वे भाव में होने पर भी द्विग्रही संबंध मानती है।
उपरोक्त तीन प्रकार के द्विग्रही संबंध निर्विवादित है।
स्त्री जातक:- भाग-8.
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योग संख्या-19.
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राजा के समान पति मिले:-
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बृध्दयवन स्त्रीजातक-05.
बुधो विलग्ने यदि तुंगसंस्थौ लाभाश्रितो देवपुरोहितश्च।
नरेन्द्रपत्नी वनितात्रयोगे भवेत् प्रसिध्दा धरणीतलेsस्मिन।।
भावार्थ:-
यदि किसी स्त्रीजातक के लग्न में अपनी उच्चराशि (6) में स्थित बुध हो और आयभाव में बृहस्पति हों तो वह स्त्री अति धनवान और शक्तिशाली पुरुष को पतिरुप में पाती है।
योग संख्या-20
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पति का प्रकृति:-
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सारावली अध्याय-45 के श्लोक संख्या 21 के अनुसार :-
द्यूने वृध्दो मूर्ख: सौरगृहे स्वान्नवाशके वाsय।
स्त्रीलोल: क्रोधपर: कुजभेsथ नवांशके भर्ता।।
भावार्थ: यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली के सातवे भाव में कोई भी राशि हो लेकिन,
नवमांशकुंडली के सातवे भाव में शनि की राशि मकर या कुंभ आयी है तो उस महिला का पति उससे आयु में बड़ा और कम बुध्दि वाला हो सकता है।
इसी प्रकार से यदि यदि किसी महिला जातक की जन्मकुंडली के सातवे भाव में कोई भी राशि हो लेकिन,
नवमांशकुंडली के सातवे भाव में मंगल की राशि मेष या बृश्चिक आयी है तो उस महिला का पति स्वभाव से अधिक क्रोध करने वाला हो सकता है।
योग संख्या-21
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जातक पारिजात के अध्याय -16 श्लोक-25 के अनुसार :-
शून्य अस्ते का पुरुषो बलहीन सौम्य दर्शनविहीने।
चरभे प्रवासशीलो भर्त्ता क्लीबो ज्ञ-मन्दयोश्च भवेत।।
भावार्थ:- यदि महिला जातक की कुंडली में जन्मलग्न या चंद्रलग्न से ( दोनों में जो बलवान हो) सातवे भाव में:
1- कोई ग्रह न हो तो : उसका पति प्रशंसा के योग्य नही होता। अर्थात्त साधारण व्यक्तित्व का होता है।
2-किसी सौम्यग्रह की दृष्टि भी न हो तो: उसका पति शौर्य और पराक्रम से हीन हो सकता है।
3-सातवे भाव में चरराशि और चर ही नवमांश आया हो तो: पति भ्रमणशील रहता है।
4-सातवे भाव में बुध और शनि की युति हो: तो पति नपुंसक हो सकता है।।
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hellodkdblog · 5 years
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वैवाहिक समरसता के लिए कुछ विपरीत योग:-
वैवाहिक समरसता के लिए कुछ विपरीत योग:-
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1-यदि पुरुष की कुंडली में सप्तमेश अपनी नीचराशि या नीच नवांश पर हो, साथ ही
( क )- किसी अशुभभाव में हो, या
( ख )-अपने नैसर्गिक शत्रुग्रह की दृष्टि में हो, या
( ग )-अपने नैसर्गिक शत्रुग्रह से किसी योग ( चतुर्विधि) में हो,
तो या तो ऐसे जातक का विवाह ही नही होता या विवाह होकर भी वह एकाकी जीवन जीता है।
2-यदि पुरुष की कुंडली में शुक्र अपनी नीचराशि या नीच नवांश पर हो और वह शुक्र कुंडली के सप्तमेश ( जैसे कि सूर्य, मंगल,बृहस्पति या चन्द्र ) का नैसर्गिक शत्रुग्रह हो तो यह स्थिति उसके वैवाहिक जीवन में समरसता के लिए अनुकूल नही।
3-इसी क्रम में यदि किसी स्त्री की कुंडली का बृहस्पति अपनी नीचराशि या नीच नवांश पर हो और वह बृहस्पति जातिका के सप्तमेष का नैसर्गिक शत्रुग्रह हो (जैसे कि शुक्र, बुध या शनि ) तो यह योग भी वैवाहिक समरसता के लिए अनुकूल नही होगा।
4-यदि किसी जातक का सप्तमेश अपने ही लग्नेश ग्रह से असाधारण रूप से बलवान है तो वह जातक अपने जीवनसाथी के पूर्ण प्रभाव में रहेगा। या कहे भयभीत रहेगा।
5-यदि किसी कुंडली में मंगल की दृष्टि शुक्र और सप्तम स्थान दोनों पर पड़ती हो तो वैवाहिक संबंध में तनिक भी समरसता नही रहेगी।
साथ ही पति या पत्नी में से कोई एक अंगहीन भी हो सकता है।
6-यदि कुंडली के शुक्र या गुरु को दो क्रूर ग्रह जैसे मंगल और शनि देख रहे हों और सप्तम स्थान पर सप्तमेश या बृहस्पति से कोई शुभ प्रभाव न हो तो पूर्व तो विवाह में ही अति विलंब होगा और यदि विवाह संपन्न हो भी गया तो वैवाहिक समरसता शून्य के समान होगी।
7-लग्नभाव में बृहस्पति वृषभ, मिथुन या कन्या राशी में हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो व्यक्ति का शरीर बहुत बेडोल होकर वैवाहिक सुख से विमुख कर देता है
8-लग्नभाव में शनि और सप्तमभाव में बृहस्पति हो तो पति पत्नी की उम्र में काफी अंतर होता है |
9- यदि लग्नभाव में राहू या केतु हों और लग्न या सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि हो तो जातक को जीवनसाथी उसके अनुरूप नही मिलता। बस यह एक प्रकार का समझौता जैसा ही होता है।
10-यदि सातवे भाव पर मीनराशि में शनि या कुज हो, या बृश्चिक पर भृगु हो या वृषराशि पर बुध हों या गुरू मकरराशि पर हों तो पति-पत्नि साथ-साथ कम समय ही रह पाते हैं। कारण शुभ हो या अशुभ।
11-यदि वर और वधु दोनों कर्क लग्न के जातक हों तो आजीवन रोगी और दुखी रहेंगे।
12-यदि वर का अष्टमेष कन्या का जन्मलग्नेश हो या कन्या का अष्टमेश वर का जन्मलग्नेश हो तो दोनों की मैत्री कुत्ते और बिल्ली के समान रहेगी।
13-यदि वर और कन्या दोनों के सूर्य एक ही राशि पर हों और उनके अंशों में केवल दस अंशों तक का ही अन्तर हो तो घर में प्रतिदिन महाभारत का नया episode होगा।
14-यदि वर और वधु के सप्तमेश दोनों की कुंडलियों में परस्पर पंचधामैत्री से अधिशत्रु हों तो प्रतिदिन घर में महाभारत होगी।
-यह तब ही संभव है जब एक का सप्तमेश बुध,शुक्र या शनि हो और दूसरे का सूर्य,चंद्र,मंगल या बृहस्पति।
15-यदि वर और वधु दोनों के सप्तमेश त्रिकभाव में हों तो दोनों आसानी से एकमत नही होते।
16-यदि वर और वधु दोनों केे भृगु सप्तम भाव में स्थित हो तो दोनों अपना वैवाहिक जीवन स्वेच्छा से अशुध्द कर लेते हैं।
17-यदि वर और वधु दोनों की जन्मकुंडली के सुखभाव (4) और जायाभाव(7) में क्रूर ग्रह हों तो दोनों का एक छत में रहना लगभग असंभव है।
18-यदि किसी कुंडली में सातवेभाव, सप्तमेश और शुक्र तीनो स्थान पर राहु का प्रभाव हो तो वह जातक अपनी जाति और धर्म से बाहर विवाह करता है।
19-यदि किसी कुंडली में सातवेभाव में शनि ��पनी उच्चराशि पर हों तो विवाह देरी से हो सकता है किन्तु जीवनसाथी बहुत गुणवान और वफादार मिलता है। वह सदा प्रभाव में भी रहता है।
20-किन्तु यदि किसी कुंडली में सातवेभाव में शनि अपनी नीचराशि पर हों तो ऐसे जातक को जीवनसाथी तो बहुत गुणवान मिलता है। क्योंकि यह योग स्वयं में राजयोग है किन्तु यह जातक शारीरिक संबंध के मामले में एक वानर के समान सदा अनुचित और अनियंत्रित रहता है।
-: इतिशुभम् :-
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hellodkdblog · 5 years
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द्रेष्काण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक?  **************************
द्रेष्काण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-5
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भाग-4 में हमने द्रेष्काण की वर्तमान विधि एवं भारतीय विधि का तुलनात्मक अध्ययन किया था।
द्रेष्काण (भारतीय) विधि का मूल सिध्दान्त: *********************************
भारतीय विधि में द्रेष्काण चयन का मूल सिध्दान्त वही है जिसके आधार पर हम आज भी 1-सप्तमांशवर्ग, 2-नवमांश वर्ग, 3-षोडांशवर्ग और लगभग 4-दशमांश और 5-द्वादांश वर्ग का निर्माण कर रहें हैं।
उपरोक्त सभी वर्���कुंडलियों के निर्माण के लिए एक राशि अर्थात् 30-अंश का ही विभाजन किया जाता है न कि 360-अशं के एक वृत का।
द्रेष्काण में भी एक राशि के 10-10अंश के तीन भाग किए जाते हैं यहां तक तो आर्ष और यवन दोनों मत एक हैं किन्तु आर्ष विधि में उन तीन भागों के द्रेष्कांणेशों का चयन अन्य वर्गकुंडलियों की भांति राशिचक्र की पहली राशि " मेष " से ही क्रमानुसार तीन चक्र (12×3=36) में करते हैं।
उदाहरण के लिए: "नवमांश चयन" की आर्ष विधि में:
1- अग्निराशियों के नवमांश हम अग्नितत्व की चरराशि (मेष ) से प्रारंभ करते हैं।
2- पृथ्वीराशियों के नवमांश हम पृथ्वीतत्व की चरराशि (मकर) से प्रारंभ करते हैं।
3- वायुराशियों के नवमांश हम वायुतत्व की चरराशि (तुला ) से प्रारंभ करते हैं।
4- जलराशियों के नवमांश हम जलतत्व की चरराशि (कर्क) से प्रारंभ करते हैं।
ठीक उसी प्रकार से द्रेषकांण की आर्ष विधि में राशिचक्र की प्रथमराशि मेष से प्रारंभ करते हुए:
1-अग्निराशियों (1,5,9) के तीनों द्रेष्काण: ******************************** तीनों अग्निराशियों (1,5,9) के लिए चरस्वभाव की पहली राशि मेष से प्रारंभ कर मेष, बृषभ और मिथुनराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों मंगल, शुक्र और बुध को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
2-पृथ्वीराशियों (2,6,10) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों पृथ्वीराशियों (2,6,10) के लिए चर की दूसरी राशि कर्क से प्रारंभ कर कर्क, सिंह और कन्याराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों चंद्र, सूर्य और बुध को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
3-वायुराशियों (3,7,11) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों वायुराशियों (3,7,11) के लिए चर की तीसरी राशि तुला से प्रारंभ कर तुला, बृश्चिक और धनुराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों शुक्र, मंगल और बृहस्पति को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
4-जलराशियों (4,8,12) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों जलराशियों (4,8,12) के लिए चर की चौथी राशि मकर से प्रारंभ कर मकर, कुंभ और मीनराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों शनि, शनि और बृहस्पति को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
आर्ष विधि से निर्मित द्रेषकांणेश किस प्रकार से फलित को प्रभावित करते है:- **********************************
एक ज्योतिषी को जन्मलग्न कुंडली के सूर्य से शनि तक के सभी सातों ग्रहों को उनके फल देने की (1)-शक्तिसीमा और उनके (2)-वास्तविक स्वरुप (शुभ है या अशुभ) को समझाना होता है।
1-ग्रह अपना फल करने में कितने "शक्तिशाली" हैं यह जानने के लिए "षड़बल" का आश्रय लेते हैं।
2-लग्नकुंडली के कौन-कौन ग्रह वास्तव में शुभ है या अशुभ उनका यह "वास्तविक स्वरुप" जानने के लिए विभिन्न प्रकार की वर्गकुंडलियों को देखतेे हैं।
अनेंक बार किसी जन्मपत्रिका में षड़बल परीक्षा उपलब्ध नही होती। इस स्थिति में ज्योतिषी ग्रहों की शक्ति समझने के लिए " ग्रह अवस्था" आदि के कुछ पुराने सूत्र जैसे बालादि, जाग्रतादि, दीप्तादि और ग्रहगति आदि का उपयोग करते है।
उपरोक्त स्थिति में नवमांश कुंडली का उपयोग तो बहुतायत से हो जाता है किन्तु द्रेष्कांण कुंडली 99% मामलों में प्रयोग नही की जाती।
ज्योतिष के जिन प्रेमी लोगों ने ज्योतिष का विधिवत अध्ययन नही किया है वे यह नही जानते कि फलित के लिए द्रेष्काणेश और नवमांशक को ग्रहों की षड़बल परीक्षा में पूर्णत: समान महत्व (रुपा बल) दिया गया हैं।
कैसे देखे द्रेष्कांण:- ************** 1-नवमांश कुंडली सहित सभी वर्गकुंडलियों में हम ग्रह की वर्गोत्तम, स्व, उच्च या नीचराशि पर ग्रह के स्वरुप का निर्णय सरलता से कर लेते हैं, लेकिन... द्रेष्काण का वास्तविक स्वरुप केवल द्रेष्काणकुंडली में वर्गोत्तम, स्वराशि. उच्च या नीचराशि आदि होने से ही तय नही हो जाता।
कारण! फलित ज्योतिष के लगभग सभी मूल ग्रंथो में कुल 36-द्रष्काणेशों में से लगभग 23-द्रेष्काणेश पूर्णत: शुभ नही माने गये हैं।
उदाहरण हेतु "फलदीपिका" नामक ग्रंथ के वर्गभेद अध्याय-3/श्लोक संख्या-13-14-15 में उन्हें आयुध, पाश, निगड़, ग्रधास्य, पक्षी, कोलास्य, सर्प और चतुष्पद आदि के अशुभ नाम दिए गए हैं।
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कुछ विद्वानों ने अनुभव से पाया है कि,बृहज्जातक और फलदीपिका जैसे मूल ग्रंथों द्वारा अशुभ घोषित कर दिए गये द्रेष्काणेश के अतिरिक्त..
-वे द्रेष्काण जो केवल जातकपारिजात द्वारा ही अशुभ घोषित किए गए हैं जैसे मिथुन,कन्या और मीन का पहला द्रेष्कांण और मिथुन और मकर का तीसरा द्रेष्कांण) को अशुभ न माना जाय।  अपने तर्क में वे कहते हैं कि..
-इन राशियों के स्वामिग्रह और इनके द्रेष्कांणेश सामान्यतया सौम्य ग्रहों ही हैं।
अत: इस आधार पर इन 05 द्रेष्कांणेश को सम (न शुभ न अशुभ) मानते हुए कुल 18-द्रेष्काण (13+5 ) शुभ या सन्तोषप्रद फलदायक हो सकते हैं।
द्रेश्काणेश फलित:- *************** द्रेष्कांण से फलित जानने की विधि भी मूलत: उन ही नियमों पर आधारित है जो नवमांश या अन्य वर्गकुंडलियों पर लागु होते हैं। जैसे:
1-कोई ग्रह अपने राशि-अंश के आधार पर कौन सा द्रेष्काण पाता है और उसका द्रेष्काणेश शुभ या अशुभ किस श्रेणी में आता है?
2-ग्रह का द्रेष्कांणेश लग्नकुंडली के किस भाव में बैठा है?
3-ग्रह और उसके द्रेष्कांणेश का जन्मलग्नकुंडली में चार प्रकारों में से कोई एक संबंध बन रहा है या नही?
4-यह संबंध जन्मलग्नकुंडली के शुभ भाव में है या अशुभ भाव में?
यदि उपरोक्त चार प्रश्नों के उत्तर हमारे पक्ष में है तो नि:संदेह फलित राजयोगी होगा।
यदि....
5- यदि यह संबंध जन्मलग्नकुंडली के अशुभभाव में बना है, या ये दोनों ग्रह परस्पर षडाष्टक है तो परिणाम अशुभ होंगें।
6-यदि हमारे इस ग्रह का द्रेष्कांणेश संयोगवश वही ग्रह है जो लग्न का 22-वा द्रेष्काण बनता है तो इस ग्रह से जन्मकुंडली में बना बड़े से बड़ा राजयोग व्यर्थ हो जाएगा।
और अन्त में..
लग्नभाव के द्रेष्कांणेश से फलित:- ************************** फलदीपिका/अध्याय-3/श्लोक-11 के अनुसार: द्रेष्काण सहित सभी षडवर्ग (सप्त वर्ग बनाने चाहिए) सूर्य से शनि तक सात ग्रहों के के अतिरिक्त लग्न को आठवा ग्रह मान कर उसके भी बल और निर्बलता की परीक्षा करनी चाहिए।
लग्न के फलित पर श्री मंत्रेश्वर का कथन है:
1-यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ नह�� है या वह ग्रह " सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि नही पाता है तो जातक हीन, दरिद्र और दुष्ट प्रवृति का होगा।
2-उपरोक्त के विपरीत यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ नही है लेकिन वह ग्रह "सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि पाता है तो जातक मध्यम भाग्य का होगा।
3- उपरोक्त के विपरीत यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ प्रकृति का है और साथ ही वह ग्रह "सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि पाता है तो वह जातक बलवान,भूमिपति और भाग्यवान होकर राजा के समान उच्च पद-प्रतिष्ठा पाता हैं।
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hellodkdblog · 5 years
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द्रेष्कांण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-4 **************************
द्रेष्कांण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-4 **************************
इस लेखमाला के भाग-3 में हमने द्रेष्काण चयन की 4-प्रकार की विधियों का अध्ययन किया था।
1-पार्श्वदृष्टि आधारित विधि। 2-द्रेषदृष्टि (त्रियक/काण)आधारित विधि। (बृहज्जातक/ अध्याय-2 श्लोक-12) 3-वर्तमान में प्रयोग की जा रही विधि। 4-आर्ष【वैदिक】विधि। (जैमिनी पद्मामृत/ बृहदकारिका/ पृष्ठ-97 कारिका)
【विशेष:-उत्तरकालामृत के काण्ड-1 श्लोक-7 में द्रेष्काण बनाने की एक अलग योजना लिखी है। लेकिन इस विधि को मान्यता नही मिली। स्वयं लेखक ने भी अपनी इस विधि को अपने फलित में प्रयोग नही किया। अत: उपरोक्त चार विधि ही समय-समय पर मान्य रही हैं】
उपरोक्त चार विधियों में विधि न०1 एवं न० 2 अति प्राचीन विधियां हैं। इन विधियों से संबंधित फलितसूत्र भी अब उपलब्ध ग्रंथों में नही मिलते। यदि कुछ सूत्र हैं भी तो उन्हें उपयोग करने में विद्वत समाज स्पष्ट नही हैं। अत: ये दोनों विधियां भी प्रचलन में नही है।
- द्रेष्काण की (वर्तमान) विधि:- ************************ -यह विधि यवन (यूनान-मिश्र) प्रणीत विधि है।
वर्तमान में उपलब्ध बृहद् पाराशर होराशास्त्र और बृृहज्जातक ग्रंथों की प्रतियों में केवल इस विधि का ही उल्लेख है। लेकिन वह भी मात्र एक-एक श्लोक में।
आश्चर्य की बात है कि इन दोनों मुख्य ग्रंथों में द्रेष्काण/ होरा रचना की अन्य किसी विधि का भी उल्लेख तक नही है।
जबकि "शुक्रजातक" आदि ग्रंध एवं कुछ प्राचीन संहिताओं में द्रेष्काण एवं होरा रचना की अन्य ऋषि प्रणीत आर्ष विधियाँ एवं उनके फलित उपलब्ध है। और वे ही फलित बृृहज्जातक और फलदीपिका में दोहराए गये हैं।
वर्तमान विधि की समीक्षा:- ******************** -यद्यपि यह दु:साहष ही है कि हम ऋषिआज्ञा पर प्रश्न करें। किन्तु मानव की जिज्ञासा भी तो शास्वत है। अन्यथा तो हम आदिमानव ही रह जाते।
1-यवन विचार से द्रेष्काण की यह विधि ग्रहों की कोणात्मक दृष्टि (120x3) पर आधारित है। अत: यह विधि एक वृत के त्रिभाग करती है।
-जबकि वैदिक (हिन्दू) ज्योतिष में ग्रहों की दृष्टि का आंकलन "ग्रहदृष्टि सूत्र" में अलग से किया जाता है।
वैदिक में सभी सौलह प्रकार के प्रमणिक वर्ग में एक राशि के ही विभिन्न भागों का प्रयोग हैं न कि एक 360-अंश के वृत का।
2-द्रेष्काण की वर्तमान (यवन) विधि में किसी भी ग्रह के द्रेष्काणेश या तो नैसर्गिक मित्र बनते है या नैसर्गिक शत्रु। जबकि किसी भी ग्रह या राशि के बल की परीक्षा मित्र, शत्रु या सम ग्रह या राशि के तीनों प्रभावों से होनी चाहिए।
-वैदिक ज्योतिष में वर्गकुंडलियों में ग्रहों का बल मांपने की विधि तो "पंचधामैत्रि सूत्र" है। आर्ष वैदिक विधि में द्रष्काणेश केवल ग्रह के मित्र नही होते अत: उन्हे पंचधामैत्रि की पांचों संज्ञाए अर्थात् अधिमित्र, मित्र सम शत्रु और अधिशत्रु की पहिचान दी जाती है।
उदाहरण हेतु वर्तमान (यवन) विधि में :
1- यदि बृहस्पति मेषराशि पर हैं तो द्रेष्काणेश मंगल,सूर्य और स्वयं बृहस्पति होकर तीनों मित्रग्रह ही होंगे। कोई शत्रु या सम नही।
2- यदि शुक्र मेषराशि पर हैं तो द्रेष्काणेश फिर वही मंगल,सूर्य और स्वयं बृहस्पति होकर तीनों शत्रुग्रह ही होंगे। कोई मित्र या सम नही।
उपरोक्त स्थिति में बृहस्पति या शुक्र दोनों ..प्रथम द्रेष्काण में कैसे "नारद " के समान धार्मिक होगें, कैसे द्वितीय होकर वे "अगस्त्य" के समान कर्मयोगी और कैसे तृतीय होकर वे "दुर्वासा" के समान कलहकारी सिध्द होंगे?
3- "जातकपारिजात" एक स्वनामधन्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ के अध्याय-9 के श्लोक 113-117 के अनुसार द्रेष्काण को गुण-दोष के आधार पर चार भागों में विभाजित किया गया है। जैसे:
1-क्रूर :- दुष्टबुधदि,पापकर्मा,निन्दनीय। 2-जलचर :- दयालु, भोगी, धनी, शीलवान। 3-सौम्य :- शान्त, सुखी,सुन्दर,स्वयं में लीन। 4-मिश्र :- शंकित व्यक्ति, कामी,स्वार्थी।
【क्रूर द्रेषकाण जात: खलमतिरटन: पापकर्मा अपवादी।...... मिश्रे कुशील: परयुवति रत: क्रूरदृष्टिश् चलात्मा।।】
- जबकि द्रेष्काण चयन की वर्तमान (यवन) विधि में द्रेष्काणेश के तीन स्वरुप ; नारद,अगस्त्य और दुर्वासा बताए है वे "जातकपारिजात" के समानार्थ फलित दायक नही बनते।
द्रेष्काणों के अपने वर्गीकरण के समर्थन मैं "जातकपारिजात" के ग्रंथकार ने 36-द्रेष्काणों की एक सारणी भी दी हैं और सुखद आश्चर्यजनक बात यह है कि "जातकपारिजात" की यह सारणी उस सारणी के लगभग समान ही फलित करती है जो "बृहज्जातक" और "फलदीपिका " में द्रेष्काणों के आर्ष स्वरुप और फलित पर आधारित है।
"फलदीपिका" नामक ग्रंथ के अध्याय-3 श्लोक संख्या 13,14, और 15 में द्रेषकाणों को आयुध, पाश, निगड़़ (शोक), पक्षी, सर्प, गृध्रास्य (गिद्ध जैसा), चतुष्पद, कालानन (कालमुख) आदि संज्ञा/स्वरुपों में विभाजित किया है। साथ ही आदेश भी दिया है कि जन्म के समय जातक का आयुध,पाश आदि जो द्रेष्काण उदित हो उसके अनुसार ही फलित करें। द्रेष्काण चयन की वर्तमान (यवन) विधि में यह असंभव है।
4-द्रेष्काण चयन की वर्तमान (यवन) विधि में 00 से 10 अंश तक प्रत्येक ग्रह वर्गोत्तम (नारद) कहलाता है। अर्थात् शुभ। अब उदाहरण देखें: माना मेष लग्न में शनि 01.50 अंश के है तो इस शनि का फल द्रेष्काण में वर्गोत्तम या नारद के समान होगा इसमें संशय है।
"फलदीपिका" नामक ग्रंथ में मेषराशि का पहला द्रेष्काण "आयुध' कहलाता है। आयुध अर्थात् लड़ने वाला।
5- द्रेष्काण चयन की वर्तमान (यवन) विधि की एक और समीक्षा में उपरोक्त उदाहरण संख्या 4 को ही लेते हैं:-
उस उदाहरण में मेषराशि पर शनि अपने पहले द्रेष्काण "नारद" में हैं तो शुभ कहना होगा। लेकिन यही शनि लगभग सभी वर्गकुंडलियों में जैसे: द्रेष्काण, सप्तमांश, नवमांश, दसमांश, द्वादशांश, षोडमांश और त्रिशांश आदि में भी मेषराशि पर ही आएगें तब क्या ये शनि परम आशुभ नहीं माने जाएगे?
इसके अतिरिक्त "षडबल' परीक्षा में द्रेष्काण बल परीक्षा के परिणाम में एक स्त्री और नपुंसक ग्रह (शनि/ बुध/ चंद्र/शुक्र ) प्रथम द्रेषकाण में शून्य षष्टयांश बल पाते हैं।
चालू आहे... ।। शुभम् न इति ।।
अगामि अंक में द्रेष्काण की आर्ष (वैदिक) परंपरा की विवेचना और फलित।
निवेदन: ****** - न किसी सिध्दान्त की स्थापना है न आलोचना।
।। शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्र चर्चा प्रवर्तते।।
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hellodkdblog · 5 years
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द्रेष्कांण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-3
द्रेष्कांण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-3 **************************
द्रेषकाण बनाने की अन्य विधियां:- ************************** ज्योतिष ग्रंथों में चार प्रकार से द्रेष्काण (कुंडली) बनाने की विधि बताई गई है।
1-पार्श्वदृष्टि आधारित विधि:- ********************** ग्रह की (पार्श्वदृष्टि) अगल-बगल के भाव पर दृष्टि। यह द्रेष्काण का सबसे प्राचीन विचार था।
ग्रह 00 से 10-अंश तक अपनी स्थिति से पिछले भाव पर, 11-अंश से 20-अंश तक स्थित भाव पर और 21-अंश से 30-अंश तक अगले भाव पर प्रभाव रखता है।
संभवतः यह चलित भावकुंडली की कल्पना से पूर्व का विचार था।
2-द्रेषदृष्टि 【 त्रियक/काण)】आधारित विधि:- *********************************** बृहज्जातक में अध्याय-1 श्लोक-12 के अनुसार प्रथम द्रेष्काणेश (00-10-अंश तक) उस ही राशि का स्वामि होगा जिस पर ग्रह है। दूसरा द्रेष्काणेश (11-20-अंश तक) उस राशि से बारहवीं राशि का स्वामि होगा और तीसरे द्रेष्काणेश (21-30-अंश तक) उस राशि से ग्यारहवीं राशि का स्वामि होगा।
3-वर्तमान में (अधिकांश) प्रयोग की जा रही विधि:- **************************************
-यह विधि यवनाचार्यो द्वारा स्थापित विधि है। इसमें ग्रहों की तिर्यक दृष्टि को महत्व न देकर राशियो के मूलस्वभाव और ग्रहों की 120-अंश की त्रिकोणीय स्थिति को महत्व दिया है।
इस विधि मे यदि पहला द्रेष्काण चरराशि का स्वामि है तो दूसरा उससे पांचवेभाव पर स्थित स्थिरराशि का स्वामि होगा और तीसरा उससे नवम भाव स्थित द्विस्वभाव राशि का स्वामिग्रह होता है। इसी प्रकार यदि पहला स्थिरराशि का है तो दूसरा द्विस्वभाव और तीसरा चर राशि का और यदि पहला द्विस्वभाव राशि का है तो दूसरा चरराशि का और तीसरा स्थिरराशि का होगा।
4-आर्ष 【वैदिक (हिन्दू )】 विधि:- ************************** यह पूर्णत: वैदिक ज्योतिष पर आधारित विधि है। इसे "कारिकाविधि" कहा जाता है। यह वही विधि है जिसके आधार पर हम आज भी 1-सप्तमांशवर्ग, 2-नवमांश वर्ग, 3-षोडांशवर्ग और लगभग 4-दशमांश और 5-द्वादांश वर्ग का निर्माण करते हैं।
जैमिनी पद्मामृत में कारिका में देखें:-
राशित्रिभागे द्रेष्काणास्ते च षट् त्रिंशदीरिता:। परिवृत्ति त्रयं तेषां मेषादे: क्रमशो भवेत।।
अर्थात्: एक राशि के तीन भाग के द्रेष्काण के लिए मेषराशि से मीन तक क्रमस:तीन बार तक गणना करें।
आर्षविधि (हमारे ऋषियों की) विधि से द्रेष्काण निर्माण इस प्रकार होता है:-
****** ******** ********* *********** राशियाँ *प्रथम द्रेष् *द्वितीय द्रेष् *तृतीय द्रेष्काण। ****** ********* ********* ************** मेष का मेष बृष मिथुन बृष का कर्क सिंह कन्या मिथुन का तुला बृश्चिक धनु कर्क का मकर कुंभ मीन
सिंह का मेष बृष मिथुन कन्या का कर्क सिंह कन्या तुला का तुला बृश्चिक धनु बृश्चिक का मकर कुंभ मीन
धनु का मेष बृष मिथुन मकर का कर्क सिंह कन्या कुंभ का तुला बृश्चिक धनु मीन का मकर कुंभ मीन
पं०रामयत्न ओझा ने अपने सम्मानित ग्रंथ "फलित विकास" के पृष्ठ-18-19 पर इसी मत को श्रेष्ठ बताया है।
।। शुभम् न इति ।।
अगामी भाग में ...द्रेष्काणवर्ग की वर्तमान (यवन) विधि ��र आर्ष (वैदिक) विधि का तुलनात्मक अध्ययन एवं विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध फलित को समझेंगे।
निवेदन: यह लेख केवल एक चर्चा है। न किसी सिध्दान्त की स्थापना न आलोचना। संशोधन/ सलाह पर आपका अधिकार है।
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hellodkdblog · 5 years
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द्रेष्कांण कुंडली का वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-2 ***************
द्रेष्कांण कुंडली का वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-2
***************
भाग -1 से आगे....
फलित में " द्रेष्काण के फलित" का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि कुल "सोलह वर्ग कुंडलियों" में से केवल "राशि" अर्थात् लग्नकुंडली तथा "द्रेष्काण" ही ऐसे दो वर्ग है जिनका उपयोग "पाश्चात्य ज्योतिष" में भी किया जाता है।
क्या है द्रेष्काण? ************ राशित्रिभागा द्रेष्काणास्ते च षटत्रिंशदीरिता। परिवृत्ति त्रयं तेषा मेषादे: क्रमशो भवेत।। 【बृपाहोशा/वर्गाध्याय/7.】
अर्थात् एक राशि के कुल मान (30-अंश) का तीसरा भाग एक द्रेष्काण कहलाता है।
1- 00-अंश से 10-अंश तक प्रथम द्रेष्काण। 2- 10-से अंश से अधिक लेकिन 20-अंश तक द्वितीय द्रेष्काण। 3- 20-अंश से अधिक लेकिन 30-अंश तक तृतीय द्रेष्काण माना जाता है।
इस प्रकार एक जन्म कुंडली के 12-राशियों के कुल 36-द्रेष्काण बन जाते हैं।
द्रेष्काण मूलरुप से "राशि" अर्थात् लग्नकुंडली पर फैले ग्रहों की प्रति 120-अंश पर कोणात्मक दृष्टिफल है।
द्रेषकाण बनाने की वर्तमान विधि:- ************************** स्व-पंच-नवमानां च राशिनां क्रसशश्च ते। नारदा-अगस्ति-दुर्वासा द्रेष्काणेशाश्चरा दिषु।। 【बृपाहोशा/वर्गाध्याय/8.】
अर्थात् प्रथम द्रेष्काण या द्रेष्काणेश उसी राशि का स्वामिग्रह होगा जिस पर ग्रह आसीन है।
दूसरा द्रेष्काण ग्रह की आसीन राशि से पंचम राशि का और
तीसरा द्रेष्काण पंचम से पंचम अर्थात्‌ ग्रह की आसीन राशि से नवम राशि का होता है।
वर्तमान में प्रचलित विधि में आचार्यों ने पहले द्रेष्काण को "नारद",दूसरे द्रेष्काण को "अगस्त्य" और तीसरे द्रेष्काण को "दुर्वासा" का नाम दिया गया है।
भारतीय संस्कृति में तो प्रतीक ही अपना अर्थ बताते हैं। विशेषकर ज्योतिष में।
विद्वानों का मत है कि ग्रंथों में एक भी शब्द अनावश्यक या अर्थहीन नही होता। अत: हमें " यथा नाम: ततो गुणा:" की उक्ति का अनुसरण करना चाहिए।
भारतीय फलादेश पद्धति के अनुसार द्रेष्काण फलित:- ****************************** लगभग सभी सहायक ग्रंथों में द्रेष्काण के फलित इस प्रकार भी है:-
-प्रथम द्रेष्काण 00 से 10 अंश को नारद। ब्रम्हा के पुत्र विष्णु भक्त है। समस्त विकारों से रहित, निरन्तर देवभक्ति, पर्यटनी, और जनकल्याणकारी भावना। परम बुद्धिमान, लीला रसिक, रहस्य द्योतक, सन्देश वाहक है। लड़ाना-भुझाना (नारद विद्या) इनका स्वाभाव है।
-द्वितीय द्रेष्काण 10 से 20 अंश। अगस्त्य। एक राजऋषि अपने उद्देश्य के लिए समर्पित, कर्मठ व्यक्ति। दृढ़ निश्चय, योग व तपोबल की मूर्ति। जनहिताय में स्वयं को अर्पित कर देने वाला, सहायक, दुष्टो का दमन। इसमे जन्मा जातक दृढ़ निश्चयी, अदम्य साहसी और पराक्रमी होता है।
-तृतीय द्रेष्काण 20 से 30 अंश को दुर्वासा। अत्रि व अनुसूया के पुत्र है। मृत्युलोक के एक ग्रहस्थ ऋषि जो प्रथम तीन युगों तक जीवित रहे। "क्षणै तुष्टा: क्षणै रुष्टा:। वस्त्राभूषण और भवन से उदासीन, उत्कृष्ट तपोबली। इन्हे नियम की भूल असह्य है। जातक मुंहफट, मलिन वस्त्र धारी, क्रोधी, अभिमानी, अधीर, कष्ट देने वाला होता है। ऐसे जातक नियम पालन, कर्म, कर्तव्य मे निष्णात होते है।
साधारण बुद्धि से यही अर्थ निकलता है कि: 1-प्रथम द्रेष्काण में शुभ। 2-द्वितीय द्रेष्काण में मध्यम शुभ। 3-तृतीय द्रेष्काण में शुभाशुभ।
द्रेष्कांण के वर्तमान स्वरुप और शंका:- ***************************** उदाहरण :- 1-यदि जन्मलग्न कुंडली में मंगल सिंह राशि पर 00-10 अंश तक हैं तो वे सिंह के स्वामिग्रह "सूर्य" के ही द्रेष्काण में माने जाएगे।
अब मंगल द्रेषकाण कुंडली में वर्गोत्तम हो गए। अर्थात् देव ऋषि नारद जैसे पवित्र, जनहितकारी और परमशुभता पा गए।
2-यदि मंगल सिंह राशि पर यदि 10 से अधिक किन्तु 20 अंश तक हैं तो वे दूसरे द्रेष्काण अर्थात् स्वयं से पांचवी राशि (धनु) के द्रेषकाण में माने जाएगे ।
अब मंगल के द्रेष्काणेश बृहस्पति होंगे। फलित में वे अगस्त्य (उद्देश्य के लिए समर्पित ऋषि) के गुण-स्वभाव जैसा फलदायक माना गया है। अर्थात् श्रमजीवी लेकिन शुभता मध्यम फलदायक।
3-यदि मंगल सिंह राशि पर 20 से अधिक -30 अंश तक हैं तो वे तीसरे द्रेष्काण, स्वयं से नौवीराशि (मेष) में माने जाएगे। अर्थात् मंगल यहां तीसरे द्रेष्काण में स्वराशि पाकर भीे दुर्वासा (मृत्युलोक के ग्रहस्थ ऋषि) के गुण-स्वभाव, कटु, निर्दयी,कठोर लगभग अशुभ होंगे?
शंका हो जाता है कि, 1- किसी भी वर्ग में स्वगृही बना ग्रह अशुभ फल क्यों देंगे?
फलित का सूत्र भी निर्विवाद रुप से कहता है कि किसी भी वर्ग में अपनी उच्चराशि, मूलत्रिकोण राशि या स्वराशि पर आया ग्रह बलवान है और शुभता पा लेता है।
2- द्रेष्कांण के वर्तमान स्वरुप में किसी भी ग्रह के तीनों द्रेष्काणेश या तो मित्रग्रहों के ही होंगे या तीनों शत्रुग्रहों के ही होंगे।
उपरोक्त उदाहरण को ही पुन: देखेंं। यदि वहां सिंहराशि पर " मंगल" न होकर "शुक्र" बैठे हों तो उनके भी पहला द्रेष्काणेश सूर्य , दूसरा द्रेष्काणेश बृहस्पति, और तीसरा द्रेष्काणेश मंगल होंगे अर्थात् तीनों द्रेष्काणेश शत्रु। शुक्र लग्नकुंडली में भी शत्रुराशि पर और द्रेष्काणवर्ग में भी शत्रुराशि पर।
सिंहराशि पर आसीन मंगल और शुक्र के उपरोक्त उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि, द्रेष्कांण कुंडली के वर्तमान स्वरुप में लग्नकुंडली में मित्रराशि पर बैठे प्रत्येक ग्रह के तीनों द्रेष्काणेश मित्र ही होंगे और शत्रुराशि पर बैठे प्रत्येक ग्रह के तीनों द्रेष्काणेश शत्रु ही होंगे।
3- वर्तमान में द्रेष्काण के स्वामियो की गणना राशियो के त्रियुग्म यानि तत्व के अनुसार ही की जाती है। जैसे अग्नि के तीनों अग्नि। इसी प्रकार पृथ्वी,वायु और जलतत्व राशि में उसी तत्व के होंगे।
शंका यह हैं कि, ग्रह का द्रेष्काणेश ग्रह होगा या राशि? फलित में तो लग्नकुंडली के भावों में द्रेष्काणेश की स्थिति और संबंध ही देखा जाता है।
यदि किसी ग्रह का द्रेष्काणेश बृहस्पति है तो बृहस्पति ही है। यहां वह बृहस्पति धनु (अग्नितत्व) का है या जल तत्व (मीन) का है अब यह महत्वपूर्ण नही। या लग्नकुंडली में बृहस्पति वायुतत्व राशि पर बैठे है या पृथ्वीतत्व राशि पर यह भी महत्वपूर्ण नही।
फिर एक समान तत्व के सिध्दान्त पर इतना बल क्यो कि द्रेष्काण रचना की आर्ष पद्दति (प्राचीन ऋषि मत) को ही बदल दिया गया?
4- फलित करते समय आचार्यों ने लगभग 12 द्रेष्काणों के नाम बहुत ही अशुभ श्रेणी में रखे हैं। यहां गुणतत्व का आधार न होकर कोई गूढ़ रहस्य है।
एक अन्य उदाहरण में देखें "फलदीपिका" नामक ग्रंथ के अध्याय-3 श्लोक संख्या 13,14, और 15 में द्रेषकाणों को आयुध, पाश, निगड़़ (शोक), पक्षी, सर्प, गृध्रास्य (गिद्ध जैसा), चतुष्पद, कालानन (कालमुख) आदि संज्ञा/स्वरुपों में विभाजित किया है। साथ ही आदेश भी दिया है कि जन्म के समय जातक का आयुध,पाश आदि जो द्रेष्काण उदित हो उसके अनुसार ही फलित करें।
फिर 22वें द्रेष्काण को हम कैसे भूल जाए? वह तो सदा लग्न के समान तत्व का ही आएगा फिर भी अशुभ? जबकि सिध्दान्त: तत्व के रुप में शत्रुता का क्रम तो अग्नि-पृथ्वी, पृथ्वी-वायु, वायु-जल एवं जल और अग्नि है। 
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hellodkdblog · 5 years
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ष्कांण कुंडली का वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक ?
द्रेष्कांण कुंडली का वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक ?                      भाग-1
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ज्योतिष में फलित विशेषज्ञ कहते हैं कि जन्मकुंडली में उपलब्ध " राजयोग या अपयोग " यदि द्रेषकाण और नवमांश से भी उसी प्रकार के संकेत दे रहे हों, तो इन योगों के फल जातक अवश्यमेव ही भोगेगा। वह उसका प्रारब्ध है।
सामान्यतया यह देखा गया है ज्योतिषियों का एक बड़ा वर्ग "नवमांश " का प्रयोग तो सभी योगायोग में कर लेते हैं किन्तु " द्रेषकाण " का प्रयोग केवल भाई-बहिन और उनसे मिलने वाले सुख-दुख तक ही सीमित रखते हैं।
"द्रेषकाण" का "नवमांश" की भांति सहज रुप में उपयोग न कर पाने का एक महत्वपूर्ण कारण है कि वर्तमान विधि से निर्मित द्रेषकाण का जो स्वरुप हम पाते हैं वह ज्योतिष के मूल ग्रंथों में वर्णित द्रेषकाण फलित से मेल नही खाता।
द्रेष्काण की परिभाषा, विधियां और प्राप्त होने वाले फलित पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे लेकिन वह इस लेख के अन्य भाग मे करेंगें।
अभी हम एक उदाहरण से इस कठिनाई को समझने का प्रयास करते हैं।
द्रेषकाण ! सोलह प्रकार के वर्गो में एक वर्ग है। समस्त वर्गकुंडलियों के संबंध में एक सर्वमान्य नियम है कि, " वर्गकुंडलियों में निजराशि पर आया ग्रह बलवान होगा और वह शुभत्व पा लेगा।"
द्रेष्कांण कुंडली के वर्तमान स्वरुप में माना बृहस्पति कर्क राशि में 24 अंश पर हैं। अर्थात् तीसरे द्रेषकाण में आएगें। अर्थात् कर्क से नवमराशि मीन द्रेषकाण! अर्थात् अपनी राशि पा गये हैं।
अब षडबल में इस बृहस्पति का बल मांपते हैं तो स्थानबल के (अ)-सप्तवर्गीयबल और (ख)-द्रेष्काणबल दो भागों में ये बली हो जाएगें।
अब यदि यह बृहस्पति जन्मकुंडली में लग्नेश या अष्टमेश से योग कर ले तो हमें शुभ फल ही कहना या मानना चाहिए। किन्तु क्या ऐसा कहना/मानना उचित है?
अब हम ज्योतिष के किसी भी मूल ग्रंथ में द्रेषकाण का फलित देखते है। हमें ज्ञात होता है कि कर्कराशि पर स्थित ग्रह का 2 रा और 3 रा द्रेषकाण, सर्प (व्याल ) कहलाता है जो अपने नाम के अनुरुप ही विषधर बन अशुभफल देता है।
अब यदि मीन का स्वामि बृहस्पति संयोगवश जातक का 22वां द्रेषकाण भी हो जाए तो इस नैसर्गिक शुभग्रह कहलाए जाने वाले बृहस्पति के कितने भयंकर फलित होंगे कहना कठिन है।
इस प्रकार के अन्य भी उदाहरण समझे जा सकते हैं जैसे: मेषराशि का 2 रा, सिंह का 1 ला तथा मिथुन के तीनों द्रेषकाण "खग" श्रेणी के स्वास्थय की हानि करते हैं।
कर्क का 2रा और 3 रा बृश्चिक का 1 और 3रा, मीन का 3रा सर्प(व्याल ) तथा आर्थिकहानि।
मकर का पहला निगड़(पाश) संज्ञक द्रेष्काण कहलाते हैं जो अशुभ होते हैं। (स०चि० /अ०-17/9 के अनुसार)
अब हमे यह सोचना ही होगा कि द्रेष्कांण कुंडली बनाने का यह वर्तमान स्वरुप जिसमें:-
ग्रह जिस राशि पर 00 -10 अंश तक हो वह प्रथम नवांशेश, 11-20 अंश तक हो तो उस राशि से पांचवी राशि को द्वितीय नवांशेश और 21-30 अंश तक हो तो प्रथम से नौवी राशि के स्वामि के स्वामि को तीसरा द्रेष्काण मानते हैं ।
क्या यह फलदायक है ?
शेष क्रमस....
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hellodkdblog · 5 years
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द्रेष्कांण
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hellodkdblog · 5 years
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ग्रहों की युति:- भाग-1. **************
ग्रहों की युति:-                                                                    भाग-1.
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जब दो या दो से अधिक ग्रह एक ही राशि (भाव में ) में हों तब इस स्थिति को उन "ग्रहों की युति" कहा जाता है।
ज्योतिष (फलित) में "ग्रहों की युति" को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-
(क)- सूर्य के साथ "चंद्र से शनि" आदि में से किसी एक या अधिक ग्रहों की युति।
(ख)- चंद्र के साथ "मंगल से शनि" आदि किसी एक या अधिक ग्रहों की युति।
(ग)- "मंगल से शनि" तक पांच ग्रहों में किसी एक या अधिक ग्रहों की युति।
(क)- सूर्य के साथ "चंद्र से शनि" आदि में से किसी एक या अधिक ग्रहों की युति:- **********************************
-सूर्य के साथ "चंद्र से शनि" आदि ग्रह युति में आ कर केवल वही ग्रह अपना फल देने में समर्थ होगा जो अपने अस्तमान ( एक निश्चित भोगांश) से अधिक अंश पर भ्रमण कर रहा है। वे ग्रह सूर्य के तेज के कारण अपना तेज नही दिखा पाते, अत: अस्त माने जाते हैं।
1-चन्द्रमा जब तक सूर्य से 01से 12-अंश तक और मंगल जब तक सूर्य से 01से 17-अंश तक समीप रहते हैं अस्त माने जाते हैं।
2-बुध जब तक सूर्य से 01से 13-अंश तक समीप रहते हैं अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि बुध वक्र गति से चल रहे हों तो वे सूर्य के साथ युति में 01 से 12-अंश तक समीप रहने पर अस्त माने जाते हैं।
3-शुक्र जब तक सूर्य से 01- 09-अंश तक समीप रहते हैं अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि शुक्र वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के साथ युति में 01 से 08-अंश तक समीप रहने पर अस्त माने जाते हैं।
4-बृहस्पति जब तक सूर्य के साथ 01- 11-अंश तक अन्तर में रहते हैं एवं शनि जब तक सूर्य के साथ 01- 15-अंश तक समीप रहने पर अस्त माने जाते हैं।
यदि सूर्य जन्मकाल में उत्तरायन (मकरराशि से मिथुनराशि तक) में भ्रमण कर रहें है तो अस्त ग्रह अपना फल देने के लिए बहुत निर्बल हो जाते हैं।.
-अपने अस्तांश की सीमा से निकलते ही शनि का बल (सूर्य+शनि की युति में) बहुत अधिक बढ़ जाता है। दक्षिणायन काल में ( जब सूर्य कर्कराशि से धनुराशि तक भ्रमण कर रहें है तब) इस बलवान शनि के फल में उग्रता बढ़ जाती है। शनि यहां परिवार में विवाद कर देते हैं, जिससे जातक के एकाकी रहने की संभावना बढ जाती है। यह युति यदि चतुर्थ, सप्तम और एकादस भाव में हों तो विशेष कर।
यदि शनि स्वयं लग्नेश हों और लग्नभाव को देख रहे हों, तो उस स्थिति में शनि की यह उग्रता सकारात्मक दिशा में बढ़ती है। अत्यधिक शुभता प्राप्त कर लेती हैं। एकादस भाव में यदि यह युति बृश्चिक राशि में बनी हो तो शनि विशेष शुभ सिध्द होते हैं।
(ख)- चंद्र के साथ "मंगल से शनि" आदि किसी एक या अधिक ग्रहों की युति:- **********************************
चंद्र के साथ "मंगल से शनि" आदि किसी एक या अधिक ग्रहों की युति किसी भी भोगांश पर हो, वह एक पूर्ण युति मानी जाती है। लेकिन:
1-चन्द्रमा एवं बृहस्पति की युति होने पर स्वयं चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। बृहस्पति का बल ग्रहबल के सामान्य नियम जैसे किस राशि, किस भाव या किस अंशमान आदि पर है के आधार पर ही बढेगा या घटेगा।
2-चन्द्रमा एवं शुक्र की युति होने पर शुक्र का बल बढ़ जाता है। यहां चंद्रमा का बल ग्रहबल के सामान्य नियम जैसे किस राशि, किस भाव या किस अंशमान आदि पर है के आधार पर ही बढेगा या घटेगा।
3-चन्द्रमा एवं बुध की युति होने पर चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है।
यहां बुध का बल ग्रहबल के सामान्य नियम जैसे किस राशि, किस भाव या किस अंशमान आदि पर है के आधार पर ही बढेगा या घटेगा।
4-चन्द्रमा के साथ शनि या मंगल की युति होने पर शनि या मंगल का बल बढ़ जाता है।
यहां चंद्रमा का बल ( प्रसिद्ध चंद्र+ मंगल से महालक्ष्मी योग आदि देखने के लिए ) ग्रहबल के सामान्य नियम जैसे किस राशि, किस भाव या किस अंशमान आदि पर है के आधार पर ही बढेगा या घटेगा।
दक्षिणायन काल में ( जब सूर्य कर्कराशि से धनुराशि तक भ्रमण कर रहें है तब ) शनि एवं मंगल का बल उग्र रुप में बढ़ जाता है। तब " विषयोग " अथवा "मनोरोगयोग" की संभावना बढ जाती है।
*******************************
अगामि भाग में... (ग)- "मंगल से शनि" तक पांच ग्रहों में किसी एक या अधिक ग्रहों की युति:-
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hellodkdblog · 5 years
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ग्रहों की युति:- भाग-2.
ग्रहों की युति:- भाग-2. *********** भाग-1से आगे....
(ग)- "मंगल से शनि" तक पांच ग्रहों में किसी एक या अधिक ग्रहों की युति:- *******************************
-यदि जन्मकुंडली में [सूर्य और चंद्र से रहित] मंगल से शनि तक पांच ग्रहों में से यदि दो या दो से अधिक ग्रहों की युति बन रही हो है तो..
1- यदि इस युति के जिन दो ग्रहों के भोगांशों में परस्पर 10-अंश से कम का अन्तर है तो इस स्थिति को "ग्रहयुध्द" कहते हैं।
इस युध्द में युवाग्रह अर्थात् जिस ग्रह के भोगांश कम हों वह ग्रह विजयी होता है। और जिस ग्रह के भोगांश अधिक हों वह पराजित माना जाता है।
-विजयी ग्रह अपने शुभफल देने में सक्षम माना जाता है।
ज्योतिष ग्रंथों में पराजित ग्रह को ''खल'' कहा गया हैं। यदि जन्म दक्षिणायन काल में हुआ है तो ऐसे पराजित ग्रह का पापबल (चेष्टा) उग्र रुप में बढ़ जाता है।
इस स्थिति में खल ग्रह की दशा-अंतर्दशा में उस जातक को अत्यधिक शारीरिक व मानसिक कष्ट होता है।
यह दशा विदेश में व्यर्थ भ्रमण कराने वाली, क्रोध व मानसिक संताप देने वाली होती है।
यदि युति वाले ग्रहों में युध्द की स्थिति न हो:- *********************************
-यदि युति वाले ग्रहों में युध्द की स्थिति न हो, अर्थात् दोनों ग्रहों के भोगांश में परस्पर 10-अंश से अधिक का अन्तर है तो यह एक सफल युति मानी जाती है।
इस सफल युति में किसी ग्रह के भोगांश के आधार पर उसके "बाल-बृध्द-मृत आदि" अवस्था का यहां प्रश्न नही बनता।
ज्योतिष [फलित ] का सामान्य अध्ययन करते समय हम पढ़ते हैं कि, " यदि कोई ग्रह अपनी उच्चराशि, मूलत्रिकोण या स्वराशि में है तो न केवल उसका बल बढ़ जाता है अपितु यदि कोई ग्रह उसके साथ युति में है तो उसका भी बल बढ़ जाता है।" हां! यह सत्य है, किन्तु अर्धसत्य है।
दो या दो से अधिक ग्रहों की युति में किस ग्रह के बल में बृध्दि होती है और किसमें नही आइए देखते हैं:-
1-यदि शनि एवं मंगल इन दो ग्रहों की युति हो तो मंगल का बल बढ़ जाता है। शनि का नही। यहां शनि यदि बलवान हों, सामान्य बली हों या निर्बल हों , हर परिस्थिति में मंगल को अतिरिक्त बल प्राप्त होगा। शनि जितने अधिक बलवान होंगे मंगल भी तदानुसार बलवान होते जाएगे। वे मंगल को पराजित नही कर सकते।
मंगलग्रह अपनी उच्चराशि, मूलत्रिकोण या स्वराशि में है तो केवल मंगल का ही बल बढ़ता है, शनि को बलवान मंगल का लाभ नही मिलता।
[ शनि+मंगल की युति यदि 1, 4, 7, 8 या 12वे भाव में हों तो हम में से कुछ ज्योतिषी इसे विवाह मे��ापक में शनि के कारण मंगल को निर्बल हुआ मान कर " मंगलीय दोष" को भंग हुआ मान लेते हैं। अपने इस निर्णय पर उन मित्रों को एक बार पुन: विचार करना होगा। ]
2-यदि मंगल और बृहस्पति इन दो ग्रहों की युति हो तो केवल बृहस्पति का बल बढ़ता है।
3-इसी प्रकार शुक्र एवं बुध की युति होने पर केवल बुध का बल बढ़ता है।
उपरोक्त क्रम-1 में जिस प्रकार शनि के बलवान या निर्बल जैसे भी हों मंगल को अतिरिक्त बल मिलना ही है, उसी प्रकार क्रम-2 में मंगल के साथ युत होकर बृहस्पति को और क्रम-3 में शुक्र के साथ युति में बुध को अतिरिक्त बल प्राप्त होगा। मंगल अपने मित्र बृहस्पति से और शुक्र अपने मित्र बुध से कोई लाभ न ले पाएंगे।
क्रम-3 में हमने शुक्र+बुध की युति में बुध को लाभकारी बताया है । जबकि अपने सामान्य अध्ययन में हमने यही पढ़ा और समझा है कि बुध जिस ग्रह के साथ होते हैं उसी का स्वरुप धारण कर लेते है।
जी हां ! जो हमने पढ़ा और समझा था वह सत्य है । लेकिन शुक्र+बुध की युति में बुध अपना स्वभाव शुक्र के समान नही करेंगे अपितु बली होकर अपना फल देंगे। यह एक अपवाद है।
[अर्केण मन्द: शनिना महीसुत:, कुजेन जीवो गुरुणा निशाकर:। सोमेन शुक्रो असुरमन्त्रिणा बुधो, बुधेन चन्द्र: खलु वर्धते सदा।।]
अगामि भाग में.. -भाव विशेष एवं राशि विशेष पर बनी ग्रह युति।
*********************************
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hellodkdblog · 5 years
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ग्रहों की युति:- भाग-3.
ग्रहों की युति:- भाग-3. *********** अब तक हमने ; 1-सूर्य संग सभी छै ग्रहों की युति, 2-चंद्र संग मगल से शनि तक पांच ग्रहों की युति, और 3-पांच ग्रहों (सूर्य और चंद्र से रहित ) से परस्पर बनी युतियां का अध्ययन किया था।
उपरोक्त के अतिरिक्त अब हम अन्य प्रकार की युतियों का अध्ययन करते हैं:-
4- किसी विशेष भाव पर बनी युतियां: 5- जल राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) में युतियां: 6- गुरु से युक्त ग्रह, 7- शनि से युक्त ग्रह, 8- राहु या केतु के संग किसी भी ग्रह की युति: 9-सफल युतियां:- अब विस्तार से......
4- भाव विशेष पर बनी युतियां: ************************ -पंचम स्थान में राहु-केतु के साथ या सूर्य, शनि या मंगल के साथ युति में आया अन्य ग्रह "लज्जित" माना जाता है। अत: पंचम स्थान मे यह युति सन्तान या उच्चशिक्षा को नष्ट करती है।
5-जल राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) में युतियां: ********************************** -शनि, बुध, शुक्र, मंगल इन चार ग्रहों से बनी युतियां शुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो बलहीन मानी जाती हैं। यदि जलराशियों पर बनी ये युति किसी शत्रु से दृष्ट हों तो "तृषित" कहलाती है। इनके शुभफल कठोर परिश्रम और प्रयत्न करने पर ही मिलते हैं।
6-बृहस्पति से युक्त ग्रह : ****************** बृहस्पति से युक्त ग्रह "मुदित" कहलाता है। मुदित ग्रह सदा जिस भाव में स्थित हों उस भाव की वृद्धि करते हैं।
[गुरुणा सहितो यश्च मुदित:स प्रकीरतित:।। -बृपाहोशा-ग्रहावस्थाध्याय-46/०16]
बृहस्पति से युत ग्रह को दो भागों में बांटा जा सकता है।
(क)- यदि बृहस्पति ग्रह इस जन्मपत्रिका में किसी त्रिकोण के स्वामि हैं और उनकी युति किसी अन्य त्रिकोणेश से हो रही है जैसे : मंगल,चंद्र या सूर्य से तो युक्त तो यह उत्तम मुदित अवस्था है। शुभफल ही प्राप्त होते हैं।
(ख)- यदि बृहस्पति ग्रह इस जन्मपत्रिका में किसी त्रिकोण के स्वामि नही हैं अर्थात् बृहस्पति यहां अकारक ग्रह हैं और उनकी युति किसी भी ग्रह से रही है तो इस वे ग्रह मुदित कहलाते है। सामान्य शुभफल ही प्राप्त होंगे।
7- शनि से युक्त ग्रह : **************** -शनि के साथ बनी युति को भी बृहस्पति की तरह दो भागों में बांटा जा सकता है।
(क)- यदि शनिग्रह इस जन्मपत्रिका में किसी त्रिकोण भाव के स्वामि हैं अर्थात् कारक ग्रह हैं और उनकी युति किसी अन्य त्रिकोणेश से हो रही है जैसे : बुध या शुक्र! तो युक्त ग्रह सामान्य "मुदित" अवस्था वाली युति कहलाती है। मुदित ग्रह भाव की वृद्धि करते हैं।
(ख)- यदि शनिग्रह इस जन्मपत्रिका में किसी त्रिकोण के स्वामि नही हैं अर्थात् अकारक ग्रह हैं और उनकी युति किसी भी अन्य से हो रही है जैसे : सूर्य से शुक्र तक तो वे ग्रह "क्षुधित" अवस्था के होते हैं।
[ " क्षुधित: स च विज्ञेय: शनियुक्तो यथा तथा।"] -बृपाहोशा-ग्रहावस्थाध्याय-46/14.
क्षुधित ग्रह यदि लग्नकुंडली का "कारक" ग्रह भी है तो भी वे अपने भाव की वृद्धि नही कर पाते।
क्षुदित ग्रह की युति ( लग्न के अनुसार अकारक शनि के साथ युति वाला ग्रह ) जैसे 1,4,5,8,9 या 12 लग्नों में शनि के संग बुध या शुक्र ! वे कर्म स्थान में हों तो जातक दरिद्र तथा दुःखी होता है। इसी प्रकार सातवे स्थान में क्षोभित/ क्षुदित ग्रह वैवाहिक समरसता का नाश करता है।
8- राहु या केतु के संग किसी भी ग्रह की युति:- *********************************** शुभराहु-केतु:- ********** राहु या केतु किसी भी केन्द्रीय भाव में किसी त्रिकोणपति ग्रह संग युति कर लें तो वे अपनी दशाकाल में शुभफल देते हैं।
इसी प्रकार राहु या केतु त्रिकोणभाव में किसी केन्द्रीय भाव के स्वामि ग्रह संग युति कर लें तो वे अपनी दशाकाल में शुभफल देते हैं।
[ यदि केन्द्रे त्रिकोणे वा निवसेतां तमोग्रहो। नाथे नान्यतरेणाढ्यो दृष्टो वा योगकारको।।बृपाहोशा:योगकारकाध्याय:श्लोक-17.]
राहु और केतु नामक तमग्रह जिस भाव के स्वामि ग्रह के साथ युति में हों उस ग्रह के स्वभाव के अनुरुप होकर, उस भाव के अनुसार शुभ या अशुभ फल देते है।
उदाहरण:- मकर लग्न में यदि राहु और बृहस्पति तीसरे भाव की मीनराशि में हैं (1987-88) तो : तृतियेश और द्वादषेश बृहस्पति के पुन: पापक होने से तीसरे भाव के मुख्य फल के रुप में छोटे भाई से प्राप्त होने वाले सुख का नाश कर देते है।
[यद् भावेशयुतो वापि यद्यदभाव समागतौ। तत्तफलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमोग्रहौ।। बृपाहोशा: योगकारकाध्याय:श्लोक-16.]
अशुभ राहु और केतु:- ***************** 1- यदि राहु लग्नभाव से 08 या 12वे भाव में और किसी क्रूर या पाप(अकारक ) ग्रह के संग हो या इनके द्वारा देखा जा रहा हो तो धन की चौरी,रक्तविकार,राजभय आदि सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैः
[लग्नाष्टमे व्यये राहौ पापयुक्ते अथ वीक्षिते। चौरादि व्रणपीड़ा च सर्वत्रैवं भवेद् द्विज।। बृपाहोशा : राहुर्अन्तर्दशाफलाध्याय: श्लोक-5:]
2- यदि राहु या केतु भाव संख्या 02 या 07 में हो या भाव संख्या 02 या 07 के स्वामिग्रह के साथ युत हो तो महारोग या कष्ट होता है।
[ द्वितीय-द्यूननाथे वा सप्तम स्थानमाश्रिते। सदा रोगो महाकष्टं शान्ति कुर्याद् यथाविधि।। आरोग्यं संपदाश्चैव भविष्यन्ति तदा द्विज।। बृपाहोशाः राहुर्अन्तर्दशाफलाध्याय: श्लोक-7]
9-सफल युतियां:- -जातक ज्योतिष में युति के फलित के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण नियम है कि:-
1- युति का एक ग्रह किसी केन्द्रभाव का स्वामि हो और दूसरा किसी त्रिकोणभाव के स्वामि ग्रह और यह युति या तो किसी केन्द्रभाव में बने या किसी त्रिकोणभाव में तो यह युति नि:सन्देह जातक के लिए राजयोगकारक (लाभकारी) होती हैं।
2- जिस भाव में युति बनी है, उस भाव के स्वामिग्रह और लग्नेश की हो।
3- किसी केन्द्रेश या त्रिकोणेश किसी शुभ या मध्यम शुभभाव में किसी स्वराशिस्थ ग्रह के साथ हो।
4- जिस भाव में युति बनी है, उस भाव के स्वामिग्रह के नवांश पति और लग्नेश के नवांश पति की हो।
5-जिस भाव में युति बनी है, उस भाव के स्वामिग्रह और उस भाव के स्थिर कारक की हो। जैसे तुला लग्न में लग्नेश शुक्र के साथ सूर्य।
5- अधिमित्रों की युति हों:- ******************** युति अधिमित्रों की हों तो अति शुभ। जैसे :- राशि 2 या 3 पर बुध+शुक्र, राशि 5 या 6 पर सूर्य+बुध, राशि 6 या 7 पर बुध+शुक्र, राशि 8 या 9 पर मंगल + बृहस्पति, राशि 12 या 1 पर बृहस्पति +मंगल। (मंगल + बृहस्पति की युति पर विद्वानों में मतभेद है)
अन्य युतियां कुंडली पर एक अनिवार्य बोझ की तरह हैं। अत: जातक को अपनी आरोग्यता और धनसंपदा की सुरक्षा हेतु इन "अशुभ युतियों" की विधिविधान से शान्ति करा लेनी चाहिए।
-: शुभम् नइति :-
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hellodkdblog · 5 years
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धर्म संबंधित किसी विषय पर बिना उस शास्त्र को पूर्णतया न जानते हुए भी  अपना निर्णय आदि देने पर ब्रह्महत्या के पाप के समान पाप लगता है।
बृहस्पति संहिता -1/24 के अनुसार:
प्रायश्चितं चिकित्सां च ज्योतिषं धर्म निर्णयम्।
बिना शास्त्रं हि यो ब्रुयात माहुर् ब्रह्मघातकम्।।
अर्थात् :- बृहस्पति जी कहते हैं कि, जो व्यक्ति;
1- पापों का प्रायश्चित करवाने के विषय पर,
2- किसी रोग की औषधि बताने या देने के विषय पर,
3- काल-समय और भविष्य की जानकारी देने के विषय पर तथा
4- धर्म संबंधित किसी विषय पर बिना उस शास्त्र को पूर्णतया न जानते हुए भी लोगों को बताता है या अपना निर्णय आदि देता है वह ब्रह्मघाती के समान होता है।
अर्थात् उसे ब्रह्महत्या के पाप के समान पाप लगता है।
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hellodkdblog · 5 years
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-: ईश्वर भक्ति :-
-: ईश्वर भक्ति :- ************ भाग-1: जैमिनीयम् पद्दति के आधार पर।
1- कारकांश में (आत्मकारक ग्रह जिस नवांश में हो उस ही नवांश में ) "केतु और सूर्य " की या "केतु और बृहस्पति" की युति हो तो जातक "शिवभक्त" होता है। अथवा उसे भगवान शिव की भक्ति सिध्द होगी।
क्या है आत्मकारक ग्रह:- *******************
"जैमिनीयम् पद्दति" में "आत्मकारक ग्रह' उस ग्रह को कहते हैं जिसके भोगांश जन्मकुंडली में सबसे अधिक होते हैं।
उदाहरण: माना सिंह राशि पर स्थित शुक्र के भोगांश 26अंश 20कला हैं जो शेष सभी ग्रहों से अधिक हैं अत: शुक्र "आत्मकारक ग्रह" माने जाएगे।
यह शुक्र बृश्चिक के नवांश पर हैं। अत: कारकांश बृश्चिक राशि मानी जाएगी।
अब यदि "केतु और सूर्य" या "केतु और बृहस्पति" भी बृश्चिक नवमांश ( कारकांश) पा जाए तो जातक "शिवभक्त" होता है। अथवा उसे भगवान शिव की भक्ति सिध्द होगी।
[ नवमांश कुंडली में बृश्चिक राशि पर शुक्र के साथ "केतु और सूर्य" या "केतु और बृहस्पति" की युति होने पर ही यह योग लागू होगा।]
2- "कारकांश लग्न कुंडली" के लग्नभाव में यदि "केतु और सूर्य " की या "केतु और बृहस्पति" की युति हो तो जातक "शिवभक्त" होता है। अथवा उसे भगवान शिव की भक्ति सिध्द होगी।
क्या है "कारकांश लग्न" और "कारकांश लग्न कुंडली" ? ************************************ कारकांश लग्न:- ************ "जैमिनीयम् पद्दति" के आधार पर निश्चित किया गया "आत्मकारक ग्रह" अपने भोगांश के आधार पर जिस नवांश पर हो उस नवांशराशि को लग्नराशि मानकर एक कुंडली बनाई जाती हैं। इसे "कारकांश लग्न" कहते हैं।
कारकांश लग्न कुंडली:- ******************* अब उपरोक्त कारकांश लग्न के आधार पर एक कुंडली बना कर हम सभी नौ ग्रह को उन ही राशियों में रख देते हैं जिन पर वे जन्मकुण्डली में हैं।
इस प्रकार जो कुंडली हमें मिलती है उसे "कारकांश लग्न कुंडली" कहते हैं।
उपरोक्त आत्मकारक ग्रह शुक्र के आधार पर हमारा "कारकांश लग्न" बृश्चिक होगा।
इस "कारकांश लग्न कुंडली" के लग्न भाव (बृश्चिक राशि) में यदि " केतु और सूर्य" की युति हो या "केतु और बृहस्पति" की युति हो तो जातक "शिवभक्त" होता है। अथवा उसे भगवान शिव की भक्ति सिध्द होगी।
3- अन्य योग:- -उपरोक्त की तरह ही कारकांश में या कारकांश लग्नकुंडली के लग्न भाव में:
(क)- केतु और चंद्रमा की युति हो तो जातक माँ दुर्गा, गौरी या शक्ति का उपासक होता है।
(ख)- केतु और शुक्र की युति हो तो जातक माँ लक्ष्मी का उपासक होता है।
(ग)- बुध और शनि की युति हो तो जातक भगवान विष्णु का उपासक होता है।
(घ)- केतु और मंगल की युति हो तो जातक हनुमान या कार्तिकेय का उपासक होता है।
(ङ)- यदि शनि,राहु, केतु या मंगल ग्रह अकेले हों तो जातक भूत-प्रेत, गंडा-ताबीज, टोने-टोटकों का आश्रय लेता है।
(च)- उपरोक्त की तरह ही कारकांश में या कारकांश लग्नकुंडली के लग्न भाव में यदि शनि,राहु या मंगल ग्रह के अतिरिक्त (सूर्य,चंद्र, बुध, बृहस्पति या शुक्र) अकेले हों तो जातक सामान्यरुप में सभी में श्रध्दा कर लेता है।
(छ)- उपरोक्त की तरह ही कारकांश में या कारकांश लग्नकुंडली के लग्न भाव में यदि कोई ग्रह न हों तो जातक पूजा के प्रति उदासीन होता है।
अगले अंक में पराशरीय/वरा: लग्नकुंडली के आधार पर।
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hellodkdblog · 5 years
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" स्वप्न और शकुन"
शास्त्र में " स्वप्न और शकुन" का जन सामान्य में प्रकटीकरण निषेध बताया गया हैं।
संभवत: यह मान्यता रही हो कि ये "स्वप्न और शकुन" हमारी अन्तश्चेतना के भय का ही परिचायक होते हैं।
1- स्वप्न:- •••••••••
जिस किसी स्वप्न को देखने के बाद उस व्यक्ति की निद्रा में व्यवधान आ जाए और वह यह महसूस करें की उसकी श्वास कुछ तेज चल रही है तो उसे :
(क)- पहले थोड़ा जल पीना चाहिए। (ख)- फिर दोनों हाथ जोड़ कर:
" औइम् ह्रीं श्रीं स्वप्न एश्वर्यै नम:।"
इस मंत्र का सात बार उच्चारण करना चाहिए।
[ मंत्र में ह्रीम् श्रीम् और स्वप्नेश्वर्यै का उच्चारण करें क्योंकि यहां शान्त भाव है]
2- शकुन:- •••••••••• -यदि मार्ग में अथवा दिनचर्या में अचानक कुछ ऐसा घटित हो कि वह आपका ध्यान आकृषित या विचलित कर दे और आपकी समझ में उस आकस्मिक घटना (यह शकुन या अपशकुन है) का भेद समझ न आ रहा हो तो व्यक्ति को शान्त भाव करके:
(क)- जिस दिशा में सूर्य हों उधर मुख करके प्रणाम करते हुए सूर्य गायत्रीमंत्र का सात बार उच्चारण करले।
सूर्य गायत्री मंत्र:-
ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि l तन्नो सूर्य: प्रचोदयात् ।।
अथवा
(ख)-दुर्गासप्तशती के परम श्लोक:-
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।
का मात्र तीन बार उच्चारण कर लें।
संपूर्ण देवीयों और देवताऔं में से केवल "मां भगवती " को ही यह सामर्थ्य है कि वे समस्त " स्वाहा और स्वधा " दोनों को प्रशान्त कर सकें।
🙏 सबको प्रणाम🙏
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