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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -20 
राष्ट्रकूट राजवंश ने छठी सदी से तेरहवी सदी के बीच भारत के दक्षिण ,उत्तर तथा मध्य भूभाग पर शासन किया |  इस काल में उन्होंने परस्पर घनिष्ठ परन्तु स्वतंत्र जातियों के रूप में राज्य किया, उनके ज्ञात प्राचीनतम शिलालेखों में सातवीं शताब्दी का 'राष्ट्रकूट' ताम्रपत्र मुख्य है जिसके अनुसार 'मालवा प्रान्त' के मानपुर में उनका साम्राज्य था ,इसी काल की अन्य 'राष्ट्रकूट' जातियों में 'अचलपुर' तथा 'कन्नौज' के शासक भी शामिल थे। इनके मूलस्थान तथा मूल के बारे में कई भ्रांतियां प्रचलित है। ये संभवत: मूल रूप से द्रविड़ किसान थे जो लाततापुर  के शाही परिवार के थे। ये कन्नड भाषा बोलते थे, लेकिन उन्हें उत्तर-दकनी भाषा की जानकारी भी थी। चालुक्य  को पराजित करने वाले राष्ट्रकूट वंश के शासन काल में ही दक्कन साम्राज्य भारत की दूसरी बड़ी राजनीतिक इकाई बन गया, जो मालवा से कांची तक फैला हुआ था। इस काल में राष्ट्रकूटों के महत्व का इस तथ्य से पता चलता है कि एक मुस्लिम यात्री ने यहाँ के राजा को दुनिया के चार महान शासकों में से एक बताया | एलिच्पुर में शासन करने वाले 'राष्ट्रकूट' 'बादामी चालुक्यों' के उपनिवेश के रूप में स्थापित हुए थे लेकिन 'दान्तिदुर्ग' के नेतृत्व में उन्होंने चालुक्य शासक 'कीर्तिवर्मन द्वितीय' को वहाँ से उखाड़ फेंका तथा आधुनिक 'कर्णाटक' प्रान्त के 'गुलबर्ग' को अपना मुख्य स्थान बनाया। यह जाति बाद में 'मान्यखेत के राष्ट्रकूटों ' के नाम से विख्यात हुयी जो 'दक्षिण भारत' में 753 ईसवी में सत्ता में आई |  'मान्यखेत के राष्ट्रकूटों' की सत्ता के उच्चतम शिखर पर उनका साम्राज्य उत्तर में 'गंगा' और 'यमुना नदी' पर स्थित दोआब से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक था। यह उनके राजनीतिक विस्तार, वास्तुकला उपलब्धियों और साहित्यिक योगदान का काल था। इस राजवंश के प्रारंभिक शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे, परन्तु बाद में यह राजवंश जैन धर्म के प्रभाव में आ गया था। राष्ट्रकूट राजा अध्ययन और कला के प्रति समर्पित थे ,दूसरे शासक कृष्ण प्रथम( 756 से 773 ईस्वी ) ने एलोरा में चट्टान को काटकर कैलाश मंदिर बनवाया। इस राजवंश का प्रसिद्ध शासक अमोघवर्ष प्रथम( 814 -878 ईस्वी ) ने सबसे पुरानी ज्ञात कन्नड़ कविता कविराजमर्ग के कुछ खंडों की रचना की थी। उनके शासन काल में जैन गणितज्ञों और विद्वानों ने कन्नड़ एवं संस्कृत भाषाओं के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनी वास्तुकला 'द्रविणन शैली' में आज भी मील का पत्थर मानी जाती है, जिसका एक प्रसिद्ध उदाहरण 'एल्लोरा' का 'कैलाशनाथ मन्दिर' है। अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में 'महाराष्ट्र' में स्थित 'एलीफेंटा गुफाओं' की मूर्तिकला तथा 'कर्णाटक' के 'पताद्क्कल' में स्थित 'काशी विश्वनाथ' और 'जैन मन्दिर' आदि आते हैं, ये सभी 'यूनेस्को' की वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल हैं।खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ (968-972ईस्वी )अपनी राजधानी की रक्षा में विफल रहे और भागकर पश्चिमी घाटों में चले गए, जहां उनका वंश साहसी गंग और कदंब वंशों के सहयोग से तब तक गुमनाम जीवन व्यतीत करता रहा |               
चोलों के उल्लेख अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं ,कात्यायन ने चोडों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख उपलब्ध है किंतु इन्होंने संगम युग में ही दक्षिण भारतीय इतिहास को प्रथम बार प्रभावित किया। संगमकाल के अनेक महत्वपूर्ण चोल सम्राटों में करिकाल अत्यधिक प्रसिद्ध हुए संगमयुग के पश्चात् का चोल इतिहास अज्ञात है। फिर भी चोल-वंश-परंपरा एकदम समाप्त नहीं हुई थी क्योंकि रेनंडु (जिला कुडाया) प्रदेश में ये पल्लवों ,चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करते रहे थे । नवी सदी के मध्य में विजयालय  (850-870-71 ई.) ने चोल साम्राज्य की पुनर्स्थापना की जो पल्लव अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था।इस वंश  में 20 राजा हुए, जिन्होंने चार सौ से अधिक वर्षों तक शासन किया। विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907ईस्वी ), परातंक प्रथम (907-955ईस्वी ) ने क्रमश: शासन किया। परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण दि्वतीय को भी पराजित किया। चोल शक्ति एव साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। उसने लंकापति उदय (945-53ईस्वी ) के समय सिंहल देश पर भी एक असफल आक्रमण किया। परांतक अपने अंतमि दिनों में राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय द्वारा 949 ई. में पराजित हुआ। परांतक प्रथम के बाद के 32 वर्षों में अनेक चोल राजाओं ने शासन किया, इनमें गंडरादित्य, अरिंजय और सुंदर चोल या परातक दि्वतीय प्रमुख थे| राजराज प्रथम (985-1014ईस्वी ) ने पश्चिमी गंगों को पराजित कर उनका प्रदेश छीन लिया तदनंतर पश्चिमी चालुक्यों से उनका दीर्घकालिक परिणामहीन युद्ध आरंभ हुआ। राजराज को सुदूर दक्षिण में आशातीत सफलता मिली उसने  केरल नरेश को पराजित किया ,पांड्यों को पराजित कर मदुरा और कुर्ग में स्थित उद्गै अधिकृत कर लिया तथा सिंहल पर आक्रमण करके उसक�� उत्तरी प्रदेशों को अपने राज्य में मिला लिया। राजराज ने पूर्वी चालुक्यों पर आक्रमण कर वेंगी को जीत लिया। राजराज के पश्चात् राजेंद्र प्रथम  (1012-1044 ईस्वी ) शासक बना । उसने चेर, पांड्य एवं सिंहल जीता तथा उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। उसने पश्चिमी चालुक्यों को कई युद्धों में पराजित किया, उनकी राजधानी को ध्वस्त किया किंतु उनपर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका। उसके दो प्रसिद्द सैनिक अभियानो में  पूर्वी समुद्रतट से कलिंग, उड़ीसा, दक्षिण कोशल आदि के राजाओं को पराजित करता हुआ बंगाल के विरुद्ध हुआ। उसने पश्चिम एवं दक्षिण बंगाल के तीन छोटे राजाओं को पराजित करने के साथ शक्तिशाली पाल राजा महीपाल को भी पराजित किया। इस अभियान का कारण अभिलेखों के अनुसार गंगाजल प्राप्त करना था। यह भी ज्ञात होता है कि पराजित राजाओं को यह जल अपने सिरों पर ढोना पड़ता था। दूसरा महत्वपूर्ण आक्रमण मलयद्वीप , जावा  और सुमात्रा के शैलेंद्र शासन के विरुद्ध हुआ जो नौसैनिक आक्रमण था। शैलेंद्र सम्राटों का राजराज से मैत्रीपूर्ण व्यवहार था किन्तु राजेंद्र के साथ उनकी शत्रुता का कारण अज्ञात है। राजाधिराज प्रथम  (1018-1054ईस्वी ) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था।उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी जिसके बाद युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064ईस्वी ) को राजा बनाया गया जिसने युद्ध जीता । राजेंद्र द्वितीय का उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069 ईस्वी) था जिसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और संपूर्ण चोल साम्राज्य पर शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070 ईस्वी ) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल सत्ता छीन ली ।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120ईस्वी ) चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तुंग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया |  युवराज विक्रम चोल के प्रयास से कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त सम्पूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। विक्रम चोल (1118-1133 ईस्वी ) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ | 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया।कुलोत्तुंग प्रथम के बाद विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोल साम्राज्य का पतन होता रहा | राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली लेकिन: जटावर्मन् सुंदर पांड्य ने उत्तर पर आक्रमण किया और चोलों को पराजित किया। इसके बाद से चोल शासक पांड्यों के अधीन रहे और उनकी यह स्थिति भी 1310 में मलिक काफूर के आक्रमण से समाप्त हो गई।           
  चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था ,राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था , मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ "उर" या "सभा" कही जाती थीं , इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं और राजा भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था | चोल शासक प्रसिद्ध भवन निर्माता थे ,सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजोर में बनवाया जो प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी विकास हुआ, इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं। चोल शासन में साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुयी चोल राजाओ की विजयो पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए जिनमे जयंगोंडार का "कलिगंत्तुपर्णि" अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित "जीवक चिंतामणि" तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल "रामायण" की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।सामाजिक जीवन में यद्यपि ब्राह्मणो को अधिक अधिकार प्राप्त थे और अन्य वर्गों से अपना पार्थक्य दिखलाने के लिए उन्होंने अपनी अलग बस्तियाँ बसानी शुरू कर दी थीं, फिर भी विभिन्न वर्गों के परस्पर संबंध कटु नहीं थे। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में एक गाँव के भट्टों ने शास्त्रों का अध्ययन कर रथकार नाम की अनुलोम जाति के लिए सम्मत जीविकाओं का निर्देश किया। उद्योग और व्यवसाय में लगे सामाजिक वर्ग दो भागों में विभक्त थे- वलंगै और इडंगै। स्त्रियाँ पर सामाजिक जीवन में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। वे संपत्ति की स्वामिनी होती थीं। उच्च वर्ग के पुरुष बहुविवाह करते थे ,सती प्रथा थी , मंदिरों में देवदासियां रहा करती थी ,समाज में दासप्रथा प्रचलित थी दासों की कई कोटियाँ होती थीं।           
 चोल शासक शिव के उपासक थे लेकिन उनकी नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी। पूर्वयुग के तमिल धार्मिक पद वेदो जैसे पूजित होने लगे और उनके रचयिता देवता स्वरूप माने जाने लगे। नंबि आंडार नंबि ने सर्वप्रथम राजराज प्रथम के राज्यकाल में शैव धर्मग्रंथों को संकलित किया। वैष्णव संप्रदाय के लिए यही कार्य नाथमुनि ने किया। उन्होंने भक्ति के मार्ग का दार्शनिक समर्थन प्रस्तुत किया। उनके पौत्र आलवंदार अथवा यमुनाचार्य का वैष्णव आचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया | शैवों में भक्तिमार्ग के अतिरिक्त बीभत्स आचारोंवाले कुछ संप्रदाय, पाशुपत, कापालिक और कालामुख जैसे थे, जिनमें से कुछ स्त्रीत्व की आराधना करते थे, जो प्राय: विकृत रूप ले लेती थी। देवी के उपासकों में अपना सिर काटकर चढ़ाने की भी प्रथा थी। चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है , इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तं���ोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर , राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगेकोन्ड चोलेश्वर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय है | तमिल साहित्य के इतिहास में चोल शासनकाल को 'स्वर्ण युग' की संज्ञा दी जाती है। प्रबंध साहित्य रचना का प्रमुख रूप था। दर्शन में शैव सिद्धांत के शास्त्रीय विवेचन का आरंभ हुआ। शेक्किलार का तिरुतोडङर पुराणम या पेरियपुराणम् युगांतरकारी रचना है। वैष्णव भक्ति-साहित्य और टीकाओं की भी रचना हुई , वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यामुनाचार्य और रामानुज ने प्राय: संस्कृत में ही रचनाएँ की हैं। टीकाकारों ने भी संस्कृत शब्दों में आक्रांत मणिप्रवाल शैली अपनाई। रामानुज की प्रशंसा में सौ पदों की रचना रामानुज नूरदादि  इस दृष्टि से प्रमुख अपवाद है। जैन कवि तिरुत्तक्कदेवर् ने प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य जीवक चिंतामणि की रचना 10वीं शताब्दी में की थी। तोलामोलि रचित सूला मणि  की गणना तमिल के पाँच लघु काव्यों में होती है। काळड़नार के कल्लाडम् में प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं पर सौ पद हैं। राजकवि जयन्गोंडा ने कलिंगत्तुप्परणि में कुलोत्तुंग प्रथम के कलिंगयुद्ध का वर्णन किया है। ओट्टकूत्तन भी राजकवि था जिसकी अनेक कृतियों में कुलोत्तुंग द्वितीय के बाल्यकाल पर एक पिल्लैत्तामिल और तीन चोल राजाओं पर उला उल्लेखनीय हैं। प्रसिद्ध तमिल रामायणम् अथवा रामवताराम की रचना कंबन ने कुलोत्तुंग तृतीय के राज्यकाल में की थी। जैन विद्वान् अमितसागर ने छंद शास्त्र पर याप्परुंगलम् नाम के एक ग्रंथ और उसके एक संक्षिप्त रूप (कारिगै) की रचना की। बौद्ध बुद्धमित्र ने तमिल व्याकरण पर वीरशोलियम् नाम का ग्रंथ लिखा। दंडियलंगारम् का लेखक अज्ञात है; यह ग्रंथ दण्डिन के काव्यादर्श के आदर्श पर रचा गया है। इस काल के कुछ अन्य व्याकरण ग्रंथ हैं- गुणवीर पंडित का नेमिनादम् और वच्चणंदिमालै, पवणंदि का नन्नूल तथा ऐयनारिदनार का पुरप्पोरलवेण्बामालै, पिंगलम् नाम का कोश भी इसी काल की कृति है।वेंकट माधव का ऋग्वेद पर प्रसिद्ध भाष्य परांतक प्रथम के राज्यकाल की रचना है। केशवस्वामिन् ने  नानार्थर्णव संक्षेप नामक कोश को राजराज द्वितीय की आज्ञा पर ही बनाया था।
जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 12 फरवरी 2019      
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -19 
प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक  चेदि भी था जिसका शासन मध्य तथा पश्चिमी भारत में था । आधुनिक बुंदलखंड तथा उसके समीपवर्ती भूभाग तथा मेरठ इसके आधीन थे, इसकी राजधानी शक्तिमती या संथिवती थी | इसे कलचुरी राजवंश भी कहा जाता था ,इसकी मध्य शाखा चेदि ,हैहय अथवा उत्तरी कलचुरी तथा दूसरी शाखा जिसने वर्तमान कर्नाटक क्षेत्र में शासन किया था दक्षिण कलचुरी कही जाती है | अभिलेखों में ये स्वयं को हैहय नरेश अर्जुन का वंशधर बताते हैं, इन्होंने कलचुरी संवत का प्रयोग किया जो 248 -49 ईस्वी से शुरू होता है | शुरू में इनका निवास मालवा क्षेत्र में था , छठी शताब्दी के अंत में बादमी के चालुक्यों के आक्रमण, गुर्जरों का समीपवर्ती प्रदेशों पर आधिपत्य, मैत्रकों के दबाव तथा अन्य ऐतिहासिक कारणों से ये जाबालिपुर के आसपास आकर बस गए। यहीं लगभग नवीं शताब्दी में उन्होंने एक छोटे से राज्य की स्थापना की। अभिलेखों में कृष्णराज, उसके पुत्र शंकरगण, तथा शंकरगण के पुत्र बुधराज का नाम आता है जिसे उसकी मुद्राओं में 'परम माहेश्वर' कहा गया है। शंकरगण शक्तिशाली नरेश था जिसने साम्राज्य का विस्तार किया था। बड़ोदा जिले से प्राप्त एक अभिलेख में निरिहुल्लक अपने को कृष्णराज के पुत्र शंकरगण का सांमत बतलाता है। 595 ईस्वी में शंकरगण के बाद उसका उतराधिकारी उसका पुत्र बुधराज हुआ जिसने मालवा पर अधिकार कर लिया। महाकूट स्तम्भ लेख से पता चलता है कि चालुक्य नरेश मंगलेश ने इसी बुधराज को पराजित किया था। इस प्रदेश से कलचुरी शासन का ह्रास चालुक्य विनयादित्य (681 -696 ई.) के बाद हुआ।                             दक्षिण में कलचुरी राज्य त्रिपुरी क्षेत्र में था जिसका प्रथम ज्ञात शासक कोक्कल्ल प्रथम था जो 845 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा। उसने चंदेल राजकुमारी नट्टा से विवाह किया तथा अपनी पुत्री का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय से किया । उसने प्रतिहार नरेश भोज प्रथम और उसके सांमत कलचुरि शंकरगण, गुहिल हर्षराज और चाहपान गूवक द्वितीय को पराजत किया। कोक्कल्ल ने  राजस्थान में तुरुष्कां को पराजित किया जो संभवत: सिंध के अरब प्रांतपाल के सैनिक थे तथा वंग पर भी इसी प्रकार का आक्रमण किया था। अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को पराजित करके उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया था किंतु अंत में उसने राष्ट्रकूटों के साथ संधि कर ली थी। कोक्कल्ल के 18 पुत्र थे जिनमें से 17 को उसने पृथक पृथक मंडलों का शासक नियुक्त किया; ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसके बाद सिंहासन पर बैठा। शंकरगण ने कोशल के सोमवंशी नरेश से पालि छीन लिया तथा पूर्वी चालुक्य विजयादित्य तृतीय के आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की सहायता के लिए गया किंतु उसके पक्ष की पराजय हुई। उसने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया जिनका पुत्र इंद्र तृतीय था। इंद्र तृतीय का विवाह शंकरगण के छोटे भाई अर्जुन की पौत्री से हुआ था।शंकरगण के बाद पहले उसका बड़ा पुत्र बालहर्ष फिर छोटा पुत्र केयूरवर्ष प्रथम सिंहासन पर बैठा जिसने गौड़ और कलिंग पर आक्रमण किया था। किंतु अपने शासन के अंत समय में उसे चंदेल नरेश यशोवर्मन से पराजित होना पड़ा। केयूरवर्ष के पुत्र लक्ष्मणराज ने पूर्व में बंगाल, ओड्र और कोसल पर आक्रमण किया। पश्चिम में वह लाट के सामंत शासक और गुर्जर नरेश मूल राज प्रथम को पराजित करके सोमनाथ तक पहुँचा था। उसने अपनी पुत्री बोन्थादेवी का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ से किया था जिनका पुत्र तैल द्वितीय था | लक्षमणराज के पुत्र शंकरगण और युवराज द्वितीय निर्बल शासक थे ,युवराज द्वितीय के समय मुंज परमार ने त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया जिसके बाद कोक्कल्ल द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया गया जिसने त्रिपुरी पर अधिकार स्थापित किया | कोक्कल्ल के पुत्र गांगेयदेव(1019 -1041 ईस्वी  ) के शासन में चेदि लोगों ने अपने राज्य का प्रसार उत्तर भारत में किया | उसने कोसल पर आक्रमण किया और उत्कल को जीतता हुआ वह समुद्र तट तक पहुँच गया इस विजय के उपलक्ष में उसने त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि धारण की । उत्तर-पूर्व की ओर उसने बनारस पर अधिकार कर लिया और अंग तक सफल आक्रमण किया किंतु मगध पर अधिकार नहीं कर सका |1034 ई. में पंजाब के सूबेदार अहमद नियाल्तिगीन की बनारस लूट के बाद उसने मुस्लिम अधिकार वाले कीर (काँगड़ा) पर आक्रमण किया |गांगेयदेव का पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्ण कलचुरि वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था जिसकी गणना प्राचीन भारतीय इतिहास के महान्‌ विजेताओं में होती है। उसने प्रयाग पर अधिकार लिया और विजय करता हुआ वह कीर देश तक पहुँचा। उसने पाल राज्य पर दो बार आक्रमण किया किंतु अंत में संधि की और विग्रह पाल तृतीय के साथ अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह किया। राढा के ऊपर भी कुछ समय तक उसका अधिकार रहा, उसने वंग को भी जीता किंतु अंत में उसने वंग शासक जातवर्मन्‌ के साथ संधि स्थापित की और उसके साथ अपनी पुत्री वीरश्री का विवाह दिया। उसने ओड्र और कलिंग पर भी विजय प्राप्त की, कांची पर भी आक्रमण किया और पल्लव, कुंग, मुरल और पांड्य लोगों को पराजित किया। उसने कुंतल के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया । उसने कीर्तिवर्मन्‌ चंदेल को पराजित किया किंतु बुंदेलखंड पर उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं बना रह सका। उसने मालव के उत्तर-पश्चिम में स्थिति हूणमंडल पर भी आक्रमण किया था। भीम प्रथम चालुक्य के साथ साथ उसने भोज परमार के राज्य की विजय की किंतु चालुक्यों के हस्तक्षेप के कारण उसे विजित प्रदेश का अधिकार छोड़ना पड़ा।1072 ई. में लक्ष्मीकर्ण ने सिंहासन अपने पुत्र यश:कर्ण को दे दिया। यश:कर्ण ने चंपारण्य (चंपारन, उत्तरी बिहार) और आंध्र देश पर आक्रमण किया था किंतु उसके शासनकाल के अंतिम समय जयसिंह चालुक्य, लक्ष्मदेव परमार और सल्लक्षण वर्मन्‌ चंदेल के आक्रमणों के कारण चेदि राज्य की शक्तिक्षीण हो गई। चंद्रदेव गांहड़वाल ने प्रयाग और बनारस पर अपना अधिकार कर लिया। मदनवर्मन्‌ चंदेल ने उसके पुत्र जयसिंह ने कुमारपाल चालुक्य, बिज्जल कलचुरि और खुसरो मलिक के आक्रमणों का सफल सामना किया। जयसिंह के पुत्र विजयसिंह का डाहल पर 1211 ई. तक अधिकार बना रहा। किंतु 1212 ई. में त्रैलोक्यवर्मन्‌ चंदेल ने ये प्रदेश जीत जिए। इसके बाद इस वंश का इतिहास नहीं मिलता |                                                               कोक्कल्ल प्रथम के  17 पुत्रों में से एक ने दक्षिण कोशल में कलचुरि राजवंश की एक नई शाखा की स्थापना की जिसकी राजधानी पहले तुम्माण और बाद में तृतीय नरेश नत्नराज द्वारा स्थापित रत्नपुर थी। इस शाखा में नौ शासक हुए जिन्होंने 12वीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया। इस वंश के कर्ण, यश:कर्ण और जयसिंह ने सम्राट की प्रचलित उपाधियों के अतिरिक्त अश्वपति, गजपति, नरपति और राजत्रयाधिपति की उपाधियाँ धारण की | राज्य में महाराज के बाद युवराज अथवा महाराजपुत्र का स्थान था, महारानियाँ भी राज्यकार्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। मंत्रिमुख्यों के अतिरिक्त अभिलेखों में महामंत्रिन्‌, महामात्य, महासांधिविग्रहिक, महाधर्माधिकरण, महापुरोहित, महाक्षपटलिक, महाप्रतीहार, महासामंत और महाप्रमातृ के उल्लेख मिलते हैं। पद वंशगत नहीं थे, यद्यपि व्यवहार में किसी अधिकारी के वंशजों को राज्य में अपनी योग्यता के कारण विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था। राज्य-करों की सूची में पट्टकिलादाय और दुस्साध्यादाय उल्लेखनीय हैं, ये संभव: इन्हीं नामों के अधिकारियों के वेतन के रूप में एकत्रित किए जाते थे। इसी प्रकार घट्टपति और तरपति भी कर उगाहते थे, शौल्किक शुल्क एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विषयादानिक भी कर एकत्रित करनेवाला अधिकारी था, विक्रय के लिए वस्तुएँ मंडपिका में आती थीं जहाँ उनपर कर लगाया जाता था। ब्राह्मणो में सवर्ण विवाह का ही चलन था किंतु अनुलोम विवाह अज्ञात नहीं थे, कुछ वैश्य क्षत्रियों के कर्म भी करते थे, कायस्थ भी समाज के महत्वपूर्ण वर्ग थे। कलचुरि नरेश कर्ण ने हूण राजकुमारी आवल्लदेवी से विवाह किया था, उसी की संतान यश: कर्ण था। बहुविवाह का प्रचलन उच्च कुलों में विशेष रूप से था, सती का प्रचलन था किंतु स्त्रियाँ इसके लिए बाध्य नहीं थीं। संयुक्त-परिवार-व्यवस्था के कई प्रमाण मिलते हैं। व्यवसाय और उद्योग श्रेणियों के रूप में संगठित थे, नाप की इकाइयों में खारी, खंडी, गोणी, घटी, भरक इत्यादि के नाम मिलते हैं। गांगेयदेव ने बैठी हुई देवी की शैली के सिक्के चलाए, ये तीनों धातुओं में उपलब्ध हैं, यह शैली उत्तरी भारत की एक प्रमुख शैली बन गई और कई राजवंशों ने इसका अनुकरण किया।धर्म के क्षेत्र में सामान्य प्रवृत्ति समन्वयवादी और उदार थी, ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र की समान पूजा होती थी, विष्णु की पूजा का अत्यधिक प्रचलन था किंतु शिव-पूजा उससे भी अधिक जनप्रिय थी। चेदि राजवंश के देवता भी शिव थे, युवराज देव प्रथम के समय में शैवधर्म का महत्व बढ़ा। उसने मत्तमयूर शाखा के कई शैव आचार्यों को चेदि देश में बुलाकर बसाया और शैव मंदिरों और मठों का निर्माण किया।  इस राजवंश के नरेश स्वयं विद्वान्‌ थे, मायुराज ने उदात्ताराघव नाम के एक नाटक और संभवम: किसी एक काव्य की भी रचना की थी। भीमट ने पाँच नाटक रचे जिनमें स्वप्नदशानन सर्वश्रेष्ठ था। शंकरगण के कुछ श्लोक सुभाषित ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर के पूर्वजों में अकालजलद, सुरानंद, तरल और कविराज चेदि राजाओं से ही संबंधित थे। राजशेखर ने भी कन्नौज जाने से पूर्व ही छ: प्रबंधों की रचना की थी और बालकवि की उपाधि प्राप्त की थी। युवराजदेव प्रथम के शासनकाल में वह फिर त्रिपुरी लौटा जहाँ उसने विद्धशालभंजिका और काव्यमीमांसा की रचना की। कर्ण का दरबार कवियों के लिए पसिद्ध था, विद्यापति और गंगाधर के अतिरिक्त वल्लण, कर्पूर और नाचिराज भी उसी के दरबार में थे। बिल्हण भी उसके दरबार में आया था। कर्ण के दरबार में प्राय: समस्यापूरण की प्रतियोगिता होती थी। कर्ण ने प्राकृत के कवियों को भी प्रोत्साहन दिया था।                       
हर्ष के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अस्थिरता का माहौल था जिसके कारण बिहार, बंगाल और उड़ीसा में अराजकता फैली हुयी थी | इस समय जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया, वह योग्य और कुशल शासक था जिसने 750 -770 ईस्वी तक शासन किया और पाल वंश के शासन की स्थापना की । इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया। गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल (770 -810 ईस्वी ) ई. में सिंहासन पर बैठा जो कन्‍नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्‍नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के ब��द उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया और देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था। धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल(810 -850 ईस्वी ) गद्दी पर बैठा जिसके शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर अपनी राजधानी बनाई तथा पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया। कन्‍नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक शैलेंद्र के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए 5 गाँव अनुदान में दिए। देवपाल के बाद पाल वंश का पतन शुरू हो गया | मिहिरभोज और महेन्द्रपाल  और के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार किया ।11 वीं सदी में महीपाल प्रथम(988 -1008 ईस्वी ) ने शासन किया उसे पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है जिसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया। महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्‍न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्‍तिशाली हो गये। रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था। सेन शासक वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया। इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।
जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 12 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -18 
दक्षिण भारत के प्रथम ऐतिहासिक काल के तीन प्रमुख साम्राज्य चेर ,चोल और पांड्य संगम काल के दौरान लगभग गौण स्थिति में रहते है जिसके चलते संगम साहित्य में इनका विशेष वर्णन नहीं मिलता लेकिन पूर्व मध्यकाल में एक बार फिर ये राज्य चर्चा में आते है जिसके बाद इनका शासन मध्यकाल के दौरान भी जारी रहता है | चेर केरल का प्राचीन नाम है ,चेर राजाओ को इतिहास केरल पुत्र के नाम से भी जानता है, प्रारंभिक चेर राजा वानवार जाति से थे | अशोक के शिलाभिलेखो में केरल पुत्र का जिक्र मिलता है जिसे उसने दक्षिण में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था | संगम काल (100 -250 ईस्वी ) में उदयनजेरल (130 ईस्वी ) पहला चेर शासक था | उसके बाद नेंदुजेराल आदन ,कुट्टुवन ,शेंगुट्टुवन और कुड्डुकी (190 ईस्वी ) राजा हुए | 210 ईस्वी में चेर राजा मंदारजेराल को पांड्य राजा ने पराजित किया , इसके बाद चेर वंश का इतिहास अज्ञात है | सातवीं आठवीं सदी में पांड्य राजाओ द्वारा चेर प्रदेश कांगू पर अधिकार के बाद चेर अस्तित्व एक बार फिर नजर आता है ,इस समय चेरो ने खुद को पांड्यो से सुरक्षित रखने के लिए पल्लवों से मित्रता की | आठवीं नवीं सदी का चेर राजा चेरमान् पेरुमाल  धर्मसहिष्णु और सर्वधर्मोपासक था, विद्वानों के मत में उसके शासनकाल के अंत के साथ कोल्लम अथवा मलयालम् संवत् का प्रारंभ हुआ (824-24 ई.)। उसके समय में अरबी मुसलमानों मलाबार तट पर बसे और उन्होंने वहाँ की स्त्रियों से विवाह भी किया, जिनसे मोपला लोगों की उत्पत्ति हुई। चेरमान् पेरुमाल लेखक और कवि था।  शंकराचार्य उसके समकालिक लेखकों में थे | नवीं सदी के अंत में चेर शासक स्थाणुरवि ने चोलराज आदित्य के पुत्र परांतक से अपनी पुत्री का विवाह कर चोलों से मित्रता कर ली। स्थाणुवि का पुत्र विजयरागदेव हुआ जिसके वंशजों में भास्कर रविवर्मा (1047-1106) प्रसिद्ध शासक हुआ। किंतु राजरा प्रथम और उसके उत्तराधिकारी चोलों ने चेर का अधिकांश भाग जीत लिया।           
  चेरदेश के नंबूदरी ब्राह्मण विद्या और साहित्य के लिए जाने जाते है ,आर्यवंशी कुरुनंदडक्कन (नवीं सदी) ने वैदिक विद्याओं के प्रचार के लिए दक्षिणी त्रावणकोर में पार्थिवशेखरपुरम् के एक विष्णुमंदिर में विद्यालय और छात्रावास की स्थापना हेतु एक निधि स्थापित की थी। तमिल साहित्य में तृतीय संगम की रचनाओं में से एत्तुथोकै में आठ संग्रह हैं। इनमें चौथे संग्रह पदित्रुपात्तु में दस-दस पदोंवाली दस कविताएँ थीं। इन कविताओं में से पहली और आठवीं उपलब्ध नहीं है। शेष आठ कविताएँ चेर राजाओं के युद्धों और गुणों से संबंधित हैं। इनसे चेर राज्य में तमिल संस्कृति की कई विशेषताओं का ज्ञान होता | सात राजाओं पर विजय एक उच्च पद था जिसके सूचक के रूप में विजित राजाओं के मुकुट की माला धारण की जाती थी। विशेष शक्तिशाली राजाओं के लिए दिग्विजय के द्वारा चक्रवर्ती का पद प्राप्त करने का आदर्श था | । वीरों की स्मृतियों में पत्थर गाड़ने ओर उनकी पूजा करने का चलन था। सांस्कृतिक जीवन की प्रमुख विशेषता उसका मिश्रित स्वरूप थी जिसमें तमिल और आर्य दोनों ही तत्व विद्यमान थे । तमिल कवियों को आर्य परंपरा के अनुवृत्तों और दार्शनिक तथा धार्मिक विचारों का ज्ञान था।चेर देश अपनी भैंस, मिर्च, हल्दी और मूल्यवान् पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। संभवत: अदिगैमान के वंश ने ही गन्ने की खेती को इस प्रदेश में आरंभ किया था | मुशिरि प्रमुख बंदरगाह था जहाँ यूनानी व्यापारी सोने के बदले मिर्च और समुद्र तथा पर्वतों की दुर्लभ उपजों के साथ लौटते थे। पुरनानुरु में धान के बदले मछली और मिर्च की गाँठों के विक्रय का और बड़े जहाजों से छोटे जहाजों पर सामान लादने क वर्णन है। अन्य प्रसिद्ध बंदरगाहों में बंदर और कोडुमणम् के नाम उल्लेखनीय हैं। रोम के साथ चेर देश के व्यापार संबंध की पुष्टि पेरिप्लस और अधिक संख्या में देश में उपलब्ध हुई चाँदी तथा सोने को रोम की मुद्राओं से होती हैं। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ कंचुकि पहनती थीं और केशों में लेप करती थीं, केश की पाँच श्रेणियों में बाँटने का चलन था। स्त्रियों को समाज में पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी, विधवाओं की दशा बुरी थी तथा सती का प्रचलन विशेष रूप से उच्च और सैनिक वर्गों में था | नृत्य और संगीत जनजीवन के महत्वपूर्ण अंग थे , तुणंगै और अल्लियम् नृत्यों में स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते थे।अन्य धर्मों की तुलना में ब्राह्मण धर्म का अत्यधिक प्रसार था।कालि से सुब्रह्मण्य की उत्पत्ति और उनके शौर्य के कृत्य विशेष रूप से असुर शूर का अंत कवियों के प्रिय विषय थे। शेंगुट्टुवन् के लिये कहा जाता है कि उसने पत्तिनि संप्रदाय को प्रचारित किया जिसमें कण्णगि की आदर्श पत्नी के रूप में पूजा होती थी | इस युग के प्रसिद्ध कवियों में परनर्, कपिलर्, पलै कोथम्नार और काक्कै पादिनिआर प्रमुख हैं। प्रसिद्ध ग्रंथ शिलप्पदिकारम् के रचयिता इलंगो अडिगल को चेर नरेश शेंगुट्टुवन् का भाई कहा जाता है। ईसाई यात्री कॉस्मस ने छठी शताब्दी में क्विलन में एक चर्च देखा था, स्थानीय जनता में से भी कुछ लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था और उनको ताम्रपत्रों के द्वारा अनुदान दिए गए थे जिनमें सर्वप्रथम 774 ई. का है। चेर नरेश चेरमान् पेरुमाल के संबंध में कथा है कि उसने इस्लाम स्वीकार किया था और मक्का की यात्रा की थी जहाँ से उसने भारतीय नरेशों को मुसलमानों का आदर करने और मस्जिदें बनवाने के लिए कहा था। यहूदियों के विषय में भी कहा जाता है कि वे पहली शताब्दी ईसवी में आए थे। चेर नरेश भास्कर रविवर्मन् ने जोज़ेफ़ रब्बन और उसके अनुवर्तियों को दान में कुछ भूमि और विशेषाधिकार दिए थे। वैष्णव आल्वारों में कुलशेखर चेर देश का ही निवासी था , केरल दक्षिणाचार सम्प्रदायों के केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध था।केरल में प्रचलित तमिल ही शताब्दियों में स्वयमेव विकसित होकर मलयालम् भाषा बनी। इसने भी संस्कृत-प्रभाव को ग्रहण किया और संस्कृत-उच्चारणों को व्यक्त करने के लिए प्राचीन बट्टे लुत्तु लिपि के स्थान पर तमिलग्रंथ पर आधारित एक नई लिपि का विकास किया।              
तमिल क्षेत्र में संगम काल के बाद कलभ्रों का जिक्र मिलता है जिनके उत्पत्ति के बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है लेकिन प्रचलित धारणा के अनुसार ये पहाड़ो में रहने वाली कोई जनजाति थी जो जैन और बौद्ध धर्म को मानती थी,इनके कुछ सिक्को पर जैन आचार्य ,बुद्ध तथा स्वस्तिक पाए गए है सिक्को के दूसरी और ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा के शब्द है | लेकिन छठी सदी के बाद के इनके अभिलेखों में प्राकृत के साथ तमिल और हिन्दू देवी देवताओ के चित्र मिलते है | कांची के वैकुण्ठ पेरुमल मंदिर के एक अभिलेख में किसी कलवारा कवलन का जिक्र मुत्तरियार के रूप में होने से टीए गोपिराव इन्हे मुत्तरियार से जोड़ते है | एम् राघव ऐय्यंगार कलभ्रों की पहचान वेल्लाला कल्लाप्पालार्स के रूप में करते है | 770 ईस्वी की पाण्ड्य शासक परांतक नेदुनजदैयन की वेल्विकुडी ताम्र पट्टिका में आर नरसिम्हाचार्य और और वी वेंकैया जैसे कलभ्रों का उल्लेख कर्नाटास के रूप में किया गया है | इस आधार पर केआर वेंकटारामा मानते है कि पांचवी सदी में कलभ्र बेंगलोर -चित्तूर क्षेत्र में निवास करते थे | तिरुचिरापल्ली का पाली भाषा का प्रसिद्ध लेखक बुद्धदत्त कहता है कि चौथी सदी से नवी सदी के बीच तिरुचिरापल्ली का चोल साम्राज्य कालभ्रों के अधिकार में था ,वो कलभ्र शासक अच्युत वैक्रान्ता का वर्णन करता है जो बौद्ध था और कावेरीपमपट्टनम से शासन करता था | तमिल साहित्य में अच्युत नामक शासक का जिक्र है जिसने चेर ,चोल और पाण्ड्य क्षेत्रो पर अधिकार किया था | कलभ्रों का उल्लेख चालुक्य ,पल्लव और पाण्ड्य ताम्र पट्टिकाओं में भी मिलता है जिसके अनुसार छठी से आठवीं सदी के मध्य कलभ्र शासन था | कलभ्रों के शासन में दक्षिण में बौद्ध और जैन धर्मो की काफी उन्नति हुयी | इस काल की साहित्यिक रचनाओं को दी एटीन माइनर वर्क्स में रखा जाता है जिसमे सिलाप्पधिकरम और मनीमेगालै जैसी रचनाये है जो बौद्ध और जैन आचार्यो द्वारा लिखी गयी | शुरुवाती कलभ्र बौद्ध और जैन धर्म को मानते थे लेकिन बाद में वे शैव और वैष्णव धर्म को मानने लगे उन्होंने हिन्दू देव स्कन्द और सुब्रमण्य की पूजा को बढ़ावा दिया |कावेरीपमपट्टनम के कलभ्र शासको के पांचवी सदी के सिक्को पर इनकी आकृति मिलती है | राजा अच्युत विष्णु तिरुमल का उपासक था | पाण्ड्य ,चोल और पल्लव शासको द्वारा इनके विरुद्ध संयुक्त सैन्य कार्यवाही की गयी जिसके बाद इनका शासन समाप्त हुआ |                                                         
प्रारंभिक पाण्ड्य शासन 300 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी के मध्य था ,प्राचीन पांड्य शासको में नेड्डजेलियन्  द्वितीय ( 210 ईस्वी )प्रसिद्द था जिसने अल्प आयु में  सिंहासन पर बैठते ही अपने समकालीन शासकों के सम्मिलित आक्रमण को विफल किया, उनका चोल देश में खदेड़कर तलैयालंगानम् के युद्ध में पराजित किया और चेर नरेश को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। छठी शताब्दी में पांड्य राज्य पर कलभ्रों का अधिकार हो गया था। कड्डंगोन् (590 -620 ईस्वी ) और उसके पुत्र मारवर्मन् अरनिशूलामणि (620 -645ईस्वी  ) ने कलभ्रों के आधिपत्य का अंत कर पांड्य राज्य पुनः स्थापित किया । जंयतवर्मन् (645 -670ईस्वी ) ने जो न्याय और शौर्य के कारण प्रसिद्द रहा चेर राज्य की विजय की थी। परांकुश मारवर्मन (670 -710 ईस्वी ) के समय पांड्य साम्राज्य का विस्तार उनकी परंपरागत सीमाओं के बाहर भी हुआ जिसमे   उसका उत्तर में पल्लवों और पश्चिम में केरलों के साथ संघर्ष हुआ। ये ही अनुश्रुतियों में वर्णित कूण पांड्य नाम का राजा था जिसने संत संबदर से प्रभावित होकर शैव सिद्धांत की दीक्षा ली और जैनियों को त्रस्त किया। कोच्चडैयन रणधीर (710 -730 ईस्वी ) ने  कोंगुदेश और मंगलपुरम् (मंगलोर) की भी विजय की। मारवर्मन राजसिंह प्रथम (730 -765 ) ने पल्लव नरेश नदिवर्मन् मल्लवमल्ल को कई युद्धों में पराजित किया, उसने कावेरी नदी पारकर मलकोंगम् की विजय की। पश्चिमी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय और उसके गंग सामंत श्रीपुरुष को उसने वेण्वै के प्रसिद्ध युद्ध में पराजित किया । परांतक नेडुंजडैयन् ने जो वरगुरम् महाराज प्रथम (765 -815 ईस्वी ) के नाम से प्रसिद्ध है, पांड्य साम्राज्य के विस्तार में सबसे अधिक योग दिया। उसने अपने राज्यकाल के प्ररंभिक वर्षों में ही पल्लवों को कावेरी के दक्षिणी तट पर पेंणागवम् नाम के स्थान पर पराजित किया , पश्चिमी कोंगु देश के शासक के समंत अदियैमान तथा पल्लव और केरल नरेशों की संगठित शक्ति को पराजित कर कोंगु देश को अपने अधिकार में कर लिया। विलियम् के सुदृढ़ दुर्ग को नष्ट कर उसने वेनाड (दक्षिणी त्रावणकोर) की विजय की। बीच के प्रदेश के आर्य सामंत को भी पराजित किया था। पांड्य सत्ता त्रिचनापली के अतिरिक्त तंजोर, सालेम, कोयंबत्तूर और दक्षिणी त्रावणकोर में भी फैल गई थी। उसने महादेव और विष्णु दोनों के ही मंदिरों का निर्माण कराया। संभवत: यही शैव संत मानिक्क वाचगर से संबधित वरगुण था। श्रीमार श्रीवल्लभ (815 -862 ईस्वी ) ने  लंका पर आक्रमण कर उसके उत्तरी भाग और राजधानी को लूटा।पल्लव नरेश नंदिवम्र् तृतीय ने श्रीमार की विकासवादी नीति के विरुद्ध गंग, चोल और राष्ट्रकूटों के साथ शक्तिशाली संघ बनाया। पांड्यों को पराजित कर पल्लव सेना उनके राज्य के अंदर घुस गई थी किंतु श्रीमार ने कुंबकोणम के समीप उन्हें पराजित किया लेकिन अंत में वह पल्लव नरेश नृपतुंग के हाथों अरिशिल के युद्ध में पराजित हुआ। इसी समय लंका के शासक सेन द्वितीय ने पांड्यों की राजधानी को लूटा। श्रीमार की मृत्यु युद्ध के घावों के कारण हुई। सिंहली सेनापति ने श्रीमार के प��त्र वरगुण वर्मन् द्वितीय (862 -880 ईस्वी ) को सिंहासन पर बैठाया। वरगुण वर्मन् ने पल्लवों की बढ़ती शक्ति को रोकने का प्रयत्न किया किंतु फिर पल्लव, चोल और गंग वंशों की संमिलित सेनाओं ने पांड्यों को श्रीयुरंबियम के युद्ध में पराजित किया। परांतक वीर नारायण (880 -900 ) के समय में चोल नरेश ने कोंगु देश को पांड्यों से छीन लिया। मारवर्मन राजसिंह द्वितीय (900 -920 ) को यद्यपि लंका की सहायता प्राप्त हुई फिर भी उसे चोल नरेश परांतक के हाथों पराजित होना पड़ा , उसने लंका और फिर केरल में शरण ली।
जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 11 फरवरी 2019        
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -16 
300 -700 ईस्वी के बीच का समय विंध्य से दक्षिण के प्रदेशो का दूसरा ऐतिहासिक चरण कहा जाता है | इस काल में यद्यपि प्रथम ऐतिहासिक चरण ( 200 ईस्वी पूर्व -300 ईस्वी ) वाली ही प्रक्रियाएं चली किन्तु कुछ ऐसे लक्षण भी दृष्टिगोचर हुए जो प्रथम  चरण में महत्वपूर्ण नहीं थे | प्रथम चरण में दकन पर सातवाहन तथा तमिल क्षेत्र पर तमिल राज्यों का ही प्रभाव था लेकिन दूसरे चरण में इससे बाहर के तमिलनाडु ,दक्षिणी कर्णाटक ,महाराष्ट्र ,विदर्भ तथा गोदावरी -महानदी के दोआब क्षेत्र में आधा दर्जन राज्य सामने आते है | इनमे एक था वाकाटक राज्य ,इस राजवंश का शासन मध्यप्रदेश के अधिक भूभाग तथा प्राचीन बरार (आंध्र प्रदेश) पर विस्तृत था | इसका प्रथम शासक विन्ध्यशक्ति था जिसका नाम वायुपुराण और अजंता लेख मे मिलता है। पौराणिक प्रमाणों के अनुसार विंध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति तीसरी सदी में उस समय बढ़ाई जब शक महाक्षत्रपों का पतन और विदिशा के नागवंश का उदय हो रहा था। यह भी सम्भव है कि विंध्यशक्ति ने विंध्य पार अपनी शक्ति का विस्तार सातवाहनों की क़ीमत पर किया हो। वाकाटक शासकों के अधिकतर लेख प्रमाणों एवं पुराणों के आधार पर यह कहा जाता है कि वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक चलता रहा। उसके पुत्र प्रवरसेन प्रथम के अभिलेखों पता चलता है कि उसने दक्षिण में राज्य विस्तार किया तथा इसके उपलक्ष में चार अश्वमेध यज्ञ कर सम्राट् की पदवी धारण की। चौथी सदी के मध्य में उसका पौत्र रुद्रसेन प्रथम राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, क्योंकि प्रवरसेन का ज्येष्ठ पुत्र गोतमीपुत्र पहले ही मर चुका था। इसके पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम ने कुंतल पर विजय कर दक्षिण भारत में वाकाटक वंश को शक्तिशाली बनाया। उसके महत्वपूर्ण स्थान के कारण ही गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपनी पुत्री का विवाह युवराज रुद्रसेन से करना पड़ा था। इस वैवाहिक संबंध के कारण गुप्त प्रभाव दक्षिण भारत में अत्यधिक हो गया। रुद्रसेन द्वितीय ने सिंहासनारूढ़ होने पर अपने श्वसुर का कठियावाड़ विजय के अभियान में साथ दिया था। रुद्रसेन द्वितीय की अकाल मृत्यु के कारण उसकी पत्नी प्रभावती अल्पव्यस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन करने लगी। चंद्रगुप्त ने भी पाटलिपुत्र से  कर्मचारी नियुक्त किए गए। यही कारण था कि प्रभावती के पूनाताम्रपत्र में गुप्तवंशावली भ उल्लिखित हुई है। कालांतर में युवराज दामोदरसेन  प्रवरसेन द्वितीय के नाम से सिंहासन पर बैठा, पाँचवी सदी के अंत में राजसत्ता वेणीमशाखा (सर्वसेन के वंशज) के शासक हरिषेण के हाथ में गई, जिसे अजंता लेख में कुंतल, अवंति, लाट, कोशल, कलिंग तथा आंध्र देशों का विजेता कहा गया है | इसके उत्तराधिकारियों की निर्बलता के कारण वाकाटक वंश का पतन हो गया। इस काल के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में वाकाटक राज्य वैभवशाली, सबल तथा गौरवपूर्ण रहा है। प्राकृत काव्यों में "सेतुबंध" तथा "हरिविजय काव्य" क्रमश: प्रवरसेन द्वितीय और सर्वसेन की रचना माने जाते हैं। वैसे प्राकृत काव्य तथा सुभाषित को "वैदर्भी शैली" का नाम दिया गया है। वाकाटकनरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे, इसीलिए अनेक यज्ञों का विवरण लेखों में मिलता है। कला के क्षेत्र में भी इसका कार्य प्रशंसनीय रहा है। अजंता की चित्रकला को वाकाटक काल में अधिक प्रोत्साहन मिला, जो संसार में अद्वितीय भित्तिचित्र माना गया है। नाचना का मंदिर भी इसी युग में निर्मित हुआ और उसी वास्तुकला का अनुकरण कर उदयगिरि ,देवगढ़ और अजंता में गुहानिर्माण हुआ था।                                         
 दूसरा कदम्ब राज्य दक्षिण भारत का एक ब्राह्मण राजवंश था , कदंब कुल का गोत्र मानव्य था और उक्त वंश के लोग अपनी उत्पत्ति हारीति से मानते थे। कदंब राज्य का संस्थापक मयूर शर्मन्‌ नाम का एक ब्राह्मण था जो विद्याध्ययन के लिए कांची में रहता था |  किसी पल्लव राज्यधिकारी द्वारा अपमानित होकर जिसने 345 ईस्वी में  प्रतिशोधस्वरूप कर्नाटक में एक छोटा सा राज्य स्थापित किया था। इस राज्य की राजधानी वैजयंती अथवा बनवासी थी। मयूर शर्मन्‌ के पुत्र कंग वर्मन्‌ ने वाकाटक नरेश विंध्यशक्ति द्वितीय (बासिम शाखा) के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया, तो भी उसके राज्य का कुछ क्षेत्र वाकाटकों के अधिकार में चला गया। इस कुल का अन्य शक्तिशाली राजा काकुस्थ वर्मन्‌ था जिसने इस वंश के यश तथा राज्यसीमा में पर्याप्त विस्तार किया। छठी सदी के प्रारम्भ में रवि वर्मन्‌ राजा हुआ जिसने अपनी राजधानी बनवासी से हटाकर पालाशिका में बनाई। रवि वर्मन्‌ को पल्लवों तथा गंगवंशियों से निरंतर युद्ध करना पड़ा। वातापि के चालुक्यों के उत्कर्ष का कदंब राज्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। चालुक्यराज पुलकेशिन्‌ प्रथम ने कदंबों से उत्तरी प्रांत छीन लिए और पुलकेशिन्‌ द्वितीय ने उनको सर्वथा शक्तिहीन कर डाला। उधर कदंब राज्य के दक्षिण में स्थित गंगराज्य के राजा ने भी अवसर देखकर पुराने वैर का बदला लेने के लिए, आक्रमण किया और कदंबों के दक्षिणी प्रांतों पर अधिकार कर लिया। फिर भी कदंब वंश का अंत ��� हुआ और 10वीं शती के अंतिम चरण में राष्ट्रकूटों के पतन के बाद उन्होंने एक बार पुन: सिर उठाया। 13वीं शती के अंत तक कदंबों की अनेक छोटी-छोटी शाखाएँ दक्कन और कोंकण में राज करती रहीं। धारवाड़ जिले में हंगल और गोआ उनके राज्य के प्रमुख केंद्र थे। इस प्रकार लगभग एक हजार वर्ष तक कदंब दक्षिण के विभिन्न स्थानों पर गिरते पड़ते शासन करते रहे हालाँकि उनका असाधारण उत्कर्ष कभी भी संभव न हो सका  |        
  तीसरा पल्लव राजवंश था ,पल्लवों की उत्पत्ति को लेकर कई मत है | कुछ विद्वान् पल्लवों की उत्तरी उत्पत्ति मानते हैं, जायसवाल के अनुसार पल्लव वाकाटकों की एक शाखा थे; ये उत्तर के कायस्थ थे जिन्होंने सैनिक वृत्ति अपना ली थी। पल्लव राजवंश के ऊपर उत्तरी भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की स्पष्ट छाप है। वे पहले प्राकृत और बाद में संस्कृत का उपयोग करने लगे थे तथा धर्ममहाराज और अश्वमेघयाजिन् जैसी उपाधियाँ धारण करते हैं। उनकी प्रारंभिक शासनव्यवस्था सातवाहन पद्धति और अंततोगत्वा अर्थशास्त्र में प्रतिपादित व्यवस्था से संबंधित है। पल्लवों को ब्राह्मण द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा से संबंधित करनेवाली अनुश्रुतियाँ तो है किंतु कदंबों के तालगुंड अभिलेख में पल्लवों को क्षत्रिय गुर्जर कहा गया है जिसका समर्थन ह्वेनसांग भी करता है। संभवत: वे प्रारंभ में सातवाहनों के सामंत थे जिन्होंने कांची प्रदेश नागों से लिया होगा। यह घटना दूसरी शताब्दी के मध्य के बाद की होगी जब टाल्मी के अनुसार यहाँ नागों का अधिकार था। पल्लवों का प्रारंभिक इतिहास क्रमबद्ध रूप से नहीं मिलता , इनमें सर्वप्रथम सिंहवर्मन का नाम मिलता है जिसका गुंटूर अभिलेख तीसरी शताब्दी के अंतिम चरण का है। शिवस्कंद्वर्मन जिसके अभिलेख मदिय्वेलु और हिरहड गल्लि से प्राप्त हुए हैं, चौथी शताब्दी के आरंभ में हुआ था और प्रारंभिक पल्लवों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है इसने अश्वमेध यज्ञ किया । इस समय पल्लवों का अधिकार कृष्णा नदी से दक्षिणी पेन्नार और बेल्लारी तक फैला हुआ था। उसके बाद स्कंदवर्मन् हुआ जिसके गुंटुर से प्राप्त ताम्रपट्ट ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है जिनमे युवराज बुद्धवर्मन् और उसके पुत्र बुद्ध्यंकुर का उल्लेख है। किंतु इसके बाद का इतिहास नहीं मिलता | समुद्रगुप्त द्वारा पराजित कांची के नरेश का नाम विष्णुगोप था। कांची के राजवंश की छिन्न-भिन्न शक्ति का लाभ उठाकर पल्लव साम्राज्य के उत्तरी भाग में नेल्लोर-गुंटुर क्षेत्र में एक सामंत पल्लव वंश ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। ताम्रपट्टों से ज्ञात इस वंश के शासकों को 375 से 575 ई. के बीच रखा जा सकता है।             कांची के मुख्य घराने के लिए सर्वप्रथम हम चेंडलूर ताम्रपट्ट से ज्ञात स्कंदवर्मन्, उसके पुत्र कुमारविष्णु प्रथम, पौत्र बुद्धवर्मन और प्रपौत्र कुमारविष्णु द्वितीय को रख सकते हैं। स्कंदवर्मन् संभवत: ब्रिटिश म्यूज़ियम के ताम्रपट्ट का स्कंदवर्मन् हो। इसके बाद उदयेदिरम् ताम्रपट्ट से स्कंदवर्मन् (द्वितीय), उसके पुत्र सिंहवर्मन्, पौत्र स्कंदवर्मन् तृतीय और प्रपौत्र नंदिवर्मन् (प्रथम) का ज्ञान होता है। पहले उल्लिखित पल्लवों के साथ इनका संबंध ज्ञात नहीं है। किंतु सिंहवर्मन् का राज्यकाल 436 से 458 ई. तक अवश्य रहा। सिंहवर्मन् और उसके पुत्र स्कंदवर्मन् (तृतीय) का उल्लेख उनके सामंत गंग लोगों के अभिलेखों में भी आता है। छठी शताब्दी के प्रारंभ में शांतिवर्मन् का नाम ज्ञात होता है। संभवत: यही चंडदंड के नाम से भी प्रसिद्ध था और कदंब रविवर्मन् के द्वारा मारा गया था। सिंघवर्मन द्वितीय से पल्लवों का राज्यक्रम सुनिश्चित हो जाता है। उसके पुत्र सिंहविष्णु(575 -600 ई ) ने कलभ्रों द्वारा तमिल प्रदेश में उत्पन्न राजनीतिक अव्यवस्था का अंत किया और चोल मंडलम् पर पल्लवों का अधिकार स्थापित किया। यह विष्णुका उपासक था उसने संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भारवि को प्रश्रय दिया था। महाबलीपुरम की वराह गुहा में उसकी और उसकी दो रानियों की मूर्तियाँ प्रस्तर पर उभारी गई है।सिंहविष्णु के पुत्र महेन्द्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) की बहुमुखी प्रतिभा युद्ध और शांति दोनों ही क्षेत्रों में विकसित हुई जिसके चलते उसे इस वंश का सर्वोच्च शासक कहा गया । इसी समय पल्लवों और चालुक्यों का संघर्ष शुरू हुआ, पुल्ललूर के युद्ध में महेंद्रवर्मन् ने चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय को पराजित किया और साम्राज्य के कुछ उत्तरी भागों का छोड़कर शेष सभी की पुनर्विजय कर ली।चट्टानों को काटकर बनवाए गए इसके मदिरों में से कुछ त्रिचिनापली, महेंद्रवाडि और डलवानूर में उदाहरण रूप में अवशिष्ट हैं। उसने महेंद्रवाडि में महेंद्र-तटाक नाम के जलाशय का निर्माण किया। उसे चित्रकला में भी रुचि थी एवं वह कुशल संगीतज्ञ के रूप में भी प्रसिद्ध था उसने मत्तविलास प्रहसन की रचना की थी। प्रारंभ में वह जैन मतावलंबी था किंतु अप्पर के प्रभाव से उसने शैव धर्म स्वीकार कर लिया फिर भी उसने विष्णु की पूजा को प्रोत्साहन दिया किंतु जैनियों के प्रति वह असहिष्णु बना रहा। महेंद्रवर्मन् के पुत्र नरसिंघवर्मन (630-668) के समय पल्लव दक्षिणी भारत की प्रमुख शक्ति बन गए। उसने चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय के तीन आक्रमणों का विफल कर दिया। इन विजयों से उत्साहित हाकर उसने अपनी सेना चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण के लिए भेजी जिसने 642 ई. में चालुक्यों की राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष में उसने वातापिकोंड की उपाधि धारण की। युद्ध में पुलकेशिन् की मृत्यु के कारण चालुक्य साम्राज्य अव्यवस्थित रहा। फलस्वरूप चालुक्य साम्राज्य के दक्षिणी भाग पर पल्लवों का अधिकार बना रहा। पुलकेशिन् के पुत्र विक्रमादित्य ने 655 में पल्लवों को वातापी छोड़ने पर विवश किया। नरसिंहवर्मन् ने लंका के राजकुमार मानवर्मा की सहायता के लिए दो बार लंका पर आक्रमण किया और अंत में उसे लंका के सिंहासन पर फिर से अधिकार दिलाया। उसके लिए यह भी कहा जाता है कि उसने चोल, चेर, कलभ्र और पांडवों का भी पराजित किया था। उसने महाबलिपुरम् में एक ही प्रस्तरखंड से बने कुछ मंदिरों या रथों का निर्माण कराया। नरसिंहवर्मन् के पुत्र महेन्द्रवर्मन द्वितीय का राज्यकाल दो वर्ष (668-670) का ही था जिसमें उसे चालुक्य विक्रमादित्य के हाथों पराजित होना पड़ा।इसके बाद परमेश्वरवर्मन प्रथम (670 -695 ),नर्सिंग द्वितीय राजसिंघ (695 -722 ),परमेश्वरवर्मन द्वितीय (722 -730 ),नंदिवर्मन द्वितीय (730 -800 ),दन्तिवर्मन (796 -847 ) ,नंदिवर्मन तृतीय (847 -872 ),नृपतुंगवर्मन (872 -913 ) ने शासन किया | इसका पुत्र अपराजित पल्लव वंश का अंतिम शासक था जिसे पल्लवों के सामंत आदित्य प्रथम ने पराजित कर पल्लव साम्राज्य को चोल साम्राज्य में मिला दिया |           
 दक्षिण का चौथा साम्राज्य गंगवंशियो का था जो पश्चिमी गंगवंशी कहे जाते थे इनका राज्य 350 -1000 ईस्वी तक कायम रहा | यह वंश नागार्जुनी कोंड के इक्ष्वाशु वंश की शाखा थी जिसने समुद्रगुप्त के दक्षिण अभियान काल में राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित कर लिया था। ये लोग काण्वायन गोत्र के थे और इनकी भूमि गंगवाडी कही गई है। इस वंश का संस्थापक कोंगुनिवर्मन अथवा माधव प्रथम था जिसका शासन 350 -400 ई. के बीच रहा इसकी राजधानी कोलार थी। उसके पश्चात माधव द्वितीय (400 -435 ) शासक हुआ जो नीतिशास्त्र और उपनिषद का विद्वान् था उसने वात्स्यायन के पूर्ववर्ती दत्तक के वेश्यासूत्र पर एक वृत्ति तैयार की थी। हरिवर्मन (450 -460 ई ) के समय गंगावाड़ी की राजधानी शिवसमुद्रम के निकट कावेरी तट पर तलवनपुर बनी। उसका उत्तराधिकारी माधव तृतीय (460 -500  ई.) दबंग शासक था उसने एक कदंब राजकुमारी से विवाह किया था। उसके बाद अविनीत (500 -540  ई.) तथा दुर्विनीत (540 -600 ई ) शासक हुआ जिसने  पुन्नाड़ (दक्षिण मैसूर) और कोगु देश विजित किए, चालुक्यों से मैत्री की और पल्लवों से शत्रुता निभाई। उसने कांची के काडुवट्टि को पराजित किया वह कन्नड़ और संस्कृत का प्रख्यात विद्वान हुआ। वह जैन वैयाकरण पूज्य पाद का शिष्य था और उसने शब्दावतार नामक ग्रंथ की रचना की तथा प्राकृत बृहद्कथा का संस्कृत में अनुवाद किया था|  भारवि के किरातार्जुनीय के 15 वे सर्ग के टीकाकार के रूप में भी उसकी ख्याति है। सातवीं शती में इस वंश में मुष्कर, श्रीविक्रम, भूविक्रम और शिवमार (प्रथम) शासक हुए। वे लोग निरंतर पल्लवों से लड़ते रहे। शिवमार प्रथम (670 -713 ई .) दुर्विनीत का प्रपौत्र था उसके बाद उसका पौत्र श्रीपुरुष राज्य का अधिकारी हुआ। कुछ दिनों तक उसने उपराज का भार संभाला था अपने उपराज काल में उसने बाण नरेश जगदेकमल को परास्त किया था। उसका राज्य 'श्रीराज्य' कहा जाने लगा था इससे आकृष्ट होकर राष्ट्रकूटों ने गंगवाड़ी पर आक्रमण करना आरंभ किया। राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम ने 768  ई. में उस पर आक्रमण किया और अधिकार करने में सफल रहा। श्रीपुरुष के पश्चात् उसका पुत्र शिवमार द्वितीय  (788 -812  ई.) राज्याधिकारी बना। राष्ट्रकूट ध्रुव ने गंगवाड़ी पर आक्रमण कर उसे कैद कर लिया और अपने पुत्र स्तंभ को गंगवाड़ी का उपराज बना दिया। जब राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय का अपने बड़े भाई स्तंभ के साथ राज्याधिकार के प्रश्न पर झगड़ा उठ खड़ा हुआ तब गोविंद ने उसे रिहा कर दिया किंतु रिहा होने पर शिवमार ने स्तंभ का पक्ष लिया जिसपर उसे फिर कैद कर लिया गया। बाद में इस आशा से राष्ट्रकूट नरेश ने उसे छोड़ दिया कि कदाचित उससे उन्हें पूर्वी चालुक्यों के विरुद्ध सहायता मिल सके। शिवमार विद्वान था, उसने तर्क , दर्शन , नाटक , व्याकरण आदि का अध्ययन किया था उसने कन्नड़ में गजशतक की रचना की थी। शिवमार द्वितीय के पश्चात् उसका भतीजा (विजयादित्य का पुत्र) राजमल्ल द्वितीय (813 -853  ई.) मूल वंशक्रम में शासक हुआ। उसके शासन काल में राष्ट्रकूट अमोघवर्ष प्रथम को अपने प्रयासों में सफलता न मिली और शिवमार अपने राज्य को अक्षुण रखने में सफल रहा।राजमल्ल प्रथम के बाद उसका पुत्र नीतिमार्ग प्रथम  (853 -870  ई.) गंगवाड़ी का अधिकारी हुआ और उसने वाणों और राष्ट्रकूटों को पराजित किया। फलस्वरूप अमोघवर्ष प्रथम को अपनी बेटी चंद्रोबेलब्बा का विवाह नीतिमार्ग प्रथम के बेटे बुतुग प्रथम से करना पड़ा। बुतुग प्रथम और उसके छोटे भाई राजमल्ल द्वितीय (870 -907  ई.) ने पूर्वी चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध किया। पांड्यों के विरुद्ध पल्लवों की सहायता की। बुतुग प्रथम के असमय मर जाने के कारण उसका पुत्र नीतिमार्ग द्वितीय, राजमल्ल द्वितीय के बाद गद्दी पर बैठा। नीतिमल्ल द्वितीय ने गंगवाड़ी में अपनी स्थिति सुदृढ़ की। किंतु उसका शासनकाल अत्यंत संक्षिप्त था। उसके बाद उसका बेटा राजमल्ल तृतीय राजा हुआ पर उसके भाई बूतुग द्वितीय ने उसे 937 ई. में मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा। बूतुक द्वितीय से राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की बहन रेवका ब्याही गई थी। बुतुक ने तक्कोलम के युद्धक्षेत्र में राजादित्य को मार डाला। फलस्वरूप कृष्ण ने पुरस्कारस्वरूप उसे बनवासी का प्रांत प्रदान किया। इस प्रकार बीस बरसों तक बूतुक राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत के रूप में सुव्यवस्थित शासन करता रहा। बूतुर्क के बाद उसके पुत्र मारसिंह तृतीय ने गंग राष्ट्रकूट मैत्री संबंध को बनाए रखा और गुजरात तथा मालवा के अभियान में कृष्ण तृतीय की सहायता की तथा नोलंबों की राजधानी उच्चंगी पर अधिकार कर लिया और नोलंब-कुलांतक की उपाधि धारण की। जैन होने के कारण उसने सल्लेखना कर अपनी जीवनलीला समाप्त की। बूतुक के बाद राजमल्ल चतुर्थ और उसके भाई रक्कस क्रमश: राजा हुए। रक्कस के समय 1004  ई. में चोलो ने तलकाड पर अधिकार कर लिया और गंगवंश का अंत हो गया | 
जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 10 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -15
सीर नदी की घाटी से शकों को निकालकर युइशि जाति के लोग वहाँ पर आबाद हो गए थे पर वे यहाँ भी अधिक समय तक नहीं टिक सके, हूणों ने यहाँ पर भी उनका पीछा किया जिससे मजबूर होकर उन्होंने शको के पीछे बैक्ट्रिया में प्रवेश किया और बैक्ट्रिया तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर क़ब्ज़ा कर पहली सदी में अपने पाँच राज्य क़ायम किए। चीनी ऐतिहासिक के अनुसार ये पांच राज्य हिउ-मी, शुआंग-मी, कुएई-शुआंग, ही-तू और काओ-फ़ू थे पर इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया के यूनानियों के सम्पर्क में आकर युइशि लोगो ने विकास किया और अंततः तक़लामक़ान की मरुभूमि में अपना स्थायी आवास स्थापित किया | 25 ई. पू. के लगभग कुएई-शुआंग राज्य का शासन 'कुषाण' नाम के राजा के पास आया जिसने धीरे-धीरे अन्य युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। वह केवल युइशि राज्यों को जीतकर ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने समीप के पार्थियन और शक राज्यों पर भी आक्रमण किए। अनेक इतिहासकारों का मत है कि कुषाण किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था अपितु  यह नाम युइशि जाति की उस शाखा का था, जिसने अन्य चारों युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। जिस राजा ने पाँचों युइशि राज्यों को मिलाकर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया उसका नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था। राजा कुषाण के वंशज होने के कारण या युइशि जाति की कुषाण शाखा में उत्पन्न होने के कारण ये राजा कुषाण कहलाते थे इसे लेकर मतभेद है लेकिन इन्हीं के द्वारा स्थापित साम्राज्य को कुषाण साम्राज्य कहा जाता है। प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय महत्व रखता था । इसके पूर्��� में चीन पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था तथा रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी, रोमन एक ऐसा मार्ग चाहते थे जिससे वे बिना पार्थिया से गुजरे चीन से व्यापार कर सके इसलिए वे क��षाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे। विख्यात सिल्क मार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं केस्पियन सागर से होकर जाने वाले मार्ग ,मर्व से फ़रात (यूक्रेट्स) नदी होते हुए रूमसागर पर बने बंदरगाह तक जाने वाले मार्ग और भारत से लाल सागर तक जाने वाले मार्ग पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था |  प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' नामक पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक में रोमन साम्राज्य को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में कालीमिर्च , अदरक, रेशम, मलमल, सूती वस्त्र, रत्न , मोती आदि का तथा आयात की जाने वस्तुओ में मूंगा, लोशन, कांच, चांदी , सोने के बर्तन , रांगा, सीसा, तिप्तीया घास आदि का उल्लेख किया गया है | ये व्यापार मुख्यतः सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित बन्दरगाह 'बारवैरिकम' और भड़ोच से होता था।
            प्रसिद्द कुषाण शासक कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए काफ़ी काम किया। कनिष्क के समय में ही कश्मीर के कुण्डल वन में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन किया गया इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष कनिष्क का राजकवि अश्वघोष था इसमें नागार्जुन भी शामिल हुए थे |  इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको 'महाविभाषा' नाम की पुस्तक में संकलित किया गया ,इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का 'विश्वकोष' भी कहा जाता है , संगीति के निर्णयों को ताम्रपत्र पर लिखकर पत्थर की मंजूषाओं में रखकर स्तूप में स्थापित कर दिया गया। कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति साहिष्णु था उसके सिक्कों पर पार्थियन, यूनानी एवं भारतीय देवी देवताओ की आकृतियाँ मिली हैं। कनिष्क के सिक्कों पर ग्रीक भाषा में 'हिरैक्लीज', 'सिरापीज', हेलिओस और सेलिनी, मीइरो (सूर्य), अर्थों (अग्नि ), ननाइया, शिव आदि के नाम मिले है । सिक्कों पर बुद्ध तथा भारतीय देवी देवताओं की आकृतियाँ यूनानी शैली में उकेरी गई हैं। कुषाण वंश के शासकों में कडफ़ाइसिस -शैव , कनिष्क- बौद्ध , हुविष्क और वासुदेव वैष्णव धर्म के अनुयायी थे | मथुरा से कनिष्क की एक ऐसी मूर्ति मिली है, जिसमें उसे सैनिक वेषभूषा में दिखाया गया है। कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी एवं ईरानी भाषा में मिले हैं। कनिष्क के ताम्बे के सिक्कों पर उसे 'बलिवेदी' पर बलिदान करते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के सोने के सिक्के रोम के सिक्कों से काफ़ी कुछ मिलते थे। बुद्ध के अवशेषों पर कनिष्क ने पेशावर के निकट एक स्तूप  एवं मठ निर्माण करावाया। कनिष्क कला और विद्वता का आश्रयदाता था उसके दरबार का सबसे महान् साहित्यिक व्यक्ति अश्वघोष था जिसकी रचनाओं की तुलना महान् मिल्टन, गेटे, काण्ट एवं वॉल्टेयर से की गई है। अश्वघोष ने 'बुद्धचरित्र' तथा 'सौन्दरनन्द', शारिपुत्रकरण एवं सूत्रालंकार की रचना की। इसमें बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द को महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त है। सौन्दरनन्द में बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दरनन्द के सन्न्यास ग्रहण करने का वर्णन है। अश्वघोष का ग्रंथ 'सरिपुत्रप्रकरण' नौ अंको का एक नाटक ग्रंथ है, जिसमें बुद्ध के शिष्य 'शरिपुत्र' के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय उल्लेख है इस ग्रंथ की तुलना वाल्मीकि की रामायण से की जाती है। कनिष्क के दरबार की ही एक अन्य विभूति नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी था। इसे भारत का 'आईन्सटाइन' कहा गया है  नागार्जुन ने अपनी पुस्तक 'माध्यमिक सूत्र' में सापेक्षता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। वसुमित्र ने चौथी बौद्ध संगीति में 'बौद्ध धर्म के विश्वकोष' 'महाविभाष्ज्ञसूत्र' की रचना की। इस ग्रंथ को 'बौद्ध धर्म का विश्वकोष'कहा जाता है। कनिष्क के राजवैद्य और रत्न चिकित्सक चरक ने औषधि पर 'चरकसंहिता' की रचना की |  अन्य विद्धानों में पार्श्व, वसुमित्र, मतृवेट, संघरक्षक आदि के नाम उल्लेखनीय है इसके संघरस कनिष्क के पुरोहित थे , वसुमित्र ने विभाषा शास्त्र की रचना की थी। कुषाणों ने भारत में बसकर यहाँ की संस्कृति को आत्मसात् किया इनकी संस्कृति यूनानी संस्कृति से प्रभावित थी। कुषाण शासकों ने 'देवपुत्र' उपाधि धारण की। कनिष्क के समय में ही 'वात्सायन का कामसूत्र', भारवि की स्वप्नवासवदत्ता की रचना हुई। 'स्वप्नवासवदत्ता' को संभवतः भारत का प्रथम सम्पूर्ण नाटक माना गया है।
                    चौथी सदी से सातवीं सदी के मध्य उड़ीसा ,मध्यप्रदेश ,पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी बंगाल तथा असम में उन्नत कृषि व्यवस्था का प्रसार हुआ | उत्पादन बढ़ने के साथ इन क्षेत्रो में व्यापार ,शिल्प और विभिन्न कलाओ का विकास हुआ जिनके चलते नए राज्य तंत्रो का विकास संभव हुआ | इस समय उड़ीसा में कई राज्य स्थापित होते है जिनमे पांच की पहचान स्पष्ट रूप से होती है और इनमे माठर वंश का राज्य प्रमुख है ये पितृभक्त वंश भी कहलाता था जिसका साम्राज्य महानदी और कृष्णा नदी के बीच फैला था | माठरों ने महेंद्र पर्वत क्षेत्र में महेन्द्रभोग नाम का नया जिला बनाया साथ ही अग्रहार नाम के न्यास बनाये जिन्हे कुछ भूमि दी गयी जिसकी आय से पठन पाठन और धार्मिक कार्यो में लगे ब्राह्मण वर्ग का भरण पोषण होता था | ये लोग मौसम की अच्छी जानकारी रखते थे और उसका उपयोग कृषि में करते थे ,इन लोगो ने वर्ष को 4 -4 महीनो के तीन भागों में बांटा और काल की गणना तीन ऋतुओ के आधार पर करना शुरू किया |  माठरों के अमल में पांचवी सदी के मध्य में वर्ष को बारह चंद्र मॉस में विभाजित करने की परंपरा चली |  ईसा की चौथी सदी तक इस क्षेत्र में प्राकृत भाषा के अभिलेख मिलते है लेकिन इसी के साथ 350 ईस्वी के आसपास संस्कृत के प्रयोग के भी प्रमाण मिलते है |  इस काल के अभिलेखों में उत्कृष्ट संस्कृत के श्लोक मिलते है जो शासन पत्रों और सामाजिक नियमो को दर्शाने वाले अभिलेखों में वर्णित है , शासनपत्रो में राजा द्वारा स्वयं को वर्ण व्यवस्था का रक्षक तथा प्रयाग स्थित गंगा यमुना संगम में स्नान को पवित्र कहा गया था | दक्षिण कलिंग में आंध्र की सीमाओं पर वशिष्ठ वंश ,महाकांतर के वन्यप्रदेश में नलवंश ,महानदी के पार उत्तर और समुद्रवर्ती क्षेत्र में मानवंश के शासको के राज्य थे , ये सभी राज्य वैदिक और आर्य संस्कृति के पोषक थे और अपने शासन की वैधता को स्थापित करने के लिए वैदिक यज्ञ किया करते थे | नल वंश की स्थापना 290 ईस्वी में वराहराज (शिशुक ) ने की ,ये वंश वाकाटक राज्य का समकालीन था और वाकाटकों से संघर्ष करता रहा था | नलवंश के शासको ने पुष्करी ,कोरापुट और बस्तर में अपनी राजधानी बनायीं , बस्तर के जनजातीय क्षेत्रो एड़ेंगा और कुलिया से मिली नलवंश की स्वर्ण मुद्राओं से एक विकसित अर्थव्यवस्था की जानकारी मिलती है| इस वंश के शासक भवदत्त वर्मा का अमरावती से ताम्रपत्र तथा पोड़ागढ़ से शिलालेख ,अर्थपति का केशरीबेड़ से ताम्रपत्र तथा पंडियापाथर से लेख और विलासतुंग का राजिम से शिलालेख प्राप्त हुआ है | इसी तरह मानवंश द्वारा जारी किये गए ताम्बे के सिक्के बताते है कि किसान और शिल्पियों के बीच इन सिक्को का प्रचलन था |                       
उत्तरी बंगाल के कई हिस्सों जहाँ वर्तमान बोगरा जिला स्थित है में अशोक के काल से ही लेखन प्रचलित होने के प्रमाण मिलते है , इस क्षेत्र के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और प्राकृत जान��े थे ,बौद्ध भिक्षुओ के भरण पोषण के लिए सिक्को और अनाज के भंडार थे  |  दक्षिण पूर्व बंगाल के समुद्रवर्ती नोआखली जिले में मिले अभिलेख से पुष्टि होती है कि ये लोग ईसा पूर्व दूसरी सदी में प्राकृत और ब्राह्मी लिपि जानते थे , दक्षिण पूर्व बंगाल में खरोष्ठी लिपि के प्रचलित होने का भी आभास मिलता है |  बंगाल के बारे में स्पष्ट जानकारी ईसा के बाद की चौथी सदी में जाकर मिलती है , सदी के मध्य में महाराज उपाधिधारक एक राजा का जिक्र बांकुरा जिले के दामोदर तटवर्ती पोखरणा के शासक बतौर मिलता है जो संस्कृत जानता था और विष्णु का उपासक था | गंगा और ब्रह्मपुत्र के बीच का प्रदेश जो अब बांग्लादेश का भाग है पांचवी सदी में भरा पूरा था और यहाँ संस्कृत शिक्षा प्रचलित थी |  550 ईस्वी के बाद गुप्त शासन के स्वतंत्र हुए गवर्नरों द्वारा उत्तरी बंगाल पर कब्ज़ा करने के संकेत मिलते है , इसके कुछ भाग को कामरूप के राजाओ ने भी हथियाया | 432 -33 ईस्वी से अगले 100 वर्षो तक पुण्ड्रवर्धनभुक्ति (समूचा उत्तरी बंगाल और बांग्लादेश का भाग ) में भूमि व्यवहारों के बड़ी संख्या में ताम्रपत्र मिलते है जिसमे भूमि के मूल्य के रूप में दीनार नामक स्वर्णमुद्रा का जिक्र है |  गुप्त साम्राज्य के दौरान नियुक्त गवर्नरों द्वारा स्थापित व्यवस्था के तहत इन ताम्रपत्रों पर लिपिकारों ,वणिको ,शिल्पियों और भू स्वामियों के नाम मिलते है | 600 ईस्वी में आकर यह गौड़ प्रदेश कहलाया ,इसे गोड़ नाम मिलने के पीछे दो धारणाये प्रचलित है | प्रथम के अनुसार यहाँ से गुड़ का व्यापार होने के कारण तथा दूसरे गोड़ शासको के कारण | गोड़ वंश को क्षत्रिय राजवंश कहा जाता है और पौराणिक सूत्रों के अनुसार ये भरत के वंशज थे | कहा जाता है कि जब राम अयोध्या के राजा बने तब भरत को गांधार का राजा बनाया गया था | भरत के पुत्र तक्ष द्वारा तक्षशिला तथा पुष्कल द्वारा पुष्कलावती (पेशावर ) नगर बसाये गए थे , बाद में इनके वंशजो ने बंगाल तक साम्राज्य विस्तार किया | 553 ईस्वी के हराहा अभिलेख में ईश्वरवर्मन मौखरि की गोड़ प्रदेश पर विजय का उल्लेख मिलता है |  बाणभट्ट ने गोड़ नरेश शशांक का वर्णन किया है जिसकी राजधानी कर्णसुवर्ण (वर्तमान मुर्शिदाबाद जिले का रांगामाटी क़स्बा ) थी | शशांक का राज्य पश्चिम में मगध तथा दक्षिण में उड़ीसा की चिल्का झील तक था | शशांक ने ही थानेश्वर के शासक और हर्षवर्धन के भाई राज्य वर्धन की हत्या की थी जो दोनों के बीच शत्रुता का कारण  था | दक्षिण पूर्व बंगाल का ब्रह्मपुत्र द्वारा गठित त्रिभुजाकार क्षेत्र समतट कहलाता था जिसे चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने जीता था , लेकिन यहाँ न तो वर्णव्यवस्था का प्रचलन मिलता है और न ही उत्तरी बंगाल की तरह संस्कृत का प्रयोग ,जिससे पता चलता है कि यहाँ के शासक बाह्मण धर्मावलम्बी नहीं थे | लगभग 525 ईस्वी में यहाँ एक सुसंगठित राज्य रहा जिसमे समतट के साथ इसकी पश्चिमी सीमा से सटा वंग का भाग भी शामिल था ,ये समतट या वंग राज्य कहलाया ,इसके शासक सम हरदेव का वर्णन मिलता है जिसने छठी सदी के उत्तरार्ध में स्वर्ण मुद्राये जारी की थी |  इसके अतिरिक्त सातवीं सदी में ढाका क्षेत्र में खड्ग वंश का साम्राज्य मिलता है , यहाँ दो राज्य थे ,लोकनाथ नामक ब्राह्मण सामंत का राज्य और राट वंश का राज्य ,ये दोनों कुमिल्ला क्षेत्र में पड़ते थे |  इस अवधि में जो भी राज्य स्थापित हुए उन्होंने उड़ीसा की तरह अग्रहारों की स्थापना की और बड़ी संख्या में अनुदानपत्र जारी किये ये सस्कृत भाषा में थे | बंगाल और उड़ीसा के बीच के क्षेत्र में राजस्व और प्रशासनिक इकाई दंडभुक्ति बनाई गयी , वर्धमानभुक्ति (बर्दवान ) में भी यही व्यवस्था थी |  राजकाज की भाषा संस्कृत रही, इस काल में ब्राह्मणवाद फैला साथ ही बौद्ध धर्म भी बंगाल के नए क्षेत्रो में पहुंचा |                      
  गुवाहाटी के पास अम्बारी में हुए उत्खननों से  यहाँ चौथी सदी में ही बस्तियां होने के प्रमाण मिलते है जो छठी सातवीं सदी तक विकसित रूप ले चुकी थी | कामरूप के राजाओ ने वर्मन की उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता है कवच या जिरह -बख्तर ये योद्धा होने का प्रतीक है |  इसे मनु ने क्षत्रियों के लिए निर्धारित किया था , सातवीं सदी में भास्करवर्मन ऐसे राज्य के प्रधान के रूप में सामने आया जिसका नियंत्रण ब्रह्मपुत्र मैदान के बड़े भाग के साथ उसके आगे के क्षेत्रो पर भी था , यहाँ बौद्ध धर्म के पैर जमे थे और चीनी यात्री हुआन सांग भी इस क्षेत्र में घूमा था|  कुल मिलाकर देखे तो चौथी से सातवीं सदी के बीच इस क्षेत्र में संस्कृत ,वैदिक कर्मकांड ,वर्णव्यवस्था और राज्यतंत्रो का विकास हुआ |  गुप्त साम्राज्य से सांस्कृतिक सम्बन्धो के चलते पूर्वांचल में सभ्यता विकसित हुई वही  बौद्ध धर्म के साथ वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के रूप में ब्राह्मण धर्म की भी प्रगति हुई | 
 जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 10 फरवरी 2019  
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -14
बैक्ट्रिया के यूनानी राज्य का अन्त शक जाति के आक्रमण द्वारा हुआ जो सीर नदी की घाटी में रहते थे , दूसरी सदी ई. पू. में उन पर उत्तर-पूर्व की ओर से 'युइशि जाति' ने आक्रमण किया जो तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकला-मकान की मरुभूमि के सीमान्त पर निवास करते थे , ये वीर और योद्धा जाति थी जिन्हे हूणों के आक्रमण के कारण अपने निवास को छोड़कर आगे बढ़ना पड़ा था | इस काल में हूण जाति उत्तरी चीन में निवास करती थी, और चीन के सभ्य राज्यों पर आक्रमण करती रहती थी। इन के हमलों से अपने देश की रक्षा करने के लिए चीन के सम्राट शी-हुआँग-ती (246-210 ई. पू.) ने उस विशाल दीवार का निर्माण कराया था, जो अब तक भी उत्तरी चीन में विद्यमान है। इस दीवार के कारण हूण लोगों के लिए चीन पर आक्रमण करना सम्भव नहीं रहा, और उन्होंने पश्चिम की ओर बढ़ना शुरू किया। हूण लोग असभ्य और बर्बर थे, और लूट-मार के द्वारा ही अपना निर्वाह करते थे।  हूणों ने युइशिय���ं को धकेला, और युइशियों ने शकों को। हूणों की बाढ़ ने युइशि जाति के प्रदेश को आक्रांत कर दिया, और शकों के प्रदेश पर युइशि छा गए। यही समय था जब शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया और वहाँ के यवन राजा हेलिओक्लीज़ को परास्त किया। शक लोगों की जिस शाखा ने बैक्ट्रिया पर विजय की थी, वह हिन्दुकुश पर्वत को पार कर भारत में प्रविष्ट नहीं हुई। इसीलिए हेलिओक्लीज़ का शासन उत्तर-पश्चिमी भारत में क़ायम रहा।बैक्ट्रिया को जीत कर शक लोग दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़े , वंक्षु नदी के पार उस समय पार्थिया का राज्य था।128 ई. पू. के लगभग पार्थियन राजा फ़्रावत द्वितीय ने शकों की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न किया पर वह सफल नहीं हो सका। शकों के साथ युद्ध करते हुए उसकी मृत्यु हुई। उसके उत्तराधिकारी आर्तेबानस के समय में शक लोग पार्थियन राज्य में घुस गए और उसे उन्होंने बुरी तरह से लूटा। आर्तेबानस भी शकों से लड़ते हुए मारा गया, आर्तेबानस के बाद मिथिदातस द्वितीय (123-88 ई. पू.) पार्थिया का राजा बना , उसने शकों के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने के लिए घोर प्रयत्न किया और उसे इस काम में सफलता भी प्राप्त हुई। मिथिदातस की शक्ति से विवश होकर शकों का प्रवाह पश्चिम की तरफ़ से हटकर दक्षिण-पूर्व की ओर हो गया और उन्होंने123 ई. पू. के लगभग भारत पर आक्रमण किया।
सिंधु नदी के तट पर स��थित मीननगर को शको ने अपनी राजधानी बनाया ये भारत का यह पहला शक राज्य था यहीं से उन्होंने भारत के अन्य प्रदेशों में अपना प्रसार किया। एक जैन अनुश्रुति के अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय आचार्य कालक को है यह जैन आचार्य उज्जैन के निवासी थे जो वहाँ के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से तंग आकर सुदूर पश्चिम के पार्थियन राज्य में चले गए थे। जब पार्थिया के राजा मिथिदातस द्वितीय की शक्ति के कारण शक लोग परेशानी का अनुभव कर रहे थे, तो कालकाचार्य ने उन्हें भारत आने के लिए प्रेरित किया । कालक के साथ शक लोग सिन्ध में प्रविष्ट हुए, और वहाँ पर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने सौराष्ट्र को जीतकर उज्जैन पर भी आक्रमण किया, और वहाँ के राजा गर्दभिल्ल को परास्त किया। यद्यपि शकों की मुख्य राजधानी मीननगर थी, पर भारत के विविध प्रदेशों में उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए, जो सम्भवतः मीननगर के शकराज की अधीनता स्वीकार करते थे।  मीननगर के शक महाराज की अधीनता में जो सबसे अधिक शक्तिशाली शक क्षत्रप थे उनका शासन काठियावाड़, गुजरात ,कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मालवा पर था | ये क्षहरात कहलाते थे जिनकी राजधानी सौराष्ट्र के भरुकच्छ में थी , पर इनके बहुत से उत्कीर्ण लेख महाराष्ट्र में भी मिले हैं | इस कुल का पहला क्षत्रप भूमक था जिसके अनेक सिक्के महाराष्ट्र और काठियावाड़ से मिले हैं। क्षहरात कुल का सबसे प्रसिद्ध क्षत्रप नहपान था ,इसके सात उत्कीर्ण लेख और हज़ारों सिक्के उपलब्ध हुए हैं। सम्भवतः यह भूमक का ही उत्तराधिकारी था, पर इसका भूमक के साथ क्या सम्बन्ध था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। नहपान का राज्य बहुत ही विस्तृत था। यह बात उसके जामाता उषावदात के एक लेख से ज्ञात होती है | नासिक के पास एक गुहा की दीवार पर उत्कीर्ण लेख में उषावदात ने लिखा  कि "मैं पोक्षर को गया हूँ, और वहाँ पर मैंने अभिषेक (स्नान) किया, तीन हज़ार गौएँ और गाँव दिया।" नासिक गुहा के इन लेखों से क्षत्रप नहपान के राज्य की सीमा के सम्बन्ध में अच्छे निर्देश प्राप्त होते हैं। उषावदात ने पोक्षर (पुष्कर) में अभिषेक स्नान किया था। अतः सम्भवतः अजमेर के समीपवर्ती प्रदेश नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। इस लेख में उल्लिखित प्रभास (सोमनाथ पाटन) सौराष्ट्र (काठियावाड़) में है, भरुकच्छ की स्थिति भी इसी प्रदेश में है। गोवर्धन नासिक का नाम है , शोर्पारण (सोपारा) कोंकण में है। इस प्रकार इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि काठियावाड़, महाराष्ट्र और कोंकण अवश्य ही क्षत्रप नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। नासिक के लेख में जिन नदियों का उल्लेख है, उनका सम्बन्ध गुजरात में है , अतः इस प्रदेश को भी नहपान के राज्य के अंतर्गत माना जाता है।नासिक के इस गुहालेख के समीप ही उषावदात का एक अन्य लेख भी उपलब्ध हुआ है जिसमें दाहूनक नगर और कंकापुर के साथ उजेनि (उज्जैन) का भी उल्लेख है। इन नगरों में भी उषावदात ने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान-पुण्य किया था , इससे उज्जैन के नहपान के अंतर्गत होने की पुष्टि होती है । ये बात जैन और पौराणिक अनुश्रुतियों द्वारा भी पुष्ट होती है , जैन अनुश्रुति में उज्जयिनी के राजाओं का उल्लेख करते हुए गर्दभिल्ल के बाद नहवाण नाम दिया गया है , इसी प्रकार पुराणों में अन्तिम शुंग राजाओं के समकालीन विदिशा के राजा को नख़वानजः (नख़वान का पुत्र) कहा गया है। सम्भवतः ये नहवाण व नख़वान क्षहरात वंशी क्षत्रप नहपान के ही रूपान्तर हैं। इसमें सन्देह नहीं कि नहपान बहुत ही शक्तिशाली क्षत्रप था, और उसका राज्य काठियावाड़ से मालवा तक विस्तृत था। सम्भवतः नहपान ने अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए बहुत से युद्ध किए थे, और इन्हीं के कारण उसकी स्थिति 'क्षत्रप' से बढ़कर महाक्षत्रप की हो गई थी। उषावदात के नासिकवाले लेख में उसे केवल 'क्षत्रप' कहा गया है। पर पूना के समीप उपलब्ध हुए एक अन्य गुहालेख में उसके नाम के साथ 'महाक्षत्रप' विशेषण आता है। नहपान के उत्तराधिकारियों के सम्बन्ध में कुछ विशेष ज्ञान नहीं होता | सातवाहन वंश के प्रतापी राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात कुल के द्वारा शासित प्रदेशों को शकों के शासन से स्वतंत्र किया था।
उज्जैन की विजय के बाद शकों ने मथुरा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया , मथुरा के शक क्षत्रप भी क्षहरात कुल के थे। इन क्षत्रपों के बहुत से सिक्के मथुरा व उसके समीपवर्ती प्रदेशों से उपलब्ध हुए हैं , मथुरा के प्रथम शक क्षत्रप हगमाश और हगान थ उनके बाद रञ्जुबुल और उसका पुत्र शोडास क्षत्रप बने , शोडास के बाद मेवकि मथुरा का महाक्षत्रप बना, मथुरा के शक क्षत्रपों ने पूर्वी पंजाब को जीतकर अपने अधीन किया था। वहाँ पर अनेक यवन राज्य विद्यमान थे, जिनकी स्वतंत्र सत्ता इन शकों के द्वारा नष्ट की गई , साथ ही कुणिन्द गण को भी इन्होंने विजय किया। गार्गीसंहिता से युग पुराण में शकों द्वारा कुणिन्द गण के विनाश का उल्लेख है। शोडास ने जो 'महाक्षत्रप' का पद ग्रहण किया था, वह सम्भवतः इन्हीं विजयों का परिणाम था। मथुरा के इन शक क्षत्रपों की बौद्ध-धर्म में बहुत भक्ति थी। मथुरा के एक मन्दिर की सीढ़ियों के नीच दबा हुआ, एक सिंहध्वज मिला है, जिसकी सिंहमूर्तियों के आगे-पीछे तथा नीचे ख़रोष्ठी लिपि में एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में महाक्षत्रप रञ्जुबुल या रजुल की अग्रमहिषी द्वारा शाक्य मुनि बुद्ध के शरीर-धातु को प्रतिष्ठापित करने और बौद्ध विहार को एक ज़ागीर दान देने का उल्लेख है। मथुरा से प्राप्त हुए एक अन्य लेख में महाक्षत्रप शोडास के शासन काल में 'हारिती के पुत्र पाल की भार्या' मोहिनी द्वारा अर्हत् की पूजा के लिए एक मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि महाराष्ट्र के क्षहरात शक क्षत्रपों के समान मथुरा के शकों ने भी इस देश के धर्मों को अंगीकार कर लिया था।  शक लोगों की शक्ति केवल काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, महाराष्ट्र, मालवा, मथुरा और पूर्वी पंजाब तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने गान्धार तथा पश्चिमी पंजाब पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इन प्रदेशों में शकों के बहुत से सिक्के उपलब्ध हुए हैं, और साथ ही अनेक उत्कीर्ण लेख भी। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लेख तक्षशिला से प्राप्त हुआ है, जो एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है। इस लेख के अनुसार महाराज महान् मोग के राज्य में क्षहरात चुक्ष के क्षत्रप लिअक कुसुलक के पुत्र पतिक ने तक्षशिला में भगवान शाक्य मुनि के अप्रतिष्ठापित शरीर धातु को प्रतिष्ठापित किया था। इस लेख से यह स्पष्ट है कि तक्षशिला के शक क्षत्रप भी क्षहरात वंश के थे, और उनके अन्यतम क्षत्रप का नाम 'लिअक कुसुलक' था, जिसके पुत्र पतिक ने शाक्य मुनि के शरीर धातु की प्रतिष्ठा करने की स्मृति में यह लेख उत्कीर्ण कराया था। तक्षशिला या गान्धार के क्षत्रप स्वतंत्र राजा नहीं थे, अपितु महाराज मोग की अधीनता स्वीकृत करते थे। क्षत्रप लिअक कुसुलक के अनेक सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं। उज्जैन का पहला स्वतंत्र शक शासक चष्टण था , इसने अपने अभिलेखों में शक संवत का प्रयोग किया है। इसके अनुसार इस वंश का राज्य 130 ई. से 388 ई. तक चला, जब सम्भवतः चन्द्रगुप्त ने इस कुल को समाप्त किया। ये शक 'कार्द्धमक क्षत्रप' कहलाते थे। उज्जैन के क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध रुद्रदामन  (130 ई. से 150 ई.) था , इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी पश्चिमी मालवा, द्वारका के आसपास के प्रदेश, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु नदी का मुहाना, उत्तरी कोंकण, मारवाड़ आदि प्रदेश उनके राज्य में सम्मिलित थे। ये प्रदेश उसके पूर्वजो ने सातवाहनों से जीते थे, रुद्रदामन ने दुबारा अपने समकालीन शातवर्णी राजा को हराया परन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसे समाप्त नहीं किया यह शातकर्णी सम्भवतः वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि था। रुद्रदामन ने सिंधु घाटी कुषाणों से जीती थी। सुदर्शन झील जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी, रुद्रदामा के समय फिर टूट गई तब उसने निजी आय से इसकी मरम्मत कराई और प्रजा से इसके लिए कोई कर नहीं लिया | रुद्रदामन व्याकरण, राजनीति, संगीत एवं तर्कशास्त्र का पंडित था। जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है और इससे उस समय के संस्कृत के साहित्य के विकास का अनुमान होता है। यद्यपि शक साम्राज्य चौथी शताब्दी ईस्वी तक चलता रहा किन्तु रुद्रदामन के पश्चात् शक साम्राज्य की शक्ति का ह्रास प्रारम्भ हो गया था। इस वंश का अन्तिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था , चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।
जारी है अतीत का ये सफर --- महेंद्र जैन 9 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -13   मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता  माहौल था कलिंग में चेति राज्य तथा मथुरा में भारशिव राज्य अस्तित्व में आये जिन्होंने सातवाहनों और शक तथा कुषाण जैसे विदेशी शासको के समान्तर शासन किया | भुवनेश्वर की उदयगिरि पहाड़ियों से प्राप्त हाथीगुफा के अभिलेखों से कलिंग के चेति राज्य की जानकारी मिलती है | इस वंश के शासक स्वयं को प्राचीन चेदि नरेश वसु के वंशज मानते थे  ,इस राज्य की स्थापना संभवतया महामेघवाहन ने की थी  जिसके कारण इसके शासक महामेघवाहन भी कहे जाते थे | इस साम्राज्य की स्थापना का निश्चित समय अज्ञात है लेकिन वक्रदेव जो इस राजवंश की दूसरी पीढ़ी में था ने उदयगिरि पहाड़ी पर मंचपुरी गुफा का निचला भाग बनवाया था | इस वंश की तीसरी पीढ़ी में खारवेल था जिसे इस वंश का ही नहीं वरन पूरे भारत का प्रसिद्द प्राचीन शासक कहा जाता है | खारवेल में शासनकाल में कलिंग ने असाधारण तरक्की की थी | इसके काल में ही हाथीगुफा में अभिलेख उत्कीर्ण करवाए गए थे | इतिहासकार खारवेल का शासनकाल ईसा पूर्व दूसरी सदी से पहली सदी के मध्य का मानते है | खारवेल के बाद इस वंश के शासको का कोई वर्णन नहीं मिलता ,सम्भवतया इसके बाद इस साम्राज्य का पतन हो गया था | कुषाण राजाओ का नियंत्रण समाप्त होने के समय गंगा घाटी पर मथुरा के नागवंशी शासको का राज्य था | इनका शासन काल 170 -350 ईस्वी का माना जाता है ,इस वंश के शासको की विस्तृत जानकारी नहीं मिलती लेकिन ये लोग शिवभक्त थे | शिव को प्रसन्न करने के लिए इनके किसी राजा ने एक धार्मिक अनुष्ठान में शिवलिंग को अपने कंधे पर धारण किया था जिसके कारण ये वंश भारशिव वंश कहलाया | नवनाग से भवनाग तक इस वंश में सात शासक हुए जिन्होंने अपना साम्राज्य मालवा ,ग्वालियर ,बुंदेलखंड और पूर्वी पंजाब तक फैलाया | अपनी विजयो के उपलक्ष में इन राजाओ ने काशी में दस अश्वमेध यज्ञ करवाए जिसकी स्मृति काशी में दशाश्वमेध घाट के रूप में सुरक्षित है | इन्होने गंगा -यमुना को अपना राजचिन्ह बनाया और इन नदियों के गौरव को स्थापित किया |  
सातवाहनों ने दक्षिण और कुषाणों ने उत्तरी भारत में राजनैतिक स्थायित्व लाने का कार्य बखूबी किया लेकिन तीसरी सदी के समाप्त होते होते इन दोनों साम्राज्यों का पतन हो गया |  उत्तर में मुरुंडों जो संभवतया कुषाणों के सम्बन्धी थे द्वारा 250 ईस्वी तक राज्य किया लेकिन 275 ईस्वी में गुप्तवंश द्वारा उनसे सत्ता छीन ली गई | गुप्त लोग वैश्य वर्ग से आते थे ,इतिहासकार केपी जायसवाल के अनुसार गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त भारशिवो के अधीन एक छोटे राज्य प्रयाग का शासक था | पुराणों के अनुसार प्राचीन गुप्त राज्य गंगा द्रोणी ,साकेत ,प्रयाग तथा मगध में फैला था ,प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र में श्रीगुप्त को आदिराज के नाम से सम्बोधित किया गया है | श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था तथा इसके व्यय के लिए 24 गाँव दान में दिए थे | चीनी यात्री इत्सिंग ने करीब 500 वर्षो बाद इसका उल्लेख किया था | श्रीगुप्त के बाद उसके पुत्र घटोत्कच (280 -320 ) ने शासन किया ,  इस वंश का प्रसिद्द राजा चन्द्रगुप्त प्रथम (319 -334 ईस्वी ) हुआ जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की और नेपाल के लिच्छिवि कुल की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया था जिससे उसे लिच्छवियो का राज्य मिल गया  |  उसने 319 -20 ईस्वी में अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में गुप्त संवत चलाया ,चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा जारी सिक्को पर चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी दोनों के चित्र अंकित थे | चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कोसल को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया | उसके बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त (335 -380 ईस्वी ) सिंहासन पर बैठा |  समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है और इसका कारण उसका कभी पराजित नहीं होना है | समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था उसके दरबारी कवि हरिषेण ने एक लम्बे अभिलेख में अपने आश्रयदाता के पराक्रम का वर्णन किया है ,ये अभिलेख इलाहाबाद के उसी स्तम्भ पर खुदा है जिस पर अशोक का अभिलेख था |  समुद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त साम्राज्य ने भारत के ही क्षेत्रो में अपनी सत्ता काबिज नहीं कि बल्कि भारत से बाहर के भी क्षेत्रो को विजित किया | समुद्रगुप्त द्वारा विजित क्षेत्रो को पांच भागो में बांटा जाता है ,प्रथम में गंगा यमुना दोआब के राजा जिन्हे हराकर उनके राज्यों को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया ,दूसरे पूर्वी हिमालय तथा सीमावर्ती शासक जिनमे नेपाल,पंजाब ,बंगाल और असम के शासक थे जो उसका आधिपत्य मानते थे , तीसरे राज्य विंध्य क्षेत्र के जंगलो में स्थित राज्य थे। चौथी श्रेणी में पूर्वी दकन और दक्षिण भारत के राज्य थे जिन्हे हराकर छोड़ दिया गया ,इनमे तमिलनाडु के कांची का पल्लव राज्य भी था और पांचवी श्रेणी शक और कुषाण शासको की है जिनमे से कुछ तो अफगानिस्तान में भी शासन करते थे | काव्यालंकार में उसे चंद्रप्रकाश के नाम से कहा गया जो धर्मनिष्ठ और वैदिक धर्म का पालन करने वाला था | समुद्रगुप्त के बाद उसके पुत्र रामगुप्त के शासक बनने का वर्णन मिलता है जो बड़ा पुत्र होने के कारण सिंहासन पर बैठा लेकिन निर्बल और कायर था | वो शको से पराजित हुआ और उसने अपमानजनक संधि करते हुए अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी शकराज को भेंट में दी | लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बहादुर तथा स्वाभिमानी था जो ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया और सम्मान को बचाया | बाद में निंदनीय कृत्य के लिए चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या कर दी और उसकी पत्नी से विवाह कर शासक बना | जिस राजा के काल में गुप्त साम्राज्य अपने चरम उत्कर्ष पर रहा वो चन्द्रगुप्त द्वितीय ही था जो समुद्रगुप्त की प्रधान पत्नी दत्तदेवी से उत्पन्न हुआ था | उसने विजयो के साथ वैवाहिक सम्बन्धो द्वारा भी गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया | चन्द्रगुप्त ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह किया और उससे उत्पन्न पुत्री प्रभावती का विवाह ब्राह्मण वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय से किया जिससे उसे पश्चिमी मालवा और गुजरात में शक क्षत्रपों के 400 साल पुराने शासन का अंत करने में सफलता मिली | वही उसने अपने पुत्र समुद्रगुप्त प्रथम का विवाह कुंतल देश (कर्नाटक ) के कदम्ब राजवंश में किया | चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाया वही इस विजय से उसे वाणिज्य के लिए प्रसिद्द पश्चिम समुद्रतट भी हासिल हो गया |  चन्द्रगुप्त ने विक्रयांक ,परम भागवत तथा विक्रमादित्य जैसी उपाधियाँ धारण की | कालिदास, अमर सिंह,धन्वन्तरि ,क्षपणक ,शंकु ,बेतालभट्ट ,घाटपरकर ,वराहमिहिर ,वररुचि ,आर्यभट्ट ,विशाखदत्त , शूद्रक ,ब्रह्मगुप्त ,विष्णु शर्मा और भास्कराचार्य जैसे विद्वान इसी काल में रहे | ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसके आधार पर न्यूटन ने अपना गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत दिया | चीनी यात्री फाहियान (399 -414 ईस्वी ) भी इसी काल में भारत आया जिसने गुप्त काल के लोगो की जीवन शैली पर बहुत कुछ लिखा | 412 ईस्वी में कुमारगुप्त प्रथम सत्तारूढ़ हुआ जिसने 40 वर्षो तक शासन किया ,कुमारगुप्त वैष्णव धर्मानुयायी था लेकिन उसने धार्मिक सहिष्णुता की निति अपनायी | गुप्त शासको में सबसे अधिक अभिलेख इसी के मिलते है | कुमारगुप्त ने रजत मुद्राये चलायी जिनपर मयूर की आकृति अंकित थी ,नालंदा विश्व विद्यालय की स्थापना इसी के काल में हुयी | कुमारगुप्त के शासनकाल में पुष्यमित्र ने आक्रमण किया था और युद्ध के दौरान ही कुमारगुप्त की मृत्यु हो गयी थी जिसके बाद उसका पुत्र स्कंदगुप्त गद्दी पर बैठा | स्कंदगुप्त ने 12 वर्षो तक शासन किया लेकिन उसका शासन संघर्षपूर्ण ही रहा | इसके शासन काल में हूणों ने गांधार पर कब्ज़ा कर गुप्त साम्राज्य को चुनौती दी लेकिन स्कंदगुप्त ने उन्हें करारी शिकस्त दी जिसके बाद उन्होंने 50 वर्षो तक भारत का रुख नहीं किया | 467 ईस्वी में स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद भी गुप्त वंश का शासन करीब 100 वर्षो तक कायम रहा जिसमे पुरुगुप्त ,कुमारगुप्त द्वितीय ,बुधगुप्त ,नरसिंघगुप्त ,कुमारगुप्त तृतीय ,दामोदर गुप्त ,महासेन गुप्त ,देवगुप्त और माधव गुप्त ने शासन किया | लेकिन ये शासक दुर्बल निकले जिसके चलते 485 ईस्वी में तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने पुनः आक्रमण किया तथा ग्वालियर और मालवा के बड़े भाग पर अधिकार कर लिया | इसी दौरान मालवा के ओलिकार सामंत वंश के यशोधर्मन ने हूणों की सत्ता को उखाड़ फेंका और गुप्त साम्राज्य को भी चुनौती दी |  550 ईस्वी आते आते गुप्त वंश के हाथो से बिहार और उत्तर प्रदेश निकल गया , मौखरि वंश के लोगो ने बिहार और उत्तर प्रदेश में सत्ता जमाई और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया |  इधर वलभी के शासको ने गुजरात और पश्चिमी मालवा पर अपना अधिकार कर लिया , उत्तर भारत में थानेश्वर के राजाओ ने हरियाणा पर प्रभुत्व जमाया और कन्नौज की और बढे और इस प्रकार भारत से गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ | 
छठी सदी के प्रारम्भ में उत्तरी मध्य प्रदेश के राजाओ ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर स्वयं के अधिकार से भूमिदान का शासनपत्र जारी करना शुरू कर दिया था लेकिन इस पर गुप्त सम्वत का ही प्रयोग किया जाता था | पांचवी सदी के अंत में गुप्त शासको के हाथ से पश्चिम भारत का शासन निकल गया था इसका सबसे बड़ा प्रभाव ये पड़ा कि उन्हें वाणिज्य से होने वाली आय से हाथ धोना पड़ा | आर्थिक तंगी ने सेना के रखरखाव में दिक्कते खड़ी की ,ऐसे प्रमाण मिलते है कि 473 ईस्वी में रेशम बुनकरों की एक टोली गुजरात से मालवा चली गयी थी जिसने वहां दूसरा व्यवसाय अपना लिया था ,जो रेशम के व्यापार की अवनति की और संकेत करता है | गुप्त राजाओ ने अपनी स्वर्ण मुद्राओ में सोने का अनुपात कम कर उसे किसी तरह जारी रखने का प्रयास किया था | 
जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 6 फरवरी 2019  
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कौन है हम ?? भाग -12   
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद का काल अर्थात 200 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी भारत उपमहादेश का प्रथम ऐतिहासिक काल कहा जाता है , इस अवधि में इस भूभाग में काफी सामाजिक और राजनैतिक उथल पुथल हुई | ये वो समय था जब भारत उपमहादेश में मौर्य साम्राज्य जैसा कोई  बड़ा साम्राज्य नहीं था | 187 ईस्वी पूर्व अंतिम मौर्य शासक ब्रहद्रथ मौर्य की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने मगध में शुंग राजवंश के शासन की स्थापना की | पुष्यमित्र ने 36 वर्षो तक मगध पर शासन किया उसके शासन में भारत पर यवनो का आक्रमण हुआ जिसमे पुष्यमित्र ने यवनो को मध्य भारत से निकालकर सिंधु के किनारे तक खदेड़ दिया था | पुष्यमित्र पातंजलि के समकालीन था पातंजलि तथा कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्रम में इस युद्ध का वर्णन किया है | मालविकाग्निमित्रम में ही पुष्यमित्र के विदर्भ युद्ध का भी वर्णन है जिसमे भी वो जीता था और जिसके फलस्वरूप विदर्भ राज्य दो भागो में बंट गया था | दोनों भागो के राजाओ ने पुष्यमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली थी इससे शुंग साम्राज्य का प्रभाव नर्वदा नदी के दक्षिण तक हो गया था | 148 ईस्वी पूर्व पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अग्निमित्र राजा बना जिसने 8 वर्ष शासन किया ,उसके बाद वसुज्येष्ठ और चौथा तथा शासक वसुमित्र था जिसकी  नृत्य देखते समय मूजदेव द्वारा हत्या कर दी गयी ,इसने 10 वर्ष शासन किया | उसके बाद भद्रक ,पुलिंदक ,घोष और वज्रमित्र /देवभूति शासक हुए | देवभूति के शासन के 14 वे वर्ष में तक्षशिला के यवन शासक एंटियाल कीड्स का राजदूत हेलियोडोरस विदिशा के दरबार में आया था | देवभूति अत्यंत विलासी शासक था जिसके चलते उसके एक मंत्री वसुदेव कण्व ने 75 ईस्वी पूर्व में उसकी हत्या कर दी और शुंग वंश के 112 वर्षो के शासन को समाप्त किया | शुंग वंश का शासन दो बातो के लिए महत्वपूर्ण माना जा सकता है ,प्रथम तो इसके शासको ने मगध साम्राज्य के केंद्रीय भाग की यवनो से सुरक्षा की और मध्य भारत में शांति और व्यवस्था बनाये रख विकेन्द्रीकरण को रोके रखा | दूसरा इसे वैदिक संस्कृति के पुनर्जागरण का श्रेय है जो मौर्य साम्राज्य के दौरान दब गयी थी | वसुदेव कण्व द्वारा मगध में 75 ईस्वी पूर्व स्थापित कण्व वंश का साम्राज्य केवल 45 वर्षो तक ही चल पाया ,कण्वो ने मगध के राज्यों को हड़पने के स्थान पर उन्हें अपने अधीन करना ही बेहतर समझा | वसुदेव के बाद इस वंश में भूमिपुत्र ,नारायण और सुशर्मा हुए | सुशर्मा अत्यंत अयोग्य और दुर्बल शासक सिद्ध हुआ ,उसके काल में मगध साम्राज्य सिकुड़ने लगा ,अनेक प्रांतो ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया जिसके चलते मगध का साम्राज्य केवल बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक ही सिमित होकर रह गया | 30 ईस्वी पूर्व में सातवाहन साम्राज्य के संस्थापक सिमुक ने सुशर्मा को पदच्युत कर कण्व वंश का शासन समाप्त किया | इस शासन की विशेषता केवल ये कही जा सकती है कि इस वंश के शासको ने शुंग वंश द्वारा चलायी गयी वैदिक संस्कृति की परंपरा को जारी रखा | ये दोनों साम्राज्य ब्राह्मण वंशीय थे |                  मगध पर मौर्य साम्राज्य के दौरान दक्षिण भारत में कुछ छोटे राज्यों का उदय होना शुरू हो गया था ये चेर ,चोल ,पाण्ड्य ,सतियपुत या श्रीलंका के लोग थे जिनका वर्णन अशोक के अभिलेखों में भी मिलता है इनमे एक सातवाहन वंश भी था जिसकी शक्ति मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद अत्यधिक बढ़ी | दक्षिण के पाण्ड्य राज्य का वर्णन मेगास्थनीज ने भी किया है | पाण्ड्य के साथ चेर और चोल वंशो के साथ ही तमिल राजनैतिक इतिहास शुरू होता है | पाण्ड्य शब्द की उत्पत्ति कात्यायन के अनुसार पाण्डु से हुयी जो इनके पांडवो के साथ सम्बन्धो को बताता है | ये राज्य दक्षिणी त्रावणकोर ,वर्तमान तिन्ने वल्ली ,मदुरा और राम्नाद जिलों में फैला था | इसकी राजधानी मदुरा थी जिसका नाम मथुरा से लिया गया जो इनके पांडवो से सम्बन्ध का एक और प्रमाण माना जाता है | मेगास्थनीज के अनुसार पाण्ड्य देश में महिलाओ का शासन था ,पाण्ड्य नाम हेरेक्लीज (कृष्ण का यूनानी पर्याय ) की पुत्री पंडाइया के नाम पर पड़ा जिसे उसके पिता ने दक्षिण का राज्य उपहार में दिया था | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पांड्यकवाट के मोती और मथुरा के सूती वस्त्रो का उल्लेख है | कलिंग नरेश खारबेल द्वारा भी पाण्ड्य राज्य से उपहार स्वरूप मुक्ता ,मणि और रत्न प्राप्त किये जाने का वर्णन मिलता है | प्राचीन तमिल संगम साहित्य से प्रारंभिक पाण्ड्य राज्य के कुछ शासको के नाम मिलते है लेकिन इसके बाद संगम साहित्य अधिक जानकारी नहीं देता | पाण्ड्य राज्य की विस्तृत जानकारी छठी शताब्दी में जाकर मिलती है |  मध्यकाल में चोल राज्य को चोलमण्डलम (कोरोमंडल ) कहा जाता था , ईसा पूर्व दूसरी सदी के मध्य में एलारा नामक चोल राजा द्वारा श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर 50 वर्षो तक शासन किया गया था , चोलो का प्रख्यात राजा करकल था जिसने पुहार की स्थापना की और कावेरी नदी के किनारे 160 किमी लम्बा बांध बनाया, पुहार की पहचान वर्तमान कावेरीपट्टनम से की गई है |  चेर या केरल राज्य पांड्य के पश्चिम और उत्तर में था , इसमें समुद्र और पहाड़ो के बीच एक संकरी पट्टी पड़ती थी जिसमे वर्तमान केरल और तमिलनाडु का कुछ अंश था |  सेंगुट्ट टूवन इनका प्रमुख राजा था , चेर और चोल राज्यों की भी प्रारंभिक जानकारियां इससे अधिक संगम साहित्य से नहीं मिलती ,इनका विस्तृत इतिहास ईस्वी सन के बाद की सदियों में ही मिलता है |                         
मौर्य वंश के समकालीन दक्षिण भारत के सबसे बड़े और सुगठित राज्य की बात करे तो वो सातवाहन साम्राज्य था | सातवाहन साम्राज्य की ऐतिहासिक जानकारी केवल उनके पूर्वी दकन क्षेत्र से प्राप्त 19 शिलालेखों से ही प्राप्त होती है जिन्हे इस वंश के 30 राजाओ के तक़रीबन 450 साल के शासन की जानकारी के लिए किसी भी रूप में समुचित नहीं माना जा सकता | पूर्वी तथा पश्चिमी दकन और मध्यप्रदेश से इस वंश के शासको द्वारा जारी किये गए सिक्को से किसी हद तक इस वंश के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया गया है | पौराणिक तथा इस काल के साहित्यिक ग्रंथो वृहद कथा और लीलावती से प्राप्त जानकारियों में भी काफी विरोधाभास मिलते है | शिलालेख और सिक्को के आधार पर सातवाहन /शातकर्णि शासको को आन्ध्रों के समतुल्य माना गया है ,पुराणों में आंध्र लोगो को प्राचीन तेलगु प्रदेश जो गोदावरी और कृष्णा नदी के बीच स्थित था का निवासी बताया गया है | ऐतरेय ब्राह्मण में उन्हें ऐसी जाति कहा गया जो आर्य प्रभाव से मुक्त थी | मेगास्थनीज अपनी पुस्तक इंडिका में सातवाहनों की समृद्धि और शक्ति का वर्णन करता है वही अशोक के शिलालेखों में उनका वर्णन ऐसे लोगो के रूप में है जो उसके प्रभाव में थे लेकिन इससे आगे की जानकारी नहीं मिलती | शिलालेखों में इस वंश के शासको को सातवाहन और शातकर्णी कहा गया तथा साहित्यिक ग्रंथो में शालीवाहन शब्द का भी प्रयोग हुआ लेकिन इस वंश के सन्दर्भ में आंध्र शब्द का प्रयोग कही ��हीं मिलता | ये स्रोत इनका मूल स्थान पश्चिम भारत का बताते है , विभिन्न अनुसंधानों के बाद ये माना गया कि सातवाहनों ने अपनी शुरुवात दकन से की तथा आंध्र को विजित किया ,बाद में शक और अहीर आक्रमणों के कारण जब साम्राज्य के पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्र उनके हाथ से चले गए तो उनकी शक्ति गोदावरी और कृष्णा नदियों के मध्य क्षेत्र अर्थात आंध्रप्रदेश तक सीमित होकर रह गयी जिसके कारण उन्हें आन्ध्रों के नाम से जाना गया | कुछ इतिहासकार सातवाहनों की तुलना अशोक के शिलालेखों में वर्णित सतियपुत्रो से तो कुछ प्लिनी द्वारा वर्णित सेतई से करते है | लेकिन इनके शिलालेखों से ये निश्चित हो जाता है कि सातवाहन भी शुंग और कण्व की तरह अहीर /अभीर ब्राह्मण थे ( मनु ने अहीर को ब्राह्मण पिता और अम्बसठ माता की संतान कहा है ) | नासिक शिलालेख में गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी को एक अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है तथा क्षत्रियो का मान मर्दन करने वाले की उपाधि से सुशोभित किया गया है | शिलालेख में गौतमीपुत्र की तुलना परशुराम से की गयी है | दात्री शतपुतलिका में शालीवाहनों को ब्राह्मण और नाग जाति से उत्पन्न कहा गया है |             
 जिस प्रकार के अनिश्चय की स्थिति सातवाहनों की उत्पत्ति को लेकर है लगभग उसी प्रकार के अनिश्चय की स्थिति उन्हें शासन और काल क्रम को लेकर है | 500 ईस्वी पूर्व का ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ उन्हें आर्य परिधि से बाहर के दस्युओ और विश्वामित्र के वंशजो के रूप में वर्णित करता है | डा वी आर भंडारकर इसे सातवाहनों की प्रारंभिक स्थिति मानते है ,डा वी ए स्मिथ भी पुराणों के आधार को स्वीकार करते हुए उन्हें शुरू में मोर्यो के अधीन और अशोक की मृत्यु के बाद सिमुक के नेतृत्व में स्वतंत्र कहते है | डा गोपालचारी इस घटना को तीसरी सदी पूर्व की मानते हुए सातवाहन साम्राज्य की स्थापना लगभग 235 ईस्वी पूर्व और इसका पतन लगभग 255 ईस्वी का मानते है | कलिंग में खारवेल शासन के हाथी गुम्फा शिलालेख के आधार पर रैपसन सातवाहन शासन का प्रारम्भ 220 -211 ईस्वी पूर्व के बीच का मानते है | पुराणों की बात करे तो मत्स्य पुराण उनका शासन 460 वर्ष ,ब्रह्म पुराण 456 वर्ष ,वायुपुराण 411 वर्ष और विष्णु पुराण 300 वर्ष मानता है | वायुपुराण के आधार पर डा भंडारकर सातवाहन साम्राज्य की स्थापना 73 -72 ईस्वी पूर्व की मानते है | डा राय चौधरी वायु पुराण के इस कथन को सही परिभाषित करते हुए कहते है कि सिमुक ने जब कण्व वंश का शासन समाप्त कर अपना साम्राज्य स्थापित किया तब उसने उन शुंग शासको को भी समाप्त कर दिया जो कण्व शासको से बच गए थे | इस आधार पर सिमुक द्वारा सातवाहन वंश की स्थापना ईसा पूर्व की पहली सदी के मध्य में होनी चाहिए | सिमुक को शिशुक ,सिन्धुक तथा शिप्रक नाम से भी जाना जाता है ,जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सिमुक ने अपने शासन काल में जैन और बौद्ध मंदिरो का निर्माण करवाया लेकिन शासन के अंतिम काल में वो पथ भ्रष्ट हो गया जिसके कारण उसकी हत्या कर दी गयी | सिमुक की मृत्यु के बाद कान्हा (कृष्ण ) गद्दी पर बैठा जिसके 18 वर्ष के शासनकाल में सातवाहन साम्राज्य नासिक तक फैला | इसके बाद शातकर्णि प्रथम ने शासन संभाला जिसका शासनकाल संक्षिप्त था लेकिन ये पहला सातवाहन शासक था जिसने अपने नाम में शातकर्णि शब्द का प्रयोग किया था | नानाघाट शिलालेख के अनुसार शातकर्णि प्रथम ने साम्राज्य का विस्तार किया तथा 2 अश्वमेध और 1 राजसूय यज्ञ किया ,उसकी रानी नयनिका जो अंग देश के त्रणकाइरो की पुत्री थी के एक शिलालेख के अनुसार उसने पश्चिम मालवा ,नर्वदा घाटी क्षेत्र तथा विदर्भ को जीत लिया था | यदि इसे सांची स्तूप तोरण में वर्णित शासक मान लिया जाये तो ये प्रमाणित होता है कि शातकर्णि प्रथम के समय मध्य भारत पर सातवाहनों का अधिकार था | इसमें दक्षिण पथपति और अप्रतिहत चक्र की उपाधियाँ धारण की ,शातकर्णि प्रथम की मृत्यु के बाद उसके अल्पव्यस्क पुत्र वेदश्री और सतश्री सिंहासन पर बैठे जिनमे से एक की मृत्यु हो गयी , इस समय शासन नयनिका ने संभाला ,पुराण चतुर्थ सातवाहन शासक का नाम पूर्णोत्संग बताते है | ये वो काल था जिसमे पुष्यमित्र शुंग ने ब्रहद्रथ को मारकर मगध पर कब्ज़ा किया था | इसके बाद शातकर्णि द्वितीय ,लम्बोदर ,अपीलक और कुंतल शातकर्णि सिंहासन पर बैठे | कुंतल शातकर्णि का जिक्र वात्सायन ने कामसूत्र में ऐसे राजा के रूप में किया है जिसने अपनी उंगलियों से कैंची जे रूप में अपनी पटरानी मलयवती पर प्रहार किया था जिससे उसकी मृत्यु हो गयी थी | काव्य मीमांसा में राजेश्वर ने कहा है कि कुंतल शातकर्णि ने रनिवास में केवल प्राकृत भाषा के प्रयोग का आदेश दिया था | अगला सातवाहन शासक हाल हुआ जो शांतिदूत ने नाम से प्रसिद्द हुआ ,ये स्वयं कवि हृदय और साहित्यकार था | हाल का जिक्र पुराण ,लीलावती ,सप्तशती तथा अभिज्ञान चिंतामणि जैसे ग्रंथो में हुआ है | इसे प्राकृत भाषा की पुस्तक सप्तशती का रचयिता माना जाता है ,पैशाची भाषा की पुस्तक बृहद्कथा का लेखक गुणाढ्य हाल का समकालीन था ,इसी बृहद्कथा से बाद में बुद्धस्वामी की बृहद्कथा -लोक संग्रह ,क्षेमेन्द्र की बृहद्कथा मंजरी और सोमदेव की कथा चरितसागर अस्तित्व में आयी | इस काल में सातवाहन साम्राज्य ने काफी उन्नति की | लेकिन बाद के 50 वर्षो में पश्चिमी क्षत्रपों के आक्रमणों के कारण सातवाहन साम्राज्य का पतन शुरू हुआ | उत्तर पश्चिम में कुषाण अपना प्रसार कर रहे थे जिससे शक और पह्लव शासक मध्य तथा पश्चिम भारत में आगे बढे ,क्षहरात वंश के क्षत्रपों ने राजपुताना ,काठियावाड़ और गुजरात में खुद को स्थापित किया | शक शासको ने 35 -90 ईस्वी के बीच सातवाहनों पर हमला किया और पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा ,कोंकण ,उत्तरी तथा दक्षिणी महाराष्ट्र पर कब्ज़ा कर लिया |           
क्षहरात वंश का पहला शासक घूमक था उसका उत्तराधिकारी नहपान था |  नासिक ,कारले और जूनार में मिले उसके शिलालेखों और सिक्को से ज्ञात होता है कि उसने क्षत्रप और महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी | नहपान ने अपने जामाता शक अशवदत के साथ मालवा ,नर्वदा घाटी ,उत्तरी कोंकण ,बरार का पश्चिमी भाग और दक्षिणी महाराष्ट्र सातवाहनों से जीतकर पश्चिमी दकन में सातवाहनों की शक्ति को समाप्तप्राय कर दिया था | इसके बाद 70 ईस्वी में गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का शासक बना | अपने 25 वर्ष के शासन में उसने सातवाहनों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करते हुए एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर दिया | गौतमी बालश्री के नासिक शिलालेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार उसने क्षत्रियो का मानमर्दन किया उसका वर्णन शक ,पह्लव और यवन आक्रमणकारियों के विनाशकर्ता के रूप में किया गया है | गौतमीपुत्र शातकर्णि ने त्रि समुद्र तोय पीत वाहन की उपाधि धारण की | उसे इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उसने भारत को एकजुट किया और विदेशी आक्रमणों से उसकी रक्षा की | कुछ इतिहासकार गौतमीपुत्र को राजा शालिवाहन भी मानते है | टॉलेमी और 150 ईस्वी के जूनागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि अंतिम समय में वो करदामक वंश के सीथियन्स के हाथो अपने विजित प्रदेश गँवा चुका था ,यद्यपि उसने शको से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर इन प्रदेशो को बचाने का प्रयास किया था |               
 इस काल में भारत की पश्चिमी सीमा की स्थिति देखे तो ज्ञात होता है कि सिकंदर के लोट जाने के बाद भी बैक्ट्रिया में यूनानी स्थापित रहे थे जिन्होंने हिन्दुकुश पर्वत पार कर भारत पर आक्रमण किया | यूनानियों के भारत पर आक्रमण का सबसे बड़ा कारण सेल्यूकस द्वारा स्थापित यूनानी साम्राज्य की कमजोरी थी जिसके चलते शक और चीन में महादीवार के निर्माण के बाद बाहर धकेल दिए गए लोगो ने यूनानियों और पार्थियनों को निशाना बनाया | इस समय मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक इतने दुर्बल थे कि वे यूनानियों के आक्रमण का सामना कर ही नहीं पाए | ये हिन्द यूनानी कहे गए जिनके दो वंशो ने एक साथ पश्चिमोत्तर भारत पर शासन किया | इनमे मिनांडर (165 -145 ईस्वी पुर्व ) अधिक विख्यात है जिसे मिलिंद नाम से भी जाना जाता है उसकी राजधानी पंजाब में शाकल (वर्तमान सियालकोट ) में थी | मिलिंद को नागसेन ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और दोनों के मध्य के वार्तालाप को मिलिन्दपञ्हो नामक पुस्तक में संग्रहीत किया गया है | यूनानी शासको ने बड़ी संख्या में सिक्के जारी किये गए जिनसे उन्हें जारी करने वाले शासको की स्पष्ट जानकारी मिलती है | भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के इन्ही शासको द्वारा जारी किये गए | इनके द्वारा पश्चिमोत्तर भारत में यूनानी कला हेलेनिस्टिक आर्ट का प्रचलन किया जिसका उदाहरण गांधार कला है |  यूनानियों के बाद अफगानिस्तान में बसने वाले शकों ने भारत पर आक्रमण किया इनकी पांच शाखाये थे तथा प्रत्येक की भारत और अफगानिस्तान में अलग अलग राजधानी थी | शको की पहली शाखा अफगानिस्तान में बसी ,दूसरी पंजाब में जिसने तक्षशिला को राजधानी बनाया ,तीसरी मथुरा में बसी जिसने दो सदियों तक शासन किया ,चौथी ने पश्चिमी भारत पर अधिकार किया और चौथी सदी तक शासन करती रही ,पांचवी शाखा ने दकन में ऊपरी क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाया |  शकों ने चौथी सदी तक भारत के पश्चिम और दक्षिण भाग पर शासन किया ,प्रतिरोध के नाम पर 57 -58 ईस्वी पूर्व में उज्जैन के एक राजा ने शकों को पराजित किया ,ये राजा अपने आपको विक्रमादित्य कहता था ,विक्रम सम्वत इसी की विजय से शुरू हुआ |  बाद में विक्रमादित्य एक उपाधि बन गई जिसके चलते भारतीय इतिहास में 14 विक्रमादित्य पाए जाते है | शक शासको में रुद्रदामन (130 -150 ईस्वी ) विख्यात शासक रहा जिसने सातवाहनों से बहुत बड़ा क्षेत्र छीना था  ,उसने काठियावाड़ के अर्धशुष्क क्षेत्र में मौर्य काल में निर्मित मशहूर झील सुदर्शन सर जो सिंचाई के काम में आती थी का जीर्णोद्धार किया | विदेशी होने के बावजूद वो संस्कृत का प्रेमी था ,उसी ने सर्वप्रथम संस्कृत में एक लम्बा अभिलेख जारी किया जबकि पूर्व के अभिलेख प्राकृत भाषा में होते थे | पश्चिमोत्तर भारत में शको के साथ ही  पार्थियाई लोगो ने आधिपत्य जमाया ,अनेक संस्कृत ग्रंथो में इनका जिक्र शकपह्लव के नाम से किया गया है | ये ईरान के निवासी थे जो पहली सदी में पश्चिम भारत के एक छोटे क्षेत्र पर शासन करते रहे | गोण्डोफनिर्श इनका प्रसिद्द राजा हुआ जिसके काल में सेंट टॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आया था ,शको की तरह ये भी भारतीय संस्कृति और समाज में मिल गए |             
पार्थियाई लोगो के बाद कुषाण आये जो यूची और तोखारी भी कहे जाते थे जो यूची कबीले के पांच कुलो में से एक थे |  ये मध्य एशिया के हरित मैदानों के खानाबदोश थे जो चीन के पड़ोस में रहते थे | कुषाणों ने पहले बैक्ट्रिया क्षेत्र पर कब्ज़ा कर वहां से शको को भगाया फिर काबुल घाटी और हिन्दुकुश पार कर गांधार ने यूनानियों और पार्थियनों को अपदस्थ किया | इनके साम्राज्य में सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया क्षेत्र ,ईरान का हिस्सा ,अफगानिस्तान ,पाकिस्तान और पूरा उत्तर भारत शामिल था | इनका शासन वर्तमान के 9 देशो में फैला हुआ था और ये बड़ी बात है कि इनके शासन काल में इन देशों की संस्कृतियों को एक दूसरे में घुलने मिलने और समझने का मौका मिला |  कुषाणों के दो वंश है पहले की स्थापना केडफाइसिस ने की जिसका शासन 50 ईस्वी से 28 वर्षो तक चला | केडफाइसिस प्रथम ने हिन्दुकुश के दक्षिण में सिक्के चलाये ,ये रोमन सिक्को  कर बनाये गए ताम्बे के सिक्के थे | केडफाइसिस द्वितीय ने स्वर्ण मुद्राये जारी की और सिंधु नदी के पूर्व में साम्राज्य विस्तार किया |  इनके बाद कनिष्क राजवंश आया जिन्होंने शुद्ध स्वर्ण मुद्राये चलायी | इन्होने गंगा यमुना दोआब के अतिरिक्त मध्य गंगा क्षेत्र पर भी कब्ज़ा किया | मथुरा में मिले कुषाण सिक्को ,अभिलेखों और मूर्तियों से आभास होता है कि मथुरा भारत में कुषाणों की दूसरी राजधानी थी ,इनकी पहली राजधानी वर्तमान पाकिस्तान स्थित पुरुषपुर (पेशावर ) थी जहाँ कनिष्क ने एक मठ और विशाल स्तूप का निर्माण करवाया था | कुषाण राजा कनिष्क ने 78 ईस्वी में शक सम्वत चलाया जिसे भारत सरकार प्रयोग में लाती है साथ ही इन शासको द्वारा बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया गया ,इस काल में ही बौद्ध संप्रदाय महायान को अंतिम रूप दिया गया | कनिष्क के ��त्तराधिकारियों ने करीब 230 वर्षो तक भारत पर शासन किया | अरल सागर के दक्षिण में अमुदरिया पर स्थित ख्वारिज्म के टोपरक कला गांव की खुदाई में एक विशाल महल निकला है। तीसरी चौथी सदी के इस महल में एक प्रशासनिक अभिलेखागार था जिससे आर माइक और ख़्वारिज़्मी भाषा के पुरालेख और दस्तावेज मिले है | ईरान में ही शक्तिशाली हुई सासानी शक्ति ने तीसरी सदी के मध्य में कुषाणों को अफगानिस्तान और सिंध के पश्चिम क्षेत्र से अपदस्थ किया |  ये हिन्द सासानी कहे जाते जिन्होंने शुरू में इस क्षेत्र को हिन्दू कहा जिसका तात्पर्य सिंधु निवासियों के रहने के क्षेत्र से था |  262 ईस्वी के  एक सासानी अभिलेख में सर्वप्रथम इस क्षेत्र के लिए हिंदुस्तान नाम का प्रयोग किया | इनका शासन अल्प रहा पर इनके सिक्को के कारण अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण था |        
  भारत और मध्य एशिया के सम्पर्को के चलते शक और कुषाण काल में भवन निर्माण कार्य में उल्लेखनीय प्रगति हुयी ,| क्योंकि इनकी खुद की कोई संस्कृति नहीं थी इसलिए ये भारतीय संस्कृति में ही रच बस गए | अश्वारोहण और घोड़ो पर जीन ,रकाब तथा लगाम इन्ही लोगो ने सिखाई,सुदृढ़ कवच और बरछी भालो से युद्ध कला इन्ही की देन है | पगड़ी ,कुर्ती पायजामा और भारी लम्बे कोट शक तथा कुषाणों का ही पहनावा था | इनके कारण भारत में मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ो से भारी मात्रा में सोना भारत में आया | कुषाण राजाओ ने छोटे राजाओ को जीतकर महाराजाधिराज की उपाधि धारण की ,कुषाण खुद को देवपुत्र कहते थे | शासन की क्षत्रप प्रणाली कुषाणों की ही देन है जिसमे राज्य को उपराज्यों में बांटकर शासन किया जाता था | दूसरी और यूनानियों ने मिलिटरी गवर्नरशिप चलायी ,जिसमे शासक सेनानियों को स्ट्रेटेगोस कहा जाता था | सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि ये विजेता थे लेकिन अपनी मूल पहचान खोकर भारतीय संस्कृति में मिल गए थे जिसके कारण ये भारतीय समाज में एक नए क्षत्रिय वर्ग के रूप में शामिल हुए | कई विदेशी शासक वैष्णव तथा बौद्ध धर्म में शामिल हुए ,कुषाण शासक बुद्ध और शिव दोनों को मानते थे | इस समय बुद्ध की मूर्तियों की पूजा का प्रचलन हुआ और महायान संप्रदाय अस्तित्व में आया ,कनिष्क इसका संरक्षक बना जिसने काश्मीर में बौद्ध परिषद् का आयोजन किया | इस समय 3 लाख शब्दों के ग्रन्थ की रचना हुयी जिसमे त्रिपिटकों की व्याख्या की गयी ,कनिष्क ने इसे ताम्रपत्रों पर खुदवाया फिर उन्हें प्रस्तर पात्र में रखकर स्तूप बनवा दिया ,ये स्तूप कहाँ है ये अब तक अज्ञात है | मूर्तिकला की गांधार और मथुरा शैली भी इन्ही विदेशी संस्कृतियों की देन है | शक शासक रुद्रदामन ने संस्कृत को संरक्षण प्रदान किया वही कुषाण राज्य में अश्वघोष ने बुद्धचरित तथा संस्कृत काव्य सौन्दरनन्द लिखा | महायान की प्रगति के कारण महावस्तु और दिव्यावदान जैसे अवदानों की रचना हुयी | नाट्यकला में परदे का प्रयोग यूनानियों की देन है इसीलिए इसे यवनिका कहा जाता है ,वात्स्यायन का कामसूत्र तीसरी सदी के धार्मिकेतर साहित्य का एक महत्वपूर्ण ���दाहरण है | यूनानियों के सम्पर्को से खगोल और ज्योतिष शाश्त्र में काफी प्रगति हुयी ,संस्कृत का होराशास्त्र यूनानी होरोस्कोप का ही रूप है | यूनानी शासको द्वारा ब्राह्मी लिपि चलायी गयी | चमड़े के जूते बनाने का कार्य कनिष्क से प्रेरित रहा है | 
जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 5 फरवरी 2019    
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -10 
जिस समय मगध साम्राज्य विस्तार ले रहा था उसी समय ईरान में हखामनी शासक और यूनान में सिकंदर भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे | विस्तारवादी नीतियों के तहत ही सही लेकिन मगध साम्राज्य ने पूर्वोत्तर के जनपदों पर प्रभुत्व स्थापित कर एक सुदृढ़ शासन तंत्र की स्थापना कर दी थी लेकिन पश्चिमोत्तर भारत में स्थित कम्बोज ,गंधार और मद्र में आपसी संघर्ष जारी था|  इसी राजनैतिक फूट ने पहली बार एक आक्रमणकारी( वाणिज्य और व्यापार के लिए तो लोग आते जाते थे ही ) को भारत में प्रवेश करने का मौका दिया, ये था ईरानी शासक दारयवहू जिसने 516 ईस्वी पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत में प्रवेश किया और सिंध सिंधु नदी के पश्चिम क्षेत्र तथा पंजाब को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया और इस क्षेत्र को ईरान का बीसवां प्रान्त बना लिया | ये क्षेत्र बेहद उपजाऊ था जिससे ईरान को 300 टेलेंट सोना राजस्व के रूप में मिलता था और ये राशि ईरान को सभी एशियाई क्षेत्रो से मिलने वाले राजस्व की एक तिहाई थी | यही नहीं उसने भारतीयों को अपनी सेना में भी भर्ती किया ,दारयवाहु के उत्तराधिकारी क्षयार्ष द्वारा यूनानियों से की गयी लड़ाई में भर्ती किये गए भारतीय सेनिको ने भी भाग लिया | भारत पर सिकंदर के हमले तक ये क्षेत्र ईरान का ही हिस्सा बना रहा | करीब 200 वर्षो के ईरानी आधिपत्य के दौरान ईरान और भारत में सांस्कृतिक आदान प्रदान भी हुआ | इस समय के ईरानी अभिलेखों में पहली बार सिंध को हिन्द नाम दिया गया , ईरानी लिपिकार (कातिब ) लेखन की एक विशेष शैली लाये जिसे खरोष्ठी कहा जाता है ये लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं और लिखी जाती थी | ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख इसी लिपि के पाए गए जो ईसा के बाद की तीन सदियों तक प्रचलन में रही | पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में पाए गए ईरानी सिक्को से दोनों क्षेत्रो के व्यापारिक सम्बन्धो की भी पुष्टि होती है | मौर्यकालीन वास्तुकला तथा अशोक के शिलालेखों में ईरानी प्रभाव स्पष्ट नजर आता है अशोककालीन लेखकों ने लिपि शब्द ईरानी शब्द दिपी के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग किया | और सबसे अहम् बात ये कि भारत की समृद्धि की जानकारी यूनानी शासको को ईरानियों से ही मिली जिसके चलते उन्होंने भारत का रुख किया |                                दूसरी और ईसा पूर्व चौथी सदी में यूनान में सिकंदर का उद्भव हुआ और विश्व पर आधिपत्य की लालसा ने ईरान और यूनान के बीच युद्ध को जन्म दिया जिसमे अंततः सिकंदर विजयी रहा और उसने तुर्की ,इराक और ईरान पर आधिपत्य कायम किया |  इतिहास के पिता कहे जाने वाले हिरोडोटस सहित अन्य यूनानी लेखक तत्कालीन भारत का वर्णन अपार संपत्ति के देश के रूप में करते रहे थे |  सिकंदर की महत्वाकांक्षाओं और विस्तारवादी सोच तथा लालच ने उसे भारत पर हमला करने के लिए प्रेरित किया ( मिथको के अनुसार ये भी कहा जाता है कि उसकी माँ द्वारा उसे अमृत के उद्गम स्थल का पता दिया था जो इसी क्षेत्र में कही था और जिसके सेवन से उसे अमर हो जाना था ) | 327 ईस्वी पूर्व सिकंदर ने कुनार घाटियों की एस्पैसिओई, गुरुईस घाटी के गुरानी, और स्वात तथा बुनेर घाटियों के आसेनकी जैसे क्षेत्रीय कबीलो के खिलाफ एक अभियान चलाया। एस्पैसिओई के साथ भयंकर लड़ाई में सिकंदर का कंधा भाले से घायल हो गया, लेकिन अंततः वो विजयी रहा । फिर मस्सागा ,ओरा और एरोन्स के गढ़ो में अस्सकेनोई से युद्ध हुआ | मस्सागा का किला एक खूनी लड़ाई के बाद ही जीता जा सका, इसमें सिकंदर का टखना गंभीर रूप से घायल हो गया था। कूर्टियस के अनुसार, "न केवल अलेक्जेंडर ने मस्सागा की पूरी आबादी को मार डाला, बल्कि उसकी सभी इमारतों को मलबे में बदल दिया ,इसी प्रकार का नरसंहार ओरा में भी किया गया। मस्सागा और ओरा के बाद कई अस्सकेनोई एरोन्स के किले में भाग गए, सिकंदर ने उनका पीछा किया और चार दिनों की खूनी लड़ाई के बाद इस रणनीतिक पहाड़ी-किले पर कब्जा कर लिया। फिर सिकंदर ने गांधार (वर्तमान में पूर्वी अफगानिस्तान और उत्तरी पाकिस्तान का क्षेत्र) के सभी प्रमुखों को अपने क्षेत्र उसके  अधीन करने के लिये कहा। तक्षशिला के शासक आम्भी ने जिसका राज्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच था इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन कम्बोज क्षेत्र के अश्वान्यास (असंबी) और अश्वकन्यास (आंडेनोयोई) ने इसे मानने से मना कर दिया। आम्भी सिकंदर को दोस्ती का यकीन दिलाने के लिए कीमती उपहारों और सेना के साद खुद उसके पास गया लेकिन सिकंदर ने उपहारों को लौटा दिया,साथ ही उसे  फ़ारसी वस्त्र, सोने और चांदी के गहने और 30 घोडे उपहार स्वरूप दिए । आम्भी ने सिंधु नदी पर पुल के निर्माण करने में हिपेस्टियन और पेड्रिक्स की मदद की साथ ही सिकंदर के सैनिकों को भोजन की आपूर्ति करता रहा। सिकंदर के आगे बढ़ने पर आम्भी ने अपनी 5,000 लोगों की सेना के साथ झेलम की लड़ाई में हिस्सा लिया। इस युद्ध में विजय के बाद सिकंदर ने आम्भी को पोरस से बातचीत के लिये भेजा जिसका राज्य झेलम और चिनाब नदी के बीच था (वर्तमान पंजाब ) इसमें पोरस के सामने अपना राज्य सिकदंर के अधीन करने जैसी पेशकश थी | आम्भी और पोरस पुराने दुश्मन थे जिसके चलते पोरस ने सभी शर्तें ठुकरा दी और आम्भी बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहां से भागा | 326 ईसा पूर्व में सिकंदर ने सिंधु को पार किया और राजा पोरस के विरुद्ध ऐतिहासिक युद्ध लड़ा ,इस युद्ध में पोरस पराजित हुआ लेकिन उसका गर्वोक्तिपूर्ण कथन आज भी याद किया जाता है |  पोरस की बहादुरी से प्रभावित सिकंदर ने उसे अपना उपपति बनाया और उसके क्षेत्र के साथ अपने जीते दक्षिण-पूर्व में व्यास नदी तक के क्षेत्र को भी जोड़ दिया। सिकंदर ने व्यक्तिगत मध्यस्थता से आम्भी और पोरस में मेल मिलाप करवा दिया और आम्भी को झेलम नदी और सिंधु के बीच का पूरा क्षेत्र सौंपा | इन विजयो के बाद सिकंदर पूर्व में आगे बढ़ना ��ाहता था लेकिन उसके सैनिकों ने जो लगातार युद्ध लड़ते लड़ते थक चुके थे और घर लौटना चाहते थे आगे बढ़ने से इंकार कर दिया | यूनानी सैनिक भारतीय लोगो का युद्ध कौशल देख चुके थे दूसरे उन्हें गंगा के किनारे एक बड़ी शक्ति (मगध साम्राज्य ) की जानकारी भी मिल चुकी थी इस पर भारतीय उपमहादेश की गर्म आबोहवा ने उन्हें सिकंदर की प्रत्येक अपील को ठुकराने पर मजबूर कर दिया | सिकंदर जो किसी से नहीं हारा वो अपने ही लोगो से हार गया और उसे विवश होकर लौटने का निर्णय लेना पड़ा | सिकंदर लगभग 19 महीने भारत में रहा इस दौरान उसने अधिकांश विजित राज्य उन राजाओ को वापस लोटा दिए जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली | उसने अपने विजित प्रदेश को तीन भागो में बांटकर स्थानीय गवर्नर नियुक्त किये | सिकंदर ने झेलम नदी के विपरीत दिशा में दो शहरों की स्थापना की पहले को अपने घोड़े के जो युद्ध में मारा गया था सम्मान में बुकेफाल नाम दिया दूसरा, निकाया (विजय) था जो वर्तमान में पंजाब में है | सिकंदर का आक्रमण सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा ,इस आक्रमण के दौरान और बाद में यूनानी तथा भारतीय संस्कृतियों का सम्मिश्रण हुआ वही चार विभिन्न जलमार्ग खुले जिनसे व्यापार बढ़ा | काबुल में सिकन्दरिया और सिंध में बुकेफाल दो शहर यूनानी उपनिवेशों के रूप में विकसित हुए | यूनानी इतिहासकारो द्वारा इस काल के लिखे गए इतिहास से इसमें व्याप्त सती प्रथा ,गरीब लोगो द्वारा अपने बच्चो को बेचे जाने की घटनाओ और भारतीय शिल्प तथा देशी राजाओ के सैन्य शौर्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है | यूनानी इतिहासकारो द्वारा लिखे वर्णन में सिकंदर द्वारा भारतीय नस्ल के 2 लाख बेलो के साथ कई भारतीय शिल्पियों को भी यूनान भेजने का जिक्र किया है | यूनानी इतिहासकारो ने सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित रहस्य मय महासागर का जिक्र भी किया है और सिकंदर अपने मित्र नियार्कस के नेतृत्व में सैनिक बेड़े के साथ इसकी यात्रा पर गया भी था लेकिन क्या ये वास्तव में उसका अमृत की खोज का अभियान था जो वास्तव में उसके भारत पर आक्रमण का प्रमुख कारण था इसके बारे में विस्तृत विवरण अभी तक नहीं मिला ,हो सकता है भविष्य सिकंदर की इस रहस्यमयी यात्रा पर से पर्दा हटाए | जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 3 फरवरी 2019 कौन है हम ?? भाग -11 मगध से नंदवंश के साम्राज्य के पतन और मौर्य साम्राज्य के उदय को लेकर एक घटना बेहद चर्चित है इस घटना के अनुसार विष्णुगुप्त नाम का एक ब्राह्मण जो संभवतया तक्षशिला का निवासी था ,सिकंदर के भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण के समय मगध के नंद शासक घनानंद के दरबार में उसे सिकंदर के आक्रमण का सामना करने के लिए प्रेरित करने गया था लेकिन घनानंद ने उसे अपमानित कर दरबार से बाहर निकाल दिया था | स्वभाव से विद्रोही और हर हाल में प्रतिशोध लेने वाले विष्णुगुप्त ने इस अपमान के बाद जिस शिखा को लेकर उसपर अपमानजनक टिप्पणी की गयी थी उसने उसे खोल दिया था और नंदवंश के समाप्त होने तक नहीं बांधने की शपथ ली थी | यही विष्णुगुप्त इतिहास में चाणक्य और कौटिल्य के नाम से प्रसिद्द हुआ जिसने अपना प्रतिशोध लेने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य को तैयार किया था | चन्द्रगुप्त मौर्य वस्तुतः कौन था इसे लेकर इतिहासकारो में विभिन्न मत है ,ब्राह्मण परंपरा में उसे एक शूद्र जाति की महिला मुरा का पुत्र बताया गया जो रनिवास में रहती थी लेकिन ये तथ्य इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता कि तत्कालीन पुरुषप्रधान समाज में महिला के नाम से वंश निर्धारण तर्कसंगत नहीं लगता |प्राचीन बौद्ध परम्पराओ में गोरखपुर में एक मौर्य क्षत्रिय कुल की जानकारी मिलती है जिसका प्रधान चन्द्रगुप्त की बाल्यावस्था में ही मारा गया था | घनानंद के तख्तापलट के अभियान में चाणक्य ने जो जो चालें चली गई उनका विस्तृत वर्णन बहुत बाद में 9 वी सदी में विशाखदत्त द्वारा लिखित नाटक मुद्राराक्षस में विस्तृत रूप से वर्णित है लेकिन अपनी प्रारंभिक तैयारी के रूप में चाणक्य ने एक गुप्तचर तंत्र विकसित किया जो भारतीय इतिहास में अपनी तरह का पहला तंत्र था | उसके गुप्तचरों ने घनानंद की कमजोरियों के साथ उन लोगो की भी सूचनाएं एकत्रित की जो घनानंद के विरोधी थे साथ ही घनानंद के शासन से दुखी जनता को विद्रोह के लिए उकसाया गया | घनानंद के दरबारियों को प्रलोभनों और रिश्वत द्वारा उसके विरुद्ध तैयार किया गया | इसी अभियान के दौरान चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य का संपर्क हुआ ,चन्द्रगुप्त की प्रतिभा और उसमे छिपे राजा के नैसर्गिक गुणों को चाणक्य ने पहचाना और भविष्य के राजा के रूप में उसे प्रशिक्षित करना शुरू किया |  चन्द्रगुप्त ने एक सुगठित सेना तैयार की और 305 ईस्वी पूर्व सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस को जो कि सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके द्वारा जीते गए भूभाग पुनः  प्राप्त करने के लिए उत्सुक था हराया । इस विजय से  हेरात, कंधार,मकरान, काबुल जैसे क्षेत्र चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गए | सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलना (कार्नेलिया) का विवाह भी चन्द्रगुप्त से किया । यूनानी इतिहासकार इस विजय का उल्ले़ख नहीं करते लेकिन ये अवश्य मानते है कि चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच एक संधि हुई थी जिसमें सेल्यूकस ने कंधार ,काबुल ,हेरात और बलूचिस्तान क्षेत्र चन्द्रगुप्त को दे दिए थे, चन्द्रगुप्त ने उसे 500 हाथी भेंट किए थे | 317 ई. पू. तक चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने चाणक्य के साथ मगध पर आक्रमण किया ,इस युद्ध में घनानंद मारा गया | इस विजय से जहाँ चाणक्य का प्रतिशोध पूरा हुआ वही 322 ईस्वी पूर्व मगध पर मौर्य वंश के साम्राज्य की स्थापना हुयी | अब चन्द्रगुप्त के पास मगध के रूप में एक विशाल साम्राज्य था ,सेल्यूकस ने मेगास्थनीज को चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा जो पाटलिपुत्र में रहा ,उसकी पुस्तक इंडिका में पूरे मौर्य साम्राज्य का विवरण मिलता है । एक अन्य यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार "सैंड्रोकोटस उस समय तक सिंहासनारूढ़ हो चुका था उसने अपने 6 लाख सैनिकों की सेना से सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और अपने अधीन कर लिया।ये अतिशयोक्ति वर्णन कहा जा सकता है क्योंकि उस समय कावेरी नदी और उसके दक्षिण के क्षेत्रों में चोलों , पांड्यो, सत्यपुत्रों तथा केरलपुत्रों का शासन था।  अपने जीवन के उत्तरार्ध में चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म अपना लिया था और सिंहासन त्यागकर कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में अपने गुरु जैनमुनि भद्रबाहु के साथ संन्यासी जीवन व्यतीत करने लगा था |                   
 चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिंदुसार सत्तारूढ़ हुआ जिसने दक्षिण की ओर साम्राज्य विस्तार का श्रेय दिया जाता है लेकिन उसके विजय अभियान का कोई साक्ष्य नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार उसकी माँ का नाम दुर्धर था और पुराणों के अनुसार बिंदुसार ने 25 वर्षों तक शासन किया । बिन्दुसार ने यूनानी शासको के साथ सम्बन्ध बनाये रखे अमित्रघात की उपाधि भी दी जाती है। बिन्दुसार आजिवक धरम को मानता था ,उसने एक युनानी शासक एन् टियोकस प्रथम से सूखी अन्जीर, मीठी शराब व एक दार्शनिक की मांग की थी | बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत म��र्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।दिव्यादान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार सुसीम दूसरी बार अशोक को भेजा गया था |  प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्‍ थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने 25 वर्षों तक राज्य किया अन्ततः 273 ईस्वी पूर्व उसकी मृत्यु हो गयी। बिन्दुसार के बाद शासन उसके पुत्र अशोक ने संभाला, अशोक (273-236) ईस्वी पूर्व को राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे, इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद 269 ईस्वी पूर्व में हुआ। दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी बताया गया जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जैन जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है ,उसके लेख में उसकी पत्‍नी का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी। बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था जिसके कारण  अशोक एवं  सुसीम के बीच युद्ध हुआ ।अशोक पहला शासक था जिसने अपने सन्देश अभिलेखों द्वारा जनता के बीच रखे ,अशोक के अभिलेखों को पांच श्रेणियों में बांटा गया  है जिनमे कर्नाटक और मध्यप्रदेश में पाए गए लघु शिलालेखों में ही अशोक का नाम मिलता है | अन्य अभिलेखों में अशोक के लिए देवाना पिय पियदसि (देवों का प्यारा ) का प्रयोग किया गया है | प्राकृत भाषा में लिखित ये अभिलेख उसके साम्राज्य के अधिकांश भागों में ब्राह्मी लिपि में है लेकिन पश्चिमोत्तर में ये खरोष्ठी और अरामाइक तथा अफगानिस्तान में इनकी भाषा और लिपि यूनानी तथा अरामाइक दोनों है | अशोक ने अपने शासन काल में केवल कलिंग का युद्ध किया और उसे जीता भी लेकिन इस युद्ध की विभीषिका ने उसे इतना आहत किया कि वो धम्म की शरण में चला गया , उपगुप्त ने अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया | कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने दूसरे राज्यों पर भौतिक विजय के स्थान पर सांस्कृतिक विजय पाने की नीति अपनायी | अशोक वो पहला शासक था जिसने शांतिवादी नीति अपनायी और लोगो को जियो और जीने दो का पाठ पढ़ाया , सशक्त सैन्य शक्ति और संसाधन होने के बावजूद उसने अपनी अनाक्रमण नीति को जारी रखा | लेकिन ये भी सच है कि उसने अपनी सेना का विघटन नहीं किया था और न ही कलिंग को मुक्त किया था | अशोक ने खुद को एक आदर्शवादी राजा के रूप में प्रस्तुत किया था और वो प्रजा को अपनी संतति समझता था | वो कर्मकांडो विशेषकर स्त्रियों के मध्य प्रचलित रस्मो का घोर विरोधी था ,उसके शासन में जीव हिंसा तथा तड़क भड़क वाले समारोहों पर रोक थी | बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद उसने सामाजिक एकता को बनाये रखने का प्रयास किया | अशोक को महान इसलिए भी कहा जाना चाहिए कि उसने अपने साम्राज्य में एक धर्म ,एक भाषा और एक लिपि को स्थापित कर राजनैतिक एकता स्थापित की | उसन धम्म का प्रचार करने के लिए सीरिया, पश्चिम एशिया में धर्म प्रचारक भेजे अपने पुत्र महेंद्र को उसने पाटलिपुत्र से श्रीलंका जलमार्ग से रवाना किया ,पाटलिपुत्र का ऐतिहासिक महेन्द्रू घाट उसी के नाम पर नामकृत है |                 
 232 ईस्वी पूर्व उसका राज्यकाल समाप्त होते ही उसके राज्यपालों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया | इस प्रकार मौर्य वंश के गौरवशाली साम्राज्य का पतन शुरू हुआ जिसके लिए अशोक की अनाक्रमण और शांति की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया | ये तो तय है कि अशोक मुख्यतः धर्म प्रचार के कार्य में लगा रहा जिसके कारण वो पश्चिमोत्तर दर्रे की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दे पाया जबकि मध्य एशिया के सीथियन कबीले एक गंभीर खतरा बन रहे थे ,तत्कालीन चीनी राजा शीह हुआंग टी (247 -210 ईस्वी पूर्व ) ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा इनसे करने के लिए 200 मीटर लम्बी महा दीवार का निर्माण करवाया लेकिन अशोक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सका था |  भारत की और बढ़ते सीथियनों ने पार्थियनों ,शको और यूनानियों ( जो अफगानिस्तान में बैक्ट्रिया में स्थापित हो चुके थे )को भी भारत की और धकेला  इसके बाद से भारत पर बाहरी आक्रमणों का एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो ईस्वी सन के प्रारम्भ तक जारी रहा |  पुष्यमित्र शुंग जो कि ब्राह्मण होते हुए भी अंतिम मौर्य शासक ब्रहद्रथ का सेनापति था द्वारा 185 ईस्वी पूर्व में बृहद्रथ की हत्या कर पाटलिपुत्र का सिंहासन हथिया लिया गया जिसके साथ मौर्य वंश का शासन समाप्त हुआ |                         
चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया गया था ,मौर्य शासन की सबसे बड़ी देन शासन की नीतियां अर्थात एक सशक्त प्रशासनिक तंत्र और कर प्रणाली की स्थापना है  इसकी झलक यूनानी राजदूत मेगास्थनीज की पुस्तक इंडिका और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलती है | मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) थी। इसके अतिरिक्त साम्राज्य को प्रशासन के लिए चार और प्रांतों में बांटा गया था। पूर्वी भाग की राजधानी तोसाली दक्षिणी भाग की सुवर्णगिरि , उत्तरी तथा पश्चिमी भाग की राजधानी क्रमशः तक्षशिला तथा उज्जैन थी | समापा ,इशिला तथा कौशाम्बी महत्वपूर्ण नगर थे। युवराज प्रांतो के शासक थे जिनकी मदद के लिए प्रांत में एक मंत्री परिषद् तथा महामात्य होते थे। प्रांत आगे जिलों में और प्रत्येक जिला गाँव के समूहों में बंटा होता था। गांव का प्रधान ग्रामिक और जिले का प्रधान प्रदेशिक कहा जाता था , जमीन मापने के साथ जनता को पुरस्कृत करने अथवा दंड देने वाले अधिकारी राजुक कहे जाते थे | कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों के प्रशासन के बारे में एक पूरा अध्याय लिखा है। विद्वानों का कहना है कि उस समय पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों का प्रशासन इस सिंद्धांत के अनुरूप ही रहा होगा। मेगास्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के प्रशासन का वर्णन किया है। उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर का शासन एक नगर परिषद द्वारा किया जाता था जिसमें 30 सदस्य थे। ये तीस सदस्य पाँच-पाँच सदस्यों वाली छः समितियों में बंटे होते थे। पहली समिति का काम औद्योगिक तथा कलात्मक उत्पादन से सम्बंधित था, इसका काम वेतन निर्धारित करना तथा मिलावट रोकना भी था। दूसरी समिति पाटलिपुत्र में बाहर से आने वाले लोगों खासकर विदेशियों के मामले देखती थी। तीसरी समिति का ताल्लुक जन्म तथा मृत्यु के पंजीकरण से था। चौथी समिति व्यापार तथा वाणिज्य का विनिमयन करती थी, इसका काम निर्मित माल की बिक्री तथा पण्य पर नज़र रखना था। पाँचवी माल के विनिर्माण पर नजर रखती थी तो छठी का काम कर वसूलना था।
              नगर परिषद द्वारा जनकल्याण के कार्य करने के लिए विभिन्न प्रकार के अधिकारी नियुक्त किये जाते थे जो  सड़कों, बाज़ारों, चिकित्सालयों, देवालयों, शिक्षा-संस्थाओं, जलापूर्ति, बंदरगाहों की मरम्मत तथा रखरखाव का काम देखते थे । नगर का प्रमुख अधिकारी नागरक कहलाता था, कौटिल्य ने नगर प्रशासन में कई विभागों का भी उल्लेख किया है जो नगर के कई कार्यकलापों को नियमित करते थे इनमे लेखा विभाग, राजस्व विभाग, खान तथा खनिज विभाग, रथ विभाग, सीमा शुल्क और कर विभाग आदि थे । मौर्य साम्राज्य की एक विशेषता उसका गुप्तचर जाल था उस समय पूरे राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया था जो राज्य पर किसी बाहरी ���क्रमण या आंतरिक विद्रोह की खबर प्रशासन तथा सेना तक पहुँचाते थे।भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी। मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था। मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई। कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी इसमें राजा, अमात्य जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और, मित्र शामिल थे ।इतने बड़े साम्राज्य की स्थापना से पूरे साम्राज्य में आर्थिक एकीकरण हुआ ,किसानों को स्थानीय रूप से कोई कर नहीं देना पड़ता था लेकिन उन्हें कड़ाई से पर वाजिब मात्रा में कर केन्द्रीय अधिकारियों को देना पड़ता था। उस समय की मुद्रा पण थी, अर्थशास्त्र में इन पणों के वेतनमानों का भी उल्लैख मिलता है, न्यूनतम वेतन 60 पण तथा अधिकतम वेतन 48000 पण था |
                छठी सदी ईसा पूर्व तक भारत में वैदिक धर्म का ही बोलबाला था और करीब 62 संप्रदाय मौजूद थे , बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय का उदय कालान्तर में अन्य की अपेक्षा अधिक हुआ। मौर्यों के आते आते बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों का विकास हो चुका था जबकि दक्षिण में शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय भी विकसित हो रहे थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना राजसिंहासन त्यागकर कर जैन धर्म अपना लिया था, कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त अपने गुरु जैनमुनि भद्रबाहु के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में संन्यासी के रूप में रहने लगा था। इसके बाद के शिलालेखों में पाया जाता है कि चन्द्रगुप्त ने उसी स्थान पर एक सच्चे निष्ठावान जैन की तरह आमरण उपवास करके दम तोड़ा था। वहां पास में ही चन्द्रगिरि नाम की पहाड़ी है जिसका नामाकरण शायद चन्द्रगुप्त के नाम पर ही किया गया था। अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपना लिया और धम्म  के प्रचार में अपना ध्यान लगाया।  लेकिन यहां धम्म का मतलब कोई धर्म या मज़हब  से नहीं बल्कि एक "नैतिक सिद्धांत" था। उस समय तक इस्लाम या ईसाईयत का अस्तित्व ही नहीं था अतः ये नैतिक सिद्धांत किसी बाहरी धर्म के विरोध में नहीं वरन मनुष्य को एक नैतिक नियम प्रदान करने के लिए थे । बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद उसने इसको जीवन में उतारने की भी कोशिश की। उसने शिकार करना और पशुओं की हत्या छोड़ दिया तथा मनुष्यों तथा जानवरों के लिए चिकित्सालयों की स्थापना कराई। उसने ब्राह्मणों तथा विभिन्न धार्मिक पंथों के सन्यासियों को उदारतापूर्वक दान दिया। इसके अलावा उसने आरामगृह, एवं धर्मशाला, कुएं तथा बावड़ियों का भी निर्माण कार्य कराया।उसने धर्म महापात्र नाम के पदवाले अधिकारियों की नियुक्ति की जिनका काम आम जनता में धम्म का प्रचार करना था।  मौर्य साम्राज्य की सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्‍त थी और प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे। पैदल सेना, अश्‍व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी | सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था जो सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था।
जारी है अतीत का ये सफर ---
महेंद्र जैन
3 फरवरी 2019   
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कौन है हम ?? भाग -10
 जिस समय मगध साम्राज्य विस्तार ले रहा था उसी समय ईरान में हखामनी शासक और यूनान में सिकंदर भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे | विस्तारवादी नीतियों के तहत ही सही लेकिन मगध साम्राज्य ने पूर्वोत्तर के जनपदों पर प्रभुत्व स्थापित कर एक सुदृढ़ शासन तंत्र की स्थापना कर दी थी लेकिन पश्चिमोत्तर भारत में स्थित कम्बोज ,गंधार और मद्र में आपसी संघर्ष जारी था|  इसी राजनैतिक फूट ने पहली बार एक आक्रमणकारी( वाणिज्य और व्यापार के लिए तो लोग आते जाते थे ही ) को भारत में प्रवेश करने का मौका दिया, ये था ईरानी शासक दारयवहू जिसने 516 ईस्वी पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत में प्रवेश किया और सिंध सिंधु नदी के पश्चिम क्षेत्र तथा पंजाब को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया और इस क्षेत्र को ईरान का बीसवां प्रान्त बना लिया | ये क्षेत्र बेहद उपजाऊ था जिससे ईरान को 300 टेलेंट सोना राजस्व के रूप में मिलता था और ये राशि ईरान को सभी एशियाई क्षेत्रो से मिलने वाले राजस्व की एक तिहाई थी | यही नहीं उसने भारतीयों को अपनी सेना में भी भर्ती किया ,दारयवाहु के उत्तराधिकारी क्षयार्ष द्वारा यूनानियों से की गयी लड़ाई में भर्ती किये गए भारतीय सेनिको ने भी भाग लिया | भारत पर सिकंदर के हमले तक ये क्षेत्र ईरान का ही हिस्सा बना रहा | करीब 200 वर्षो के ईरानी आधिपत्य के दौरान ईरान और भारत में सांस्कृतिक आदान प्रदान भी हुआ | इस समय के ईरानी अभिलेखों में पहली बार सिंध को हिन्द नाम दिया गया , ईरानी लिपिकार (कातिब ) लेखन की एक विशेष शैली लाये जिसे खरोष्ठी कहा जाता है ये लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं और लिखी जाती थी | ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख इसी लिपि के पाए गए जो ईसा के बाद की तीन सदियों तक प्रचलन में रही | पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में पाए गए ईरानी सिक्को से दोनों क्षेत्रो के व्यापारिक सम्बन्धो की भी पुष्टि होती है | मौर्यकालीन वास्तुकला तथा अशोक के शिलालेखों में ईरानी प्रभाव स्पष्ट नजर आता है अशोककालीन लेखकों ने लिपि शब्द ईरानी शब्द दिपी के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग किया | और सबसे अहम् बात ये कि भारत की समृद्धि की जानकारी यूनानी शासको को ईरानियों से ही मिली जिसके चलते उन्होंने भारत का रुख किया |                                               दूसरी और ईसा पूर्व चौथी सदी में यूनान में सिकंदर का उद्भव हुआ और विश्व पर आधिपत्य की लालसा ने ईरान और यूनान के बीच युद्ध को जन्म दिया जिसमे अंततः सिकंदर विजयी रहा और उसने तुर्की ,इराक ��र ईरान पर आधिपत्य कायम किया |  इतिहास के पिता कहे जाने वाले हिरोडोटस सहित अन्य यूनानी लेखक तत्कालीन भारत का वर्णन अपार संपत्ति के देश के रूप में करते रहे थे |  सिकंदर की महत्वाकांक्षाओं और विस्तारवादी सोच तथा लालच ने उसे भारत पर हमला करने के लिए प्रेरित किया ( मिथको के अनुसार ये भी कहा जाता है कि उसकी माँ द्वारा उसे अमृत के उद्गम ��्थल का पता दिया था जो इसी क्षेत्र में कही था और जिसके सेवन से उसे अमर हो जाना था ) | 327 ईस्वी पूर्व सिकंदर ने कुनार घाटियों की एस्पैसिओई, गुरुईस घाटी के गुरानी, और स्वात तथा बुनेर घाटियों के आसेनकी जैसे क्षेत्रीय कबीलो के खिलाफ एक अभियान चलाया। एस्पैसिओई के साथ भयंकर लड़ाई में सिकंदर का कंधा भाले से घायल हो गया, लेकिन अंततः वो विजयी रहा । फिर मस्सागा ,ओरा और एरोन्स के गढ़ो में अस्सकेनोई से युद्ध हुआ | मस्सागा का किला एक खूनी लड़ाई के बाद ही जीता जा सका, इसमें सिकंदर का टखना गंभीर रूप से घायल हो गया था। कूर्टियस के अनुसार, "न केवल अलेक्जेंडर ने मस्सागा की पूरी आबादी को मार डाला, बल्कि उसकी सभी इमारतों को मलबे में बदल दिया ,इसी प्रकार का नरसंहार ओरा में भी किया गया। मस्सागा और ओरा के बाद कई अस्सकेनोई एरोन्स के किले में भाग गए, सिकंदर ने उनका पीछा किया और चार दिनों की खूनी लड़ाई के बाद इस रणनीतिक पहाड़ी-किले पर कब्जा कर लिया। फिर सिकंदर ने गांधार (वर्तमान में पूर्वी अफगानिस्तान और उत्तरी पाकिस्तान का क्षेत्र) के सभी प्रमुखों को अपने क्षेत्र उसके  अधीन करने के लिये कहा। तक्षशिला के शासक आम्भी ने जिसका राज्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच था इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन कम्बोज क्षेत्र के अश्वान्यास (असंबी) और अश्वकन्यास (आंडेनोयोई) ने इसे मानने से मना कर दिया। आम्भी सिकंदर को दोस्ती का यकीन दिलाने के लिए कीमती उपहारों और सेना के साद खुद उसके पास गया लेकिन सिकंदर ने उपहारों को लौटा दिया,साथ ही उसे  फ़ारसी वस्त्र, सोने और चांदी के गहने और 30 घोडे उपहार स्वरूप दिए । आम्भी ने सिंधु नदी पर पुल के निर्माण करने में हिपेस्टियन और पेड्रिक्स की मदद की साथ ही सिकंदर के सैनिकों को भोजन की आपूर्ति करता रहा। सिकंदर के आगे बढ़ने पर आम्भी ने अपनी 5,000 लोगों की सेना के साथ झेलम की लड़ाई में हिस्सा लिया। इस युद्ध में विजय के बाद सिकंदर ने आम्भी को पोरस से बातचीत के लिये भेजा जिसका राज्य झेलम और चिनाब नदी के बीच था (वर्तमान पंजाब ) इसमें पोरस के सामने अपना राज्य सिकदंर के अधीन करने जैसी पेशकश थी | आम्भी और पोरस पुराने दुश्मन थे जिसके चलते पोरस ने सभी शर्तें ठुकरा दी और आम्भी बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहां से भागा | 326 ईसा पूर्व में सिकंदर ने सिंधु को पार किया और राजा पोरस के विरुद्ध ऐतिहासिक युद्ध लड़ा ,इस युद्ध में पोरस पराजित हुआ लेकिन उसका गर्वोक्तिपूर्ण कथन आज भी याद किया जाता है |  पोरस की बहादुरी से प्रभावित सिकंदर ने उसे अपना उपपति बनाया और उसके क्षेत्र के साथ अपने जीते दक्षिण-पूर्व में व्यास नदी तक के क्षेत्र को भी जोड़ दिया। सिकंदर ने व्यक्तिगत मध्यस्थता से आम्भी और पोरस में मेल मिलाप करवा दिया और आम्भी को झेलम नदी और सिंधु के बीच का पूरा क्षेत्र सौंपा | 
इन विजयो के बाद सिकंदर पूर्व में आगे बढ़ना चाहता था लेकिन उसके सैनिकों ने जो लगातार युद्ध लड़ते लड़ते थक चुके थे और घर लौटना चाहते थे आगे बढ़ने से इंकार कर दिया | यूनानी सैनिक भारतीय लोगो का युद्ध कौशल देख चुके थे दूसरे उन्हें गंगा के किनारे एक बड़ी शक्ति (मगध साम्राज्य ) की जानकारी भी मिल चुकी थी इस पर भारतीय उपमहादेश की गर्म आबोहवा ने उन्हें सिकंदर की प्रत्येक अपील को ठुकराने पर मजबूर कर दिया | सिकंदर जो किसी से नहीं हारा वो अपने ही लोगो से हार गया और उसे विवश होकर लौटने का निर्णय लेना पड़ा | सिकंदर लगभग 19 महीने भारत में रहा इस दौरान उसने अधिकांश विजित राज्य उन राजाओ को वापस लोटा दिए जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली | उसने अपने विजित प्रदेश को तीन भागो में बांटकर स्थानीय गवर्नर नियुक्त किये | सिकंदर ने झेलम नदी के विपरीत दिशा में दो शहरों की स्थापना की पहले को अपने घोड़े के जो युद्ध में मारा गया था सम्मान में बुकेफाल नाम दिया दूसरा, निकाया (विजय) था जो वर्तमान में पंजाब में है | सिकंदर का आक्रमण सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा ,इस आक्रमण के दौरान और बाद में यूनानी तथा भारतीय संस्कृतियों का सम्मिश्रण हुआ वही चार विभिन्न जलमार्ग खुले जिनसे व्यापार बढ़ा | काबुल में सिकन्दरिया और सिंध में बुकेफाल दो शहर यूनानी उपनिवेशों के रूप में विकसित हुए | यूनानी इतिहासकारो द्वारा इस काल के लिखे गए इतिहास से इसमें व्याप्त सती प्रथा ,गरीब लोगो द्वारा अपने बच्चो को बेचे जाने की घटनाओ और भारतीय शिल्प तथा देशी राजाओ के सैन्य शौर्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है | यूनानी इतिहासकारो द्वारा लिखे वर्णन में सिकंदर द्वारा भारतीय नस्ल के 2 लाख बेलो के साथ कई भारतीय शिल्पियों को भी यूनान भेजने का जिक्र किया है | यूनानी इतिहासकारो ने सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित रहस्य मय महासागर का जिक्र भी किया है और सिकंदर अपने मित्र नियार्कस के नेतृत्व में सैनिक बेड़े के साथ इसकी यात्रा पर गया भी था लेकिन क्या ये वास्तव में उसका अमृत की खोज का अभियान था जो वास्तव में उसके भारत पर आक्रमण का प्रमुख कारण था इसके बारे में विस्तृत विवरण अभी तक नहीं मिला ,हो सकता है भविष्य सिकंदर की इस रहस्यमयी यात्रा पर से पर्दा हटाए | जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 3 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -9 भारतीय उपमहादेश में 600 ईस्वी पूर्व के लगभग एक बड़ा राजनैतिक और सामाजिकपरिवर्तन देखने को मिलता है और इसका सबसे बड़ा कारण था लोहे का प्रयोग | अतीत के अब तक के सफर में हमने देखा कि आर्यो द्वारा विकसित सभ्यता मुख्य रूप से कृषि और पशुपालन पर आधारित रही | लोहे के प्रयोग से एक और जहाँ कृषि उत्पादनो में वृद्धि हुयी वही इसके हथियारों ने समाज में योद्धा वर्ग को जन्म दिया | कृषि उत्पादनो में हुयी बढ़ोतरी ने लोगो को यायावर जीवन के स्थान स्थान पर स्थायी जीवन जीने के लिए प्रेरित किया | उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में हम देखते है कि विश पहले जन में परिवर्तित हुए और फिर इन्होने जनपद का रूप ले लिया | ये वो समय था जब वैदिक संस्कृति में जैन और बौद्ध संस्कृति का समावेश हुआ | जनपदों का शासक राजा या प्रधान कहलाता था और ये पद अनुवांशिक था ,जनपदों के नाम उन्ही कबीलो या गोत्रो के नाम पर थे जिनके लोगो ने उन्हें स्थापित किया था |  पाणिनि (450 ईस्वी पूर्व ) ने ऐसे 40 जनपदों का उल्लेख किया है जो उत्तर भारत ,अफगानिस्तान और मध्य एशिया में अवस्थित थे | इन जनपदों की सीमाएं अधिकतर नदियों द्वारा निर्धारित की जाती थी ,पहाड़ो और जंगलो द्वारा भी जनपदों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता था | जनपदों के विकास में कृषि ने अहम् भूमिका निभाई ,कृषि उत्पादन बढ़ने से लोगो की संपत्ति में वृद्धि हुयी तो साथ ही शासन को कर भी मिलने लगा | बढे हुए उत्पादन ने दूसरे जनपदों के साथ व्यापार के मार्ग को प्रशस्त किया ,जनपदों में टकसाल स्थापित हुयी और सिक्को का प्रचलन शुरू हुआ ,ये चांदी और ताम्बे के पंच मार्क्ड सिक्के थे जिसके साथ एक तरह से बैंकिंग प्रणाली की शुरुवात हुयी | जनपदों में राजा का चुनाव होता था लेकिन ये होता उसी राज परिवार में से जिसके द्वारा जनपद स्थापित किया गया था ,राजा की सहायता के लिए एक कौंसिल हुआ करती थी ,अपने साम्राज्य को ईश्वरीय स्वरूप प्रदान करने के लिए राजा द्वारा विभिन्न धार्मिक आयोजन किये जाते थे | जनपद के किसी बड़े नगर का प्रयोग राजधानी के रूप में किया जाता था जहा राजा का आवास बनाया जाता था | कर संग्रहण के लिए अधिकारी थे और कर कि एवज में राजा नागरिको को युद्ध में सुरक्षा के साथ चोरो और डकेतो से भी सुरक्षा प्रदान करता था | लेकिन वर्ण व्यवस्था से उपजा असंतोष समाज में व्याप्त था जिसके चलते जैन और बौद्ध संस्कृति का समावेश भी इन जनपदों में हो चुका था |             
  पाली भाषा की पुस्तकों से ज्ञात होता है कि बुद्ध के समय ये जनपद विस्तृत और शक्तिशाली हुए और महाजनपद कहलाये जिनकी संख्या 16 थी, इनमे अधिकतर विन्ध्य के उत्तर और पश्चिमोत्तर प्रान्त से बिहार तक फैले हुए थे , इन महाजनपदों में मगध ,कौसल ,वत्स और अवन्ति अत्यधिक शक्तिशाली थे | पूर्व से शुरू करे तो अंग महाजनपद आता है जिसमे आधुनिक मुंगेर और भागलपुर जिले पड़ते थे , इसकी राजधानी चंपा थी जहाँ ईसा पूर्व छठी सदी में आबादी होने के प्रमाण मिले है , इस जनपद को बाद में मगध ने अपने में मिला लिया |  मगध में आधुनिक पटना ,गया जिला तथा शाहाबाद का कुछ हिस्सा शामिल था , गंगा के उत्तर में वर्तमान तिरहुत प्रमंडल में वज्जियों का राज्य था , ये आठ जनो का संघ था इनमे प्रथम लिच्छिवि थे जिनकी राजधानी वैशाली थी जिसकी पहचान आधुनिक वैशाली के बसाढ़ के रूप में है, यध्यपि पुराणों में वैशाली को अधिक पुराना होने की बात कही गई है लेकिन पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार ये काल ईसा पूर्व छठी सदी का मिलता है |  पश्चिम में काशी जनपद था जिसकी राजधानी वाराणसी थी , राजघाट में हुई खुदाई में यहाँ 500 ईस्वी पूर्व बस्ती के प्रमाण मिले है जिनसे ये आभास होता है प्रारम्भ में काशी एक शक्तिशाली राज्य था |  कौसल जनपद पूर्वी उत्तर प्रदेश में अवस्थित था इसकी राजधानी श्रावस्ती थी जिसकी पहचान गोंडा और बहराइच जिलों की सीमा के सहेत -महेत स्थान से की जाती है | उत्खनन से यहाँ 600 ईस्वी पूर्व की किसी बड़ी बस्ती के प्रमाण नहीं मिलते लेकिन मिट्टी का किला अवश्य मिला है |  कौसल राज्य के महत्वपूर्ण नगरों में अयोध्या भी था जिसका सम्बन्ध रामकथा से जोड़ा जाता है लेकिन उत्खनन से पता चलता है कि 500 ईस्वी पूर्व यहाँ नाम मात्र की बस्ती थी | कोसल में ही शाक्यों का कपिलवस्तु भी था ,कपिलवस्तु की पहचान बस्ती जिले के पिपरहवा से होती है लेकिन यहाँ भी 500 ईस्वी पूर्व की बस्ती के प्रमाण नहीं मिलते | शाक्यो की दूसरी राजधानी पिपरहवा से 15 किमी दूर नेपाल के लुम्बिनी में थी जिसे अशोक के एक शिलालेख में बुद्ध का जन्मस्थान बताया गया है | कोसल के पड़ोस में मल्लो का राज्य था जिसकी राजधानी कुसीनारा में थी तथा  जिसकी सीमा वज्जि राज्य की उत्तरी सीमा से जुडी थी | कुसीनारा जहाँ बुद्ध की मृत्यु हुयी थी की पहचान देवरिया जिले के कसिया नामक स्थान से हुयी है |  पश्चिम की और यमुना के तट पर वत्स राज्य था जिसकी राजधानी इलाहाबाद के निकट कौशाम्बी में थी , वत्स वे ही कुरूजन थे जो हस्तिनापुर छोड़कर कौशाम्बी में आ बसे थे ,ईसा पूर्व पांचवी सदी में कौशाम्बी की मिट्टी से किले बंदी के प्रमाण मिलते है | पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्राचीन कुरु -पांचाल जनपदों का अस्तित्व था लेकिन उनका अब राजनैतिक महत्व नहीं है |  अवन्ति राज्य मध्य मालवा और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती नगरों में फैला था इसके उत्तर भाग की राजधानी उज्जैन और दक्षिण की महिष्मति थी | उत्खननों से मिले प्रमाणों के अनुसार ईसा पूर्व छठी शताब्दी में दोनों नगरों का खूब विकास हुआ जिसमे उज्जैन अपने लोह प्रयोग के कारण अधिक सफल और महत्व का रहा |  महाजनपदों की स्थापना के बाद का भारत उपमहादेश का इतिहास प्रभुत्व के लिए हुए आपसी संघर्ष का इतिहास है जिसकी परिणीति में मगध एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर सामने आया |  मगध की पहली राजधानी राजगीर थी उस समय इसे गिरिव्रज कहते थे जिसका कारण इसका पांच पहाड़ियों से घिरा होना था , दूसरी राजधानी पाटलिपुत्र थी जो गंगा ,गंडक और सोन नदियों के संगम पर होने के कारण जलदुर्ग थी | मगध साम्राज्य का विस्तार कई खूनी और रक्तरंजित घटनाओ का समावेश है | पौराणिक ग्रंथो के अनुसार मगध राज्य की स्थापना ब्रहद्रथ द्वारा की गयी थी , बौद्ध ग्रंथो के अनुसार हर्यंक कुल के बिम्बिसार(544 -492 ईस्वी पूर्व ) के शासन काल में इस साम्राज्य ने विशिष्ट स्थान प्राप्त किया | उसने अपने साम्राज्य विस्तार की शुरुवात अंग देश पर अधिकार से की और उसका शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंपा | उसने तीन विवाह किया ,पहला कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित की बहिन से जिसके साथ उसे दहेज़ में काशी मिली जिससे एक लाख की आय होती थी | दूसरा विवाह वैशाली की लिच्छिवि राजकुमारी चेल्लणा से हुआ जो अजातशत्रु की माता थी और तीसरा विवाह पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की पुत्री से किया | इन विवाहो से बिम्बिसार की राजनैतिक प्रतिष्ठा बढ़ी वही मगध का पश्चिम और उत्तर में विस्तार का मार्ग भी प्रशस्त हुआ | मगध का मुख्य प्रतिद्वंदी अवन्ति राज्य था जिसकी राजधानी उज्जैन थी ,अवन्ति राजा चंडप्रद्योत से बिम्बिसार की लड़ाई भी हुयी लेकिन बाद में वे मित्र बन गये | इसी तरह की राजनैतिक मित्रता बिम्बिसार ने गांधार राज्य के साथ भी की | बिम्बिसार ने 52 वर्षो तक शासन किया बाद में उसके पुत्र अजातशत्रु ( 492 -460 ईस्वी पूर्व ) ने ही उसकी हत्या कर सिंहासन पर कब्ज़ा कर लिया | अजातशत्रु ने साम्राज्य विस्तार के लिए सभी तरह की नीतियों को अपनाया , काशी और कोसल राज्यों ने मिलकर उसका मुकाबला किया लेकिन लम्बे समय तक चले संघर्ष में पराजित हुए ,कोसल नरेश को अपनी पुत्री का विवाह अजातशत्रु से कर काशी सौंपनी पड़ी | अपनी माता के लिच्छिवि वंश से होने के बावजूद उसने वैशाली से युद्ध किया और 16 वर्षो के लम्बे युद्ध के बाद वैशाली को मगध में मिलाया | इस युद्ध में उसकी सफलता का कारण पत्थर फेंकने वाला युद्ध यंत्र त��ा गदा जैसे हथियार से जुड़ा एक रथ था | अवन्ति के राजाओ ने कौशाम्बी के वत्सो को को पराजित किया था और वे मगध के लिए भी खतरा थे जिसके चलते अजातशत्रु ने राजगीर की किलेबंदी करवाई लेकिन युद्ध की स्थिति से पहले ही अजातशत्रु की मृत्यु हो गयी | उसके बाद के उदायिन (460 -444 ईस्वी पूर्व ) ने गद्दी संभाली जिसने पटना में गंगा और सोन नदी के संगम पर किला बनवाकर अपनी सामरिक स्थिति को मजबूत किया ,इस समय तक मगध साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों तक विस्तृत हो चुका था | उदायिन के बाद मगध पर शिशुनागों के वंश का शासन आया जो कुछ समय के लिए राजधानी को वैशाली ले गए | इस वंश की सबसे बड़ी उपलब्धि अवन्ति की शक्ति को तोड़कर उसे मगध में शामिल करना रही | शिशुनागों के बाद आये नंद मगध के सबसे शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए, इनका शासन इतना शक्तिशाली था कि सिकंदर जो उस समय पंजाब पर हमला कर चुका था पूर्व की और बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाया |  इस वंश के महापद्म नन्द ने कलिंग पर कब्ज़ा कर मगध की शक्ति को और बढ़ाया ,विजय स्वरुप वे कलिंग से जिन प्रतिमा को उठा लाये थे जिसे बाद में जैन आचार्यो के प्रभाव में वापस लौटाया गया | महापद्म नन्द खुद को एकराट कहता था ,बाद में उसने कोसल पर भी कब्ज़ा किया | नन्द शासक धनी थे और एक सशक्त तथा विशाल सेना रखते थे लेकिन बाद के नन्द शासक दुर्बल और अलोकप्रिय साबित हुए जिससे मगध में मौर्य वंश का शासन स्थापित हुआ |                
मगध के रूप में भारतीय उपमहादेश में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना जो इसके समकालीन ईरानी साम्राज्य से किसी भी प्रकार कम नहीं था का श्रेय इसके शासको को तो दिया ही जाता है पर मगध की सफलता के कुछ और कारण भी रहे थे | एक प्रमुख कारण राजगीर के समीप लोह खानो के रूप में है जिससे मगध लोह हथियार तैयार कर सका जबकि उसके प्रतिद्वंदी इससे वंचित थे | लोहे की सुविधा अवन्ति राज्य के पास भी थी जहाँ से 500 ईस्वी पूर्व के लोहे को गलाने और ढालने के प्रमाण मिले है और यही कारण था कि अवन्ति पर कब्ज़ा करने में मगध को 100 वर्ष से भी अधिक का समय लगा | मगध की दोनों राजधानिया सामरिक दृष्टि से अत्यधिक सुरक्षित थी और बिना तोपों के उस ज़माने में इन्हे भेद पाना एक नामुमकिन कार्य ही था | मगध क्योंकि एक उपजाऊ क्षेत्र था जिसके चलते व्यापार और कर संग्रहण के मामले में काफी आगे था ,इनसे प्राप्त राशि से सेना का रखरखाव बेहतर तरीके से किया जा सकता था | यद्यपि अन्य राज्य भी घोड़े और रथो का प्रयोग युद्ध में करते थे लेकिन मगध पहला राज्य था जिसने युद्ध में हाथियों का प्रयोग भी किया | एक अहम कारण ये भी था कि मगध का समाज रूढ़ि विरोधी था ,यद्यपि यहाँ के कट्टर ब्राह्मण यहाँ बसे किरात और मागधी जनजाति के लोगो को हेय दृष्टि से देखते थे लेकिन इसी समय शुरू हुए संस्कृतियों के सम्मिश्रण से मगध में विस्तार को लेकर अत्यधिक उत्साह था जिसने मगध को एक विशाल साम्राज्य के रूप में स्थापित करने में बहुत मदद की |
जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 2 फरवरी 2019  
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? भाग -8 
उत्तर वैदिक काल में सामाजिक जीवन शैली में परिवर्तन के दूसरे नायक गौतम बुद्ध रहे जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था |  ये वर्धमान महावीर के समकालीन थे ,उन्ही की तरह क्षत्रिय वर्ग से आते थे इनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु ( बस्ती जिले में पिपरहवा नामक स्थल ) के निकट नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी में हुआ | उनके पिता कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और शाक्यों के प्रधान थे तथा माता का सम्बन्ध कौसल राजवंश से था | महावीर और गौतम  दोनों जीवन के सत्य की खोज में गृहस्थ जीवन त्याग कर निकले जो इस बात की और संकेत करता है कि  उस काल में सामाजिक असमानताएं बहुत अधिक रही थी जिसके चलते एक बड़ा वर्ग उपेक्षित और प्रताड़ित रहा था |  दोनों ही क्षत्रिय कुल से थे जो क्षत्रियो के ब्राह्मण वर्ग के विरुद्ध खड़े होने की पुष्टि करता है | सिद्धार्थ के सांसारिक जीवन से विरक्त होने को लेकर शाक्य और कोलीय राजवंशो के बीच रोहिणी नदी के जल को लेकर हुए विवाद का जिक्र मिलता है | इस विवाद पर शाक्यसंघ द्वारा बुलाये गए अधिवेशन में सिद्धार्थ ने युद्ध का ये कहते हुए विरोध किया था कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं होता ,इससे उद्देश्य की पूर्ती के स्थान पर एक और युद्ध का बीजार��पण होगा | सिद्धार्थ समस्या का समाधान बात��ीत के द्वारा किये जाने के पक्ष में थे लेकिन शाक्य संघ ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया ,इसके बाद शाक्यसंघ द्वारा उन्हें दिए गए तीन विकल्पों में एक विकल्प देश निकाला स्वीकार करने का था और सिद्धार्थ ने इसे ही स्वीकार किया | मनुष्य द्वारा भोगे जाने वाले दुखो को लेकर सिद्धार्थ के मन ने कई सवाल थे इसलिए जब उन्होंने सन्यासी बनकर 29 वर्ष की आयु में राजमहल छोड़ा तो अपने प्रश्नो  उत्तर जानने की शुरुवात उन्होंने ब्राह्मणो से की लेकिन इनके द्वारा दिए जवाबो से वे संतुष्ट नहीं हुए ,तब उन्होंने तपस्या शुरू की जिससे वे ध्यान में तो प्रवीण हुए लेकिन प्रश्नो के उत्तर फिर भी नहीं पा सके | 7 वर्षो के भटकाव के बाद 35 वर्ष की आयु में उन्होंने महसूस किया कि अत्यधिक तपस्या और संयम से शायद इन सवालो का जवाब पाया जाना संभव नहीं | सत्य को जानने की प्रतिज्ञा के साथ वे बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे बैठ गए जहाँ उन्हें ज्ञान( बोधि ) प्राप्त हुआ और वे बुद्ध अर्थात प्रज्ञावान कहलाये | बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी के पास सारनाथ में दिया |                     
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध के अनुसार इस दुनिया में दुःख है जन्म में, बूढे होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीज़ों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है। तृष्णा या चाहत दुःख का कारण है और फ़िर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है। तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है और तृष्णा से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने अष्टांगिक मार्ग अपनाने का उपदेश दिया | बुद्ध के अनुसार सम्यक दृष्टि ( चार आर्य सत्य में विश्वास करना), सम्यक संकल्प ( मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना) , सम्यक वाक ( हानिकारक बातें और झूठ न बोलना), सम्यक कर्म ( हानिकारक कर्मों को न करना ), सम्यक जीविका ( कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानिकारक व्यापार न करना), सम्यक प्रयास ( अपने आप सुधरने की कोशिश करना), सम्यक स्मृति ( स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना) और सम्यक समाधि ( निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना) अष्टांगिक मार्ग है | इस मार्ग को प्रज्ञा ,शील और समाधि तीन भागो में बांटा गया ,बुद्ध ने पंचशील जिसमे अहिंसा ,अस्तेय ,अपरिग्रह ,सत्य तथा नशामुक्ति शामिल है को अपनाने की बात अपने अनुयायियों से कही | बौद्ध दर्शन की बात करे तो इसका प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शुन्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर निर्वाण पाया जा सकता है । बुद्ध का क्षणिकवाद दर्शन कहता है कि इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है कुछ भी स्थायी नहीं ,इस प्रकार ये वैदिक मत का विरोध करता है | बुद्ध के अनात्मवाद दर्शन के अनुसार आत्मा का अर्थ 'मै' होता है किन्तु प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नही है क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, 'मै'अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज़ नहीं जिसे लोग आत्मा समझते हैं वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है जिसमे आत्मा का स्थान मन ने लिया है। बुद्ध ने ब्रह्म-जाल सूत् में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ ये बताते हुए अनीश्वरवाद का दर्शन प्रस्तुत किया है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है ,ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नही करते क्योंकि दुनिया कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दू:ख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है ईश्वर या महाब्रह्मा नही पर अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा है।          
गौतम बुद्ध से पाई गई ज्ञानता को बोधि कहा गया माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मां में विश्वास सब गायब हो जाते है। बोधि के तीन स्तर होते है श्रावकबोधि , प्रत्येक बोधि और सम्यक्बोधि |  सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को  बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। बुद्ध कहते है "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं।                  
  गौतम बुद्ध इसलिए अधिक प्रासंगिक है कि उन्होंने आत्मा और परमात्मा जैसे विचार को परे रखकर एक मध्यम मार्ग दिया जिसमे अत्यधिक विलास और अत्यधिक संयम दोनों के लिए स्थान नहीं था |  गौतम की ये विचारधारा तत्कालीन समाज में एक क्रांति थी क्योंकि इसमें आत्मा और ईश्वर को पूरी तरह नकार दिया गया था जाहिर है इस विचारधारा का उन लोगो द्वारा प्रबल विरोध किया जाना था जिन्होंने अपना सामाजिक ताना बाना ही आत्मा और ईश्वर के इर्द गिर्द खड़ा किया हुआ था |  लेकिन गौतम क्योंकि विलक्षण प्रतिभा के धनी थे उन्होंने अपने विरोधियो से लड़ाई नहीं की बल्कि उन्हें शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया और पराजित किया ,गौतम बुद्ध वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तर्क और तथ्यों को प्राथमिकता दी , वे तत्कालीन कट्टर पन्थियो से इसलिए जीतते रहे क्योंकि उनके पास तर्क और तथ्य थे जबकि कट्टरपंथियों के पास केवल एक कल्पना जिसका वे पोषण करते चले आ रहे थे | महावीर के जैन दर्शन की अपेक्षा बुद्ध के दर्शन का लोगो ने इसलिए अधिक स्वागत  किया क्योंकि इसमें वर्ण व्यवस्था की घोर निंदा की गई,  ये एक ऐसा समुदाय था जिसमे सभी एक समान थे ,दूसरे उत्तर वैदिक संस्कृति के विपरीत इसमें स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश के साथ बराबरी का दर्जा दिया गया था, तत्कालीन समाज का प्रताड़ित और शोषित वर्ग बड़ी संख्या में इसमें दीक्षित हुआ |  इस दर्शन में किसी भी प्रकार के कर्मकांड के लिए कोई स्थान नहीं था , बुद्ध भलाई के द्वारा बुराई को और प्रेम के द्वारा नफरत को दूर करने की बात कहते है |  बुद्ध द्वारा प्रचार प्रसार में जनसाधारण की भाषा पाली का प्रयोग किया जिसके चलते साधारण लोग इस दर्शन को आसानी से समझ पाए | ये दर्शन तीन स्तरीय था जो बुद्ध ,संघ और धम्म कहे जाते है इन्हे त्रिपिटक भी कहा जाता है |  सुगठित संघ होने के कारण बौद्ध दर्शन ने  बुद्ध के जीवन काल में ही तेजी से प्रगति की और  मगध ,कौसल और कौशाम्बी सहित कई प्रदेशो के लोग इसमें दीक्षित हुए , बुद्ध के निर्वाण (483 ईस्वी पूर्व ) के 200 वर्षो बाद प्रसिद्द मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करना एक बड़ी ऐतिहासिक घटना है , अशोक द्वारा ही इस दर्शन का प्रचार प्रसार मध्य और पश्चिम एशिया तथा श्रीलंका में किया गया वर्तमान में भी श्रीलंका ,चीन ,तिब्बत ,बर्मा और जापान में कई हिस्सों में ये दर्शन मौजूद है लेकिन भारत ( जहाँ इसका उद्भव हुआ ) में ईसा की 11 वी सदी तक ही परिवर्तित रूप में बंगाल और बिहार  में ही रहा और 12 वी सदी में पूरी तरह लुप्त हो गया |                       प्रारम्भ में प्रत्येक दर्शन ,जीवन शैली या धर्म सामाजिक सुधार का दृष्टिकोण लिए हुए होता है यही बौद्ध दर्शन के ही साथ हुआ कालक्रमेण ये उन्ही कर्मकांडो और अनुष्ठानो के जाल में फंस गया जिनकी इस दर्शन में निंदा की गई थी |  दूसरी और इस दर्शन में लोगो का पलायन रोकने के लिए ब्राह्मणो द्वारा भी अपने दर्शन में सुधार किया गया जिसमे प्रमुख गोधन की रक्षा रहा जिससे पशुबलि रोकने में मदद मिली साथ ही उन्होंने स्त्रियों और शुद्रो के लिए भी अपने धर्म का मार्ग प्रशस्त किया द्य दूसरी और बौद्ध दर्शन विकृत होता गया उन्होंने जनमानस की भाषा पाली को छोड़कर संस्कृत( जो केवल विद्वानों की भाषा कहलाती थी ) को अपनाना शुरू किये जिससे वे लोगो से कटते चले गए| प्रारम्भ में बौद्ध धर्म में हीनयान (थेरवाद ) तथा महायान शाखाय��� ही थी ,थेरवाद में बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं को ही माना जाता था जबकि महायान में बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं का पालन नहीं करते हुए हजारो बोधीसत्वो की पूजा की जाती है |  ईसा की पहली सदी में मठो में बुद्ध प्रतिमाओं की पूजा शुरू हुई और इनमे बड़ी मात्रा में आने वाला चढ़ावा और बौद्ध विहारों को राजाओ से मिलने वाली भारी सम्पत्तियाँ  भी भिक्षुओ की मानसिकता में परिवर्तन का कारण बना , ये  नई संस्कृति वज्रयान के नाम से जानी गई, इस संस्कृति में तंत्रमंत्र का प्रवेश भी हुआ |  बौद्ध विहारों में स्त्रियों , दासों  और कर्जदाताओं के प्रवेश को वर्जित कर दिया गया जिससे स्त्रियों और निचले वर्ग के लोगो ( क्योंकि वस्तुत कर्ज तो उन्हें ही लेना पड़ता था ) के पास पुन आर्य दर्शन की और लौटने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा था , मध्यकाल में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव दोनों सम्प्रदायों द्वारा जैन और बौद्ध दोनो दर्शनों का कड़ा विरोध किया, कहा जाता है कि इसा की छठी -सातवीं सदी में ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ,शैव संप्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ,गोड़ देश के शिवभक्त शशांक द्वारा इस दर्शन के अनुयायियों और विहारों को नष्ट भ्रष्ट किया |  हुआन सांग लिखता है कि 1600 स्तूप और विहार तोड़े गए तथा हजारो भिक्षुओ और उपासको को मोत के घाट उतारा गया दूसरी और विहारों की अपार संपत्ति तुर्की हमलावरों के लालच का भी कारण बनी | बौद्ध धर्म का चौथा संप्रदाय नवयान के नाम से जाना जाता है जो डा भीमराव आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करने के साथ अस्तित्व में आया |                         
  इस दर्शन की सबसे बड़ी देन बौद्धिक और साहित्यिक चेतना कही जा सकती है इसने लोगो को सुझाया कि किसी वस्तु को गुणदोष के विवेचन के आधार पर ही स्वीकार किया जाना चाहिए इससे किसी हद तक अन्धविश्वास का स्थान तर्क ने लिया और बुद्धिवाद पनपा |  बौद्ध धर्म का प्रारंभिक पाली साहित्य तीन कोटियों में बांटा जा सकता है , प्रथम में बुद्ध के वचन और उपदेश ,दूसरी में संघ के सदस्यों द्वारा पालनीय नियम तथा तीसरी में धम्म का दर्शन है |  ईसा की तीन सदियों में पाली और संस्कृत को मिलकर बौद्धों ने एक नई भाषा बनाई जिसे मिश्रित संस्कृत कहते है , इस काल में बौद्ध विहार विद्या केंद्र बने जिनमे बिहार में नालंदा और विक्रमशिला तथा गुजरात में वलभी उल्लेखनीय है |  कला में बौद्ध दर्शन का विशेष प्रभाव बिहार के गया और मध्यप्रदेश के साँची तथा भरहुत में पाए गए चित्रफलको में नजर आता है |  इसी काल में पहाड़ो को काटकर कमरे बनाये गए जिसे गुह्यस्थापत्यकला कहते है का प्रसार हुआ ये निर्माण गया के बराबर की पहाड़ियों और पश्चिम भारत में नासिक के आसपास की पहाड़ियों में देखा जा सकता है , उत्तर में मथुरा और दक्षिण में कृष्णा डेल्टा क्षेत्र में भी बौद्धकला के दर्शन किये जा सकते है |
 जारी है अतीत का ये सफर ----महेंद्र जैन 2 फरवरी 2019    
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कौन है हम ?? भाग -7  
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था लेकिन बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। इसे उत्तर वैदिक काल कहा गया और इसका काल 1000 -600 ईस्वी पूर्व माना गया ,उत्तर वैदिक सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान था|  इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए |  भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हुआ जिनमे काशी, कोसल, विदेह (मिथिला ), मगध और अंग प्रमुख थे | उत्तर वैदिक काल मे कौशाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया। इस काल में बड़ी संख्या में उत्तर वैदिक ग्रंथो की रचना हुयी , वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म तथा ब्रह्म का विस्तारित रुप ब्राह्मण कहा गया|  पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों का उपदेश आदित्य से प्राप्त किया। वेदो में कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है ब्राह्मण ग्रंथो मे उसी की सप्रमाण व्याख्या है। प्राचीन परम्परा मे आश्रमानुरुप वेदों का पाठ करने की विधि थी अतः ब्रह्मचारी ऋचाओं का ,गृहस्थ ब्राह्मणों का, वानप्रस्थ आरण्यकों और संन्यासी उपनिषदों का पाठ करते थे । ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः गद्य शैली में उपदिष्ट है , इन्ही से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटना का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐतरेय ब्राह्मण में आठ मंडल हैं और पाँच अध्याय हैं, इसे पंजिका भी कहा जाता है इसी में राज्याभिषेक के नियम प्राप्त होते हैं। तैतरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण है। शतपथ ब्राह्मण में 100 अध्याय,14  काण्ड और 438 ब्राह्मण है इसमें गान्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह आदि स्थलों का उल्लेख है इसलिए इसे ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण कहा जाता है | पंचविंश /षड्विंश सामवेद से सम्बद्ध ब्राह्मण है। सर्वाधिक परवर्ती ब्राह्मण गोपथ है| आरण्यक वेदों का वह भाग है जो गृहस्थाश्रम त्याग उपरान्त वानप्रस्थ लोग जंगल में पाठ किया करते थे |  इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहित दर्शन है। वर्तमान में सात अरण्यक उपलब्ध हैं ,सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक स्पष्ट और भिन्न रूप में उपलब्ध नहीं है। उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है इन में बृहदारण्यक तथा  छान्दोग्य सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है। परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चात कालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के आध्यात्मिक विकास, प्राची��तम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते-जागते जीवन्त उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं। उपनिषदों की रचना संभवतः बुद्ध के काल में हुई, क्योंकि भौतिक इच्छाओं पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक उन्नति की महत्ता स्थापित करने का प्रयास बौद्ध और जैन धर्मों के विकास की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ। कुल उपनिषदों की संख्या 108 है, इनमे मुख्य रूप से शास्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति से सम्बंधित रहस्यवादी सिद्धांतो का विवरण दिया गया है। "सत्यमेव जयते" मुंडकोनिपशद से लिया गया है। मैत्रायणी उपनिषद में त्रिमूर्ति और चार्तु आश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण इसे श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है। वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है। वेदांग की संख्या 6 है ,शिक्षा- स्वर ज्ञान, कल्प- धार्मिक रीति एवं पद्धति, निरुक्त- शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र, व्याकरण , छंद- छंद शास्त्र और ज्योतिष- खगोल विज्ञान | सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है और उसे समझने में सहायक भी है। ब्रह्म सूत्र - वेदव्यास ने वेदांत पर यह परमगूढ़ ग्रंथ लिखा है जिसमें परमसत्ता, परमात्मा, परमसत्य, ब्रह्मस्वरूप ईश्वर तथा उनके द्वारा सृष्टि और ब्रह्मतत्व की गूढ़ विवेचना की गई है। इसका भाष्य आदि शंकराचार्य ने वेदव्यास के कहने पर लिखा था। कल्प सूत्र - ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ये वेदों का हस्त स्थानीय वेदांग है। श्रोत सूत्र -  इसमें महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या ये वेदांग कल्पसूत्र का पहला भाग है । स्मार्त सूत्र -  ये षोडश संस्कारो का विधान करने वाला कल्प का दुसरा भाग है | शुल्ब सूत्र- इसमें यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम हैं , भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप इसमें दिखाई देता है ये कल्प का तीसरा भाग है ।धर्मसूत्र - इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है ये कल्प का चौथा भाग है | गृह्य सूत्र - इसमें पारिवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।                      
  उत्तर वैदिक काल में विकसित हुयी राजनैतिक , सामाजिक ,धार्मिक और आर्थिक विषमताओं के चलते 600 ईस्वी पूर्व के उत्तरार्ध में पृथक जीवन शैलियों के रूप में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का जन्म हुआ | राजा के पद का वंशानुगत होना और उसे ईश्वरीय अवतार तथा उसकी सत्ता का ईश्वरीय सत्ता के रूप में महिमा मंडन ,वर्ण व्यवस्था का कर्म के स्थान पर जन्म आधारित हो जाना ,समाज में क्षत्रिय तथा ब्राह्मण वर्ग के प्रभुत्व में उत्तरोत्तर वृद्धि होते जाना तथा समाज में अस्पृश्यता का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाना | यज्ञो के माध्यम से की जाने वाली वे स्तुतियां जो पहले जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए की जाती रही थी उन्हें लोक परलोक की धारणा के साथ परलोक सुधारने के लिए किया जाने लगा था |  वर्ण व्यवस्था ने समाज में शूद्र कहे जाने वर्ग को बेहद निम्न स्तर के नागरिको की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया यहाँ तक कि इनके वेदअध्यनन और मंदिरो (धार्मिक स्थलों ) में प्रवेश को भी निषिद्ध कर दिया गया | ब्राह्मण ग्रंथो की रचना के बाद समाज में ब्राह्मण कहा जाने वाले वर्ग बहुत शक्तिशाली हुआ जिससे राहत पाने के लिए तत्कालीन राजाओं ने उपनिषदों की रचना के साथ आयी ईश्वरीय विचारधारा को पोषित किया लेकिन इस विचारधारा के सूत्रधार भी थे तो ब्राह्मण वर्ग के ही लोग तो राजा खेमा बदलकर भी इनके प्रभुत्व से मुक्त नहीं हो पाया | इस काल में शुद्रो के साथ वैश्य कहा जाने वाला वर्ग भी बेहद प्रताड़ित रहा क्योंकि राजा को राजस्व चुकाने की जिम्मेदारी एकमात्र इसी वर्ग की थी ,ये मायने नहीं रखता था कि वो राजस्व कैसे और कहाँ से चुकाएगा ,बस उसे राजस्व चुकाना था |  ब्राह्मण वर्ग दान लेने का अधिकारी था ,कर चुकाने या दंड पाने का अधिकारी नहीं जबकि वर्ण व्यवस्था में निचला वर्ण कठोर दंड पाने लायक समझा गया था | उत्तरोत्तर वैदिक काल में विभिन्न अनुष्ठानो में की जाने वाली पशुबलियो से पशुधन का बड़ी तेजी से ह्रास  , विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितो या ब्राह्मणो के विरुद्ध राजाओ में दबे आक्रोश का मुखर होना और पूर्वोत्तर भारत में एक नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार ये तीन प्रमुख कारण थे जिन्होंने धर्म कही जाने वाली नई जीवन शैलियों को जन्म दिया |  ये भारतीय उपमहादेश में कांस्य युग से लौहयुग में प्रवेश करने का समय था , जंगलो को साफ करके कृषि योग्य भूमि तैयार करने के क्रम में पत्थर और कांस्य से बने औजारों ( कुल्हाड़ियों ) के स्थान पर लोहे से बने औजारों का प्रयोग शुरू हुआ , कृषि योग्य भूमि बढ़ी तो कृषिकार्य के लिए पशुओ की जरुरत भी बड़ी लेकिन वे तो पशुबलियो के चलते निरंतर कम होते जा रहे थे |  दूसरी और जंगल साफ हो जाने से इस क्षेत्र में कई नई बस्तियां भी अस्तित्व में आयी जिनमे कौशाम्बी (प्रयाग के समीप ) ,कुशीनगर ( जिला देवरिया यूपी ) , वाराणसी ,वैशाली ,चिरांद (जिला सारन ) और राजगीर ( पटना से उत्तर पूर्व में 100 किमी ) प्रमुख थी |  इन्ही नगरों में सर्वप्रथम धातु के सिक्को ( चांदी और कांस्य ) का प्रचलन शुरू हुआ , वाणिज्य में वृद्धि होने से वैश्य वर्ग की स्थिति कुछ सुधरी ,इस अवधि में कई बड़े वणिक हुए जिन्हे सेट्ठि या नगरसेठ कहा गया , धन आया तो वैश्य वर्ग में एक बुराई का जन्म हुआ जो थी सूद पर धन देना लेकिन ब्राह्मणो की कानून सम्बन्धी पुस्तकों में जो धर्मसूत्र कही जाती थी सूद पर धन दिया जाना निंदनीय कर्म था जिसके चलते क्षत्रिय वर्ग के साथ वैश्य वर्ग भी ब्राह्मण वर्ग के विरोध में खड़ा होने लगा | कुल मिलाकर क्षेत्रीय ,वैश्य और शूद्र ये तीनो ही वर्ग प्रताडितो की श्रेणी में खड़े थे और ये इनमे ये विचार तेजी से पनपने लगा था कि या तो किसी नए धर्म की शरण ली जाये या वापस आदिम युग में ही लोटा जाये | असमानताओं और विषमताओं से भरे इस युग में समाज सुधारक के रूप में वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ये दो नाम सामने आये जिन्होंने जैन और बौद्ध धर्म को लोगो के सामने रखा |                                                     
जैन धर्म के उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है , जैन ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा भी जैन धर्म का मूल सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ा गया है जो हिन्द आर्य प्रवास से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है। सिन्धु घाटी से मिले जैन शिलालेख जैन धर्म के सबसे प्राचीन धर्म होने की पुष्टि करते है।अन्य शोधार्थियों के अनुसार श्रमण परम्परा वैदिक धर्म की हिन्द-आर्य प्रथाओं के साथ समकालीन लेकिन पृथक है | जैन ग्रंथो के अनुसार वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म तीर्थंकर आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया। यहीं से जो तीर्थंकर परम्परा प्रारम्भ हुयी वो तीर्थंकर महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने 527 ईस्वी पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलन महावीर से मानते है उनके अनुसार यह धर्म बौद्ध धर्म के पीछे उसी के कुछ तत्वों को लेकर और उनमें कुछ ब्राह्मण धर्म की शैली मिलाकर खडा़ किया गया। जिस प्रकार बौद्धों में 24  बुद्ध है उसी प्रकार जैनों में भी 24 तीर्थकार है।              
यद्यपि महावीर के जन्म का समय निश्चित नहीं है लेकिन एक परंपरा के अनुसार महावीर का जन्म 540 ईस्वी पूर्व वैशाली ( यूपी में इसी नाम के जिले में अवस्थित बसाढ़ ) में एक क्षत्रिय कुल में राजा सिद्धार्थ के यहाँ हुआ | उनकी माता त्रिशला बिम्बिसार के ससुर लिच्छिवि नरेश चेतक की बहन थी , इस प्रकार महावीर का सम्बन्ध मगध के राजपरिवार से था , सत्य की खोज में वर्धमान ने गृहस्थ जीवन त्यागा और निरंतर 12 वर्षो तक भ्रमण करते रहे | 42 वर्ष की आयु में उन्हें केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ जिसके बाद उन्होंने शरीर का अंतिम वस्त्र भी त्याग दिया |  संयम और त्याग के द्वारा सुख दुःख पर विजय प्राप्त कर वे महावीर अर्थात जिन अर्थात विजेता कहलाये और उनके अनुयायी जैन , जैन परंपरा के अनुसार उनका निर्वाण 468 ईस्वी पूर्व ( एक अन्य परंपरा में 527 ईस्वी पूर्व ) 72 वर्ष की आयु में वर्तमान राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ लेकिन पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर उन्हें ईसा पूर्व छठी शताब्दी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि जिन नगरों से उनका सम्बन्ध बताया गया उस समय तक उनका उदय नहीं हुआ था | वर्धमान महावीर द्वारा जिस नई जीवन शैली को जन्म दिया गया उसमे अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया जिसके चलते इसमें युद्ध और कृषि के लिए स्थान नहीं था क्योंकि दोनों कर्मो में जीव हिंसा होती थी इसलिए इसके अनुयायियों द्वारा वाणिज्य और व्यापार को चुना गया | अन्य सिद्धांतो में अमृषा ( असत्य नहीं बोलना ) ,अचौर्य ( चोरी नहीं करना ) ,अपरिग्रह ( संपत्ति अर्जित नहीं करना और ब्रह्मचर्य ( इन्द्रिय निग्रह ) थे , इस जीवन शैली में देवताओ का अस्तित्व तो स्वीकार किया गया लेकिन उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया , महावीर के अनुसार प्राणी पूर्वजन्म में अर्जित कर्मो के अनुसार ही नीच या उच्च कुल में जन्म लेता है | सम्यक ज्ञान ,सम्यक ध्यान और सम्यक आचरण जिन्हे त्रिरत्न कहा गया द्वारा सांसारिक बंधनो से मुक्ति का विचार इस जीवन शैली में मिलता है और ये मुक्ति अच्छे आचरण वाला किसी भी वर्ण का व्यक्ति प्राप्त कर सकता है |  क्योंकि सरलता होने के बावजूद इस जीवन शैली में कई बाते पूर्व से चली आ रही बातो से अलग नहीं थी इसलिए प्रारम्भ में इसे अपनाने वाले लोगो की संख्या कम थी लेकिन कर्मकांडो से मुक्ति, वर्ण विभेदता पर जोर नहीं होने के कारण लोग इस जीवन शैली को अपनाने लगे, वैश्य और क्षत्रिय वर्ग द्वारा इसे स्वीकार किया गया और इसके प्रचार प्रसार के लिए धन भी दिया गया | महावीर के 11 गणधर (मुख्य शिष्य) थे इनमे  इंद्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, अकंपित, आर्यव्यक्त, आर्यसुधर्मा, मंडितपुत्र, मौर्यपुत्र, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास शामिल है । महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे लेकिन उनके सभी गणधर ब्राह्मण थे। इनमें गौतम इंद्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर नौ गणधरों ने महावीर के जीवन काल में ही देह त्याग किया, जिस रात्रि को महावीर ने निर्वाण पाया उसी रात्रि को गौतम इंद्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। महावीर-निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा 20 वर्ष तक जैन संघ के अधिपति रहे। बाद में संघ का भार जंबूस्वामी के सुपुर्द कर दिया गया और इस प्रकार जैन परंपरा आगे बढ़ती रही। जंबूस्वामी के पश्चात् केवलज्ञान और निर्वाण-गमन के द्वार बंद हो गए।  धीरे धीरे जैन धर्म का विकास पश्चिम और दक्षिण भारत जहाँ ब्राह्मण जीवन शैली कमजोर थी में हुआ |  जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगंबर मतों के बारे में प्रचलित एक धारणा के अनुसार  23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ जिन्हे जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतो का उपदेष्टा कहा जाता है और जिन्हे महावीर का आध्यात्मिक गुरु भी कहा जाता है द्वारा अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगो को ढकने की अनुमति दी थी जबकि महावीर द्वारा समस्त वस्त्रो को त्यागने का आदेश दिया था क्योंकि वे जीवन में और अधिक संयम लाना चाहते थे , ये ही श्वेताम्बर और दिगंबर कहलाये | जैन धर्म का महत्व इसलिए बढ़ जाता है कि इसने पहली बार समाज से वर्ण व्यवस्था और वैदिक कर्मकांडो के रूप में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया |  प्रारम्भ में इस संस्कृति ने वैदिक संस्कृत का परित्याग किया और धर्मोपदेशो के लिए आम बोलचाल की भाषा प्राकृत को अपनाया जिससे इस भाषा का विकास हुआ और साहित्य समृद्ध हुआ , इनके ग्रन्थ अर्ध मागधी भाषा में है और इन्हे ईसा पूर्व छठी सदी में गुजरात में वलभी नामक शिक्षा केंद्र पर संकलित किया गया , मराठी भाषा जिस शौरसेनी भाषा से निकली वो प्राकृत से ही निकली , जैन साहित्य के ग्रंथो को आगम नाम दिया गया |  जैन साहित्य में महाकाव्य ,पुराण ,आख्यायिका और नाटक सम्मिलित है , इनका अधिकतर साहित्य अब तक अप्रकाशित है , मध्यकाल में जैन साहित्यकारों द्वारा संस्कृत और कन्नड़ भाषाओ में भी ग्रन्थ लिखे , प्रारम्भ में इस जीवन शैली के लोग मूर्तिपूजक नहीं थे लेकिन बाद में एक मत के अनुयायी महावीर सहित सभी 24 तीर्थंकरो की मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे , मध्यकाल में इस जीवन शैली ने स्थापत्य कला में जो योगदान दिया वो आज भी इनके द्वारा निर्मित मंदिरो में देखा जा सकता है |                  
  मगध के राजा बिंबसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु (कूणिक) को जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है। राजसिंह श्रेणिक द्वारा महावीर से प्रश्न पूछे जाने का उल्लेख जैन शास्त्रों में आता है। चंपा नगरी में महावीर के समवसृत होने पर अजातशत्रु का अपने दलबल सहित उनके दर्शनार्थ गमन करने का वर्णन प्राचीन आगमों में मिलता है। नंद राजाओ के समय भद्रबाहु और स्थूलभद्र बड़े प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को समुन्नत बनाया, आचार्य महागिरि स्थूलभद्र के प्रधान शिष्यों में से थे। चन्द्रगुप्त मौर्य (325 -302 ई पूर्व) के समय मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा और जैन साधु मगध छोड़कर चले गए , दुष्काल समाप्त होने पर जब लौटकर आए तब पाटलिपुत्र में जैन आगमों की प्रथम वाचना हुई जो 'पाटलिपुत्र-वाचना' के नाम से कही जाती है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ग्रहण की और दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में देह-त्याग किया। चंद्रगुप्त के बाद अशोक (272 -232 ई पूर्व ) के पौत्र राजा संप्रति (220 -211  ई पूर्व ) का नाम जैन ग्रंथों में बहुत आदर के साथ लिया जाता है, आचार्य महागिरि के शिष्य सुहस्ति ने संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया। संप्रति ने महाराष्ट्र, आंध्र. द्रविड़, कुर्ग आदि प्रदेशों में अपने सुभटों को भेजकर जैन श्रमणसंघ की विशेष प्रभावना की। कलिंग सम्राट् खारवेल जैन धर्म का परम अनुयायी था। कटक के पास उदयगिरि से प्राप्त,शिलालेखों से पता चलता है कि खारवेल ने ऋषभ की प्रतिमा निर्माण कराई और जैन साधुओं के रहने के लिये गुफाएँ खुदवाईं। ईसवी सन् के पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल द्वारा  उत्तेजित किए जाने पर कालकाचार्य का ईरान जाकर शक राजाओं को हिंदुस्तान में लाने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। कालकाचार्य को प्रतिष्ठान (पैठण, महाराष्ट्र) के राजा सातवाहन का समकालीन बताया गया है। बाद में आचार्य पादलिप्त, वज्रस्वामी और आर्यरक्षित ने संघ का अधिपतित्व किया और जैन धर्म की उन्नति होती गई | मथुरा में ईसवी सन् के आरंभ के जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनसे पता लगता है कि किसी समय मथुरा जैन धर्म का बड़ा केंद्र था तथा व्यापारी और निम्नवर्ग के लोग इस धर्म के अनुयायी थे। यहाँ के शिलालेखों में जिन जैन आचार्यों के गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है वह भद्रबाहु के कल्पसूत्र की स्थाविरावलि में ज्यों का त्यों मिलता है। 360 -73 ईस्वी के लगभग आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में जैन आगमों की दूसरी वाचना हुई, इससे भी मथुरा के महत्व का पता चलता है। इस काल के प्रमुख जैन आचार्यो में उमास्वाति, कुंदकुंद, सिद्धसेन और समंतभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से जैन साहित्य को पुष्पित और पल्लवित किया। गुप्त राजाओं का काल भारतवर्ष का सुवर्णकाल कहा जाता है , इस समय जैन धर्म उत्तरोत्तर उन्नत दशा को प्राप्त होता गया। गुजरात में गिरनार और शत्रुंजय जैनों के परम तीर्थ माने गए हैं। 7 वी सदी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में वलभी  में जैन आगमों की अंतिम वाचना स्वीकार कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। आगे चलकर चावड़ा वंश के राजा वनराज ( 720 -780 ईस्वी )ने राजगद्दी पर आसीन होने के पूर्व जैन मुनि शीलगुणसूरि के उपदेश से प्रभावित हो गुजरात का प्रसिद्ध अणहिल्लपुर पाटण नाम का नगर बसाया। अणहिल्लपुर पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र  (जन्म 1088 ईस्वी ) के समकालीन थे, सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हो जाने पर उनका भतीजा कुमारपाल गुजरात की गद्दी पर बैठा, कुमारपाल हेमचंद को राजगुरु की तरह मानता था । इस समय आदर्श जैन राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया जिसके फलस्वरूप अनेक सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण हुआ; प्राणि हिंसा, शिकार, मांस-भक्षण आदि को रोकने की घोषणा की गई और यज्ञ के अवसर पर पशुहिंसा के बदले ब्राह्मणों को अनाज होम करने का आदेश दिया गया। वस्तुपाल और तेजपाल मंत्रियों ने गिरनार, शत्रुंजय तथा आबू पर्वतों पर कलापूर्ण भव्य मंदिरों का निर्माण किया। इसी समय हरिभद्र और अकलंक जैसे प्रकांड विद्वानों का जन्म हुआ जिन्होंने न्यायसिद्धांत आदि विषयों पर ग्रंथ लिखकर जैन धर्म को समुन्नत किया | चालुक्य वंश के स्थापक राजा मूलराज (961 -996 ईस्वी ) ने जैन मंदिर का निर्माण कराया। दक्षिण भारत में  जैनधर्म का प्रसार खासकर दिगंबर जैन संतों द्वारा हुआ । ईस्वी की प्रारंभिक शताब्दियों से ही तमिल साहित्य पर जैन धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चोल और चेर इस धर्म के अनुयायी बने। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास राज्य के उत्तरी भाग, कुर्ग, आंध्र और मैसूर राज्य में अनेक जैन धर्मानुयायी लोग बसते थे, इसका पता इन स्थानों के जीर्णशीर्ण देवालयों और शिलालेखों से लगता है। कर्नाटक दिगंबर संप्रदाय का मुख्य धाम था , दिगंबर आचार्य समंतभद्र और पूज्यपाद ने इस प्रदेश में घूम घूमकर जैन धर्म का अभ्युत्थान किया था। गंग और राष्ट्रकूट राजवंशों के आश्रय से जैन धर्म उन्नत हुआ। गंगवंशी राजा राजमल्ल के मंत्री और सेनापति तथा सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचंद्र के गुरु चामुंडराय ने 980 ईस्वी में अरिष्टनेमि का भव्य देवालय और गोमटेश्वर की प्रकंड प्रतिमा का निर्माण कराया । राष्ट्रकूट वंश के राजाओं में अमोघवर्ष प्रथम  (815 -877  ईo) जैन आचार्य जिनसेन के शिष्य थे, अमोघवर्ष ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को भी आश्रय दिया, कदंबवंशी भी अधिकतर जैन धर्म के अनुयायी रहे। मुस्लिम शासन के दौरान फिरोजशाह तुगलक ने रत्नशेखरसूरि को, मुहम्मद शाह ने जीरप्रभसूरि को तथा अकबर ने हीरविजयसूरि को सम्मानित किया। ओरंगजेब ने अपने दरबार के जवेरी शांतिदास जैन को शत्रुंजय पर्वत और उसकी दो लाख की आमदनी, तथा अहमदशाह ने महताबराय को पारसनाथ पर्वत देकर पुरस्कृत किया था | 
जारी है अतीत का ये सफर ---- महेंद्र जैन 1 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? प्रथम पड़ाव -पांचवा दिन 
वस्तुतः हम जिस संस्कृति को जी रहे है वो वैदिक संस्कृति है जिसका आधार वेद है | बेशक अनुमान लगाए जाये और कहा जाए कि प्राचीनतम ऋग्वेद 1500 ईस्वी पूर्व का है लेकिन ये आकलन सीलबंद नहीं है ये सवाल भी अनुत्तरित ही है कि वेदो का रचयिता को था ,पौराणिक ग्रंथो या अन्य स्रोतों द्वारा बेशक इनको अस्तित्व में लाने का श्रेय किसी को भी दिया जाये लेकिन इसे इतिहास नहीं कहा जा सकता | लेकिन वेद है और भारतीय संस्कृति के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी का एकमात्र स्रोत भी यही है |                        
 ऋग्वेद प्राचीनतम और पहला वेद है जो वैदिक संस्कृत /ऋग्वेदिक भाषा में लिखा गया जो हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य भाषा है ,ये भाषा हिन्द ईरानी आर्यो की मातृभाषा थी ,इसी भाषा से अवेस्ता ,पुरानी फ़ारसी ,पाली प्राकृत और संस्कृत भाषाओ की उत्पत्ति हुयी है  | ऋग्वेदिक भाषा को क्लासिकल संस्कृत का नाम दिया जा सकता है ,यू तो व्याकरणीय दृष्टि से ऋग्वेदिक भाषा और संस्कृत में कई भिन्नताएं है लेकिन तीन बड़े अंतर का जिक्र यहाँ करना चाहूंगा | पहला है ऋग्वेदिक भाषा में सुर का होना इसका आशय ये है वर्ण का उच्चारण संगीतमय होता था ,ये प्रभाव पाणिनि तक मौजूद था ,जबकि संस्कृत में इसका अभाव है,दूसरा अंतर त्रिमात्रिक स्वरों का है जो ऋग्वेदिक में ध्वन्यात्मक थे पर संस्कृत में लुप्त हो गए और तीसरा अंतर इस रूप में सामने आता है कि ऋग्वेदिक में दो समान स्वरों की संधि में विकार नहीं होकर मूल ध्वनि सुरक्षित रहती थी जबकि संस्कृत में ऐसा नहीं है | ऋग्वेद का काल 7000 -1500 ईस्वी पूर्व के मध्य कही भी रखा जा सकता है | मान्यता है कि पूर्व में एक ही संहिता थी जिसे अध्ययन में सुलभता की दृष्टि से वेदव्यास ने चार भागो में बांटा और इसीलिए उन्हें वेदव्यास कहा गया | वेदो का विभाजन क्रम दो प्रकार से किया जाता है ,पुराना विभाजन अष्टक क्रम के नाम से कहा गया है जिसमे सम्पूर्ण ऋक संहिता को आठ भागो में बांटा गया ,प्रत्येक भाग में आठ अध्याय है जिनमे कुछ वर्ग भी है ,प्रत्येक अध्याय में कुछ ऋचाये भी है | दूसरा क्रम मंडल क्रम है इसमें पूरी संहिता को 10 मंडलो में बांटा गया है प्रत्येक मंडल में अनेक अनुवाक ,प्रत्येक अनुवाक में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में अनेक ऋचाये है | 10 मंडलो में कुल 85 अनुवाक और 1017 सूक्त है ,इनके अतिरिक्त 11 सूक्त बाल्य खिल्ल के नाम से जाने जाते है कुल ऋचाये 10580 है  | ऋग्वेद में सूक्तो के पुरुष रचनाकार गृत्स्मद ,विश्वामित्र ,वामदेव ,अत्रि , भारद्वाज और वशिष्ठ है जबकि महिला रचनाकार लोपामुद्रा ,घोषा ,शची ,कांक्षावृति और पॉलोमी है | इसे दूषित या इससे छेड़छाड़ नहीं की जा सके इसलिए इसके शब्दों  संख्या को गिनकर अंकित कर दिया गया था | कात्यायन प्रभृति ऋषियों की अनुक्रमणिका के अनुसार ऋग्वेद में ऋचाओं की संख्या 10580 , शब्दों की संख्या 153526 और शोनक कृत अनुक्रमणी के अनुसार 432000  अक्षर हैं। शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि प्रजापति कृत अक्षरों की संख्या 12000  बृहती थी अर्थात 12000  गुणा 36  यानि 432000  अक्षर। शाकल संहिता के रूप में  वर्तमान में उपलब्ध ऋग्वेद में  केवल 10552  ऋचाएँ हैं।ऋग्वेद की जिन 21  शाखाओं का वर्णन मिलता है, उनमें से चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार पाँच ही प्रमुख हैं जो शाकल , वाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन है ।
ऋग्वेद में क्या है चलिए ये भी देख लेते है इस के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक देवताओ की स्तुति करने वाले मंत्र हैं। यद्यपि  अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्तोत्रों की प्रधानता है।ऋग्वेद में 33 देवी देवताओं का उल्लेख है जिनमे सूर्या, उषा तथा अदिति जैसी देवियों का वर्णन किया है। इसमें अग्नि  को आशीर्षा, अपाद, घृतमुख, घृत पृष्ठ, घृत-लोम, अर्चिलोम तथा वभ्रलोम कहा गया है। इन्द्र  को सर्वमान्य तथा सबसे अधिक शक्तिशाली देवता माना गया है जिसकी स्तुति में 250 ऋचाएं  हैं। ऋग्वेद के एक मण्डल में केवल एक ही देवता की स्तुति में श्लोक हैं, वह सोम देवता है। इस वेद में एकेश्वरवाद ,एकात्मवाद का उल्लेख है।ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्मका वर्णन है। इस वेद में आर्यों के निवास स्थल के लिए सर्वत्र 'सप्त सिन्धवः' शब्द का प्रयोग हुआ है।इसमें कुछ अनार्यों जैसे - कीकातास, पिसाकास, सीमियां आदि के नामों का उल्लेख हुआ है। इसमें अनार्यों के लिए 'अव्रत' (व्रतों का पालन न करने वाला), 'मृद्धवाच' (अस्पष्ट वाणी बोलने वाला), 'अनास' (चपटी नाक वाले) कहा गया है। इस वेद में 25 नदियों का उल्लेख किया गया है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिंधु का वर्णन अधिक है। सरस्वती को सबसे पवित्र माना गया है तथा सरस्वती का उल्लेख भी कई बार हुआ है। इसमें गंगा का प्रयोग एक बार तथा यमुना का प्रयोग तीन बार हुआ है। ऋग्वेद के अनुसार राजा का पद वंशानुगत होता था। ऋग्वेद में सूत, रथकार तथा कर्मार नामों का उल्लेख हुआ है, जो राज्याभिषेक के समय पर उपस्थित रहते थे। इन सभी की संख्या राजा को मिलाकर 12  थी। ऋग्वेद में 'वाय' शब्द का प्रयोग जुलाहा तथा 'ततर' शब्द का प्रयोग करघा के अर्थ में हुआ है। ऋग्वेद के 9 वें मण्डल में सोमरस की प्रशंसा की गई है। "असतो मा सद्गमय " वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। सूर्य (सवित्र को सम्बोधित "गायत्री मन्त्र " ऋग्वेद में उल्लेखित है। इस वेद में गाय के लिए 'अहन्या' शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में ऐसी कन्याओ के उदाहरण मिलते हैं जो दीर्घकाल तक या आजीवन अविवाहित रहती थीं इन कन्याओं को 'अमाजू' कहा जाता था। इस वेद में हिरण्यपिण्ड  'तक्षन्' अथवा 'त्वष्ट्रा' का वर्णन किया गया है। आश्विन का वर्णन भी ऋग्वेद में कई बार हुआ है जिसे नासत्य (अश्विनी कुमार ) भी कहा गया है। इस वेद के 7 वें मण्डल में सुदास तथा दस राजाओं के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया है, जो कि पुरुष्णी (रावी ) नदी के तट पर लड़ा गया जिस में सुदास की जीत हुई । ऋग्वेद में 'जन' का उल्लेख 275  बार तथा 'विश' का 170  बार किया गया है। कई ग्रामों के समूह को 'विश' कहा गया है और अनेक विशों के समूह को 'जन'। एक बड़े प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में 'जनपद' का उल्लेख ऋग्वेद में केवल एक बार हुआ है। जनों के प्रधान को 'राजन्' या राजा कहा जाता था। आर्यों के पाँच कबीले होने के कारण उन्हें ऋग्वेद में 'पञ्चजन्य' कहा गया – ये थे- पुरु, यदु, अनु, तुर्वशु तथा द्रहयु। 'विदथ' सबसे प्राचीन संस्था थी। इसका ऋग्वेद में 122  बार उल्लेख आया है। 'समिति' का 9  बार, 'सभा' का 8  बार तथा कृषि का उल्लेख 24  बार हुआ है।ऋग्वेद में में कपड़े के लिए वस्त्र, वास तथा वसन शब्दों का उल्लेख किया गया है। इस वेद में 'भिषक्' को देवताओं का चिकित्सक कहा गया है तथा केवल हिमालय पर्वत तथा इसकी एक चोटी मुञ्जवन्त का उल्लेख हुआ है।
दूसरा वेद यजुर्वेद है जो मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है ,यजुस के नाम पर ही वेद का नाम यजुस +वेद (यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है, यज् का अर्थ समर्पण से होता है। पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध ,योग , इंद्रिय निग्रह  इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है। इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई। कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल 1400 -1000 ई.पू. का माना जाता है | यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं।वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद  की शाखा में 4  संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्ल यजुष्' के शुक्लत्व का कारण है। तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को 'आपस्तम्ब संहिता' भी कहते हैं। महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच ही उपलब्ध हैं। यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है। इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं। यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- . मध्यदिन संहिता और काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें 40  अध्याय, 1975  कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यज्ञादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा 3988  मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मन्त्र  (36. 3 ) तथा महामृत्युंजय मन्त्र  (3. 60 ) इसमें भी है।यजुर्वेद कर्मकांड से जुडा हुआ है इसका पाठ अध्वुर्य द्वारा किया जाता है। कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के 27  शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य जो एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद को  देखकर वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।               तीसरा वेद सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में 1875  मन्त्र हैं, उनमें से 1504 ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर 13  शाखाओं का पता चलता है इनमें से तीन आचार्यों कौमुथीय,  राणायनीय और जैमिनीय की शाखाएँ ही मिलती हैं | सामवेद को छान्दोग्य उपनिषद  में उदगीथों का रस कहा गया है ,अथर्ववेद के चौदहवें कांड, ऐतरेय ब्राह्मण  (8 -27 ) और बृहदारण्यक उपनिषद (जो शुक्ल यजुर्वेद का उपनिषद् है, 6 . 4. 27 ), में सामवेद और ऋग्वेद को पति-पत्नी के जोड़े के रूप में दिखाया गया है|  जिस प्रकार ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा यजुर्वेद के मंत्रों को यजूँषि कहते हैं उसी प्रकार सामवेद के मंत्रों को सामानि कहते हैं। ऋग्वेद में साम या सामानि का वर्णन 21  स्थलों पर आता है | सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को ऐसे  वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणतः- इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है।चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। साम मन्त्र क्रमांक 27  का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है।नारदीय शिक्षा ग्रंथ में सामवेद की गायन पद्धति का वर्णन मिलता है, जिसको आधुनिक हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में स्वरों के क्रम में सा-रे-गा-मा-पा-धा-नि-सा  के नाम से जाना जाता है। षडज् - सा,ऋषभ - रे,गांधार - गा,मध्यम - म,पंचम - प,,धैवत - ध और निषाद - नि |                         चौथा है अथर्ववेद ,इसमें देवताओं की स्तुति के साथ, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता है| भूगोल , खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्व , राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्य चिकित्सा , कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। इस में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठान वर्णित हैं ,इसे  ब्रह्मवेद भी कहते हैं। चरणव्यूह ग्रंथ के अनुसार अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ पैपल, दान्त,  प्रदान्त,  स्नात, सौल,  ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या है | वर्तमान में केवल दो शाखा की ही जानकारी मिलती है- पहली .जिसका पहला मन्त्र- शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु..... इत्यादि है वह पिप्पलाद संहिता तथा दूसरी .ये त्रिशप्ता परियन्ति विश्वारुपाणि विभ्रत....इत्यादि पहला मन्त्रवाला शोनक संहिता शाखा है जिसमें से शोनक संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। वैदिक विद्वानों के अनुसार 759 सूक्त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में 6000  मन्त्र होने की बात कही जाती है परन्तु किसी-किसी में 5987  या 5977  मन्त्र ही मिलते हैं। अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई। ॠग्वेद के उच्च कोटि के देवताओ को इस वेद में गौण स्थान प्राप्त हुआ है। धर्म के इतिहास की दृष्टि से ॠग्वेद और अथर्ववेद दोनों का बड़ा ही मूल्य है। अथर्ववेद से आयुर्वेद में विश्वास किया जाने लगा था।
जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 1 फरवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? प्रथम पड़ाव -चौथा दिन  
मनुष्य या किसी सभ्यता की पहचान दो तरीके से की जा सकती है एक तो उसकी संस्कृति से जो उसकी सांस्कृतिक पहचान कही जाएगी और दूसरी उसके डील डोल और अंगो की बनावट से जिसे उसकी जैविक पहचान कहा जा सकता है | पुरातात्विक अन्वेषणों से किसी भी मानव सभ्यता की दोनों प्रकार की पहचान जानी जा सकती है | जमीन में दबी किसी बस्ती के अवशेष ,बर्तन ,और शिलालेख उस सभ्यता की सांस्कृतिक पहचान की जानकारी देते है वही खुदाई के दौरान पाए जाने वाले नरकंकाल ,हड्डियां या मानव खोपड़ियां उस सभ्यता में रहने वाले लोगो की जैविक पहचान उजागर करती है | मेरी राय में हमें ये भली भांति समझ लेना चाहिए कि जैविक पहचान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी व्यक्ति के मूल उद्गम की जानकारी इसी से मिलती है जबकि एक सी जैविक पहचान वाले व्यक्ति अलग अलग संस्कृतियों का हिस्सा हो सकते है |  उत्तर वैदिक काल अथवा यू कहे कि ल���भग 800 ईस्वी पूर्व तक भारतीय उपमहादेश में निवास करने वाले लोगो की सांस्कृतिक पहचान स्पष्ट थी कि या तो वे द्रविड़ थे लेकिन वस्तुत ये लोग को थे इनका उद्गम स्थल कोनसा था इसके लिए इनकी जैविक पहचान जानना ही एकमात्र रास्ता है |  वर्तमान सदी में डा गुहा द्वारा 1931 में जनगणना के समय प्रस्तुत वर्गीकरण किसी हद तक इस प्रश्न का उत्तर दे देता है , इस वर्गीकरण में जैविक आधार पर भारत उपमहादेश में निवास करने वाले लोगो को 6 प्रजातियों में बांटा गया है |    पहली प्रजाति वो है जिसमे नीग्रिटो तत्व का समावेश है , छोटा सिर ,उभरा ललाट , चपटी नाक ,बाल सुन्दर और घुंघराले ,रंग काला,कोमल हाथ पैर ,सपाट हड्डियां ,छोटी दाढ़ी ,होंठ मोटे और मुड़े हुए ये सभी नीग्रिटो तत्व है |  बंगाल की खाड़ी ,मलेशिया प्रायद्वीप ,फिजी द्वीप समूह ,न्यूगिनी ,दक्षिण भारत और दक्षिणी अरब में नीग्रिटो अथवा आंशिक नीग्रो लोगो की मौजूदगी ये मान लेने को प्रेरित करती है कि किसी पूर्व ऐतिहासिक काल में ये प्रजाति एशिया महाद्वीप के बड़े विशेषकर दक्षिणी हिस्से को घेरे हुए थी |  नीग्रिटो प्रजाति सभ्यता की अविकसित अवस्था में रही थी और ये प्रजाति भारत उपमहादेश में पाषाण युग अर्थात पत्थर के अनगढ़ हथियार और तीर कमान लेकर ही आयी थी |  खेती ,मिट्टी के बर्तन और भवन निर्माण की कला से ये प्रजाति अनभिज्ञ थी , इनका निवास पहाड़ी गुफाओं में था और भोजन के लिए ये विभिन्न वस्तुए एकत्रित करते थे , भारतीय संस्कृति में वटवृक्ष की पूजा और गुफाओ का निर्माण इन्ही की देन है , अंडमान द्वीप वासियो के अतिरिक्त ये तत्व असम ,पूर्वी बिहार की राजमहल पहाड़ियों में भी पाया गया है |  अंगामी ,नागा ,बागड़ी , इरुला ,कडार ,पुलायन ,मुथुवान और कन्नीकर इसी प्रजाति के प्रतिनिधि है ,प्रोफ़ेसर कीन कडार ,मुथुवान ,पनियांग ,सेमांग ,ओरांव और ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियो को इसी प्रजाति के वंशज मानते है जो किसी समय सम्पूर्ण भारत में निवास करते थे , ये लोग ही सबसे पहले मलेशिया से भारत में बंगाल की खाड़ी से घुसे और उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण भारत में फेल गए , बाद में पूर्व द्रविड़ो अथवा द्रविड़ो के आने पर या तो ये समाप्त हो गए या उनमे विलीन हो गए |        
  भारत उपमहादेश में आनेवाली दूसरी प्रजाति संभवतया प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड अथवा आदि द्रविड़ थी , ये कद में नाटे ,गहरे भूरे अथवा काले रंग के ,लम्बा सिर ,नाक चौड़ी ,चपटी अथवा पिचकी ,घुंघराले बाल ,होठ मोटे और मुड़े हुए होते है।  इनके आदि पूर्वजो के अंश फिलिस्तीन में मिलते है लेकिन ये कब और किस प्रकार भारत आये ये जानकारी नहीं मिलती |  भारत की वर्तमान जनजातियों में ये तत्व ही सर्वाधिक मिलता है , दक्षिण भारत के चेंचू मलायन ,कुरुम्बा ,यरुबा ,मुण्डा , कोल ,संथाल और भील समुदायों के अनेक लोगो में इस प्रजाति के तत्व पाए गए है | तीसरी प्रजाति मंगोलायड है जिसका उद्गम स्थान इरावती नदी ,चीन ,तिब्बत और मंगोलिया है , यही से ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य ये लोग भारत आये और पूर्वी बंगाल के मैदान और असम की पहाड़ियों तथा मैदानों में बस गए |  भारत के उत्तर पूर्व भागो में नेपाल , असम और कश्मीर में तीन प्रकार के मंगोलायड पाए जाते है , चपटा मुंह ,गाल की उभरी हड्डियां ,बादाम की आकृति की आंखे ,  चेहरे और शरीर पर कम बाल ,कद छोटे से मध्यम , चौड़ा सिर और पीलापन लिए हुए रंग इस प्रजाति के प्रमुख तत्व है ,  इनमे पूर्वी मंगोलायड बहुत प्राचीन प्रजाति है जिसे सिर की बनावट ,नाक और रंग से ही पहचाना जा सकता है |  इसमें भी मंगोल प्रजाति जिसका कद साधारण ,नाक साधारण और कम ऊंची ,चेहरे और शरीर पर बालों का अभाव , आँखे तिरछी या कम मोड़ वाली ,चेहरा चपटा और छोटा ,और रंग गहरे से हल्का भूरा होता है |  लम्बे सिर वाली ये प्रजाति उप हिमालय प्रदेश ,असम और म्यांमार की सीमा पर रहने वाले आदि लोगों नागा ,मीरी और बोंडों में सर्वाधिक पाई जाती है |  इस समूह की दूसरी प्रजाति चौड़े सिर वाली है बांग्लादेश में चिटगांव के पर्वतीय आदिवासी और कलिम्पोंग की लेप्चा प्रजाति इसी श्रेणी के है |  तिब्बती मंगोलायड लम्बे कद,चौड़ा सिर और हलके रंग के होते है , ये लोग तिब्बत की और से आये और सिक्किम में बसे , दूध ,चाय ,कागज ,चावल ,सुपारी की खेती ,सामूहिक घर की परंपरा ,सीढ़ीनुमा खेती इन्ही लोगो देन है | चौथा प्रकार द्रविड़ प्रजाति का है  इस प्रजाति की अनेक किस्मे है जो लम्बे सिर ,काला रंग और अपने कद द्वारा पहचानी जाती है |  इनमे प्रथम प्रकार दक्षिण भारत के तमिल और तेलगु ब्राह्मणो में सर्वाधिक मिलता है , भारतीय जनजातियों में नीग्रिटो ,द्रविड़ और मंगोल प्रजातियों के ही तत्व सर्वाधिक पाए जाते है , इस प्रजाति को ही सिंधु घाटी सभ्यता को जन्म देने का श्रेय है | पांचवी प्रजाति नार्डिक है जो भूमध्यसागर से ईरान होते हुए गंगा के मैदान में आये , उत्तरी भारत की जनसँख्या में सबसे अधिक यही तत्व पाया जाता है सामान्य अर्थ में हम इस प्रजाति को आर्य के रूप में जानते है |  ये प्रजाति पंजाब ,कश्मीर ,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के मराठा और केरल ,महाराष्ट्र और मालाबार के ब्राह्मण इसी प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते है |  ये प्रजाति मध्यम से लम्बा कद , संकरी नाक ,उन्नत दाढ़ी ,शरीर पर घने बाल ,काली या गहरी भूरी और खुली आंखे , लहरदार बाल और पतला शरीर लिए हुए है |  इस प्रजाति ने सिंधु घाटी सभ्यता को अपनाया और उसे उन्नत किया , वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति मुख्यत इन्ही लोगो द्वारा निर्मित है , इन्ही  में हम पूर्वी अथवा सेमेटिक प्रजाति को शामिल कर सकते है जो टर्की और अरब से आये , केवल नाक की बनावट को छोड़कर ये प्रजाति नार्डिक से मिलती जुलती है |  छठी प्रजाति मध्य एशियाई पर्वतो के पश्चिम से भारत में आयी चौड़े सिर वाली प्रजाति है जिसे एल्पोनायड ,दिनारिक और आर्मिनॉयड तीन भागो में बांटा गया है |  छोटा मध्यम कद ,चौड़े कंधे ,गहरी छाती ,लम्बी टांगे ,चौड़ी पर छोटी उंगलियां ,गोल चेहरा ,नाक पतली और नुकीली ,रंग भूमध्यसागरीय लोगो से हल्का ,शरीर मोटा और मजबूत और चेहरे तथा शरीर पर घने बाल इस प्रजाति के तत्व है ,संभवतया ये प्रजाति बलूचिस्तान से सिंध ,सौराष्ट्र और गुजरात होते हुए महाराष्ट्र और आगे तमिलनाडु ,कर्णाटक ,श्रीलंका और गंगा किनारे होते हुए बंगाल पहुंची |  सौराष्ट्र में काठी ,गुजरात में बनिया ,बंगाल में कायस्थ के साथ महाराष्ट्र ,कन्नड़ ,तमिलनाडु ,बिहार और गंगा के डेल्टा में पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी इस प्रजाति के तत्व पाए जाते है |                              किसी भी संस्कृति को उसके भाषाई इतिहास के बगैर नहीं जाना जा सकता ,भाषा ही वो एकमात्र जरिया है जो उस संस्कृति की सांस्कृतिक पहचान बताता है |  भारतीय भाषाई सर्वेक्षण के संपादक प्रियर्सन के अनुसार भारतीयों द्वारा करीब 180 भाषाएँ और 550 बोलियां बोली जाती है | इन्हे चार वर्गों एस्ट्रोएसियाटिक ,तिब्बती -बर्मी ,द्रविड़ और हिन्द -आर्य में बांटा गया है | एस्ट्रोएसियाटिक भाषाएँ प्राचीनतम है और सामान्यतया मुंडा बोली के कारण जानी जाती है इसे बोलने वाले पूर्व में ऑस्ट्रेलिया तक और पश्चिम में अफ्रीका के पूर्वी समुद्रतट के निकट मेडागास्कर तक पाए जाते है | विद्वानों के अनुसार लगभग 40 हजार ईस्वी पूर्व ऑस्ट्रियाई लोग ऑस्ट्रेलिया में आये और इसलिए संभव है ये लोग भारतीय उपमहादेश से होते हुए दक्षिणी पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया गए | ये भी कहा जा सकता है कि इस समय तक भाषा का अविष्कार हो चूका था | मुंडा भाषा झारखण्ड ,बिहार ,पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा में संथालियों द्वारा जो इस उपमहादेश की सबसे बड़ी जनजाति है द्वारा बोली जाती है | एस्ट्रोएसियाटिक की दूसरी शाखा मोन -खमेर है जो उत्तर पूर्वी भारत में मेघालय अंतर्गत खासी और जामितिया पहाड़ियों और निकोबारी द्वीपों में बोली जाती है | तिब्बती -बर्मी बोलने वालो की सख्या बहुत अधिक है  | भारत में त्रिपुरा ,असम ,मेघालय ,अरुणाचल प्रदेश ,नागालैंड ,मिजोरम ,मणिपुर और दार्जिलिंग में ये भाषा बोली जाती है |  द्रविड़ बोली का प्राचीनतम रूप भारतीय उपमहादेश के पाकिस्तान स्थित उत्तर पश्चिम में पाया जाता है | भाषा विज्ञानं के विद्वान इस भाषा की उत्पत्ति का श्रेय एलम अर्थात दक्षिणी पश्चिमी ईरान को देते है | इसकी तिथि चौथी सहस्त्राब्दी निर्धारित की गई है ब्रहुई इसके बाद का रूप है | ये अभी ईरान ,तुर्कमेनिस्तान ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सिंध और बलूचिस्तान और सिंध राज्यों में बोली जाती है | कहा जाता है कि द्रविड़ भाषा पाकिस्तानी क्षेत्र में होते हुए दक्षिणी भारत में पहुंची जहाँ इससे तमिल ,तेलगु ,कन्नड़ और मलयालम जैसी शाखाओ की उत्पत्ति हुई | झारखण्ड और मध्य भारत में बोली जाने वाली ओरांव अथवा कुरुख भाषा भी वस्तुत द्रविड़ ही है लेकिन ये मुख्यत ओरांव जनजाति द्वारा ही बोली जाती है | कहा जाता है कि हिन्द यूरोपीय परिवार की पूर्वी अथवा आर्य शाखा हिन्द -ईरानी ,दर्दी ,हिन्द -आर्य इन तीन उपशाखाओ में बंट गई | ईरानी जिसे हिन्द- ईरानी भी कहते है ईरान में बोली जाती है और इसका प्राचीनतम नमूना अवेस्ता नामक महाग्रंथ में मिलता है | दर्दी भाषा पूर्वी अफगानिस्तान ,उत्तरी पाकिस्तान और कश्मीर की है यद्यपि कई विद्वान् दर्दी को हिन्द -आर्य की उपशाखा मानते है | हिन्द आर्य भाषा पाकिस्तान ,भारत ,बांग्लादेश ,श्रीलंका और नेपाल में बहुसंख्यक लोगो द्वारा बोली जाती है | लगभग 500 हिन्द -आर्य भाषाएँ उत्तर और मध्य भारत में बोली जाती है | वैदिक संस्कृत प्राचीन हिन्द- आर्य भाषा के अंतर्गत है लगभग 500 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी तक मध्य हिन्द आर्य भाषाओँ के अंतर्गत प्राकृत ,पालि और अपभृंश भाषाएँ आती है | मुंडा और द्रविड़ भाषाओ के कई शब्द वैदिक संस्कृति के मूल ग्रन्थ ऋग्वेद में मिलते है |
 मिलते है पड़ाव के पांचवे दिन एक नयी चर्चा के साथ महेंद्र जैन 31 जनवरी 2019
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? प्रथम पड़ाव -तीसरा दिन 
हमारा सम्बन्ध वैदिक लोगो ( जो आर्यों की ही एक प्रजाति थी और आर्यो से पहले भारत उपमहादेश में आये ) या आर्यों से भी हो सकता है | तो हमें ये मान लेना चाहिए कि हमारा मूल उद्गम स्थल अनातोलिया है और हमारे द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिन्द -यूरोपीय भाषा समूह का एक अंग है | जीव विज्ञानी डीएनए समानताओं के आधार पर हमारे पूर्वजो को 8000 ईस्वी पूर्व का मानते है लेकिन पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर पुरातात्विक विद्वान और भाषा विज्ञानी इसे 2000 ईस्वी पूर्व का मानते है | ये कहा जा सकता है कि वैदिक और आर्य संस्कृति के लोग 1900 ईस्वी पूर्व से 500 ईस्वी पूर्व के बीच भारत उपमहादेश में आकर बसे |                                       ये उल्लेखनीय ही कि आर्यों के मूल उद्गम स्थल से खेती के कोई प्रमाण नहीं मिलते जिससे ये स्थापित होता है कि आर्यों ने इस उपमहादेश में बसने के साथ ही हड़प्पाई और वैदिक जनो द्वारा की जाने वाली खेती की पद्धति को अपनाया | वैदिक संस्कृति की विशेषताओं की बात करे तो इस दौर की महत्वपूर्व उपलब्धि "ऋग्वेद "( 1500 ईस्वी पूर्व ) और वैदिक संस्कृत भाषा है जिसमे ये ग्रन्थ लिखा गया  | उत्तर वैदिक काल (1000 -500 ईस्वी पूर्व ) में सामवेद ,यजुर्वेद और अथर्ववेद की रचना की गई | इन ग्रंथो की रचना के साथ ही वैदिक संस्कृति आर्य संस्कृति में परिवर्तित होना शुरू हो जाती है और पूजा में कर्मकांडो और अनुष्ठानों का समावेश शुरू हो जाता है | दूसरी विशेषता शवों को दफनाने के स्थान पर दाह करने की है जिसकी शुरुवात सर्वप्रथम स्वात घाटी में 1500 ईस्वी पूर्व में पायी गई | हड़प्पाई लोगो की तरह अग्नि पूजा वैदिक संस्कृति में भी मिलती है लेकिन यहाँ इस पूजा में यज्ञ वेदियों का प्रयोग हुआ | पशुबलि इस काल में भी प्रचलित थी लेकिन इसके पीछे मुख्य उद्देश्य मांस का भक्षण करना था |                                           स्वस्तिक को शुद्ध आर्यत्व का प्रतीक माना जाता है लेकिन पुरातात्विक प्रमाण इसे आर्यो से भी पहले का बताते है | ये प्रतीक सर्वप्रथम बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से भी पहले का माना जाता है और दक्षिणी ईरान की संस्कृति से जोड़ा जाता है | हड़प्पाई संस्कृति और अल्टीन टेपे (2300 -2000 ईस्वी पूर्व ) में पाए गए स्वस्तिक वाले ठप्पे इसे प्राक वैदिक और प्राक हड़प्पाई साबित करते है | कहा जा सकता है कि ये प्रतीक ऐलम (आर्य पूर्व दक्षिण ईरान ) से चलकर बलूचिस्तान, सिंधु घाटी और तुर्केमिस्तान पहुंचा | ऋग्वेदिक संस्कृति में अग्नि के साथ इंद्र ,मित्र ,वरुण आदि देवताओ को भी स्थान मिला जिनकी स्तुतियां ऋग्वेद में संग्रहीत है जिन्हे विभिन्न ऋषियों और मन्त्र द्रष्टाओं द्वारा रचा गया |वैदिक काल में इंद्र को सबसे प्रतापी और मुख्य देवता माना गया उत्तर वैदिक काल और आर्य संस्कृति में इंद्र का स्थान प्रजापति नामक देवता ने ले लिया  | इसी काल के भरत वंश के राजा शिवोदास द्वारा शम्बर को पराजित करने का वर्णन ऋग्वेद में है जो इस उपमहादेश के भारत नाम के लिए प्रयोग किया गया | हड़प्पाई संस्कृति जहाँ नगरों के स्तर तक विकसित हो चुकी थी वही उसके उत्तर काल में वैदिक संस्कृति का समाज पांच कबीलो के साथ प्रारम्भ हुआ | इससे आगे बढ़ने पर हम सत्ता को कबीलो से प्रादेशिक होता हुआ पाते है अर्थात यहाँ से प्रदेश या राष्ट्र की अवधारणा का जन्म होता है | जहाँ ऋग्वेदिक संस्कृति को  शुरुवाती प्रशासनिक तंत्र की स्थापना करने का श्रेय है जो सभा ,समिति ,विदथ और गण के रूप में सामने आता है तो आर्य संस्कृति में प्रदेशो का अ��्तित्व सामने आता है  | कबीलियाई संस्कृति ��े रूप में विकसित हो रही वैदिक संस्कृति में कबीले का प्रधान राजन कहलाता था जिसका संभवतया निर्वाचन होता था लेकिन आर्य संस्कृति में हम राजा को आनुवंशिक पाते है | वैदिक  संस्कृति में पुरोहित नाम के एक नए शब्द से हमारा परिचय होता था जिसका कार्य प्रशासनिक कार्यो में सभा और विदथ के साथ राजा को परामर्श देना था | वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋग्वेद के दो महान पुरोहित रहे है | आर्य समुदाय से दूसरे समुदायों को जोड़ने के लिए विश्वामित्र द्वारा इसी काल में गायत्री मन्त्र की रचना की | इस काल में प्रारम्भ में स्त्रियों को सम्माननीय और बराबरी का दर्जा हासिल था लेकिन गोत्र जो जन्म कुल का द्योतक है के जन्म के बाद सामाजिक व्यवस्था पितृ सत्तात्मक होने लगी | ये एक बड़ा परिवर्तन था जिसने धीरे धीरे समाज में स्त्रियों की स्थिति को दोयम दर्जे का बनाने की शुरुवात की | उत्तर वैदिक काल में सभा और समितियों का प्रभुत्व समाप्तप्राय हो गया और सत्ता का प्रमुख केंद्र राजा बन गया | सभा और समितियों में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध होने के साथ ही प्रशासनिक तंत्र पर ब्राह्मण और कुलीन वर्गों का अधिपत्य स्थापित हुआ | नियोग , विधवा विवाह ,बहुपति प्रथा ,आदिम विवाह जैसी प्रथाओं का उल्लेख ऋग्वेद में है लेकिन ये तय है कि इस काल में बाल विवाह नहीं होते थे | इसी संस्कृति में सर्वप्रथम समाज को वर्गों में बांटने की शुरुवात हुई | आर्यो द्वारा जिन लोगो पर विजय की गई वे सभी दास कहलाये और जीती गई वस्तुओ में बंटवारे की विषमता ने समाज को योद्धा ,पुरोहित और प्रजा इन तीन वर्गों में विभाजित कर दिया लेकिन ये वर्गीकरण लोगो के व्यवसाय पर आधारित था | उत्तर वैदिक काल में रचित ब्राह्मण ग्रंथो के बाद समाज में धार्मिक अनुष्ठानो और कर्मकांडो में बेतहाशा वृद्धि हुई जिसने समाज में ब्राह्मणो की स्थिति को शक्तिशाली बना दिया | सामाजिक व्यवस्था के नाम पर इस काल में ऋग्वेदिक युग की वर्ग व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया गया जो आज तक जारी है लेकिन इसके मूल में ब्राह्मण वर्ग द्वारा समाज में अपना प्रभुत्व बनाये रखने की ही भावना अधिक नजर आती है वर्ना व्यवसाय पर आधारित ऋग्वेद की वर्ग व्यवस्था को जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में नहीं बदला जाता |   वैदिक काल में देवताओ में मानवोचित व्यवहार मानते उन्हें प्राणियों के रूप में देखा जाने लगा था और इनकी स्तुति के लिए सूक्तो की रचना की गई | इनकी स्तुति यज्ञो द्वारा की जाती थी लेकिन यज्ञ अग्नि में आहुति देते समय कोई मन्त्र नहीं बोला जाता था और ये आराधना आध्यात्मिक उत्थान या जीवन मरण से मुक्ति पाने के लिए नहीं अपितु संतति ,पशु ,अन्न ,धनधान्य और आरोग्य पाने के लिए की जाती थी | इससे ये स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक काल तक पुनर्जन्म जैसी किसी अवधारणा का अस्तित्व नहीं था | उत्तर वैदिक काल में ऋग्वेद के गौण देवता रूद्र को प्रमुख स्थान मिला | यही हमारा परिचय विष्णु और पूषन नामक देवताओं से होता है | दूसरी और यहाँ से वैदिक संस्कृति शैव और वैष्णव दो धाराओं में बंट जाती है | हड़प्पाई, ऋग्वेदिक और उत्तर वैदिक संस्कृति में शने शने हमें विभिन्न देवताओ की पूजा किये जाने के संकेत मिलते है लेकिन मुख्य बात ये है कि किसी भी काल में कोई बड़े पूजा स्थल अर्थात मंदिर होने के प्रमाण नहीं मिलते , पूजा का माध्यम यज्ञ ही रहा था | और फिर अस्तित्व में आये उपनिषद जिनकी रचना 600 ईस्वी पूर्व हुई | इनकी रचना वस्तुत हुई तो उत्तर वैदिक काल में पुरोहितो के वर्चस्व और कर्मकांडो के विरुद्ध हुई लेकिन इन्होने सामाजिक और धार्मिक आस्था को एक नई परिभाषा प्रदान की जो आज भी हमारे समाज में पोशीदा है |              
  देखिये और समझने का प्रयास कीजिये | उपनिषदों ने कर्मकांडो की निंदा करते हुए सम्यक विश्वास और ज्ञान पर जोर दिया | इनके द्वारा पहली बार लोगो को आत्मा और ब्रह्म जैसे शब्दों से परिचित करवाया गया | इस काल में पहली बार एक ईश्वरीय परम सत्ता की धारणा प्रस्तुत की गई | जिसे परमात्मा का नाम दिया गया और मानव में उसी के अंश आत्मा के निहित होने की बात कहते हुए परमात्मा से मिलन को ही मानव का  कल्याण और मुक्ति कहा गया | यहाँ आत्मा के अजर अमर होने का सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए पुनर्जन्म की परिकल्पना को प्रस्तुत किया गया | यही हमारा परिचय त्रिदेवो के तीसरे देव ब्रह्मा से परिचय होता है | मानव को दुष्कर्मो से बचाने के लिए स्वर्ग और नर्क जैसे स्थानों को प्रस्तुत किया गया | लेकिन ये तय है कि इस सभ्यता की धार्मिक आस्था त्रिदेवो के इर्द गिर्द ही घूमती रही |  अपनी इस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए इन लोगो ने जिस माध्यम का सहारा लिया वो था राजा को ईश्वरीय रूप में और उसकी सत्ता को ईश्वरीय रूप में प्रस्तुत करना | इस दृष्टिकोण को तत्कालीन राजाओं ने अविलम्ब अपना संरक्षण प्रदान किया और इसे प्रचारित प्रसारित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी | क्योंकि इस विचारधारा में सबसे अधिक लाभ उन्ही को था | प्रथम तो ईश्वरीय रूप में उन्हें प्रस्तुत करने से उनका सम्मान पूजा की सीमा तक बढ़ जाना था ,और उनकी सत्ता को भी सुरक्षित हो जाना था |  दूसरा कारण इस विचारधारा को पोषित करने में उन्हें उस काल के शक्तिशाली ब्राह्मण वर्ग के प्रभुत्व से किसी हद तक राहत मिल जानी थी | बहरहाल ये विचारधारा खूब बढ़ी और बाद के 2000 वर्षो में हमारे समाज में इस तरह समां गई कि इससे कुछ अलग सोचने का ख्याल भी दिमाग में नहीं आता है | इस विचारधारा का गहनता से अध्ययन करे तो ईश्वर के अवतारों की जो गाथाये हम आज तक पढ़ते आये है उनके मूल को समझा जा सकता है | बड़ी संख्याओं में मंदिरो और पूजा ग्रहो का निर्माण इस अवस्था में हुआ और ये कहा जा सकता है कि मंदिरो में देव प्रतिमाओं की पूजा की परंपरा उत्तर वैदिक काल की इसी अवस्था से शुरू हुई |
 जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 31 जनवरी 2019     
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? प्रथम पड़ाव -दूसरा दिन  
में ये मान सकता हूँ कि संभवतया मेरा सम्बन्ध उन आदिम यायावर लोगो से हो सकता है जो दक्षिणी अफ्रीका से समुद्रतट के सहारे सहारे यात्रा करते हुए भारत उपमहादेश में पहुंचे | यहाँ से इन्होने ऑस्ट्रेलिया की और प्रस्थान किया तो कुछ लोग नर्वदा नदी के मुहाने से इस महादेश में उत्तर की और बढे होंगे और अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने इस यात्रा के लिए भी समुद्र तट का ही सहारा लिया होगा | भारत उपमहादेश के दक्षिण में इनके बसने की शुरुवाती संभावना कम है क्योंकि इस महादेश में परिपक्व मानव संस्कृति के प्रथम लक्षण सिंधु घाटी में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के रूप में मिलते है | इस आधार पर में ये मान सकता हूँ कि में जिस सभ्यता या संस्कृति से सम्बंधित हो सकता हूँ  वो 4500 वर्ष ( हड़प्पाई संस्कृति का काल 2500 -1900 ईस्वी पूर्व है ) से अधिक पुरानी नहीं है लेकिन विश्व की अन्य सभ्यताओं के मुकाबले इसे अधिक पुरानी कहा जा सकता है | पुरातात्विक भाषा में ये ताम्रपाषाण युग था जिसका तात्पर्य है कि इस काल में लोग पत्थरो के प्रयोग के साथ ताम्बे के प्रयोग की और बढे | यदि मै इस संस्कृति से सम्बंधित हूँ तो आज मुझे निश्चित ही अपने आप पर गर्व होना चाहिए और उसका कारण है इस सभ्यता की विशेषताएं | जिनमे सबसे बड़ी विशेषता इस सभ्यता के नगरों का नगर विन्यास है | नहाने के लिए स्नानागार ,और दूषित जल के निस्तारण के लिए ढकी हुई नालियों की संरचनाये इस सभ्यता के लोगो की स्वच्छता के प्रति जागरूकता को दर्शाती है | ये विशेषताएं उस समय की ही नहीं बल्कि बाद की भी किसी और सभ्यता में नहीं मिलती | वर्तमान में जरूर स्वच्छता की इन व्यवस्थाओं पर जोर दिया जा रहा है | नगरीय विन्यास की ऐसी प्रतिकृति वर्तमान दक्षिण भारत में देखने को मिलती है जिससे ये स्थापित होता है कि हड़प्पाई संस्कृति की उत्तर अवस्था में जब सिंधु घाटी में आर्यो का आगमन हुआ हड़प्पाई संस्कृति के बचे खुचे लोग इस और पलायन कर गए और यहाँ अपने को स्थापित किया | इस सभ्यता के अवशेषों में किसी भी प्रकार के हथियार का नहीं मिलना बताता है कि ये लोग अमन और शांति पसंद थे | कृषि और पशुपालन इनकी आजीविका थी | ये लोग गेंहू ,जो ,राई ,मटर आदि अनाज और तिल तथा सरसो पैदा करते थे ,कपास भी इन्ही के द्वारा सर्वप्रथम उपजाया गया | इस सभ्यता की 1853 में देखी गई एक मुहर पर वृषभ अर्थात बैल का चित्र अंकित है जो इस काल में इस पशु की महत्ता को बताता है |            
  ये लोग लिखना जानते थे लेकिन इनकी लिपि शब्दात्मक कम और चित्रात्मक अधिक थी | इस लिपि को विभिन्न भाषाओँ से जोड़ा जाता है लेकिन ये निश्चित रूप से क्या है इसे आज तक नहीं जाना जा सकता | ये मापतोल करना जानते थे और उसके लिए 16 के गुणको का प्रयोग करते थे जिसे हमने भी अपने पुराने समय में इस्तेमाल किया |  ऐसा क्यों था ये निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन मेरा अनुमान है कि कोई ऐसी वस्तु रही होगी जो इस सभ्यता में सभी स्थानों पर सुलभता से उपलब्ध रही होगी क्योंकि अवशेषों से पत्थर या किसी धातु के बाट नहीं मिले बल्कि विभिन्न वस्तुए मिली है जो 16 और इसके गुणकों के रूप में थी | 2350 ईस्वी पूर्व और इसके आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुहा ( सिंधु सभ्यता का नगर ) और दिलमन तथा मकन (मेसोपोटामिया और मेलुहा के मध्य स्थित ) का उल्लेख ये स्थापित करता है कि दोनों सभ्यताओं में इस मार्ग के द्वारा वाणिज्य होता था और जिसके कारण दोनों सभ्यताओं में सांस्कृतिक लेनदेन भी हुआ होगा | हड़प्पाई संस्कृति में शवों को बर्तन में रखकर दफ़नाने और प्राचीन मिश्र में ताबूतों में रखकर शवों को दफ़नाने की परंपरा इसका उदाहरण है | अब सबसे महत्वपूर्व विषय धार्मिक परम्पराओ पर आते है | इस सभ्यता में किसी भी प्रकार के मंदिर के अवशेष नहीं मिले है जिससे ये स्थापित होता है कि यदि ये किसी देवता की पूजा करते रहे भी होंगे तो उसके लिए मंदिर तो नहीं बनाते थे | हड़प्पा में मिली एक मिट्टी की मूर्तिका में एक स्त्री के गर्भ से पौधा निकलता हुआ बताया गया है ,पत्थर पर बने लिंग और योनि के प्रतीक तथा एक मुहर पर तीन सींग वाला देवता जिसके चारो और हाथी ,बाघ और गेंडा है | इस प्रतीक के आसन के रूप में भैंसा और पांवो पर हिरन है | इसे पद्मासन की मुद्रा में बैठा हुआ बताया गया है | इससे ये तो स्पष्ट है कि उनके जीवन में पूजा जैसी किसी परंपरा का अस्तित्व रहा था | ऋग्वेद में लिंग पूजक अनार्यो का उल्लेख है जो संभवतया इसी सभ्यता के लिए प्रयुक्त हुआ साथ ही इस सभ्यता के ऋग्वेद से पहले की होने का भी प्रमाण है |                  आदिकाल से ही मानव की ये प्रकृति रही है कि जो बात या घटना उसकी समझ से परे होती है वो उसे देवीय या चमत्कार मान लेता है और एक विशेष दृष्टिकोण अपना लेता है ,ये प्रकृति आज भी जारी है | बारिश का होना , आग का जलना और वस्तुओ को पका देना जिससे वे अधिक स्वादिष्ट हो जाती है ,पोधो का उत्पन्न होना और बढ़ना ,शिशु का जन्म और उसका बड़ा होना अर्थात प्रजनन की प्रक्रिया | ये सभी घटनाये भी उसकी समझ से परे थी और इसीलिए उसके विशेष दृष्टिकोण का कारण बनी | वर्तमान सनातन धर्म में बेशक लिंग पूजा को शिव या महादेव की पूजा से जोड़ दिया गया हो लेकिन वस्तुत ये परंपरा हड़प्पाई संस्कृति में मिलती है और वे शिव या महादेव नामक किसी देवता से परिचित नहीं थे | स्वभावगत देखे तो हमारा दृष्टिकोण उसके प्रति विशेष सम्मान का हो जाता है जिससे हमें कुछ विशेष की प्राप्ति होती है | हड़प्पाई लोगो ने भी यही किया | उन्होंने वनस्पतियो का सम्मान इसलिए किया क्योंकि इनसे वे आहार पाते थे ,जल का सम्मान इसलिए किया क्योंकि ये उनकी प्यास तो बुझाता ही था साथ ही उसकी फसलों को भी बढ़ाता था ,बैल इसलिए सम्माननीय था क्योंकि वो कृषिकार्यों में प्रयोग के साथ बोझ के परिवहन में भी प्रयोग किया जाता रहा होगा ,अग्नि का सम्मान इसलिए किया कि वो पकाने के साथ उसे ठण्ड से भी राहत देती थी | स्त्री के गर्भ से निकलते पौधे का चित्रण उनकी इस धारणा की पुष्टि करता है कि पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाली फसलों तथा स्त्री के गर्भ से निकलने वाले शिशु ये दोनों क्रियाये उनके लिए समान थी अर्थात उनके लिए धरती जितनी आदरणीय थी उतनी ही स्त्री भी थी | स्त्री और पुरुष के सहवास और धरती पर चलाये जाने वाले हल इन दोनों प्रक्रियाओं को देखे तो समानता स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो जाती है | क्योंकि आबादी निश्चित रूप से बहुत कम रही होगी तो वो प्रक्रिया जो आनंददायी होने के साथ संतति बढ़ाने वाली भी और जो उनकी समझ से परे थी क्यों नहीं उनके विशेष दृष्टिकोण का कारण बनती | लिंग योनि के प्रतीक हड़प्पाई लोगो के इसी विशेष दृष्टिकोण का परिणाम है | मध्य एशिया से सांस्कृतिक आदान प्रदान के चलते ये प्रतीक वहां भी पहुंचे होंगे जो वहां कई स्थानों पर पाए गए है | तीन सींग वाले देवता को हड़प्पाई लोग किस नाम से जानते थे ये तो ज्ञात नहीं है लेकिन ये स्थापित किया जा सकता है कि आर्य संस्कृति के महादेव और उनके नाडिया ( वृषभ ) को हड़प्पाई संस्कृति से लिया गया | साथ में  वन्य पशुओ  को चित्रित करके हड़प्पाई लोगो ने जहाँ अपने इस देवता को जंगल में रहने वाला माना आर्य संस्कृति में इन्हे हिम  पहाड़ो का वासी मानते हुए वन्य पशुओ के स्थान पर गणों की स्थापना की | 
मिलते है पड़ाव के तीसरे दिन एक नई चर्चा के साथ ---महेंद्र जैन 31 जनवरी 2019
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