लोकपक्ष बुलेटिन संख्या 12 जांफरी-फरवरी 2023
लोकपक्ष बुलेटिन संख्या 12 जनवरी फरवरी 2023
शिक्षा व्यवस्था और पूंजीवादी प्रजातंत्र
शिक्षा प्रणाली या व्यवस्था मुनाफाखोरी से मुक्त हो या ना हो, महत्वपूर्ण मुद्दा है शिक्षा कैसी हो? विज्ञान पर आधारित मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए हो या फिर मात्र एक निपुण श्रम शक्ति का मालिक, जिसका उपयोग पूंजी द्वारा बेशी मूल्य पैदा करने के लिए हो|
दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद सरकारी विद्यालयों को निजी विद्यालयों के समकक्ष लाने की कवायद की गयी और यह दावा किया गया कि यहाँ के क्षात्र निजी विद्यालयों के क्षात्रों की बराबरी कर सकते हैं उत्तीर्ण होने और अधिक मार्क्स लेन में| जबकि हमें पता है कि उनके पाठ्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किये गए हैं, यदि है भी तो अवैज्ञानिक आधार और धार्मिक तथा पुराने संस्कृति के नाम पर कचड़ा ही परोसा जा रहा है|
1990 तक अधिकांश विद्यालय, महाविद्यालय और विष विद्यालय सरकारी ही थे, कुछ हद तक उन्हें स्वतंत्रता भी था अपने संस्त्य्हानों द्वारा पाठ्यक्रम तय करने का, छात्रों को शिक्षा और दिशा निर्देश करने का| पर इनके निजीकरण और करोड़ों-अरबों के निजी विद्यालयों के बनने के बाद स्थिति में अंतर आने लगा| निजी विद्यालयों के पक्ष में सत्ता वर्ग और पूंजीपति तथा वित्तापति वर्ग के हित में काम खुलेयाम होने लगा| सरकारी विद्यालयों के अनुदान शिक्षा बंद होने लगे जबकि निजी विद्यालयों को सस्ते जमीन, ऋण और अन्य सुविधाएँ देने जा लगीं|
ऐसी स्थिति का “विकास” खुलेआम 2014 के बाद से स्पष्ट दिखने लगा| नयी शिक्षा निति (NEP) ने तो भारतीय शिक्षा प्रणाली की रीढ़ पूरी तरह तोड़ दी|
भारत में शिक्षा की चिंतनीय स्थिति: एक रिपोर्ट
जीवन में उन्नति के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। किसी भी देश के नागरिक की बुनियादी ज़रूरत है शिक्षा। शिक्षा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का जुड़ा होना शिक्षित व्यक्ति के लिए जीवनोपयोगी हो जाता है। शिक्षा की ज़रूरत को पूरी दुनिया ने स्वीकारा है। दुनिया के कई देश अपनी संपूर्ण शिक्षा-व्यवस्था अपने नागरिकों के लिए निःशुल्क बनाए हुए हैं ताकि देश की प्रतिभा जहाँ भी हो उभरकर बाहर आ सके और देश व संसार की भलाई में उसका योगदान हासिल किया जा सके।
भारत में साक्षरता का प्रतिशत 74.04 है जिसमें पुरुष 82.14% तथा महिलाएँ 65.46% साक्षर हैं। यह आँकड़ा 2011 की जनगणना पर आधारित है। 2021 की जनगणना करोना महामारी के चलते टाल दी गई थी जिसके बारे में अब घोषणा की गई है कि आगामी जनगणना 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद की जाएगी।
वर्तमान सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में अपने साढ़े आठ साल से अधिक के समय में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है। हाँ, शिक्षण संस्थानों में साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ावा देने और बेतहाशा शुल्क वृध्दि (इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 400 गुना तक फ़ीस बढ़ाई गई है जिसके विरोध में कई महीनों से विद्यार्थी आंदोलनरत हैं।) की गई है। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों ही वर्तमान व्यवस्था की अदूरदर्शी नीतियों से त्रस्त हैं। शिक्षा का बज़ट निरंतर घटाया जा रहा है, विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली फ़ेलोशिप में लगातार कटौती हो रही, सीटें कम की जा रहीं हैं। ठेके पर तदर्थ शिक्षकों से अधिकांश शिक्षण कार्य कराया जा रहा है जिससे शिक्षा के स्तर में गिरावट आना स्वाभाविक है।
पिछले दो सालों (2020-2021) में शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट आई है जिसमें बहाना बन गई है करोना महामारी। ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यार्थियों का सामान्य ज्ञान घट गया है क्योंकि उनके पास ऑनलाइन पढ़ाई के पर्याप्त इंतज़ाम नहीं थे। ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी और इंटरनेट की अत्यंत धीमी गति और यदकदा उपलब्धता ने ऑनलाइन पढ़ाई के विचार को नई चुनौती पेश की है।
विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाय इस विषय पर सत्ताधारी दल अपना एजेंडा कोर्स में लागू करने लगता है जिसमें अनेक अनावश्यक और अवैज्ञानिक विषयों को भर दिया जाता है। सत्ता के समर्थक लेखकों, कवियों की बेतुकी बातें विद्यार्थियों को पढ़ने पर मज़बूर किया जाता है। राजस्थान में पिछली भाजपा सरकार ने इतिहास बदलकर बच्चों को पढ़ाया कि हल्दी घाटी युद्ध में अकबर महाराणा प्रताप से हारा था जिसे वहां की वर्तमान काँग्रेसी सरकार ने फिर यथावत कर दिया। सीबीएसई बोर्ड की कक्षा दसवीं के सोशल सांइस की पुस्तक में प्रश्न पूछा जाता है-"भारत में 'राजनीति में जाति' और 'जाति के अंदर राजनीति'। क्या आप इस कथन से सहमत हैं?" जाति का सवाल बहुत पेचीदा है जिसे बच्चों के मन-मस्तिष्क में जातिगत भेदभाव के रूप में पढ़ाया जाना अनुचित है।
हरियाणा सरकार की शिक्षा नीति चर्चा में आई कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले जो बच्चे निजी स्कूलों में जाना चाहेंगे सरकार उनकी फ़ीस भरेगी और विद्यार्थी को एक निश्चित धनराशि भी देगी। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चों को निजी विद्यालयों की ओर आकर्षित करो और सरकारी स्कूल धीरे-धीरे बंद करते जाओ।
दिल्ली सरकार दावा करती है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों का रिज़ल्ट निजी स्कूलों से बेहतर है। दिल्ली सरकार अपने सैकड़ों स्कूली शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए फ़िनलैंड भेजती है। यह पैसे की बर्बादी का नया तरीक़ा है। भारत में भी प्रशिक्षण की बेहतर व्यवस्था हो सकती है।
आजकल शिक्षा के अत्यंत ख़र्चीले स्वरूप ने आम आदमी के बच्चों का शिक्षित होने की योजना पर कड़ा प्रहार किया है। विद्यार्थियों द्वारा लगातार आत्महत्या किए जाने के समाचार कोटा राजस्थान से आए जहाँ कोचिंग के नाम पर भारी लूट चल रही है। महँगी शिक्षा प्रतिभा को आगे बढ़ने से रोकती है। शिक्षा का अधिकार जैसे क़ानून को प्रभावी तौर पर लागू किए जाने के लिए एक व्यापक आंदोलन की ज़रूरत है। निजी स्कूल,निजी विश्वविद्यालय, निजी मेडिकल कॉलेज़, निजी इंजीनियरिंग कॉलेज़ की फ़ीस का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल जहाँ आम आदमी के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना असंभव बना दिया गया है l
सरकारी नौकरियों के लिए भटकते शिक्षित नौजवान देश के लिए बड़ी चिंता का विषय बन गए हैं। सरकारी पद के लिए परीक्षा पास कर चुके नौजवानों को सरकार ने सालों से नियुक्ति-पत्र नहीं दिया, परीक्षा का पेपर चौथी बार लीक हो गया आदि समाचार हम अक्सर पढ़ते रहते हैं।
शिक्षा पर सरकार के ढुलमुल रबैये पर जनता को जाग्रत किया जाना आज नितांत आवश्यक है अन्यथा भावी पीढ़ी का भविष्य अंधकार से भरा हो जायेगा। शिक्षा सरकारी दिखावे और विज्ञापन से उन्नत नहीं होती बल्कि इसके लिए दूरगामी उद्देश्य पर आधारित जनोन्मुखी शिक्षा-नीति चाहिए l शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव ही नई पीढ़ी को दिशा दिखा सकते हैं। समाज में बढ़ते अंधविश्वास और पाखंड से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित शिक्षा ही मुक्ति दिला सकती है।
वर्ण व्यवस्था और वर्गीय संघर्ष पर कुछ चर्चा
भारतीय परिवेश में यह बार बार कहा जाता है और विश्वास भी किया जाता है, जिसके कई वामपंथी दल भी शिकार हैं, कि भारत में पहले वर्ण व्यव���्था के खिलाफ ही आंदोलन या क्रांति होगा तभी वर्ग संघर्ष की बात हो सकती है और समाजवादी क्रांति सफल होगा| कुछ तो यहाँ तक कहते पाए गए हैं कि जिस देश में स्त्रियों के खिलाफ पुरुष मानसकिता नहीं बदलती है वहां समाजवादी क्रांति की बात करना ही बेमानी है| ऐसी बातें क्या अल्पसंख्यकों और राष्ट्रिय पीड़ित जनता के बारे में भी नहीं की जा सकती हैं? अमेरिका के कई वामपंथी और साम्यवादी दल मानते हैं कि जबतक रंग भेद कायम रहेगा (यानि काले लोगों के खिलाफ भेद भाव), तबतक किसी मजदूर वर्ग की एकता और संघर्ष की बाद हवाई होगी|
अम्बेदकरवादी और कई अन्य संगठन जो जातीय उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष में शामिल हैं, वे वर्गीय संघर्ष को गैर भारतीय काल्पनिक और आदर्शवादी विचारधारा कहकर टालल देते हैं| अधिक से अधिक एक क्रमवत विकास का रास्ता चुनते हैं जो क्रांति विरोधी है| उनमें से अधिकांश “चुनाव से चुनाव” तक की राजनीति में व्यस्त हैं और जातीय समीकरण में लिप्त हैं और वह हर काम करने लगते हैं जो अन्य बुर्जुआ दल करते हैं| बसपा एक उदहारण है| वैसे सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल- लिबरेशन), आदि भी भिन्न नहीं हैं|
भारतीय स्वतंत्रता के बाद, पूंजीवादी उत्पादन और उसपर आधारित पूंजीवादी “प्रजातंत्र” का बढ़ना शुरू हुया, जिसकी झलक 1980 तक दिखने लगा था और 90 में आकर पूरी सफलता के साथ तो नव उदारवादी रास्ता भी अख्तियार कर चूका था| साथ साथ परिवर्तन भी दिखने लगा उत्पादन रिश्तों और उत्पादन साधन के विकास पर आधारित समाज के अन्य आयामों पर, जैसे जातीय सम्बन्ध, धार्मिक बंधन, संस्क्तितिक आधार, पुराने प्रचलन, आदि| यह बुर्जुआ वर्ग और उसके राज्य, राजनितिक, धार्मिक, सामाजिक संगठनों को मान्य नहीं था| पूरी कोशिश कर पुराने सड़े गले मान्यताओं और प्रचलनों को मीडिया, शैक्षणिक संस्थानों, सरकारी और गैर सरकारी विभागों और संस्थानों द्वारा पुराने विचारों को गौरान्वित किया गया और चमक धमक द्वारा पुनः प्रस्तुत किया गया| धार्मिक उन्माद, घृणा, जातीय द्वेष, स्त्री प्रतारण और राष्ट्रिय उन्माद ने एक प्रगतिशीलता पर ताला लगा दिया| बुर्जुआ विपक्ष ने इसे ब्रहंवाद या मनुवाद कह कर इसका इस्तेमाल चुनावी समीकरण के लिए किया|
हालाँकि पुराने सामंती संपत्ति सम्बन्ध तक़रीबन ख़त्म हो चुके थे, जिसका स्थान पूंजीवादी सम्पति सम्बन्ध ले चूका था, पर सामंती सोच, तौर तरीके, संस्कृति आदि बरक़रार रह गए, एक नये परिधान में| यही नहीं, बल्कि एक और खरतनाक, हिंसक और वीभत्स रूप में|
भारत प्रजातान्त्रिक क्रांति से दूर रहा और अब जबकि फासीवाद भारतीय समाज को जकड चूका है, इसकी संभावना बिलकुल नहीं है| यदि “फासीवाद” कहने से परहेज है, तो नव फासीवाद, हिन्दू उग्रवाद, संघवाद या जो भी नामकरण करना है, करें पर यह स्पष्ट दिख रहा है कि, भारत की कोई भी राजनितिक पार्टी, चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, सत्ताधारी दल के साथ गठबंधन में हो या विपक्ष के साथ, या तीसरी और चौथी गठबंधन या महागठबंधन में हो, जातीय या धार्मिक भेदभाव से परे एक नए समाज के लिए संघर्ष करने में असमर्थ हैं| भारतीय पूंजीवादी “प्रजातंत्र”, जो शुरू से ही मिहनसकाश जनता के किखाफ था, आब पुरे नग्न रूप में तानाशाही पर उतर चूका है| लक्ष्य एक ही है पूंजी का संकेन्द्रण कुछ चंद पूंजीपतियों के हाथ में|
किसी भी तरह के पहचान की राजनीति एक नए प्रजातान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी समाज का विरोधी है| हाँ, अगर कोई क्रन्तिकारी दल, खास भेदभाव या पक्षपात, जिसके कारण खास समूह को, जिसे दमन और प्रतारण झेलना पड़ता है, को संगठित करता है, तो वह क्रांतिकारी काम का ही एक हिस्सा है| उदहारण के लिए जन जातियों और स्त्रियों का समूह| क्षात्रों और युवकों को क्रन्तिकारी सिद्धांतों पर उनका समुह बनाना पहचान की राजनीति से वैसे ही अलग है जैसे की मजदूरों और किसानों का|
आज की भारत की परिस्थिति में, जो पूंजीवादी व्यवस्था है (एकाधिकार पूंजीवाद), मजदूर वर्ग की एकता और क्रांतिकारी संघर्ष ही एकमात्र विकल्प और रास्ता है समाजवाद स्थापित करने के लिए| और जाति व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था), धर्म, क्षेत्रितीयता या देश वाद, लिंग या भाषाई भेद भाव, व्यक्तिवाद, बुर्जुआ राज्य सत्ता, आदि जरूर बाधक हैं वर्गीय लगाव और वर्गीय एकता के लिए पर कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है एक सफल वर्गीय संघर्ष के लिए| बल्कि इसके विपरीत, सफल क्रांति के बाद ही हम इन सामाजिक, राजनितिक बंधनों और व्यवहारों को ख़त्म कर सकते हैं| उलटी दिशा पर सटीक कहावत को याद करें, “ना नव मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी”! और हमें, यानि मजदूर वर्ग और उसके क्रन्तिकारी दलों को यह काम करना ही होगा क्यूंकि वैज्ञानिक विचारधारा और भौतिक स्तिथि हमारे साथ है|
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख
एम के आज़ाद
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा की प्रबल समर्थक थी। यह वह दौर था जब सामान्यतः ब्राह्मण एवं मौलवी अध्यापन का कार्य करते थे और उनका लगभग एकाधिकार था। हिन्दू और मुस्लिम शिक्षा व्यवस्थाओं में काफी मेल था और ये जनसाधारण के लिए अनुपलब्ध थी। दोनों को अपनी धर्मोन्मुख प्रकृति से बल मिलता था और अपरिवर्तनीय प्रभुत्व पर आधारित होने के कारण ये शिक्षा पद्धतियां स्वतंत्र अन्वेषण की भावना के प्रतिकूल थी।
ऐसे विकट माहौल में सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख ने आम एवम सदियों से उपेक्षित गरीब दलित समुदाय एवम लड़कियों के लिये आधुनिक शिक्षा देने का क्रांतिकारी कार्य का सूत्रपात किया।
उनके स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम में वेद और शास्त्र जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों या मुल्ला-मौलवियों द्वारा पढाये जा रहे धर्मिक ग्रन्थ के बजाय गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन शामिल थे।
सावित्रीबाई और फातिमा शेख ने टीचर्स ट्रेनिंग की और 1848 से ही जोतिराव फुले द्वारा खोले गए स्कूल में दोनों ने पढ़ाना शुरू किया। सावित्रीबाई, फातिमा शेख और सगुना बाई की मदद से जोतिराव फुले ने 1848 से 1852 के बीच 18 स्कूल खोले।
इस आधुनिक शिक्षा के द्वारा फुले दम्पति एवम फातिमा शेख हिंदुस्तान के इतिहास में पहली बार वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय ज्ञान के क्षेत्र में गरीब एवम दलित समुदाय के लोगो, खास कर लड़कियों को आधुनिक पाश्चात्य उपलब्धियों के सम्पर्क में ले आने का कार्य कर रहे थे। इस क्रांतिकारी कार्य का रूढ़िग्रस्त हिन्दू-मुस्लिम समाज द्वारा विरोध लाजिमी था।
फातिमा शेख और सावित्रीबाई को भारी विरोध झेलना पड़ा। लेकिन इन दोनों ने हिम्मत नहीं हारी और घर घर जाकर लड़कियों को बुलाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
इन्होंने छुआछूत का विरोध करते हुए सभी जाति की लड़कियों को एक साथ पढ़ाने और लड़कियों को आधुनिक शिक्षा- विज्ञान और गणित पढ़ाने का काम किया था।
सावित्रीबाई सिर्फ एक शिक्षिका ही नहीं समाज सुधारिका और कवियित्री भी थीं। उन्होंने छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। विधवा महिलाओं के लिए आश्रम खोला और कई सवर्ण विधवा, गर्भवती महिलाओं को आत्महत्या करने से बचाया। बिना दहेज और बिना पुरोहित अंतरजातीय विवाह करवाए। शुद्र, अतिशुद्र और महिलाओं की गुलामी के खिलाफ समाज में अभियान चलाया। अस्पताल खोला जहां प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए 1897 में सावित्रीबाई का निधन हुआ।
1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद भी बुर्जुवा सरकारों ने आधुनिक शि��्षा का विस्तार गरीब समुदाय के दलित लोगों तक कर पाने में विफल रही है। आज मोदी सरकार के कार्यकाल में शिक्षा को इतना महंगा बनाया जा रहा है कि आम लोगों के लिए इसे हासिल करने के लिये सोच पाना भी असंभव होता जा रहा है। अगर आधुनिक शिक्षा को जनसाधारण तक पहुंचाना है, इसे और व्यापक करना है, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के सपनों को साकार क���ना है तो हमें मजदूर वर्ग के नेत��त्व में समाजवादी राज्य स्थापना करनी होगी। केवल समाजवादी राज्य ही शिक्षा को आम मेहनतकश जनता तक पहुंचा सकता है, इसे सर्वव्यापी सुलभ करा सकता है। सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के सपनों को हम इसी तरह साकार कर सकते हैं।
क्या आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले नहीं थी?
कट्टर हिंदूवादी खेमा झूठी दावा करते है कि आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले नहीं बल्कि बंगाली कुलीन ब्राह्मण होती विद्यालंकार है.
होती विद्यालंकर का जन्म वर्ष 1740 में हुआ था और सन 1810 में इनका निधन हुआ था। उनकी संस्कृत व्याकरण, कविता, आयुर्वेद, गणित, स्मृति, नव्य-न्याय, आदि पर अद्वितीय पकड़ थी ।
दरअसल ये गुरुकुल चलती थी जिसमे छात्र – छात्रएं अध्यन हेतु आती थीं। किंतु इनके गुरुकुल में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा नही दी जाती थी।
जबकि ज्योतिबा के सहयोग से सावित्रीबाई ने पाश्चात्य शिक्षा हासिल की और मात्र 17 साल की उम्र में ही ज्योतिबा द्वारा खोले गए लड़कियों के स्कूल की शिक्षिका और प्रिंसिपल बनीं। उनके स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा मदरसे और गुरुकुलों में दी जाने वाली शिक्षा से अलग आधुनिक शिक्षा दी जाती थी।
उनके स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम में वेद और शास्त्र जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों या मुल्ला-मौलवियों द्वारा पढाये जा रहे धर्मिक ग्रन्थ के बजाय गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन शामिल थे।
यह बैंटिक के 7 मार्च 1835 ई. के प्रस्ताव में की गई घोषणा के अनुरूप था "अंगरेजी सरकार का महान उद्देश्य भारत के निवासियों में यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान को प्रोत्साहन देना होना चाहिए। इसलिए शिक्षा के लिए उपलब्ध समस्त धन राशि का उत्तम उपयोग अंगरेजी शिक्षा मात्र पर खर्च करना होगा।"
पढ़-लिखकर स्कूल खोलना सुनने में आसान लगता है लेकिन उस दौरान ये आसान नहीं था। दलित लड़कियों को समान स्तर की शिक्षा दिलाने के खिलाफ समाज के लोगों ने सावित्री बाई का काफी अपमान किया। यहां तक कि वे स्कूल जातीं, तो रास्ते में विरोधी उनपर कीचड़ या गोबर फेंक दिया करते थे ताकि कपड़े गंदे होने पर वे स्कूल न पहुंच सकें। इसलिये वे अपने साथ थैले में अतिरिक्त कपड़े लेकर चलने लगीं।
सावित्रीबाई के लेखन से साफ है कि वे अंग्रेजी शिक्षा को महिलाओं और शूद्रों की मुक्ति के लिए जरूरी मानती थीं. अपनी कविता ‘अंग्रेजी मैय्या’ में वे लिखती हैं:
अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी वाणई शूद्रों को उत्कर्ष करने वाली पूरे स्नेह से.
अंग्रेजी मैया, अब नहीं है मुगलाई और नहीं बची है अब पेशवाई, मूर्खशाही.
अंग्रेजी मैया, देती सच्चा ज्ञान शूद्रों को देती है जीवन वह तो प्रेम से.
अंग्रेजी मैया, शूद्रों को पिलाती है दूध पालती पोसती है माँ की ममता से.
अंग्रेजी मैया, तूने तोड़ डाली जंजीर पशुता की और दी है मानवता की भेंट सारे शूद्र लोक को.
प्राक् ब्रिटिश भारत में शिक्षा का क्षेत्र बहुत ही संकुचित था और ब्राह्मणों और मौलवियों का एकाधिकार था। हिन्दू और मुस्लिम शिक्षा व्यवस्थाओं में काफी मेल था। ये जनसाधारण के लिए अनुपलब्ध थी। दोनों को अपनी धर्मोन्मुख प्रकृति से बल मिलता था और अपरिवर्तनीय प्रभुत्व पर आधारित होने के कारण ये शिक्षा पद्धतियां स्वतंत्र अन्वेषण की भावना के प्रतिकूल थी।
हालांकि अंगरेजी प्रभुत्व की स्थापना से पूर्व भी ईसाई मिशनरियां भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य कर रही थीं।
भारत मे अंगरेजी प्रभुसत्ता स्थापित होते जाने के साथ ही देशी राज्यों की शक्ति क्षीण होती जा रही थी। उनके द्वारा दी जाने वाली परम्परागत शिक्षण संस्थाओं की सहायता समाप्त होती गई। किन्तु स्थानीय नरेशों ने अंगरेज सरकार को प्रसन्न रखने के लिए नवीन संस्थाओं को अधिक प्रोत्साहन दिया।
भारत में ब्रिटेन के पूँजीवाद की राजनीतिक और आर्थिक आवश्यकताओं ने भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ कर ब्रिटेन ने वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय ज्ञान के क्षेत्र में भारत को आधुनिक पाश्चात्य उपलब्धियों के सम्पर्क में ले आए।
लार्ड हार्डिंग्ज के समय (1844 ई.) में निर्णय लिया गया कि अंगरेजी माध्यम से नवीन शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को ही सरकारी नौकरी प्रदान की जायेगी।
सावित्रीबाई और फातिमा शेख ने टीचर्स ट्रेनिंग की और 1848 में जोतिराव फुले द्वारा खोले गए स्कूल में दोनों ने पढ़ाना शुरू किया। सावित्रीबाई, फातिमा शेख और सगुना बाई की मदद से जोतिराव फुले ने 1848 से 1852 के बीच 18 स्कूल खोले। यह वह दौर था जब मदरसे और गुरुकुल में दी जाने वाली सदियों पुरानी धार्मिक आवरण में लिपटी शिक्षा की जगह आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा महत्वपूर्ण स्थान बनाते जा रही थी। फिर भी यह जनसाधारण और लड़कियों के लिये उपलब्ध नही था।
फातिमा शेख और सावित्रीबाई को भारी विरोध झेलना पड़ा था लेकिन इन दोनों ने हिम्मत नहीं हारी और घर घर जाकर लड़कियों को बुलाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने छुआछूत का विरोध करते हुए सभी जाति की लड़कियों को एक साथ पढ़ाने और लड़कियों को आधुनिक शिक्षा- विज्ञान और गणित पढ़ाने पर जोर दिया था। सावित्रीबाई सिर्फ एक शिक्षिका ही नहीं समाज सुधारिका और कवियित्री भी थीं। उन्होंने छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। विधवा महिलाओं के लिए आश्रम खोला और कई सवर्ण विधवा, गर्भवती महिलाओं को आत्महत्या करने से बचाया। बिना दहेज और बिना पुरोहित अंतरजातीय विवाह करवाए। शुद्र, अतिशुद्र (पिछड़ी, अति पिछड़ी, अनुसूचित जाति) और महिलाओं की गुलामी के खिलाफ समाज में अभियान चलाया। अस्पताल खोला जहां प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए 1897 में सावित्रीबाई का निधन हुआ।
ट्रोट्स्की पंथी WStv का फूले दम्पति के खिलाफ कुत्सा प्रचार
कट्टर हिंदूवादी खेमा की तरह ट्रोट्स्की पंथी भी फुले दम्पति को लेकर भ्रामक, कुत्सा प्रचार फैलाने में पीछे नही है। WStv ने अपने पोस्ट में फुले दम्पत्ति को ब्रिटिश उपनिवेशवाद का सहयोगी बताने का हास्यास्पद काम किया है।
उस दौर में एक तरफ दलितों को गुलामो से भी बदत्तर जिंदगी देने वाले, उन्हें जलील करने वाली सदियों से चली आ रही जाति प्रथा का पोषण करने वाले पेशवा थे तो दूसरी तरफ अंग्रेज और अंग्रेजी शिक्षा थी। फुले दम्पत्ति अगर पेशवा होते तो बात और थी, लेकिन उनके लिए तो अंग्रेज और अंग्रेजी साहित्य एक वरदान था। उस परिस्थिति में फुले दम्पत्ति ने अपने दलित-मिहनतकस जनता के हितों को पहचाना। उनका हित पेशवा का साथ देने में नही था, दलित मिहनतकस जनता के हित के लिये अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा का उन्होंने स्वागत किया और छुवा-छूत, जातीय दमन के खिलाफ एक हथियार बनाया। WStv इसे ही 'ब्रिटिश उपनिवेशवाद से सहयोग' कहता है। देखे:
"ब्रिटिश उपनिवेशवाद से सहयोग कर रहे फुले दम्पति को दलित-मुक्ति के आन्दोलन का नायक बनाने के प्रयास हास्यास्पद हैं."
इतना ही नही लार्ड हार्डिंग्ज के समय (1844 ई.) में निर्णय लिया गया था कि अंगरेजी माध्यम से नवीन शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को ही सरकारी नौकरी प्रदान की जायेगी।
' उन्नीसवीं सदी के मध्य में, खास कर लार्ड डलहौजी के शासन काल में भारत में आधुनिक शिक्षा बड़े पैमाने पर आरम्भ हुई। तब तक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा विजित हो चुका था। ब्रिटिश सरकार ने विजित भू-भाग के लिए व्यापक प्रशासन तंत्र की स्थापना की। इस वृहद राजनीतिक प्रशासकीय यंत्र के संचालन के लिए शिक्षित व्यक्तियों की बड़ी संख्या में जरूरत थी। नए प्रशासन के लिए सुयोग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए भारत में स्कूल और कॉलेज खोलने आवश्यक हो गये। महत्वपूर्ण ओहदों पर अंगरेजों की और अधीनस्थ पदों पर शिक्षित भारतीयों की बहाली हुई।'
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख भी इन्ही शिक्षण संस्थानों से प्रशिक्षित हुई थी। WStv का पोस्ट आगे कहता है:
"फुले दम्पति, लार्ड मैकॉले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा नीति के उपक्रम का छोटा सा पुर्जा भर था जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी से अनुदान और वेतन, भत्ते मिलते थे."
ईस्ट इंडिया कंपनी से अनुदान और वेतन, भत्ते मिलने के कोई प्रमाण WStv के लोग पेश नही कर पाते है। और अगर वेतन भत्ते मिलते भी थे तो इसका मतलब है कि वो नॉकरी करते थे, क्या वेतन-भोगी होना शर्म की बात है। इसके अलावे, ये भूल जाते है कि सावित्रीबाई फुले को गरीब दलितों और लड़कियों को अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा देने में किन कठिनाइयों और उस समय के प्रतिक्रियावादी तत्वों के अपमान का सामना करना पड़ा था।
वे आगे लिखते है:
"इस शिक्षा नीति के तहत ही फुले दम्पति ने १९४८ से १९५८ के बीच एक दशक कई स्कूल खोले थे. मगर १८५७ के ग़दर के बाद, ब्रिटिश सरकार ने सीधे बागडोर संभाल ली थी और इस उपक्रम को बंद कर दिया था."
ये दावा करते है कि १९४८ से १९५८ के बीच एक दशक में खोले गए सारे स्कूल बन्द कर दिए गए थे। बिना कोई प्रमाण पेश किये दलित मिहनतकसो के लिए आजीवन लड़नेवाले फुले दम्पति के बारे में ऐसी बाते करना बकवास के सिवा कुछ नही है।
झूठ के सारे हद को पार करते हुए वे अंत मे घोषणा करते है:
"फुले दम्पति के सारे समाज सुधार अभियान का भी इसके साथ ही सूर्यास्त हो जाता है."
WSTV के उपर्युक्त कथन में कोई सच्चाई नही है। दरअसल, पुरोहित वर्ग के आडंबरों और प्रपंचों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने ‘तृतीय रतन’ (1855) नाटक लिखा। फिर निचली जातियों में आत्मसम्मान का भाव पैदा करने के लिए ‘पोवाड़ा : छत्रपति शिवाजी भौंसले का’ (1869) की रचना की। वर्ष 1869 में ही ‘ब्राह्मणों की चालाकी’ तथा ‘पोवाड़ा : शिक्षा विभाग के अध्यापक का’ का प्रकाशन हुआ। ‘गुलामगिरी’ 1873 में उन्होंने ‘गुलामगिरी’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की। इतना ही नही, अपने विचारों और कार्य को सशक्त आंदोलन का रूप देने के लिए, 1873 में ही उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की थी।
फुले मिथकीय आख्यानों में निहित आर्य-अनार्य संघर्ष का मानवीकरण करते हैं। चमत्कारों और मिथकों पर टिकी प्राचीन भारतीय संस्कृति जो जातिवाद के रूप में सामाजिक भेद-भाव की पोषक थी, का मजाक उड़ाते है, उसकी वे तीब्र आलोचना करते है। उनकी आलोचना भले वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुरूप न हो, मगर अपने सरोकारों के आधार पर वह कहीं ज्यादा मानवीय और तर्कपूर्ण है।
सन् 1882-1883 में उन्होंने 'किसान का कोड़ा' नामक पुस्तक की रचना कीI यह किताब 18 जुलाई 1883 को लिखकर पूरी हुई, परन्तु उनके जीवित रहते उनकी यह पुस्तक प्रकाशित न हो सकीI पुस्तक के भाग जैसे–जैसे लिखकर पूर्ण होते जाते वैसे-वैसे ज्योतिराव पूर्ण हो चुके अध्यायों का जाहीन वाचन करतेI मुंबई, पूना, ठाणे, जुन्नर, ओतूर, हडपसर, बंगड़ी तथा माल के कुरुल नामक गांव में भी उन्होंने इस किताब का वाचन किया थाI
जोतीराव फुले ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है : “यह ग्रंथ मैने अंग्रेज़ी, संस्कृत तथा प्राकृत के कई ग्रंथो और वर्तमान अज्ञानी शुद्रातिशुद्रों की दयनीय स्थिति के आधार पर लिखा हैI शुद्र किसानों की दुर्दशा के अनेक धार्मिक व राजनैतिक कारणों में से चंद कारणों की विवेचना करने के उद्देश्य से यह रचना लिखी गई हैI शूद्र किसान बनावटी व अत्याचारी हिन्दू धर्म, सरकारी विभागों में ब्राह्मणों की भरमार एवं भोगी-विलासी यूरोपियन सरकारी कर्मचारियों के कारण ब्राह्मण कर्मचारियों द्वारा सताएं जाते रहेंI उनकी हालत आज भी कमोबेश यही हैंI इस पुस्तक को पढ़कर वे अपना बचाव कर सकें, इसी उद्देश्य से इस पुस्तक का नाम ‘किसान का कोड़ा’ रखा गया हैI”
इस पुस्तक के अंत में जोतीराव ने स्काटिश मिशन और सरकारी संस्थाओं का कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख किया है जिन्होंने उन्हें मनुष्य के अधिकारों के बारे में ज्ञान दिलाया I
इसमें संदेह नही कि फुले दम्पत्ति के अंदर आजादी की भावना भरने में पश्चिमी शिक्षा की प्रमुख भूमिका रही। सावित्री बाई फुले अपनी एक कविता में कहती हैं कि जिस व्यक्ति को गुलामी का दुःख न हो और आजादी की चाहत न हो, उस व्यक्ति को इंसान नहीं कहा जा सकता है-
"जिसे न हो गुलामी का दुःख
न हो अपनी आज़ादी छिनने का मलाल
न आवे कभी समझ इंसानियत का जज्बा
उसे भला कैसे कहें इंसान हम?"
औपनिवेशिक काल की परिस्थितियों में फुले दम्पत्ति द्वारा दलितों एवम लड़कियों के लिये आधुनिक शिक्षा सुलभ कराने के लिये एवं सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ किये गए संघर्ष, भले ही सुधारवादी प्रकृति के ही क्यो न हो, वे अत्यंत प्रगतिशील थे। एक तरफ सदियों पुरानी जातिवादी व्यवस्था की पोषक भारतीय संस्कृति और धार्मिक आवरण में लिपटा गुरुकुल और मदरसे में दी जाने वाली शिक्षा, जो अत्यंत संकुचित दायरे तक सीमित थी, तो दूसरी तरफ अंग्रेजी एवम आधुनिक शिक्षा एवम शिक्षण संस्थाने खुल रही थी जो बिना जातीय भेद के सब को लेने का अवसर प्रदान करती थी। ज्योतिराव फुले ने दूसरे को चुना। लेकिन ब्रिटिश काल मे भी और स्वतंत्र भारत मे भी आधुनिक शिक्षा का विस्तार व्यापक जनता तक नही हो पाया है। आज यह पहले से भी ज्यादा स्पष्ट है कि दलित-मेहनतकश जनता की मुक्ति आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा के व्यापक विस्तार में, उद्द्योगो के तेजी से विस्तार में है ताकि सभी को सम्मानपूर्वक रोजगार और वैज्ञानिक शिक्षा मिल सके। लेकिन यह मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था के रहते हुए मुमकिन नही है। इसके लिये मिहनतकस जनता को राज्यसत्ता अपने हाथ मे ले कर समाजवाद की स्थापना करनी होगी। यह सुधार के रास्ते नही क्रांति के रास्ते ही सम्भव हो सकेगा। आज यह भी स्पष्ट है कि ज्योतिराव फुले के संघर्षों के अति महिमामंडन के बहाने दलित-मेहनतकश जनता को क्रांतिकारी संघर्ष से विरत कर सामाजिक-सुधार के रास्ते ले आने के प्रयासों के पीछे मौजूदा पूंजीवादी शासकों का वर्ग-हित छिपा है।
नया साल साथी
(नरभिंदर सिंह)
नया साल जन संघर्षों का साल होगा।
नया साल फैसलाकुन लड़ाई लड़ने के फैसले का साल होगा।
नया साल अपने दायरों से उपर उठ कर विशाल एकता जुटाने का साल होगा।
नया साल दुश्मन को सीधा रेखांतित करने का साल होगा। हम जानते हैं इस साल दुश्मन लोक पक्षी ताकतों पे और बड़े हमले लेकर आएगा।
वो और खतरनाक कानून बनाएगा पुलिस को और अधिकार देगा जबर के दांत और तेज करेगा।
इस साल में अगर दुश्मन के हमले बड़ेंगे तो विरोध भी व्यापक होगा।
वो कहेंगे गुलाम बन जाओ खामोश हो जाओ जुबान बंद रखो
आंखें मूंद लो कानों में सिक्का डाल लो।
लड़ने वाली ताकतों के लिए फैसले की घड़ी होगी।
हर तरफ जंग के मैदान में छाती तन के खड़ी होगी।
विचारों की जंग सड़कों पे निकल आएगी
हाथ लहराते हुए हर तरफ आवाज़ गुंजाएगी
चेहरों पे गुस्सा और तने मुक्कों का सैलाब होगा
फिजा में चारों तरफ गूंजता नारा इंकलाब होगा
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