( #MuktiBodh_Part119 के आगे पढिए.....)
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#MuktiBodh_Part120
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 234-235
◆ वाणी नं. 150-184 :-
गरीब, दुर्बासा काली शिला, बज्र बली तिहूं लोक।
अम्बरीष दरबार में, तिन्ह भी खाया धोख।।150।।
गरीब, चक्र सुदर्शन शीश परि, अम्बरीष कूं घालि।
तीन लोक भागे फिरे, ऐसी अबिगत चाल।।151।।
गरीब, कल्प किसी नहीं कीजिये, जो चाहे सो होय।
दुर्बासा के छिपन कूं, कहीं न पाई खोहि।।152।।
गरीब, स्वर्ग मृत पाताल में, चक्र सुदर्शन डीक।
दुर्बासा के चक्र सैं, जरे नहीं अम्बरीष।।153।।
गरीब, चक्र अपूठा फिर गया, चरण कंवल कूं छूहि।
भक्ति बिश्वंभर नाथ की, देखि दूह बर दूह।।154।।
गरीब, कोटि बज्र कूं फूक दे, चक्र सुदर्शन चूर।
भक्ति बछल भगवान सैं, रहै पैंड दस दूर।।155।।
गरीब, दुर्बासा के दहन कूं, रती न जग में भेट।
छप्पन कोटि जादौं गये, देखि हेठ दर हेठ।।156।।
गरीब, साग पत्र सें छिक गये, देखि भक्ति की रीति।
जरै मरै नहीं तास तैं, सतगुरु शब्द अतीत।।157।।
गरीब, अम्बरीष असलां असल, भक्ति मुक्ति का रूप।
निश बासर पद में रहै, जहां छाया नहीं धूप।।158।।
गरीब, राजा कै जोगी गये, दुर्बासा ऋषि देव।
चक्र चलाया घूरि करि, नहीं लई ऋषि सेव।।159।।
गरीब, दुर्बासा के शीश कूं, चाल्या चक्र अचान।
त्रिलोकी में तास गमि, कहीं न देऊं जान।।160।।
गरीब, सेत लोक बिष्णु पुरी, दुर्बासा चलि जाय।
तहां बिश्बंभर नाथ को, कीन्हीं देखि सहाय।।161।।
गरीब, कृष्ण गुरू कसनी हुई, और बचैगा कौन।
तीन लोक भागे फिरे, भरमें चौदह भौन।।162।।
गरीब, भक्ति द्रोह न कीजिये, भक्ति द्रोह मम दोष।
शिब ब्रह्मा नारद मुनी, जिन्है जरावैं ठोक।।163।।
गरीब, भक्ति द्रोह रावण किया, हिरनाकुश हिरनाछ।
नारायण नरसिंह भये, मम भगता है साच।।164।।
गरीब, मम भगता मम रूप है, मम भगता मम प्राण।
पंड सताये कौरवां, दुर्योधन छ्यो मान।।165।।
गरीब, मम भगता मम प्राण है, मम भगता मम देह।
हिरनाकुश के उदर कूं, पारत नहीं संदेह।।166।।
गरीब, ��म भगता मम प्रिय है, नहीं दुनी सें काम।
राजा परजा रीति सब, यह नहीं जानैं राम।।167।।
गरीब, मम भगता कै कारनै, रचे सकल भंडार।
बाल्मीक ब्रह्म लोक में, संख कला उदगार।।168।।
गरीब, रावण बाली बिहंडिया, मम द्रोही मम जार।
सीता सती कलंक क्या, पदम अठारा भार।।169।।
गरीब, मम द्रोही सें ना बचूं, छलि बल हनूं प्राण।
बावन हो बलि कै गये, रह्या दोहूं का मान।।170।।
गरीब, मम द्रोही मम साल है, मेरे जन का दूत।
कोटि जुगन काटौं तिसैं, करूं जंगल का भूत।।171।।
गरीब, खान पान पावै नहीं, जल तिरषा बोह अंत।
बस्ती में बिचरैं नहीं, शूल फील गज दंत।।172।।
गरीब, मम द्रोही मम साल है, मारौं रज रज बीन।
भवन सकल अरु लोक सब, करौं प्राण तिस क्षीण।।173।।
गरीब, अर्ध मुखी गर्भ बास में, हरदम बारमबार।
जुनि पिशाची तास कूं, तब लग सष्टि संघार।।174।।
गरीब, गर्भ जुनि में त्रास द्यौं, जब लग धरणि अकाश।
मारौं तुस तुस बीन करि, नहीं मिटै गर्भबास।।175।।
गरीब, प्राण निकंदू तास कै, छ्यासी सष्टि सिंजोग।
संत संतावन कल्प युग, ता शिर दीर्घ रोग।। 176।।
गरीब, बिष्णु ब्रह्मा शिब सुनौं, और सनकादिक च्यारि।
अठासी सहंस जलेब में, याह मति मूढ गंवार।।177।।
गरीब, चक्र चले दुर्बासा परि, में बखशौं नहीं तोहि।
मम द्रोही तूं दूसरा, चरण कंवल ऋषि जोहि।।178।।
गरीब, दुर्बासा बोले तहां, सुनौ भक्ति के ईश।
स्वर्ग रिसातल लोक सब, तूं पूरण जगदीश।।179।।
गरीब, तुह्मरे दर छूटे नहीं, चक्र सुदर्शन चोट।
कहां खंदाओ ईश जी, बचौं कौन की ओट।।180।।
गरीब, अम्बरीष दरबार में, जाओ निर संदेह।
काल घटा पूठी पडै, मम द्रोही मुख खेह।।181।।
गरीब, दुर्बासा मतलोक कूं, तुम जाओ ततकाल।
ज्ञान ध्यान शास्त्रर्थ तजो, बाद बिद्या जंजाल।। 182।।
गरीब, जप तप करनी काल है, बिना भक्ति बंधान।
एक ही केवल नाम है, सो देवैंगे दान।।183।।
गरीब, मान बड़ाई कूकरी, डिंभ डफान करंत।
जिन कै उर में ना बसौं, जम छाती तोरंत।।184।।
◆ सारांश :- सत्ययुग में अंबरीष नाम के एक धार्मिक राजा हुए हैं। वही आत्मा त्रेतायुग में राजा जनक हुए जो सीता जी के पिता थे। वही राजा अंबरीष व राजा जनक वाली आत्मा कलयुग में श्री नानक देव (सिख धर्म प्रर्वतक) हुए। राजा अंबरीष के ईष्ट देव
श्री विष्णु जी थे। किसी गुरू जी से दीक्षा लेकर साधना करते थे। राजा अंबरीष भक्ति को प्राथमिकता देते थे। उसके लिए अन्न-जल का संयम रखते थे कि मन भक्ति में लगे। भक्त अंबरीष ने महीने के आहार का नियम बना रखा था। वे प्रतिदिन एक रोटी कम खाते थे। उस समय मानव शरीर लंबा-चौड़ा होता था। मानव की लंबाई सौ फुट के आसपास होती थी। इसके अनुसार मोटाई भी अधिक होती थी। भोजन की खुराक भी अधिक होती थी। गुरू जी ने एकादशी (ग्यारस) का व्रत रखना भी भक्ति कर्म बता रखा था। अंबरीस को वेद ज्ञान भी था। उनकी आत्मा मानती थी कि व्रत रखना वेद में नहीं लिखा है। गुरू को भी नाराज नहीं करना चाहा। इसलिए अपने आहार को इस प्रकार नियमित किया कि एकादशी को भोजन न करना पड़े। जैसे एक दिन में पेट भरने के लिए सामान्य तौर पर ग्यारह रोटी
भोजन करते थे तो उसको प्रतिदिन इस तरह कम करते थे कि एकादशी को बिल्कुल न खाना पड़े। जैसे कृष्ण पक्ष की अमावस्या को रोटी व अन्य सब्जी खाते थे तो प्रतिदिन एक रोटी व उसी अनुसार सब्जी भी कम कर देते थे।
◆ तो एकादशी को कुछ नहीं खाते थे। फिर इसी तरह प्रतिदिन एक-एक रोटी बढ़ाते थे। यह प्रति महीने का क्रम था।
क्रमशः___________
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