#कबीर_बड़ा_या_कृष्ण_Part98
‘‘शेष कथा‘‘
श्री कृष्ण भगवान ने अपनी शक्ति से युधिष्ठिर को उन सर्व महा मण्डलेश्वरों के आगे होने वाले जन्म दिखाए जिसमें किसी ने कैंचवे का, किसी ने भेड़-बकरी, भैंस व शेर आदि के रूप धारण किए थे। यह सब देख कर युधिष्ठिर ने कहा - हे भगवन! फिर तो पृथ्वी संत रहित हो गई है।। भगवान कृष्ण जी ने कहा जब पृथ्वी संत रहित हो जाएगी तो यहाँ आग लग जाएगी। सर्व जीव-जन्तु आपस में लड़ मरेंगे। यह तो पूरे संत की शक्ति से सन्तुलन बना रहता है। समय-समय पर मैं (भगवान विष्णु) पृथ्वी पर आ कर राक्षस वृत्ति के लोगों को समाप्त करता हूँ जिससे संत सुखी हो जाते है। जिस प्रकार जमींदार अपनी फसल से हानि पहुँचने वाले अन्य पौधों को जो झाड़-खरपतवार आदि को काट-काट कर बाहर डाल देता है तब वह फसल स्वतन्त्रता पूर्वक फलती-फूलती है। यानी ये संत उस फसल में सिचांई का सुख प्रदान करते हैं। पूर्ण संत सबको समान सुख देते हैं। जिस प्रकार वर्षा व सिंचाई का जल दोनों प्रकार के पौधों (फसल व खरपतवार) का पोषण करते हैं। उनमें सर्व जीव के प्रति दया भाव होता है। अब मैं आपको पूर्ण संत के दर्शन करवाता हूँ। एक महात्मा काशी में रहते हैं। उसको बुलवाना है। तब युधिष्ठिर ने कहा कि उस ओर संतों को आमन्त्रिात करने का कार्य भीमसेन को सौंपा था। पूछते हैं कि वह उन महात्मा तक पहुँचा या नहीं। भीमसेन को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि मैं उस से मिला था। उनका नाम स्वपच सुदर्शन है। बाल्मीकि जाति में गृहस्थी संत हैं। एक झौंपड़ी में रहता है। उन्होंने यज्ञ में आने से मना कर दिया। इस पर श्री कृष्ण जी ने कहा कि संत मना नहीं किया करते। सर्व वार्ता जो उनके साथ हुई है वह बताओ।
तब भीम सेन ने आगे बताया कि मैंने उनको आमन्त्रिात करते हुए कहा कि हे संत परवर ! हमारी यज्ञ में आने का कष्ट करना। उनको पूरा पता बताया। उसी समय वे (सुदर्शन संत जी) कहने लगे भीम सैन आप के पाप के अन्न को खाने से संतों को दोष लगेगा। करोड़ों सैनिकों की हत्या करके आपने तो घोर पाप कर रखा है। आज आप राज्य का आनन्द ले रहे हो। युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवा पत्नी व अनाथ बच्चे रह-रह कर अपने पति व पिता को याद करके फूट-फूट कर घंटों रोते हैं। बच्चे अपनी माँ से लिपट कर पूछ रहे हैं - माँ, पापा छुट्टी नहीं आए? कब आएंगे? हमारे लिए नए वस्त्र लाएंगे। दूसरी लड़की कहती है कि मेरे लिए नई साड़ी लाएंगे। बड़ी होने पर जब मेरी शादी होगी तब मैं उसे बाँधकर ससुराल जाऊँगी। वह लड़का (जो दस वर्ष की आयु का है) कहता है कि मैं अब की बार पापा (पिता जी) से कहूँगा कि आप नौकरी पर मत जाना। मेरी माँ तथा भाई-बहन आपके बिना बहुत दुःख पाते हैं। माँ तो सारा दिन-रात आपकी याद करके जब देखो एकांत स्थान पर रो रही होती है। या तो हम सबको अपने पास बुला लो या आप हमारे पास रहो। छोड़ दो नौकरी को। मैं जवान हो गया हूँ। आपकी जगह मैं फौज में जा कर देश सेवा करूँगा। आप अपने परिवार में रहो। आने दो पिता जी को, बिल्कुल नहीं जाने दूँगा। (उन बच्चों को दुःखी होने से बचाने के लिए उनकी माँ ने उन्हें यह नहीं बताया कि आपके पिता जी युद्ध में मर चुके हैं क्योंकि उस समय वे बच्चे अपने मामा के घर गए हुए थे। केवल छोटा बच्चा जो डेढ़ वर्ष की आयु का था वही घर पर था। अन्य बच्चों को जान बूझ कर नहीं बुलाया था।) इस प्रकार उन मासूम बच्चों की आपसी वार्ता से दुःखी होकर उनकी माता का हृदय पति की
याद के दुःख से भर आया। उसे हल्का करने के लिए (रोने के लिए) दूसरे कमरे में जा कर फूट-फूट कर रोने लगी। तब सारे बच्चे माँ के ऊपर गिरकर रोने लगे। सम्बन्धियों ने आकर शांत करवाया। कहा कि बच्चों को स्पष्ट बताओ कि आपके पिता जी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए। जब बच्चों को पता चला कि हमारे पापा (पिता जी) अब कभी नहीं आएंगे तब उस स्वार्थी राजा को कोसने लगे जिसने अपने भाई बटवारे के लिए दुनियाँ के लालों का खून पी लिया। यह कोई देश रक्षा की लड़ाई भी नहीं थी जिसमें हम संतोष कर लेते कि देश के हित में प्राण त्याग दिए हैं। इस खूनी राजा ने अपने ऐशो-आराम के लिए खून की नदी बहा दी। अब उस पर मौज कर रहा है। आगे संत सुदर्शन (सुपच) बता रहे हैं कि भीम ऐसे-2 करोड़ों प्राणी युद्ध की पीड़ा से पीड़ित हैं। उनकी हाय आपको चैन नहीं लेने देगी चाहे करोड़ यज्ञ करो। ऐसे दुष्ट अन्न को कौन खाए ? यदि मुझे बुलाना चाहते हो तो मुझे पहले किए हुए सौ (100) यज्ञों का फल देने का संकल्प करो अर्थात् एक सौ यज्ञों का फल मुझे दो तब मैं आपके भोजन पाऊँ। सुदर्शन जी के मुख से इस बात को सुन कर भीम ने बताया कि मैं बोला आप तो कमाल के व्यक्ति हो, सौ यज्ञों का फल मांग रहे हो। यह हमारी दूसरी यज्ञ है। आपको सौ का फल कैसे दें? इससे अच्छा तो आप मत आना। आपके बिना कौन सी यज्ञ सम्पूर्ण नहीं होगी। जब स्वयं भगवान कृष्ण जी हमारे साथ हैं। तो तेरे न आने से क्या यज्ञ पूर्ण नहीं होगा। सर्व वार्ता सुन कर श्री कृष्ण जी ने कहा भीम संतों के साथ ऐसा आपत्तिजनक व्यवहार नहीं करना चाहिए। सात समुद्रों का अंत पाया जा सकता है परंतु सतगुरु (कबीर साहेब) के संत का पार नहीं पा सकते। उस महात्मा सुदर्शन वाल्मिीकि के एक बाल के समान तीन लोक भी नहीं हैं। मेरे साथ चलो, उस परमपिता परमात्मा के प्यारे हंस को लाने के लिए। तब पाँचों पाण्डव व श्री कृष्ण भगवान स्वपच सुदर्शन की झोंपड़ी की ओर रथ में बैठकर चले। एक योजन अर्थात् 12 किलोमीटर पहले रथ से उतरकर नंगे पैरों चले तथा रथ को खाली लेकर रथवान पीछे-पीछे चला।
उस समय स्वयं कबीर साहेब सुदर्शन सुपच का रूप बना कर झोपड़ी में बैठ गए व सुदर्शन को अपनी गुप्त प्रेरणा से मन में संकल्प उठा कर कहीं दूर के संत या भक्त से मिलने भेज दिया जिसमें आने व जाने में कई रोज लगने थे। तब सुदर्शन के रूप में सतगुरु की चमक व शक्ति देख कर सर्व पाण्डव बहुत प्रभावित हुए। स्वयं श्रीकृष्णजी ने लम्बी दण्डवत् प्रणाम की। तब देखा देखी सर्व पाण्डवों ने भी ऐसा ही किया। कृष्ण जी की तरफ नजर करके सुपच सुदर्शन ने आदर पूर्वक कहा कि - हे त्रिभुवननाथ! आज इस दीन के द्वार पर कैसे? मेरा अहोभाग्य है कि आज दीनानाथ विश्वम्भरनाथ मुझ तुच्छ को दर्शन देने स्वयं चल कर आए हैं। सबको आदर पूर्वक बैठा दिया तथा आने का कारण पूछा। उस समय श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे जानी-जान! आप सर्व गति (स्थिति) से परिचित हैं। पाण्डवों ने ��ज्ञ की है। वह आपके बिना सम्पूर्ण नहीं हो रही है। कृपा इन्हें कृतार्थ करें। उसी समय वहां उपस्थित भीम की ओर संकेत करते हुए सुदर्शन रूप धारी परमेश्वर जी ने कहा कि यह वीर मेरे पास आया था तथा अपनी मजबूरी से इसे अवगत करवाया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने कहा कि - हे पूर्णब्रह्म! आपने स्वयं अपनी वाणी में कहा है कि -
‘‘संत मिलन को चालिए, तज माया अभिमान। जो-जो पग आगे धरै, सो-सो यज्ञ समान।।‘‘
आज पांचों पाण्डव राजा हैं तथा मैं स्वयं द्वारिकाधीश आपके दरबार में राजा होते हुए भी नंगे पैरों उपस्थित हूँ। अभिमान का नामों निशान भी नहीं है तथा स्वयं भीम ने भी खड़ा हो कर उस दिन कहे हुए अपशब्दों की चरणों में पड़ कर क्षमा याचना की। श्री कृष्ण जी ने कहा हे नाथ! आज यहाँ आपके दर्शनार्थ आए आपके छः सेवकों के कदमों के यज्ञ समान फल को स्वीकार करते हुए सौ आप रखो तथा शेष हम भिक्षुकों को दान दीजिए ताकि हमारा भी कल्याण हो। इतना आधीन भाव सर्व उपस्थित जनों में देख कर जगतगुरु साहेब करूणामय सुदर्शन रूप में अति प्रसन्न हुए।
कबीर, साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
जो कोई धन का भूखा, वो तो साधू नाहिं।।
उठ कर उनके साथ चल पड़े। जब सुदर्शन जी यज्ञशाला में पहुँचे तो चारों ओर एक से एक ऊँचे सुसज्जित आसनों पर विराजमान महा मण्डलेश्वर सुदर्शन जी के रूप व वेश (दोहरी धोती घुटनों से थोड़ी नीचे तक, छोटी-2 दाड़ी, सिर के बिखरे केश न बड़े न छोटे, टूटी-फूटी जूती। मैले से कपड़े, तेजोमय शरीर) को देखकर अपने मन में सोच रहे हैं कि ऐसे अपवित्र व्यक्ति से शंख सात जन्म भी नहीं बज सकता है। यह तो हमारे सामने ऐसे है जैसे सूर्य के सामने दीपक। श्रीकृष्ण जी ने स्वयं उस महात्मा का आसन अपने हाथों लगाया (बिछाया) क्योंकि श्री कृष्ण जी श्रेष्ठ आत्मा हैं। फिर द्रोपदी से कहा कि हे बहन! सुदर्शन महात्मा जी आए हैं, भोजन तैयार करो। बहुत पहुँचे हुए संत हैं। द्रोपदी देख रही है कि संत लक्षण तो एक भी नहीं दिखाई देते हैं। यह तो एक दरिद्र गृहस्थी व्यक्ति है। न तो वस्त्र भगवां, न गले में माला, न तिलक, न सिर पर बड़ी जटा, न मुण्ड ही मुण्डवा रखा और न ही कोई चिमटा, झोली, कमण्डल लिए हुए था। श्री कृष्ण जी के कहते ही स्वादिष्ट भोजन कई प्रकार का बनाकर एक सुन्दर थाल (चांदी का) में परोस कर सुदर्शन जी के सामने रख कर द्रोपदी ने मन में विचार किया कि आज तो यह भक्त भोजन को खाएगा तो ऊँगली चाटता रह जाएगा। जिन्दगी में ऐसा भोजन कभी नहीं खाया होगा।
सुदर्शन जी ने नाना प्रकार के भोजन को थाली में इक्ट्ठा किया तथा खिचड़ी सी बनाई। उस समय द्रौपदी ने देखा कि इसने तो सारा भोजन (खीर, खांड, हलुवा, सब्जी, दही, दही-बड़े आदि) घोल कर एक कर लिया। तब मन में दुर्भावना पूर्वक विचार किया कि इस मूर्ख हब्शी ने तो खाना खाने का भी ज्ञान नहीं। यह काहे का संत? कैसा शंख बजाएगा। (क्योंकि खाना बनाने वाली स्त्री की यह भावना होती है कि मैं ऐसा स्वादिष्ट भोजन बनाऊँ कि खाने वाला मेरे भोजन की प्रशंसा कई जगह करे)। प्रत्येक बहन की यही आशा होती है।
{वह बेचारी एक घंट�� तक धुएँ से आँखें खराब करे और मेरे जैसा कह दे कि नमक तो है ही नहीं, तब उसका मन बहुत दुःखी होता है। इसलिए संत जैसा मिल जाए उसे खा कर सराहना ही करते हैं। यदि कोई न खा सके तो नमक कह कर ‘संत‘ नहीं मांगता। संतों ने नमक का नाम राम-रस रखा हुआ है। कोई ज्यादा नमक खाने का अभ्यस्त हो तो कहेगा कि भईया- रामरस लाना। घर वालों को पता ही न चले कि क्या मांग रहा है? क्योंकि सतसंग में सेवा में अन्य सेवक ही होते हैं। न ही भोजन बनाने वालों को दुःख हो। एक समय एक नया भक्त किसी सतसंग में पहली बार गया। उसमें किसी ने कहा कि भक्त जी रामरस लाना। दूसरे ने भी कहा कि रामरस लाना तथा थोड़ा रामरस अपनी हथेली पर रखवा लिया। उस नए भक्त ने खाना खा लिया था। परंतु पंक्ति में बैठा अन्य भक्तों के भोजन पाने का इंतजार कर रहा था कि इकट्ठे ही उठेंगे। यह भी एक औपचारिकता सतसंग में होती है। उसने सोचा रामरस कोई खास मीठा खाद्य पदार्थ होगा। यह सोच कर कहा मुझे भी रामरस देना। तब सेवक ने थोड़ा सा रामरस (नमक) उसके हाथ पर रख दिया। तब वह नया भक्त बोला - ये के कान कै लाना है, चैखा सा (ज्यादा) रखदे। तब उस सेवक ने दो तीन चमच्च रख दिया। उस नए भक्त ने उस बारीक नमक को कोई खास मीठा खाद्य प्रसाद समझ कर फांका मारा। तब चुपचाप उठा तथा बाहर जा कर कुल्ला किया। फिर किसी भक्त से पूछा रामरस किसे कहते हैं? तब उस भक्त ने बताया कि नमक को रामरस कहते हैं। तब वह नया भक्त कहने लगा कि मैं भी सोच रहा था कि कहें तो रामरस परंतु है बहुत खारा। फिर विचार आया कि हो सकता है नए भक्तों पर परमात्मा प्रसन्न नहीं हुए हों। इसलिए खारा लगता हो। मैं एक बार फिर कोशिश करता, अच्छा हुआ जो मैंने आपसे स्पष्ट कर लिया। फिर उसे बताया गया कि नमक को रामरस किस लिए कहते हैं ?}
सुपच सुदर्शन जी ने थाली वाले मिले हुए उस सारे भोजन को पाँच ग्रास बना कर खा लिया। पाँच बार शंख ने आवाज की। उसके पश्चात् शंख ने आवाज नहीं की।
व्यंजन छतीसों परोसिया जहाँ द्रौपदी रानी। बिन आदर सतकार के, कही श्ंख न बानी।।
पंच गिरासी वाल्मिीकि, पंचै बर बोले। आगे शंख पंचायन, कपाट न खोले।।
बोले कृष्ण महाबली, त्रिभुवन के साजा। बाल्मिक प्रसाद से, कण कण क्यों न बाजा।।
द्रोपदी सेती कृष्ण देव, जब एैसे भाखा। बाल्मिक के चरणों की, तेरे न अभिलाषा।।
प्रेम पंचायन भूख है, अन्न जग का खाजा। ऊँच नीच द्रोपदी कहा, शंख कण कण यूँ नहीं बाजा।।
बाल्मिक के चरणों की, लई द्रोपदी धारा। शंख पंचायन बाजीया, कण-कण झनकारा।।
युधिष्ठर जी श्री कृष्ण जी के पास आए तथा कहा हे भगवन्! आप की कृपा से शंख ने आवाज की है हमारा कार्य पूर्ण हुआ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि इन महात्मा सुदर्शन के भोजन खा लेने से भी शंख अखण्ड क्यों नहीं बजा? फिर अपनी दिव्य दृष्टि से देखा ? तो पाया कि द्रोपदी के मन में दोष है जिस कारण से शंख ने अखण्ड आवाज नहीं की केवल पांच बार आवाज करके मौन हो गया है। श्री कृष्ण जी ने कहा युधिष्ठर यह शंख बहुत देर तक बजना चाहिए तब यज्ञ पूर्ण होगी। युधिष्ठर ने कहा भगवन्! अब कौन संत शेष है जिसे लाना होगा। श्री कृष्ण जी ने कहा युधिष्ठर इस सुदर्शन संत से बढ़कर कोई भी सत्यभक्ति युक्त संत नहीं है। इसके एक बाल समान तीनों लोक भी नहीं हैं। अपने घर में ही दोष है उसे शुद्ध करते हैं। श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी से कहा - द्रौपदी, भोजन सब प्राणी अपने-2 घर पर रूखा-सूखा खा कर ही सोते हैं। आपने बढ़िया भोजन बना कर अपने मन में अभिमान पैदा कर लिया। बिना आदर सत्कार के किया हुआ धार्मिक अनुष्ठान (यज्ञ, हवन, पाठ) सफल नहीं होता। आपने इस साधारण से व्यक्ति को क्या समझ रखा है? यह पूर्णब्रह्म हैं। इसके एक बाल के समान तीनों लोक भी नहीं हैं। आपने अपने मन में इस महापुरुष के बारे में गलत विचार किए हैं उनसे आपका अन्तःकरण मैला (मलिन) हो गया है। इनके भोजन ग्रहण कर लेने से तो यह शंख की स्वर्ग तक आवाज जाती तथा सारा ब्रह्मण्ड गूंज उठता। यह केवल पांच बार बोला है। इसलिए कि आपका भ्रम दूर हो जाए क्योंकि और किसी ऋषि के भोजन पाने से तो यह टस से मस भी नहीं हुआ। आप अपना मन साफ करके इन्हें पूर्ण परमात्मा समझकर इनके चरणों को धो कर पीओ, ताकी तेरे हृदय का मैल (पाप) साफ हो जाए।
उसी समय द्रौपदी ने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए संत से क्षमा याचना की और सुपच सुदर्शन के चरण अपने हाथों धो कर चरणामृत बनाया। रज भरे (धूलि युक्त) जल को पीने लगी। जब आधा पी लिया तब भगवान कृष्ण जी ने कहा द्रौपदी कुछ अमृत मुझ��� भी दे दो ताकि मेरा भी कल्याण हो। यह कह कर कृष्ण जी ने द्रौपदी से आधा बचा हुआ चरणामृत पीया। उसी समय वही पंचायन शंख इतने जोरदार आवाज से बजा कि स्वर्ग तक ध्वनि सुनि। तब पाण्डवों की वह यज्ञ सफल हुई।
प्रमाण के लिए अमृत वाणी
(पारख का अंग)
गरीब, सुपच शंक सब करत हैं, नीच जाति बिश चूक। पौहमी बिगसी स्वर्ग सब, खिले जो पर्वत रूंख।।
गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजना, सुपच चरण पी धोय। बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।
गरीब, द्रौपदी चरणामृत लिये, सुपच शंक नहीं कीन। बाज्या शंख अखंड धुनि, गण गंधर्व ल्यौलीन।।
गरीब, फिर पंडौं की यज्ञ में, शंख पचायन टेर। द्वादश कोटि पंडित जहां, पड़ी सभन की मेर।।
गरीब, करी कृष्ण भगवान कूं, चरणामृत स्यौं प्रीत। शंख पंचायन जब बज्या, लिया द्रोपदी सीत।।
गरीब, द्वादश कोटि पंडित जहां, और ब्रह्मा विष्णु महेश। चरण लिये जगदीश कूं, जिस कूं रटता शेष।।
गरीब, वाल्मिीकि के बाल समि, नाहीं तीनौं लोक। सुर नर मुनि जन कृष्ण सुधि, पंडौं पाई पोष।।
गरीब, वाल्मिीकि बैंकुठ परि, स्वर्ग लगाई लात। शंख पचायन घुरत हैं, गण गंर्धव ऋषि मात।।
गरीब, स्वर्ग लोक के देवता, किन्हैं न पूर्या नाद। सुपच सिंहासन बैठतैं, बाज्या अगम अगाध।।
गरीब, पंडित द्वादश कोटि थे, सहिदे से सुर बीन। संहस अठासी देव में, कोई न पद में लीन।
गरीब, बाज्या शंख स्वर्ग सुन्या, चैदह भवन उचार। तेतीसौं तत्त न लह्या, किन्हैं न पाया पार।।
।। अचला का अंग।।
गरीब, पांचैं पंडौं संग हैं, छठ्ठे कृष्ण मुरारि। चलिये हमरी यज्ञ में, समर्थ सिरजनहार।।97।।
गरीब, सहंस अठासी ऋषि जहां, देवा तेतीस कोटि। शंख न बाज्या तास तैं, रहे चरण में लोटि।।98।।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर। तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर।।99।।
गरीब, पंडित द्वादश कोटि हैं, और चैरासी सिद्ध। शंख न बाज्या तास तैं, पिये मान का मध।।100।।
गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, सतगुरु किया पियान। पांचैं पंडौं संग चलैं, और छठा भगवान।।101।।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सब देवन का देव। कृष्णचन्द्र पग धोईया, करी तास की सेव।।102।।
गरीब, सुपच रूप को देखि करि, द्रौपदी मानी शंक। जानि गये जगदीश गुरु, बाजत नाहीं शंख।।103।।
गरीब, छप्पन भोग संजोग करि, कीनें पांच गिरास। द्रौपदी के दिल दुई हैं, नाहीं दृढ़ विश्वास।।104।।
गरीब, पांचैं पंडौं यज्ञ करी, कल्पवृक्ष की छांहिं। द्रौपदी दिल बंक हैं, कण कण बाज्या नांहि।।105।।
गरीब, छप्पन भोग न भोगिया, कीन्हें पंच गिरास। खड़ी द्रौपदी उनमुनी, हरदम घालत श्वास।।107।।
गरीब, बोलै कृष्ण महाबली, क्यूं बाज्या नहीं शंख। जानराय जगदीश गुरु, काढत है मन बंक।।108।।
गरीब, द्रौपदी दिल कूं साफ करि, चरण कमल ल्यौ लाय। वाल्मिीकि के बाल सम, त्रिलोकी नहीं पाय।।109।।
गरीब, चरण कमल कूं धोय करि, ले द्रौपदी प्रसाद। अंतर सीना साफ होय, जरैं सकल अपराध।।110।।
गरीब, बाज्या शंख सुभान गति, कण कण भई अवाज। स्वर्ग लोक बानी सुनी, त्रिलोकी में गाज।।111।।
गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, आये नजर निहाल। जम राजा की बंधि में, खल हल पर्या कमाल।।113।।
‘‘अन्य वाणी सतग्रन्थ से’’
तेतीस कोटि यज्ञ में आए सहंस अठासी सारे। द्वादश कोटि वेद के वक्ता, सुपच का शंख बज्या रे।।
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