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#यूपी में विधानसभा सीट कितनी है 2022
lok-shakti · 3 years
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UP Chunav: ये कागजी समाजवादी, सिर्फ सपने देखते हैं परिवारवादी...वर्चुअल रैली में अखिलेश पर बरसे PM मोदी
UP Chunav: ये कागजी समाजवादी, सिर्फ सपने देखते हैं परिवारवादी…वर्चुअल रैली में अखिलेश पर बरसे PM मोदी
नोएडा: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने शुक्रवार को अपनी दूसरी वर्चुअल चुनावी रैली (Virtual Election Rally) में एक बार फिर समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को निशाने पर रखा। मेरठ, गाजियाबाद, अलीगढ़, हापुड़ और नोएडा की 23 विधानसभाओं को डिजिटली संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने लगातार अपने भाषण में योगी सरकार की तारीफ और पूववर्ती सरकारों पर हमला बोला। पीएम मोदी ने कहा कि यूपी का ये चुनाव इस…
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jharkhandnewstak · 3 years
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Election Results 2022: सरकार बनाने के लिए यूपी, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में कितनी सीटें चाहिए, जानिए सबकुछ किसको कितना सीट मिल रहा है।
Election Results 2022: सरकार बनाने के लिए यूपी, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में कितनी सीटें चाहिए, जानिए सबकुछ किसको कितना सीट मिल रहा है।
Election Results 2022: नतीजों से पहले जानिए कि यूपी, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा की कितनी सीटें और किसी भी दल को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए कितनी सीटों की जरूरत होगी। वोटो की गिनती शुरु हो चुकी है,और bjp up में आगे चल रही है,पंजाब मे aap आगे चल रही है,वही उतराखण्ड,मणिपुर,गोवा मे bjp आगे चल रही है, कुछ घन्टे बाद परिणाम आपके सामने होंगे। जानीए पुर्ण बहुमत सरकार के लिए…
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abhay121996-blog · 3 years
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PK के उठापटक के गणित को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं पंजाब के नेता! Divya Sandesh
#Divyasandesh
PK के उठापटक के गणित को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं पंजाब के नेता!
प्रशांत किशोर को लेकर एक आम धारणा यह देखी गई है कि वह जिस राज्य में जिस पार्टी के भी रणनीतिकार की भूमिका में जाते हैं, उसकी इंटर्नल पॉलिटिक्स का भी हिस्सा बन जाते हैं। बंगाल में चुनाव से ठीक पहले टीएमसी के अंदर जो उठापटक हुई, उसके पीछे प्रशांत किशोर ही वजह माने गए। प्रशांत किशोर विधायकों के टिकट कटवाने को भी अपनी रणनीति का हिस्सा मानने लग जाते हैं। 2017 के यूपी चुनाव में जब प्रशांत किशोर कांग्रेस के रणनीतिकार बने, तो राज्य में उनके खिलाफ इसी वजह से बगावत हो गई थी। पार्टी के कई सीनियर नेताओं ने लीडरशिप से शिकायत की थी कि प्रशांत किशोर उन लोगों की भूमिका तय नहीं कर सकते। 2017 में एसपी के साथ गठबंधन का प्रयोग फेल हो जाने के लिए भी पार्टी नेताओं ने प्रशांत किशोर को ही जिम्मेदार माना था, कहा था कि प्रशांत किशोर जमीनी हकीकत से वाकिफ ही नहीं थे। खैर, बंगाल चुनाव निपटा लेने के बाद प्रशांत का डेरा पंजाब में होगा, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें अपना रणनीतिकार बना रखा है। पंजाब के नेताओं को मालूम है कि कमान संभालते ही प्रशांत किशोर नेताओं की भूमिका तय करने लग जाएंगे, इसी के मद्देनजर उन्होंने अभी से कैप्टन को चेताया कि प्रशांत किशोर की टिकट वितरण में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। वह पार्टी के चुनावी अभियान तक अपनी जिम्मेदारी को सीमित रखें। किसे किस सीट से चुनाव लड़ाना है, यह पार्टी का फैसला होता है और पार्टी उसे अपने तरीके से तय करे। देखने वाली बात होगी कि कैप्टन अमरिंदर सिंह पीके को कितनी आजादी देते हैं, लेकिन ज्यादा आजादी दे पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि पार्टी के नेता अपने ऊपर किसी बाहरी का बंधन बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं। यूं भी वहां पार्टी के अंदर कई गुट पहले से ही सक्रिय हैं। एक पीके का भी गुट बन जाए, यह किसी को स्वीकार नहीं।बंगाल चुनाव निपटा लेने के बाद प्रशांत का डेरा पंजाब में होगा, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें अपना रणनीतिकार बना रखा है। पंजाब के नेताओं को मालूम है कि कमान संभालते ही प्रशांत किशोर नेताओं की भूमिका तय करने लग जाएंगे, इसी के मद्देनजर उन्होंने अभी से कैप्टन को चेताया कि प्रशांत किशोर की टिकट वितरण में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।प्रशांत किशोर को लेकर एक आम धारणा यह देखी गई है कि वह जिस राज्य में जिस पार्टी के भी रणनीतिकार की भूमिका में जाते हैं, उसकी इंटर्नल पॉलिटिक्स का भी हिस्सा बन जाते हैं। बंगाल में चुनाव से ठीक पहले टीएमसी के अंदर जो उठापटक हुई, उसके पीछे प्रशांत किशोर ही वजह माने गए। प्रशांत किशोर विधायकों के टिकट कटवाने को भी अपनी रणनीति का हिस्सा मानने लग जाते हैं। 2017 के यूपी चुनाव में जब प्रशांत किशोर कांग्रेस के रणनीतिकार बने, तो राज्य में उनके खिलाफ इसी वजह से बगावत हो गई थी। पार्टी के कई सीनियर नेताओं ने लीडरशिप से शिकायत की थी कि प्रशांत किशोर उन लोगों की भूमिका तय नहीं कर सकते। 2017 में एसपी के साथ गठबंधन का प्रयोग फेल हो जाने के लिए भी पार्टी नेताओं ने प्रशांत किशोर को ही जिम्मेदार माना था, कहा था कि प्रशांत किशोर जमीनी हकीकत से वाकिफ ही नहीं थे। खैर, बंगाल चुनाव निपटा लेने के बाद प्रशांत का डेरा पंजाब में होगा, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें अपना रणनीतिकार बना रखा है। पंजाब के नेताओं को मालूम है कि कमान संभालते ही प्रशांत किशोर नेताओं की भूमिका तय करने लग जाएंगे, इसी के मद्देनजर उन्होंने अभी से कैप्टन को चेताया कि प्रशांत किशोर की टिकट वितरण में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। वह पार्टी के चुनावी अभियान तक अपनी जिम्मेदारी को सीमित रखें। किसे किस सीट से चुनाव लड़ाना है, यह पार्टी का फैसला होता है और पार्टी उसे अपने तरीके से तय करे। देखने वाली बात होगी कि कैप्टन अमरिंदर सिंह पीके को कितनी आजादी देते हैं, लेकिन ज्यादा आजादी दे पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि पार्टी के नेता अपने ऊपर किसी बाहरी का बंधन बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं। यूं भी वहां पार्टी के अंदर कई गुट पहले से ही सक्रिय हैं। एक पीके का भी गुट बन जाए, यह किसी को स्वीकार नहीं।बंगाल में बदलेगी रणनीतिपश्चिम बंगाल में अब टीएमसी पर हमलावर बीजेपी बाकी चरणों के मतदान के लिए अपनी रणनीति बदलने जा रही है। पार्टी ने महसूस किया है कि एंटी बीजेपी वोट का बंटवारा नहीं हो रहा है। यह टीएमसी के पक्ष में ही गोलबंद हो रहा है। इस वजह से पार्टी को जितना फायदा मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिला है। इसके मद्देनजर यह तय किया गया है कि बाकी बचे चरणों के लिए कांग्रेस और लेफ्ट को भी निशाने पर रखा जाए, जिससे त्रिकोणीय लड़ाई का माहौल बने। तिकोनी लड़ाई में एंटी बीजेपी वोटों के टीएमसी और कांग्रेस-लेफ्ट के बीच बंटवारे की संभावना ज्यादा रहेगी। एंटी बीजेपी वोटों का जितना ज्यादा बंटवारा होगा, यह बीजेपी के हक में रहेगा। यह उम्मीद की जा रही थी कि इस बार कांग्रेस पश्चिम बंगाल चुनाव में बहुत ही आक्रामक तेवर के साथ लड़ेगी, लेकिन बीजेपी का यह अनुमान भी गलत साबित हुआ। आधा चुनाव निकल जाने के बाद भी गांधी परिवार से चुनाव प्रचार के लिए कोई नहीं गया। अब बाकी बचे चरणों के लिए राहुल और प्रियंका के जाने की बात हो रही है। बीजेपी को लगता है कि इस मौके को भुनाया जाए और यहीं से कांग्रेस को निशाने पर लेते हुए लड़ाई को त्रिकोणीय बनाया जाए। वैसे कांग्रेस इस बात को समझ रही है कि वह मुख्य लड़ाई से बाहर हो चुकी है। कुछ खास इलाकों तक ही उसका असर दिख रहा है। ऐसे में वह अब केवल उन्हीं सीटों पर अपनी ताकत लगाना चाहती है, जहां उसे जीत की संभावना दिख रही है। बाकी बचे चरणों के लिए राहुल और प्रियंका का जो कार्यक्रम तैयार हो रहा है, वह उन्हीं सीटों के लिए है, जो कांग्रेस की परंपरागत सीटें मानी जाती हैं।अब बाबा साहेब वाहिनीअभी तक समाजवादी पार्टी में ‘लोहिया वाहिनी’ होती थी, लेकिन अब ‘बाबा साहेब वाहिनी’ भी होगी। इसके जरिए अखिलेश यादव मायावती के वोट बैंक समझे जाने वाले दलित वोटों के बीच सीधे जगह बनाने की कोशिश करेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब ढाई दशक पुरानी दुश्मनी को भुलाते हुए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन किया था, लेकिन वैसे नतीजे नहीं आए, जैसी उम्मीद की जा रही थी। इसके बाद बीएसपी चीफ ने गठबंधन तोड़ने में कोई देर नहीं लगाई। मायावती का कहना था कि इस गठबंधन को बनाए रखने का इसलिए कोई मतलब नहीं है कि एसपी का जो वोट बैंक है, वह उन्हें ट्रांसफर नहीं हुआ। हालांकि अखिलेश यादव का कहना था कि एसपी का वोट बीएसपी को ट्रांसफर हुआ, तभी उसे एसपी से दो गुना ज्यादा सीटें मिलीं। खैर, अब जब अगले साल के शुरुआती महीनों में यूपी विधानसभा के चुनाव होने हैं, अखिलेश यादव 2019 में दलित समाज के साथ बने अपने रिश्तों को ताजगी देना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि काडरों में जो संवाद बना था, उसे बनाए रखा जा सकता है, भले ही बीएसपी चीफ अब गठबंधन का हिस्सा न रहें। इसी के मद्देनजर उन्होंने बाबा साहेब वाहिनी बनाने का ऐलान किया है। बीएसपी के कई पुराने नेताओं को भी पार्टी ने अपने साथ लिया है। एसपी यह सिद्ध करना चाहती है कि दलित समाज के साथ उसका भावनात्मक रिश्ता बना हुआ है। इस पार्टी ने दलित नेताओं को ज्यादा टिकट देने का भी ऐलान किया है। जाहिर सी बात है कि एसपी का यह कदम बीएसपी को भाने वाला नहीं है। पार्टी पहले से ही अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में है। देखने वाली बात होगी कि ‘बाबा साहेब वाहिनी’ से एसपी को कितना फायदा होता है।गठबंधन करेंगे चंद्रशेखर?बात सिर्फ बाबा साहेब वाहिनी के गठन तक सीमित नहीं है। इस तरह की भी कोशिश चल रही है कि 2022 के चुनाव में समाजवादी पार्टी दलित नेता चंद्रशेखर को गठबंधन का हिस्सा बना सकती है। यूपी की पॉलिटिक्स में भीम आर्मी के जरिए चंद्रशेखर एक नए दलित आइकॉन बन कर उभरे हैं। खासतौर से दलित युवाओं के बीच वह बेहद लोकप्रिय हैं। बीएसपी के साथ उनके रिश्ते सहज नहीं है। हर मौके पर बीएसपी चीफ उन्हें फटकार ही लगाती रही हैं। चंद्रशेखर ने पिछले साल आजाद समाज पार्टी गठित कर राजनीति में आने अपना रास्ता बनाया है। अभी तक यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि यूपी में ओवैसी-राजभर-शिवपाल यादव-चंद्रशेखर गठबंधन बना सकते हैं, लेकिन अब यह जानकारी मिल रही है कि समाजवादी पार्टी की टॉप लीडरशिप चंद्रशेखर के सीधे संपर्क में है। एसपी लीडरशिप को लगता है कि आजाद समाज पार्टी के लिए कुछ सीटें छोड़कर अगर चंद्रशेखर का साथ मिलता है, तो वह ज्यादा फायदे का होगा। दलित समाज के बीच जगह बनाने में आसानी तो होगी ही, साथ-साथ बीएसपी चीफ को भी परेशान किया जा सकता है। अखिलेश यादव पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि कांग्रेस और बीएसपी के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा। जरूरत के हिसाब से छोटे दलों को अपने साथ जोड़ा सकता है। चंद्रशेखर बुलंदशहर जिले से चुनाव लड़ने की इच्छा जता चुके हैं। समाजवादी पार्टी आम आदमी पार्टी के लिए भी कुछ सीटें छोड़ सकती है। यहां भी समाजवादी पार्टी अपना फायदा देख रही है। उसे लगता है कि कुछ सीटों के बदले अरविंद केजरीवाल को भी अपने साथ जोड़ा जा सकता है।
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abhay121996-blog · 3 years
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कांग्रेस नेताओं को चुनावों की नहीं, राहुल के फॉलो या अनफॉलो करने की फ्रिक Divya Sandesh
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कांग्रेस नेताओं को चुनावों की नहीं, राहुल के फॉलो या अनफॉलो करने की फ्रिक
अगले आठ महीनों के अंदर पांच राज्यों के चुनाव हैं और अगर कांग्रेस के नेता करने पर आ जाएं तो उनके पास काम ही काम हो जाए। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का जो ‘इनर सर्किल’ है, वहां इस वक्त सभी अपनी सांस रोके राहुल गांधी की नई ‘ट्विटर नीति’ का इंतजार कर रहे हैं। इन दिनों उनके लिए सबसे अहम यह देखना है कि राहुल गांधी ट्विटर पर किसे फॉलो करते हैं और किसे अनफॉलो? हुआ यूं कि राहुल गांधी ने पिछले दिनों कई लोगों को अनफॉलो कर दिया, जिसमें उनके कई दोस्त भी शामिल हैं। उसके बाद ही पार्टी में हड़कंप मच गया। फिर यह बात सामने आई कि राहुल गांधी अपने लिए एक ट्विटर नीति बना रहे हैं, जिसके अनुसार ही वह ‘फॉलो’ करेंगे और बाकी को अनफॉलो कर देंगे। यह खबर आते ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की सांस ऊपर-नीचे होने लगी है। सभी को इस बात का इंतजार है कि वह किन-किन को फॉलो करते हैं और किस-किस को अनफॉलो। वैसे तो सोशल मीडिया पर कौन किसे फॉलो करता है, यह उसकी निजी इच्छा का सवाल माना जाना चाहिए, लेकिन कांग्रेस के अंदर यह ‘ग्राफ’ तय करने का फॉर्म्युला है। जिन लोगों को राहुल फॉलो करते हैं, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ ऊंचा माना जाता है, उनकी गिनती राहुल के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है, और उसी के मद्देनजर अन्य पार्टी जन उन्हें महत्व देते हैं। जिन लोगों को अनफॉलो कर दिया है, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ अचानक गिर गया है। जिन्हें अभी और अनफॉलो करेंगे, उनका भी यही हश्र होना है। जिन्हें फॉलो कर लेंगे, जाहिर कि उनका ग्राफ चढ़ जाएगा। पार्टी में जब सब कुछ ‘ग्राफ’ से ही चलना है तो सभी को अपने लिए फिक्र होना स्वाभाविक है। रही बात पांच राज्यों के चुनाव की, तो चुनाव तो होते ही रहते हैं।राहुल फॉलो करते हैं, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ ऊंचा माना जाता है, उनकी गिनती राहुल के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है, और उसी के मद्देनजर अन्य पार्टी जन उन्हें महत्व देते हैं। जिन लोगों को अनफॉलो कर दिया है, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ अचानक गिर गया है।अगले आठ महीनों के अंदर पांच राज्यों के चुनाव हैं और अगर कांग्रेस के नेता करने पर आ जाएं तो उनके पास काम ही काम हो जाए। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का जो ‘इनर सर्किल’ है, वहां इस वक्त सभी अपनी सांस रोके राहुल गांधी की नई ‘ट्विटर नीति’ का इंतजार कर रहे हैं। इन दिनों उनके लिए सबसे अहम यह देखना है कि राहुल गांधी ट्विटर पर किसे फॉलो करते हैं और किसे अनफॉलो? हुआ यूं कि राहुल गांधी ने पिछले दिनों कई लोगों को अनफॉलो कर दिया, जिसमें उनके कई दोस्त भी शामिल हैं। उसके बाद ही पार्टी में हड़कंप मच गया। फिर यह बात सामने आई कि राहुल गांधी अपने लिए एक ट्विटर नीति बना रहे हैं, जिसके अनुसार ही वह ‘फॉलो’ करेंगे और बाकी को अनफॉलो कर देंगे। यह खबर आते ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की सांस ऊपर-नीचे होने लगी है। सभी को इस बात का इंतजार है कि वह किन-किन को फॉलो करते हैं और किस-किस को अनफॉलो। वैसे तो सोशल मीडिया पर कौन किसे फॉलो करता है, यह उसकी निजी इच्छा का सवाल माना जाना चाहिए, लेकिन कांग्रेस के अंदर यह ‘ग्राफ’ तय करने का फॉर्म्युला है। जिन लोगों को राहुल फॉलो करते हैं, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ ऊंचा माना जाता है, उनकी गिनती राहुल के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है, और उसी के मद्देनजर अन्य पार्टी जन उन्हें महत्व देते हैं। जिन लोगों को अनफॉलो कर दिया है, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ अचानक गिर गया है। जिन्हें अभी और अनफॉलो करेंगे, उनका भी यही हश्र होना है। जिन्हें फॉलो कर लेंगे, जाहिर कि उनका ग्राफ चढ़ जाएगा। पार्टी में जब सब कु��� ‘ग्राफ’ से ही चलना है तो सभी को अपने लिए फिक्र होना स्वाभाविक है। रही बात पांच राज्यों के चुनाव की, तो चुनाव तो होते ही रहते हैं।खन्ना जी के ‘डर’ की वजहयूपी में इन दिनों जबरदस्त उठापटक देखने को मिल रही है। जितने मुंह, उतनी बात। इन सबके बीच वहां के एक वरिष्ठ मंत्री सुरेश खन्ना का ‘डर’ राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया। हुआ यूं कि उनका नाम भी वहां मुख्यमंत्री पद की रेस में गिना जाने लगा। पहले तो उन्होंने चार जून को एक ट्वीट करके कहा, ‘मेरे नाम लेकर जो प्रचार किया जा रहा है, वह बहुत ही घटिया शरारत है, इसको तत्काल बंद किया जाए।’ इसके एक दिन बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जन्मदिन था। उन्होंने मुख्यमंत्री को शुभकामनाएं देने के लिए जितने भारी भरकम शब्द हो सकते थे, उनका चयन किया और लिखा, ‘मान्यवर, जन्मदिन के शुभ प्रभात पर जब खोलो नैनों के द्वार, सौ-सौ सूरज साथ खड़े हों लेकर ज्योति शक्ति भंडार। यशस्वी और तेजस्वी भविष्य के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।’ इसके बाद से ही राजनीतिक गलियारों में यह कौतूहल का विषय बना कि मीडिया में अपना नाम चलने से खन्ना इतना डर क्यों गए हैं? कई लोग इस राय के हैं कि जिन दिनों सरकार के नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही थी, उन्हीं दिनों उनकी पार्टी के कुछ बड़े नेताओं से मुलाकात हुई थी। उनके दिल्ली जाने की बात भी कही गई। ये सारी बातें सीएम तक भी पहुंचीं, बस खन्ना यहीं से डर गए। वह दिल्ली जाने और नेताओं से मुलाकात की बात को भी सिरे से खारिज कर रहे हैं। अपने को बेकसूर बताने और योगी के हितैषी होने के लिए उनसे जितना भी संभव हो पा रहा है, वह कर रहे हैं। लेकिन पॉलिटिक्स में कोई किसी पर सहज विश्वास नहीं करता, इसलिए यह चर्चा भी आम है कि बगैर चिंगारी के धुंआ नहीं होता।श्रीधरन के ‘एडजस्टमेंट’ की फिक्रकेरल विधानसभा चुनाव से ऐन पहले मेट्रो मैन के नाम से मशहूर श्रीधरन का बीजेपी में जाना सबको चकित कर गया था। बीजेपी को उम्मीद थी कि श्रीधरन के आने से राज्य में पार्टी को चमक मिलेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया और खुद श्रीधरन भी चुनाव हार गए। लेकिन पार्टी की टॉप लीडरशिप उन्हें अपने साथ बनाए रखना चाहती है, इसलिए उनके बेहतर समायोजन का रास्ता तलाशा जा रहा है। कहा जा रहा है कि जल्दी यह तलाश पूरी हो सकती है। 2015 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए बीजेपी लीडरशिप मशहूर आईपीएस अधिकारी रहीं किरण बेदी को लेकर आई थी। दिल्ली में उन्हें चुनाव भी लड़वाया गया, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद बीजेपी ने उन्हें पुडुचेरी का उपराज्यपाल बनाया था। बीजपी के गलियारों में कहा जा रहा है कि ऐसे लोगों का एडजस्टमेंट जरूरी हो जाता है क्योंकि ये लोग नॉन पॉलिटिकल फील्ड से आते हैं और एक विशिष्ट वर्ग में पार्टी को नई पहचान देते हैं। अगर उन्हें पार्टी में लिया गया और चुनावी राजनीति में कामयाब न होने पर उन्हें तवज्जो न दी गई तो भविष्य में विशिष्ट क्षेत्र के नामचीन चेहरों को पार्टी से जोड़ पाना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा। इसलिए उनके बीच में यह विश्वास पैदा करना जरूरी होता है कि अगर वे चुनावी राजनीति में कामयाब नहीं हुए तो भी पार्टी उन्हें भुलाएगी नहीं। वे इसी भरोसे से पॉलिटिक्स में आते हैं। यानी श्रीधरन के समायोजन के बाद जल्दी ही जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां के भी कुछ ‘विशिष्टजनों’ के बीजेपी में आने की खबर मिल सकती है। पार्टी ने दरवाजे खोल रखे हैं।शायर को स्वीकारें या नहीं?इमरान प्रतापगढ़ी एक पेशेवर शायर हैं। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी शायरी मोदी विरोध पर केंद्रित हो गई। वह कांग्रेस को कुछ ऐसा भाए कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें यूपी के मुरादाबाद से टिकट भी दे दिया। हालांकि इस मुस्लिम बहुल सीट पर उन्हें मुंह की खानी पड़ी और उनकी जमानत तक जब्त हो गई। लेकिन कांग्रेस लीडरशिप ने इससे भी कोई सबक नहीं लिया। पिछले दिनों उन्हें अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का चेयरमैन बना दिया। उनके चेयरमैन बनने के बाद पार्टी के अंदर से यह आवाज उठने लगी कि जिसने कभी पार्टी के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष न किया हो, जो महज एक मंचीय शायर हो, उसको इतनी तवज्जो क्यों? पार्टी के कई मुस्लिम नेता इन दिनों यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि उनके लिए यह तय कर पाना काफी मुश्किल है कि इमरान का नेतृत्व स्वीकार करें या नहीं? उधर वेस्ट यूपी के इमरान मसूद को दिल्ली का प्रभारी बनाया गया है। इमरान मसूद के नाम पर भी पार्टी के अंदर असहमति के स्वर उठ रहे हैं। इमरान मसूद वेस्ट यूपी में पार्टी के मुस्लिम फेस माने जाते हैं, वह इन दिनों पार्टी में अपनी उपेक्षा से नाराज चल रहे थे। 2022 के चुनाव से पहले उनकी नाराजगी खत्म करने की गरज से ही उनको दिल्ली प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है। कांग्रेस के अंदर ही कई नेताओं की राय है कि इमरान मसूद दिल्ली के मिजाज से मैच नहीं खाते हैं। उनके जरिए वहां पार्टी को फायदा होने के बजाय नुकसान हो सकता है। देखने वाली बात होगी कि दिल्ली का प्रभारी बनने के बाद इमरान मसूद की नाराजगी कितनी दूर होती है, क्योंकि उनका भविष्य तो वेस्ट यूपी से ही जुड़ा है।
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abhay121996-blog · 3 years
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यूपी को लेकर BJP के अंदर बढ़ गई फिक्र, क्या कुछ बड़ा बदलाव होने वाला है? Divya Sandesh
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यूपी को लेकर BJP के अंदर बढ़ गई फिक्र, क्या कुछ बड़ा बदलाव होने वाला है?
लखनऊ अगले साल के शुरुआती महीनों में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उसमें यूपी को लेकर बीजेपी सबसे ज्यादा फिक्रमंद है। उसकी यह फिक्र हाल के कुछ महीनों के दरम्यान बढ़ी भी है। पिछले दिनों में दिल्ली में संघ और बीजेपी के बड़े नेताओं के बीच एक बैठक भी हुई, जिसमें यूपी को लेकर बहुत सारी बातों पर विमर्श हुआ।
बहुत सारे बदलाव भी ‘पाइप लाइन’ में बताए जा रहे हैं। अगर राजनीतिक गलियारों में इन दिनों यूपी ��ो लेकर जो ‘किस्से’ सुने-सुनाए जा रहे हैं, अगर उन पर कान दे दिया जाए तो ऐसा लगता है कि वहां ‘बड़ी सर्जरी’ होने वाली है लेकिन अधिकारिक तौर पर अभी उनकी पुष्टि नहीं हो पा रही है। हालांकि बदलाव के दृष्टिगत घबराहट तो राज्य बीजेपी के बड़े नेताओं तक में है। दिल्ली की हर आहट पर वे चौंक जा रहे हैं। कुछ नेताओं ने तो अपनी सक्रियता भी बढ़ा दी है ताकि आने वाले किसी ‘तूफान’ से अपने का सुरक्षित रख सकें। संगठन और सरकार के बीच और बेहतर समन्वय बनाने पर जोर दिया जा रहा है।
फिक्र बढ़ने की क्या हैं वजहें:-
मिसमैनेजमेंट का डेंटकोविड की पहली लहर में यूपी में जितना सब कुछ व्यवस्थित था, दूसरी लहर में वह उतना ही अव्यवस्थित दिखा। यह संयोग कहा जा सकता है कि कोरोना से डराने वाली ज्यादातर खबरें यूपी से ही निकलीं। यहां तक कि मंत्रियों, बीजेपी सांसदों और विधायकों तक ने कहीं कोई सुनवाई न होने की बात कह डाली। हालांकि बाद में राज्य सरकार ने स्थितियों पर काबू पाने में बहुत ��ुछ सफलता पाई लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
सरकार की प्रबंधन क्षमता पर जो ‘डेंट’ लगना था, वह लग चुका है। दिल्ली में बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता स्वीकारते हैं कि ‘कई मौकों पर यह देखा जा चुका है, पहली नजर में जो धारणा बन जाती है, वह मिटने नहीं पाती, बाद में आप चाहे जितना अच्छा काम करके दिखा दें।’ शुरुआती अव्यवस्था लोगों के जेहन पर हावी न होने पाए, इसके लिए क्या तरीका अपनाया जाए, यह बीजेपी की टॉप लीडरशिप में विमर्श का मुख्य मुद्दा है।
जातीय समीकरणों पर नजर यूपी की पॉलिटिक्स में पिछड़ा वर्ग और पिछड़ा वर्ग में भी अति पिछड़ा वर्ग बहुत निर्णायक भूमिका निभाता है। 1991 में बीजेपी पहली बार जब सत्ता में आई थी तो कल्याण सिंह को ही चेहरा बनाकर आई थी जो कि अतिपिछड़ा वर्ग से हैं। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने अतिपिछड़ा वर्ग को ही गोलबंद करने के लिए सांसद केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। उन्हें सीएम उम्मीदवार घोषित तो नहीं किया गया था लेकिन पेश कुछ उसी अंदाज में किया जा रहा था।
बहुमत मिलने पर उन्हें डेप्युटी सीएम तक ही सीमित कर दिया गया। राजनीतिक गलियारों में लगातार यह किस्सागोई होती रही कि उन्हें ‘फ्री हैंड’ नहीं मिल रहा। अब अतिपिछड़ा वर्ग के बीच उनकी उपेक्षा के मुद्दे को हवा दी जा रही है। यहां तक कि अखिलेश यादव भी इस मुद्दे पर कई बार बोल चुके हैं। अतिपिछड़ा वर्ग के बीच यह मुद्दा कहीं घर न कर जाए, इसके लिए कोई रास्ता निकालने की बात की जा रही है।
सीएम का चेहरा हो या नहीं 2014 से 2021 के बीच अलग-अलग राज्यों में हुए चुनावों के जरिए बीजेपी ने पाया कि लगातार दूसरी बार उसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव के मैदान में जाने से ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर ज्यादा हावी हो जाता है। दूसरी बात यह भी होती है कि सीएम पद के जो अन्य दावेदार होते हैं, वे सक्रियता नहीं दिखाते। इसके मद्देनजर बीजेपी लीडरशिप ने अप्रैल में हुए असम के चुनाव में एक नया प्रयोग किया।
उसने वहां के सीएम को अगले चुनाव के लिए सीएम का उम्मीदवार घोषित नहीं किया। कहा कि सीएम चुनाव के बाद तय होगा। इस प्रयोग के जरिए सत्ता में उसकी वापसी भी हुई। तो क्या ऐसा प्रयोग यूपी में भी किया जाना चाहिए? और अगर किया जाता है तो क्या वहां के जो मौजूदा मुख्यमंत्री हैं, वह इसे कितनी सहजता से स्वीकार करेंगे? पिछले दिनों बीजेपी के एक सीनियर लीडर ने मीडिया से ऑफ द रेकॉर्ड संवाद में कहा कि यूपी में असम का प्रयोग दोहराया भी जा सकता है और नहीं भी।
विपक्ष का मुखर हो जाना बीजेपी की लीडरशिप का यह अनुभव है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल होते हैं, वहां बीजेपी की लड़ाई कांग्रेस प्रभावी वाले राज्यों के मुकाबले ज्यादा कठिन हो जाती है। यूपी में तो बीजेपी के मुकाबले क्षेत्रीय दलों का ही दबदबा है। बीजेपी की लीडरशिप को यह भी उम्मीद नहीं थी कि चुनाव तक राज्य में विपक्ष इतना ज्यादा मुखर हो जाएगा लेकिन चुनाव आते-आते राज्य में विपक्ष तन कर खड़ा हो चुका है।
कोविड काल की अव्यवस्था ने उसे सरकार पर हमला बोलने का हथियार भी दे दिया है। कई गैर राजनीतिक संगठन और प्रभावी व्यक्ति भी विपक्ष के सुर में सुर मिला रहे हैं। ऐसे में सरकार को अपना बचाव कर पाना मुश्किल हो रहा है। सरकार में होने का अपना एक अलग दबाव तो होता है, उधर विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ नहीं है।
दिल्ली तक दिखेगा असर यूपी से लोकसभा की 80 सीटें आती हैं। यहां की पॉलिटिक्स का सीधा असर केंद्र की राजनीति पर पड़ता है। 2014 और उसके बाद 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को रेकॉर्ड 300 + सीटें मिलीं, उसमें यूपी का बहुत बड़ा योगदान है। 2014 के चुनाव में बीजेपी को यहां से 80 में से 73 और 2019 में 64 सीट मिलीं थी। 2022 में जब यूपी में चुनाव होंगे तो उसके महज दो साल बाद लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं।
बीजेपी लीडरशिप को लगता है कि अगर पार्टी कहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो इसका असर 2024 के लोकसभा के चुनाव पर पड़ेगा। 2024 का लोकसभा का चुनाव बीजेपी के लिए इसलिए और महत्वपूर्ण होगा कि वह लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव के मैदान में होगी। उसकी कोशिश किसी भी कीमत पर सत्ता में वापसी की होगी और यह सब कुछ राज्यों में पार्टी के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा।
पार पाना कितना आसान? यूपी को लेकर बीजेपी की बढ़ती फिक्र की ये जो वजहें हैं, उनसे पार पाना उसके लिए कितना आसान होगा, यह सवाल बहुत अहम है। बताया जा रहा है कि आने वाले कुछ महीनों के अंदर अमित शाह यूपी को लेकर सक्रिय होने वाले हैं और एक तरह से राज्य में पार्टी की रणनीति की कमान उन्हीं के हाथ में होगी।
यूपी में बीजेपी को खड़ा करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। 2014 में यूपी के प्रभारी रहते हुए यह उनकी रणनीति का कमाल था कि राज्य में विपक्ष का सफाया हो गया था। पार्टी के एक सीनियर लीडर ने कहा भी, यूपी को लेकर हमें कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे।
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