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ewebcareit · 1 year
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गायत्री मंत्र का महत्व और अर्थ के साथ पूर्ण विवरण
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गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्वपूर्ण मंत्र है जिसका महत्व लगभग ॐ के बराबर है। यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के श्लोक 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सावित्री देव की पूजा की जाती है, इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंत्र का जाप करने और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है। 'गायत्री' भी एक श्लोक है जो 24 मात्राओं 8+8+8 के योग से बना है। गायत्री ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है। इन सात श्लोकों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहति, विराट, त्रिष्टुप और जगती। गायत्री छंद में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप को छोड़कर गायत्री छंदों की संख्या सबसे अधिक है। गायत्री के तीन श्लोक हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। इसलिए जब पद्य या वाणी के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की गई, तब यह संसार त्रिपदा गायत्री का ही रूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की सांकेतिक व्याख्या शुरू हुई, तब गायत्री छंदों के बढ़ते महत्व के अनुसार एक विशेष मंत्र की रचना की गई, जो इस प्रकार है: तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।' (ऋग्वेद ३,६२,१०) गायत्री ध्यानम् मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै- र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्‌ । गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण। शंख, चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥ अर्थात् जिनके मुख मोती, मूंगा, सोना, नीलम, और हीरा जैसे रत्नों की तेज आभा से सुशोभित हैं। उनके मुकुट पर चंद्रमा के रूप में रत्न जड़ा हुआ है। कौन से ऐसे पात्र हैं जो आपको स्वयं के तत्व का बोध कराते हैं। हम गायत्री देवी का ध्यान करते हैं, जो अपने दोनों हाथों में वरद मुद्रा के साथ अंकुश, अभय, चाबुक, कपाल, वीणा, शंख, चक्र, कमल धारण करती हैं। (पंडित रमन तिवारी)
गायत्री महामंत्र
ॐ भूर् भुवः स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
गायत्री महामंत्र का हिंदी में भावार्थ
उस आत्मा को हम जीवन रूपी, दुखों का नाश करने वाले, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजोमय, पापनाशक, परमात्मा को आत्मसात करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सही मार्ग पर प्रेरित करे।
मंत्र जाप के लाभ
नियमित रूप से सात बार गायत्री मंत्र का जाप करने से व्यक्ति के आसपास नकारात्मक ऊर्जा बिल्कुल नहीं आती है। जप के कई लाभ हैं, व्यक्ति का तेज बढ़ता है और मानसिक चिंताओं से मुक्ति मिलती है। बौद्धिक क्षमता और मेधाशक्ति अर्थात स्मरण शक्ति बढ़ती है। गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं, ये 24 अक्षर चौबीस शक्तियों और सिद्धियों के प्रतीक हैं। इसी कारण ऋषियों ने गायत्री मंत्र को सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला बताया है।
परिचय
इस मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और इसके देवता सविता हैं। वैसे तो यह मन्त्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मन्त्रों में से एक ही है, परन्तु अर्थ की दृष्टि से ऋषियों ने इसकी महिमा आदि में ही अनुभव की और सम्पूर्ण ऋग्वेद के 10 हजार मन्त्रों में इस मंत्र का अर्थ सबसे गंभीर है। किया हुआ। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। इनमें आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। किन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में तथा उस काल के समस्त साहित्य में इन अक्षरों के आगे तीन व्याहृतियाँ और उनके आगे प्रणव या ओंकार जोड़कर मंत्र का समग्र रूप इस प्रकार निश्चित किया गया है: (1) ॐ (2) भूर्भव: स्व: (3) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। मन्त्र के इस रूप को मनु ने सप्रणव, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसका विधान किया है। गायत्री तत्व क्या है और इस मंत्र की इतनी महिमा क्यों है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार, गायत्री एक ओर ब्रह्मांडीय ब्रह्मांड और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर दैवीय तत्व और दूसरी ओर भूत तत्व, एक ओर मन और जीवन के बीच के अंतर्संबंधों की पूरी व्याख्या करती है। एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के अनेक रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो सभी देवताओं को प्रेरित करता है। जाग्रत अवस्था में सविता रूपी मन ही मनुष्य की महान शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे ही मन भी देव है (देवन मन: ऋग्वेद, 1,164,18)। मन आत्मा का प्रेरक है। गायत्री मंत्र मन और आत्मा के बीच इस संबंध की व्याख्या का समर्थन करता है। सविता मन प्राण के रूप में समस्त कर्मों का अधिष्ठाता देवता है, यह सत्य प्रत्यक्ष है। गायत्री के तीसरे चरण में यही कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है- कर्माणि धियाः अर्थात जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं, वह केवल मन द्वारा उत्पन्न विचार या कल्पना नहीं है, बल्कि उन विचारों को कर्म के रूप में मूर्त रूप देना होता है। यह उनका चरित्र है। लेकिन मन की इस कार्य शक्ति के लिए मन का सकुशल होना आवश्यक है गायत्री के पूर्व के तीन भाव भी सहकारण हैं। भु पृथ्वी, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव संसार और जागृत अवस्था का प्रतीक है। भुव: अंतरिक्ष की दुनिया, यजुर्वेद, वायु ���े देवता, महत्वपूर्ण दुनिया और स्वप्न अवस्था का प्रतीक है। स्व: स्वर्ग, सामवेद, सूर्य देवता, मन-युक्त संसार और सुप्त अवस्था का प्रतीक है। इस त्रिक के अन्य कई प्रतीकों का उल्लेख ब्राह्मणों, उपनिषदों और पुराणों में किया गया है, लेकिन यदि कोई त्रिक के विस्तार में व्याप्त संपूर्ण विश्व को वाणी के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहता है, तो ओम का यह संक्षिप्त संकेत ॐ पर रखा गया है। गायत्री की शुरुआत। तीन अक्षर अ, उ और म ॐ का रूप हैं। A अग्नि का प्रतीक है, U वायु का प्रतीक है और M सूर्य का प्रतीक है। यह ब्रह्मांड के निर्माता का वचन है। वाणी का अनंत विस्तार है लेकिन यदि आप उसका संक्षिप्त नमूना लेकर सारे जगत का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ बोलने से आपको त्रिपदा का परिचय होगा जिसका स्पष्ट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
विभिन्न धार्मिक संप्रदायों में गायत्री महामंत्र का अर्थ
हिंदू - ईश्वर जीवनदाता, दुखों का नाश करने वाला और सुख का स्रोत है। आइए हम प्रेरक ईश्वर के उत्कृष्ट तेज का ध्यान करें। जो हमें अपनी बुद्धि को सही रास्ते पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा देते हैं। यहूदी - हे यहोवा (परमेश्‍वर), अपने धर्म के मार्ग में मेरी अगुवाई कर; मुझे अपना सीधा मार्ग मेरे सामने दिखा। शिन्तो : हे भगवान, हालांकि हमारी आंखें एक अश्लील वस्तु देख सकती हैं, हमारे दिल अश्लील भावनाओं का उत्पादन नहीं कर सकते हैं। हमारे कान गंदी बातें सुन सकते हैं, लेकिन हमें कठोर बातों का अनुभव नहीं करना चाहिए। पारसी: वह सर्वोच्च गुरु (अहुरा मज्दा-भगवान) अपने ऋत और सत्य के भंडार के कारण एक राजा के समान महान हैं। ईश्वर के नाम पर अच्छे कर्म करने से मनुष्य ईश्वर के प्रेम का पात्र बन जाता है। दाओ (ताओ): दाऊ (ब्राह्मण) चिंतन और समझ से परे है। उसके अनुसार आचरण ही उ8ं धर्म है। जैन : अरहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार और सभी साधुओं को नमस्कार। बौद्ध धर्म : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ। कनफ्यूशस : दूसरों के साथ वैसा व्यवहार न करें जैसा आप नहीं चाहते कि वे आपके साथ व्यवहार करें। सिख : ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्या है। वह सृष्टिकर्ता, सर्वशक्तिमान, निर्भय, वैर रहित, जन्मरहित और स्वयंभू है। वह गुरु की कृपा से जाना जाता है। बहाई : हे मेरे ईश्वर, मैं गवाही देता हूं कि आपने मुझे आपको जानने और केवल आपकी पूजा करने के लिए बनाया है। आपके अलावा कोई भगवान नहीं है। आप भयानक संकटों से मुक्ति दिलाने वाले और स्वावलंबी हैं। पूजा कि विधि तीन माला गायत्री मंत्र का जाप करना आवश्यक माना गया है। शौच और स्नान आदि से निवृत्त होकर निश्चित स्थान और समय पर सूखे आसन पर बैठकर नित्य गायत्री उपासना करते हैं। पूजा की विधि विधान इस प्रकार है: तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जाती है। उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है - (1) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं। (a) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मन्त्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु। (b) आचमन - वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। प्रत्येक मन्त्र के साथ एक आचमन किया जाए। ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा। ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा। (c) शिखा स्पर्श एवं वन्दन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मन्त्र का उच्चारण करें। ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते। तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ (d) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अन्दर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मन्त्र के उच्चारण के साथ किया जाए। ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ। (e) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अन्तः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मन्त्रोच्चार के साथ स्पर्श करें। ॐ वाँ मे आस्येऽस्तु। (मुख को) ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को) ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को) ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को) ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को) ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को) ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर) आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं। (2) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मन्त्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है। ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि। गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥ ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि। (a) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवन्दन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें। ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। (b) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान। पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आन्तरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगन्ध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश। ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सम्पन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है। (3) जप - गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मन्द हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस प्रकार मन्त्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है। (4) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है। (5) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है। ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥ ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥ भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है। इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चन्दन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें। यह भी देखें - गायत्री मंत्र के इन पांच फायदों को जानकर आप भी रोजाना इस मंत्र का जाप करने लगेंगे - GAYATRI MANTRA LYRICS OM BHUR BHUVA SWAHA | अंग्रेजी और हिंदी | गायत्री मंत्र - गायत्री मंत्र कब ज़रूरी है जाने सही समय के बारे में Read the full article
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ewebcareit · 1 year
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गायत्री मंत्र का महत्व और अर्थ के साथ पूर्ण विवरण
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गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्वपूर्ण मंत्र है जिसका महत्व लगभग ॐ के बराबर है। यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के श्लोक 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सावित्री देव की पूजा की जाती है, इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंत्र का जाप करने और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है। 'गायत्री' भी एक श्लोक है जो 24 मात्राओं 8+8+8 के योग से बना है। गायत्री ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है। इन सात श्लोकों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहति, विराट, त्रिष्टुप और जगती। गायत्री छंद में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप को छोड़कर गायत्री छंदों की संख्या सबसे अधिक है। गायत्री के तीन श्लोक हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। इसलिए जब पद्य या वाणी के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की गई, तब यह संसार त्रिपदा गायत्री का ही रूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की सांकेतिक व्याख्या शुरू हुई, तब गायत्री छंदों के बढ़ते महत्व के अनुसार एक विशेष मंत्र की रचना की गई, जो इस प्रकार है: तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।' (ऋग्वेद ३,६२,१०) गायत्री ध्यानम् मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै- र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्‌ । गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण। शंख, चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥ अर्थात् जिनके मुख मोती, मूंगा, सोना, नीलम, और हीरा जैसे रत्नों की तेज आभा से सुशोभित हैं। उनके मुकुट पर चंद्रमा के रूप में रत्न जड़ा हुआ है। कौन से ऐसे पात्र हैं जो आपको स्वयं के तत्व का बोध कराते हैं। हम गायत्री देवी का ध्यान करते हैं, जो अपने दोनों हाथों में वरद मुद्रा के साथ अंकुश, अभय, चाबुक, कपाल, वीणा, शंख, चक्र, कमल धारण करती हैं। (पंडित रमन तिवारी)
गायत्री महामंत्र
ॐ भूर् भुवः स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
गायत्री महामंत्र का हिंदी में भावार्थ
उस आत्मा को हम जीवन रूपी, दुखों का नाश करने वाले, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजोमय, पापनाशक, परमात्मा को आत्मसात करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सही मार्ग पर प्रेरित करे।
मंत्र जाप के लाभ
नियमित रूप से सात बार गायत्री मंत्र का जाप करने से व्यक्ति के आसपास नकारात्मक ऊर्जा बिल्कुल नहीं आती है। जप के कई लाभ हैं, व्यक्ति का तेज बढ़ता है और मानसिक चिंताओं से मुक्ति मिलती है। बौद्धिक क्षमता और मेधाशक्ति अर्थात स्मरण शक्ति बढ़ती है। गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं, ये 24 अक्षर चौबीस शक्तियों और सिद्धियों के प्रतीक हैं। इसी कारण ऋषियों ने गायत्री मंत्र को सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला बताया है।
परिचय
इस मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और इसके देवता सविता हैं। वैसे तो यह मन्त्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मन्त्रों में से एक ही है, परन्तु अर्थ की दृष्टि से ऋषियों ने इसकी महिमा आदि में ही अनुभव की और सम्पूर्ण ऋग्वेद के 10 हजार मन्त्रों में इस मंत्र का अर्थ सबसे गंभीर है। किया हुआ। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। इनमें आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। किन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में तथा उस काल के समस्त साहित्य में इन अक्षरों के आगे तीन व्याहृतियाँ और उनके आगे प्रणव या ओंकार जोड़कर मंत्र का समग्र रूप इस प्रकार निश्चित किया गया है: (1) ॐ (2) भूर्भव: स्व: (3) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। मन्त्र के इस रूप को मनु ने सप्रणव, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसका विधान किया है। गायत्री तत्व क्या है और इस मंत्र की इतनी महिमा क्यों है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार, गायत्री एक ओर ब्रह्मांडीय ब्रह्मांड और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर दैवीय तत्व और दूसरी ओर भूत तत्व, एक ओर मन और जीवन के बीच के अंतर्संबंधों की पूरी व्याख्या करती है। एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के अनेक रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो सभी देवताओं को प्रेरित करता है। जाग्रत अवस्था में सविता रूपी मन ही मनुष्य की महान शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे ही मन भी देव है (देवन मन: ऋग्वेद, 1,164,18)। मन आत्मा का प्रेरक है। गायत्री मंत्र मन और आत्मा के बीच इस संबंध की व्याख्या का समर्थन करता है। सविता मन प्राण के रूप में समस्त कर्मों का अधिष्ठाता देवता है, यह सत्य प्रत्यक्ष है। गायत्री के तीसरे चरण में यही कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है- कर्माणि धियाः अर्थात जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं, वह केवल मन द्वारा उत्पन्न विचार या कल्पना नहीं है, बल्कि उन विचारों को कर्म के रूप में मूर्त रूप देना होता है। यह उनका चरित्र है। लेकिन मन की इस कार्य शक्ति के लिए मन का सकुशल होना आवश्यक है गायत्री के पूर्व के तीन भाव भी सहकारण हैं। भु पृथ्वी, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव संसार और जागृत अवस्था का प्रतीक है। भुव: अंतरिक्ष की दुनिया, यजुर्वेद, वायु के देवता, महत्वपूर्ण दुनिया और स्वप्न अवस्था का प्रतीक है। स्व: स्वर्ग, सामवेद, सूर्य देवता, मन-युक्त संसार और सुप्त अवस्था का प्रतीक है। इस त्रिक के अन्य कई प्रतीकों का उल्लेख ब्राह्मणों, उपनिषदों और पुराणों में किया गया है, लेकिन यदि कोई त्रिक के विस्तार में व्याप्त संपूर्ण विश्व को वाणी के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहता है, तो ओम का यह संक्षिप्त संकेत ॐ पर रखा गया है। गायत्री की शुरुआत। तीन अक्षर अ, उ और म ॐ का रूप हैं। A अग्नि का प्रतीक है, U वायु का प्रतीक है और M सूर्य का प्रतीक है। यह ब्रह्मांड के निर्माता का वचन है। वाणी का अनंत विस्तार है लेकिन यदि आप उसका संक्षिप्त नमूना लेकर सारे जगत का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ बोलने से आपको त्रिपदा का परिचय होगा जिसका स्पष्ट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
विभिन्न धार्मिक संप्रदायों में गायत्री महामंत्र का अर्थ
हिंदू - ईश्वर जीवनदाता, दुखों का नाश करने वाला और सुख का स्रोत है। आइए हम प्रेरक ईश्वर के उत्कृष्ट तेज का ध्यान करें। जो हमें अपनी बुद्धि को सही रास्ते पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा देते हैं। यहूदी - हे यहोवा (परमेश्‍वर), अपने धर्म के मार्ग में मेरी अगुवाई कर; मुझे अपना सीधा मार्ग मेरे सामने दिखा। शिन्तो : हे भगवान, हालांकि हमारी आंखें एक अश्लील वस्तु देख सकती हैं, हमारे दिल अश्लील भावनाओं का उत्पादन नहीं कर सकते हैं। हमारे कान गंदी बातें सुन सकते हैं, लेकिन हमें कठोर बातों का अनुभव नहीं करना चाहिए। पारसी: वह सर्वोच्च गुरु (अहुरा मज्दा-भगवान) अपने ऋत और सत्य के भंडार के कारण एक राजा के समान महान हैं। ईश्वर के नाम पर अच्छे कर्म करने से मनुष्य ईश्वर के प्रेम का पात्र बन जाता है। दाओ (ताओ): दाऊ (ब्राह्मण) चिंतन और समझ से परे है। उसके अनुसार आचरण ही उ8ं धर्म है। जैन : अरहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार और सभी साधुओं को नमस्कार। बौद्ध धर्म : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ। कनफ्यूशस : दूसरों के साथ वैसा व्यवहार न करें जैसा आप नहीं चाहते कि वे आपके साथ व्यवहार करें। सिख : ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्या है। वह सृष्टिकर्ता, सर्वशक्तिमान, निर्भय, वैर रहित, जन्मरहित और स्वयंभू है। वह गुरु की कृपा से जाना जाता है। बहाई : हे मेरे ईश्वर, मैं गवाही देता हूं कि आपने मुझे आपको जानने और केवल आपकी पूजा करने के लिए बनाया है। आपके अलावा कोई भगवान नहीं है। आप भयानक संकटों से मुक्ति दिलाने वाले और स्वावलंबी हैं। पूजा कि विधि तीन माला गायत्री मंत्र का जाप करना आवश्यक माना गया है। शौच और स्नान आदि से निवृत्त होकर निश्चित स्थान और समय पर सूखे आसन पर बैठकर नित्य गायत्री उपासना करते हैं। पूजा की विधि विधान इस प्रकार है: तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जाती है। उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है - (1) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं। (a) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मन्त्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु। (b) आचमन - वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। प्रत्येक मन्त्र के साथ एक आचमन किया जाए। ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा। ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा। (c) शिखा स्पर्श एवं वन्दन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मन्त्र का उच्चारण करें। ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते। तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ (d) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अन्दर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मन्त्र के उच्चारण के साथ किया जाए। ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ। (e) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अन्तः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मन्त्रोच्चार के साथ स्पर्श करें। ॐ वाँ मे आस्येऽस्तु। (मुख को) ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को) ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को) ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को) ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को) ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को) ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर) आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं। (2) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मन्त्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है। ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि। गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥ ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि। (a) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवन्दन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें। ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। (b) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान। पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आन्तरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगन्ध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश। ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सम्पन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है। (3) जप - गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मन्द हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस प्रकार मन्त्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है। (4) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है। (5) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है। ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥ ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥ भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है। इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चन्दन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें। यह भी देखें - गायत्री मंत्र के इन पांच फायदों को जानकर आप भी रोजाना इस मंत्र का जाप करने लगेंगे - GAYATRI MANTRA LYRICS OM BHUR BHUVA SWAHA | अंग्रेजी और हिंदी | गायत्री मंत्र - गायत्री मंत्र कब ज़रूरी है जाने सही समय के बारे में Read the full article
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