श्रम कानून सुधार क्या है ? हाल ही में चर्चा में क्यों ( Labour Low Reform )
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन को संबोधित करते हुए देश में शीघ्र ही 4 श्रम संहिताओं को लागू किये जाने की आवश्यकता को रेखांकित किया।
भारत में श्रम कानून का विकास
भारत में आधुनिक श्रम कानूनों की शुरुआत को ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1881 में लागू 'फैक्ट्री अधिनियम' से जोड़कर देखा जा सकता है। हालाँकि इसका उद्देश्य ब्रिटिश नियोक्ताओं के हितों की रक्षा करना था। इसके बाद वर्ष 1929 में लागू व्यापार विवाद अधिनियम के तहत हड़ताल से जुड़े अधिकारों को सीमित कर दिया गया।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में श्रम कानूनों में व्यापक बदलाव के प्रयास किये गए जो स्वतंत्रता सेनानियों की विचारधारा, संविधान सभा की बहसों तथा अंतर्राष्ट्रीय संधियों एवं मानवाधिकारों आदि के समन्वय से प्रेरित थे।
वर्ष 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों का प्रभाव श्रम कानूनों पर भी देखने को मिला तथा इसके बाद के सुधारों में श्रम क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप को और कम कर किया गया।
संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान के अध्याय-III (अनुच्छेद 16, 19, 23 और 24) के तहत मौलिक अधिकारों और अध्याय IV (अनुच्छेद 39, 41, 42, 43, 43A और 54) के राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के माध्यम से मानव श्रम की गरिमा के महत्त्व और श्रमिकों के हितों की रक्षा की आवश्यकता से जुड़े प्रावधानों को शामिल किया गया है।
Read More >>>
Read More >>>
Read more >>>
1 note
·
View note
GK and Important Facts for UPSC - iasgkhindi.com
#upsc #iasexams #mainssolved #motivation
1 note
·
View note
धर्म और राज्य क्या है ? अवधारणा और विशेषताएं ( What is the Religion and State
परिचय -
धर्म विश्व के अधिकांश देशों की राजव्यवस्थाओं के समक्ष एक जटिल प्रश्न की तरह उपस्थित रहा है ।
कुछ देशों की राजव्यवस्थाएँ धर्म के अधीन चलती रही हैं तो कुछ देशों में शासन ने धर्म का प्रचंड विरोध किया है ।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है , यहाँ का समाज प्राचीनकाल से ही धर्म के प्रश्न पर प्रायः विनम्र और लचीला रहा है । इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण यही है कि नए - नए धर्मों का जितना विकास भारत में हुआ , उतना कहीं और नहीं ।
सनातन हिंदू परंपरा के भीतर से यहाँ बौद्ध , सिख और जैन धर्म निकले ।
कुछ अत्यंत विरल अपवादों को छोड़ दें तो नए - नए धर्मों की स्थापना से भारतीय समाज में विशेष तनाव नहीं देखे गए ।
धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्मसदभाव ( Religious harmony ) भारतीय परंपरा की सामान्य विशेषताएँ हैं ।
यूरोप की स्थिति इससे अलग थी । वहाँ धर्म के सांगठनिक रूप अर्थात् चर्च का केन्���्रीय महत्त्व था ।
चर्च ने लगभग एक हज़ार साल तक अपना वर्चस्व इस तरह बनाए रखा कि वहाँ न समाज का विकास हुआ , न राजनीति , अर्थव्यवस्था , दर्शन या कला का ।
व्यक्ति की स्वतंत्रता का इतना अधिक दमन किया गया कि व्यक्ति चर्च से परेशान हो उठा ।
चौदहवीं शताब्दी में हुआ पुनर्जागरण ( Renaissance ) , जो आगे चलकर धर्मसुधार आंदोलन ( Reformation ) में रूपांतरित हुआ , अपनी मूल प्रकृति में धर्म के इसी वर्चस्ववादी रूप के प्रति प्रतिक्रियावश पैदा हुआ था ।
इन सब स्थितियों में 1851 ई . में जॉर्ज जैकब होलिओक नामक विचारक ने धर्मनिरपेक्षता अर्थात् ' सेकुलरिज्म ' के विचार की औपचारिक स्थापना की ।
Read More >>>
2 notes
·
View notes