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काव्यस्यात्मा
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kaminimohan · 5 days ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1481.
फ़िक्र-ए-आक़िबत- भविष्य की चिंता
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kaminimohan · 8 days ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1480.
हमने सुनी है
- कामिनी मोहन।
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हमने सुनी है
पानी की पुकार
हमने सुनी है
एक-एक ��ूँद की फु��कार
हमने सुनी है
पानी चढ़ता
और उतरता है
तपती रेत के गुबार में
आँखों में उमड़ता
सूखे जीभ पर फिरता है
नहीं उतरता देह का बुखार
आँखों से देख, कानों से सुन
पानी प्यासा ही रहता है
पानी और प्यास निचोड़कर
पहाड़ खड़ा है आज भी
उसी मोड़ पर
जहाँ से नदी चली थीं उसे छोड़कर।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 21 days ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1479.
वे सब मरुस्थल कर सकते हैं
- कामिनी मोहन। #मरूस्थल
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सभी के जीवन की संगिनी
साँसों की धौंकनी
इसे महसूस कर सकते हैं
आने जाने का हैं वादा
एक ऐसे पेड़ की प्रतिध्वनि
जिसे अपने भीतर सुन सकते हैं
ज्ञात-अज्ञात चीज़ों की तरह
जो अभी अदृश्य है
सुसुम्ना की तरह सक्रिय और उदासीन है
ये विपरीत दिशाओं से आने वाली आत्माएं है
इन्हें लक्ष्यहीन नहीं कह सकते हैं
क्योंकि इस दरख़्त के नीचे
बरसों बरस से हैं कई खड़े
हँसी-ख़ुशी बसा हुआ है पूरा मुहल्ला
गुज़रते क़ाफ़िले इसकी
छाँव में ठहर सकते हैं।
कुछ के पास होती है
सड़कों पर भागती ताकतवर योजनाएँ
वे लेकर चलते हैं तेज़ धार कुल्हाड़ी
वे सब मरुस्थल कर सकते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 26 days ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1478.
विचारों का युद्ध
- कामिनी मोहन।
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नहीं बीतता एक भी क्षण
बिना किसी परिप्रेक्ष्य के
बदलते परिदृश्य को देखते हुए
छवियाँ, रूपक और अवधारणाएँ
कितना स्पष्ट या अस्पष्ट हैं
पता नहीं, पता नहीं कहते हुए
"ईश्वर" की एक छवि
एक मौखिक अवधारणा
तैयार कर ली है।
अभिव्यक्तियों में परिवर्तन करने के लिए
निश्चितता असमर्थ हैं
परिवर्तन केवल छवि और अवधारणाओं के हैं
स्वयं अकथनीय के नहीं
कोई वसंत में रोया तो कोई खिलखिलाया
फूलों से घने खेत में प्रेम गहराया।
दुःख की एक मूर्ति टगी है,
दुख भी एक उत्कृष्ट कृति है
सुख के सपने आकाश में तैरते हैं
सबके सब विचारों का युद्ध लड़ते हैं
पेड़, पौधे, ऊँचे पहाड़
पक्षी और प्रकृति की कविताएँ रचते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 1 month ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1477.
घायल सड़क!
- कामिनी मोहन।
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बिना कुछ सोचे
जिसे सड़कों पर
कभी हमने बचाया था
वह बचाने की टीस
सड़कों पर बिखरा पाया है।
क्रूरता के नए नियम!
सड़कों ने ईजाद कर लिए हैं
कोई धार्मिक, तो कोई आध्यात्मिक,
तो कोई रंगीन शहर लिए है।
यह बनारस है!
यहाँ अंधाधुंध ट्रैफिक की लाइन में
खड़ी गाड़ी बस आगे निकलने की
फ़िराक़ में रहती है
सड़क से जुड़ी पगडंडी पर
कोई संदेश छोड़कर
जा रहा हूँ या कि लौट रहा हूँ
नहीं मालूम
शायद कहीं जाना नहीं है
बस थोड़ा मन बदलने निकला हूँ
सुस्त, घायल और बेदम सड़क पर
चुपचाप टहलने निकला हूँ!
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 1 month ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1476.
नंग-धडंग आदमक़द आदमी के
- कामिनी मोहन।
नंग-धडंग आदमक़द आदमी के
देह पर ख़ाली उघड़ा हुआ दाग़ है
यह तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं
छद्म नहीं है एक भी चिह्न
इनको पाने के लिए दो जगहें हैं
और दो रुके हुए रास्ते
जिस पर सब अदृश्य आकार
सीढियाँ चढ़ रहे हैं
देह के भीतर फट रहे हैं
अनगिन ज्वालामुखी
दरवाज़े की ड्योढ़ी टूट चुकी है
पर इमारत ख़ुद को
बाइज़्ज़त बरी करने को चुपचाप खड़ी है
अंतिम हार है या कि जीत
काग़ज़ी नाव स्थायी पता ढूँढने को
चल पड़ी है।
आत्मा का औज़ार नाख़ून नहीं है
मेरी छद्म आशाएँ
अपना बढ़ना नहीं छोड़ रही हैं
दोषारोपण करते हुए
एक भीतर और एक बाहर की ओर
सब चुन-चुनकर ख़त्म हो रही हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 1 month ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1475
कौन है! - कामिनी मोहन
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हम सारे संसार से मिलते हैं
नहीं मिलते तो अपने आप से
सबके बारे में जानते हैं
नहीं जानते तो अपने बारे में
अपने शरीर को भी नहीं जानते
न अपने रूप को जानते हैं
न स्वरूप को पहचानते हैं।
न मन को जानते हैं
न मन के पीछे छुपी बुद्धि को जानते हैं
बुद्धि के पीछे दृष्टा के रूप में
बैठी आत्मा को भी नहीं जानते हैं।
हर वक़्त कोई न कोई
ला-जवाब ज़िंदगी की ख़ामोशी में
किसी न किसी से मिल रहा है
घेरते द्वंद्व के बीच
संकल्प-विकल्प से बिछड़ रहा है
तो यहाँ
कौन है निर्विकार, जितेंद्रिय !
कौन है ज्योतिर्गमय, आत्मजयी!
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 3 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1474.
अपनी मर्ज़ी से - © कामिनी मोहन।
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आँसुओं के थम जाने पर
बचती है सिर्फ़, एकटक देखती आँखें
नज़र में साफ़ ठहरता नहीं कुछ भी
मौन रहती हैं मन की आँखें
एक ने कहा
यह क्रिया प्रेम के कारण है
इसे समझा जाए
दूसरे ने कहा नहीं
यह मोह के कारण है
इसे धिक्कारा जाए
मस्तिष्क की है कारसाज़ी
ज़्यादा मशक़्क़त किया जाएँ
मन को मन में डूबोकर
चलते पाँव को रोका जाए
ये सब अपनी मर्ज़ी से हैं तो
इस दुनिया में कब कौन आए
और कौन छोड़कर चला जाए
कोई तो समझे, कोई तो बताएँ।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 3 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1473.
गुरुत्वाकर्षण के विपरित
- © कामिनी मोहन।
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कभी दो-राह से
कभी तिराहे से
और कभी चौराहे पर रुककर
पूछते हैं, अपनी मंज़िल का पता
जीपीएस पर होता नहीं भरोसा
न जाने किधर का रस्ता दे बता।
रास्ते होते हैं प्रारम्भ
या ख़त्म
यह कह सकता नहीं
गुज़रना है
चहल-पहल देखते हुए
अंतिम पड़ाव से पहले
रुक सकता नहीं।
जानता हूँ
पलकों में छुपे यात्रा कर रहे
पानी का है गुरुत्वाकर्षण
लेकिन, जब वह किसी ऐसे के लिए बहे
जिसका इन राहों से लौटना असंभव हो
तो वह गुरुत्वाकर्षण के विपरित
बह चलता है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 4 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1472.
मशक़्क़त
- © कामिनी मोहन।
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मस्तिष्क की मशक़्क़त में
मन ने मन को खूँटी पर टाँगा
न ग़ज़ल में न कविता में
प्रायश्चित का भाव नहीं जागा,
इंतज़ार के हिस्से की ज़मीन
सफ़र ने किसी से कब मांगा
छोटी या लम्बी कविता में
बस बुनते रहे प्रेम का धागा।
- © कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 4 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1471.
रोएँ चाहे चिल्लाएँ
- © कामिनी मोहन।
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रोएँ चाहे चिल्लाएँ
आदि, अंत का रहता है मेल
दिया जले तभी तक
है जब तक बाती संग तेल
मस्तिष्क की है सब कारसाज़ी
झेल सके तो झेल
मशक़्क़त सिरहाने रख कर सोना
हाय राम! अनाड़ी का है खेल
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 4 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1470.
जीने की चाहत
- कामिनी मोहन।
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जब शून्यता फैल जाती है
तो रास्ते बदल जाते हैं
इस पार और उस पार के द्वंद्व में
खगोल इधर से उधर घूम जाते हैं
उगने और कटने का चलन है
प्रेम-प्यार के रस्ते बेतरतीब हुए जाते हैं
अजीब नहीं, कोई अजायबघर यहाँ
बस तिलिस्म के भूखण्ड कम्पकम्पाते हैं
चेहरा है, कोई आता और कोई जाता है
हम बस चेहरे देखते रह जाते हैं
ग़म नहीं कोई, जीने की चाहत हैं ये
चेहरों पर उभरी कविताओं के
लोग क़सीदे लिखते-पढ़ते जाते हैं।
- © कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 4 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1469.
पूर्णता की चाह
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हमारी धड़कन की क़िताब में
ढेरों पन्ने हैं
इसे पूरी पढ़नी पड़ती है
न पढ़ सके तो,
यह अधूरी रह जाती है
इनमें विलुप्त हो जाने वाली
सबसे ख़ूबसूरत चीज़ें
हक़ीक़त में चीज़ों की पूर्णता नहीं है
वो यादें, वो उर्जा
वो स्थान, वो चित्र,
भावनाएँ, क्षण, मुस्कुराहट
और हँसी की पूर्णता है।
धड़कन के बंद होने पर
उम्मीद की अपूर्णता के
पन्ने फड़फड़ाते हैं
क्योंकि, कारण के खत्म होने से
पूर्णता की चाह मरा नहीं करती है।
- © कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 5 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1468.
महाकुम्भ का अमृत-जल
- कामिनी मोहन।
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समय की अनगिन परत के नीचे
जन्म और मृत्यु की हैं यादें
नम आँखों से रुकती नहीं
लहरों-सी फ़रियादे
लालसाओं के बीचों-बीच
ख़ाली जगह समन्दर से हैं बड़ा
वीरान रेगिस्तान में
तपते हुए बरसों-बरस से हैं खड़ा
प्रश्न का बोझ हैं कन्धों पर
काग़ज़ी सारे हल है
इतिहास छपता काग़ज़ पर
पाप, पुण्य और प्रारब्ध ���र्मों का बल है
प्रारब्ध, क्रियमाण और संचित कर्म धोने को
गंगा, यमुना, सरस्वती की
लहरों पर हलचल है
आत्म निर्मल हो सबका
त्रिवेणी-महाकुम्भ का अमृत-जल है
यह प्रेम-योग है
यहाँ ठहरता गगन है
यह देख कविता
अपने आप में मगन है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 5 months ago
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Elvis Presley - Marguerita 1963 Kamini Mohan
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kaminimohan · 5 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1467.
छोटा-सा सारांश
- © कामिनी मोहन।
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एक पुस्तक तैयार किया है, जिसके
हर पृष्ठ पर अनगिनत शब्द
पैराग्राफ्स बदलते रहे
वाक्यांशों के अर्थ विस्तार पाते रहे
बीच काग़ज़ पर एक बोलती तस्वीर है
जिसके कैप्शन
पंक्तियों के बीच
उलझे शब्दों से परे ले जाते रहे
अभी भी काफ़ी ख़ाली जगह है
इसलिए सोचता हूँ, क्यूँ न
प्रस्तावना और निष्कर्ष के लिए
आमुख और सन्दर्भ के बीच की जगह
ख़ाली ही रहे
युगों तक साँस आती जाती रहे
शब्दों को रगों में
लयबद्ध कर गुनगुनातीं रहे
हवा के पंख लगाकर
कविता विचरण कर पृष्ठों पर
पुष्प की तरह खिलखिलातीं रहे
जब मेरी प्रस्तुति के सारांश
तुम समझ जाओ
तो, तुम भी इस पुस्तक के पृष्ठ पलटना
तुम्हें छोटी-सी कविता का
छोटा-सा सारांश मिलेगा
तुम उसे अगले पृष्ठ पर अंकित करना
जिसे अब तक किसी पृष्ठ पर
मैंने दर्ज नहीं किया है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 5 months ago
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1466.
रीलों का जल्वा
- © कामिनी मोहन।
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चीज़ों के ज़ेर-ओ-ज़बर में
दुनिया फँसी है
जन्नत के ख़्वाबों की
झड़ी लगी है
रीलों की जल्वा-नुमाई
है कुछ ऐसी
पटरी बग़ैर रेल स्टेशन से
लहराती चली है
इंतिहा अब ये हैं कि
लफ़्ज़ों में ग़ज़ल उलझी पड़ी है
कँवल की हँसी की सूरत नहीं है
लगता है,
खिलने से पहले ही झड़ने की पड़ी है
इत्तिफ़ाक़न मंज़र बदले तो कैसे
यहाँ हर आदमी को आफ़रीं सुनने की पड़ी है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
ज़ेर-ओ-ज़बर- बेतरतीब, अस्त-व्यस्त होना।
आफ़रीं- सृष्टि
जल्वा-नुमाई - अभिव्यक्ति
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