pankajbindas1997
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pankajbindas1997 · 10 months ago
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मल्या खोला भवान सिंघा नौना मा गे पुजे छो।
बलि प्रथा मनुष्य की हिंसक अभिव्यक्ति का परिणाम है, हिंसा उसी से की जा सकती है जो अपेक्षाकृत कमज़ोर हो। हिंसा मानव-मन में इतनी गहरी प्रविष्ट है कि वह धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा बन गई। था तो मानव जानवर ही इसलिए मानव का हिंसक होना विस्मयकारी नहीं है। मानव- विकास के इतिहास में अनेक बुद्ध पुरुषों ने मानव- चेतना के ऊध्वर्गमन पर अपनी ऊर्जा व्यय की है, उन्होंने चेतना को सर्वोच्च तल प्रदान करके मोक्ष का द्वार खोला। आज का मानव जानवर नहीं कहा जा सकता, आज का मानव न केवल सभ्य अपितु विकसित मानव है। यूरोप से मानवाधिकारों की गूँज समूचे विश्व में फैली, आधा विश्व लोकतांत्रिक हो गया। आज के समय में जानवरों के प्रति हमारा कर्तव्य, जानवरों के अधिकारों पर हमें विचार करना चाहिए।
जानवर भी ईश्वर की अभिव्यक्ति है, हम ईश्वर की अभिव्यक्ति को अपनी रूढ़ी धारणाओं और नीच स्वार्थ के लिए अपमानित नहीं कर सकते। आज के समय में ईश्वर के नाम पर हो रहे पापाचार समाज की बड़ी समस्या बन गई है, इस पापाचार से मुक्ति की युक्ति हमें खोजनी पड़ेगी।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 10 months ago
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प्रेम एक असाध्य मर्ज़ है, जिसका समाधान न दवाओं में है और न दुआओं में ही। समाधान यदि कहीं है तो वह है निज प्रेमी-आलिंगन में। मगर प्रेमी ही जब विमुख हो जाए तो फिर समाधान उसी तरह धूमिल हो जाते हैं जैसे हाइवे के किनारे सूनी पड़ी इमारत के शीशे धूल से धूमिल हो जाते हैं। निज प्रेमी-मिलन की बरसात निज जीवन को रेगिस्तान समझती है, निज प्रेमी के अतिरिक्त प्रेम मर्ज़ की औषधि नहीं, इसलिए तड़पने से अच्छा मर जाना ही हितकर लगता है। उसी तरह मर जाना जैसे परवाना शमा में जलकर मर जाता है, मछली पानी बिन मर जाती है, चातक बरसा जल बिना मर जाता है तथा गरजती, टकराती नदी समुद्र में समाकर समाप्त हो जाती है।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 11 months ago
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मैं पूछुलू त्वै.....
विप्रलंभ जब शाश्वत हो जाए तो प्रेम महसूसने वाली चेतना राधा हो जाती है। राधा कृष्ण की प्रतीक्षा में दैनंदिन अविरल आँसू बहाती है, हालांकि उसे उद्धव से ही संतुष्ट होने को मजबूर किया जाता है। प्रेमी को पाने की चाह जब हृदय में ही ख़ुदकुशी करती है तो चाह का मृतक शरीर न दफ़न होना चाहता है न ही जलकर पंच तत्वों में लीन। वो लावारिस लाश सी संदिग्ध बनी हुई हृदय को कचोटती है, हृदय बेचारा अयोग्य और लापरवाह प्रशासन सा दुखी रहता है। जब प्रेमी को पाना इस जन्म में संभव नहीं होता तो आदर्श प्रेमी दूसरे जन्म की प्रतीक्षा करता है, तब चाहे उसे गौरा बनना पड़े या मीरा। इस जन्म में वह मात्र सरस कल्पनाओं के कर ही क्या सकता है? कल्पना जब कवि के वश में है तो वह कल्पना क्यों ही न करे। प्रेमिका दूर है, मिलन की प्रायिकता शून्य है, प्रेमी कुछ कहना चाहता है; मगर कहे पर कहे कैसे?
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 11 months ago
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घनघोर जंगल मा।
प्रेम में होना किसी व्यक्तित्व का सबसे उन्नत संस्मरण होता है, प्रेम साध्य है जबकि प्रेमी साधन, यह बात विपरीत सी मालूम होती है। प्रेम हमारे भीतर होता है इसलिए जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो हम प्रेमी के अंतर्गत को ही झंकृत करते हैं, यह झंकार प्रेम की तरंगों को पैदा करती है। प्रेम साध्य है क्योंकि प्रेम रहेगा, प्रेम शाश्वत है, प्रेमी हर युग में इसे प्राप्त करने का साधन बनता है।
प्रेम में आकृष्ट चित्त अपनी प्रेमिका को प्रकृति के विभिन्न उपादानों में अभिव्यंजित करता है, और उसके पास उपाय ही क्या है? अंतर्मन में प्रेमिका तो बाह्य जगत में प्रकृति। जंगल से लेकर दंगल तक, दंगल से लेकर मंगलकारी कृत्यों तक, सब में प्रेमिका का आरोप, प्रेमिका की तीखी स्मृति को परिदर्शित करती है। प्रेम-आरूढ़ चित्त में प्रेमिका के शिवाय केवल शिव ही हो सकता है यानी कल्याण और सिर्फ कल्याण।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 11 months ago
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चंपा चमेली नीचि। Bindas Poetry {Pankaj Bindas}
विभिन्न उपमाओं को फीका करते हुए अंततः अपनी पसंदीदा उपमा का आरोप प्रिय पर करना एक परंपरा रही है, उपमेय अपना उपमान चुनते हुए किसी स्वयंवर की भांति सब की उपेक्षा कर किसी एक से अपेक्षा कर बैठती है, नाना प्रकार के फूलों, पक्षियों और पूजन सामग्रियों से अपने प्रिय का सौंदर्य बखान नया प्रयोग हो सकता है, साथ ही साथ यह प्रयोग शुद्ध प्रेम की आत्म-भूमि पर ही संभव है।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 11 months ago
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मैं बेदाग़ हूँ मेरे आगे आईना है
मेरे पास मेरी प्यारी बहना है।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 1 year ago
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आज का अशांत समय मा शांति उपदेश उबल्दा पाणी मा योक कण चिन्नी डांळ जनि च। पूरी दुनिया विश्वयुद्ध का मुख पर च, क्वी भी अफू कम नी चितोणू। हमारी गौंओं की हालत भी बहुत अच्छी नी, गौं मा क्वी भुला त दुनिया मा क्वी पुतिन सब एक ही थाली का चट्टा-बट्टा छन। हालांकि महत्वकांक्षा छोटी-बड़ी ह्वै सकद। हल्ला, झगड़ा,लड़ै बीमार मन का प्रोडक्ट छन, मन बीमार रोलु त हल्ला हूणू रोलु। असल मा मन कू स्वस्थ रोण बहुत जरूरी च, स्वस्थ मन की उपज च- फूल, प्रेम, भाईचारा, मदद और शांति।
कविता का माध्यम से मेरी छोटी सी कोशिश उबल्दा पाणी मा योक कण चिन्नी जनि च लेकिन फिर भी कोशिश रोली कि उबल्दा पाणी कू क्वी परमाणु योक कण चिन्नी का संपर्क मा ऐते पूरा पाणी तैं बतो कि मैंते धन्य ह्वैगी तुम भी धन्य ह्वै सकद, सुधिरि जा।
पंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 1 year ago
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सोशल मीडिया (कविता)
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फेसबुक की गलियों में
वट्सऐप के बाजार में
स्टेटस, रील्स की दुकानों पर
इतनी चकाचौंध है कि
��ृष्टि पर्याप्त नहीं
अंतर्दृष्टि से चलना होगा
जैसे हमारी दृष्टि
नहीं देख सकती 
हमारा ही फेस
बिना किसी उपादान के
और उपादान-
दृष्टिहीन करने के हैं
तो अपनी अंतर्दृष्टि खोलो
आप महसूसोगे-
आपको कौन चला रहा है?
आपका फोन चला रहा है।
     @पंंकज बिंदास
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pankajbindas1997 · 1 year ago
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कक्षा पांचवीं (संस्मरण)
हमारी आज की यथार्थता की कल्पना दस साल पहले किसी ने न की होगी;कौन क्या करेगा, कहाँ रहेगा किसी ने न समझा होगा और दस साल बाद की हमारी यथार्थता की भविष्यवाणी भी कोई नहीं कर सकता.
हम कक्षा पाँचवी में तेरह थे:आठ लड़के और पाँच लड़कियाँ.हम में से सभी हेड थे और एक बॉसगिरी सभी के स्वभाव को घेरी थी.मेरा एक दोस्त बंशीवाला है:वो जी.एम तथा कक्षा का मॉनिटर था,पाँचों लड़कियाँ प्रायः प्रार्थना वादन की  साक्षात देवियाँ थी, गंगाराम भाई लकड़ियाँ इकट्ठी करवाने वाला मैनेजर था क्योंकि सरकारी स्कूल में खाना बनने की योजना है और खाना पकाने के लिए लकड़ियाँ ले जानी पड़ती है.पाँच वालों को बिना लकड़ी के स्कूल आने की विशेष छूट थी.
स्कूल का सफाई मंत्रालय हमारे ही हाथों में था,हम तब सफाई करवाने में विश्वास रखते थे,स्वयं करने में नहीं.नटवर घंटी बजाने का बड़ा शौकीन था, घंटी बजाने के लिए उसने बहुत संघर्ष किया:कक्षा चार वालों में अपना खौफ जमाया,अपने नित्य दिन के सवा नौ से पोने दस बजे तक के समय को घंटी के सामने ही बैठकर गुजारा,उसमें घंटी बजाने के प्रति असीम धैर्य भी था तो त्याग भी.
इंटरवेल में खाना खाने के बाद जूठी थाली धोने की पंक्ति हम से ही शुरू होती थी,चाहे सबसे आखिरी में ही क्यों न खाया हो हमारे लिए विशेष प्रावधान था.चोर-पुलिस खेलते हुए हम सदैव चोर ही रहे और कक्षा चार वालों को ठगाते रहे,छुट्टी होने पर हम ही विद्यालय बंद करने वाले होते थे,गुरुजी के लिए दाल-सब्जी और घी-दूध का बन्दोबस्त करना हमारा ही ठेका था,कभी अचानक किसी की तबीयत खराब हो जाय तो हम ही संकटमोचन थे,कुल मिलाकर हम बहुत कुछ थे.
डोट पेन से लिखना उन दिनों ऐसा अपराध माना जाता था जैसा कि किसी पुलिस वाले को ऑन ड्यूटी थप्पड़ मारना, लेकिन फिर भी दो-चार ऐसे भी थे जो स्कूल में डोट पेन लाया करते थे; प्यारेलाल भाई रामपाल भाई का नाम उस लिस्ट में उल्लेखनीय था,हालांकि डोट पेन से लिखने का दुस्साहस वे भी न कर पाते थे महज एक शौक था,एक जज्बा था किसी के आगे न झुकने का,एक दिखावा था कि हम भी डोट पेन खरीद सकते हैं.
पंकज बिंदास
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