55. दुष्चक्र और गुणी चक्र
दुष्चक्र और गुणी चक्र घटनाओं का एक क्रम है जहां एक घटना दूसरे की ओर ले जाती है और परिणामस्वरूप क्रमश: आपदा या खुशी में परिवर्तित हो जाती है। इसे उस तरह से समझने कि जरूरत है, यदि खर्च आय से अधिक है तो व्यक्ति उधार और कर्ज के जाल में फंस जाता है, तो यह एक दुष्चक्र है। यदि व्यय आय से कम है, जिसके परिणामस्वरूप बचत और धन का संचय होता है, तो यह एक गुणी चक्र है। श्रीकृष्ण इन चक्रों का उल्लेख श्लोक 2.62 से 2.64 में करते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडऩे से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है’’ (2.62-2.63)। यह पतन का दुष्चक्र है।
दूसरी ओर, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘अपने अधीन किये हुए मन वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ मन की शांति और प्रसन्नता को हासिल करता है’’ (2.64)। यह और कुछ नहीं बल्कि शांति और आनंद का एक गुणी चक्र है।
हम सभी दैनिक जीवन में इन्द्रिय विषयों के बीच घूमते रहते हैं। हम इन इंद्रिय विषयों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह हमारी यात्रा की दिशा निर्धारित करता है।
गुणी चक्र के मामले में, व्यक्ति इंद्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष से मुक्त हो जाता है, जबकि एक दुष्चक्र में व्यक्ति राग या द्वेष के प्रति लगाव विकसित करता है। यह यात्रा द्वेष का त्याग करते हुए शुरू करना आसान है, इस अहसास के साथ कि द्वेष एक प्रकार का जहर है जो अंतत: हमें नुकसान पहुंचाएगा। जब द्वेष का त्याग हो जाता है, तो इसका ध्रुवीय विपरीत ‘राग’ भी छूट जाता है। यह सच्चा और बिना शर्त वाले प्यार की अवस्था है जैसे कि एक फूल सुंदरता और सुगंध बिखेरता है।
राग और द्वेष की अनुपस्थिति गीता में एक मूल उपदेश है और श्रीकृष्ण हमें परामर्श देते हैं कि खुद को सभी प्राणियों में, सभी प्राणियों को खुद में देखें और अंत में हर जगह श्रीकृष्ण को देखें (6.29)। यह एकता हमें द्वेष छोडऩे में मदद करेगी व हमें आनंदित करेगी।
0 notes
54. इंद्रियों की स्वचालितता
श्रीकृष्ण अर्जुन को सावधान करते हुए कहते हैं कि, ‘‘अशांत इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं’’ (2.60)। यह श्लोक उत्तेजना से भरी इंद्रियों की स्वचालितता के बारे में है।
सबसे अच्छा उदाहरण एक धूम्रपान करने वाले का है जो धूम्रपान के नुकसान से अच्छी तरह अवगत है, लेकिन इसे छोडऩा बेहद मुश्किल है और असलियत यह है कि जब तक उसे पता चलता है, सिगरेट पहले ही जल चुकी होती है। कोई भी जो सडक़ पर हिंसक रोष में (रोड रेज) या अपराध में शामिल है, यह प्रमाणित करता है कि यह क्षण भर के क्रोध में हुआ न कि जानबूझकर। ऐसा किसी के भी साथ होता है जो कार्यस्थल पर या परिवार में कठोर शब्द बोलता है और उसके बारे में पछताता रहता है क्योंकि उनका ऐसा करने का इरादा नहीं था। इन उदाहरणों का अर्थ यह है कि इंद्रियां हमें अपने वश में ले लेती हैं और हमें कर्मबंधन में बांध देती हैं।
हमारे प्रारंभिक वर्षों के दौरान, मस्तिष्क में अप्रयुक्त न्यूरॉन चलने जैसी स्वचालित गतिविधियों की देखभाल करने के लिए हार्ड वायरिंग नामक जोड़ बनाते हैं क्योंकि यह मस्तिष्क की बहुत सारी ऊर्जा को बचाता है। जीवन के उत्तरार्ध में कौशल और आदतों को हासिल करने के मामले में भी ऐसा ही होता है।
मेहनत और ऊर्जा खर्च करके बनाया हुआ आवश्यक हार्ड वायरिंग इतना शक्तिशाली हो जाता है कि इसके आधार पर बनी आदतों को दूर करना बेहद मुश्किल होता है। न्यूरोसाइंस का कहना है कि हार्ड वायरिंग को तोडऩा असंभव है परन्तु एक नया हार्ड वायरिंग बनाना आसान है।
श्रीकृष्ण इसी प्रक्रिया का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इंद्रियां इतनी शक्तिशाली हैं कि वे एक बुद्धिमान व्यक्ति के दिमाग को भी हर सकती हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति को सर्वशक्तिमान के सामने आत्मसमर्पण करना चाहिए ताकि इंद्रियों की स्वचालितता पर काबू पाया जा सके (2.61)। इंद्रियों से संघर्ष किए बिना जागरूकता के साथ सर्वशक्तिमान परमात्मा को समर्पण करना है, जिससे इन्द्रियों की स्वचालितता को नियंत्रित करने हेतु आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है।
0 notes
53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले व्यक्ति से इन्द्रिय वस्तुएं दूर हो जाती हैं, लेकिन रस (लालसा) जाती नहीं और लालसा तभी समाप्त होती है जब व्यक्ति सर्वोच्च को प्राप्त करता है’’ (2.59)। इंद्रियों के पास एक भौतिक यंत्र और एक नियंत्रक है। मन सभी इंद्रियों के नियंत्रकों का एक संयोजन है। श्रीकृष्ण हमें उस नियंत्रक पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते हैं जो लालसा को बनाए रखता है।
श्रीकृष्ण रस शब्द का प्रयोग करते हैं। पके हुए फल को काटने के बाद उसे निचोडऩे तक रस दिखाई नहीं देता। दूध में मक्खन के साथ भी ऐसा ही होता है। इंद्रियों में मौजूद आंतरिक लालसा ऐसा ही रस है।
अज्ञानता के स्तर पर, इन्द्रियाँ इन्द्रिय विषयों से जुड़ी रहती हैं और दु:ख और सुख के ध्रुवों के बीच झूलती रहती हैं। अगले चरण में, बाहरी परिस्थितियों जैसे पैसे की कमी या डॉक्टर की सलाह के कारण मिठाई जैसी इंद्रिय वस्तुएं छोड़ दी जाती हैं लेकिन मिठाई की लालसा बनी रहती है। बाहरी परिस्थितियों में नैतिकता, ईश्वर का भय या कानून का डर या प्रतिष्ठा का ख्याल, बुढ़ापा आदि शामिल हो सकते हैं। श्रीकृष्ण अंतिम चरण के बारे में संकेत दे रहे हैं जहां लालसा ही पूर्ण रूप से खत्म हो जाती है।
श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत (11:20:21) में एक व्यवहारिक परामर्श देते हैं, जहां वे इंद्रियों की तुलना जंगली घोड़ों से करते हैं। इन घोड़ों को एक प्रशिक्षक द्वारा नियंत्रित किया जाता है जो उनके साथ कुछ समय के लिए दौड़ता है। जब वह उन्हें पूरी तरह से समझ लेता है, तो वह अपनी इच्छा के अनुसार उन पर सवार होने लगता है।
यहां ध्यान देने योग्य दो मुद्दे हैं कि प्रशिक्षक एक बार में घोड़ों को नियंत्रित नहीं कर सकता क्योंकि वे उस पर हावी हो जाएंगे। इसी तरह, हम इंद्रियों को एकदम नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। हमें कुछ समय के लिए उनके व्यवहार के अनुसार चलने की आवश्यकता है। जब हम उन्हें अच्छी तरह से समझ लेते हैं तो उन्हें नियंत्रण में ला पाएंगे। दूसरे, जब हम इन्द्रियों के प्रभाव में होते हैं उस समय भी जागरूक रहना है कि हमें इन्द्रियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
जागरूकता और लालसा एक साथ मौजूद नहीं हो सकती। जागरूकता में हम लालसाओं की चपेट में नहीं आ सकते क्योंकि ऐसा अज्ञानता में ही होता है।
0 notes
52. समेटना ही बुद्धिमानी
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है’’ (2.58)।
श्रीकृष्ण इंद्रियों पर जोर देते हैं क्योंकि यह हमारी अंतरात्मा और बाहरी दुनिया के बीच के प्रवेशद्वार हैं। वे सलाह देते हैं कि हमें अपनी इंद्रियों को वापस लेना चाहिए जब हम खुद को इंद्रियों की विषयों से जुड़ते हुए देखते हैं जैसे कि प्रतीकात्मक कछुआ खतरे का सामना करने पर अपने अंगों को समेट लेता है।
इंद्रियों के दो भाग होते हैं। एक इंद्रिय यंत्र है जैसे कि नेत्रगोलक और दूसरा, मस्तिष्क का वह भाग जो नियंत्रक है, जो इस नेत्रगोलक को नियंत्रित करता है।
संवेदी बातचीत दो स्तरों पर होती है। एक इन्द्रिय वस्तुओं की लगातार बदलती बाहरी दुनिया और इंद्रिय यंत्र (नेत्रगोलक) के बीच है जो विशुद्ध रूप से स्वचालित है। जब फोटॉन नेत्रगोलक तक पहुंचते हैं तो अपने भौतिक गुणों के अनुसार प्रभाव डालते हैं। दूसरी बातचीत नेत्रगोलक और उसके नियंत्रक के बीच होती है।
देखने की इच्छा ही नेत्र के विकास का कारण है और वह इच्छा अभी भी इन्द्रिय के नियंत्रक भाग में विद्यमान है। इसे प्रेरित धारणा के रूप में जाना जाता है जहां हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं और जो हम सुनना चाहते हैं उसे सुनते हैं। जैसे क्रिकेट के खेल में हमें लगता है कि, विपक्ष के पक्ष में अधिक निर्णय लिए जा रहे हैं और इससे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अंपायर अनुचित है।
जब श्रीकृष्ण इन्द्रियों का उल्लेख करते हैं, तो वह नियंत्रक भाग के बारे में बात कर रहे हैं जो इन्द्रियों में इच्छा उत्पन्न करता है। इसलिए जब हम अपनी इंद्रियों को शारीरिक रूप से बंद कर देते हैं, तब भी मन अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग हमारी इच्छाओं को जीवित रखने के लिए करता है क्योंकि मन इन सभी नियंत्रकों के संयोजन के अलावा कुछ भी नहीं है।
इस वैज्ञानिक श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण हमें इंद्रियों के भौतिक भाग से नियंत्रक को अलग करने के लिए मार्गदर्शन कर रहे हैं ताकि हम हमेशा उत्तेजक या निराशाजनक बाहरी स्थितियों से परम स्वतंत्रता (मोक्ष) प्राप्त कर सकें। बुद्धिमानी यह जानने में है कि किसी भी स्थिति में कब समेटना है।
0 notes
51. घृणा भी एक बंधन है
हम किसी स्थिति, व्यक्ति या किसी कार्य के परिणाम के लिए तीन तरह के वर्गीकरण करते हैं। ये हैं शुभ, अशुभ या कोई वर्गीकरण नहीं करना। श्रीकृष्ण इस तीसरी अवस्था का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि एक बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो शुभ की प्राप्ति पर खुशी से नहीं भरता है और न ही वह अशुभ से घृणा करता है (2.57)। वह हमेशा बिना आसक्ति के रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि स्थितप्रज्ञ विभाजन को छोड़ देता है और तथ्यों को तथ्यों के रूप में लेता है, क्योंकि विभाजन सुख और दु:ख की ध्रुवीयताओं का जन्मस्थान है (2.50)।
इस श्लोक का आचरण कठिन है क्योंकि यह नैतिक और सामाजिक संदर्भों में भी तथ्यों को तुरंत शुभ या अशुभ के रूप में विभाजन करने की हमारी प्रवृत्ति के विपरीत है। जब कोई बुरे के रूप में चिन्हित किए गए किसी स्थिति या व्यक्ति का सामना करता है, तो घृणा और विमुखता स्वचालित रूप से उत्पन्न होती है। दूसरी ओर, स्थितप्रज्ञ इसे वर्गीकृत नहीं करता और इसलिए उनके लिए नफरत का सवाल ही नहीं उठता है। इसी प्रकार शुभ होने पर स्थितप्रज्ञ उत्तेजित भी नहीं होता है।
उदाहरण के लिए, हम सभी समय के साथ उम्र बढऩे की प्राकृतिक प्रक्रिया से गुजरते हैं जहाँ सुंदरता, आकर्षण और ऊर्जा खो जाती है। ये केवल प्राकृतिक तथ्य हैं, लेकिन अगर हम उन्हें अप्रिय या बुरा कहते हैं, तो यह वर्गीकरण दु:ख लाएगा। चोट या बीमारी के मामले में भी ऐसा ही होता है, जहाँ इन्हें बुराई के रूप में चिन्हित करने से दु:ख मिलता है। निश्चित रूप से, यह न तो इनकार है और न ही बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करना है।
स्थितप्रज्ञ एक शल्य चिकित्सक (सर्जन) की तरह स्थितियों को संभालता है, जो जांच के दौरान सामने आए तथ्यों के आधार पर शल्य चिकित्सा (सर्जरी) करता है। यह एक सुपर-कंडक्टर की तरह है जो पूरी बिजली को गुजारती है।
हम परिस्थितियों, लोगों या कर्मों से या तो जुड़ जाते हैं या उनसे विमुख हो जाते हैं। जुडऩे को आसक्ति समझना आसान है, लेकिन विमुख होना भी एक प्रकार की आसक्ति है, परन्तु घृणा के साथ। जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ अनासक्त है, तो उनका अर्थ है कि वे आसक्ति और विरक्ति (घृणा) दोनों को छोड़ देते हैं।
0 notes
50. राग, भय और क्रोध
श्री���ृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ वह है जो न तो सुख से उत्तेजित होता है और न ही दु:ख से विक्षुब्ध होता है (2.56)। वह राग, भय और क्रोध से मुक्त होता है। यह श्लोक 2.38 का विस्तार है जहां श्रीकृष्ण सुख और दु:ख; लाभ और हानि; और जय और पराजय को समान रूप से मानने को कहते हैं।
हम सभी सुख की तलाश करते हैं लेकिन दु:ख अनिवार्य रूप से हमारे जीवन में आता है क्योंकि ये दोनों द्वंद्व के जोड़े में मौजूद हैं। यह मछली के लिए चारा की तरह है जहाँ चारा के पीछे कांटा छिपा होता है।
स्थितप्रज्ञ वह है जो इन ध्रुवों को पार कर द्वंद्वातीत हो जाता है। यह एक जागरूकता है कि जब हम एक की तलाश करते हैं, तो दूसरा अनुसरण करने के लिए बाध्य होता है- भले ही एक अलग आकार में या कुछ समय बीतने के बाद।
जब हम अपनी योजना के साथ सुख प्राप्त करते हैं, तो अहंकार प्रफुल्लित हो जाता है, जो उत्तेजना है, लेकिन जब यह दु:ख में बदल जाता है, तो अहंकार आहत हो जाता है, जो विक्षुब्धता है। यह अहंकार के खेल के अलावा और कुछ नहीं है। स्थितप्रज्ञ इस बात को समझकर अहंकार ही छोड़ देता है।
जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ राग से मुक्त है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि स्थितप्रज्ञ वैराग्य की ओर बढ़ता है। वह इन दोनों से परे की अवस्था में रहता है। हमें इस बात को समझने में कठिनाई होती है क्योंकि ध्रुवों से परे की स्थिति का वर्णन करने के लिए भाषाओं में शायद ही कोई शब्द है।
स्थितप्रज्ञ भय और क्रोध से मुक्त है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे उनका दमन करते हैं। वे अपने आप में कोई जगह नहीं छोड़ते ताकि भय और क्रोध प्रवेश करके अस्थायी या स्थायी रूप से रह सके।
भय और क्रोध, भविष्य या अतीत के, वर्तमान पर प्रक्षेपण हैं। ऐसे में इन दोनों के लिए वर्तमान समय में कोई जगह नहीं है। जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ भय और क्रोध से मुक्त है, तो इसका अर्थ है कि वे वर्तमान क्षण में रहते हैं।
0 notes
49. स्थितप्रज्ञ आंतरिक घटना है
अर्जुन के प्रश्न के जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, स्थितप्रज्ञ स्वयं से संतुष्ट होता है (2.55)। दिलचस्प बात यह है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न के दूसरे भाग का जवाब नहीं दिया कि स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, बैठता है और चलता है।
‘स्वयं के साथ संतुष्ट’ विशुद्ध रूप से एक आंतरिक घटना है और बाहरी व्यवहार के आधार पर इसे मापने का कोई तरीका नहीं है। हो सकता है, दी गई परिस्थितियों में एक अज्ञानी और एक स्थितप्रज्ञ दोनों एक ही शब्द बोल सकते हैं, एक ही तरीके से बैठ और चल सकते हैं। इस वजह से स्थितप्रज्ञ की हमारी समझ और भी जटिल हो जाती है।
श्रीकृष्ण का जीवन स्थितप्रज्ञ के जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण है। जन्म के समय वह अपने माता-पिता से अलग हो गए थे। उन्हें माखन चोर के नाम से जाना जाता था। उनकी रासलीला, नृत्य और बांसुरी पौराणिक है, लेकिन जब उन्होंने वृंदावन छोड़ा तो वे रासलीला की तलाश में कभी वापस नहीं आए। वह जरूरत पडऩे पर लड़े, लेकिन कई बार युद्ध से बचते रहे और इसलिए उन्हें रण-छोड़-दास के रूप में जाना जाता था। उन्होंने कई चमत्कार दिखाए और वह दोस्तों के दोस्त रहे। जब विवाह करने का समय आया तो उन्होंने विवाह किया और परिवारों का भरण-पोषण किया। चोरी के झूठे आरोपों को दूर करने के लिए समंतकमणि का पता लगाया और जब गीता ज्ञान देने का समय आया तो उन्होंने दिया। वह किसी साधारण व्यक्ति की तरह मृत्यु को प्राप्त हुए।
सबसे पहले, उनके जीवन का ढांचा वर्तमान में जीना है। दूसरे, यह कठिन परिस्थितियों के बावजूद आनंद और उत्सव का जीवन है, क्योंकि वह कठिनाइओं को अनित्य मानते थे। तीसरा, जैसा कि श्लोक 2.47 में उल्लेख किया गया है, उनके लिए स्वयं के साथ संतुष्ट का अर्थ निष्क्रियता नहीं है, बल्कि यह कर्तापन की भावना और कर्मफल की उम्मीद को त्यागकर कर्म करना है।
मूल रूप से, यह अतीत के किसी बोझ या भविष्य से किसी अपेक्षा के बिना वर्तमान क्षण में जीना है। शक्ति वर्तमान क्षण में है और योजना और क्रियान्वयन सहित सब कुछ वर्तमान में होता है।
0 notes
48. स्वयं से संतृप्त
भगवान श्रीकृष्ण ने 2.11 से 2.53 तक सांख्ययोग का खुलासा किया, जो अर्जुन के लिए पूरी तरह से नयी बात थी। अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ, जिसने समाधि प्राप्त कर ली है, के लक्षण क्या हैं और एक स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, बैठता है और चलता है, के बारे में जानना चाहा (2.54)।
अर्जुन को स्पष्टीकरण के माध्यम से (2.55), श्रीकृष्ण हमारी तुलना चाहने वाले दिमाग की मदद करने के लिए मानक यानी बेंचमार्क निर्धारित करते हैं। हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा की प्रगति को इन मानकों से मापते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को पूरी तरह त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है’’ (2.55)। जब कोई स्वयं से संतुष्ट होता है, तो इच्छाएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं। जैसे-जैसे इच्छाएँ समाप्त होती हैं, उनके सभी कार्य निष्काम कर्म बन जाते हैं।
हम जो हैं उससे अलग होने की हमेशा इच्छा रखते हैं। हम बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। इस अवस्था को अर्थशास्त्र में कहते हैं ‘संतुष्ट इच्छा हमें प्रेरित नहीं करता है’। दुर्भाग्य यह है कि, हर कोई इसे अन्य सभी पर एक युक्ति के रूप में उपयोग करता है, जिससे स्थितप्रज्ञ बनना कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता उत्पाद कंपनियां नियमित रूप से नए उत्पाद/मॉडल पेश करती हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि उपभोक्ता समय-समय पर एक नया मॉडल या चीज लेना चाहते हैं।
दूसरी ओर, अगर हम खुद से संतुष्ट नहीं हैं या कम से कम यह मानते हैं कि हम खुद खुश होने में सक्षम नहीं हैं, तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि परिवार सहित अन्य लोग हमसे खुश होंगे। इसके विपरीत, हम दूसरों से आनंद कैसे प्राप्त कर सकते हैं जो स्वयं को संतृप्त करने में असमर्थ हैं।
इच्छाओं को छोडऩे के लिए एक गहरी जागरूकता की आवश्यकता होती है कि सुख के लिए हर पीछा एक मृगतृष्णा का पीछा करने जैसा है। हमारे जीवन के सभी अनुभव इस मूल सत्य की पुष्टि करते हैं। इच्छाओं को छोडऩा यह है कि सचेत रूप से उनकी तीव्रता को कम किया जाए यानी उनका पीछा कम किया जाये और यह करने से शांति प्राप्त होती है।
0 notes
47. भ्रम से बचो
हमारे जीवन के सामान्य क्रम में जब हम एक ही विषय पर परस्पर विरोधी राय सुनते हैं, तो हम भ्रमित हो जाते हैं - चाहे वह समाचार, दर्शन, दूसरों के अनुभव और विश्वास हों। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम योग तभी प्राप्त करेंगे जब विभिन्न मतों को सुनने के बावजूद बुद्धि निश्चल और समाधि में स्थिर रहेगी (2.53)।
इस श्लोक के लिए सबसे अच्छा रूपक एक पेड़ है जिसका ऊपरी भाग दिखाई देता है और निचला भाग इसकी जड़ प्रणाली है। हवाओं की ताकत के आधार पर ऊपरी भाग अलग-अलग अनुपात में प्रभावित होता है, जबकि दूसरी ओर जड़ प्रणाली इनसे प्रभावित नहीं होती है। ऊपरी भाग बाह्य शक्तियों से दोलन करता है। आंतरिक भाग समाधि में निश्चल रहता है और स्थिरता के साथ-साथ पोषण प्रदान करने का अपना कर्तव्य करता रहता है। यह पेड़ के लिए योग के अलावा और कुछ नहीं है जहां बाहरी भाग दोलन करता है और आंतरिक भाग निश्चल होता है।
अनभिज्ञ अवस्था में, हमारे पास एक डगमगाती बुद्धि है जो बाहरी उत्तेजनाओं के लिए स्वचालित रूप से कंपन करती है। बाहरी दुनिया को ये कंपन भडक़ीले स्वभाव और तत्काल प्रतिक्रियाओं के रूप में दिखाई देते हैं। यह किसी के जीवन को, परिवार के सदस्यों को तथा कार्यस्थल को भी दु:खी बना देते हैं। कुछ लोग समय के साथ अगले स्तर पर चले जाते हैं क्योंकि वे जीवन से अनुभव प्राप्त करते हैं। इन कंपनों को दबाने के लिए खुद को प्रशिक्षित करते हैं ताकि एक ढका चेहरा पेश किया जा सके। इस अवस्था में ये कंपन अंदर मौजूद होते हैं, लेकिन एक बहादुर या सुखद चेहरा पेश करना सीखते हैं। परन्तु यह लंबे समय तक नहीं बना रह सकता है।
इस श्लोक में, श्रीकृष्ण समाधि में निश्चल की अंतिम स्थिति की बात करते हैं जहाँ यह कंपन भीतर भी मौजूद नहीं होते। दूसरे शब्दों में, यह एक अहसास है कि ये बाहरी कंपन अनित्य हैं और अंतरात्मा के साथ पहचान करना है जो समाधि में निश्चल है (2.14)।
0 notes
46. क्या हमारा है, क्या नहीं
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जायेगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य (निर्वेदं) को प्राप्त हो जायेगा’’ (2.52)। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम मोह पर विजय प्राप्त करते हैं, तो हमारी इंद्रियों से उत्पन्न संवेदना हमें अपनी इच्छा से प्रभावित करने की शक्ति खो देगी। श्रीकृष्ण ने यहां सुनने को रूपक के रूप में चुना, क्योंकि हम अक्सर दूसरों के शब्दों जैसे प्रशंसा और आलोचना; गपशप और अफवाहें आदि से प्रभावित होते हैं।
शब्दों के अभाव के कारण, अहंकार की तरह मोह का वर्णन करना मुश्किल है। मूल रूप से, क्या हमारा है और क्या नहीं के बीच अंतर करने की हमारी अक्षमता ही मोह है। यह भौतिक संपत्ति और भावनाओं के स्वामित्व की भावना है; वर्तमान में और साथ ही भविष्य में। हालांकि, वास्तव में हम इनके मालिक नहीं हैं। जबकि हम उस चीज से जुड़े रहने की कोशिश करते हैं जो हमारा नहीं है, और हमें इस बारे में कोई भान नहीं है कि हम देही/आत्मा हैं। श्रीकृष्ण इस घटना को ‘कलीलम’ या अध्यात्मिक अंधकार कहते हैं।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि जब हम इस अंधकार को दूर करते हैं तो हमें ‘निर्वेदं’ की प्राप्ति होती है। यद्यपि निर्वेदं को उदासीनता के रूप में वर्णित किया गया है, यह निष्क्रिय या नकारात्मक उदासीनता नहीं है जो अज्ञानता से पैदा हुई है। यह उदासीनता, जीवित और वर्तमान में जीने से उत्पन्न होने वाली जागरूकता है। यह न तो आसक्ति है और न विरक्ति, बल्कि दोनों से परे है। यह विभाजन के बिना सक्रिय स्वीकृति है।
दूसरों के उन्मुख जीवन में, हम अपनी सभी संपत्ति, क्षमताओं, उपलब्धियों, व्यवहार, रूप आदि के लिए दूसरों से स्वीकार्यता और प्रशंसा के लिए तरसते हैं। हम इन सुखद संवेदनाओं को प्राप्त करने के लिए जीवन भर कड़ी मेहनत करते रहेंगे जब तक कि हम मोह को जागरूकता के माध्यम से दूर करने में सक्षम नहीं हो जाते।
एक बार जब हम संतुलित और सुसंगत बुद्धि के माध्यम से मोह द्वारा लाए गए अंधकार को दूर कर देते हैं, तो इन्द्रियों की यह संवेदना हमें कभी भी प्रभावित नहीं करेंगी।
0 notes
45. जन्म-मृत्यु के भ्रमपूर्ण बंधन
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्मरूपी बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं’’ (2.51)।
लंबे समय तक, मानव जाति का मानना था कि सूर्य स्थिर पृथ्वी के चारों ओर घूमता है और बाद में पता चला कि यह पृथ्वी ही है जो सूर्य के चारों ओर घूमती है। अंत में, हमारी समझ अस्तित्वगत सत्य के साथ संरेखित हुई, जिसका अर्थ है कि समस्या सत्य की हमारी गलत व्याख्या के कारण थी जो हमारी इंद्रियों की सीमाओं द्वारा लाए गए भ्रम से उत्पन्न हुई थी। जन्म और मृत्यु के बारे में हमारे भ्रम के साथ भी ऐसा ही है।
श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत में देही या आत्मा के बारे में बताते हैं, जो सभी में व्याप्त है और अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है (2.20)। वह आगे कहते हैं कि आत्मा भौतिक शरीरों को बदल देती है जैसे हम पुराने कपड़ों को नए कपड़े पहनने के लिए त्याग देते हैं (2.22)। जब वे कहते हैं कि संतुलित बुद्धि से व्यक्ति जन्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है, तो इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयं को देही /आत्मा के अस्तित्वगत सत्य के साथ जोड़ लेता है। यह पृथ्वी के चारों ओर घूमने वाले सूर्य के भ्रम से बाहर निकलकर सूर्य के चारों ओर घूमने वाली पृथ्वी के अस्तित्वगत सत्य के साथ संरेखित होने जैसा है।
हम बहुसंख्यकों के साथ तादात्म्य रखते हैं, लेकिन बहुसंख्यक जो जन्म और मृत्यु को मानते हैं, हमें देही/आत्मा के अस्तित्वगत सत्य की ओर मार्गदर्शन करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, जो केवल हमारी अपनी संतुलित बुद्धि ही कर सकती है।
श्रीकृष्ण ने ध्रुवीयता से परे की अवस्था के बारे में भी उल्लेख किया है। आमतौर पर, इसे स्वर्ग के रूप में और कभी-कभी परमपद के रूप में वर्णित किया जाता है जो कहीं बाहर है। यह श्लोक इंगित करता है कि यह मार्ग हमारे भीतर है। यह कर्मों को त्यागे बिना कर्मफल के त्याग का मार्ग है (2.47)।
0 notes
43. ‘तटस्थ’ रहना
हमारा जीवन हमारे कार्यों और निर्णयों के साथ-साथ दूसरों के कार्यों को भी अच्छे या बुरे के रूप में विभाजन करने का आदी है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि, समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है (2.50)। इसका अर्थ यह है कि एक बार जब हम समत्व योग को प्राप्त कर लेते हैं तो विभाजन/वर्गीकरण समाप्त हो जाता है।
हमारा दिमाग रंग बिरंगे शीशों के चश्मों से चढ़ा जैसा है जो हमारे प्रारंभिक वर्षों के दौरान हमारे माता-पिता, परिवार और दोस्तों के प्रभाव से और साथ ही देश के कानून के प्रभाव से हममें अंकित हैं। हम इन चश्मों के माध्यम से चीजों/कर्मों को देखते रहते हैं और उनका अच्छे या बुरे के रूप में विभाजन करते हैं। योग में, इस चश्मे का रंग उतर जाता है, जिससे चीजें साफ दिखने लगती हैं, जो कि टहनियों के बजाय जड़ों को नष्ट करने और यह चीजों को जैसी हैं वैसे ही स्वीकार करने के समान है।
व्यवहारिक दुनिया में, यह विशेष विभाजन हमें अदूरदर्शी और कम खुला बनाता है, जिससे हम निर्णय लेने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण जानकारी से वंचित हो जाते हैं। प्रबंधन के सन्दर्भ में, अपर्याप्त या गलत व्याख्या से मिली जानकारी के साथ लिए गए किसी भी निर्णय का विफल होना तय है।
बीच में रहना उस चर्चा की तरह है जहां एक छात्र को एक साथ किसी मुद्दे के पक्ष में और उसके विरुद्ध में बहस करनी होती है। यह कानून की तरह है, जहां हम निर्णय लेने से पहले दोनों पक्षों की बात सुनते हैं। यह सभी प्राणियों में स्वयं को और सभी प्राणियों को स्वयं में देखने जैसा है और अंत में हर जगह श्रीकृष्ण को देखने जैसा है (6.29)।
यह खुद को अस्पष्ट स्थिति से जल्दी से अलग करके विषय के दोनों पक्षों की सराहना करने की क्षमता है। जब यह क्षमता विकसित हो जाती है, तो हम अपने आप को दारुमा गुडिय़ा की तरह मध्य में केंद्रित करने लगते हैं।
जब कोई थोड़ी देर के लिए भी समत्व का योग प्राप्त कर लेता है, उसके द्वारा किए गए कर्म सामंजस्यपूर्ण होते हैं। आध्यात्मिकता को सांख्यिकीय कोण से देखें तो, यह समय का वह प्रतिशत है जब हम संतुलन में रहते हैं और यात्रा इसे सौ प्रतिशत तक बढ़ाने के बारे में है।
0 notes
42. अहंकार के पहलू
श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन ‘अहम् कर्ता’ यानी अहंकार की भावना से अभिभूत है और यह उसके विषाद का कारण है। श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह अहंकार को तोडऩे और स्वयं तक पहुँचने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करे (2.41)।
अहंकार के कई रूप हैं। गर्व अहंकार का एक छोटा सा हिस्सा है। जब कोई व्यक्ति सफलता/जीत/लाभ के सुख की ध्रुवता से गुजरता है तो उस अहंकार को अभिमान कहा जाता है और जब कोई विफलता/हार/नुकसान की पीड़ा की ध्रुवीयता से गुजरता है तो उस अहंकार को उदासी, दु:ख, क्रोध कहा जाता है। जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं तो यह ईष्र्या है और जब हम दूसरों को दु:खी देखते हैं तो यह सहानुभूति है।
अहंकार हम पर हावी होता है जब हम भौतिक संपत्ति एकत्र कर रहे होते हैं और जब हम उन्हें छोड़ते हैं तब भी वह मौजूद होता है। यह संसार में कर्म करने के लिए और संन्यास लेने के लिए भी प्रेरित करता है। यह बनाने के पीछे तो है, साथ ही बिगाडऩे के पीछे भी है। यह ज्ञान में भी है और अज्ञान में भी।
प्रशंसा अहंकार को बढ़ावा देती है और आलोचना पीड़ा देती है जिसकी वजह से हम दूसरों के छल का शिकार हो जाते है। संक्षेप में, अहंकार किसी न किसी अर्थ में हर भावना के पीछे छिपा होता है जो हमारे बाहरी व्यवहार को प्रभावित करता है। अहंकार हमें सफलता और समृद्धि की ओर ले जाता प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह अस्थायी रूप से नशे में धुत्त होने जैसा है।
‘मैं’ और ‘मेरा’ अहंकार की नींव हैं और दैनिक बातचीत और विचारों में इन शब्दों के प्रयोग से बचने से हम काफी हद तक अहंकार को कमजोर कर सकते है।
अहंकार का जन्म तब होता है जब हम एक या दूसरे ध्रुव के साथ पहचान करते हैं। इसीलिए, श्लोक 2.48 में श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देतें हंै कि वह बिना किसी भावना के साथ पहचान किए बीच में विकल्पहीन रहे जहां अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है। बच्चों की तरह भूख लगने पर भोजन करे; ���ंड होने पर गर्म कपड़े पहने; जरूरत पडऩे पर संघर्ष करे; जरूरत पडऩे पर भावनाओं को उधार ले।
0 notes
41. आंतरिक यात्रा के लिए सुसंगत बुद्धि
हमारे भीतरी और बाहरी हिस्सों का मिलन ही योग है। इसे कर्म, ‘भक्ति योग’, ‘सांख्य योग’, ‘बुद्धि योग’ जैसे कई मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के आधार पर उसके अनुकूल मार्गों से योग प्राप्त कर सकता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, ‘‘इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं’’ (2.49)। इससे पहले, श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘‘कर्मयोग में, बुद्धि सुसंगत है और जो अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है’’ (2.41)।
एक बार जब बुद्धि सुसंगत हो जाती है, जैसे एक आवर्धक कांच प्रकाश को केंद्रित करता है, तब वह किसी भी बौद्धिक यात्रा में सक्षम होता है। स्वयं की ओर यात्रा सहित किसी भी यात्रा में दिशा और गति शामिल होती है। श्रीकृष्ण का यहां बुद्धियोग का सन्दर्भ अंतरात्मा की ओर यात्रा की दिशा के बारे में है। आमतौर पर, हम भौतिक दुनिया में इच्छाओं को पूरा करने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करते हैं। लेकिन हमें इसका उपयोग अपनी यात्रा को स्वयं की ओर आगे बढ़ाने के लिए करना चाहिए।
आंतरिक यात्रा के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करने का पहला कदम यह है कि हम अपनी गहरी जड़ों, भावनाओं, धारणाओं, विचारों, कार्यों और यहां तक कि हमारे द्वारा बोले गए शब्दों जैसी हर चीज की समीक्षा करें। जैसे विज्ञान ज्ञान की सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रश्न पूछने का उपयोग करता है, ऐसी ही पूछ-ताछ परम सत्य को उजागर करने के लिए उपयोगी है।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि जिनका उद्देश्य कर्मफल प्राप्त करना है उनका दु:खी होना निश्चित है। हम सब में वाँछित कर्मफल के द्वारा सुख प्राप्त करने की कामना होती है। लेकिन एक ध्रुवीय दुनिया में, समय के साथ हर सुख जल्द ही दु:ख में बदल जाता है, जो हमारे जीवन को नर्क बनाता है।
श्रीकृष्ण कहीं भी हमें ध्रुवों से बचाने का वादा नहीं करते हैं, लेकिन हमें बुद्धि के उपयोग के द्वारा इन द्वंद्वो को पार कर के आत्मवान बनने के लिए कहते हैं। यह न तो जानना है और न ही करना, बस होना है।
0 notes
40. कर्तापन की भावना को छोडऩा
श्लोक 2.48 में, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू आसक्ति / संङ्गं को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्मों को कर। यह समत्व ही योग कहलाता है। दूसरे शब्दों में, हम जो कुछ भी करते हैं वह सामंजस्यपूर्ण होगा जब हम ध्रुवीयताओं के साथ पहचान करना बंद कर देंगे।
हमारे दैनिक जीवन में निर्णयों और विकल्पों की एक श्रृंखला बनी रहती है। हमेशा निर्णय लेने वाला दिमाग उपलब्ध विकल्पों में से चुनता रहता है और श्रीकृष्ण उन्हें सुख/दु:ख, लाभ/हानि, जीत/हार और सफलता/असफलता में वर्गीकृत करते हैं (2.38)।
समत्व का मतलब है इन ध्रुवों को समान मानना, जिसे आमतौर पर उन्हें पार करने के रूप में संदर्भित किया जाता है। जब यह अहसास गहरा होता है, तो मन शक्तिहीन हो जाता है और चुनाव रहित जागरूकता प्राप्त कर लेता है। जब हम नींद में या नशे में होते हैं तो विभाजन करने की क्षमता खो देते हैं। लेकिन विभाजन करने के काबिल होने के बावजूद विभाजन नहीं करना ही समत्व है। यह केवल एक प्रेक्षक/दृष्टा बनकर वर्तमान क्षण मे��� जीना है।
कर्म करते समय समता प्राप्त करने का व���यावहारिक मार्ग यह है कि कर्तापन को छोडक़र साक्षी बनना। यह पूरी तीव्रता, प्रतिबद्धता, समर्पण, दक्षता और जुनून के साथ किसी नाटक में भूमिका निभाने जैसा है; मूल रूप से दी गई परिस्थितियों में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करना है। इसी तरह जीवन के भव्य मंच पर हमें जो भूमिकाएं दी जाती हैं, उन्हें हमें पूरी लगन के साथ निभाना चाहिए। यह एक पुत्र/पुत्री, पत्नी/पति, माता-पिता, मित्र, कर्मचारी, नियोक्ता, सहकर्मी, पर्यवेक्षक आदि की भूमिका हो सकती है। एक दिन में हम कई अलग-अलग भूमिकाओं को निभाते हैं और प्रत्येक भूमिका को निभाते हुए हमें अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करना चाहिए, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हुए कि हमारी भूमिका नाटक का सिर्फ एक हिस्सा है।
जीवन में हमें जो भूमिकाएं मिली हैं, उन सभी भूमिकाओं में कुछ दिनों के लिए इसका अभ्यास करना शुरू कर सकते हैं और अपने जीवन में आने वाले सामंजस्य को स्वयं देख सकते हैं।
0 notes
39. दोहराव प्रभुत्व की कुंजी
कर्ण और अर्जुन कुंती से पैदा हुए थे लेकिन अंत में विपरीत पक्षों के लिए लड़े। कर्ण को अभिशाप के कारण अर्जुन के साथ महत्वपूर्ण लड़ाई के दौरान उसका युद्ध का ज्ञान और अनुभव उसके बचाव में नहीं आया। वह युद्ध हार गया और मारा गया।
यह स्थिति हम सभी पर लागू होती है क्योंकि हम कर्ण की तरह हैं। हम अपने जीवन में बहुत ज्ञान और अनुभव प्राप्त करते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण क्षणों में हम जागरूकता के बजाय अपनी अज्ञानता जनित प्रवृत्ति के आधार पर सोचते और कार्य करते हैं, क्योंकि हमारी जागरूकता आवश्यकता से कम है। श्रीकृष्ण इस बात से पूरी तरह अवगत हैं और गीता में विभिन्न कोणों से वास्तविकता और सत्य की बार-बार व्याख्या करते हैं, ताकि जागरूकता गहराई तक जाए और आवश्यक सीमा को पार कर जाए।
गीता इस बात पर जोर देती है कि हमारे दो हिस्से हैं - एक आतंरिक और दूसरा बाहरी, जो एक नदी के दो किनारे की तरह है। आमतौर पर हमारी पहचान बाहरी हिस्से से होती है, जिसमें भौतिक शरीर, हमारी भावनाएं, विचार और अपने आसपास की दुनिया शामिल होती है। श्रीकृष्ण हमें सत्य का एहसास करने और हमारे आंतरिक व्यक्तित्व के साथ पहचान करने के लिए कहते हैं, जो सभी प्राणियों में व्याप्त, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। आत्मज्ञानी, आंतरिक व्यक्तित्व यानी दूसरे किनारे पर पहुंचकर यह निष्कर्ष निकालता है कि केवल एक किनारा है और दूसरा किनारा रस्सी-सांप सादृश्य में मायावी सांप की तरह है।
जागरूकता के साधनों में शामिल हैं: ध्रुवों को पार करना (द्वंद्वातीत); गुणातीत, समत्व, कर्ता की जगह साक्षी होना; और कर्म से कर्मफल की स्वतंत्रता।
सौ पुस्तकों को पढऩे के बजाय गीता (विशेषकर अध्याय 2) को कई बार पढऩा बेहतर है क्योंकि गीता का प्रत्येक पठन हमारे अंदर एक अलग स्वाद और बेहतर अहसास लाता है। स्वयं के बारे में जागरूकता लाता है और आनंद को बहने देता है।
0 notes