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August 2022 | Four Poets Meet | Poets Meet By Astha Ki Diary
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Ek Dost Aur Chala Gya |Poem By Astha Naval | Astha Ki Diary
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दीपेश!
मित्र का अर्थ तब ही समझ आता है जब हम माता पिता के संरक्षण से थोड़ी थोड़ी देर के लिए बाहर निकलते हैं। जब हम माता पिता के साथ नहीं, आस पड़ोस के बच्चों के साथ खेलना आरम्भ करते हैं ; तब वे कुछ पल हमारे लिए दिन के सबसे सुंदर पल होते हैं। फिर हम स्कूल जाना आरम्भ करते हैं। पढ़ाई करते हैं, खेल सीखते हैं पर तब ही सबसे अच्छा अपने मित्रों के विषय में ही बात करना लगता है। स्कूल की दोस्ती भी संरक्षित होती है। विद्यालय के प्रांगण से बाहर नहीं जाते।
फिर महाविद्यालय में आकर दोस्तों के साथ जैसे पंख मिल जाते हैं। कक्षाओं के बाद, कभी कभी बीच में भी, कॉलेज से बाहर जा सकते हैं। ऐसी स्वतंत्रता का अनुभव इससे पहले नहीं ��ुआ होता। मेरे अनुभव में तो तब ही हुआ था। कॉलेज में जाकर मानो हम बहुत बड़े हो गए थे। बहुत रोमांच होता था बताने में कि हम कॉलेज में पढ़ते हैं। पढ़ने से अधिक अच्छा लगता था, नार्थ कैम्पस की गलियों में घूमना। बंग्लो रोड की दुकानों में जाना और सबसे अच्छा चाचा के छोले भठूरे खाना। तब तक हम खुद कमाते नहीं थे, जितनी भी सीमित पॉकेट मनी होती थी उसके हिसाब से कई बार दोस्त भी बँट जाते थे।
कॉलेज की बात करते ही अपने मित्र दीपेश की बात होती है। उसी के साथ नोर्थ कैम्पस का आनंद उठाया था। उससे सबसे पहले २४ साल पहले मिलना हुआ था। यही दिन थे जुलाई के। खाखी रंग की पैंटस और काले रंग की बॉन जो��ी की टी शर्ट। उससे मिलते ही ऐसा लगा था कि मैं उसे हमेशा से जानती हूँ। बातों बातों मे पता चला था कि मेरे स्कूल के सहपाठी प्रियकांत का वह पड़ोसी है और बचपन का यार। मेरे सहपाठी के पिता हमारे स्कूल के टीचर भी थे। बस ऐसे ही एक और तार जुड़ गया था उस दोस्ती में।
कॉलेज के सभी सहपाठी बहुत अच्छे थे लेकिन पिछले चौबीस वर्षों में यदि कोई एक कॉलेज का दोस्त मेरे हर सुख दुख का साक्षी रहा है तो वह दीपेश। चाहे मेरे नेट का इम्तिहान हो या मेरे बच्चों का जन्दिन; ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसने मेरे लिए दुआ न भेजी हो। दिल का एकदम साफ, सबको जितना भी बेबाक दिखे, भीतर से बहुत शर्मीला। सपने देखने से बहुत डरता था वो। मेरा ही दोस्त नहीं था वो, यारों का यार था, क्रिकेट खेलता था, गाना गाता था, अभिनय करता था, सबको हंसाता था पर मन से बहुत अकेला था और गम्भीर भी। बिना किसी प्रयास के दीपेश, मैं और सोनाली की मित्रत्रयी सी बन गई थी।
हमारी क्लास में बहुत सारे छात्र दिल्ली के बाहर से थे, हम एक जैसे से स्कूलों से थे और दिल्ली से, इसलिए भी हमारी कई बातें मिलती थीं। हम तीनों के साथ कभी गगनदीप होती, कभी टीना, कभी नितिन, कभी लवलेश। लेकिन हम तीनों अधिकतर साथ रहते थे। मैं और सोनाली मिल कर दीपेश को बहुत तंग करते थे। जैसे ही उसे किसी लड़की को देखते, देखते तो बस उसे कैसे लजाया जाए, हमसे बेहतर कोई नहीं जानता था। वो जितना सभी के सामने बेफिक्र बनता था उतना ही वह सबकी चिंता करता था।
वह अपने माता पिता, भाई भाभी आदि की बहुत बातें बताता था। माँ से उसे खास लगाव था और पापा लीवर के मरीज़ थे इसलिए उनकी बहुत चिंता भी करता था। मेरा तो डांस पार्टनर था। कॉलेज में कोई जैम सेशन ऐसा नहीं था जिसमें मैं और दीपेश आरम्भ से अंत तक नहीं रहते थे। मैं उसका मुकाबला तो नहीं कर सकती थी क्योंकि वह बहुत अच्छा डांसर था लेकिन वो मेरा साथ भरपूर निभाता था।
उसका स्वभाव ही ऐसा था, दूसरे को बेहतर महसूस कराना, मदद करना, हमेशा मुस्कुराना। वो इतना निस्वार्थ व्यवहार करता था कि कई बार लोग उसकी अवहेलना करते भी नहीं चूकते थे। वह दिखाता नहीं था लेकिन बहुत स्वाभिमानी था। मैं और सोनाली जब जब उससे भविष्य की बात करते, वह बाहर से हंसता पर अंदर से एक दुखी स्वर में बताता कि उसे दो -तीन ज्योतिषियों ने बताया है कि वह तीस या बत्तीस की उम्र में मर जाएगा। हम दोनों कभी उसे हंस कर, कभी प्यार से, कभी डाँट कर इस वहम को अपने दिल से निकालने को कहते।
वह इतना अच्छा क्रिकेटर था कि उसका सलेक्शन हिन्दू कॉलेज की क्रिकेट टीम में हो गया। उसे स्पोर्टस टीचर ने खुद बुला कर टीम में लिया। हम सब उसके लिए बहुत प्रसन्न थे। एक दिन आकर उसने बताया कि उसने टीम छोड़ दी है। बहुत पूछने पर कारण बताया कि क्रिकेट खेलने के लिए मंहगे जूते इत्यादि चाहिए होते हैं। वह अपने माता पिता से इन सबकी मांग नहीं करेगा। यह उसका स्वाभिमान था पर हमें उस समय नादानी लगी। हमने बहुत समझाने की कोशिश की कि अपना निर्णय वापिस लेले और अध्यापक से बात करके देखे, पर उसने नहीं मानी और बात को खत्म किया कहकर कि “अरे! तीस में तो मर जाना है मुझे” हिन्दू कॉलेज में एक संगीत का कार्यक्रम होता था, “तराना”।
उसने प्रथम वर्ष में ही तब नए गायक मिक्का का गाना “ सावन में लग गई आग” गाया और सभी उसके दीवाने हो गए। सभी को गाना इतना अच्छा लगा कि उसे दोबारा गाने को कहा गया। सभी उसे पहचानने लगे और मैं और सोनाली इतराने लगे कि दीपेश हमारा दोस्त है। जिस दिन दीपेश नहीं आता था, दिन बहुत बोरिंग होता था। वह आता था तो बहुत मस्ती होती थी। वह इतने लोगों की एक्टिंग कर के दिखाता, कभी गाना गाता। क्लास की लम्बी सीट पर बैठ जाता और अपना पसंदीदा गाना, “प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है” ऐसे गाता जैसे पियानो बजा बजा कर गा रहा हो। हिन्दी साहित्य में तो उसकी प्रथम वर्ष में दाल नहीं गली, इसलिए दूसरे वर्ष से उसने बी ए पास में दाखिला ले लिया।
लेकिन इससे हमारी मित्रत्रयी पर कोई असर नहीं पड़ा। वो कई बार सोनाली और मेरा इंतज़ार क्लास के बाहर करता और हम तीनों अपने अपने सुख दुख सांझा करते। ऐसा कुछ नहीं था जो हमें एक दूसरे के बारे में ना पता हो। १९-२० साल की उम्र हमारे लिए बहुत बड़ी थी, हमारे छोटे छोटे संघर्ष भी हमारे लिए बहुत बड़े थे। घण्टों हम ऐसे विचारकों की तरह बात करते कि दुनिया बदल देंगे।
दीपेश ने तीन साल के कॉलेज के बाद अपने भाई के साथ मिलकर छोटा सा प्लास्टिक थैलों का बिज़नस शुरु किया, एक डांस क्लास भी जोइन की। सोनाली और मैं दूर हो गए लेकिन दीपेश हम दोनों से कभी दूर नहीं हुआ। उसे हम दोनों का न मिलना खलता था पर वह हम दोनों से अलग अलग हमेशा मिलने आता। मेरे घर में मेरे माता पिता, दादी, दीदी, जीजाजी, मेरी बचपन की सहेलियाँ, मेरे मामा के बच्चे, सभी के लिए दीपेश अपने घर का ही नाम हो गया था।
दीपेश ने मुम्बई जाने की सोची, श्यामक डावर की डांस क्लास में छात्र से इंस्ट्रकटर बन गया। फिरसे उसे एक मौका मिला, श्यामक डावर के ग्रुप के साथ विदेश जाने का। लेकिन उसके पास पासपोर्ट ही नहीं था। वह डांस क्लास के साथ साथ हर रोज़ ऑडिशन देता, मुंबई में रहना आसान नहीं था लेकिन उसने कई उसी के जैसे स्ट्रगलिंग एक्टर के साथ एक घर किराये पे लिया। कई बार साथ रहने वालों ने, कई बार यूं ही खुद को उसको अपना दोस्त कहने वालों ने, उसका फायद उठाया, बहुत बार उसके पैसे चोरी हुए, जेब कटी, पर वह हारा नहीं। जुटे रहना बहुत मुश्किल था। मैं अपनी पी एच डी के सिलसिले में मुम्बई गई। मैं, मेरी डॉक्टर सहेली प्रीति और मेरे मामा की बेटी अपराजिता। हम तीनों दीपेश के साथ एसल वल्ड गए। मुझे और दीपेश को रेन डांस वाला इलाका दिखा और हम जुट गए कॉलेज की यादें ताज़ा करने में। बहुत देर तक डांस करते रहे, दीपेश तो दीपेश था; एक सामय ऐसा आया कि उस जगह पर सभी लोग एक घेरा बना कर खड़े हो गए और दीपेश को नाचते कुछ ऐसे देखते रहे जैसे कोई सुपरस्टार नाच रहा हो और हर गाने के बाद ताली बजाने लगे।
मैं मुम्बई में अपनी दोस्त स्वाती के घर लगभग एक महीने रही। दीपेश मुम्बई के दूसरे छोर पर रहता था लेकिन हर दूसरे दिन हमसे मिलने आता था। ऐसा कोई केफे कॉफी डे नहीं जिसमें दीपेश, अपराजिता और मैं उस एक महीने में ना बैठें हों। तब उसे छोटे मोटे रोल मिलने शुरू हो गए थे, पर कोई पहचान नहीं मिली थी। पैसे की तंगी भी थी। पर तब भी उसका ज़ोर हमेशा इस बात पर होता था कि अपनी कॉफी के पैसे खुद ही देगा। कई बार जब मैं चुपचाप से पैसे दे आती थी तो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था।
उसने नया फोन लिया, तब नोकिया के फोन चलते थे। हम बांद्रा गए , पानी में खेलते रहे, कुछ ग़रीब बच्चे वहाँ खेल रहे थे और हमसे पैसे मांग रहे थे। दीपेश ने उनसे कहा, “पैसे बाद में दूंगा पहले दीदी और मेरे साथ फोटो खिचवाओ”। उन सभी बच्चों को दीपेश ने बहुत प्यार किया और उनके साथ पानी में खेलते खेलते इतना मग्न हो गया कि जेब में रखा नया फोन पानी से भर गया। ऐसा था दीपेश। उससे ज़्यादा मलाल मुझे और अपराजिता को हुआ। वो तो बस अपने पर हंसता रहा और हमें सांत्वना देता रहा।
२००६ नवम्बर में मेरी शादी पक्की हुई, तब तक वह मुंबई में बिज़ी होना शुरू हो गया था। लेकिन उसने दस पंद्र�� दिन की छुट्टी ली। वो मेरा ही नहीं मेरे पति का भी उतना ही दोस्त था। शादी से पहले शायद १-२ सप्ताह के लिए हम हर रोज़ संगीत पर होने वाले कार्यक्रम की तैयारी करते। हम तब तक छब्बीस साल के हो चुके थे पर उ��के साथ मिलर हरकतें बचपने से भरी ही करते थे। हंस हंस कर हमारा बुरा हाल हो जाता। दीपेश पूरे घर के लोगों का भी डांस टीचर था। उसने मेरे माता पिता के साथ, मेरी बहन के साथ, सहेली के साथ, सभी का साथ निभाया। ब्राइड मेड का कॉनसेप्ट यदि मेरी शादी में होता तो दीपेश, मेरी चार पाँच सहेलियों के साथ छटी ब्राइड मेड ही होता। परिवार के सभी सदस्यों के लिए दीपेश घर का ही बच्चा था। सभी को कभी लगा ही नहीं कि वह बाहर का है। बाहर का था भी नहीं। शादी के बाद भी जब लड़की फेरा लगाने आती है तब भी वहीं था, भाइयों के साथ। कभी मेरी सहेली, कभी भाई, तो आशिर्वादों के लड़ी लगाने में घर का बुज़ुर्ग बन जाता था।
जब दीपेश इकत्तीस साल का हुआ तब हर साल की तरह हमने फोन पर बात की और मैंने उससे कहा कि देख, “ अब तू जिंदा है और जीता ही रहेगा, उस ज्योतिष की बात को मन से निकाल अपना घर बसा”। क्योंकि जब भी उससे शादी की बात करो तब भी यही कहता था कि नहीं मेरा जीवन लम्बा नहीं है।
पर शायद बत्तीस साल के बाद, उसकी सोच में बदलाव आने लगा, उसने शायद वो डर अपने भीतर से निकाल दिया। उसे एफ आई आर सीरियल से और मलखान के रूप में शौहरत मिलना लगी थी। वो मुझे सोनाली के खुशहाल होने की बात बताता, प्रियकांत के बारे में भी बताता। दीपेश एक बार दोस्त कहलाये जाने पर दोस्ती छोड़ता नहीं था। वह मेरे मामा के घर भी जाता था जब भी दिल्ली जाता था। मेरे अन्य दोस्तों से भि मिलता था।
उसके लिए एकटर बनना उस दिन सफल हुआ, जब वह अपनी माँ को शिरडी लेकर गया और भीड़ में पुजारी जी ने उसे पहचान लिया और उसकी माँ को अधिक देर के लिए दर्शन की अनुमति दे दी। उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। मुझे याद है कैसे गर्व से उसने इस बात को बताया था। वह पुजारी के पहचानने से नहीं, अपनी माँ की आँखों में उसके लिए प्रेम देख कर ऐसा आशवस्त हुआ था।
मैं अमेरिका से जब भारत जाती, वह अपने बिज़ी शुटिंग से समय निकाल कर मिलने ज़रूर आता। २०१७ में जब मैं मुम्बई गई तब मैं अपनी दोस्त स्वाती के घर परिवार सहित रूकी। स्वाती के बच्चों की मेरे बच्चों के साथ दोस्ती है। पर यह बात दीपेश को बहुत चुभी क्योंकि अब तक उसने मुम्बई में अपना घर बना लिया था। अपनी गाड़ी बना ली थी। वह चहाता था कि हम उसके घर रूकें। २०१७ के बाद से जब हमारी फोन पर बात होती वह तोते कि तरह एक ही बात रटता, “अब जब तू मुम्बई आएगी तो मेरे घर ही रुकेगी सबके साथ”।
जब उसने घर बनाया था तो एक एक कमरा वीडियो कॉल करके दिखाया था। वो इस बात से बहुत खुश था कि उसकी माँ उसके घर आकर रहती हैं। माँ ने उसे शादी करने के लिए भी राज़ी कर लिया था। बहुत ही प्यारी नेहा से जब उसकी शादी हुई तब भी उसने बहुत आग्रह किया था उसकी शादी पर आने का लेकिन मैं दो छोटे बच्चों को छोड़ कर नहीं जा पाई। उसका मलाल बहुत हुआ पर फिर तय किया कि २०२० में जरूर आउंगी। किसे पता था कि महामारी ऐसी आएगी कि जाएगी ही नहीं। २०२१ में संक्रांति १४ जनवरी के शुभ दिन छोटे दीपेश “मीत” का जन्म हुआ। दीपेश ने तब भी बार बार यही कहा कि अब तू आएगी तो मेरे घर रहान ही पड़ेगा। मीत और नेहा भी हैं अब तो।
उसने कभी अपनी मुसीबतों का बयान नहीं किया, उसने कभी अपने आप को दीन हीन नहीं बताया। कभी कुछ मांगा ही नहीं। पर हमेशा दिया, हर फोन कॉल में, हर मुलाकात में दुआ ही देता था। इस साल फरवरी में उसकी माँ नहीं रहीं। तब शायद दूसरी बार उसे इतना दुखी पाया, वो अकसर अपना दुख पी जाया करता था लेकिन माँ का जाना उससे सहा नहीं जा रहा था। उसे बहुत अच्छा लगता था कि अब वह माँ के लिए बहुत कुछ कर सकता है। उसके ही घर पर माँ ने दम तोड़ा। पिता और बड़े भाई तो कुछ वर्ष पहले जा चुके थे। इससे पहले जब उसने अपना दुख सांझा किया था वह था प्रियकांत की मृत्यु पर। वही प्रियकांत जो मेरा स्कूल का क्लासमेट था। प्रियकांत को जब दिल का दौरा पड़ा, तब दीपेश ही उसे हस्पताल लेकर गया, उसी ने दिल्ली से उसके माता पिता को बुलाया, उसी ने बार बार यह पता होने पर भी कि प्रियकांत का बचना मुश्किल है, उसकी पत्नी को सांत्वना दी। प्रियकांत की जुड़वा बेटियाँ तब मात्र एक वर्ष की थीं। मैंने इससे पहले दीपेश को कभी इतना दुखी नहीं महसूस किया था। क्योंकि मैं प्रियकांत को जानती थी इसलिए उसकी मृत्यु काल की एक एक बात दीपेश ने मुझे कुछ ऐसे बताई थी कि मुझे लगता है मैं भी उस समय हस्पताल में थी। दीपेश को बार बार बुज़ुर्ग माता पिता और नन्ही बच्चियों का ख्याल आता रहा। उसने उस दिन जीवन की नश्वरता और व्यर्थता पर बहुत बात की। उसने इससे पहले भी परिवार में पिता और भाई की मृत्यु देखी थी, लेकिन मित्र को जाते देखना, वो भी इतने करीब से, भीतर तक बहुत घाव छोड़ जाता है। दीपेश अकसर जीवन के छोटा होने की और अपनी आयु की बात करता था। पतानहीं ऐसा क्या था जो उसे भविष्य के बारे में सोचने से रोकता था। जैसे उसे कुछ पता था।
पिछली बार जब उससे बात हुई तो पहली बार उसने भविष्य की बात की। उसने बताया कि वेब सीरीज़ के कुछ मौके उसे मिलने वाले हैं। मीत के लिए उसे अभी क्या क्या करना है। इतनी अधिक भविष्य की बातें इससे पहले कभी नहीं की थीं। बस हमसे हमारे बारे में ही पूछता था। अपनी बहुत कम कहता था। लगभग १६ -१७ साल तक मुम्बई में मेहनत करने के बाद, उसे इस वर्ष बेस्ट कॉमेडियन का अवार्ड भी मिला। हर रोज़ इंस्टाग्राम पर कोई रील लगाता था, सभी को हंसाता था। उसमें भी यदि उसका संदेश देखो तो बार बार यही कहता था “गॉड ब्लेस यू आल” सब कुछ तो ठीक चल रहा था, जैसा चलना चाहिए था पर फिर यह कैसा कहर? मुझे सोनाली का रोते हुए फोन आया कि यह क्या हो गया? हमारे जूनियर विदित ने हम दोनों को दीपेश के जाने की खबर दी। ये कैसा मज़ाक किया विधाता ने उसके साथ? पहली बार उसने अपने भविष्य के लिए इतना कुछ गड़ा और उसे अपने पास बुला लिया! उसका बेटा अभी डेढ़ साल का ही है, नेहा उससे उम्र में बहुत छोटी है। उन्होंने ऐसा क्या किया जो इतना भीषण दुख मिल गया। जीवन अचानक से इतना कलिष्ठ क्यों हो गया? पिछले चौबीस साल में दीपेश ने हमेशा हंसाया और आज सभी को रोता छोड़ गया! वो प्रियकांत की बेटियों के लिए चिंता करता था, लेकिन अब उसका अपना बेटा भी बस उतना ही बड़ा है।
जब जब ऐसी असमय मृत्यु होती है तब तब कितने प्रश्न मन में कौंधते हैं। तब तब बहुत कुछ व्यर्थ सा लगने लगता है। लेकिन हम भूल जाते हैं और फिर वही भौतिकतावादी बन कर किसी मायावी जंजाल में खो जाते हैं। दीपेश जाते जाते भी कितान कुछ सिखा गया, पर अबकी बार हंसा नहीं पाया। शायद खुद ही जीवन की हंसी उड़ा गया। जाते ही मुझे और सोनाली को मिलवा गया। अपने जाने से हमें अपने अंदर झांकने को कह गया। आंकने को कह गया कि क्या मन मुटाव, अहम, चोरी, कपट, मुनाफा, घाटा; व्यर्थ हैं समय गंवाने के लिए?
वो बता गया कि जीवन छोटा सही, फिर भी बड़ा हो सकता है। कितना धन कमाया, कितनी भौतिक चीज़े संजोई कोई याद नहीं करेगा। किस किस के दिल को छूआ और उसमें घर बनाया बस वही याद रहेगा। उसने अपने पीछे जो छोड़ा वह प्यार हमें हमेशा याद रहेगा। पतानही मैं कभी उन गानों को सुन पाउंगी जो उसे गाते सुने थे। पतानहीं कभी उन गानों पे थिरक पाउंगी जो उसके साथ परफोर्म किए थे।
इतनी जल्दी एक सच्चे मित्र को अलविदा कहना होगा सोचा नहीं था। करोना काल ने जीवन की क्षणभंगुरता को बहुत करीब से दिखा दिया है लेकिन ऐसी खबर के लिए कभी भी कोई तैयार नहीं होता। उसका मुस्कुराता चेहरा हमेशा स्मृतियों में भी मुस्कुराएगा। उसने कितनी ही ज़िंदगियों को अपनी कला से छुआ है, उनके ���ाथ भी वह हमेशा रहेगा। अपने बेटे में भी कहीं न कहीं तो वो अब हमेशा जीएगा। बस हमें दिख नहीं पाएगा। अगली बार मुम्बई जाना कैसा रूखा होगा।
जीवन रुकता नहीं है, अभी भी दीपेश के बिना चलता रहेगा, लेकिन ऐसा अनमोल, सच्चा , निस्वार्थ मित्र फिरसे कहाँ मिलेगा? ऐसा लगा कि बहुत कुछ अधूरा छोड़ गया है वो, पर शायद यही जीवन ��ै, जितना है उतना पूरा है।
सम्पूर्ण जीने की सोच दे गया। टीवी जगत का सितारा अब तारों में ही मिला गया। जीवन समझने की नहीं जीने की चीज़ है यह भी बता गया। बहुत से सवाल मथने के लिए छोड़ गया। एक बहुत अच्छा इंसान पृथ्वी से मिट गया।
अलविदा मित्र!
आस्था नवल २४ जुलाई २०२२
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Gift for Mom!
It was my 14th Christmas eve in the US. Ever since a kid while growing up in India in a Hindu household, we would hang our socks outside for Santa to come and stuff them with gifts. Of course we knew Jingle Bells! There was winter break, Christmas eve, and decorations in front of homes, mostly in front of the Christian people homes.
But after coming to US, Christmas was different, I did not celebrate it with my new family (after marriage) but we all liked the decorations. I remember how much I liked the sale a day after Christmas. On my fifth Christmas Eve in the US, me and my husband were in the Emergency Ward of a Virginia Hospital, I was pregnant with my first one and was bleeding heavily. We were with each other yet felt extremely alone. I have had a miscarriage before and was scared, praying, crying and yet was smiling or acting brave in front of my husband.
Somehow even after a lot of bleeding and stress, when the doctor did the scan to check on the baby, baby was playing inside and was perfectly fine. I was asked to go home and be on bed rest for a few weeks. Home was India to me. Home was where my parents were. Home was where me and my husband would not have to be so alone in a hospital room. I was thinking about all those things, sad and low in energy. We had nothing to say to each other, with very heavy steps and much care I sat in the car and started for our home.
And suddenly, there was cheer, laughter and yes magic in the air. Neighborhoods, market places, even cars were cheering for us (that is what I felt). It was Christmas Eve, bright lights, happy songs on radio, cheerful messages, gatherings in every house and lighted up tree waved at me from every window. That was the day we decided to get a tree for our house on our Baby’s first Christmas next year, and so we did. That was the day when I started believing in the magic of Christmas or Santa!
Our first born came all happy and healthy in July. When he was five months old, we got a pre lit Christmas tree for our house, I did not know anything about ornaments or decorations of the tree and did whatever I could. Of course we were happy and thanked God for everything. That first Christmas with our first born was all about being thankful and giving gifts to the ones we love. And then started the tradition of packing, purchasing, decorating, inviting, cooking big meals, hosting Christmas Eves.
After two years came another bundle of joy to celebrate his first Christmas. In no time, the bundle of joys started making their long lists to ask from Santa. This year my older one turned 9 and younger one 7. They are still at the age of semi-believing in Santa. Whereas I forgot about Santa, I started the tradition at my home with kids because I felt the magic, I felt it when we saw the scan of happy baby on Christmas Eve. Over the years, Christmas was wonderful, It was joyous to see kids wait for the eve, excitement for family gatherings, board games, comfort foods, late night movies, baking brownies, ginger bread houses, secret Santas and so much more.
I forgot about Santa in all this because I started feeling like Santa of my house. I would pack, think, budget, and think more, personalize for everyone.... so much so that I would wrap gift for myself too so that I do not feel left out later. There is nothing I do not have or I wish to ask anyone else to get for me. But I definitely forgot about the magic or spirit of Christmas.
This evening, my first born gave two little packets to me, something he got from Holiday Shop in school. I exactly knew the amount I gave him to manage, he did tell me he got two things for me. I was told one was the most expensive gift in the shop (nine dollars). I was also told that to get that most expensive gift , he sacrificed his own gifts. I was showing my excitement to kids but not feeling anything until I opened the packet with a silver necklace that said MOM on it. In an instant my heart melted,I felt the joy, magic and cheer of Christmas. The necklace reminded me how Christmas trees of entire neighborhood waved at me ten years ago.
I proudly and cheerfully went for a walk with my husband with the necklace on and the entire neighborhood was cheering for me once again with the magic in the air!
Merry Christmas!
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January 2021 | Four Poets | Poets Meet Hosted By Astha Ki Diary
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December 2020 | Four Poets | Poets Meet by Astha Ki Diary
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Modern Karvachauth Katha
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Live, the way you want to
Dear Sisters
Lets just wait a little
Why are we in constant rush!
Let us take a break, from this constant doing
and let things be
May be just for an hour or a day
Can we not keep our chores at bay!
Dear Sisters
What do you have to prove
We are enough in being who we are
Let us tell each other, what we like about us
Can we unthink, unlearn, unmanage things around
Just for an hour or a day
How about we just look at a tree
Feel a flower, listen to birds
Dear Sisters
Lets unwind ourselves
Why do you feel the pressure
Why do you keep thinking
about the next step...
Why do we expect so much out of ourselves?
You already know that the magazine covers we see are not real
They are rehearsed, photo shopped or chopped
The happy faces on social media
does not mean that everyone is just happy!
If everyone is; please feel happy for them
Rather than being sad fo yourself
Dear Sisters
Appreciate who you are
Embrace your limitations
Enjoy your fulfillment
No need to put on a strong or happy mask
You have the right to be weak sometimes
It is ok to fail or give up on a few things
But never ever ever give up on yourself
Dear Sister
Live Live and Live
The way you want to llive.
Astha Naval
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