जैन संघ ने मुख्यमंत्री से की पारसनाथ को धार्मिक स्थल घोषित करने की मांग
जैन संघ ने मुख्यमंत्री से की पारसनाथ को धार्मिक स्थल घोषित करने की मांग
रांची। जैन संघ के एक प्रतिनिधिमंडल ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मुलाकात कर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ) को धार्मिक स्थल घोषित करने की मांग की। प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री से कहा कि श्री सम्मेद शिखरजी की स्वतंत्र पहचान है। इसकी पवित्रता एवं संरक्षण को बरकरार रखने के लिए इसे पर्यटन एवं इको सेंसिटिव क्षेत्र न बनाया जाए।
सम्मेद शिखरजी जैन समुदाय के 20 तीर्थंकर और अनंत संतो की मोक्ष…
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13 अगस्त 2024, नीमसार | नीमसार स्थित प्राचीन ललिता देवी मंदिर में एक विशेष अवसर पर हेल्प यू एजुकेशन एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी श्री हर्ष वर्धन अग्रवालऔर ट्रस्ट की आंतरिक सलाहकार समिति के सदस्य श्री मनीष भदौरिया ने दर्शन कर माता ललिता देवी का आशीर्वाद प्राप्त किया ।
इस पावन अवसर पर मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित अटल बिहारी शास्त्री की भी उपस्थिति रही, जिन्होंने विधिपूर्वक पूजा संपन्न कराई ।श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल और श्री मनीष भदौरिया ने माता ललिता देवी के चरणों में फूल, धूप और दीप अर्पित कर ट्रस्ट के समृद्धि और समाज के कल्याण के लिए प्रार्थना की ।
श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल ने इस अवसर पर कहा कि नीमसार स्थित यह मंदिर अत्यंत प्राचीन और पवित्र स्थल है, जहां आकर उन्हें आध्यात्मिक शांति और ऊर्जा प्राप्त होती है । उन्होंने बताया कि हेल्प यू एजुकेशन एंड चैरिटेबल ट्रस्ट समाज के गरीब और जरूरतमंद छात्रों की सहायता के लिए प्रतिबद्ध है और माता ललिता देवी की कृपा से ट्रस्ट और भी अधिक सामाजिक सेवा कार्यों में जुटा रहेगा ।
श्री मनीष भदौरिया ने भी मंदिर के धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इस मंदिर में आकर उन्हें विशेष आत्मिक शांति का अनुभव हुआ । उन्होंने ट्रस्ट के उद्देश्यों और भावी योजनाओं के बारे में भी जानकारी दी, और विश्वास व्यक्त किया कि माता ललिता देवी का आशीर्वाद ट्रस्ट के सभी सदस्यों और समाज के हित में काम आने वाले हर व्यक्ति के साथ बना रहेगा ।
पूजा के पश्चात मंदिर परिसर में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित किया गया औरसभी ने मिलकर इस विशेष अवसर का उत्सव मनाया ।
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जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के पावन सानिध्य में 627वें कबीर साहेब प्रकट दिवस के उपलक्ष्य में दिनांक 20, 21 व 22 जून 2024 विशाल भण्डारा, संत गरीबदास जी महाराज की अमर वाणी का अखंड पाठ, विशाल सत्संग, निःशुल्क नाम दीक्षा, विशाल रक्तदान शिविर, दहेज रहित विवाह (रमैणी) व आध्यात्मिक प्रदर्शनी का आयोजन किया जा रहा है। इस धार्मिक आयोजन में आप सभी सपरिवार सादर आमंत्रित हैं।
कार्यक्रम स्थल - :
सतलोक आश्रम धनाना धाम, सोनीपत, हरियाणा
सतलोक आश्रम वेदखेड़ी, शामली, उत्तरप्रदेश
सतलोक आश्रम कुरुक्षेत्र, हरियाणा
सतलोक आश्रम धूरी, पंजाब
सतलोक आश्रम मुंडका, दिल्ली
सतलोक आश्रम खमाणों, पंजाब
सतलोक आश्रम सोजत, राजस्थान
सतलोक आश्रम भिवानी, हरियाणा
सतलोक आश्रम इंदौर, मध्यप्रदेश
सतलोक आश्रम बैतूल, मध्यप्रदेश
सतलोक आश्रम धनुषा, नेपाल
संपर्क सूत्र -
7496801825
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Dev Diwali - Kartik Purnima 2023: देव दिवाली पर शिव योग का होगा निर्माण इसका शिव से है गहरा संबंध होगा हर समस्या का समाधान
Dev Deepawali 2023: कार्तिक पूर्णिमा पर देव दिवाली मनाई जाती है. ये दिवाली देवताओं को समर्पित है, इसका शिव जी से गहरा संबंध है. इस दिन धरती पर आते हैं देवतागण कार्तिक पूर्णिमा का दिन कार्तिक माह का आखिरी दिन होता है. इसी दिन देशभर में देव देवाली भी मनाई जाती है लेकिन इस बार पंचांग के भेद के कारण देव दिवाली 26 नवंबर 2023 को मनाई जाएगी और कार्तिक पूर्णिमा का व्रत, स्नान 27 नवंबर 2023 को है. देव दिवाली यानी देवता की दीपावली. इस दिन सुबह गंगा स्नान और शाम को घाट पर दीपदान किया जाता है. कार्तिक पूर्णिमा पर 'शिव' योग का हो रहा है निर्माण, हर समस्या का होगा समाधान |
देव दिवाली तिथि और समय
पूर्णिमा तिथि आरंभ - 26 नवंबर 2023 - 03:53
पूर्णिमा तिथि समापन - 27 नवंबर, 2023 - 02:45
देव दीपावली मुहूर्त - शाम 05:08 बजे से शाम 07:47 बजे तक
पूजन अवधि - 02 घण्टे 39 मिनट्स
शिव मंत्र
ॐ नमः शिवाय
ॐ शंकराय नमः
ॐ महादेवाय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ श्री रुद्राय नमः
ॐ नील कंठाय नमः
देव दिवाली का महत्व
देव दिवाली का सनातन धर्म में बेहद महत्व है। इस पर्व को लोग बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप मनाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने इस दिन राक्षस त्रिपुरासुर को हराया था। शिव जी की जीत का जश्न मनाने के लिए सभी देवी-देवता तीर्थ स्थल वाराणसी पहुंचे थे, जहां उन्होंने लाखों मिट्टी के दीपक जलाएं, इसलिए इस त्योहार को रोशनी के त्योहार के रूप में भी जाना जाता है।
इस शुभ दिन पर, गंगा घाटों पर उत्सव मनाया जाता है और बड़ी संख्या में तीर्थयात्री देव दिवाली मनाने के लिए इस स्थान पर आते हैं और एक दीया जलाकर गंगा नदी में छोड़ देते हैं। इस दिन प्रदोष काल में देव दीपावली मनाई जाती है. इस दिन वाराणसी में गंगा नदी के घाट और मंदिर दीयों की रोशनी से जगमग होते हैं. काशी में देव दिवाली की रौनक खास होती है.
Dev diwali Katha : देव दिवाली की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव बड़े पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया था. पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए तारकासुर के तीनों बेटे तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने प्रण लिया. इन तीनों को त्रिपुरासुर के नाम से जाना जाता था. तीनों ने कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरत्व का वरदान मांगा लेकिन ब्रह्म देव ने उन्हें यह वरदान देने से इनकार कर दिया.
ब्रह्मा जी ने त्रिपुरासुर को वरदान दिया कि जब निर्मित तीन पुरियां जब अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में में होगी और असंभव रथ पर सवार असंभव बाण से मारना चाहे, तब ही उनकी मृत्यु होगी. इसके बाद त्रिपुरासुर का आतंक बढ़ गया. इसके बाद स्वंय शंभू ने त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया.
काशी से देव दिवाली का संबंध एवं त्रिपुरासुर का वध:
शास्त्रों के अनुसार, एक त्रिपुरासुर नाम के राक्षस ने आतंक मचा रखा था, जिससे ऋषि-मुनियों के साथ देवता भी काफी परेशान हो गए थे। ऐसे में सभी देवतागण भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनसे इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा। पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य-चंद्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, भगवान विष्णु बाण, वासुकी धनुष की डोर और मेरूपर्वत धनुष बने. फिर भगवान शिव उस असंभव रथ पर सवार होकर असंभव धनुष पर बाण चढ़ा लिया त्रिपुरासुर पर आक्रमण कर दिया. इसके बाद भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही त्रिपुरासुर का वध कर दिया था और फिर सभी देवी-देवता खुशी होकर काशी पहुंचे थे। तभी से शिव को त्रिपुरारी भी कहा जाता है. जहां जाकर उन्होंने दीप प्रज्वलित करके खुशी मनाई थी। इसकी प्रसन्नता में सभी देवता भगवान शिव की नगरी काशी पहुंचे. फिर गंगा स्नान के बाद दीप दान कर खुशियां मनाई. इसी दिन से पृथ्वी पर देव दिवाली मनाई जाती है.
पूजन विधि
देव दीपावली की शाम को प्रदोष काल में 5, 11, 21, 51 या फिर 108 दीपकों में घी या फिर सरसों के भर दें। इसके बाद नदी के घाट में जाकर देवी-देवताओं का स्मरण करें। फिर दीपक में सिंदूर, कुमकुम, अक्षत, हल्दी, फूल, मिठाई आदि चढ़ाने के बाद दीपक जला दें। इसके बाद आप चाहे, तो नदी में भी प्रवाहित कर सकते हैं।
देव दीपावली के दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान कर लें। हो सके,तो गंगा स्नान करें। अगर आप गंगा स्नान के लिए नहीं जा पा रहे हैं, तो स्नान के पानी में थोड़ा सा गंगाजल डाल लें। ऐसा करने से गंगा स्नान करने के बराबर फलों की प्राप्ति होगी। इसके बाद सूर्य देव को तांबे के लोटे में जल, सिंदूर, अक्षत, लाल फूल डालकर अर्घ्य दें। फिर भगवान शिव के साथ अन्य देवी देवता पूजा करें। भगवान शिव को फूल, माला, सफेद चंदन, धतूरा, आक का फूल, बेलपत्र चढ़ाने के साथ भोग लाएं। अंत में घी का दीपक और धूर जलाकर चालीसा, स्तुत, मंत्र का पाठ करके विधिवत आरती कर लें।
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माथुर ब्राह्मणों के गोत्र 7 हैं। ये प्राचीन सप्त ऋषियों की प्रतिष्ठा में उन्हीं के द्वारा स्थापित हुए थे। इनकी ऐतिहासिकता संदेह से परे है। इन सात गोत्रों के गोत्रकार ऋषियों की परम्परा में नाम इस प्रकार हैं।
दक्ष गोत्र
कुत्स गोत्र
वशिष्ठ गोत्र
भार्गव गोत्र
भारद्वाज गोत्र
धौम्य गोत्र
सौश्रवस गोत्र
दक्ष गोत्र परिचय
दक्ष गोत्र प्रजापति ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में सर्व प्रतिष्ठित प्रजापतियों के पति (10 ब्रह्मपुत्रों की धर्म परिषद के अध्यक्ष) रूप में सर्वोपरि सम्मानित थे। 9400 वि0पू0 की ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि के केन्द्र ब्रह्मपुर्या माथुर महर्षियों के क्षेत्र मालाधारी गली ब्रह्मपुरी पद्मनाभ स्थल के ये अधिष्ठाता थे।
आदि प्रयागतीर्थ मथुरा के उत्तरगोल सूर्यपुर में प्रजापत्य याज्ञ करके प्रजापति विभु स्वयंभू ब्रह्मदेव ने इन्हें समष्ट वेद-वेदज्ञ यज्ञ कर्मकर्ता प्रजापितयों का अधिष्ठाता नियुक्त किया था। ऋग्वेद में इनके मन्त्र हैं। देवों से पूजित होने और बड़े-बड़े यज्ञों, संस्कारों, धार्मिक कृत्यों के सर्बश्रेष्ठ नियन्ता होने के कारण ये अपार विद्याओं के समुद्र तथा अपार द्रव्य राशि के स्वामी थे। इनका अपना विशाल आश्रम मथुरा के सुयार्श्व गिरि पर था ऐसी हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है।
इन्होंने अपने दक्षपुर (छौंका पाइसा) में महासत्र का आयोजन करके माथुर महर्षियों की ब्रह्मविद्या से अर्चना करके समस्त सुपार्श्व गिरि को सुवर्ण से आच्छादित कर उसकी शिखरों को रत्नों से देदीप्यमान कर उस समय (9400 वि0पू0) एक मात्र कर्मनिष्ठ लोकवंद्य देवपूजित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों को दान में अर्पित कीं और उन्हें यह निर्देश दिया कि वे अनकी प्रदत्त पुण्य भूमि को खण्ड-खण्ड करके कभी विभाजित न करें उसका सम्मिलित रूप से उपभोग करते रहें।
उनके इस निर्देश पर भी उन ब्राह्मणों के वंशजों ने लोभ वश स्वर्ण बटोरकर उस शोभायमान पर्वत की श्री हीन करके कई खण्डों में विभाजित कर डाला। इस अनैतिक आचरण से खिन्न और कुपित होकर महामान्य दक्ष ने उन्हें शाप दिया कि वे लालची, कलही, भिक्षुक और कुल मान्यता से शून्य प्रतिष्ठा हीन हो जायेगें। महापुण्य दक्ष के सुपाश्व के विभिन्न शिखिर खण्ड मथुरा में आज भी पाइसा नामों से (गजा पाइसा, नगला पाइसा, शीतला पाइसा, कुत्स पाइसा, छौंका पाइसा) नामों से प्रसिद्ध हैं ध्यान देने की बात हे कि पाइसा शब्द का प्रयोग भारत के और किसी भी स्थान में कही भी प्रयुक्त नहीं है।
दक्ष यज्ञ- प्रजापति दक्ष ने अनेक बहु दक्षिणा युक्त यज्ञ किये। इनमें वह यज्ञ सर्वाधिक विख्यात है जिसमें इनका कन्या सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राणों की आहुति दी तथा भगवान यछ्र के गण रूप से वीरभद्र द्वारा देवों और ऋषियों का महाप्रतारण हुआ। पुराणों के अनुसार महात्मा दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्यायें हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर होने से महान गौरव पद को प्राप्त हुए।
उन्होंने स्वाहा पुत्री अग्निदेव प्रमथ माथुर को दी जिससे वे माथुरों के गोत्रकार बनकर मातामह बने। उन्होंने स्वधा नाम की पुत्री पितगों को दौं अत: पितृगण भी उनकी जामाता बनकर श्राद्धों में आदर पाते रहे। उनको उबसे छोटी स्नेहमयी लाडली पुत्री सती थी जो त्र्यंवक रूद्रदेव को ब्याही गयी। इतने प्रधान देवों का पितृ तुल्य श्वसुर पदधारी होने से दक्ष को महाअभियान हो गया। एक वार ब्रह्माजी की सभा (ब्रह्म कुण्ड गोवर्धन शिखर) पर उनके पहुँचने पर सभी देवों ने उन्हें नमन और अभ्युत्थान दिया परन्तु भगवान रूद्र गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे इससे उन्होंने रूद्र द्वारा अपना अपमान किया जाना अनुभव किया और प्रतिकार रूप में एक विशाल यज्ञमूर्ति प्रभविष्णु की अर्चना युक्त जो अष्टभुज धारी महाविष्णु थे एक यज्ञ का आयोजन मथुरा में यमुना तट पर कनखल तीर्थ में आयोजन किया।
इस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अहंकारवश रूद्र को आमन्त्रित नहीं करते हुए यज्ञवेदी पर उनका देव आसन भी नहीं स्थापित किया। देवी सती यज्ञ में बिना बुलाये ही माता पिता के स्नेह से आतुर होकर पधारीं और यज्ञ मण्डप में भगवान रूद्र का आसग न देख महाक्षुब्ध होकर यज्ञाग्नि के विशाल कुण्ड में दलांग लगाकर आत्माहुति दे दी। तब रूद्र भगवान की भृकुटी भंग से उनके गण वीरभद्र (भील सरदार) ने भूत सेना लेकर यज्ञ का विध्वंश किया जिसमें पूषा, भग, भृगु आदि सभासद ताड़ित और दण्डित हुए और अन्त में शिरच्छेद के बाद अजामुख दक्ष भगवान रूद्र कों शरणागत हुआ। भगवान रूद्र की यह एतिहासिक घटना 9358 वि0पू0 की है तथा ब्रह्मर्षि देश के मथुरा सूरसेनपुर में घटित हुई । विद्वान मूल तथ्यों से भटक जाने के कारण हरिद्वार इसे या अन्यत्र कहीं खोजते-फिरते हैं जबकि हरिद्वार (गंगाद्वार) भगीरथ के गंगावतरण के समय 4771 वि0पू0 में स्थापित हुआ।
मथुरा में यमुना के तठ पर अभी भी कनखस तीर्थ एक अति पुरत्तन पुराण वर्णित तीर्थ मौजूद है, यही समीप में भगवान रूद्र का त्र्यंवक (तिंदुक) तीर्थ तथा वीरभद्र गणों और मरूतों के युद्ध का स्थल मरूत क्षेत्र (मारू गली) सती मांता का पुरातन मठ (दाऊजी मन्दिर जहाँ क्षुरधारी मरूत ढाल बरवार वारे हनुमान के नाम से स्थित हैं। मथुरा में ही भूतनगर (नगला भूतिया) वीरभद्रेश्वरूद्रदेव , दक्षपुरी छौंका पाइसा तथा उसके निवासी दक्ष गोत्रिय माथुर छौंका वंश (महाक्रोधी , अभिमानी) अभी स्थित हैं। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गयी है।
दक्ष वेद-प्रशस्त देव सम्मानित राजर्षि थें। इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग्0 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरूण किये जाने का कथन ऋग्0 10-143-1 में है। वे दक्ष स्मृति नाम के धर्मशास्त्र के कर्ता है जिसमें आश्रम धर्म , आचार धर्म , आशीच , श्राद्ध, संस्कारों, व्यवहार धर्म तथा सुवर्ण दान के महान्म के प्रकरण कहे गये हैं।
मन्वन्तरों में समयों में सप्तऋषियों में आद्य स्थापना
मानव वंशों को "स्वस्वं चरित्र शिक्षेरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:" का निर्णायक उद्घघोष प्रवर्तित करने वाले स्वायंभू मनुदेव के समय के सप्तऋषियों की धर्मपरिषद में माथुरों के आदि महापुरूषों में दक्ष आदि का प्रमाण है।
1- स्वायंभूमनु का मन्वन्तर काल 9000 वि0पू0 चैत्र शुक्ल 3 के समय उनके सप्तऋषि मण्डल में
1. आँगिरस, 2. अत्रि, 3. क्रतु, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. मरोचि, 7. वशिष्ठ समाहित थे।
इनमें से ब्रतु, पुलस्त्य , पुलह के वंश आसुरी सम्पर्क में आकर ब्रह्मर्षि देश से बाहर उत्तर, पश्चिम भूखण्डों एशिया यूरोप सुदूर दक्षिण आदि में चले गये। आँगिरस (कुत्स) , दक्ष (आत्रेय वंश) मरोचि (कश्यप धौम्यवंश) वशिष्ठ (वेदव्यास वंश) मुरा मण्डल में अनु राजधानी में रहे तथापि देव, दानव, आसुर पोरोहिव्यधारी इन वहिर्गत महर्षियों को भी विश्व संगठन प्रवर्तक मान मनु महाराज ने इन्हें मण्डल बाह्य नहीं किया।
2- स्वारोर्चिष मन्वतर- 9962 वि0पू0 भाद्र पद कृष्ण 3 के प्रवर्तन समय के सप्त ऋषियों में माथुर वंश के भार्गव गोत्रिय और्व तथा आंगिरस वंशज वृहस्पति देव, आत्रेय पुत्र निश्च्यवन अन्य 4 महर्षियों के मण्डल में स्थापित हुए।
3- उत्तम मन्वर - (8530 वि0पू0 पाल्गुन कृष्ण 3 को स्थापित) मन्वतन्र के सप्तऋषि मण्डल के वशिष्ठ वंशों माथुर महर्षि ऊध्ववाहु शुक सदन सुतया आदि सम्मानित हुए थे।
4- तामस मनु क मन्वंतर - (8360 वि0पू0 पौष शुक्ल 1 में) माथुरों का अग्नि (प्रमथ) वंश चैत्र ज्योर्तिधीम धात् आदि सदस्यों के रूप में स्थापित था।
5- रैवत मन्वंतर - (8186 वि0पू0 आषाढ़ शुक्ल 10) स्थापित में सप्तर्षि मण्डल में माथुर महामुमि वशिष्ठ के वंशज सत्यनेत्र, अर्ध्वबाहु, वेदबाहु, वेदशिरा आदि धर्म प्रवर्तक थे।
6- चाक्षुष मन्वंतर - (7428 वि0पू0 माघ शुक्ल 7) प्रवर्तित के सप्तर्षि मण्डल में भगवान आदि नारायण (गताश्रम नारायण) के अशंभूत्त विराट मत्स्यपति ब्रजमण्डल संस्थापक भगवान विराज, श्रीयमुना जी के पिता विवस्वान सूर्य परिवार के विवस्वंतदेव, सहिणु सुधामा, सुमेधा आदि माथुर मुनीन्द्र लोकधर्म प्रतिपालक रहे। इस मन्वन्तर में ही बैकुण्ठलोक के स्थापक भगवान बैकुण्ठनाथ (बैकुण्ठतीर्थ मथुरा) तथा विरजरूप में प्रभु दीर्घ विस्णु के लोक संस्थापक अवतार हुए।
7- वेवस्वत मन्वंतर - (6379 वि0पू0 श्रावण कृष्ण 8) प्रवर्तित के महाविश्व विस्तृत सप्तऋषि मण्डल में माथुर ब्राह्माणों के पूजनीय पुर्व पुरूष अत्रि (दक्ष गोत्र) , कश्यप (धौम्य पूर्वज) , यमदंग्नि (भार्गव गोत्र) परशुराम अवतार के पिता वशिष्ठ (महर्षि वेदव्यास के पूर्वज ) विश्वामित्र सौश्रवस गोत्र पूर्व पुरूष ) देवपूजित विश्वधर्म के संचालक थे। केवल गौतम महर्षि जो गौतम आश्रम (गोकर्ण) टीला कैलाश) पर रहते थे आंगिरसों से विरोध उत्पन्म हो जाने के कारण भगवान माहेश्वर रूद्र की अनुज्ञा से मथुरा त्याग कर कुवेरबन (वर्तमान वृन्दावन) में (गौतमपारा) बसाकर जाकर रह गये। इनके वंशज गौतम ब्राह्मण अभी भी इस स्थान पर बसते हैं। इन ऋषियों के वंशधर बाद के व्यतीत मन्वन्तरों में सप्तर्षि मण्डलों में भी स्थापिय रहे।
यह भी प्रमाणित तथ्य है कि इन सभी मन्वन्तरों की स्थापना आद्य मनु की पुरी मथुरा सूरसेनपुरी में ही परम्पराबद्ध रूप से होती रहीं और ये ब्रह्मर्षि देश के पवित्र देवक्षेत्र में जहाँ-तहाँ स्थापित हो धर्म प्रशासन चलाते रहे। इस प्रकार परम सुनिश्चित सुपुष्ठ इतिहास परम्परा और शास्त्र प्रमाण से माथुर ब्राह्मणों की प्राचीनता और पदगरिमा की प्रशस्त स्थिति स्पष्ट है। अनेक युगों में ऋषियों की उपस्थिति
प्राय: यह शंका उठाई जाती है कि देव और ऋषि एक ही रूप में प्राय: प्रत्येक काल और युग में उपस्थित दीखते हैं जिससे उनकी आयु और जीवन स्थिति में अति असंवद्धता प्रगट होती है। इस सन्दर्भ में शास्त्र पद्धति की एक महत्वपूर्ण बात हमें जान लेनी चाहिये। भारतीय परम्परा के संस्थापकों ने देवों ब्रह्मपुत्र ऋषियों के लिये अजरामर रूप में बने रहने के लिये अमरत्व की एक विशेष प्रक्रिया स्थपित की थी जिसके अनुसार जिन देवों और ऋषि-महार्षियों को त्रिकाल व्याप्त पदों पर प्रितष्ठित किये गये थे उनके वे पद पीठ आसन या गादी नाम से स्थिर थे। ब्रह्मा, इन्द्र , अग्नि, वरूण , कुवेर, यम, सूर्य , चन्द, आदि देव कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु ये प्रतिष्ठा सपद थे। इन पदों पर एक व्यक्ति के पद मुक्त होने से तत्काल पूर्व ही दूसरे पदधारी की प्रतिष्ठा कर दी जाती थी जिससे साधारण प्रजा को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता था कि कौन पदधारी कब बदला। ब्रह्मा, इन्द्र, आदि अनेक हुए हैं इसी प्रकार कश्यप , अत्रि , वशिष्ठ, अंगिरा , नारद, भृगु, दक्ष आदि बहुत से हुए हैं वे सभी अपने पदों पर आसनारूढ या पदारूढ होते रहे हैं। इसी कारण से वेदों-पुराणों में किसी देवता या महर्षि का बृद्धता से लाठी टेककर चलना या उनकी मृत्यु होने का कथन नहीं है। वे प्राय: सामर्थ्यशाली दशा में ही पद मुक्त होकर उत्तर ध्रुव के महाप्रयाण लोक को प्रस्थान कर जाते थे। इस तथ्य का आधुनिक काल में प्रमाण जगद्गुरु शंकराचार्य की पाद पीट है जहां शंकराचार्य देव आदि स्थापना से अभी तक अजर-अमर बने विराजमान हैं। देवों, ऋषियों का प्रत्येक युग में एक उसी नाम से वर्तमान रहने का यही गूढातिगूढ रहस्य है जिसे हमें समझ लेना चाहिये।
दक्ष गोत्र के प्रवर - गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सन्मानित या यशस्वी पुरूष होते हैं वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के में गोत्रकार के अतिरकित और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के तीन प्रवर हैं। 1. आत्रेये 2. गाविष्ठर 3. पूर्वातिथि।
1. आत्रेय - महर्षि अत्रि के पुत्र थे। ये चन्द्र पुत्र अत्रि के छोटे पुत्र थे। महर्षि दक्ष के पुत्र न होने से इन्हें मानस पुत्र बनाया था तथा चन्द्रमा दत्तात्नेय के माह होने पर भी दक्ष वंश में चले जाने से इन्हें अत्रिवंश में नहीं गिना गया। ये वेदज्ञ विपुल यज्ञ कर्ता थे। मंटी ऋषि के के ये शिष्य थे तथा इनने वैत्तरेय संहिता का पद पाठ निर्धारण किया था। इनकी शास्त्रीय रचना आत्नेयी शिक्षा तथा आत्नेयी संहिता है।
2. गाविष्ठर - ये यज्ञ और वेद विद्या के महान आचार्य थे। समाइगय राजेश्वर वभ्रु के यज्ञों को इनने गृत्समद ऋषि के सा सम्पन्न कराये थे।
3. पूर्वातिथि - ये अत्रि कुल के महान आचार्य थे। इनका समय 8758 वि0पू0 है। भारतीय इतिहास काल में दक्ष दो हुए हैं। पहले दक्ष प्रजापति पुत्र दक्ष दूसरे प्राचेतस दक्ष। माथुरों के गोत्रकार प्रथम दक्ष है। दक्षों का वेद ऋग्वेद है। शाखा आश्वलायनी है तथा कुलदेवी महाविद्या देवी है। इनकी 4 अल्ल हैं 1. दक्ष, 2. ककोर, 3. पूरवे, 4. साजने। अल्ल उपजाति या आस्पद को कहते है। मनु ने इसे 'विख्याति' नाम दिया हे। आस्पद का अर्थ है आदर्शपद जो कुल के आदर्श कर्म या स्थान को संकेत करता है। जिस संज्ञा से समूह की लोक के ख्याति होती है उसे आख्यात या आख्या कहा जाता है। अलंकृति सूचक कुल नाम को अल्ह या अल्ल कहते है। दक्ष - ये दक्ष प्रजापति के पदासीन ज्येष्ठ (टीकैत) पुत्रों का वर्ग है। ये अधिक तर द्विजातियों के यज्ञोपवीत, विवाह , यज्ञ, अनुष्ठान आदि संस्कार कराते है। दक्ष ये मूल अल्ल है। 2. ककोर - ये यादवों की कुकुर शाखा के कुलाचार्य थे। इनका पुरा मथुरा में कुकुरपुरी , घाटी ककोरन के नाम से स्थित है। ये यादवों के पुरोहित होने से बड़े समृद्ध और सम्पत्तियों के स्वामी थे। कौंकेरा, ककोरी, कक्कु, कांकरौली, कांकरवार, ककोड़ा इनके विस्तार क्षेत्र थे। इस वंश में महापूजय श्री उजागरदेव जी वामन राजाओं के पुरोहित बड़े चौबेजी थे जो बादशाह अकबर के दरबार में सम्मान पाते थे। 3. पूरवे - ये सम्राट पुरूरवा च्रन्द्रवंशी के पुरोहित कुल में से हैं।
4. साजने या फैंचरे - ये साध्यजनों के पति गन्धर्वराज उपरिचर वसु (फैंचरी ब्रज) के पुरोहित थे। उपरिचर वसु बहुत शक्तिशाली सम्राट था। जिस इन्द्रदेव ने अपना ध्वज (झण्डा) देकर इन्द्र ध्वज पूजन की उत्सव विधि का उपदेश किया था। जिसे गंधारी केतुओं ने सद्दे और अलम के रूप में पूजना और उत्सव में प्रयुक्त तथा रण में फहराना सीखा। उपरिचय मगध देश के जरासंध परिवार का पूर्व पुरूष था तथा मत्स्य देश के राजा सम्स्या और वेद व्यास माता मत्स्यगन्धा सत्यवती भी इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। उसका राज्य गोपाचल क्षेत्र (ग्वालियर) में पिछोर पचाड़ गांग क्षेत्र में था।
5.सोखिया - मीठे वर्ग में यह अल्ल है जो सौंख खेड़ा में शौनक क्षेत्र में बसने से प्रख्यात हुई है।
6. जुनारिया - यह अल्ल अब देखने में नहीं आती है जान्हवी गंगा के प्रवर्तक जन्हु ऋषि (राजा) के प्रशासन क्षेत्र पुण्य क्षेत्र तीर्थों के केन्द्र में निवास करने से यह नाम प्रसिद्ध था जो जान्हवी के लोप होने के साथ ही अलक्ष हो गया है।
दक्ष का बहुत बड़ा परिवार था। प्रथम दक्ष (9400 वि0पू0) की 16 कन्याओं से प्रजापति ब्रह्मा, ऋग्वेद प्रतिष्ठापक अग्निदेव , पितृदेव तथा सती के पतिदेव रूद्र से प्राय: सभी देवों और ऋषियों के परिवार बढ़े और फंले। दूसरे प्रचेतरा दक्ष (7822 वि0पू0) में इसकी 60 कन्याओं में से ऋषि कश्यप आदि द्वारा सारे विश्व (यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका) के मानव वंश विश्व में विस्तारित हुए। अत: माथुरों का दक्ष वंश सारे संसार की जातियों और भूखण्डों का आद्य जनक और संस्कृति शिक्षक है ऐसा सिद्ध होता है।
कुत्स गोत्र
दक्ष के बाद कुत्स गोत्र सर्वाधिक व्यापक महान और पूजनीय सिद्ध होता है। कुत्स वंश के आद्य पुरूष महर्षि अंगिरा थे। जिनका वेदों पुराणों में सर्वाधिक वर्णन है। अंगिरा और भृगु आद्य अग्नि उत्पादक यज्ञ प्रवर्तक थे, तथा अग्निदेव (प्रमथो) के साथ समस्त विश्व में पर्यटन कर जंगली प्रजाओं को अग्नि का प्रयोग बताकर उन्हें सभ्यता के पथ में आगे बढ़ाने का इनने प्रयास किया था।
कुत्स महर्षि - आंगिरसों के कुल में उत्पन्न हुए थे। कुत्स का समय (6103 वि0पू0) है, तथा इनका मथुरा में आश्रम कुत्स सुपार्श्व श्रंग (कुत्स पाइसा या अपभ्रंश में कुत्ता पाइसा) कहा जाता है। कुत्स आचार शिथिल लोगों की कठोर शब्दों में भर्त्सना (कुत्सा) करते थे।, जो उनकी धर्म दृढ़ता और सावधान मनस्थिति का द्योतक था। इसी से आतंकित होकर प्रताड़ित जन उनके नाम को कुत्स कसे कुत्ता बनाने लगे। महर्षि कुत्स का एक और आश्रम गुजरात में भी था जिसे कुत्सारण्य की जगह ऐसे ही लोग 'कुतियाना गाँव' कहने लगे। कुत्स बड़े स्वरूप वान थे एक बार इन्द्र के महल में सजधज कर जाने पर इन्द्रानी इन्दे पहिचान न सकी क्योंकि ये वज्र धारथ कर इन्द्र के साथ संग्रामों में जाते थे। इन्द्र से इनकी ऐसी मित्रता थी कि एक बार सूर्य देव से इनका विरोध होने पर इन्द्र ने सूर्य के रथ का एक पहिया निकाल लिया तथा दूसरा भी निकाल कर इन्हें दे दिया 2। एक बार घर आने पर कहना न मानकर घर जाने को तैयार इन्द्र को इनने रस्सियों से बाँध लिया।3।। इनके वंशधर कौत्स ने अयोध्या सम्राट रघु (4181 वि0पू0) से अपने गुरु विश्वामित्र के शिष्य बरतन्तु (तेतूरा गाँव मथुरा) को गुरुदक्षिणा देने को 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा माँगी। रघु उस समय महान विश्वजित यज्ञ में सारा कोष दान कर चुके थे। कोषगारपति की सूचना से उद्विन्न हो रघु न कुवेर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। सायंकाल रथ आयुधों से सजवाया, प्रात: ही चढ़ाई करने वाले थे, तभी रात्रि में कुबेर ने स्वर्ण वृष्टि कर राज्य का पूरा कोष स्वर्ग से भर गया है। रघु ने हर्षित होकर कौत्स मुनि से सम्पूर्ण कोष का सुवर्ण ले जाने की प्रार्थना की परन्तु कौत्स ने कहा- "राजन् मैं 14 कोटि से एक कौड़ी भी ज़्यादा नहीं लूंगा। इतना ही तों मुझे गुरुदक्षिणा में देना है" राजा चंकित रह गया और आज्ञानुसार द्रव्य बरतन्तु मुनि के आश्रम में ऊँटों-गाड़ी , बैलों से पहुँचाया। माथुरों का 6000 वर्ष पूर्व असाधारण त्याग का वह एक सर्व पुरातन महान प्रमाण है।
कौत्स मान्धाता के गुरु थे। इनको भगीरथ ने अपनी कन्या दी थी ये बेद मंत्र कर्ता बड़े परिवार के स्वामी थे अत: इनके परिवार के 70 ऋषियों के नाम ऋग्वेद मण्डल में मंडल 1 3,5,810 में उपलब्ध है। इनके पुत्र अंगिरा के अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव, अश्विनौ, उषा , सूर्य रूद्र, रात्रि, सोम, भृगुगण आदि की स्तुति के मन्त्र ऋग्वेद मंडल 1 में है। इससे इनका इन सभी वैदिक देवों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनेक यज्ञों में उपस्थित होना तथा इन देवों से इन्हें प्रभूत दक्षिणा गो, स्वर्ण मिलने का संकेत मिलता है। कुत्स के 12 शिष्यों के मन्त्र ऋग् 5-31 में हैं। वेद वर्णन से ज्ञात होता है कि दस्युभज इनके इन्द्रादि द्वारा सम्मान से कुपित थे, अत: इनके परम मित्र इन्द्र ने इनकी रक्षा के लिये शुष्ण (सुसनेर) कुयव (जावरा) (सापर बड़ौद) वासी दस्युओं को मारकर उनके दुर्ग ध्वस्त किये थे। शत्रुओं द्वारा कूप में डाले गये इनका इन्द्र ने उद्धार किया 3। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कुत्स को वेतसु (तस्सोखर) तुग्र (ताल गाँव) , मधैम (दियानौ मथुरा) नाम के क्षेत्र अर्पण किये थे।
आंगिरस - आंगिरस वंश से इनकी परम्परा निरन्तर चलती है। इनका समय 9400 वि0पू0 चलता है। इनका आश्रम मथुरा में अम्बरीष टीले के सामने स्यायंभूमनु के सरस्वती तटवर्ती विन्दुसरोवर के यमुना तट समीप है जिसे प्राचीन बाराह पुराण के मथुरा महात्म में "आंगिरस तीर्थ लिखा है। प्राचीन ऋषियों में आंगिरसों का महत्व सर्वाधिक है। ये इतने गौरवशाली थे कि सवय नामक इन्द्र स्वयं आकर इन्हें पिता बनाकर इनका पुत्र बनकर इनके घर में रहा था। "अभूदिन्द्र: स्वयं तस्यं तनय: सव्य नामक:। अंगिरावंश वेदों के स्तोत्र पढ़ने में अद्वितीय परिगत थे। इनके स्तोत्र द्वारस्तंभों की तरह स्थिरता युक्त और अचल है। इन्द्र ने अंगिराओं ने (इंगलैड के ब्रात्य ब्रिटिशों के शिक्षकों के ) साथ पणियों (फिनशियनों) द्वारा चुराई गायें (पिनियन पर्वत) पर पायीं। इन्द्र से यह प्रार्थना भी की गयी है। कि - 'हे सर्वशक्तिशाली देव जिन्होंने नौमहीना (नवम्बर) में यज्ञ समाप्त किया है तथा दस महीना (दिसम्बर) में यज्ञ की पूर्ति की हैं, ऐसे सप्त संख्याओं वाले सद्गति पात्र महा मेधावी के सुखकर स्तोत्रों से तुम स्तुत किये गये हो । अंगिराओं ने मन्त्रों द्वारा अग्निदेव (माथुर देव) की स्तुति करके महावली और दृढ अंगों वाले (पानीपत वासी) पणि असुर को मन्त्र वल से नष्ट कर दिया था तथा हम अन्य ऋषियों के लिये द्युलोक (ब्रहमण्डल द्यौसरेस द्यौतानौ) देव क्षेत्र का मार्ग खोल दिया था। अंगिरसों ने इन्द्र के लिये अन्न अर्पित कर, अग्नि ज्वालाओं द्वारा इन्द्र का पूजन और हविदान कर यज्ञ कर्म के प्रधान पुरूषों के रूप अशव गौ तथा बहुत सा द्रव्य प्राप्त किया। अंगिरावंशी अंगिरसों ने मथुरा के भांडीरबन में "आंगिरससत्र" किया जिसमें विष्णु से कल्याण कामना का संकल्प था। इसी सत्र में श्रीकृष्ण बल राम ने अपने सखा भेज कर यज्ञान्न (मधुयुवत पुरोडाश) की याचना की और यज्ञ पत्नियों द्वारा सत्कृत और पूर्ण तृप्त होकर माथुरों की कर्म श्रेष्ठता का बंदन करते हुए इन्हें सदैव घृत पूर्णित और उत्तम भोजनों से सर्वत्र सब युगो में आदरित होने का वरदान दिया।
माथुर ब्राह्मणों के उच्चतिउच्च सदाचार और ज्ञान गौरव के आगे नत मस्तक होकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने आंगिरस प्रवरी घोर अंगिरस महर्षि से उपनिषदों का अध्ययन करके दुर्लभ ब्रह्मा विद्या भी प्राप्ति की जिसका उपयोग उन्होंने "श्री मद् भागवद गीता" में करके विश्व को सर्वोच्च दार्शसिक तत्व चिंतन के पथ पर चलने का दर्शन शास्त्र दिया। आंगिरसों की वैदिक वाणी से उत्पन्न आसुरी वैकृत भाषायें ग्रीस देश की ग्रीक, इगलेंड की आंगिरसी इंगलिश तथा अंगोला की महाबृषो "हवशियों" की भाषा अंगोलियन हैं , जो आंगिरसी शिक्षा के लिये कभी समर्पित थीं। आंगिरसों ने धर्म शास्त्र ग्रन्थ समृतियों का भी प्रवर्तन किया है। आंगिरा ने मथुरा के चित्रकेतु राजा वि0पू0 9332 के मृत पुत्र को जीवितकर ज्ञानोपदेश कराया । आंगरिसों ने स्वर्ग जाने में आदित्यों से स्पर्धा की तब आदित्य पहिले स्वर्ग पहुंच गय आंगिरा 60 वर्ष यज्ञ करने के बाद स्वर्ग पहंचे। आंगिरस पहिले ब्राह्मण थे जिनने सर्व प्रथम वाणी (भाषा) और छंद रचना ज्ञान देवों से प्राप्त दिया। आंगिरसों के परिवारों में गौत्र प्रवर्तक ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं-बृहस्पति भारद्वाज , आश्वलायन, गालव, पैल, कात्यायन, वामदेव, मुद्गल , मा���्कड, तैतरेय, शौंग, (शुंग) , पतंजल्लि, दीर्घतमा, शुक्ल, मांधाता , यौवनाश्व , अंवरीष आदि ।
यौवनाश्व प्रवर – कुत्स गोत्र का यौवनाश्व प्रवर युवनाश्व पुत्र चक्रवर्ती सम्राट मांधाता के आत्म समर्पण का द्योतक है। मान्धाता यौवनाश्व का समय 5576 वि0पू0 है। भागवत के कथन से यौवनाश्व मांधाता पुत्र अंवरीष का पुत्र था जो अंगिराओं के शिष्यत्व से क्षातियोपेत ब्राह्मण बने। मांधाता यौवनाश्व चक्रवर्ती सूर्यवंशी सम्राट था और इसका साम्राज्य पश्चिम समुद्र तट कच्छ करांची (दांता राज्य) से पूर्व में जापान द्वीप तक था जो सूर्य उदय और सूर्य अस्त का क्षेत्र था। मथुरा के नमक व्यापार पर एकाधिकार के लिये लवणासुर ने इसका राज्य छीन लिया। यह मथुरा माथुर ब्राह्मणों और माथुरों के आराध्य वाराह देव का परम भक्त था तथा वाराह देव की पूजा इसने सारे भारत वर्ष में फैलायी थी। भरना मथुरा के क्षेत्र वासी महर्षि सौभरि से इसने श्री यमुना महारानी का पंचाग उपासना मार्ग ग्रहण किया और उन्हें अपनी 50 कन्यायें देकर उनका राजवैभव विस्तृत किया। ऋग्वेद में इनका मन्त्र 10-134 पर है।
कुत्स गोत्र का वेद ऋग्वेद शाखा आशवलायनी तथा कुल देवी महाविद्या जी है। कुत्स गोत्र के आस्पद भी बहुत महत्व पूर्ण हैं जो अपनी प्रमाणिक श्रेष्ठता के विस्तार को प्रतिपादित करते हैं।
1. मि��ारी - ये सबसे अधिक ज्ञानी गुणी लोक सम्मानित और समाज के सरदार शीर्ष वर्ग में से हैं। यही एक ऐसा वर्ग है जो अपने महा महिमा मंडित आद्य पूर्वज श्री ज्ञान तपो मूर्ति उद्धवाचार्य देव के गुणों का गर्व करता हुआ एक ही उनके 200 से भी अधिक परिवारों में माथुर पुरी के प्रधान केन्द्र स्थान मिहार पुरा में अवस्थित हैं प्रलय में भी नष्ट न होने वाले ब्रज द्युलोक महालोक (महजन तप) महारानौ महरौली के आद्यक्षेत्र से वाराह यज्ञ में उतर कर मथुरापुरी में आकर पूजित होकर स्थापित हुए। नन्द जशोदा तथा ब्रज के गो संस्कृति के अधिष्ठाता गोपों घोषपालों देवों के गोष्ठ रक्षकजनों को नंद मैहैर, मैहेर जसोध, मैहर गोपेशनंद आदि अपने शिष्यतत्व पद देकर तथा प्रख्यात ज्योतिर्बिद विक्रम के नवरत्न शिरोमणि बाराह मिहिर को भी बाद की प्रतिष्ठा से प्ररित किया। महलोंक के ये महामहर्षि प्रजापति दक्ष के पड़ौस में बसकर भी अपना कोई पाइसा न बनाकर दक्ष के कोप से मुक्त तथा दक्ष की प्रतिष्ठा युक्त मेत्री से विभूषित रहे। इन्होने गोप प्रजाओं को सादा पौष्टिक आहार महेरी खाने की सरल "सादाजीवन उच्च विचार मयी" पद्धति देकर सहज स्वाभिमानी बनाया। कहते हैं नंदराय गोपपति ने इन्हीं की सेवा कर आशीर्वाद साधना से पूर्ण पुरूषोत्तम श्री कृष्ण और धीर गंभीर लोक नमरकृत श्री बलराम देव जैसे पुत्र प्राप्त किये थे प्रमाण रूप पुरातन "कंस मेला" में दौनों भाई कंस विजय कर इनकहीं की गोद में विराजते विश्राम आरती अंगीकार करते हैं । इनके पुर के समीप वेश्रवण कुवेर का पुर (सरवन पुरा) है तथा रत्न सरोवर तथा स्वर्ण कलशधारी रत्नेश्वर शिव का देवस्थान है। जिसे "सोने का कलसा" वाला देव अभी भी कहा जाता है।
2. शांडिल्य- ये नंद गोपकुल के पुरोहित थे। इनका शाँडिल्य भक्तिसूत्र नारद भक्तिसूत्र के बाद भक्ति सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण बलराम की रक्षा हेतु सदा प्रयत्नशील रहते थे। इनका वंश प्राचीन है। कर्मपुराण के अनुसार थे असित (देवल) के पुत्र 5014 वि0पू0 में विद्यमान थे। महाभारत से इनकी संशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में विद्यमान थे । महाभारत से इनकी वंशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में भी थी। कृष्णकाल में इनका समय 3107 वि0पू0 है। इनका धर्मशास्त्र 'सांडिल्य स्मृति' हैं।
3. अकोर - यह अल्ल प्राय: विलुप्त है। मथुरा के समीप अर्कस्थ अकोस गांव में ये रहते थे। जो अर्क सूर्य का स्थल प्राचीन मथुरा के पंच स्थलों में से था।
4. धोरमई - ये मथुरा के निकट ध्रुवपुरी घौरैरा के वासी थे। धोरवई ध्रुव का अटल पद (अटल्ला चौकी) वर्तमान ब्रन्दावन के निकट है। धुरवा, धुरैरा (रज के ) धुर्रा , धुरपद, गाढी का धुरा, धुरंथर, ध्रुव काल के माथुरी भाषा के शब्द हैं।
5. गुनारे - मथुरा के मधुवन के समीप फाल्गुनतीर्थ पालीखेड़ा तथा फालैन में इनका निवास था। ब्रज के फाल्गुनी यज्ञ (होली) के महीना में ही अर्जुन का जन्म होने पर इन्होंने फाल्गुनी बालक के जन्म का महोत्सव किया था। गुना क्षेत्र ग्वालियर गोपाचल में भी हैं। इनका समय 3110 वि0पू0 के लगभग है।
6. खलहरे - ये यज्ञ कर्म में ब्रीहि यव धान्य उलूखलों मे कूटकर यज्ञहवि प्रस्तुत करते थे। ऐसे उलूखलनंदराय के भी गोकुल में थे जिनमें से एक ऊखल से श्री कृष्ण को माता यशोदा ने बाँधा था तभी से उनका नाम दामोदर पड़ा । महावन में ऊखल बंधन का स्थान अभी है। यहीं यमलार्जुन तीर्थ भी है।
7. मारोठिया - 49 मरूतगणों का प्रदेश मरूधन्व (मारवाड़) प्रसिद्ध है। मरूतों की पुरी मारौठ तथा मरूदगण वंशी (आंधी तूफान के देवता) मारौठिया, मराठा, राठौर प्रसिद्ध हैं ये दक्ष यज्ञ के समय अपने मरूत क्षेत्र (मारू गली) में दक्ष और देव पक्ष की रक्षा हेतु वीरभद्र की भूतसेना से लड़े थे। मारूगली में भी मारू राजा का महल मारू देवता, मारूगण, तीरभद्र वीर प्रतिमां अभी मथुरा में है।
8. सनौरे - ये 12 अदित्यों में पूषन सूर्य के वंशधर हैं। उशीनर देश के राजा शिवि महादानी के ये पुरोहित थे। ब्रज में अपने क्षेत्र चौमां में ये सन (पटसन फुलसन अलसी) कुटवा कर ऋषियां और ब्रह्मचारियों के लिये क्षौममेखला और क्षौमपट कारीगरों से बनवाकर प्रस्तुत करते थे।
9. सौनियां - ये ब्रजसीमा सोनहद के वासी थे। गंधारी शकुनी को शकुन शाऊत्र सगुनौती विद्या सिखाने से तथा सगुन चिरैया द्वारा प्रश्नोत्तर देने से "शाकुने तु बृहस्पति" के प्रमाण से अंगिराओं की विद्या के आचार्य थे सगुनियों से सौनियां नाम पाया । ये मीठों में ही हैं।
10. सद्द - ये सद्द देवों की देवसद या ऋषियों की धर्म परिषद के धर्म निर्णायक सदस्य 'सद्द' हैं। इनकी परिषद् परम्परा मौर्य गुप्तकाल तक स्थापित थी सद्दू पांड़े की वैठक श्री नाथ जी के समय की जतीपुरा में है। वर्हिषद प्रियब्रत वंशी सम्राट की पुरी वहेड़ी उत्तर पाँचाल में अभी वर्तमान है। यहीं प्रियब्रत पुरी पीलीभीत तथा हविर्धान की हविर्धानी हल्द्वानी है इनका ही अपभ्रंश नाम सद्द है।
11. कुसकिया - ये विश्वामित्र के दादा कुशिक के पुर कुशकगली मथुरा के प्राचीन निवासी हैं। ये मीठों में है। कुशिकापुर के लोग पीछे मुसलिम बना लिये गये तथा कुशिकपुर पर मसजिद बना कर कब्जा कर लिया गया। कुशिक के पुत्र गाधि का गाधीपुरा (नया गोकुल के निकट) तथा विश्वामित्र तीर्थ स्वामीघाट मथुरा ही में हैं।
12. सिरोहिया - ये सिरोही राज्य में जाकर आश्रय पाने से सिरोहिया कहे गये। ये भी मीठे वर्ग में हैं। किसी समय सिरोही की तलवारें बहुत नामी होती थीं। असुर असिलोमा के अश्वारोही सैनिक दल की यह प्राचीन पुरी थी।
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नर्मदा नदी के तट पर उद्गम से लेकर विलय तक कुल 60 लाख, 60 हजार तीर्थ स्थल बने हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार नर्मदा नदी का हर पत्थर शंकर रूप माना गया है।
नर्मदा नदी विश्व की एकमात्र ऐसी नदी हैं जिनकी परिक्रमा की जाती है।
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बातें ......
महाबली बजरंगबली के जन्म स्थान से जुड़ी बातें ।
हम सभी जानना चाहते है कि महावीर बजरंगबली यानी हनुमान जी का जन्म भारत में कहां हुआ था.....
आइये सबसे पहले आपको बताते है कि महाबली हनुमान कौन है और इनके माता-पिता कौन है..?
हनुमान जी को वीरता, शक्ति, स्वामीभक्ति और निस्वार्थ सेवा के लिए जाना जाता है। महाकाव्य तुलसी रामायण के वर्णन में हनुमान जी को भगवान रामजी का सबसे बड़ा और परम भक्त बताया गया है। और कहा जाता है कि इनकी रोजाना पूजा करने से मनोवांछित वरदान की प्राप्ति होती है। पुराणों के अनुसार हनुमान जी को भगवान शिवजी का 11वां अवतार माना गया है। हनुमान जी के माता का नाम अंजना है इसलिए उन्हे आंजनेय के नाम से भी जाना जाता है। और पिता का नाम केसरी है इसलिए महावीर को केसरीनंदन के नाम से भी जाना जाता है।
अब आप सबके मन में सवाल उठ रहा होगा कि जन्म स्थान कहां है?.. तो आइये हम आपको बताते है......
हनुमानजी के जन्मस्थान को लेकर कई सारे अलग-अलग मतभेद है हमारी रिसर्च और पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक चार ऐसी जगह है जहां हनुमानजी के जन्मस्थल होने का प्रामाण देती है।
पहला जन्मस्थान कुछ शास्त्रों के वर्णन के अनुसार हरियाणा राज्य के कैथल जिले में हुआ। यह पहले करनाल जिले का भाग था। यह कैथल ही पहले कपिस्थल था क्योंकि केसरीजी यानी हनुमान जी के पिता को कपिराज कहा जाता था, क्योंकि वे वानरों की कपि नाम की जाति से ��े ।
दूसरे जन्मस्थान में ऐसा माना जाता है कि गुजरात में स्थित डांग जिला में हुआ रामायण के समय यह स्थान दंडकारन्य प्रदेश के रुप में जाना जाता था। मान्यता के अनुसार यह कहा जाता है कि यहीं भगवान राम और लक्ष्मण आये थे और शबरी ने बेर खिलाये थे। वर्तमान में यह स्थल शबरीधाम के नाम से जाना जाता है। डांग जिले के अंजनी पर्वत में एक गुफ़ा है और वहां के आदिवासियों का दावा है कि इसी गुफ़ा में ही हनुमानजी का जन्म हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि माता अजंनी ने इसी पर्वत पर घोर तपस्या की थी और इसी तपस्या के फलस्वरुप उन्हे पुत्ररत्न यानी हनुमान जी की प्राप्ति हुई थी।
तीसरे जन्मस्थान में धार्मिक मान्यताओं के दावों के अनुसार हनुमान जी का जन्म झारखंड राज्य के गुमला जिले में स्थित आंजन गांव में हुआ। मान्यताओं का दावा है कि आंजन गांव में ही माता अजंना रहा करती थी। और इसी गांव में एक पहाड़ी है और इसी पहाड़ी में एक गुफ़ा है और कहा जाता है कि इसीगुफ़ा में रामभक्त हनुमान जी का जन्म हुआ था। इसी दावे और विश्वास के साथ यहां की जनजाति भारी संख्या में भक्ति और श्रद्धा के साथ माता अंजनी और महाबली हनुमान जी की पूजा अर्चना करती है। यहां एक प्रचीन मूर्ती भी है माता अंजनी अपने पुत्र हनुमान को गोद में लिए हुए स्थापित है। वहां के लोगों के कथित बातों के अनुसार अद्भुत मंदिर के पास जब भी बिजली चमकती है तो साक्षात प्रभु श्रीराम नजर आते है।
चौथे जन्मस्थान में अभी तक का सबसे बड़ा दावा यह दावा बड़े-बड़े जानकारों ने किया है। यह दावा महाराष्ट्र के नासिक अंजनेरी पर्वत के लिए किया जाता है कहा जाता है कि इस पर्वत पर हनुमान जी से जुड़े कई सच्ची निशानियां आज भी मौजूद है। जानकारों के मुताबिक इसी पहाड़ी पर स्थित गुफ़ा में माता अजंना ने महादेव की तपस्या कर हनुमान जी को जन्म दिया था।
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कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास
कोणार्क सूर्य मंदिर, जिसे "ब्लैक पैगोडा" भी कहा जाता है, भारत के ओडिशा राज्य में स्थित एक विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है। यह मंदिर सूर्य देवता को समर्पित है और इसे भारतीय वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में राजा नरसिम्हा देव प्रथम द्वारा करवाया गया था, जो पूर्वी गंग वंश के शासक थे।
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मथुरा भूमि विवाद मामले में मस्जिद समिति की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट 17 सितंबर को सुनवाई करेगा
मथुरा भूमि विवाद मामला: मुस्लिम पक्ष ने 1991 के पूजा स्थल अधिनियम का हवाला देते हुए याचिकाओं को खारिज करने की मांग की थी, जो 15 अगस्त 1947 को किसी भी स्थान की धार्मिक स्थिति को बरकरार रखता है।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट शाही ईदगाह मस्जिद की याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हो गया है, जिसमें पिछले महीने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई है, जिसमें हिंदू याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर 15…
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गिरिडीह में दो समुदायों के बीच पथराव, पुलिस ने की हवाई फायरिंग
गिरिडीह में दो समुदायों के बीच पथराव, पुलिस ने की हवाई फायरिंग
गिरिडीह। गिरिडीह के पचंबा थाना क्षेत्र अंतर्गत तेलोडीह में कुछ असामाजिक तत्वों ने एक समुदाय के धार्मिक स्थल में घुसकर माहौल बिगाड़ने का प्रयास किया। इससे दूसरे समुदाय के लोग भी आक्��ोशित हो गए। दोनों समुदायों में जमकर पथराव भी हुआ। सूचना मिलने पर पहुंची पुलिस ने लोगों को समझा-बुझाकर स्थिति संभालने का प्रयास किया लेकिन बात न बनने पर पुलिस को हवाई फायरिंग करनी पड़ी। पुलिस ने इस मामले में चार लोगों…
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नर्मदा तट पर बसे धार्मिक नगरों और स्थलों के आसपास मांस-मदिरा का उपयोग नहीं होगा
उद्गम स्थल अमरकंटक से लेकर प्रदेश की सीमा तक किसी भी बसाहट का सीवेज नर्मदा नदी में न मिले
अमरकंटक में उद्गम स्थल से दूर भूमि चिन्हित कर सेटेलाइट सिटी विकसित की जाए
नर्मदा जी के आसपास चलने वाली गतिविधियों पर सेटेलाइट इमेजरी व ड्रोन टेक्नोलॉजी से रखी जाए नजर
जीआईएस से नर्मदा नदी के दोनों ओर के विस्तार का चिन्हांकन कर क्षेत्र के संरक्षण और विकास के लिए विभिन्न विभाग समन्वित कार्ययोजना तैयार…
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Famous Temple in India Mahakal Ujjain
Paras Parivaar Organization: Praised Mahakal Temple (महाकाल मंदिर) in India
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्य��्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
धार्मिक नगरी उज्जैन पूरी दुनिया में काफी मशहूर है। मध्य प्रदेश की तीर्थ नगरी उज्जैन में शिप्रा तट के निकट 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर हैं। उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर भारत में भगवान शिव को समर्पित सबसे प्रतिष्ठित और प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसके अलावा यहाँ हर 12 साल में कुंभ मेले का भी आयोजन किया जाता है जो सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है।
इस मंदिर में किए जाने वाले अनोखे अनुष्ठानों में से एक भस्म आरती है, जो अद्भुत रहस्य से भरी है इसलिए यह भस्म आरती दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करती है। आज इस ब्लॉग में हम उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के बारे में और महाकाल भस्म आरती के महत्व के बारे में विस्तार से जानेंगे।
12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर
मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का यह प्रमुख मंदिर है। उज्जैन में भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक महाकाल मंदिर स्थित है। महाकाल की नगरी उज्जैन को सब तीर्थों में श्रेष्ठ माना जाता है। यहां 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक महाकाल मंदिर स्थित है।
यह न केवल एक पूजा स्थल है बल्कि अत्यधिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व का स्थल भी है। मंदिर की उत्पत्ति चौथी शताब्दी ईसा पूर्व की मानी जाती है, जिसका उल्लेख मत्स्य पुराण और अवंती खंड जैसे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है।
इस मंदिर में किया जाने वाले सबसे मुख्य अनुष्ठान भस्म आरती है जो हर किसी का ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींचती है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। यह भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास स्थान माना जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि बाबा महाकालेश्वर के दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
वास्तुकला
यह मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है। इसमें पाँच-स्तरीय शिकारा (शिखर), जटिल नक्काशी और एक विशाल प्रवेश द्वार है। इसके साथ ही मंदिर का आध्यात्मिक माहौल, पास में शिप्रा नदी के शांत घाटों के साथ मिलकर, भक्तों और पर्यटकों के लिए एक शांत वातावरण बनाता है। हिंदू धर्म में उज्जैन शहर का अपना अलग महत्व है। यह प्राचीन धार्मिक नगरी देश के 51 शक्तिपीठों और चार कुंभ स्थलों में से एक है।
क्यों कहा जाता है महाकाल ?
काल के दो अर्थ होते हैं एक समय और दूसरा मृत्यु। भगवान भोलेनाथ की नगरी उज्जैन हमेशा से ही काल-गणना के लिए बेहद उपयोगी एवं महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। देश के नक्शे में यह शहर 23.9 डिग्री उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर स्थित है।
कर्क रेखा भी इस शहर के ऊपर से गुजरती है। साथ ही उज्जैन ही वह शहर है, जहां कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक-दूसरे को काटती है। इस शहर की इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रख काल-गणना, पंचांग निर्माण और साधना के लिए उज्जैन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
दरअसल महाकाल को महाकाल इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्राचीन समय से ज्योतिषाचार्य यहीं से भारत की काल गणना करते आए हैं और यहीं से प्राचीन काल में पूरे विश्व का मानक समय निर्धारित होता था। इसी काल की गणना के कारण ही यहां भगवान शिव को महाकाल के नाम से जाना जाता है और यही वजह है कि इस ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर पड़ा।
“महाकाल” शब्द यानि “महान समय” है, जो भगवान शिव की शाश्वत प्रकृति को दर्शाता है। कहते हैं काल भी महाकाल के रौद्र रूप महाकाल के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं।
शास्त्रों का एक मंत्र- आकाशे तारकेलिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्। मृत्युलोके च महाकालम्, त्रयलिंगम् नमोस्तुते।। यानि सृष्टि में तीन लोक हैं- आकाश, पाताल और मृत्यु लोक। आकाश लोक के स्वामी हैं तारकलिंग, पाताल के स्वामी हैं हाटकेश्वर और मृत्युलोक के स्वामी हैं महाकाल। मृत्युलोक यानी पूरे संसार के स्वामी महाकाल ही हैं।
भस्म आरती
कालों के काल महाकाल के यहाँ हर दिन सुबह भस्म आरती होती है। इस आरती की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें ताजा मुर्दे की भस्म से भगवान महाकाल का श्रृंगार किया जाता है। यानि महाकालेश्वर मंदिर में सबसे अनोखा अनुष्ठान है भस्म आरती। इस अनुष्ठान में शिव लिंगम पर पवित्र राख, या “भस्म” लगाना शामिल है।
मध्य प्रदेश के शहर उज्जैन का नाम तो हर किसी ने सुना होगा। धार्मिक मान्यताओं के लिए मशहूर यह शहर पूरी दुनिया में दो चीजों के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है। इनमें से पहला है यहां स्थित बाबा महाकाल का मंदिर और दूसरा यहां होने वाला कुंभ।
कालों के काल बाबा महाकाल के इस मंदिर के दर्शन करने दूर-दूर से हर साल लाखों की संख्या में भक्त यहां पहुँचते हैं। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि यह स्थल अत्यन्त पुण्यदायी है। भगवान शिव के इस स्वरूप का वर्णन शिव पुराण में भी विस्तार से मिलता है।
भस्म आरती का समय
भस्म आरती के दर्शन करने के नियम कुछ खास होते हैं, इनका आपको पालन करना होता है। आपको बता दें कि यहां आरती करने का अधिकार सिर्फ यहाँ के पुजारियों को ही दिया जाता है अन्य लोग इसे केवल देख सकते हैं।
इस आरती को देखने के लिए पुरुषों को केवल धोती पहननी पड़ती है और महिलाओं को आरती के समय सिर पर घूंघट रखना पड़ता है। भस्म आरती का समय ऋतु परिवर्तन और सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय के साथ थोड़ा बदल जाता है। विशेष रूप से सुबह की भस्म आरती सबसे लोकप्रिय है और इसमें बहुत भीड़ होती है।
इस पवित्र समारोह को देखने और इसमें भाग लेने के लिए भक्त भोर से पहले ही जाग जाते हैं। भस्म आरती में अनुष्ठानों की एक श्रृंखला शामिल होती है, जिसमें वैदिक मंत्रों का जाप, पवित्र जल (अभिषेकम) की पेशकश और शिव पर विभूति का अनुप्रयोग शामिल है। पुजारी इन अनुष्ठानों को विधि विधान और समर्पण के साथ करते हैं।
भस्म आरती का समय
उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में भस्म आरती एक दैनिक अनुष्ठान है जो सुबह जल्दी शुरू होती है। भस्म आरती का समय निम्न है-
प्रातः भस्म आरती
यह भस्म आरती प्रातः 4:00 बजे से प्रातः 6:00 बजे तक होती है। यह सबसे प्रसिद्ध भस्म आरती है, इस पवित्र भस्म आरती के दर्शन के लिए भक्त बड़ी संख्या में आते हैं।
मध्याह्न भस्म आरती
यह भस्म आरती सुबह 10:30 से 11:00 बजे तक होती है।
संध्या भस्म आरती
इसका समय शाम 7:00 बजे से शाम 7:30 बजे तक है। इसका समय सूर्यास्त के समय के साथ बदलता रहता है।
महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि भस्म आरती देखना और भगवान शिव का आशीर्वाद लेना बेहद शुभ होता है। आरती के बाद, भक्तों को प्रसाद के रूप में पवित्र राख दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस राख को अपने माथे या शरीर पर लगाने से आध्यात्मिक शुद्धि और सुरक्षा मिलती है।
मंदिर का वैज्ञानिक महत्व
हम सबने भगवान शिव के इस मंदिर की पौराणिक कथाओं के बारे में सुना है लेकिन इस मंदिर का वैज्ञानिक महत्व शायद आपको पता न हो। खगोल शास्त्री मानते हैं कि मध्य प्रदेश का शहर उज्जैन ही पृथ्वी का केंद्र बिंदु है।
खगोल शास्त्रियों के अनुसार मध्य प्रदेश का यह प्राचीन शहर धरती और आकाश के बीच में स्थित है। इसके अलावा शास्त्रों में भी उज्जैन को देश का नाभि स्थल बताया गया है। यहाँ तक कि वराह पुराण में भी उज्जैन नगरी को शरीर का नाभि स्थल और बाबा महाकालेश्वर को इसका देवता कहा बताया गया है
उज्जैन के कुंभ को क्यों कहा जाता है सिंहस्थ
यहां हर 12 साल में पूर्ण कुंभ तथा हर 6 साल में अर्द्धकुंभ मेला लगता है। उज्जैन में होने वाले कुंभ मेले को सिंहस्थ कहा जाता है। आपको बता दें कि सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। जब सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है तो तब उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है।
दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है महाकाल
उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर का पौराणिक महत्व भी बहुत अधिक है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां दूषण नामक राक्षस का वध कर अपने भक्तों की रक्षा की थी, जिसके बाद भक्तों के आग्रह के बाद भोलेबाबा यहां विराजमान हुए थे। दूषण का वध करने के पश्चात् भगवान शिव को कालों के काल महाकाल या भगवान महाकालेश्वर नाम से पुकारा जाने लगा।
यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से तीसरा ज्योतिर्लिंग है। ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ, मल्लिकार्जुन के बाद तीसरे नंबर पर महाकालेश्वर मंदिर आता है। इस मंदिर की खास बात यह है कि यह एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है, जो दक्षिणमुखी है।
इसलिए तंत्र साधना के लिए इसे काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। दरअसल तंत्र साधना के लिए दक्षिणमुखी होना जरूरी है। इस मंदिर को लेकर ये भी मान्यता है कि यहां भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए थे।
ज्योतिर्लिंग यानी शिव जी ज्योति स्वरूप में विराजित हैं। देशभर में 12 ज्योतिर्लिंग हैं। इन 12 जगहों पर शिव जी प्रकट हुए थे और भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए इन जगहों पर ज्योति रूप में विराजमान हो गए।
यह मंदिर हिंदुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व रखता है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि इस मंदिर की तीर्थयात्रा करने से आपके सभी पाप धुल जाते हैं और आपको जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। महाकाल को उज्जैन का महाराज भी कहते हैं, माना जाता है कि किसी भी शुभ चीज को करने से पहले महाकाल का आशीर्वाद लेना बहुत ही शुभ फल देता है।
इन नामों से भी जाना जाता है उज्जैन को
शिप्रा, जिसे क्षिप्रा के नाम से भी जाना जाता है यह मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य की एक नदी है। क्षिप्रा नदी के तट पर बसे होने की वजह से इस शहर को शिप्रा के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा यह शहर संस्कृत के महान कवि कालिदास की नगरी के नाम से भी काफी प्रचलित है।
यह मध्य प्रदेश के पांचवें सबसे बड़े शहरों में से है, जो अपनी धार्मिक मान्यातों के चलते दुनियाभर में पर्यटन का प्रमुख स्थल है। प्राचीन समय में उज्जैन को अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा के नाम से भी जाना जाता था।
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Tourist Places to Visit in Leh
Tourist Places to Visit in Leh
Tourist Places to Visit in Leh - अगर आप लेह में घूमने के लिए बेहतरीन जगहों के बारे में जानना चाहते हैं, तो आप सही जगह पर हैं। लेह में देखने के लिए बहुत सी शानदार चीज़ें हैं, पुराने मठों से लेकर खूबसूरत झीलों और अद्भुत पहाड़ों तक। यह एक ऐसी जगह है जिसे हर किसी को कम से कम एक बार ज़रूर देखना चाहिए ।
हिमालय के लद्दाख राज्य की मनमोहक राजधानी लेह, लुभावने परिदृश्यों, जीवंत संस्कृति और समृद्ध विरासत की भूमि है। समुद्र तल से 3,524 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, लेह रोमांच के शौकीनों, प्रकृति प्रेमियों और अध्यात्म चाहने वालों के लिए एक स्वर्ग है। इसके आश्चर्यजनक मठ, शांत झीलें और राजसी पहाड़ इसे प्रामाणिक और विस्मयकारी अनुभव चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक ज़रूरी जगह बनाते हैं।
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Leh Palace
17वीं शताब्दी में निर्मित लेह पैलेस एक आकर्षक वास्तुशिल्प चमत्कार है जो शहर के समृद्ध इतिहास का प्रतीक है। अपनी नौ मंजिलों और आसपास के पहाड़ों के शानदार दृश्यों के साथ, यह आगंतुकों को लद्दाख की विरासत की एक झलक प्रदान करता है।
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Shanti Stupa
लेह के ऊपर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित शांति स्तूप एक आकर्षक सफेद गुंबद वाला बौद्ध स्तूप है जिसे शांति और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था। आगंतुक इस पवित्र स्थल से आसपास के पहाड़ों और सिंधु घाटी के मनोरम दृश्यों का आनंद ले सकते हैं।
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Thiksey Monastery
तिब्बत के ल्हासा में प्रसिद्ध पोटाला पैलेस जैसा दिखने वाला यह प्राचीन मठ एक वास्तुशिल्प चमत्कार है जिसमें कई स्तूप, मूर्तियाँ और थंगका हैं। आगंतुक सुबह की प्रार्थना देख सकते हैं और मठ परिसर का भ्रमण करते हुए आध्यात्मिक माहौल में डूब सकते हैं।
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Pangong Lake
बॉलीवुड फिल्म "3 इडियट्स" से मशहूर हुई पैंगोंग झील प्रकृति का एक मनमोहक आश्चर्य है। अपने नीले रंग के लगातार बदलते रंगों के साथ, यह उच्च ऊंचाई वाली झील आगंतुकों को ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों की पृष्ठभूमि के सामने एक अवास्तविक अनुभव प्रदान करती है।
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Nubra Valley
दुनिया के सबसे ऊंचे मोटरेबल दर्रे, खारदुंग ला के ज़रिए पहुँचा जा सकने वाली नुब्रा घाटी सफ़ेद रेत के टीलों, हरे-भरे मरुद्यानों और खूबसूरत गांवों का एक स्वर्गिक विस्तार है। घाटी में आकर्षक डिस्किट मठ भी है, जो इस क्षेत्र की आध्यात्मिक परंपराओं की झलक प्रदान करता है।
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Hemis Monastery
लद्दाख में सबसे बड़े और सबसे धनी मठ के रूप में जाना जाने वाला हेमिस मठ प्राचीन थांगका, भित्तिचित्रों और कलाकृतियों का खजाना है। यह हर साल हेमिस महोत्सव का भी आयोजन करता है, जिसमें नकाबपोश नृत्य और सांस्कृतिक प्रदर्शन शामिल होते हैं।
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Alchi Monastery
अपनी उत्कृष्ट 11वीं शताब्दी की दीवार चित्रकलाओं के लिए प्रसिद्ध, अलची मठ सिंधु नदी के तट पर बसा एक छिपा हुआ रत्न है। विस्तृत कलाकृति और शांत वातावरण इसे कला और संस्कृति के प्रति उत्साही लोगों के लिए एक ज़रूरी जगह बनाते हैं।
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Leh Market
चहल-पहल से भरे लेह मार्केट में जाने से स्थानीय तिब्बती और लद्दाखी हस्तशिल्प, आभूषण और स्मृति चिन्ह देखने का मौका मिलता है। यह मार्केट स्थानीय व्यंजनों का स्वाद लेने और दोस्ताना स्थानीय लोगों से बातचीत करने के लिए भी एक शानदार जगह है।
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Stok Palace
लद्दाख के शाही परिवार का घर, स्टोक पैलेस में एक संग्रहालय है, जिसमें शाही कलाकृतियां, धार्मिक वस्तुएं और पारंपरिक पोशाक प्रदर्शित की गई है, जो आगंतुकों को क्षेत्र की शाही विरासत की झलक प्रदान करती है।
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Changthang Wildlife Sanctuary
साहसी लोग चांगथांग वन्यजीव अभयारण्य में वन्यजीव सफारी का आनंद ले सकते हैं, जहाँ वे तिब्बती जंगली गधे, हिम तेंदुए और विभिन्न प्रवासी पक्षियों जैसी दुर्लभ प्रजातियों को देख सकते हैं, जो कि कठोर लेकिन आकर्षक इलाके के बीच में हैं।
इन आकर्षक आकर्षणों के अलावा, लेह शहर में हिमालय के विस्मयकारी परिदृश्यों के बीच ट्रैकिंग, माउंटेन बाइकिंग और राफ्टिंग के अवसर उपलब्ध हैं। तिब्बती और भारतीय स्वादों से प्रभावित स्थानीय व्यंजन खाने के शौकीनों के लिए एक खुशी की बात है।
How to reach Leh.
भारतीय हिमालय में एक उच्च ऊंचाई वाले शहर लेह तक पहुंचना अपने आप में एक रोमांच हो सकता है। वहां पहुंचने के कई तरीके हैं: 1. हवाई मार्ग से: लेह हवाई अड्डे (कुशोक बकुला रिम्पोची हवाई अड्डा) के लिए उड़ान: लेह पहुंचने का सबसे आसान और तेज़ तरीका दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ या श्रीनगर जैसे प्रमुख शहरों से सीधी उड़ान लेना है। लेह का हवाई अड्डा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है, और उड़ान हिमालय के शानदार दृश्य पेश करती है। हालाँकि, मौसम की स्थिति के कारण उड़ानें रद्द हो सकती हैं, खासकर सर्दियों के दौरान। 2. सड़क मार्ग से: मनाली-लेह राजमार्ग: दूरी: लगभग 490 किमी। सबसे अच्छा समय: जून से सितंबर। मार्ग: यह मार्ग रोहतांग दर्रे, बारालाचा ला और तंगलांग ला सहित आश्चर्यजनक परिदृश्यों से होकर गुजरता है। यात्रा में 2-3 दिन लगते हैं, और रात भर ठहरने की जगह आमतौर पर केलोंग या जिस्पा में होती है। श्रीनगर-लेह राजमार्ग: दूरी: लगभग 420 किमी। सबसे अच्छा समय: मई से अक्टूबर। मार्ग: यह मार्ग मनाली-लेह राजमार्ग से कम चुनौतीपूर्ण है और कारगिल, ज़ोजी ला और द्रास से होकर गुजरता है। कारगिल में रात भर रुकने के साथ यात्रा में लगभग 2 दिन लगते हैं।
बस से:
हिमाचल प्रदेश राज्य परिवहन (HRTC) और J&K राज्य सड़क परिवहन (JKSRTC): दोनों मनाली और श्रीनगर से लेह के लिए बस सेवाएँ प्रदान करते हैं। बसें किफ़ायती हैं, लेकिन पहुँचने में अधिक समय लेती हैं।
निजी बसें और टैक्सियाँ: निजी बस सेवाएँ और टैक्सियाँ भी उपलब्ध हैं और इन्हें मनाली या श्रीनगर से बुक किया जा सकता है।
ट्रेन से:
निकटतम रेलवे स्टेशन: जम्मू तवी रेलवे स्टेशन: लेह से लगभग 700 किमी. यहाँ से आप श्रीनगर के लिए टैक्सी या बस ले सकते हैं और फिर लेह जा सकते हैं। पठानकोट रेलवे स्टेशन: दूसरा विकल्प पठानकोट के लिए ट्रेन लेना और फिर श्रीनगर होते हुए सड़क मार्ग से यात्रा जारी रखना है।
लेह की यात्रा के लिए सुझाव:
- लेह बहुत ऊँचाई पर है (3,500 मीटर या 11,500 फ़ीट), । आगे की खोज करने से पहले लेह में एक या दो दिन बिताएँ।
- लेह के लिए सड़कें आमतौर पर मई से अक्टूबर तक खुली रहती हैं। भारी बर्फबारी के कारण सर्दियों में यात्रा करना मुश्किल हो सकता है।
- लेह के आस-पास के कुछ इलाकों में जाने के लिए इनर लाइन परमिट (ILP) की ज़रूरत हो सकती है। इन्हें ऑनलाइन या लेह में प्राप्त किया जा सकता है।
- Tourist Places to Visit in Mahabaleshwar
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बनते ही विवादों में आयी कैंची धाम में प्रांतीय उद्योग व्यापार मंडल की इकाई, स्थानीय व्यापारियों ने बताया अवैध
नवीन समाचार, नैनीताल, 23 अगस्त 2024 (Kainchi Dham Vyapar Mandal ke gathan par Vivad)। धार्मिक महत्ता के बढ़ने के साथ नैनीताल जनपद के नये विकसित हो रहे व्यवसायिक स्थल कैंची धाम में व्यापार मंडल को लेकर विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। दो दिन पूर्व 21 अगस्त को अखिलेश सेमवाल के नेतृत्व में प्रांतीय उद्योग व्यापार मंडल के गठन का दावा किया गया था, इस पर अब मई 2024 में पंजीकृत श्री कैंची धाम व्यापार…
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उत्तराखंड में स्थित दीबा माता मंदिर एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है जो विशेष रूप से कुमाऊं क्षेत्र में पूजनीय है। यह मंदिर माता दीबा को समर्पित है, जो कि देवी दुर्गा के एक रूप मानी जाती हैं। स्थानीय लोगों के बीच दीबा माता को गांव की रक्षक और संरक्षक देवी के रूप में माना जाता है, और यह मंदिर उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति का केंद्र है।
उत्तराखंड के कई ग्रामीण क्षेत्रों में इस मंदिर का विशेष महत्व है, और यहां पर विशेष रूप से नवरात्रि और अन्य धार्मिक त्योहारों के दौरान भक्तों की भीड़ उमड़ती है। इस मंदिर के आसपास का क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता से घिरा हुआ है, जिससे यहां आना न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि पर्यटन के लिए भी आकर्षक होता है।
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