#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart85 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart86
"कबीर परमेश्वर द्वारा विभीषण तथा मंदोदरी को शरण में लेना"
परमेश्वर मुनिन्द्र जी अनल अर्थात् नल तथा अनील अर्थात् नील को शरण में लेने के उपरान्त श्री लंका में गए। वहाँ पर एक परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी का सोलह सदस्यों का परिवार रहता था। वे भाट जाति में उत्पन्न पुण्यकर्मी प्राणी थे। परमेश्वर मुनिन्द्र (कविर्देव) जी का उपदेश सुन कर पूरे परिवार ने नाम दान प्राप्त किया। परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी की पत्नी भक्तमति कर्मवती लंका के राजा रावण की रानी मन्दोदरी के पास नौकरी (सेवा) करती थी। रानी मंदोदरी को हँसी-मजाक अच्छे-मंदे चुटकुले सुना कर उसका मनोरंजन कराती थी। भक्त चन्द्रविजय, राजा रावण के पास दरबार में नौकरी (सेवा) करता था। राजा की बड़ाई के गाने सुना कर उसे प्रसन्न करता था। भक्त विचित्र चन्द्रविजय की पत्नी भक्तमति कर्मवती परमेश्वर से उपदेश प्राप्त करने के उपरान्त रानी मंदोदरी को प्रभु चर्चा जो सृष्टि रचना अपने सतगुरुदेव मुनिन्द्र जी से सुनी थी प्रतिदिन सुनाने लगी। भक्तमति मंदोदरी रानी को अति आनन्द आने लगा। कई-कई घण्टों तक प्रभु की सत कथा को भक्तमति कर्मवती सुनाती रहती तथा मंदोदरी की आँखों से आँसू बहते रहते। एक दिन रानी मंदोदरी ने कर्मवती से पूछा आपने यह ज्ञान किससे सुना? आप तो बहुत अनाप-शनाप बातें किया करती थी। इतना बदलाव परमात्मा तुल्य संत बिना नहीं हो सकता। तब कर्मवती ने बताया कि हमने एक परम संत से अभी-अभी उपदेश लिया है। रानी मंदोदरी ने संत के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा, आप के गुरु अब की बार आयें तो उन्हें हमारे घर बुला कर लाना। अपनी मालकिन का आदेश प्राप्त करके शीश झुकाकर सत्कार पूर्वक कहा कि जो आप की आज्ञा, आप की नौकरानी वही करेगी। मेरी एक विनती है, कहते हैं कि संत को आदेशपूर्वक नहीं बुलाना चाहिए। स्वयं जा कर दर्शन करना श्रेयकर होता है और जैसे आप की आज्ञा वैसा ही होगा। महारानी मंदोदरी ने कहा कि अब के आपके गुरुदेव जी आयें तो मुझे बताना मैं स्वयं उनके पास जाकर दर्शन करूंगी। परमेश्वर ने फिर श्री लंका में कृपा की। मंदोदरी रानी ने उपदेश प्राप्त किया। कुछ समय उपरान्त अपने प्रिय देवर भक्त विभीषण जी को उपदेश दिलाया। भक्तमति मंदोदरी उपदेश प्राप्त करके अहर्निश प्रभु स्मरण में लीन रहने लगी। अपने पति रावण को भी सतगुरु मुनिन्द्र जी से उपदेश प्राप्त करने की कई बार प्रार्थना की परन्तु रावण नहीं माना तथा कहा करता था कि मैंने परम शक्ति महेश्वर मृत्युंजय शिव जी की भक्ति की है। इसके तुल्य कोई शक्ति नहीं है। आपको किसी ने बहका लिया है।
कुछ ही समय उपरान्त वनवास प्राप्त श्री सीता जी का अपहरण करके रावण ने अपने नौ लखा बाग में कैद कर लिया। भक्तमति मंदोदरी के बार-बार प्रार्थना करने से भी रावण ने माता सीता जी को वापिस छोड़ कर आना स्वीकार नहीं किया। तब भक्तमति मंदोदरी जी ने अपने गुरुदेव मुनिन्द्र जी से कहा महाराज जी, मेरे पति ने किसी की औरत का अपहरण कर लिया है। मुझ से सहन नहीं हो रहा है। वह उसे वापिस छोड़ कर आना किसी कीमत पर भी स्वीकार नहीं कर रहा है। आप दया करो मेरे प्रभु। आज तक जीवन में मैंने ऐसा दुःख नहीं देखा था।
परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने कहा कि बेटी मंदोदरी यह औरत कोई साधारण स्त्री नहीं है। श्री विष्णु जी को शापवश पृथ्वी पर आना पड़ा है, वे अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र नाम से जन्में हैं। इनको 14 वर्ष का वनवास प्राप्त है तथा लक्ष्मी जी स्वयं सीता रूप में इनकी पत्नी रूप में वनवास में श्री रा�� के साथ थी। उसे रावण एक साधु वेश बना कर धोखा देकर उठा लाया है। यह स्वयं लक्ष्मी ही सीता जी है। इसे शीघ्र वापिस करके क्षमा याचना करके अपने जीवन की भिक्षा याचना रावण करें तो इसी में इसका शुभ है। भक्तमति मंदोदरी के अनेकों बार प्रार्थना करने से रावण नहीं माना तथा कहा कि वे दो मसखरे जंगल में घूमने वाले मेरा क्या बिगाड सकते हैं। मेरे पास अनीगनत सेना है। मेरे एक लाख पुत्र तथा सवा लाख नाती हैं। मेरे पुत्र मेघनाद ने स्वर्ग राज इन्द्र को पराजित कर उसकी पुत्री से विवाह कर रखा है। तेतीस करोड़ देवताओं को हमने कैद कर रखा है। तू मुझे उन दो बेसहारा बन में बिचर रहे बनवासियों को भगवान बता कर डराना चाहती है। इस स्त्री को वापिस नहीं करूँगा। मंदोदरी ने भक्ति मार्ग का ज्ञान जो अपने पूज्य गुरुदेव से सुना था, रावण को बहुत समझाया। विभीषण ने भी अपने बड़े भाई को समझाया। रावण ने अपने भाई विभीषण को पीटा तथा कहा कि तू ज्यादा श्री रामचन्द्र का पक्षपात कर रहा है, उसी के पास चला जा।
एक दिन भक्तमति मंदोदरी ने अपने पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना की कि हे गुरुदेव मेरा सुहाग उजड़ रहा है। एक बार आप भी मेरे पति को समझा दो। यदि वह आप की बात को नहीं मानेगा तो मुझे विधवा होने का दुःख नहीं होगा।
अपनी वचन की बेटी मंदोदरी की प्रार्थना स्वीकार करके राजा रावण के दरबार के समक्ष खड़े होकर परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने द्वारपालों से राजा रावण से मिलने की प्रार्थना की। द्वारपालों ने कहा ऋषि जी इस समय हमारे राजा जी अपना दरबार लगाए हुए हैं। इस समय अन्दर का संदेश बाहर आ सकता है, बाहर का संदेश अन्दर नहीं जा सकता। हम विवश हैं। तब पूर्ण प्रभु अंतर्ध्यान हुए तथा राजा रावण के दरबार में प्रकट हो गए। रावण की दृष्टि ऋषि पर गई तो गरज कर पूछा कि इस ऋषि को मेरी आज्ञा बिना किसने अन्दर आने दिया है उन द्वारपालों को लाकर मेरे सामने कत्ल कर दो। तब परमेश्वर ने कहा राजन् आप के द्वारपालों ने स्पष्ट मना किया था। उन्हें पता नहीं कि मैं कैसे अन्दर आ गया। रावण ने पूछा कि तू अन्दर कैसे आया? तब पूर्ण प्रभु मुनिन्द्र वेश में अदृश होकर पुनर् प्रकट हो गए तथा कहा कि मैं ऐसे आ गया। रावण ने पूछा कि आने का कारण बताओ। तब प्रभु ने कहा कि आप योद्धा हो कर एक अबला का अपहरण कर लाए हो। यह आप की शान व शूरवीरता के विपरीत है। सीता कोई साधारण औरत नहीं है यह स्वयं लक्ष्मी जी का अवतार है। श्री रामचन्द्र जी जो इसके पति हैं वे स्वयं विष्णु हैं। इसे वापिस करके अपने जीवन की भिक्षा माँगो। इसी में आप का श्रेय है। इतना सुन कर तमोगुण (भगवान शिव) का उपासक रावण क्रोधित होकर नंगी तलवार लेकर सिंहासन से दहाड़ता हुआ कूदा तथा उस नादान प्राणी ने तलवार के अंधाधुंध सत्तर वार ऋषि जी को मारने के लिए किए। परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने एक झाडू की सर्सीक हाथ में पकड़ी हुई थी। उसको ढाल की तरह आगे कर दिया। रावण के सत्तर वार उस नाजुक सींक पर लगे। ऐसे आवाज हुई जैसे लोहे के खम्बे (पीलर) पर तलवार लग रही हो। सर्सीक टस से मस नहीं हुई। रावण को पसीने आ गए। फिर भी अपने अहंकारवश नहीं माना। यह तो जान लिया कि यह कोई साधारण ऋषि नहीं है। रावण ने अभिमान वश कहा कि मैंने आप की एक भी बात नहीं सुननी, आप जा सकते हैं। परमेश्वर अंतर्ध्यान हो गए तथा मंदोदरी को सर्व वृतान्त सुनाकर प्रस्थान किया। रानी मंदोदरी ने कहा गुरुदेव अब मुझे विधवा होने में कोई कष्ट नहीं होगा।
श्री रामचन्द्र व रावण का युद्ध हुआ। रावण का वध हुआ। जिस लंका के राज्य को रावण ने तमोगुण भगवान शिव की कठिन साधना करके, दस बार शीश न्यौछावर करके प्राप्त किया था। वह क्षणिक सुख भी रावण का चला गया तथा नरक का भागी हुआ। इसके विपरीत पूर्ण परमात्मा के सतनाम साधक विभीषण को बिना कठिन साधना किए पूर्ण प्रभु की सत्य साधना व कृपा से लंकादेश का राज्य भी प्राप्त हुआ। हजारों वर्षों तक विभीषण ने लंका का राज्य का सुख भोगा तथा प्रभु कृपा से राज्य में पूर्ण शान्ति रही। सभी राक्षस वृति के व्यक्ति विनाश को प्राप्त हो चुके थे। भक्तमति मंदोदरी तथा भक्त विभीषण तथा परम भक्त चन्द्रविजय जी के परिवार के पूरे सोलह सदस्य तथा अन्य जिन्होंने पूर्ण परमेश्वर का उपदेश प्राप्त करके आजीवन मर्यादावत् सतभक्ति की वे सर्व साधक यहाँ पृथ्वी पर भी सुखी रहे तथा अन्त समय में परमेश्वर के विमान में बैठ कर सतलोक (शाश्वतम् स्थानम्) में चले गए। इसीलिए पवित्र गीता अध्याय 7 मंत्र 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की साधना से मिलने वाली क्षणिक सुविधाओं के द्वार�� जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे राक्षस स्वभाव वाले, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (काल-ब्रह्म) को भी नहीं भजते ।
फिर गीता अध्याय 7 मंत्र 18 में गीता बोलने वाला (काल-ब्रह्म) प्रभु कह रहा है कि कोई एक उदार आत्मा मेरी (ब्रह्म की) ही साधना करता है क्योंकि उनको तत्त्वदर्शी संत नही मिला। वे भी नेक आत्माएँ मेरी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ (गतिम्) गति में आश्रित रह गए। वे भी पूर्ण मुक्त नहीं हैं। इसलिए पवित्र गीता अध्याय 18 मंत्र 62 में कहा है कि हे अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमेश्वर (पूर्ण परमात्मा अर्थात् तत् ब्रह्म) की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।
इसलिए पुण्यात्माओं से निवेदन है कि आज इस दासन् के भी दास (रामपाल दास) के पास पूर्ण परमात्मा प्राप्ति की वास्तविक विधि प्राप्त है। निःशुल्क उपदेश लेकर लाभ उठाएँ।
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हिंदू धर्म में, हनुमान जी को भगवान राम का स��से प्रिय और वफादार भक्त माना जाता है। उनकी भक्ति, शक्ति और साहस की कहानियां सदियों से भारत में प्रचलित हैं। हनुमानजी को सबसे वफादार भक्त माना जाता है क्योंकि उनका भक्ति और सेवा भाव अत्यंत उच्च और निःस्वार्थी होता है। उन्होंने अपने रामचंद्रजी के लिए अनवरत भक्ति और समर्पण दिखाया।
हनुमान जी का आत्मबल, धैर्य, और पराक्रम उन्हें सबसे शक्तिशाली और वफादार भक्त बनाते हैं। उनका भक्ति और प्रेम उन्हें देवताओं के मध्य एक विशेष स्थान प्राप्त कराता है और उन्हें सबके द्वारा प्रणाम किया जाता है।
हनुमान जी की वफादारी के कुछ प्रमुख उदाहरण:
हनुमानजी की वफादारी का एक प्रमुख उदाहरण है उनकी श्री रामचंद्रजी के प्रति अनवरत भक्ति। उन्होंने अयोध्या के राजा दशरथ और देवी कौसल्या के पुत्र श्री रामचंद्रजी के सेवानिवृत्ति में अपने सभी शक्तियों को समर्पित किया।
उन्होंने सीता माता के संगीन वनवास के दौरान अपने गुरु की खोज में अद्वितीय साहस और समर्पण दिखाया। विभीषण के रूप में लंका के राजा के साथ हनुमानजी की वफादारी और निष्ठा भी एक प्रमुख उदाहरण है। वे रामभक्ति में स्थिर रहकर सत्य के प्रति अपने प्रतिबद्धता को साबित करते हैं।
सीता माता की खोज: जब रावण ने सीता माता का अपहरण कर लिया था, तब हनुमान जी ने लंका की यात्रा की और सीता माता का पता लगाया। उन्होंने रावण के महल में आग लगा दी और सीता माता को ढूंढकर राम जी को संदेश दिया।
लंका दहन: हनुमान जी ने अपनी पूँछ में आग लगाकर पूरी लंका को जला दिया था।
सागर पार करना: हनुमान जी ने समुद्र को लांघने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग किया था।
भक्त का कर्तव्य: हनुमान जी ने सदैव भगवान राम की आज्ञा का पालन किया, चाहे वह कितनी भी कठिन क्यों न हो।
विचारों की शुद्धता: हनुमान जी के मन में सदैव भगवान राम और सीता माता की छवि रहती थी।
हनुमान जी की वफादारी के कुछ खास पहलू:
निःस्वार्थ भक्ति: हनुमान जी ने अपनी शक्ति, बुद्धि और यहां तक कि अपने जीवन को भी भगवान राम की सेवा में समर्पित कर दिया था।
अटूट विश्वास: हनुमान जी को भगवान राम पर पूर्ण विश्वास था।
समर्पण: हनुमान जी ने अपना जीवन भगवान राम की सेवा में समर्पित कर दिया था।
विनम्रता: हनुमान जी के हृदय में सदैव विनम्रता और भक्ति भाव था।
साहस: हनुमान जी अत्यंत साहसी थे और उन्होंने कभी भी किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटे।
हनुमान जी की वफादारी का महत्व:
हनुमान जी हमें सिखाते हैं कि भक्ति का अर्थ क्या होता है।
वे हमें प्रेरणा देते हैं कि हम भी अपने जीवन में कर्तव्य और निष्ठा का पालन करें।
हनुमान जी हमें सिखाते हैं कि हमें सदैव सकारात्मक सोच रखनी चाहिए और कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी चाहिए।
हनुमान चालीसा भगवान हनुमान की महिमा का वर्णन करती है। इसमें उनके जन्म, बल, बुद्धि, भक्ति और राम-लक्ष्मण के प्रति समर्पण का वर्णन मिलता है। हनुमान चालीसा में लंका दहन और संजीवनी बूटी लाने जैसे उनके वीरतापूर्ण कार्यों का भी स्मरण किया जाता है। साथ ही, इसमें भक्तों को कष्टों से मुक्ति और मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद मांगा जाता है।
◆◆ गीता के अध्याय 4 श्लोक 6 में यह कहा है कि मैं (अजः) अजन्मा अर्थात् मैं तुम्हारी तरह जन्म नहीं लेता, मैं लीला से प्रकट होता हूँ। जैसे गीता अध्याय 10 में विराट रुप दिखाया था, फिर कहा है कि (अव्ययात्मा) मेरी आत्मा अमर है। फिर कहा है कि
(आत्ममायया) अपनी लीला से (सम्भवामि) उत्पन्न होता हूँ। यहाँ पर उत्पन्न होने की बात है क्योंकि यह काल ब्रह्म अक्षर पुरुष के एक युग के उपरान्त मरता है। फिर उस समय एक
ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाता है (जैसा कि आपने ऊपर के प्रश्न के उत्तर में पढ़ा) फिर दूसरे ब्रह्माण्ड में सर्व जीवात्माएं चली जाती हैं। काल ब्रह्म की आत्मा भी चली जाती है। वहाँ
इसको पुनः युवा शरीर प्राप्त होता है। इसी प्रकार देवी दुर्गा की मृत्यु होती है। फिर काल ब्रह्म के साथ ह�� इसको भी युवा शरीर प्राप्त होता है। यह परम अक्षर ब्रह्म (सत्य पुरूष) का विधान है। तो फिर उस नए ब्रह्माण्ड में दोनों पति-पत्नी रुप में नए रजगुण युक्त ब्रह्मा, सतगुण युक्त विष्णु तथा तमगुण युक्त शिव को उत्पन्न करते हैं। फिर उस ब्रह्माण्ड में सृष्टि
क्रम प्रारम्भ होता है। इस प्रकार इस काल ब्रह्म की मृत्यु तथा लीला से जन्म होता है। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में भी स्पष्ट है जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे जन्म तर्था कर्म अलौकिक हैं। वास्तव में यह नाशवान है। आत्मा सर्व प्राणियों की भी अमर है। आपके महामण्डलेश्वरों आचार्यों तथा शंकराचार्यों को अध्यात्मिक ज्ञान बिल्कुल नहीं है। इसलिए अनमोल ग्रन्थों को ठीक से न समझकर लोकवेद (दन्तकथा) सुनाते हैं। आप देखें इस गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में स्वयं कह रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं।
उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसका अभिप्राय ऊपर स्पष्ट कर दिया है।
सम्भवात् का अर्थ उत्पन्न होना है।
प्रमाण :- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में भी कहा है कि कोई तो परमात्मा को
(सम्भवात्) जन्म लेने वाला राम व कृष्ण की तरह मानता है, कोई (असम्भवात्) उत्पन्न न होने वाला निराकार मानता है अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्त जो सत्यज्ञान बताते हैं, उनसे सुनो।
वे बताएंगे कि परमात्मा उत्पन्न होता है या नहीं। वास्तव में परमात्मा स्वयंभू है। वह कभी नहीं जन्मा है और न जन्मेगा। मृत्यु का तो प्रश्न ही नहीं। दूसरी ओर गीता ज्ञान दाता स्वयं
कह रहा है कि मैं जन्मता और मरता हूँ, अविनाशी नहीं हूँ। अविनाशी तो ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है।
प्रश्न :- (जिन्दा बाबा परमेश्वर जी का) : आप जी ने कहा है कि हम शुद्र को निकट भी नहीं बैठने देते, शुद्ध रहते हैं। इससे भक्ति में क्या हानि होती है?
‘‘कथनी और करनी में अंतर‘‘
उत्तर :- (धर्मदास जी का) :- शुद्र के छू लेने से भक्त अपवित्र हो जाता है, परमात्मा रुष्ट हो जाता है, आत्मग्लानि हो जाती है। हम ऊँची जाति के वैश्य हैं।
प्रश्न तथा स्पष्टीकरण (बाबा जिन्दा ने किया) :- यह शिक्षा किसने दी? धर्मदास जी ने कहा हमारे धर्मगुरु बताते हैं, आचार्य, शंकराचार्य तथा ब्राह्मण बताते हैं। परमेश्वर कबीर
जी ने धर्मदास को बताया (उस समय तक धर्मदास जी को ज्ञान नहीं था कि आपसे वार्ता करने वाला ही कबीर जुलाहा है) कि कबीर जुलाहा एक बार स्वामी रामानन्द पंडित जी के
साथ तोताद्रिक नामक स्थान पर सत्संग-भण्डारे में गया। वह स्वामी रामानन्द जी का शिष्य है। सत्संग में मुख्य पण्डित आचार्यों ने बताया कि भगवान राम ने शुद्र भिलनी के झूठे बेर
खाए। भगवान तो समदर्शी थे। वे तो प्रेम से प्रसन्न होते हैं। भक्त को ऊँचे-नीचे का अन्तर नहीं देखना चाहिए, श्रद्धा देखी जाती है। लक्ष्मण ने सबरी को शुद्र जानकर ग्लानि करके
बेर नहीं खाये, फैंक दिए, बाद में वे बेर संजीवन बूटी बने। रावण के साथ युद्ध में लक्ष्मण मुर्छित हो गया। तब हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत को उठाकर लाए जिस पर संजीवन बूटी उन झूठे बेरों से उगी थी। उस बूटी को खाने से लक्ष्मण सचेत हुआ, जीवन रक्षा हुई। ऐसी
श्रद्धा थी सबरी की भगवान के प्रति। किसी की श्रद्धा को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। सत्संग के तुरन्त बाद लंगर (भोजन-भण्डारा) शुरु हुआ। पण्डितों ने पहले ही योजना बना रखी थी
कि स्वामी रामानन्द ब्राह्मण के साथ शुद्र जुलाहा कबीर आया है। वह स्वामी रामानन्द का शिष्य है। रामानन्द जी के साथ खाना खाएगा। हम ब्राह्मणों की बेईज्जती होगी। इसलिए दो स्थानों पर लंगर शुरु कर दिया। जो पण्डितों के लिए भण्डार था। उसमें खाना खाने
के लिए एक शर्त रखी कि जो पण्डितां वाले भण्डारे में खाना खाएगा, उसको वेदों के चार मन्त्र सुनाने होंगे। जो मन्त्र नहीं सुना पाएगा, वह सामान्य भण्डारे में भोजन खाएगा। उनको
पता था कि कबीर जुलाहा काशी वाला तो अशिक्षित है शुद्र है। उसको वेद मन्त्र कहाँ से याद हो सकते हैं? सब पण्डित जी चार-चार वेद मन्त्र सुना-सुनाकर पण्डितों वाले
भोजन-भण्डारे में प्रवेश कर रहे थे। पंक्ति लगी थी। उसी पंक्ति में कबीर जुलाहा (धाणक) भी खड़ा था। वेद मन्त्र सुनाने की कबीर जी की बारी आई। थोड़ी दूरी पर एक भैंसा (झोटा)
घास चर रहा था। कबीर जी ने भैंसे को पुकारा। कहा कि हे भैंसा पंडित! कृपया यहाँ आइएगा। भैंसा दौड़ा-दौड़ा आया। कबीर जी के पास आकर खड़ा हो गया। कबीर जी ने भैंसे की कमर पर हाथ रखा और कहा कि हे विद्वान भैंसे! वेद के चार मन्त्र सुना। भैंसे ने
(1) यजुर्वेद अध्याय 5 का मन्त्र 32 सुनाया जिसका भावार्थ भी बताया कि जो परम शान्तिदायक (उसिग असि), जो पाप नाश कर सकता है (अंघारि), जो बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी ��ोड़ है = बम्भारी, वह ‘‘कविरसि’’ कबीर है। स्वर्ज्योति = स्वयं प्रकाशित अर्थात् तेजोमय शरीर वाला ‘‘ऋतधामा’’ = सत्यलोक वाला अर्थात् वह सत्यलोक में निवास करता है। ‘‘सम्राटसि’’ = सब भगवानों का भी भगवान अर्थात् सर्व शक्तिमान समा्रट यानि महाराजा है।
(2) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26 सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा ऊपर के लोक से गति (प्रस्थान) करके आता है, नेक आत्माओं को मिलता है। भक्ति करने
वालों के संकट समाप्त करता है। वह कर्विदेव (कबीर परमेश्वर) है।
(3) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्रा 17 सुनाया जिसका भावार्थ है कि (‘‘कविः‘‘ = कविर) परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्त्वज्ञान प्रचार करता है। कविर्वाणी (कबीर वाणी) कहलाती है। सत्य आध्यात्मिक ज्ञान (तत्त्वज्ञान) को कबीर परमात्मा लोकोक्तियों, दोहों, शब्दों, चौपाइयों व कविताओं के रुप में पदों में बोलता है।
(4) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 भी सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है। भैंसा फिर बोलता है कि भोले पंडितो जो मेरे पास इस पंक्ति में जो मेरे ऊपर हाथ रखे खड़ा है, यह वही परमात्मा कबीर है जिसे लोग ‘‘कवि’’ कहकर पुकारते हैं। इन्हीं की कृपा से मैं आज मनुष्यों की तरह वेद मन्त्र सुना रहा हूँ।
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। संत रामपाल जी महाराज YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
संस्कृति विवि में ब्रज के साहित्य और कला पर हुआ गहन मंथन
संस्कृति विवि में ब्रज के साहित्य और कला पर हुआ गहन मंथन
मथुरा। संस्कृति विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय परिवार, ऑडियो प्लेटफॉर्म गाथा और पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा आयोजित ‘बृज साहित्योत्सव’ उद्घाटन समारोह के पश्चात अनेक सत्र आयोजित हुए जिसमें ब्रज साहित्य और उसकी यात्रा, रूबरू, फेस टू फेस, दास्ताना ए राधाकृष्ण में जहां वक्ताओं से गंभीर सवाल-जवाब हुए वहीं चुटीले व्यग्य और ब्रज की सामाजिकता पर भी बात हुई। इन अनूठे आयोजनों को मौजूद हजारों श्रोताओं ने तालियों के समवेत स्वर से जमकर सराहा।
पहले सत्र में सुप्रसिद्ध हास्य कवि, रचनाकार, टीवी कलाकार पद्मश्री डॉ अशोक चक्रधर ने संवाद में कई चुटकुले व्यंगों के माध्यम से ब्रजभाषा की संस्कृति और ब्रज की सामाजिकता पर चर्चा की। उनके पूरे संवाद के दौरान उपस्थित श्रोता और छात्र कहीं लोट पोट होते रहे तो कहीं गंभीर चिंतन करने पर मजबूर होते रहे। उन्होंने आर्टिफिसिशल इंटेलिजेंस के हिंदी भाषा के विकास और प्रसार में उपयोगिता पर चर्चा की। ब्रज भाषा में मेट्रो में किस तरह अनाउंसमेंट होगा, इसको जब सुनाया तो लोगों नए जमकर ठहाके लगाए। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि आशु कवि बनने के लिए शब्द भण्डार और तुकों का खेल महत्वपूर्ण होता है। बात तुक वाली हो बेतुकी न हो। अन्य प्रश्नों के उत्तर में कहां कि हर शख्स जन्म से ही कलाकार होता है हर एक शख्स के पास अपनी अलग प्रतिभा होती है। कल्पनाशील बनिए लोगों को अच्छे से सुनिए सही दिशा को तलाश कीजिए।
स्वागत वक्तव्य में गाथा के सह संस्थापक और निदेशक अमित तिवारी ने बताया कि गाथा एक ऐसा ऑडियो प्लेटफॉर्म है जो संपूर्ण भारतीय साहित्य को ऑडियो में कन्वर्ट करके आम जनता तक पहुंचाना चाहता है ताकि लोगों की साहित्य के प्रति पहुंच भी बढ़े और उनका रुझान भी बढ़े। गाथा की निदेशक और सह संस्थापक पूजा श्रीवस्तव ने बताया कि गाथा अगले वर्ष तक हिंदी के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रीय भाषा के साहित्य पर कार्य करने के लिए कार्य योजना बना रहा है।
अगले में प्रोफेसर शंभू नाथ तिवारी और और प्रोफेसर कृष्ण चंद्र गोस्वामी ने चर्चा करते हुए ब्रजभाषा की साहित्यिकता और ब्रजभाषा के इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डाला। इसके बाद आज के दौर के सर्वाधिक वायरल और सर्वाधिक चर्चित कवि गीत चतुर्वेदी से अल्पना सुहासिनी ने चर्चा की। गीत चतुर्वेदी के चुटीले व्यंग्य और उनकी चर्चा की शैली का बच्चों ने बहुत आनंद लिया। उन्होंने यह भी कहा कि जीवन में प्रेम पूरक की तरह होना चाहिए प्रेम के बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसके उपरांत सुप्रसिद्ध दास्तानगो फौजिया ने राधा और कृष्ण की कहानी को अपने सहयोगियों के साथ बड़े मनोरंजक माध्यम से प्रस्तुत किया। सभी लोगों ने इस कार्यक्रम की भरपूर सराहना की। संस्कृति विवि के मंच ने कवियों ने रचा कवित्त का संसार
मथुरा। कवि सम्मेलन में श्याम सुंदर अकिंचन के प्रेम पर मुक्तक और गीत बहुत सराहे गए। डॉ राजीव राज ने अपने गीतों से ऐसा जादुई समा बांधा कि हर कोई वाह वाह कर उठा। सुप्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय कवि सुरेश अवस्थी जी ने हास्य व्यंग्य की कविताओं के माध्यम से सामाजिक अवस्थाओं पर चुटीले व्यंग्य किए। जाने माने अंतर्राष्ट्रीय शायर अजहर इकबाल ने जैसे ही पढ़ा कि, दया अगर लिखने बैठू तो होते हैं अनुवादित राम। रावण को भी नमन किया ऐसे थे मर्यादित राम। इस पर तो पूरे पंडाल में लगातार तालियां बजती रही। कवि सम्मेलन का संचालन शशिकांत यादव ने किया।
संगीत और नृत्य पर विद्यार्थी जमकर झूमे
बीकानेर राजस्थान से आए जुड़वा भाइयों अमित गोस्वामी और असित गोस्वामी की जोड़ी ने सरोद और सितार की अपने द्वारा विकसित की गई अनूठी शैली का प्रदर्शन किया। उनकी संगीत मय प्रस्तुति से सभी मंत्रमुग्ध होकर झूमने लगे।
इसके बाद मुंबई से आए बैंड डिवाइन विलयन के साथ जाने-माने फ्लेमिंको आर्टिस्ट कुणाल ओम तावरी, कत्थक नृत्यांगना निधि प्रभु गायिका विनती सिंह, गायक चित्रांशु श्रीवास्तव ने अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से माहौल संगीतमय कर दिया। सभी दर्शक देर तक गीतों पर नाचते झूमते रहे।
जब अनु कपूर ने स्टेज पर ठुमके लगाए
इसके उपरांत अंतिम प्रस्तुति के रूप में जाने माने अभिनेता, निर्देशक और आरजे अनु कपूर जी से गाथा के कविता प्रकोष्ठ की निदेशक डॉ भावना तिवारी ने वार्ता की। चर्चा के साथ साथ अनु कपूर जी ने अपनी सुरीली आवाज में संगीतमय प्रस्तुति देकर सभी को दीवाना बना दिया। देर रात तक श्रोता हंसते झूमते गाते रहे। उन्होंने कुछ गीतों को गाते हुए मंच पर जमकर ठुमके लगाए और विद्यार्थियों को दीवाना बना दिया।
विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ सचिन गुप्ता ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित कर कार्यक्रम का समापन किया। कार्यक्रम का संचालन उन्नाव से आए विश्वनाथ तिवारी, संस्कृति ट्रेनिंग एंड प्लेसमेंट सेल की वरिष्ठ प्रबंधक अनुजा गुप्ता और आरजे जय ने किया। मंच पर डा.वाधवा, डा. राजश्री, डा. अनुभव सोनी, प्राची आदि ने सहयोग दिया।
ब्रज की विभूतियों का सम्मान
ब्रज साहित्योत्सव के मंच से ब्रज की विभूतियों पद्मश्री मोहन स्वरूप भाटिया, पद्मश्री कृष्ण कन्हाई, ब्रज लोक कला और शिल्पकला के संग्रहालय के संस्थापक डा. उमेश शर्मा, ख्याति प्राप्त हिंदी(ब्रज) भाषा के कवि डा.रमाशंकर पांडेय, ब्रज भाषा साहित्य और कला के विद्वान डा. भागवत नागिया, डा. सहदेव चतुर्वेदी, डा. श्रीमती सीमा मोरवाल प्रेम बाबू प्रेम का सम्मान किया गया। इन सभी विद्वानों का सम्मान संस्कृति विवि के कुलाधिपति डा. सचिन गुप्ता ने ब्रज की परंपराओं के अनुरूप शाल ओढ़ाकर और स्मृति चिह्न देकर किया। सभी विद्वानों ने संक्षिप्त संबोधन से अपनी विद्वता का संदेश प्रेषित किया।
"कहा कबीर है नाम हमारा | तत्वज्ञान देने आया संसारा || सत लोक से हम चल आये| l
#GodNightWednesday "जब तक गुरु मिले ना सांचा | तब तक गुरु करो दस पाँचा"🙏
#SpiritualMessageOnDussehra
"आवत संग न जात संगाती , क्या हुआ दर बांधे हाथी।
इक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण के आज दीया न बाती"||
"भक्ति बिना क्या होत हैं, ये भरम रहा संसार।रति कंचन पाया नहीं, रावण चलती बार"||
कबीर वाणी_"सर्व सोने की लंका थी,वो रावण से रणधीरं| एक पलक में राज विराजै, जम के पड़ै जंजीरं"
🙏सतभक्ति के बिना जीव का कल्याण संभव नहीं है। दशहरा, और विजयदशमी इन शब्दों की सार्थकता बुराई पर अच्छाई की जीत यह भी सतभक्ति से ही संभव है शास्त्र अनुकूल धर्म ग्रंथो के अनुसार परमात्मा के संविधान के अनुसार जब हम उस पूर्ण परमेश्वर आदि राम की भक्ति करते हैं तो वे सतभक्ति होती है सत भक्ति की सफलता भी सिद्धांतों और मर्यादा पर आधारित होती है जीवन में किसी भी उद्देश्य की सफलता के लिए सिद्धांत और मर्यादा का होना अनिवार्य है पूर्ण परमेश्वर समर्थ परमेश्वर ही हर बुराई का अंत कर सकता है | हमारे कष्टों का निवारण भी पूर्ण परमेश्वर जी की भक्ति कर सकती है | अधूरा ज्ञान और लोक वेद,दंत कथा आदि ये सब ऐसे हैं जैसे नीम हकीम खतरा-ए_जान है 🙏 पूर्ण परमेश्वर के विधान और संविधान के अनुसार ही भक्ति करनी चाहिए भक्ति करना भी अनिवार्य है आजीवन करनी चाहिए अपना परम कर्तव्य समझ कर करना चाहिए क्योंकि मानव जीवन अनमोल है बारंबार प्राप्ति नहीं है🙏
👉🏽bit.ly/3v45pdK
#vijaydashmi #Ravana #Dussehra #Dussehra2023
#KabirisGod
तत्व दृष्टा संत
जगत के तारणहार
पूर्ण सतगुरु संत रामपाल जी महाराज
💖GREAT CHYREN
💖SUPREME GOD KABIR
🙏🥀जय बंदीछोड़🥀🙏
"कबीर अंतर्यामी एक तू,आत्म के आधार |🙏 जो तुम छोड़ो हाथ तो,कौन उतारे पार"||🙏
"सतगुरु पूर्ण ब्रह्म हैं, सतगुरु आप आलेख | सतगुरु रमता राम हैं या में मीन ना मेंख"||🙏
लोग ना जाने क्या क्या बनने की ख्वाहिशें मन में पाल रखा हैं वो भी इस काल के लोक में जहां एक पल (अगले ही पल) का कोई भरोसा नहीं हैं।
लोग काल के इस लोक में काल प्रेरणा से...
कोई सरपंच बनना चाहता हैं
कोई MLA बनना चाहता हैं
कोई मंत्री बनना चाहता हैं
कोई मुख्यमंत्री बनना चाहता हैं
कोई तांत्रिक तो कोई सिद्धि युक्त बनना चाहता हैं
कोई ज्योतिषी तो कोई भविष्यवक्ता बनना चाहता हैं
कोई आचार्य, शंकराचार्य बनना चाहता हैं
कोई सेठ साहूकार बनना चाहता हैं
कोई बिजनेसमैन बनना चाहता हैं
कोई इंजिनियर तो कोई वैज्ञानिक बनना चाहता हैं
कोई डॉक्टर तो कोई एडवोकेट बनना चाहता हैं
और जो बनना चाहिए उसका उसे इल्म तक नहीं हैं ।
अजी बनना तो प्रभु भक्त बनिये, अपना भी कल्याण कराइये और अपने कूल का भी उद्धार कराइये, भागीरथ के समान....
✓✓✓ कहने का तात्पर्य यह हैं कि आपके अंदर जो बनने की योग्यता हैं उनके अनुरूप अवश्य बनो,घर का काम भी करो, जीवन निर्वाह हेतु कामधंधा भी करो लेकिन इन सबके बीच परमात्मा को मत भुलो,समय निकाल कर दो घड़ी उस परमेश्वर की भक्ति भी करो।
क्योंकि .....
गरीब,राम नाम निजसार हैं,राम नाम निज मूल *
रामनाम सौदा करो, राम नाम नहीं भूल **
कबीर साहेब कहते हैं कि .....
या तो माता भगत जनै, या दाता या शूर *
या फिर रहे बांजड़ी,क्यों ब्यर्थ गंवावै नूर **
गरीब,भक्ति बिना क्या होत हैं,भ्रम रहा संसार *
रति कंचन पाया नहीं, रावण चलती बार **
यदि आप भक्ति नहीं करोगे तो आपके सांथ क्या बनेगा ? इस संबंध में परमात्मा का क्या विधान हैं ?
गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि
नर सेती तू पशुवा कीजै, गधा, बैल बनाई ।
छप्पन भोग कहाँ मन बौरे,कहीं कुरड़ी चरने जाई ।।
मनुष्य जीवन में हम कितने अच्छे अर्थात् 56 प्रकार के भोजन खाते हैं। भक्ति न करने से या शास्त्रविरूद्ध साधना करने से गधा बनेगा, फिर ये छप्पन प्रकार के भोज आपको खाने को कहां मिलेगा ?
गिद्ध,कुत्ते,सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा देवब्रत भीष्म शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था अकेला .... !तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची ,"प्रणाम पितामह" .
भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी , बोले , " आओ देवकीनंदन .. ! स्वागत है तुम्हारा .... !!
मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था" .... !!
कृष्ण बोले , "क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप" ....
भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले , " पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव .... ? उनका ध्यान रखना , परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है" .... !
भीष्म ने पुनः कहा , "कुछ पूछूँ केशव .... ?
बड़े अच्छे समय से आये हो .... ! सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय " .... !!
कृष्ण बोले - कहिये न पितामह .... ! एक बात बताओ प्रभु ! तुम तो ईश्वर हो न .... ?
कृष्ण ने बीच में ही टोका , "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं ... मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह .... ईश्वर नहीं ...."
भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े .... ! बोले , " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे .... !! "
कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले .... " कहिये पितामह .... !"
भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया ! ��स युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या .... ?" "किसकी ओर से पितामह .... ?पांडवों की ओर से .... ?" "कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया ! पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था...आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार,दुःशासन की छाती का चीरा जाना,
ठीक था क्या..?यह सब उचित था क्या..?"इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह..! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया.!! उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम,उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाल अर्जुन.. !!
मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह .... !!
"अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण .... ? अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है .... ! मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण .... !" "तो सुनिए पितामह .... ! कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ..! वही हुआ जो हो होना चाहिए ..!"
"यह तुम कह रहे हो केशव...? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ..? यह क्षल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा , फिर यह उचित कैसे गया....?
"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है .... ! हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है .... !! राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था .... !
हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह .... !!"
" राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह .... ! राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था .... !!
तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण और कुम्भकर्ण जैसे सन्त हुआ करते थे ..... ! तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे .... ! उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था .... !!
इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया .... ! किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं .... !! उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह .... ! पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो .... !!"
"तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव .... ? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा .... ? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा ..... ??" " भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह .
कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा .... !
वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा .... नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा .... !
जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों , तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह .... !
तब महत्वपूर्ण होती है विजय , केवल विजय .... ! भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह ..... !!"
"क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव .... ?
और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ..... ?"
"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह .... !
ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ..... !
सब मनुष्य को ही करना पड़ता है .... !
आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न .... !
तो बताइए न पितामह , मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या ..... ?
सब पांडवों को ही करना पड़ा न .... ?
यही प्रकृति का संविधान है .... !
युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से..यही परम सत्य है..!!"
भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे..!
उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी .... !
उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है..कल सम्भवतः चले जाना हो..अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण .... !"
कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्�� को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था ...!
*जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों , तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है*.... !!
Information about tourist places and places to visit in Rishikesh
Laxman Jhula Highlights
ऋषिकेश का सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल लक्ष्मण झूला है। इसे अंग्रेजों ने अपने आराम के लिए बनाया था। लक्ष्मण झूला लगभग 90 वर्ष पुराना है। लक्ष्मण झूला लगभग 450 मीटर लंबा है, और ऐसा माना जाता है कि भगवान राम के छोटे भाई भगवान लक्ष्मण ने इस पुल को जूट से बनाया था और यहां तपस्या की थी। इसलिए इस पुल को लक्ष्मण झूला कहा जाता है।
Shiv Murti Highlights
परमार्थ निकेतन से शिव मूर्ति का दृश्य देखा जा सकता है। यह गंगा नदी के बीच में स्थित है। यह मूर्ति लगभग 14 फीट ऊंची है, और यह पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है। परमार्थ निकेतन आश्रम का परिदृश्य अपने आप में एक शांति देता है और खूबसूरत ।
Neelkanth Mahadev Temple Highlights
Location – Manikoot Mountain (parvat) near Rishikesh
ऋषिकेश वह स्थान है जहां भगवान शिव ने समुद्र मंथन (समुद्र मंथन) के दौरान विष (विष) पिया था और उस विष को पीने के बाद उनका गला नीला हो गया था। इसलिए इस स्थान को नीलकंठ महादेव मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर मणिकूट, भारहमकूट और तीन पहाड़ियों से घिरा हुआ है। विष्णुकूट।अगर आप आरती में शामिल होना चाहते हैं तो आपको सुबह 6 बजे इस मंदिर में जरूर जाना चाहिए।
Neelgarh Waterfalls Highlights
नीलगढ़ झरना 25 फीट ऊंचा झरना है जो 3 झरनों से मिलकर बना है और इस झरने की खूबसूरती देखते ही बनती है। इस झरने को देखने के लिए आपको पैदल चलना होगा और 2 पुलों को पार करना होगा।
नीलगढ़ झरने की यात्रा का सबसे अच्छा समय मानसून के बाद अक्टूबर और सितंबर के बीच है क्योंकि तभी आप इस झरने की सुंदरता देख पाएंगे।यहां घूमने के लिए कोई प्रवेश शुल्क नहीं है। अगर आप इस झरने को देखने जा रहे हैं तो अपने साथ कपड़े जरूर ले जाएं क्योंकि हो सकता है आपका मन उस झरने में नहाने का हो जाए।
Beatles Ashram Highlights
चौरासी कुटिया के नाम से भी जाना जाने वाला बीटल्स आश्रम एक आध्यात्मिक स्थान है। यह ऋषिकेश में सबसे लोकप्रिय पर्यटक आकर्षणों में से एक है। आश्रम पहले एक प्रशिक्षण केंद्र था, लेकिन इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान तब मिली जब बीटल्स इंग्लिश रॉक बैंड ने 1968 में यहां ध्यान लगाया।
स्थानीय लोगों के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि उस बंद में लोगों ने जो समय बिताया वह उनका सबसे अच्छा समय था और उन्होंने बहुत अच्छे गाने लिखे। खुलने का समय - सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक / कोई प्रवेश शुल्क नहीं।
Trimbakeshwar Temple Highlights
त्र्यंबकेश्वर मंदिर, जिसे 13 मंजिला मंदिर भी कहा जाता है। यह इमारत शिव का मंदिर है। यहां के लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था।
Triveni Ghat Highlights
गंगा आरती ऋषिकेश की बहुत पुरानी परंपरा है। यह आरती त्रिवेणी घाट पर होती है। इस घाट का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव ने करवाया था। आरती का समय शाम 6 बजे से 7 बजे तक
Rishi Kund Highlights
ऋषिकेश में, ऋषि कुंड त्रिवेणी घाट के पास स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, ऋषि कुंड लगभग 400-500 साल पुराना है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, राम ने रावण को हराने के बाद एक ब्राह्मण की हत्या के लिए यहां पश्चाताप किया था। ऋषि कुंड में भगवान की मूर्तियां हैं राम और देवी सीता.
रिषिकेश में त्योहार
रिषिकेश गंगा नदी के किनारे भारत का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। यहाँ विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव मनाए जाते हैं, जो स्थानीय लोगों और पर्यटकों को एक अलग माहौल देते हैं।
- गंगा उत्सव: रिषिकेश में हर वर्ष यह त्योहार मनाया जाता है, जो गंगा नदी के महत्व को दर्शाता है। महोत्सव में कविता पाठ, संगीत और नृत्य के कार्यक्रम होते हैं।
- श्री शिवरात्रि: रिषिकेश में भी महाशिवरात्रि का बड़ा उत्सव मनाया जाता है। शिव मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ-साथ पूरी रात जागरण भी होता है।
- योग उत्सव: रिषिकेश महोत्सव ने योग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जो भारत और दुनिया भर में लोकप्रिय है। इस महोत्सव के दौरान योग शिक्षकों की विशेष बैठकें, व्यायाम शिविर, सेमिनार और योग शिक्षा की व्याख्याएँ होंगी।
- श्रीगणेश चतुर्थी: गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेश की भव्य पूजा की जाती है। मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना के साथ संगीत शो होते हैं।
- दिवाली: रिषिकेश में भी दीपावली खास रूप से मनाई जाती है। दीपों की रौशनी, मंदिरों की आरतियाँ और आकर्षक शोर गंगा किनारे को भर देते हैं।
- रिषिकेश के धार्मिक महत्व, सांस्कृतिक धरोहर और पर्यटन के कारण ये त्योहार महत्वपूर्ण हैं, जो स्थानीय और बाहरी पर्यटकों को एक साथ आने का अवसर देते हैं।
रिषिकेश पहुँचने के तरीके:
- हवाई मार्गः नजदीकी लघुवायु विमानपत्तन देहरादून है, जिससे आप उड़ान ले सकते हैं। देहरादून से रिषिकेश की दूरी लगभग 20-25 किलोमीटर है, जिसे आप टैक्सी या बस से आसानी से पूरा कर सकते हैं।
- रेल मार्गः नजदीकी रेलवे स्टेशन है हरीद्वार, जिससे रिषिकेश की दूरी लगभग 20-25 किलोमीटर है। हरीद्वार से आप टैक्सी, ऑटोरिक्शा, या बस से रिषिकेश पहुँच सकते हैं।
- सड़क मार्गः रिषिकेश आवासीय शहरों से सड़क द्वारा भी पहुँचा जा सकता है। नेशनल हाइवे NH58 (नाम से भी जाना जाता है) रिषिकेश से जुड़ा होता है और यह दिल्ली से भी जुड़ा है।
- बस मार्गः बहुत सारी राज्यों और शहरों से रिषिकेश के लिए नियमित बस सेवाएँ उपलब्ध हैं। आप अपने निकटतम बस स्टेशन से रिषिकेश जा सकते हैं।
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*“कबीर परमेश्वर द्वारा विभीषण तथा मंदोदरी को शरण में लेना”*
📜परमेश्वर मुनिन्द्र जी अनल अर्थात् नल तथा अनील अर्थात् नील को शरण में लेने के उपरान्त श्री लंका में गए। वहाँ पर एक परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी का सोलह सदस्यों का परिवार रहता था। वे भाट जाति में उत्पन्न पुण्यकर्मी प्राणी थे। परमेश्वर मुनिन्द्र(कविर्देव) जी का उपदेश सुन कर पूरे परिवार ने नाम दान प्राप्त किया। परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी की पत्नी भक्तमति कर्मवती लंका के राजा रावण की रानी मन्दोदरी के पास नौकरी(सेवा) करती थी। रानी मंदोदरी को हँसी-मजाक अच्छे-मंदे चुटकुले सुना कर उसका मनोरंजन कराती थी। भक्त चन्द्रविजय, राजा रावण के पास दरबार में नौकरी (सेवा) करता था। राजा की बड़ाई के गाने सुना कर उसे प्रसन्न करता था। भक्त विचित्र चन्द्रविजय की पत्नी भक्तमति कर्मवती परमेश्वर से उपदेश प्राप्त करने के उपरान्त रानी मंदोदरी को प्रभु चर्चा जो सृष्टि रचना अपने सतगुरुदेव मुनिन्द्र जी से सुनी थी प्रतिदिन सुनाने लगी।
भक्तमति मंदोदरी रानी को अति आनन्द आने लगा। कई-कई घण्टों तक प्रभु की सत कथा को भक्तमति कर्मवती सुनाती रहती तथा मंदोदरी की आँखों से आँसू बहते रहते। एक दिन रानी मंदोदरी ने कर्मवती से पूछा आपने यह ज्ञान किससे सुना? आप तो बहुत अनाप-शनाप बातें किया करती थी। इतना बदलाव परमात्मा तुल्य संत बिना नहीं हो सकता। तब कर्मवती ने बताया कि हमने एक परम संत से अभी-अभी उपदेश लिया है। रानी मंदोदरी ने संत के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा, आप के गुरु अब की बार आयें तो उन्हें हमारे घर बुला कर लाना। अपनी मालकिन का आदेश प्राप्त करके शीश झुकाकर सत्कार पूर्वक कहा कि जो आप की आज्ञा, आप की नौकरानी वही करेगी। मेरी एक विनती है, कहते हैं कि संत को आदेशपूर्वक नहीं बुलाना चाहिए। स्वयं जा कर दर्शन कर���ा श्रेयकर होता है और जैसे आप की आज्ञा वैसा ही होगा। महारानी मंदोदरी ने कहा कि अब के आपके गुरुदेव जी आयें तो मुझे बताना मैं स्वयं उनके पास जाकर दर्शन करूंगी। परमेश्वर ने फिर श्री लंका में कृपा की। मंदोदरी रानी ने उपदेश प्राप्त किया। कुछ समय उपरान्त अपने प्रिय देवर भक्त विभीषण जी को उपदेश दिलाया। भक्तमति मंदोदरी उपदेश प्राप्त करके अहर्निश प्रभु स्मरण में लीन रहने लगी। अपने पति रावण को भी सतगुरु मुनिन्द्र जी से उपदेश प्राप्त करने की कई बार प्रार्थना की परन्तु रावण नहीं माना तथा कहा करता था कि मैंने परम शक्ति महेश्वर मृत्युंजय शिव जी की भक्ति की है। इसके तुल्य कोई शक्ति नहीं है। आपको किसी ने बहका लिया है।
कुछ ही समय उपरान्त वनवास प्राप्त श्री सीता जी का अपहरण करके रावण ने अपने नौ लखा बाग में कैद कर लिया। भक्तमति मंदोदरी के बार-बार प्रार्थना करने से भी रावण ने माता सीता जी को वापिस छोड़ कर आना स्वीकार नहीं किया। तब भक्तमति मंदोदरी जी ने अपने गुरुदेव मुनिन्द्र जी से कहा महाराज जी, मेरे पति ने किसी की औरत का अपहरण कर लिया है। मुझ से सहन नहीं हो रहा है। वह उसे वापिस छोड़ कर आना किसी कीमत पर भी स्वीकार नहीं कर रहा है। आप दया करो मेरे प्रभु। आज तक जीवन में मैंने ऐसा दुःख नहीं देखा था।
परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने कहा कि बेटी मंदोदरी यह औरत कोई साधारण स्त्री नहीं है। श्री विष्णु जी को शापवश पृथ्वी पर आना पड़ा है, वे अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र नाम से जन्में हैं। इनको 14 वर्ष का वनवास प्राप्त है तथा लक्ष्मी जी स्वयं सीता रूप में इनकी पत्नी रूप में वनवास में श्री राम के साथ थी। उसे रावण एक साधु वेश बना कर धोखा देकर उठा लाया है। यह स्वयं लक्ष्मी ही सीता जी है। इसे शीघ्र वापिस करके क्षमा याचना करके अपने जीवन की भिक्षा याचना रावण करें तो इसी में इसका शुभ है।
भक्तमति मंदोदरी के अनेकों बार प्रार्थना करने से रावण नहीं माना तथा कहा कि वे दो मसखरे जंगल में घूमने वाले मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं। मेरे पास अनीगनत सेना है। मेरे एक लाख पुत्र तथा सवा लाख नाती हैं। मेरे पुत्र मेघनाद ने स्वर्ग राज इन्द्र को पराजित कर उसकी पुत्री से विवाह कर रखा है। तेतीस करोड़ देवताओं को हमने कैद कर रखा है। तू मुझे उन दो बेसहारा बन में बिचर रहे बनवासियों को भगवान बता कर डराना चाहती है। इस स्त्री को वापिस नहीं करूँगा। मंदोदरी ने भक्ति मार्ग का ज्ञान जो अपने पूज्य गुरुदेव से सुना था, रावण को बहुत समझाया। विभीषण ने भी अपने बड़े भाई को समझाया। रावण ने अपने भाई विभीषण को पीटा तथा कहा कि तू ज्यादा श्री रामचन्द्र का पक्षपात कर रहा है, उसी के पास चला जा।
एक दिन भक्तमति मंदोदरी ने अपने पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना की कि हे गुरुदेव मेरा सुहाग उजड़ रहा है। एक बार आप भी मेरे पति को समझा दो। यदि वह आप की बात को नहीं मानेगा तो मुझे विधवा होने का दुःख नहीं होगा।
अपनी बचन की बेटी मंदोदरी की प्रार्थना स्वीकार करके राजा रावण के दरबार के समक्ष खड़े होकर परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने द्वारपालों से राजा रावण से मिलने की प्रार्थना की। द्वारपालों ने कहा ऋषि जी इस समय हमारे राजा जी अपना दरबार लगाए हुए हैं। इस समय अन्दर का संदेश बाहर आ सकता है, बाहर का संदेश अन्दर नहीं जा सकता। हम विवश हैं। तब पूर्ण प्रभु अंतध्र्यान हुए तथा राजा रावण के दरबार में प्रकट हो गए। रावण की दृष्टि ऋषि पर गई तो गरज कर पूछा कि इस ऋषि को मेरी आज्ञा बिना किसने अन्दर आने दिया है उन द्वारपालों को लाकर मेरे सामने कत्ल कर दो। तब परमेश्वर ने कहा राजन् आप के द्वारपालों ने स्पष्ट मना किया था। उन्हें पता नहीं कि मैं कैसे अन्दर आ गया। रावण ने पूछा कि तू अन्दर कैसे आया? तब पूर्ण प्रभु मुनिन्द्र वेश में अदृश होकर पुनर् प्रकट हो गए तथा कहा कि मैं ऐसे आ गया। रावण ने पूछा कि आने का कारण बताओ। तब प्रभु ने कहा कि आप योद्धा हो कर एक अबला का अपहरण कर लाए हो। यह आप की शान व शूरवीरता के विपरीत है। सीता कोई साधारण औरत नहीं है यह स्वयं लक्ष्मी जी का अवतार है। श्री रामचन्द्र जी जो इसके पति हैं वे स्वयं विष्णु हैं। इसे वापिस करके अपने जीवन की भिक्षा माँगो। इसी में आप का श्रेय है। इतना सुन कर तमोगुण (भगवान शिव) का उपासक रावण क्रोधित होकर नंगी तलवार लेकर सिंहासन से दहाड़ता हुआ कूदा तथा उस नादान प्राणी ने तलवार के अंधाधँुध सत्तर वार ऋषि जी को मारने के लिए किए। परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने एक झाडू की सींक हाथ में पकड़ी हुई थी। उसको ढाल की तरह आगे कर दिया। रावण के सत्तर वार उस नाजुक सींक पर लगे। ऐसे आवाज हुई जैसे लोहे के खम्बे (पीलर) पर तलवार लग रही हो। सींक टस से मस नहीं हुई। रावण को पसीने आ गए। फिर भी अपने अहंकारवश नहीं माना। यह तो जान लिया कि यह कोई साधारण ऋषि नहीं है। रावण ने अभिमान वश कहा कि मैंने आप की एक भी बात नहीं सुननी, आप जा सकते हैं। परमेश्वर अंतध्र्यान हो गए तथा मंदोदरी को सर्व वृतान्त सुनाकर प्रस्थान किया। रानी मंदोदरी ने कहा गुरुदेव अब मुझे विधवा होने में कोई कष्ट नहीं होगा।
श्री रामचन्द्र व रावण का युद्ध हुआ। रावण का वध हुआ। जिस लंका के राज्य को रावण ने तमोगुण भगवान शिव की कठिन साधना करके, दस बार शीश न्यौछावर करके प्राप्त किया था। वह क्षणिक सुख भी रावण का चला गया तथा नरक का भागी हुआ। इसके विपरीत पूर्ण परमात्मा के सतनाम साधक विभीषण को बिना कठिन साधना किए पूर्ण प्रभु की सत्य साधना व कृपा से लंकादेश का राज्य भी प्राप्त हुआ। हजारों वर्षों तक विभीषण ने लंका का राज्य का सुख भोगा तथा प्रभु कृपा से राज्य में पूर्ण शान्ति रही। सभी राक्षस वृति के व्यक्ति विनाश को प्राप्त हो चुके थे। भक्तमति मंदोदरी तथा भक्त विभीषण तथा परम भक्त चन्द्रविजय जी के परिवार के पूरे सोलह सदस्य तथा अन्य जिन्होंने पूर्ण परमेश्वर का उपदेश प्राप्त करके आजीवन मर्यादावत् सतभक्ति की वे सर्व साधक यहाँ पृथ्वी पर भी सुखी रहे तथा अन्त समय में परमेश्वर के विमान में बैठ कर सतलोक (शाश्वतम् स्थानम्) में चले गए। इसीलिए पवित्र गीता अध्याय 7 मंत्र 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की साधना से मिलने वाली क्षणिक सुविधाओं के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे राक्षस स्वभाव वाले, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (काल-ब्रह्म) को भी नहीं भजते।
फिर गीता अध्याय 7 मंत्र 18 में गीता बोलने वाला (काल-ब्रह्म) प्रभु कह रहा है कि कोई एक उदार आत्मा मेरी (ब्रह्म की) ही साधना करता है क्योंकि उनको तत्त्वदर्शी संत नहंी मिला। वे भी नेक आत्माऐं मेरी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ (गतिम्) गति में आश्रित रह गए। वे भी पूर्ण मुक्त नहीं हैं। इसलिए पवित्र गीता अध्याय 18 मंत्र 62 में कहा है कि हे अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमेश्वर (पूर्ण परमात्मा अर्थात् तत् ब्रह्म) की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।
इसलिए पुण्यात्माओं से निवेदन है कि आज इस दासन् के भी दास (रामपाल दास) के पास पूर्ण परमात्मा प्राप्ति की वास्तविक विधि प्राप्त है। निःशुल्क उपदेश लेकर लाभ उठाऐं।
प्रश्नः- धर्मदास जी ने प्रश्न किया हे प्रभु कुछ श्रद्धालु श्री हनुमान जी की पूजा करते हैं। यह शास्त्रविरूद्ध है या अनुकूल।
उत्तरः- कबीर देव ने कहा हे धर्मदास! अर्जुन को काल ब्रह्म ने श्रीमदभगवत् गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि हे अर्जुन! जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण (पूजा) करता है। वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न परमगति को न सुख को ही (गीता अ16/मं.23) इस से तेरे लिए कर्तव्य अर्थात् करने योग्य भक्ति कर्म तथा अकत्र्तव्य अर्थात् न करने योग्य जो त्यागने योग्य कर्म हैं उनकी व्यवस्था में शास्त्र में लिखा उल्लेख ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत भक्ति कर्म अर्थात् साधना ही करने योग्य है। (गीता अ.16/ श्लोक 24) हे धर्मदास जी! गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 व 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 20 से 23 तथा 25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की पूजा करना भी व्यर्थ कहा है, भूतों की पूजा, पितरों की पूजा व अन्य सर्व देवताओं की पूजा को भी अविधिपूर्वक (शास्त्रविधि विरूद्ध) बताया है। हनुमान तो रामभक्त थे। वे स्वयं भी भक्ति करते थे तथा अन्य को भी राम की भक्ति करने को ही कहते थे। यदि कोई भक्त दूसरे भक्त की पूजा करता है। वह शास्त्रविधि विरूद्ध होने से व्यर्थ है। त्रेता युग में मैंने हनुमान को भी शरण में लिया था।
हजारों साल पहले महिसासुर नामक एक अत्याचारी राक्षश था। वो आधा दानव और आधा भैंस था। महिसासुर ने भगवान ब्रम्हा को प्रसन करने के लिए हजारों साल तक तपस्या की ताकि वो अमरता को प्राप्त कर सके। बहुत तपस्या के बाद उसकी योजना सफल हुए। भगवान् ब्रम्हा उसके पास आये और उनोहने उसे कहा मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन हूँ , मांगो तुम्हे क्या वरदान चाहिए। बिना पालक झपकाए अभिमानी महिसासुर ने कहा , प्रभु में चाहता हूँ कि कोई भी पुरुष या देव मुझे मार न सके। भगवान् ब्रम्हा ने आशीर्वाद देते हुए कहा तथास्तु। तुह्मारी इच्छा पूरी हो। ब्रम्हा कि आँखों कि चमक एक बात का संकेत दे रही थी कि वरदान मांगते समय महिसासुर से शायद कोई भूल हो गयी है। इसके बाद महिसासुर स्व्येम को अमर मानने लगा। क्योकि कोई भी पुरुष या देव उसको मार नहीं सकता था। अपने आक्रोश और अहंकार में महिसासुर ने पृथ्वी को तबाह कर दिया। उसने सवर्ग से सभी देवताओं को भी भगा दिया। सभी देवता भयभीत होकर भगवान् ब्रम्हा , विष्णु और शिव के पास पहुंचे और उनको इस घटना के बारे में बताया। कुछ समय तक सोचने के बाद उनोने एकजुट होकर एक दिव्यप्रकाश कि उत्पत्ति की। एक ऐसा तीव्र प्रकाश जो पहले कभी नहीं देखा गया था। इस दिव्यप्रकाश से 10 हाथों वाली आदिशक्ति रुपी देवी दुर्गा प्रकट हुई। एक एक करके सभी देवताओं ने देवी दुगा को कई शस्त्रों से सुसज्जित किया। भगवान् विष्णु से उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। ब्रम्हा जी ने उन्हें एक कमंडल दिया। सागर के देवता वरुण ने उन्हें तीरों से भरा एक तरकश प्रदान किया। मृत्यु के देवता यम ने उन्हें एक शक्तिशाली राजदंड दिया। भगवान् इन्दर से उन्हें एक बज्र प्राप्त हुआ। विश्वकर्मा ने उन्हें एक कुल्हाड़ी प्रदान की। काल ने उन्हें एक प्रखर तलवार दी। भगवान् शिव ने उन्हें एक त्रिशूल दिया। हिमालय में देवी दुर्गा को सवारी के लिए एक सिंह भेंट किया। इन सभी अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित देवी दुर्गा महिसासुर से युद्ध करने को त्यार थी। दुर्गा और महिसासुर के बेच 10 दिनों तक घमासान युद्ध चला। 10 वे दिन देवी दुर्गा महिसासुर का सर काटने में सफल हुयी। अंततः जीवन का संतुलन वापिस से ठीक हो गया। ऐसी विजय को प्रत्येक वर्ष दुर्गा पूजा के नाम से मनाया जाता है। बंगाल में दुर्गा पूजा 10 दिनों का महोत्सव होता है। इसी दिन भगवान राम ने रावण का भी वध किया था।
हजारों साल पहले महिसासुर नामक एक अत्याचारी राक्षश था। वो आधा दानव और आधा भैंस था। महिसासुर ने भगवान ब्रम्हा को प्रसन करने के लिए हजारों साल तक तपस्या की ताकि वो अमरता को प्राप्त कर सके। बहुत तपस्या के बाद उसकी योजना सफल हुए। भगवान् ब्रम्हा उसके पास आये और उनोहने उसे कहा मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन हूँ , मांगो तुम्हे क्या वरदान चाहिए। बिना पालक झपकाए अभिमानी महिसासुर ने कहा , प्रभु में चाहता हूँ कि कोई भी पुरुष या देव मुझे मार न सके। भगवान् ब्रम्हा ने आशीर्वाद देते हुए कहा तथास्तु। तुह्मारी इच्छा पूरी हो। ब्रम्हा कि आँखों कि चमक एक बात का संकेत दे रही थी कि वरदान मांगते समय महिसासुर से शायद कोई भूल हो गयी है। इसके बाद महिसासुर स्व्येम को अमर मानने लगा। क्योकि कोई भी पुरुष या देव उसको मार नहीं सकता था। अपने आक्रोश और अहंकार में महिसासुर ने पृथ्वी को तबाह कर दिया। उसने सवर्ग से सभी देवताओं को भी भगा दिया। सभी देवता भयभीत होकर भगवान् ब्रम्हा , विष्णु और शिव के पास पहुंचे और उनको इस घटना के बारे में बताया। कुछ समय तक सोचने के बाद उनोने एकजुट होकर एक दिव्यप्रकाश कि उत्पत्ति की। एक ऐसा तीव्र प्रकाश जो पहले कभी नहीं देखा गया था। इस दिव्यप्रकाश से 10 हाथों वाली आदिशक्ति रुपी देवी दुर्गा प्रकट हुई। एक एक करके सभी देवताओं ने देवी दुगा को कई शस्त्रों से सुसज्जित किया। भगवान् विष्णु से उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। ब्रम्हा जी ने उन्हें एक कमंडल दिया। सागर के देवता वरुण ने उन्हें तीरों से भरा एक तरकश प्रदान किया। मृत्यु के देवता यम ने उन्हें एक शक्तिशाली राजदंड दिया। भगवान् इन्दर से उन्हें एक बज्र प्राप्त हुआ। विश्वकर्मा ने उन्हें एक कुल्हाड़ी प्रदान की। काल ने उन्हें एक प्रखर तलवार दी। भगवान् शिव ने उन्हें एक त्रिशूल दिया। हिमालय में देवी दुर्गा को सवारी के लिए एक सिंह भेंट किया। इन सभी अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित देवी दुर्गा महिसासुर से युद्ध करने को त्यार थी। दुर्गा और महिसासुर के बेच 10 दिनों तक घमासान युद्ध चला। 10 वे दिन देवी दुर्गा महिसासुर का सर काटने में सफल हुयी। अंततः जीवन का संतुलन वापिस से ठीक हो गया। ऐसी विजय को प्रत्येक वर्ष दुर्गा पूजा के नाम से मनाया जाता है। बंगाल में दुर्गा पूजा 10 दिनों का महोत्सव होता है। इसी दिन भगवान राम ने रावण का भी वध किया था।
सूर्पनखा वासना है, वही इस जगत के दुखों का एकमात्र कारण है। पक्की बात है कि इस जगत में जो भी दुखी है, समझ लो उससे सूर्पनखा चिपटी है। वही बचा जिसने इसके नाक कान काट दिए। पहले पंचवटी समझ लें, जिसमें वासना प्रपंच रचती है। पंचतत्वों की यह देह जो हम ने ओढ़ रखी है, यही पंचवटी है। हैरानी नहीं कि पंचवटी में ही प्रपंच का आरम्भ है, यहीं सती जी को भ्रम हुआ, यहीं सूर्पनखा आई, यहीं सीता जी छाया सीता हो गईं, यहीं मारीच मायामृग बनकर भगवान की आवाज निकालने लगा, यहीं रावण संतवेश में सीता जी को ले गया, इसी में भगवान को भी रोना पड़ा। पर इस देह की एक बड़ी विशेषता भी है, वह यह कि इसी देह में सत्संग हो सकता है। तो इस देह को पाकर क्या करना चाहिए? सत्संग करना चाहिए। इसीलिए यह देह पाई तो जीव रूपी लक्ष्मण जी, माने साधक जिसका मन लक्ष्य पर टिका है, ने सत्संग शुरू किया। स्वयं राम जी ने सद्गुरू बनकर, भक्ति रूपी सीता जी के सानिध्य में, सुंदर उपदेश दिया। पढ़ाई पूरी होते ही जैसे परीक्षा आती है, यहाँ सूर्पनखा आ गई। देखो, वासना सुंदर दिखती है, पर है नहीं। यह आँख के रास्ते मन में घुसती है, जिसने अपनी आँख संभाल ली, उसका जीवन संभल गया। इसीलिए सच्चे सत्संगी लक्ष्मण जी भगवान की ओर देखने लगे, वासना की ओर झाँका तक नहीं। वैसे भी, जहाँ भक्ति हो, सीता जी हों, वहाँ वासना की दाल कैसे गले? भक्ति और आसक्ति, दोनों एक जगह कैसे रहें? ध्यान दें, वासना में बाधा से क्रोध हुआ, क्रोध में सूर्पनखा ने भक्ति पर प्रहार करना चाहा, भगवान ने संकेत किया, जीव ने वासना को नाक कान विहीन कर दिया। परीक्षा उतीर्ण हुई, भक्ति की रक्षा हुई। अगर वासना चढ़ जाती, तो न कान काम करते, न नाक बचती। पर सच्चा सत्संगी वासना के चक्कर में पड़कर अपनी नाक नहीं कटवाता, वासना के ही नाक कान काट देता है, माने वासना का विरूपीकरण कर देता है, कि भविष्य में कभी छल न पाए। वैसे भी- जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ कान कैसे? जहाँ मान नहीं, वहाँ नाक कैसी? http://shashwatatripti.wordpress.com https://www.instagram.com/p/ClFG35nyBDt/?igshid=NGJjMDIxMWI=
ता चढ़ मुल्ला बांक दे क्या बहरा हुआ खुदाय|कबीर-हिन्दू के दया नहीं, मिहर तुरकके नाहिं।
कहै कबीर दोनूं गया, लख चौरासी माहिं।।कबीर-मुसलमान मारै करदसो, हिंदू मारे तरवार।
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।कबीर-अलख इलाही एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परो मति कोय।।कबीर-राम रहीमा एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परो मति कोय।।कबीर-कृष्ण करीमा एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परो मति कोय।।कबीर, ये तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
यह मानव शरीर विषय-विकारों रुपी विष का घर है। गुरु तत्वज्ञान रुपी अमृत की खान है। ऐसा गुरु शीश दान करने से मिल जाए तो सस्ता जानें। शीश दान अर्थात गुरु दीक्षा किसी भी मूल्य में मिल जाए।कबीर, राम कृष्ण से को बड़ा, तिन्हूं भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगै आधीन।।
कबीर जी ने कहा है कि आप जी श्री राम तथा श्री कृष्ण जी से तो किसी को बड़ा नहीं मानते। ये तीन लोक के मालिक (धनी) होकर भी अपने गुरु जी के आगे नतमस्तक होते थे। इसलिए सर्व मानव को गुरु बनाना अनिवार्य है।
कबीर जी ने कहा है कि :-
जो जाकि शरणा बसै, ताको ताकी लाज। जल सौंही मछली चढ़ै, बह जाते गजराज।।
जो साधक जिस राम (देव-प्रभु) की भक्ति पूरी श्रद्धा से करता है तो वह राम उस साधक की इज्जत रखता है।कबीर, मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारं-बार।
तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लागे डार।।
कबीर परमात्मा जी ने समझाया है कि हे मानव शरीरधारी प्राणी! यह मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता। इस शरीर के रहते-रहते शुभ कर्म तथा परमात्मा की भक्ति कर, अन्यथा यह शरीर समाप्त हो गया तो आप पुनः मानव शरीर को प्राप्त नहीं कर पाओगे।
कबीर परमेश्वर जी ने फिर बताया है कि:-
बिन उपदेश अचम्भ है, क्यों जिवत हैं प्राण।
भक्ति बिना कहाँ ठौर है, ये नर नाहीं पाषाण।
परमात्मा कबीर जी कह रहे हैं कि हे भोले मानव! मुझे आश्चर्य है कि बिना गुरू से दीक्षा लिए किस आशा को लेकर जीवित है। न तो शरीर तेरा है, यह भी त्यागकर जाएगा। फिर सम्पत्ति आपकी कैसे है?कबीर, काया तेरी है नहीं, माया कहाँ से होय।
भक्ति कर दिल पाक से, जीवन है दिन दोय।।कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है।कबीर जी ने कहा है कि:-
क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई। देखत नैन चला जग जाई।।
एक लख पूत सवा लख नाती। उस रावण कै दीवा न बाती।।
कबीर, मानुष जन्म पाय कर, नहीं रटैं हरि नाम।
जैसे कुंआ जल बिना, बनवाया क्या काम।।
मानव जीवन में यदि भक्ति नहीं करता तो वह जीवन ऐसा है जैसे सुंदर कुंआ बना रखा है। यदि उसमें जल नहीं है या जल है तो खारा है, उसका भी नाम भले ही कुंआ है, परंतु गुण कुंए वाले नहीं हैं।कबीर साहेब जी ने सुक्ष्म वेद में कहा है कि -
गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भूष छिड़े मूढ़ किसाना।
गुरू बिन वेद पढ़े जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
संत गरीबदास जी को भी सतगुरू कबीर परमेश्वर जी मिले थे। अपनी वाणी में लिखा है :-
गरीब, अलल पंख अनुराग है, सुन मण्डल रह थीर। दास गरीब उधारिया, सतगुरू मिले ���बीर।।बुद्धिमान को चाहिए कि सोच-विचार कर भक्ति मार्ग अपनांए क्योंकि मनुष्य जन्म अनमोल है, यह बार-बार नहीं मिलता। कबीर साहेब कहते हैं कि :-
कबीर मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार। तरूवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डारि।।कबीर, जिव्हा तो वोहे भली, जो रटै हरिनाम।
ना तो काट के फैंक दियो, मुख में भलो ना चाम।।
जैसे जीभ शरीर का बहुत महत्वपूर्ण अंग है। यदि परमात्मा का गुणगान तथा नाम-जाप के लिए प्रयोग नहीं किया जाता है तो व्यर्थ है।कबीर, राम नाम से खिज मरैं, कुष्टि हो गल जाय।
शुकर होकर जन्म ले, नाक डूबता खाय।।
कबीर जी ने कहा है कि अभिमानी व्यक्ति राम नाम की चर्चा से खिज जाता है। फिर कोढ़ (कुष्ट रोग) लगकर गलकर मर जाता है।कुष्टी हो संत बंदगी कीजिए।
जे हो वैश्या को प्रभु विश्वास, चरण चित दीजिए।।
यदि किसी भक्त को कुष्ट रोग है और वह भक्ति करने लगा है तो उससे घृणा न करे। उसको प्रणाम करे। उसका हौंसला बढ़ाना चाहिए। भक्ति करने से उसका जीवन सफल होगा, रोग भी ठीक हो जाएगा। इसी प्रकार किसी वैश्या बेटी-बहन को प्रेरणा बनी है भक्ति करने की, सत्संग में आने की तो उसको परमात्मा पर विश्वास हुआ है। वह सत्संग विचार सुनेगी तो बुराई भी छूट जाएगी।कबीर, सुख के माथे पत्थर पड़ो, नाम हृदय से जावै।
‘‘कबीर सागर’’ से अध्याय ‘‘हनुमान बोध’’ का सारांश:- Part E
काल ने अपने दूसरे पुत्र विष्णु को कर्मानुसार पालन करने का विभाग दिया है, विष्णु सतगुण है। काल ने तीसरे पुत्र शिव तमगुण को इन एक लाख मानव शरीरधारी जीवों को मारकर उसके पास भेजने का विभाग दे रखा है। वह स्वयं अव्यक्त (गुप्त) रहता है। आप देख रहे हो, यहाँ कोई भी जीव अमर नहीं है, देवता भी मरते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी जन्मते-मरते हैं। जो पूरी आयु जीते हैं, वृद्धावस्था भी सब में आती है। एक लोक ऐसा है जहाँ पर वृद्धावस्था तथा मरण नहीं है। वहाँ कोई रावण किसी की पत्नी का अपहरण नहीं करता। आपकी आँखों के सामने लंका में हुए राम-रावण युद्ध में कितने व्यक्ति तथा अन्य प्राणी मारे गए। एक सीता को छुड़ाने के लिए। आपने श्री रामचन्द्र जी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाकर लंका को जलाया। रावण का भाई अहिरावण जो पाताल का राजा था। वह राम तथा लक्ष्मण का अपहरण करके ले गया। उनकी बली देने वाला था। आप वहाँ गए और उन दोनों को जीवित लाए। आप ही बताऐं, वे परमात्मा हैं। जिस समय नाग फांस शस्त्र के छोड़ने से सर्पों ने श्री राम तथा आप तथा सर्व सेना व लक्ष्मण तक बाँध दिया था। सर्प आप सबको जकड़े हुए थे। आप सब विवश थे। कुछ समय में आप सबको रावण की सेना आसानी से काट डालती। उस समय गरूड़ को पुकारा गया। उसने नागों को काटा। आप तथा रामचन्द्र बंधनमुक्त हुए। यदि परमात्मा इतना विवश है कि अपना बंधन नहीं काट सका तो पुजारियों का क्या होगा? विचार करो।
काटे बंधत विपत में, कठिन कियो संग्राम। चिन्हो रे नर प्राणियो, गरूड़ बड़ो के राम।।
हनुमान जी ने कहा ऋषि जी! समुद्र पर पुल बनाना क्या आम आदमी का कार्य है? यह परमात्मा बिना नहीं बनाया जा सकता।
समन्दर पांटि लंका गयो, सीता को भरतार। अगस्त ऋषि सातों पीये, इनमें कौन करतार।।
यदि आप समुद्र के ऊपर सेतु बनाने से श्री रामचन्द्र जी को परमात्मा मानते हो तो अगस्त ऋषि ने सातों सागरों को पी लिया था। इनमें कौन है परमात्मा?
ऋषि मुनीन्द्र जी ने बताया कि आप भूल गए क्या? एक ऋषि आए थे। उन्होंने एक पर्वत के पत्थरों को अपनी डण्डी से रेखा खींचकर हल्का किया था। तब पत्थर तैरे थे, तब पुल बना था। रामचन्द्र तो तीन दिन से रास्ता माँग रहे थे। समुद्र ने ही बताया था नल-नील के विषय में। हनुमान जी ने कहा कि वह तो विश्वकर्मा जी थे जो वेश बदलकर श्री रामचन्द्र जी के बुलाने पर आए थे। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि विश्वकर्मा जी तो पुल का निर्माण कर सकते हैं, जल के ऊपर पत्थर नहीं तैरा सकते। नल-नील के हाथों में शक्ति थी। उनके हाथों से डाली गई वस्तु जल के ऊपर तैरा करती थी। उस दिन उन���ें अभिमान आ गया था। उनकी शक्ति समाप्त हो गई थी। वह आशीर्वाद मेरा ही था। हनुमान जी ने कहा, क्या आप ऋषि मुनीन्द्र जी हैं? परमेश्वर जी ने कहा, हाँ। मुनीन्द्र जी ने कहा कि आपने अपने प्राणों की परवाह न करके राम जी के लिए क्या नहीं किया? जब सीता ने आपको अपशब्द कहे और घर छोड़ने को कहा। उस समय श्रीराम वहीं विराजमान थे। एक शब्द भी नहीं कहा कि सीता ऐसा न कर। पवन सुत अंदर से तो मान रहे थे, परंतु ऊपर से कह रहे थे कि ऋषि जी! किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए। मुनीन्द्र जी ने कहा कि सत्य कहना आलोचना नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र और सीता के अंदर अच्छे इंसान वाले गुण भी होते तो भी आपका आजीवन अहसान मानते और अपने चरणों में रखते। आप तो उनके बिना जीना भी उचित नहीं मानते। और सुनो! आपके साथ जैसा व्यवहार किया, उसका फल भी सीता तथा रामचन्द्र को मिल गया है। कुछ वर्षों के पश्चात् सीता को श्री राम ने ��र से निकाल दिया। उस समय वह गर्भवती थी। यह सुनकर हनुमान की आँखों से आँसू निकल आए और ऋषि जी के चरणों में गिर गए। कुछ नहीं बोले। अयोध्यावासियों ने दो वर्ष दिपावली और दशहरा मनाया था। उसके पश्चात् बंद कर दिया था कि जिस देवी के लिए रावण मारा, आज वह फिर कितने रावणों का कष्ट झेलेगी। दीपमाला खुशी का प्रतीक है। जब राजा और रानी भिन्न-भिन्न हो गए तो न दीपावली राजा को अच्छी लगे और न प्रजा को। इसलिए दीपावली का पर्व उसी समय से बंद हो गया था। जो दो वर्ष मनाया था, उसी के आधार से भोली जनता यह पर्व मना रही है।
इसी प्रकार दशहरा तथा रावण दहन की परंपरा चली आ रही है। यदि किसी के घर पर किसी जवान की मृत्यु हो जाती है तो वह परिवार तथा रिश्तेदार कोई त्यौहार नहीं मनाते।
हनुमान जी ने कहा, प्रभु! परमेश्वर की चर्चा करो। कबीर परमेश्वर जी ने सृष्टि रचना सुनाई। सत्यकथा सुनकर हनुमान जी गदगद हुए। सत्यलोक देखने की प्रार्थना की। परमेश्वर आकाश में उड़ गए। हनुमान जी देख रहे थे। कुछ देर अंतध्र्यान हो गए। हनुमान जी चिंतित हो गए कि अब ये ऋषि कैसे मिलेंगे? इतने में आकाश में विशेष प्रकाश दिखाई दिया। हनुमान जी को दिव्य दृष्टि देकर सतलोक दिखाया। ऋषि मुनीन्द्र जी सिंहासन पर बैठे दिखाई दिए। उनके शरीर का प्रकाश अत्यधिक था। सिर पर मुकुट तथा राजाओं की तरह छत्रा था। कुछ देर वह दृश्य दिखाकर दिव्य दृष्टि समाप्त कर दी। मुनीन्द्र जी नीचे आए। हनुमान जी को विश्वास हुआ कि ये परमेश्वर हैं। सत्यलोक सुख का स्थान है। परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ली। अपना जीवन धन्य किया। मुक्ति के अधिकारी हुए। इस प्रकार पवित्र आत्मा परमार्थी स्वभाव हनुमान जी को परमेश्वर कबीर जी ने अपनी शरण में लिया। परमार्थी आत्मा को संसार तथा काल के स्वामी भले ही परोपकार का फल नहीं देते, परंतु परमेश्वर ऐसी आत्माओं को शरण में अवश्य लेते हैं क्योंकि ऐसी आत्मा ही परम भक्त बनकर भक्ति करते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं। संसारिक व्यक्ति जो परमार्थी को धोखा देते हैं, वे आजीवन कष्टमय जीवन व्यतीत करते हैं।
श्री रामचन्द्र जी को अंत समय में अपने ही पुत्रों लव तथा कुश से पराजय का मुँह देखना पड़ा। सीता जी ने उनके दर्शन करना भी उचित नहीं समझा। देखते-देखते पृथ्वी में समा गई। इस ग्लानि से श्री रामचन्द्र जी ने अयोध्या के पास बह रही सरयु नदी में छलांग लगाकर अपनी जीवन लीला जल समाधि लेकर समाप्त की। परमार्थी हनुमान जी को निस्वार्थ दुःखियों की सहायता करने का फल मिला। परमात्मा स्वयं आए, मोक्ष मार्ग बताया। जीव का कल्याण हुआ। हनुमान जी फिर मानव जीवन प्राप्त करेंगे। तब परमेश्वर कबीर जी उनको शरण में लेकर मुक्त करेंगे। उस आत्मा में सत्य भक्ति बीज डल चुका है।
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।