निश-दिन शशि रवि को नहिं काम,
तुम मुख-चंद हरै तम-धाम।
जो स्वभावतैं उपजै नाज,
सजल मेघ तैं कौनहु काज॥19॥
जो सुबोध सोहै तुम माहिं,
हरि हर आदिक में सो नाहिं।
जो द्युति महा-रतन में होय,
काच-खंड पावै नहिं सोय॥20॥
(हिन्दी में)
नाराच छन्द :
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया।
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया॥
कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया।
मनोग चित-चोर और भूल हू न पेखिया॥21॥
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं।
न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं॥
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै।
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै॥22॥
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो।
कहें मुनीश अंधकार-नाश को सुभान हो॥
महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके।
न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके॥23॥
अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो।
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो॥
महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो।
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥24॥
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं।
तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतैं॥
तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं।
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं॥25॥
दोहा :
विकसित-सुवरन-कमल-दुति,
नख-दुति मिलि चमकाहिं।
तुम पद पदवी जहं धरो,
तहं सुर कमल रचाहिं॥36॥
ऐसी महिमा तुम विषै,
और धरै नहिं कोय।
सूरज में जो जोत है,
नहिं तारा-गण होय॥37॥
(हिन्दी में)
षट्पद :
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झंकारें।
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं॥
काल-वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै।
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै॥
देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन।
विपति-रहित संपति-सहित वरतैं भक्त अदीन॥38॥
अति मद-मत्त-गयंद कुंभ-थल नखन विदारै।
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै॥
बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै।
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै॥
ऐसे मृग-पति पग-तलैं जो नर आयो होय।
शरण गये तुम चरण की बाधा करै न सोय॥39॥
प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर।
बमैं फुलिंग शिखा उतंग परजलैं निरंतर॥
जगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी मानों।
तडतडाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानों॥
सो इक छिन में उपशमैं नाम-नीर तुम लेत।
होय सरोवर परिन मैं विकसित कमल समेत॥40॥
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलन्ता।
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता॥
फण को ऊँचा करे वेग ही सन्मुख धाया।
तब जन होय निशंक देख फणपतिको आया॥
जो चांपै निज पगतलैं व्यापै विष न लगार।
नाग-दमनि तुम नामकी है जिनके आधार॥41॥
जिस रन-माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम।
घन से गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम॥
अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै।
राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै॥
नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमांहि पलाय।
ज्यों दिनकर परकाशतैं अन्धकार विनशाय॥42॥
मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै।
उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै॥
होयतिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे।
तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे॥
दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावैं निकलंक।
तुम पद पंकज मन बसैं ते नर सदा निशंक॥43॥
नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै।
जामैं बड़वा अग्नि दाहतैं नीर जलावै॥
पार न पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी।
गरजै अतिगंभीर, लहर की गिनति न ताकी॥
सुखसों तिरैं समुद्र को, जे तुम गुन सुमराहिं।
लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं॥44॥
महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं।
वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं॥
सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा।
अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गंध निवासा॥
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग।
ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग॥45॥
पांव कंठतें जकर बांध, सांकल अति भारी।
गाढी बेडी पैर मांहि, जिन जांघ बिदारी॥
भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने।
सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥
तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं।
छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं॥46॥
महामत गजराज और मृगराज दवानल।
फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै।
तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥
इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय।
यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥47॥
यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी।
विविधवर्णमय पुहुपगूंथ मैं भक्ति विथारी॥
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावैं।
मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥
भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत।
जे नर पढ़ैं, सुभावसों, ते पावैं शिवखेत॥48॥