Tumgik
#मसीह के कथन
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अध्याय 17
वास्तव में, परमेश्वर के मुँह के सभी वचन ऐसी बातें हैं जिन्हें मनुष्य नहीं जानते हैं; वे सभी ऐसी भाषा में हैं जिसे लोगों ने नहीं सुना है, इसलिए इसे इस तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है: परमेश्वर के वचन स्वयं एक रहस्य हैं। अधिकांश लोग गलत ढंग से विश्वास करते हैं, कि केवल ऐसी चीजें जिन्हें लोग अवधारणात्मक रूप से प्राप्त नहीं कर सकते हैं, स्वर्ग के मामले जिनके बारे में परमेश्वर अब लोगों को जानने की अनुमति देता है या परमेश्वर आध्यात्मिक दुनिया में जो करता है उसकी सच्चाई, रहस्य हैं। यह दर्शाता है कि लोग परमेश्वर के सभी वचनों को एक समान नहीं मानते हैं, न ही वे उन्हें सँजो कर रखते हैं, किन्तु वे उस बात पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जिसे वे "रहस्य" मानते हैं। यह साबित करता है कि लोग नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन क्या हैं या रहस्य क्या हैं—वे केवल अपनी अवधारणाओं के भीतर से परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो परमेश्वर के वचनों को सचमुच प्यार करता हो—"लोग मुझे धोखा देने में माहिर हैं" ऐसा कहे जाने का आधार ठीक यहीं है। निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कहता है कि लोग किसी भी योग्यता से रहित हैं, या वे पूरी तरह बिगड़े हुए हैं। यह मानवजाति की वास्तविक स्थिति है। लोग स्वयं बहुत स्पष्ट नहीं हैं कि परमेश्वर वास्तव में उनके हृदय के कितने भाग में रह रहा है—केवल परमेश्वर स्वयं ही पूरी तरह से जानता है। इसलिए अभी लोग दुधमुँहे शिशु हैं—वे पूरी तरह से अनजान हैं कि वे दूध क्यों पीते हैं और वे किसके लिए जी रहे हैं। केवल उनकी माँ ही है जो उनकी आवश्यकताओं को समझती है, जो उन्हें भूखा नहीं मरने देगी, और उन्हें अत्यधिक खाना खाकर खुद को मारने नहीं देगी। परमेश्वर लोगों की आवश्यकताओं को सबसे अच्छी तरह से जानता है, इसलिए समय-समय पर उसके प्यार ने उसके वचनों में मूर्त रूप लिया है, समय-समय पर उसका न्याय उन में प्रकट होता है, समय-समय पर उसके वचनों ने लोगों के अंतर्तम हृदयों पर चोट पहुँचाई है, और कभी-कभी उसके वचन बहुत ईमानदार और गंभीर होते हैं। इससे लोगों को उसकी दयालुता और उसकी अभिगम्यता को महसूस करने की अनुमति मिलती है, और यह कि वह वैसा "रौबदार व्यक्ति" नहीं जिसकी कल्पना की जाती है, न ही वह ऐसा है जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, न ही वह लोगों के मन का "स्वर्ग का पुत्र" है, जिसके चेहरे को सीधे नहीं देखा जा सकता है, और वह विशेष रूप से निर्दोष की हत्या करने वाला "जल्लाद" नहीं है जैसा कि लोग सोचते हैं। परमेश्वर का पूरा स्वभाव उसके कार्य में प्रकट होता है, आज देह में परमेश्वर का स्वभाव अभी भी उसके कार्य के माध्यम से मूर्तरूप होता है, इसलिए वह सेवकाई जो परमेश्वर करता है वह वचनों की सेवकाई है, और वह नहीं जो वह करता है या जैसा वह बाहरी रूप से दिखाई देता है। अंत में सभी लोग परमेश्वर के वचनों से आत्मिक उन्नति प्राप्त करेंगे और उनके कारण पूर्ण बनाए जाएँगे। अपने अनुभवों में, परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन की वजह से, वे अभ्यास के लिए एक मार्ग प्राप्त करेंगे, और परमेश्वर के मुँह के वचनों के माध्यम से लोग उसके समस्त स्वभाव को जान जाएँगे। वचनों की वजह से परमेश्वर का समस्त कार्य पूरा हो जाएगा, लोग जाग जाएँगे, और सभी दुश्मन पराजित हो जाएँगे। यह प्राथमिक कार्य है, और कोई इसे अनदेखा नहीं कर सकता है। हम उसके वचनों पर भी विचार कर सकते हैं: "मेरी आवाज़ सभी चारों दिशाओं एवं सम्पूर्ण पृथ्वी को रोशन करते हुए, गर्जना के समान बाहर निकलती है, और गर्जना और चमकती हुई बिजली के बीच मानवजाति मार गिराई जाती है। कोई भी मनुष्य, कभी भी गर्जना और चमकती हुई बिजली के बीच अडिग नहीं रहा है: मेरी रोशनी के आने पर अधिकांश मनुष्य दहशत में पड़ जाते हैं और नहीं जानते हैं कि क्या करें।" जब परमेश्वर अपना मुँह खोलता है तो वचन बस निकल पड़ते हैं। वह वचनों के माध्यम से सब चीज़ों को पूरा करता है, और उसके वचनों द्वारा सभी चीजें रूपांतरित हो जाती हैं, उसके वचनों के माध्यम से सभी लोग नए हो जाते हैं। "गर्जना और चमकती हुई बिजली" किसका संकेत करते हैं? और "प्रकाश" किसका संकेत करता है? ऐसी एक भी चीज़ नहीं है जो परमेश्वर के वचनों से बच निकल सकती है। वह लोगों के मन को सामने लाने और उनकी कुरूपता को दर्शाने के लिए अपने वचनों का उपयोग करता है; वह लोगों की पुरानी प्रकृति से निपटने और अपने सभी लोगों को पूर्ण बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है। क्या यह परमेश्वर के वचनों का महत्व नहीं है? पूरे विश्व में, यदि परमेश्वर के वचनों का सहारा और अवलम्ब नहीं होता, तो संपूर्ण मानवजाति बहुत पहले ही अनस्तित्व की स्थिति तक नष्ट हो गई होती। यह उस बात का एक सिद्धांत है जो परमेश्वर करता है, और यह छह-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना के लिए कार्य करने की विधि है। इसके माध्यम से उसके वचनों के महत्व को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। परमेश्वर के वचन सीधे मानवजाति की आत्माओं की गहराई में चुभते हैं। जैसे ही वे उसके वचनों को देखते हैं, वे हक्के-बक्के और अत्यधिक भयभीत हो जाते हैं और जल्दी से भाग जाते हैं। वे उसके वचनों की वास्तविकता से बच कर भागना चाहते हैं, यही वजह है कि इन "शरणार्थियों" को हर जगह देखा जा सकता है। परमेश्वर के वचनों के कथन के ठीक बाद लोग भाग खड़े होते हैं। यह मानवजाति की कुरूपता की छवि का एक पहलू है जो परमेश्वर दर्शाता है। अभी, सभी लोग धीरे-धीरे अपनी मूर्छा से जाग रहे हैं। ऐसा लगता है मानो कि पहले सभी लोगों में मनोभ्रंश की स्थितिविकसित हो गई थी, और अब वे परमेश्वर के वचनों को देखते हैं और ऐसा लगता है जैसे उनमें बीमारी के बाद सुस्ती के प्रभाव हैं और वे अपनी पूर्व अवस्था को पुनःप्राप्त करने में असमर्थ हैं। यही सभी लोगों की वास्तविक स्थिति है, और यह इस वाक्य का एक सही चित्रण भी है: "कई लोग, इस हल्की सी चमक द्वारा प्रेरित हो कर तत्काल अपने भ्रम से जाग जाते हैं। फिर भी किसी ने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि वह दिन आ गया है जब मेरी रोशनी पृथ्वी पर उतरती है।" यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा: "अधिकांश मनुष्य रोशनी के अचानक आगमन से भौंचक्का हो जाते हैं।" इसे इस तरह से प्रस्तुत करना पूरी तरह उपयुक्त है। मानवजाति के बारे में परमेश्वर का वर्णन सुई की नोक के लिए भी जगह नहीं छोड़ता है—उसने सच में इसे सही ढंग से और बिना किसी त्रुटि के किया है, यही कारण है कि सभी लोग पूरी तरह से आश्वस्त हैं और बिना इसे जाने, उनके हृदय के भीतर गहराई में परमेश्वर के लिए उनका प्यार निर्मित होना शुरू हो गया है। केवल इसी तरह से लोगों के हृदय में परमेश्वर का स्थान अधिकाधिक रूप से वास्तविक हो जाता है, और यह भी एक तरीका है जिससे परमेश्वर कार्य करता है।
"अधिकांश मनुष्य बस हक्के-बक्के हो जाते हैं; रोशनी के द्वारा उनकी आँखों में घाव हो जाते हैं और वे कीचड़ म���ं उलट दिए जाते हैं।" क्योंकि वे परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध जाते हैं (अर्थात, वे परमेश्वर का विरोध करते हैं), इसलिए जब परमेश्वर के वचन आते हैं तो इस तरह के व्यक्ति अपनी विद्रोहशीलता की वजह से ताड़ना को झेलते हैं; यही कारण है कि ऐसा कहा जाता है कि प्रकाश से उनकी आँखें घायल हो जाती हैं। इस तरह के व्यक्ति को पहले से ही शैतान को सौंप दिया गया है, इसलिए नए कार्य में प्रवेश करते समय उनके पास कोई प्रबुद्धता या रोशनी नहीं होती है। उन सभी लोगों को जिनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है शैतान द्वारा अधिकार में कर लिया गया है, और उनके हृदयों की गहराई में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वे "कीचड़ में उलट दिए जाते हैं।" जो लोग इस हालत में हैं, वे सभी अव्यवस्था की स्थिति में हैं। वे सही मार्ग पर प्रवेश नहीं कर सकते है, वे सामान्य अवस्था को पुनः-प्राप्त नहीं कर सकते हैं, वे अपने मन में जो सोचते हैं वह सब प्रतिकूल है। पृथ्वी के सभी लोगों को शैतान द्वारा चरम सीमा तक भ्रष्ट किया गया है। उनके पास कोई जीवन-शक्ति नहीं है और वे शवों की गंध से भरे हैं। पृथ्वी के सभी लोग जीवाणुओं की महामारी के बीच जीवित रह रहे रह रहे हैं और कोई भी इससे बच कर नहीं निकल सकता है। वे पृथ्वी पर जीवित रहने के इच्छुक नहीं हैं, किन्तु वे हमेशा महसूस करते हैं कि कुछ अधिक बड़ा होगा जिससे लोग स्वयं अपनी आँखों से देखेंगे, इसलिए सभी लोग जीवित रहने के लिए स्वयं को बाध्य करते हैं। लोगों के हृदय में बहुत पहले से ही कोई शक्ति नहीं थी, वे एक आध्यात्मिक स्तंभ के रूप में सिर्फ अपनी अदृश्य आशाओं का उपयोग करते हैं, इसलिए वे, पृथ्वी पर अपने दिनों को पूरा करते हुए, अपने स्वयं के सिर को मनुष्य की तरह अभिनय करते हुए सँभाले रखते हैं। ऐसा लगता है मानो सभी लोग देहधारी शैतान के पुत्र हैं। यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा: "पृथ्वी अराजकता के नीचे आच्छादित हो जाती है, एक असहनीय दुःखद दृश्य बनाती है जो, करीब से जाँच करने पर, किसी पर ज़बर्दस्त उदासी की बौछार करती है" इस स्थिति के प्रकटन की वजह से परमेश्वर ने पूरे विश्व की ओर "अपने आत्मा के बीजों को बिखेरना" शुरू किया, और उसने पूरी पृथ्वी पर उद्धार के अपने कार्य को करना आरंभ कर दिया। यह इस कार्य के आगे बढ़ाने की वजह से है कि परमेश्वर ने सभी प्रकार की आपदाओं की बौछार करनी आरंभ कर दी, इस प्रकार निष्ठुर मनुष्यों को बचाया। परमेश्वर के कार्य के चरणों में, उद्धार की पद्धति अभी भी विभिन्न प्रकार की आपदाओं के माध्यम से ही है और वे सभी जो गिन लिए गए हैं, उनसे बच नहीं सकते हैं। केवल अंत में ही "उतना ही शान्त है जितना तीसरा स्वर्ग शान्त हैः यहाँ पर बड़ी और छोटी जीवित चीजें समरसता में साथ मौजूद रहती हैं, कभी भी "मुँह और जीभ के संघर्ष" में शामिल नहीं होती हैं" की स्थिति पृथ्वी पर प्रकट होने में सक्षम होगी। परमेश्वर के कार्य का एक पहलू समस्त मानवजाति पर विजय प्राप्त करना और चुने हुए लोगों को अपने वचनों के माध्यम से प्राप्त करना है। एक अन्य पहलू है विभिन्न आपदाओं के माध्यम से विद्रोह के सभी पुत्रों को जीतना। यह परमेश्वर के बड़े-पैमाने के कार्य का एक हिस्सा है। केवल इसी तरीके से पृथ्वी पर वह राज्य जिसे परमेश्वर चाहता है, पूरी तरह से प्राप्त किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है जो कि शुद्ध सोने की तरह है।
परमेश्वर हमेशा अपेक्षा करता है कि लोग स्वर्ग की गतिकी को समझें। क्या वे सच में इसे प्राप्त कर सकते हैं? वास्तविकता यह है कि, लोगों की वर्तमान वास्तविक स्थिति के आधार पर, शैतान द्वारा 5,900 से अधिक वर्षों तक भ्रष्ट होने पर, वे पतरस से तुलना नहीं कर सकते हैं और इसलिए वे बस इसे नहीं कर सकते हैं। यह परमेश्वर के कार्य की विधियों में से एक है। वह लोगों को निष्क्रिय रूप से इंतजार नहीं करवाएगा, बल्कि वह उनसे सक्रिय रूप से तलाश करवाएगा। केवल इसी तरह से परमेश्वर को लोगों में कार्य करने का अवसर मिलेगा। इसे थोड़ा और अधिक भी समझाया जा सकता है, अन्यथा लोगों को सिर्फ सतही समझ होनी। जब परमेश्वर ने मानवजाति को बना लिया और उन्हें आत्माएँ दे दीं उसके बाद, उसने उन्हें आदेश दिया कि यदि उन्होंने परमेश्वर को नहीं पुकारा, तो वे उसके आत्मा से नहीं जुड़ पाएँगे और इस प्रकार स्वर्ग से "उपग्रह टेलीविजन" पृथ्वी पर प्राप्त नहीं होगा। जब परमेश्वर लोगों की आत्माओं में अब और नहीं है, तो एक खाली स्थान अन्य चीजों के लिए खुला हुआ है, और ऐसे ही शैतान प्रवेश करने के अवसर को झपट लेता है। जब लोग अपने हृदय से परमेश्वर से संपर्क करते हैं, तो शैतान तुरंत खलबली में पड़ जाता है और बचने के लिए भागता है। मानवजाति के रोने के माध्यम से परमेश्वर उन्हें वह देता है जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है, किन्तु वह पहले से उनके भीतर "निवास नहीं" करता है। वह उनके रोने की वजह से बस लगातार उनकी सहायता करता है और लोगों को उस आंतरिक शक्ति से मजबूती मिलती है ताकि शैतान यहाँ अपनी इच्छानुसार "खेलने" की हिम्मत न करे। इस तरह, यदि लोग लगातार परमेश्वर के आत्मा से जुड़ते हैं, तो शैतान गड़बड़ी करने के लिए आने की हिम्मत नहीं करता है। शैतान की गड़बड़ी के बिना, सभी लोगों के जीवन सामान्य होते हैं और परमेश्वर के पास बिना किसी रुकावट के उनके भीतर कार्य करने का अवसर होता है। इस तरह, परमेश्वर जो करना चाहता है वह मनुष्यों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इस से यह जाना जा सकता है कि क्यों परमेश्वर की हमेशा से अपेक्षा रही है कि लोग अपने विश्वास को बढ़ाएँ, और यह भी कहा है: "मैं पृथ्वी पर मनुष्य की कद-काठी के अनुसार उपयुक्त माँग करता हूँ। मैंने कभी भी किसी को कठिनाईयों में नहीं डाला है, न ही मैंने कभी भी किसी से अपने आनन्द के लिए उसके खून को निचोड़ा है।"
अधिकांश लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं से चकित होते हैं, कहते हैं, चूँकि लोगों के पास वह योग्यता नहीं है और वे शैतान के द्वारा अपरिवर्तनीय तरीके से भ्रष्ट कर दिए गए हैं, तो क्यों परमेश्वर उनसे अपेक्षाएँ करता रहता है? क्या परमेश्वर लोगों को एक मुश्किल स्थिति में नहीं डाल रहा है? लोगों के गंभीर चेहरों को देखकर, और फिर उनकी अत्यंत भौंडी आकृति को देख कर, तुम बिना हँसे नहीं रह सकते हो। लोगों की विभिन्न कुरूपता बहुत अधिक मजेदार है—कभी-कभी वे एक ऐसे बच्चे की तरह होते हैं जो खेलना पसंद करता है, और कभी-कभी वे एक छोटी सी लड़की की तरह होते हैं जो "माँ" बनने का खेल खेल रही है। कभी-कभी वे चूहा खाते हुए एक कुत्ते की तरह होते हैं। उनकी सभी कुरूप अवस्थाएँ बस हास्यास्पद रूप से मनोरंजक हैं, और प्रायः जितना अधिक लोग परमेश्वर की इच्छा को समझ नहीं सकते हैं, उतना ही अधिक उनके मुसीबत में पड़ने की संभावना है। यही कारण है कि परमेश्वर के वचनों, "क्या मैं ऐसा परमेश्वर हूँ जो सृष्टि पर सिर्फ़ अपनी चुप्पी को अधिरोपित करता है?" से यह देखा जा सकता है लोग कितने मूर्ख हैं, और यह दर्शाता है कि कोई भी मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ सकता है। यहाँ तक कि यदि वह बताता है कि उसकी इच्छा क्या है, तो वे इसके बारे में विचारवान नहीं हो सकते हैं। वे केवल मानव इच्छा के आधार पर ही परमेश्वर का कार्य करते हैं, तो वे कैसे इस तरह से उसकी इच्छा को समझ सकते हैं? "मैं पृथ्वी पर पैदल चलता हूँ, अपनी खुशबू को हर जगह बिखेरता हूँ, और प्रत्येक ���्थान पर मैं अपने स्वरूप को पीछे छोड़ जाता हूँ। प्रत्येक और हर एक स्थान पर मेरी वाणी की ध्वनि गूँजती रहती है। हर जगह लोग बीते हुए कल के रमणीय दृश्यों पर आतुर हो कर टिके रहते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण मानवजाति अतीत को याद करती है ..." जब राज्य बन जाएगा तब यही स्थिति होगी। वास्तव में, कई स्थानों पर परमेश्वर ने राज्य की अनुभूति की सुंदरता की भविष्यवाणी की है, और यदि उन सब को संयुक्त कर दिया जाए, तो यह राज्य की एक पूरी तस्वीर है। किन्तु लोग इस पर ध्यान नहीं देते हैं—वे इसे बस एक हास्यचित्र की तरह देखते हैं।
शैतान द्वारा कई हजार वर्षों तक की भ्रष्टता की वजह से, लोग हमेशा अंधकार में रहे हैं, इसलिए वे अंधकार से परेशान नहीं होते हैं और न ही वे प्रकाश की लालसा करते हैं। आज प्रकाश के आने पर यह परिणाम हुआ है: "वे सब मेरे आगमन के विरुद्ध हो ज���ते हैं, वे सभी रोशनी को आने से भगा देते हैं, मानो कि मैं स्वर्ग में मनुष्यों का शत्रु हूँ। मनुष्य अपनी आँखों में एक रक्षात्मक रोशनी के साथ मेरा स्वागत करता है।" यद्यपि अधिकांश लोग परमेश्वर को एक सच्चे हृदय से प्यार करते हैं, वह तब भी संतुष्ट नहीं होताहै और वह तब भी मानवजाति की निंदा करता है। यह लोगों के लिए चकरा देनेवाला है। क्योंकि लोग अंधकार में रहते हैं, इसलिए परमेश्वर की उनकी सेवा अभी भी उसी तरीके से की जाती है जैसे प्रकाश के अभाव की स्थिति में की जाती है। अर्थात्, सभी लोग अपनी अवधारणाओं का उपयोग करते हुए परमेश्वर की सेवा करते हैं, और जब परमेश्वर आता है तो सभी लोग इस तरह की स्थिति में होते हैं और वे नई रोशनी को स्वीकार करके परमेश्वर की सेवा करने में असमर्थ होते हैं, किन्तु वे उसकी सेवा करने के लिए अपने सभी अनुभवों का उपयोग करते हैं। परमेश्वर मानवजाति के "समर्पण" से आनंद प्राप्त नहीं करता है, इसलिए मानवजाति द्वारा अंधकार में प्रकाश की स्तुति नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि परमेश्वर ने यह कहा—यह वास्तविकता के विपरीत बिल्कुल नहीं है, और यह परमेश्वर का मानवजाति से दुर्व्यवहार करना नहीं है, न ही यह उसका उनके साथ गलत करना है। दुनिया के सृजन से आज तक, एक भी व्यक्ति ने परमेश्वर के सौहार्द को वास्तव में अनुभव नहीं किया है—वे परमेश्वर की ओर रक्षात्मक रहे हैं, और इस बात से अत्यधिक डरे रहते हैं कि परमेश्वर उन्हें मार डालेगा, कि वह उनका सर्वनाश कर देगा। इसलिए इन 6,000 वर्षों में परमेश्वर ने हमेशा लोगों की ईमानदारी के बदले में सौहार्द का उपयोग किया है, और हमेशा हर मोड़ पर धैर्यपूर्वक उनका मार्गदर्शन किया है। इसका कारण यह है कि लोग बहुत निर्बल हैं, और वे परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह से नहीं जान सकते हैं, और वे पूरे हृदय से उसे प्यार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास शैतान छल-कपट के अधीन होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। किन्तु भले ही यह मामला हो, परमेश्वर तब भी सहिष्णु है, और जब वह इसे एक निश्चित दिन तक सहन करता है, अर्थात्, जब वह दुनिया को नवीन करेगा, तो वह एक माँ की तरह लोगों की अब और देखभाल नहीं करेगा। इसके बजाय, वह मनुष्यों को उनका उपयुक्त प्रतिफल देगा, यही कारण है कि उसके बाद: "महासागर की सतह पर लाशें बहती हैं", जबकि "जल से रिक्त स्थान में, अन्य लोग, हँसी और गीत के बीच, अभी भी उन प्रतिज्ञाओं का आनन्द ले रहे हैं, जो मैनें उन्हें कृपापूर्वक प्रदान की हैं।" यह उन लोगों की मंजिलों के बीच तुलना है जो पुरस्कृत किए जाते हैं और जो दंडित किए जाते हैं। "महासागर की सतह पर" परमेश्वर द्वारा कहे गए मानवजाति की ताड़ना के अथाह गड्ढे को संदर्भित करता है। यह शैतान का अंतिम गंतव्य है, और यह वह "विश्राम-स्थान" है जिसे परमेश्वर ने उन लोगों के लिए तैयार किया है जो उसका विरोध करते हैं। परमेश्वर ने हमेशा मनुष्यों का असली प्यार चाहा है, किन्तु यह जाने बिना, लोग अभी भी अपना स्वयं का कार्य कर रहे हैं। यही कारण है कि, अपने सभी वचनों में, परमेश्वर ने हमेशा लोगों से माँग की है और उसने उनकी कमियों और साथ ही अभ्यास के लिए उनके मार्ग की ओर इंगित किया है, ताकि वे इन वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकें। परमेश्वर ने लोगों के लिए अपने स्वयं के रुख पर भी प्रकाश डाला है: "लेकिन मैंने कभी भी एक भी मानव जीवन को लापरवाही से खेलने के लिए नहीं लिया है मानो कि यह खिलौना हो। मैं मनुष्य के हृदय के रक्त को देखता हूँ, और मैं उस कीमत को समझता हूँ जो उसने चुकाई है। जब वह मेरे सामने खड़ा होता है, तो मैं न तो उसे ताड़ित करने के लिए, और न ही उसे अवांछनीय चीजें प्रदान करने के लिए, मनुष्य की असहायता का लाभ उठाना चाहता हूँ। इसके बजाय, मैंने इस पूरे समय में केवल मनुष्य का भरण पोषण किया है, और मनुष्य को दिया है।" जब लोग परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ते हैं, तो वे तुरन्त उसके सौहार्द को महसूस करते हैं: निस्संदेह, मैंने अतीत में परमेश्वर के लिए एक कीमत चुकाई है किन्तु मैंने उसके साथ बेपरवाह ढंग से व्यवहार भी किया है, और यदा-कदा मैंने उससे शिकायत की है। परमेश्वर ने अपने वचनों से हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है और वह मेरे जीवन पर बहुत ध्यान देता है, फिर भी यदा-कदा मैं उसके साथ खेलता हूँ मानो कि वह कोई खिलौना हो। यह वास्तव में अनुचित है। परमेश्वर मुझे बहुत अधिक प्यार करता है, तो मैं पर्याप्त कठोर प्रयास क्यों नहीं कर सकता हूँ? जब वे इस बारे में सोचते हैं, तो लोग वास्तव में अपने चेहरों पर थप्पड़ मारना चाहते हैं, अथवा, कुछ लोगों के मामले में, यहाँ तक कि उनकी नाक भी सिकुड़ जाती हैं और वे जोर से रोते हैं। परमेश्वर लोगों के हृदयों को समझता है और तदनुसार बोलता है, और ये थोड़े से वचन जो न तो कठोर हैं और न ही कोमल, परमेश्वर के लिए लोगों के प्यार को प्रेरणा देते हैं। अंत में, परमेश्वर ने पृथ्वी पर राज्य का निर्माण होने के समय अपने कार्य में परिवर्तन की भविष्यवाणी की: जब परमेश्वर पृथ्वी पर होगा, तो लोग आपदाओं और दुर्भाग्यों से मुक्त होने में समर्थ होंगे और अनुग्रह का आनंद उठाने में समर्थ होंगे, किन्तु जब वह महान दिन का न्याय आरंभ करेगा, ऐसा तब होगा जब वह सभी लोगों के बीच प्रकट होगा, और पृथ्वी पर उसका समस्त कार्य पूरी तरह से पूर्ण हो जाएगा। उस समय, क्योंकि दिन आ चुका है, यह ठीक वैसा ही होगा जैसा कि बाइबल में कहा गया था: "जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे: और जो पवित्र है; वह पवित्र बना रहे।" अधार्मिक ताड़ना की ओर लौटेगा, और पवित्र सिंहासन के सामने लौटेगा। कोई एक भी व्यक्ति उसकी उपकारशीलता को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा, यहाँ तक ​​कि राज्य के पुत्र और लोग भी नहीं। यह सब परमेश्वर की धार्मिकता होगी, और यह सब उसके स्वभाव को प्रकट करना होगा। वह मानवजाति की कमजोरियों के लिए दूसरी बार व्याकुलता नहीं दिखाएगा।
                                                      स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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परमेश्वर को जानना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है
सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास करने के जीवन को नए सिरे से जाँचकर यह देखना चाहिए कि परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में, तुम परमेश्‍वर को सही अर्थों में समझ पाए हो, सही मायनों में उसे बूझ पाए हो, और वाकई में उसे जान पाए हो या नहीं, क्या तुम वाकई जानते हो कि, विभिन्न मनुष्यों के प्रति परमेश्वर कैसा रवैया रखता है, क्या तुम वास्तव में यह समझ पाए हो कि परमेश्वर तुम पर क्या कार्य कर रहा है और परमेश्वर कैसे तुम्हारे प्रत्येक कार्य को निर्धारित करता है। यह परमेश्वर जो तुम्हारे साथ है, तुम्हारे विकास को दिशा दे रहा है, तुम्हारी नियति को ठहरा रहा है और तुम्हारी सभी आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है—अंतिम विश्लेषण में, तुम उसे कितना समझते हो और वास्तव में उसके बारे में कितना जानते हो? क्या तुम जानते हो कि प्रत्येक दिन वह तुम पर कौन से कार्य करता है? क्या तुम उन नियमों और उद्देश्‍यों को जानते हो जिन पर वह अपने हर कृत्‍य को आधारित करता है? क्या तुम जानते हो कि वह कैसे तुम्हारा मार्गदर्शन करता है? क्या तुम जानते हो कि किन स्रोतों के द्वारा वह तुम्हारी सभी ज़रुरतों को पूरा करता है? क्या तुम जानते हो कि किन तरीकों से वह तुम्हारी अगुवाई करता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे किस बात की अपेक्षा रखता है और तुम में क्या हासिल करना चाहता है? क्या तुम उसके रवैये को जानते हो, जो वह तुम्हारे विभिन्न तरह के व्यवहार के प्रति अपनाता है? क्या तुम यह जानते हो कि तुम उसके पसंदीदा व्यक्ति हो या नहीं? क्या तुम उसके आनन्द, क्रोध, दु:ख और प्रसन्नता के पीछे छिपे विचारों और अभिप्रायों और उसके सार को जानते हो? अंत में, क्या तुम जानते हो कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह किस प्रकार का परमेश्वर है? क्या ये और इसी प्रकार के अन्य प्रश्न, ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में तुमने पहले कभी भी न तो समझा और न ही उन पर विचार किया? परमेश्वर पर अपने विश्वास का अनुसरण करते हुए क्या तुमने परमेश्‍वर के वचनों की वास्‍तविक सराहना और अनुभव से, उसके प्रति अपनी सभी ग़लतफहमियों को दूर किया है? क्या तुमने कभी भी परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना प्राप्त करने के बाद, सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह पायी है? क्या तुम परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के मध्य मनुष्य की विद्रोही और शैतानी प्रकृति को जान पाए हो और तुमने परमेश्वर की पवित्रता की थोड़ी सी भी समझ प्राप्त की है? क्या तुमने परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के अधीन अपने जीवन को एक नए नज़रिए से देखना प्रारम्भ किया है? क्या तुमने परमेश्वर के द्वारा भेजे हुए परीक्षणों के मध्य, मनुष्य के अपराध के लिए उसकी असहिष्णुता को, साथ-ही-साथ वह तुमसे क्या अपेक्षा रखता है और वह तुम्हें कैसे बचा रहा है, उसे महसूस किया है? यदि तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर को गलत समझना क्या है या इन ग़लतफहमियों को ठीक कैसे किया जा सकता है, तो यह कहा जा सकता है कि तुम परमेश्वर के साथ कभी भी वास्तविक सहभागिता में नहीं आए हो और तुमने कभी परमेश्वर को समझा ही नहीं है, या कम-से-कम यह कहा जा सकता है कि तुमने उसे कभी भी समझने की इच्छा नहीं की है। यदि तुम परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को नहीं जानते हो, तो निश्चित ही तुम नहीं जानते कि आज्ञाकारिता और परवाह क्‍या हैं, या फिर तुम कभी परमेश्वर के प्रति वास्तव में आज्ञाकारी नहीं हुए और तुमने परमेश्वर की परवाह तक नहीं की। यदि तुमने कभी भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को अनुभव नहीं किया है तो निश्चित तौर पर तुम उसकी पवित्रता को नहीं जान पाओगे, यह तो और भी नहीं समझ पाओगे कि मनुष्यों का विद्रोह क्या होता है। यदि तुम्हारे पास कभी भी जीवन के प्रति उचित दृष्टिकोण नहीं रहा है या जीवन में सही उद्देश्य नहीं रहा है, तुम अब तक अपने जीवन में भविष्य के पथ के प्रति दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में हो, यहां तक कि आगे बढ़ने में भी हिचकिचाहट की स्थिति में हो, तो यह स्पष्ट है कि तुमने सही मायनों में परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन कभी नहीं पाई है और यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हें कभी भी परमेश्वर के वचनों का पोषण या आपूर्ति प्राप्त नहीं हुई है। यदि तुम अभी तक परमेश्वर की परीक्षा से नहीं गुज़रे हो तो कहने के जरूरत नहीं है कि तुम यकीनन यह नहीं जान पाओगे कि मनुष्य के अपराधों के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता क्या है और न ही यह समझ सकोगे कि आख़िरकार परमेश्वर तुमसे चाहता क्या है, और इसकी समझ तो और भी कम होगी कि अंतत: मनुष्य के प्रबंधन और बचाव का उसका कार्य क्‍या है। चाहे कोई व्यक्ति कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करता रहा हो, यदि उसने कभी भी उसके वचन का अनुभव या उनसे कोई बोध हासिल नहीं किया है तो फ़िर वह निश्चित तौर पर उद्धार के मार्ग पर नहीं चल रहा है, और परमेश्वर पर उसका विश्वास किसी वास्तविक विषयवस्तु से रहित है, उसका परमेश्वर के प्रति ज्ञान भी निश्चय ही शून्य है और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा क्या होती है इसका उसे बिल्कुल भी अनुमान नहीं है।
परमेश्वर का स्‍वरूप और अस्तित्‍व, परमेश्वर का सार, परमेश्वर का स्वभाव—इन सब से मानवजाति को उसके वचन के माध्यम से अवगत कराया जा चुका है। जब मनुष्‍य परमेश्वर के वचन को अनुभव करेगा, तो उनके अनुपालन की प्रक्रिया में, व‍ह परमेश्वर के कहे वचनों के पीछे छिपे हुए उद्देश्यों को समझेगा, परमेश्वर के वचन की पृष्ठभूमि, स्रोत और परमेश्वर के वचन के अभिप्रेरित प्रभाव को समझेगा तथा सराहना करेगा। मानवजाति के लिए, ये सभी वे बातें हैं जो जीवन और सत्य में प्रवेश करने और परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए, अपने स्वभाव में परिवर्तित होने और परमेश्वर की सम्प्रभुता और व्यवस्था के प्रति आज्ञाकारी होने के लिए मनुष्य को अवश्य ही अनुभव करनी, और समझनी चाहिए, और इनमें प्रवेश करना चाहिए। जब मनुष्य अनुभव करता, समझता और इन बातों में प्रवेश करता है, उसी वक्त वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ को प्राप्त कर लेता है, और साथ ही उसके विषय में वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त करता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य की किसी कल्पना या रचना से नहीं आती है, परन्तु जिसकी वह सराहना करता है, जिसे वह अनुभव और महसूस करता है तथा अपने आप में जिसकी पुष्टि करता है, उससे आती है। केवल इन बातों की सराहना करने, अनुभव करने, महसूस करने और पुष्टि करने के बाद ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के ज्ञान में तात्‍विक प्राप्ति होती है, केवल वही ज्ञान वास्तविक, असली और सही है जो वह इस समय प्राप्त करता है और उसके वचनों की सराहना करने, उन्‍हें अनुभव करने, महसूस करने और उनकी पुष्टि करने के द्वारा परमेश्वर के प्रति सही समझ और ज्ञान को प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के संवाद के मध्य, मनुष्य परमेश्वर के उद्देश्यों को समझ पाता है, परमेश्वर के स्‍वरूप और अस्तित्‍व को सही तौर पर जान पाता है, परमेश्वर की वास्तविक समझ और उसके तत्व को ग्रहण कर पाता है, धीरे-धीरे परमेश्वर के स्वभाव को जान और समझ पाता है, परमेश्वर की सम्पूर्ण सृष्टि के ऊपर प्रभुत्व की सही परिभाषा और असल निश्चितता पाता है और परमेश्वर की पहचान और स्थान का ज्ञान तथा मौलिक समझ प्राप्त करता है। इस प्रकार की सहभागिता के मध्य, मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने विचार थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, अब वह उसे अचानक से उत्पन्न हुआ नहीं मानता है, या वह उसके बारे में अपने अविश्‍वासों को बेलगाम नहीं दौड़ाता है, या उसे गलत नहीं समझता, उसकी भर्त्सना नहीं करता, उसकी आलोचना नहीं करता या उस पर संदेह नहीं करता है। फलस्वरुप, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद कम होंगे, परमेश्वर के साथ उसकी झड़पें कम होंगी, और ऐसे मौके कम आयेंगे जब वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करे। इसके विपरीत, मनुष्य का परमेश्वर के प्रति सरोकार और आज्ञाकारिता बढ़ती ह�� जाती है और परमेश्वर के प्रति उसका आदर और अधिक गहन होने के साथ-साथ वास्तविक होता जाता है। इस प्रकार के संवाद के मध्य, मनुष्य केवल सत्य के प्रावधान और जीवन के बपतिस्मा को ही प्राप्त नहीं करेगा, अपितु उसी समय वह परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान को भी प्राप्त करेगा। इस प्रकार के संवाद के मध्य, न केवल मनुष्य अपनी प्रकृति में परिवर्तित होगा और उद्धार पायेगा, अपितु उसी समय परमेश्वर के प्रति एक सृजित किए गए प्राणी की वास्तविक श्रद्धा और आराधना भी एकत्र करेगा। इस प्रकार का संवाद पा लेने के कारण, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा एक कोरे कागज़ की तरह या सिर्फ़ दिखावटी प्रतिज्ञाओं के समान, या एक अंधानुकरण अथवा आदर्शवादी रूप में नहीं रहेगा; केवल इस प्रकार के संवाद से ही मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन परिपक्वता की ओर बढ़ेगा, और तभी उसका स्‍वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होगा और कदम-दर-कदम परमेश्वर के प्रति उसका अनिश्चित और संदेहयुक्त विश्वास, एक सच्ची आज्ञाकारिता, सरोकार और वास्तविक श्रद्धा में बदलेगा और मनुष्य परमेश्वर के अनुसरण की प्रक्रिया में, उत्‍तरोत्‍तर निष्क्रियता से सक्रियता में विकसित होगा, तथा दूसरों से प्रभावित होने वाले मनुष्य के स्‍थान पर एक सकारात्मक कार्यशील मनुष्य में विकसित होगा; केवल इसी प्रकार की सहभागिता से ही मनुष्य में परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ, बूझने की शक्ति और सच्चा ज्ञान आएगा। चूंकि अधिकतर लोगों ने कभी परमेश्वर के साथ वास्तविक सहभागिता में प्रवेश ही नहीं किया है, अत: परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान, नियमों, शब्‍दों और सिद्धांतों पर आकर ठहर जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, भले ही अनेक सालों से परमेश्वर पर विश्वास करता रहा हो, फिर भी वो परमेश्वर को जानने के बारे में अभी भी अपनी आरम्भिक अवस्था में, पौराणिक रंगों और सामंती अंधविश्‍वासों से युक्‍त भक्ति के पारंपरिक रूपों में ही अटका हुआ है। मनुष्य की परमेश्वर के प्रति समझ का उसके प्रारम्भिक बिन्दु पर ही रुके होने का अर्थ यह है कि एक तरह से यह अस्तित्वहीन ही है। मनुष्य की परमेश्वर के स्थान और पहचान के पुष्टीकरण के अलावा, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा अभी भी अस्पष्ट अनिश्‍चय की स्थिति में ही है। ऐसा होने से, मनुष्य में परमेश्वर के प्रति कितनी वास्‍तविक श्रद्धा हो सकती है?
चाहे तुम कितनी ही दृढ़ता से उसके अस्तित्व पर विश्वास क्‍यों न करो, यह बात परमेश्वर के लिए तुम्‍हारे ज्ञान की और परमेश्वर के प्रति तुम्‍हारी श्रद्धा की जगह नहीं ले सकती है। चाहे तुमने उसकी आशीषों और अनुग्रह का कितना ही आनन्द क्‍यों न लिया हो, यह बात परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान की जगह नहीं ले सकती। चाहे तुम अपना सर्वस्व पवित्र करने के लिए और प्रभु के लिए अपना सब कुछ त्यागने को कितने भी तैयार हो, लेकिन यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद परमेश्वर के कहे वचन, तुम्हारे लिये चिरपरिचित हो गये हैं, या तुम्हें उसके वचन हृदयस्‍थ हों और तुम उन्‍हें किसी भी क्रम में दोहरा सकते हो; लेकिन यह परमेश्वर के तुम्हारे ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। परमेश्वर के पीछे चलने की मनुष्य की अभिलाषा कितनी भी तीव्र हो, यदि उसकी परमेश्वर की साथ वास्तविक सहभागिता नहीं हुई है या उसने परमेश्वर के वचन का वास्तविक अनुभव नहीं किया है, तो परमेश्वर का उसका ज्ञान बिल्कुल कोरा या एक अंतहीन दिवास्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं होगा; क्‍योंकि ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर तुम्‍हें "छूकर गुज़रा हो" या तुम उससे रू-ब-रू हुए हो, तब भी तुम्‍हारा परमेश्वर का ज्ञान शून्य ही होगा और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्श के अलावा और कुछ भी नहीं होगी।
कई लोग परमेश्वर के वचन को प्रतिदिन पढ़ने के लिए ही उठाते हैं, यहां तक कि उसके उत्कृष्ट अंशों को सबसे बेशकीमती सम्पत्ति के तौर पर स्मृति में अंकित कर लेते हैं और इससे भी अधिक हर जगह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, दूसरों की उसके वचनों से, आपूर्ति करते हैं, सहायता करते हैं। वे यह सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर की गवाही देना हुआ, उसके वचन की गवाही देना हुआ; ऐसा करना परमेश्वर के मार्ग का पालन करना हुआ; वे यह सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीना हुआ, ऐसा करना उसके वचन को अपने जीवन में लागू करना हुआ, कि ऐसा करने से उन्हें परमेश्वर की सराहना प्राप्त होगी और वे बचाए जाएंगे और पूर्ण बनेंगे। परन्तु, परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हुए भी, वे कभी परमेश्वर के वचन पर अमल नहीं करते या अपने आप को परमेश्वर के वचन में जो प्रकाशित किया गया है उसके अनुरूप नहीं ढालते। इसके बजाय, वे छल से दूसरों की प्रशंसा और भरोसे को प्राप्त करने, अपने आप ही प्रबंधन में प्रवेश करने, परमेश्वर की महिमा का गबन करने और उसे चुराने के लिए परमेश्वर के वचन को काम में लाते हैं। वे परमेश्‍वर के वचन के प्रसार से मिले अवसर को, परमेश्‍वर का कार्य और उसकी प्रशंसा पाने के रूप में उपयोग करने की व्‍यर्थ आशा करते हैं। कितने ही वर्ष गुज़र चुके हैं, परन्तु ये लोग परमेश्वर के वचन के प्रचार करने की प्रक्रिया में, न केवल परमेश्वर की प्रशंसा को प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं, परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की प्रक्रिया में न केवल वे उस मार्ग को खोजने में असफल रहे हैं जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिये, दूसरों को परमेश्वर के वचनों के माध्यम से सहायता और आपूर्ति पहुंचाने की प्रक्रिया में न केवल उन्होंने अपने को उससे वंचित रखा है, और इन सभी बातों को करने की प्रक्रिया में वे न केवल परमेश्वर को जानने में या परमेश्वर के प्रति स्वयं में वास्तविक श्रद्धा की जगाने में असमर्थ रहे हैं; बल्कि, परमेश्वर के बारे में उनकी ग़लतफ़हमियां और भी गहरा रही हैं; उस पर भरोसा न करना और भी अधिक बढ़ रहा है और उसके बारे में उनकी कल्पनाएं और भी अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण होती जा रही हैं। परमेश्वर के बारे में अपनी ही परिकल्पना से आपूर्ति और निर्देशन पाकर, वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे बिल्कुल मनोनुकूल परिस्थिति में हों, मानो वे अपने कौशल का सरलता से इस्तेमाल कर रहे हैं, मानो उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य, अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है, और मानो उन्होंने एक नया जीवन जीत लिया है और बचा लिए गए हैं, मानो परमेश्वर के वचनों को धाराप्रवाह बोलने से उन्‍होंने सत्य तक पहुँच बना ली है, परमेश्वर के अभिप्राय को समझ लिया है और परमेश्वर को जानने के मार्ग को खोज लिया है, मानो प्रचार करने की प्रक्रिया में, वे परमेश्वर से कई बार रू-ब-रू होते हैं। और अक्सर वे "द्रवित" होकर बार-बार रोते हैं और बहुधा परमेश्वर के वचनों में "परमेश्वर" द्वारा अगुवाई प्राप्त करते हुए, वे उसकी गांभीर्य भरी परवाह और उदार प्रयोजनों का निरंतर बोध करते प्रतीत होते हैं और साथ-ही-साथ मनुष्य के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रबंधन को भी जानने वाले, उसके सार को जानने वाले और उसके धार्मिक स्वभाव को समझने वाले प्रतीत होते हैं। इस आधार पर, वे परमेश्वर के अस्तित्‍व पर और दृढ़ता से विश्वास करते, उसकी महानता की स्थिति से और भी अच्छे से परिचित होते और उसकी भव्यता एवं श्रेष्ठता को गहराई से महसूस करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के वचन के ज्ञान की सतही जानकारी से ओत-प्रोत होने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विश्वास में वृद्धि हुई है, कष्टों को सहने के उनके संकल्प को दृढ़ता मिली है और परमेश्वर के ज्ञान की उनकी गहराई और बढ़ी है। शायद ही वे यह जानते हैं कि जब तक वे परमेश्वर के वचन का वास्तविक अनुभव नहीं करेंगे, तब तक उनका परमेश्वर के बारे में सारा ज्ञान और उसके बारे में उनके विचार उनकी ही काल्पनिक इच्छाओं और अनुमान से निकला हुआ होगा। उनका विश्वास परमेश्वर की किसी भी जांच के सामने ठहर नहीं सकेगा, उनकी तथाकथित आध्‍यात्मिकता और उच्चता परमेश्वर के किसी भी परीक्षण या जांच-पड़ताल के तहत बिल्कुल भी नहीं ठहर सकेगी, उनका संकल्प रेत पर बने हुए महल से अधिक कुछ नहीं, और उनका तथाकथित परमेश्वर का ज्ञान भी उनकी कोरी-कल्पनाओं की उड़ान है। वास्तव में, ये लोग, जिन्होंने एक दृष्टि से, परमेश्वर के वचनों में काफी श्रम डाला है, उन्होंने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि वास्तविक आस्‍था क्या है, वास्तविक आज्ञाकारिता क्या है, वास्तविक सरोकार क्या है, या परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान क्या है। वे सिद्धान्तों, कल्पनाओं, ज्ञान, भेंट, परम्परा, अंधविश्वास और यहाँ तक कि मानवता के नैतिक मूल्यों को लेकर उन्हें परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके पीछे चलने के लिए "निवेश पूंजी" और "सैन्य हथियार" के तौर पर प्रयोग करते हैं, यहां तक कि उन्‍हें परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का आधार बना लेते हैं। साथ ही, परमेश्वर के निरीक्षण, परीक्षण, ताड़ना करने और न्याय का सामना करने, उनसे संघर्ष करने के लिए और परमेश्वर को जानने के लिए, वे इस पूंजी और असलहे को लेकर उसे जादुई ताबीज़ में बदल देते हैं। अंत में, जो कुछ भी वे एकत्रित करते हैं उसमें परमेश्वर के बारे में, धार्मिक संकेतार्थों, सामंती अंधविश्वासों, और सभी प्रकार की प्रेम, वीभत्‍स और रहस्‍यमयी कथाओं से ओत-प्रोत निष्‍कर्षों से अधिक और कुछ नहीं होता, तथा उनका परमेश्वर को जानने और परिभाषित करने का तरीका केवल ऊपर स्वर्ग में या आसमान में किसी वृद्ध के होने में विश्वास करने वाले लोगों के सांचे में ही ढला होता है होती है—जबकि परमेश्वर की वास्तविकता, उसका सार, उसका स्वभाव, उसका स्‍वरूप और अस्तित्‍व, जिन बातों का वास्ता सच्चे परमेश्वर से है—ऐसी बातें हैं जो उनकी समझ में नहीं आईं हैं, जो पूरी तरह से असंगत और दो ध्रुवों की समान पूरी तरह विपरीत हैं। इस प्रकार से, हालांकि वे परमेश्वर के वचन के प्रावधान और पालन-पोषण में जी रहे हैं, सही मायनों में वे फिर भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने में वाकई असमर्थ हैं। इसका वास्‍तविक कारण यह है कि वे कभी भी परमेश्वर से परिचित नहीं हुए हैं, न ही उन्होंने उसके साथ कभी सच्चा सम्बन्ध या संवाद रखा है अत: उनके लिए यह असम्भव है कि वे परमेश्वर के साथ पारस्परिक समझ स्‍थापित कर सकें या फिर वे स्‍वयं में परमेश्वर में सच्‍चा विश्‍वास, उसका अनुसरण या उसकी आराधना जागृत कर सकें। कि उन्हें इस प्रकार से परमेश्वर के वचनों देखना चाहिए, कि इस प्रकार उन्‍हें परमेश्वर देखना चाहिए—इस दृष्टिकोण और रवैये ने उन्हें उनके प्रयासों में खाली हाथ रहने और परमेश्वर का भय मानने तथा बुराई से दूर रहने के मार्ग पर बने न रह पाने के लिए अनन्तकाल तक अभिशापित कर दिया है। जिस लक्ष्य को वे साध रहे हैं और जिस ओर वे जा रहे हैं, वह इसको प्रदर्शित करता है कि अनन्त काल से वे परमेश्वर के शत्रु रहे हैं और अनन्त काल तक वे कभी भी उद्धार को प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
यदि, किसी मनुष्‍य ने कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया और कई सालों तक उसके वचनों के प्रावधान का आनन्द लिया है, तो परमेश्वर की उसकी परिभाषा, उसके सार-तत्व में, वैसी ही है जैसे कि कोई व्यक्ति मूर्तियों की पूजा करने के लिए उनके आगे साष्टांग दंडवत करता है, इससे यह पता चलता है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को नहीं पाया है। इसका कारण यह है कि उसने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में बिल्‍कुल भी प्रवेश नहीं किया है और इसी कारण से, वास्तविकता, सत्यता, प्रयोजन और मनुष्य से अपेक्षाएं, जो परमेश्वर के वचनों में निहित हैं, उससे उसे कुछ लेना-देना नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के सतही अर्थ पर कितनी भी मेहनत से कार्य करे, सब कुछ व्यर्थ हैः क्योंकि जिसका वह अनुसरण करता है वे मात्र शब्द ही हैं, इसलिए जो कुछ वह प्राप्त करेगा वे भी मात्र शब्द ही होंगे। चाहे परमेश्‍वर द्वारा बोले गए वचन, बाहरी स्वरूप में केवल कोरे या अगाध हों, वे सभी सत्य हैं। जैसे ही कोई मनुष्‍य जीवन में प्रवेश करता है, तो ये सभी सत्य उसके लिए अपरिहार्य बन जाते हैं; ये जीवन के जल के ऐसे सोते हैं जो उसे आत्मा और शरीर दोनों में जीवित रहने में सक्षम बनाते है��। वे मनुष्‍य को जीवित रहने के लिए हर ज़रूरी चीज़, उसके प्रतिदिन का जीवन जीने के लिए सिद्धांत और मत, उद्धार पाने के लिए मार्ग, लक्ष्‍य और दिशा जिससे होकर उसे गुज़रना आवश्‍यक है; हर वह सत्‍य जो एक सृजित प्राणी के रूप में उसके पास होना ज़रूरी है; तथा मनुष्‍य परमेश्‍वर की आज्ञाकारिता और आराधना कैसे करे, ऐसे सभी सत्‍य प्रदान करते हैं। वे ऐसे आश्‍वासन हैं जो मनुष्य का जीवित रहना सुनिश्चित करते हैं, वे मनुष्य का दैनिक आहार हैं और वे ऐसे प्रबल समर्थक हैं जो मनुष्य को दृढ़ और स्थिर करते हैं। सृजित मनुष्य जिस प्रकार जीवन जीता है, उसमें वे सामान्य मानवता के सत्य की वास्तविकता में बहुत ही गहरे हैं, और वे सृजनकार द्वारा सृजित मनुष्य को दिए जाने वाले ऐसे सत्य हैं जिसके माध्यम से मानवजाति भ्रष्टाचार से और शैतान के जाल से बच जाती है, साथ ही, वे अथक शिक्षा, उपदेश, प्रोत्साहन और सांत्वना से संपन्‍न हैं। वे ऐसे प्रकाश-पुंज हैं जो मनुष्य को सभी सकारात्‍मक बातों के लिए मार्गदर्शन और प्रबुद्धता देते हैं, वे ऐसे आश्‍वासन हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि मनुष्य, वह सब कुछ जो न्‍यायसंगत और अच्‍छा है, जिन मापदंडों पर लोगों, घटनाओं और वस्‍तुओं, सभी को मापा जाता है, तथा ऐसे सभी दिशानिर्देशों को जिये और उनकी प्राप्ति करे जो मनुष्‍य को उद्धार और प्रकाश के मार्ग की ओर ले जाते हैं। परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों के आधार पर ही मनुष्य को सत्य और जीवन प्रदान किया जाता है; केवल इस में ही वह यह समझ पाता है कि सामान्य मानवता क्‍या है, एक सार्थक जीवन क्या है, एक वास्तविक सृजित प्राणी क्या है, परमेश्वर के प्रति वास्तविक आज्ञापालन क्या है; केवल इसी में वह यह समझ पाता है कि उसे किस प्रकार से परमेश्वर की परवाह करनी चाहिए, एक सृजित प्राणी की ज़िम्मेदारी कैसे पूर्ण करनी चाहिए, और एक वास्तविक मनुष्य के समान गुणों को कैसे प्राप्त करना चाहिए; केवल यहीं वह यह समझ पाता है कि सच्ची आस्था और सच्ची आराधना क्या है; केवल यहीं वह यह समझ पाता है कि स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों का शासक कौन है; केवल यहीं वह इस बात को समझ पाता है कि जो सारे सृजन का अधिपति है, किन साधनों से वह समस्त रचना पर शासन करता, उसकी अगुवाई करता और सृष्टि का पोषण करता है; और केवल यहीं वह उन साधनों को ग्रहण कर पाता और समझ पाता है जिनके ज़रिये सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी अस्तित्व में रहता, स्‍वयं को व्‍यक्‍त करता और कार्य करता है...। परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों से अलग, परमेश्‍वर के वचनों और सत्‍य के विषय में मनुष्य के पास कोई भी वास्तविक ज्ञान या अंतदृष्टि नहीं होती। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से एक जीवित लाश, बिल्कुल एक घोंघे के समान होता है और सृजनकार से संबंधित किसी भी ज्ञान का उससे कोई वास्‍ता नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, ऐसे व्यक्ति ने कभी भी उस पर विश्वास नहीं किया है, न ही कभी उसका अनुसरण किया है और इसलिए परमेश्वर न तो उसे अपना विश्वासी और न ही अपना अनुयायी मानता है, उसे एक सच्‍चा सृजित प्राणी मानना तो दूर की बात रही।
एक सच्‍चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि कौन सृजनकर्ता है, मनुष्‍य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की ज़िम्‍मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, किस प्रकार सृजनकर्ता के इरादों, इच्‍छाओं और अपेक्षाओं को समझें, ग्रहण करें, जानें और उनकी परवाह करें, किस तरह सृजनकर्ता के मार्ग के अनुरूप कार्य करें—परमेश्‍वर का भय माने और दुष्‍टता का त्‍याग करें।
परमेश्‍वर का भय मानना क्‍या है? किस प्रकार कोई दुष्‍टता का त्‍याग कर सकता है?
"परमेश्‍वर का भय मानने" का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, ना ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रखना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्‍वास होता है। वरन्, यह प्रशंसा, आदर, भरोसा, समझ, परवाह, आज्ञाकारिता, समर्पण, प्रेम, के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण करना है। परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना, मनुष्य के पास सच्‍ची प्रशंसा, सच्‍चा भरोसा, सच्‍ची समझ, सच्‍ची परवाह या आज्ञाकारिता नहीं रहेगी, वरन् केवल भय और व्‍यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और परिहार रहेगा; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना, मनुष्य के पास सच्‍चा समर्पण और प्रतिदान भी न रहेगा; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य के पास सच्‍ची आराधना और समर्पण नहीं रहेगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्‍वास रहेगा; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना, मनुष्य परमेश्‍वर के मार्ग के अनुरूप संभवत: कार्य न कर पाएगा, परमेश्‍वर का भय नहीं मानेगा, या दुष्‍टता का त्‍याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्‍य जिस भी क्रियाकलाप और आचरण में संलग्‍न होगा, वह परमेश्‍वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, कलंकित करने वाले अभियोगों और निंदात्‍मक आकलनों से तथा सत्‍य के और परमेश्‍वर के वचनों के सही अर्थों के विपरीत चलने वाले दुष्‍ट व्‍यवहारों से भरा होगा।
जब मनुष्य को परमेश्‍वर में सच्‍चा भरोसा होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्‍वर पर सच्‍चे भरोसे और निर्भरता से ही मनुष्य को सच्‍ची समझ और बोध होगा; परमेश्‍वर के वास्‍तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्‍तविक परवाह आती है; केवल परमेश्‍वर के प्रति सच्‍ची परवाह के साथ ही मनुष्य में सच्‍ची आज्ञाकारिता आ सकती है; परमेश्‍वर के प्रति सच्‍ची आज्ञाकारिता के साथ ही मनुष्य में सच्‍चा समर्पण आ सकता है; केवल परमेश्वर के प्रति सच्‍चे समर्पण के साथ ही बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान हो सकता है; केवल सच्‍चे भरोसे और निर्भरता, सच्‍ची समझ और परवाह, सच्‍ची आज्ञाकारिता, सच्‍चे समर्पण और प्रतिदान के साथ ही मनुष्य परमेश्‍वर के स्‍वभाव और सार को जान सकता है, और सृजनकर्ता की पहचान को जान सकता है; जब मनुष्य सृजनकर्ता को वास्‍तव में जानेगा केवल तभी उसमें सच्‍ची आराधना और समर्पण जागृत होगा; जब मनुष्य में सृजनकर्ता के प्रति सच्‍ची आराधना और समर्पण होगा केवल तभी वह अपने बुरे तरीकों का वाकई त्‍याग कर पाएगा, अर्थात्, दुष्‍टता का त्‍याग कर पाएगा।
"परमेश्‍वर का भय मानने और दुष्‍टता का त्‍याग करने" की सम्‍पूर्ण प्रक्रिया इस प्रकार बनती है, और यही परमेश्‍वर का भय मानने और दुष्‍टता का त्‍याग करने का समग्र निहित तत्‍व भी है, साथ ही यही वह मार्ग भी है जिसे परमेश्‍वर का भय मानने और दुष्‍टता का त्‍याग करने के लिए तय करना आवश्‍यक है।
"परमेश्‍वर का भय मानना और दुष्‍टता का त्‍याग करना" तथा परमेश्‍वर को जानना अभिन्‍न रूप से अनगिनत धागों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्‍पष्‍ट है। यदि कोई दुष्‍टता का त्‍याग करना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्‍वर का वास्‍तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर के वास्‍तविक भय को पाना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्‍वर का सच्‍चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर के ज्ञान को पाना चा‍हता है, तो उसे पहले परमेश्‍वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए; परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर के शुद्धिकरण और अनुशासन का अनुभव करना चाहिए, उसकी ताड़ना और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्‍वर के वचनों के सम्‍मुख आना चाहिए, परमेश्‍वर के समक्ष आना चाहिए, और परमेश्‍वर से लोगों, घटनाओं और वस्‍तुओं के सम्‍मेलन वाले सभी प्रकार के वातावरणों के रूप में परमेश्‍वर के वचनो�� को अनुभव करने के अवसर देने का निवेदन करना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर के और उसके वचनों के सम्‍मुख आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्‍चा हृदय, सत्‍य को स्‍वीकार करने की तत्‍परता, कष्‍ट झेलने की इच्‍छाशक्ति, दुष्‍टता का त्‍याग करने की दृढ़ता और साहस, और एक सच्‍चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, जैसे-जैसे तुम परमेश्‍वर के करीब आते जाओगे, तुम्‍हारा हृदय और पावन होता जाएगा, तुम्‍हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्‍य, परमेश्‍वर के तुम्‍हारे ज्ञान के साथ-साथ अधिक-से-अधिक अर्थपूर्ण होते जाएंगे और अधिक-से-अधिक ज्योतिर्मय होते जाएंगे। यकायक, एक दिन तुम अनुभव करोगे कि सृजनकर्ता अब कोई पहेली नहीं रह गया है, कि सृजनकर्ता कभी भी तुमसे छिपा नहीं था, कि सृजनकर्ता ने कभी भी अपना चेहरा तुमसे नहीं छुपाया, कि सृजनकर्ता तुमसे बिल्‍कुल भी दूर नहीं है, कि सृजनकर्ता अब बिल्‍कुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, कि वह वाकई और सच में तुम्‍हारे दायें-बायें खड़ा तुम्‍हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्‍हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्‍हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह किसी दूरस्‍थ क्षितिज पर नहीं, न ही उसने ��पने आपको ऊपर कहीं बादलों पर छिपा लिया है। वह एकदम तुम्‍हारे बगल में है, तुम्‍हारे सर्वस्‍व पर आधिपत्‍य कर रहा है, जो कुछ भी तुम्‍हारे पास है वह सब कुछ है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्‍हारी है। ऐसा परमेश्‍वर तुम्‍हें अपने हृदय से प्रेम करने देता है, लिपट कर अपने करीब आने देता है, अपने को आलिंगन में लेने देता है, अपनी प्रशंसा करने देता है, अपने को खोने से भयभीत होने देता है, तभी तुम उसका और अधिक त्‍याग न करने, उसकी अवज्ञा न करने, अधिक टालमटोल न करने या उसे दूर न करने को इच्छुक होते हो। तुम फ़िर बस उसकी परवाह करना, उसका आज्ञापालन करना, जो भी वह देता है उसका प्रतिदान करना और उसके प्रभुत्व के अधीन समर्पित होना चाहते हो। तुम उसके द्वारा मार्गदर्शित होने, पोषण पाने, उसकी निगरानी में रहने, उसके द्वारा देखभाल किए जाने से फ़िर कभी इंकार नहीं करते हो और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करना अस्‍वीकार करते हो। तुम सिर्फ़ उसका अनुसरण करना, उसके दायें या बायें उसके साथ चलना चाहोगे। तुम केवल उसी को अपना एकमात्र जीवन स्‍वीकार करना चाहोगे, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्‍वर स्‍वीकार करना चाहोगे।
                                                                स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
विश्वास क्या है--परमेश्वर से अनुमोदित विश्वास--ईसाई अनिवार्यताएं
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परमेश्वर के दैनिक वचन | "आरंभ में मसीह के कथन : अध्याय 7 | अंश 375
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परमेश्वर के कथन "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह ...
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shoffnermindy-blog · 5 years
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परमेश्वर के कथन "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह ...
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अध्याय 16
लोगों के लिए, परमेश्वर बहुत महान, बहुत अतिशय, बहुत अद्भुत, बहुत अथाह है; उनकी मज़रों में, परमेश्वर के वचन ऊँचाई पर उदय होते हैं, और दुनिया की एक महान कृति के रूप में प्रकट होते हैं। किन्तु क्योंकि लोगों की बहुत सारी असफलताएँ हैं, और उनके मन बहुत सरल हैं, और इसके अलावा, क्योंकि स्वीकार करने की उनकी क्षमताएँ बहुत कम है, चाहे परमेश्वर अपने वचनों को कितना ही स्पष्ट रूप से व्यक्त करे, इसलिए वे बैठे और अचल रह जाते हैं, मानो कि मानसिक बीमारी से पीड़ित हों। जब वे भूखे हो हैं, तो उनकी समझ में नहीं आता है कि उन्हें अवश्य खाना चाहिए, जब वे प्यासे होते हैं, तो उनकी समझ में नहीं आता है कि उन्हें क्या अवश्य पीना चाहिए; वे केवल चीखते और चिल्लाते रहते हैं, मानो कि उनकी आत्माओं की गहराई में अवर्णनीय कठिनाई हो, फिर भी वे इसके बारे में बात करने में असमर्थ हों। जब परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया, तो उसका अभिप्राय था कि मनुष्य सामान्य मानवता में रहे और अपनी सहज-प्रवृति के अनुसार परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करे। किन्तु क्योंकि, बिल्कुल शुरुआत में ही, मनुष्य शैतान के प्रलोभन के अधीन हो गया था, इसलिए आज वह स्वयं को निकालने में असमर्थ रहता है, और हजारों वर्षों से शैतान द्वारा की जा रही धोखेबाज़ योजनाओं को पहचानने में अभी भी असमर्थ है, इसके अलावा उसमें परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह से जानने की योग्यताओं का अभाव है—यह सब वर्तमान स्थिति में परिणत हुआ है। आज जिस तरह से चीजें हैं, लोग अभी भी शैतान के प्रलोभन के ख़तरे में रहते हैं, और इसलिए परमेश्वर के वचनों की शुद्ध सराहना करने में अक्षम रहते हैं। सामान्य लोगों के व्यवहारों में कोई कुटिलता या धोखेबाज़ नहीं होती है, लोगों का एक-दूसरे के साथ एक सामान्य संबंध होता है, वे अकेले नहीं खड़े होते हैं, और उनका जीवन न तो मामूली और न ही पतनोन्मुख होता है। इसलिए भी, परमेश्वर सभी के बीच ऊँचा है, उसके वचन मनुष्यों के बीच व्याप्त हैं, लोग एक-दूसरे के साथ शांति से और परमेश्वर की देखभाल और संरक्षण में रहते हैं, पृथ्वी, शैतान के हस्तक्षेप के बिना, सद्भाव से भरी है, और परमेश्वर की महिमा मनुष्यों के बीच अत्यंत महत्व रखती है। ऐसे लोग स्वर्गदूतों की तरह हैं: शुद्ध, जोशपूर्ण, परमेश्वर के बारे में कभी भी शिकायत नहीं करने वाले, और पृथ्वी पर पूरी तरह से परमेश्वर की महिमा के लिए अपने सभी प्रयासों को समर्पित करने वाले। अब अँधेरी रात का समय है, सभी इधर-उधर टटोल रहे हैं और खोज रहे हैं, और घोर अँधेरी रात उनके रोंगटे ख़ड़े करती है, और वे काँपने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते हैं; करीब से सुनने पर, उत्तर-पश्चिमी हवा के चौंकाने वाले निरंतर झोंके मनुष्य की शोकाकुल सिसकियों के साथ आते हुए प्रतीत होते हैं। लोग अपने भाग्य से दुःखी होते और रोते हैं। ऐसा क्यों है कि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते तो हैं किन्तु उन्हें समझने में असमर्थ हैं? ऐसा लगता है मानो कि उनकी जिंदगी निराशा की कगार पर है, मानो कि मृत्यु उन पर पड़ने ही वाली है, मानो कि उनका अंतिम दिन उनकी आँखों के सामने है। ऐसी दयनीय परिस्थितियाँ ही वे क्षण हैं जब नाज़ुक स्वर्गदूत, एक के बाद एक शोकाकुल क्रंदन में अपनी कठिनाई के बारे में बताते हुए, परमेश्वर को पुकारते हैं। इसी कारण वे स्वर्गदूत जो परमेश्वर के पुत्रों और लोगों के बीच कार्य करते हैं, फिर कभी भी मनुष्य पर नहीं उतरेंगे; यह उन्हें देह में होने के समय, जब वे स्वयं को निकालने में असमर्थ होते हैं, शैतान छलकपट में पकड़े जाने से रोकने के लिए है, और इसलिए वे केवल आध्यात्मिक दुनिया में कार्य करते हैं जो मनुष्य के लिए अदृश्य है। इस प्रकार, जब परमेश्वर कहता है कि, "जब मैं मनुष्य के हृदय में सिंहासन पर चढ़ूँगा ऐसा तब होगा जब मेरे पुत्र और लोग पृथ्वी पर शासन करेंगे," वह उस समय का उ��्लेख कर रहा है कि जब पृथ्वी पर स्वर्गदूत स्वर्ग में परमेश्वर की सेवा के आशीष का आनंद लेते हैं। क्योंकि मनुष्य स्वर्गदूतों की आत्माओं की अभिव्यक्ति है, इसलिए परमेश्वर कहता है कि मनुष्य के लिए, पृथ्वी पर होना स्वर्ग में होने के जैसा है, उसका पृथ्वी पर परमेश्वर की सेवा करना स्वर्गदूतों का स्वर्ग में सीधे परमेश्वर की सेवा करने जैसा है—और इस प्रकार, पृथ्वी पर अपने दिनों के दौरान, मनुष्य तीसरे स्वर्ग के आशीषों का आनंद लेता है। यही वास्तव में इन वचनों में कहा जा रहा है।
परमेश्वर के वचनों में बहुत अधिक अर्थ छुपा हुआ है। "जब दिन आएगा, तो लोग अपने हृदय की गहराईयों से मुझे जान जाएँगे और अपने विचारों में मुझे स्मरण करेंगे" मनुष्य की आत्मा पर निर्देशित है। स्वर्गदूतों की निर्बलता के कारण, वे सभी चीज़ों में हमेशा परमेश्वर पर निर्भर रहते हैं, और हमेशा परमेश्वर से जुड़े हुए हैं और उन्होंने हमेशा परमेश्वर की पूजा की है। किन्तु शैतान के उपद्रव की वजह से, वे स्वयं की सहायता नहीं कर सकते हैं, स्वयं को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, वे परमेश्वर से प्यार करना चाहते हैं किन्तु अपने संपूर्ण हृदय से उसे प्यार करने में अक्षम हैं, और इसलिए वे पीड़ा सहते हैं। केवल जब परमेश्वर का कार्य एक निश्चित स्थिति तक पहुँचता है तभी इन बेचारे स्वर्गदूतों की परमेश्वर को सचमुच प्यार करने की इच्छा सच हो सकती है, यही कारण है कि परमेश्वर ने उन वचनों को कहा। स्वर्गदूतों की प्रकृति परमेश्वर से प्रेम करना, उसे सँजोना और उसका आज्ञापालन करना है, फिर भी वे पृथ्वी पर इसे प्राप्त करने में अक्षम हैं, और उनके पास वर्तमान समय तक सहन करने के लिए अलावा कोई विकल्प नहीं है। तुम लोग आज की दुनिया को देख सकते हो: सभी लोगों के हृदय में एक परमेश्वर है, किन्तु वे सच्चे परमेश्वर और झूठे परमेश्वर के बीच के अंतर को बताने में अक्षम हैं, और यद्यपि वे अपने इस परमेश्वर को प्यार करते हैं, किन्तु वे परमेश्वर से सचमुच प्यार करने में अक्षम हैं, जिसका अर्थ है कि उनका स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं है। परमेश्वर द्वारा प्रकट किया गया ��नुष्य का कुरूप चेहरा आत्मिक क्षेत्र में शैतान का असली चेहरा है। मनुष्य मूल रूप से निर्दोष था, और पाप से रहित था, और इसलिए मनुष्य के सभी भ्रष्ट, कुरूप शिष्टाचार आध्यात्मिक क्षेत्र में शैतान के कार्य हैं, और आध्यात्मिक क्षेत्र की घटनाओं के विश्वसनीय अभिलेख हैं। "आज, लोग योग्य हो गए हैं और विश्वास करते हैं कि वे मेरे सामने अकड़ कर चल सकते हैं, और जरा से भी अवरोध के बिना मेरे साथ हँस और मज़ाक कर सकते हैं और समकक्ष के रूप में मुझे संबोधित कर सकते हैं। तब भी मनुष्य मुझे नहीं जानता है, तब भी वह विश्वास करता है कि सार में हम लगभग एक ही हैं, कि हम दोनों रक्त और मांस के हैं, और दोनों इस मानव जगत में रहते हैं।" शैतान ने मनुष्यों के हृदय में यही किया है। परमेश्वर का विरोध करने के लिए शैतान मनुष्य की धारणाओं और नग्न आँखों का उपयोग करता है, फिर भी बिना किसी वाक्छल के परमेश्वर मनुष्य को इन घटनाओं के बारे में बताता है ताकि मनुष्य यहाँ विनाश से बच सके। सभी लोगों की नश्वर दुर्बलता यह है कि वे केवल "रक्त और मांस के एक शरीर को देखते हैं, और परमेश्वर के आत्मा को महसूस नहीं करते हैं।" यह मनुष्य के बारे में शैतान के लालच के एक पहलू का आधार है। लोग मानते हैं कि केवल इस देह में पवित्रात्मा को परमेश्वर कहा जा सकता है। कोई नहीं मानता है कि आज, पवित्रात्मा देह बन गया है और उनकी आँखों के सामने वास्तव में दिखाई दिया है; लोग परमेश्वर को दो हिस्सों—"आवरण और देह"—के रूप में देखते हैं और कोई भी परमेश्वर को पवित्रात्मा के देहधारण के रूप में नहीं देखता है, कोई नहीं देखता है कि देह की प्रकृति परमेश्वर का स्वभाव है। लोगों की कल्पना में, परमेश्वर विशेष रूप से सामान्य है, किन्तु क्या वे नहीं जानते हैं कि इस सामान्यता में परमेश्वर के गहन महत्व का एक पहलू छुपा है?
जब परमेश्वर ने सारी दुनिया को आवृत करना आरंभ किया, तो घोर अँधेरा छा गया, और जैसे ही लोग सो गए, तो मनुष्य के बीच उतरने के लिए परमेश्वर ने इस अवसर को लिया, और मानवजाति को बचाने के कार्य की शुरूआत करते हुए, आधिकारिक रूप से पृथ्वी के सभी कोनों में पवित्रात्मा को आगे बढ़ाना आरंभ कर दिया। यह कहा जा सकता है कि जब परमेश्वर ने देह की छवि को अपनाना आरंभ किया, तो परमेश्वर ने पृथ्वी पर कार्य किया। फिर पवित्रात्मा का कार्य आरंभ हुआ, और आधिकारिक रूप से पृथ्वी पर सभी कार्य शुरू हुआ। दो हज़ार वर्षों तक, परमेश्वर के आत्मा ने पूरे विश्व में कार्य किया है। लोगों को इसके बारे में न तो पता है और न ही समझ है, किन्तु अंत के दिनों के दौरान, ऐसे समय में जब शीघ्र ही इस युग का समापन होना है, तो परमेश्वर पृथ्वी पर व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के लिए उतरा है। यह उन लोगों के लिए आशीष है जो अंत के दिनों में पैदा हुए, जो उस परमेश्वर की छवि को व्यक्तिगत रूप से देखने में समर्थ हैं जो देह में रहता है। "जब गहराई पर सम्पूर्ण धरातल धुँधला था, तो मनुष्यों के बीच मैंने संसार की कड़वाहट का स्वाद लेना आरम्भ किया। मेरा आत्मा संसार भर में यात्रा करता है और सभी लोगों के हृदयों को ध्यान से देखता है, मगर इसलिए भी मैं अपने देहधारी देह में मानवजाति को जीतता हूँ।" स्वर्ग में परमेश्वर और पृथ्वी पर परमेश्वर के बीच ऐसा सामंजस्यपूर्ण सहयोग है। अंततः, अपने विचारों में लोगों को विश्वास होगा कि पृथ्वी पर परमेश्वर ही स्वर्ग में परमेश्वर है, कि स्वर्ग और पृथ्वी और उनमें सभी चीजें को पृथ्वी के परमेश्वर द्वारा बनायी गईं थीं, कि मनुष्य पृथ्वी के परमेश्वर द्वारा नियंत्रित किया जाता है, कि पृथ्वी का परमेश्वर स्वर्ग में पृथ्वी पर कार्य करता है, और कि स्वर्ग का परमेश्वर देह में प्रकट हुआ है। यह परमेश्वर के कार्य का पृथ्वी पर अंतिम उद्देश्य है, और इसलिए, यह चरण देह की अवधि में कार्य का सर्वोच्च स्तर है, और यह दिव्यता में किया जाता है, और सभी लोगों को ईमानदारी से आश्वस्त होने का कारण बनता है। लोग अपनी अवधारणाओं में जितना अधिक परमेश्वर की खोज करते हैं, उतनी ही अधिक संभावना है कि वे महसूस करते हैं कि पृथ्वी पर परमेश्वर वास्तविक नहीं है। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है कि लोग खोखले वचनों और सिद्धांतों के बीच परमेश्वर की खोज करते हैं। लोग जितना अधिक परमेश्वर को अपनी धारणाओं में जानते हैं, वे इन वचनों और सिद्धांतों को बोलने में उतना ही अधिक निपुण हो जाते हैं, और वे उतना ही अधिक सराहने योग्य हो जाते हैं; लोग वचनों और सिद्धांतों को जितना अधिक बोलते हैं, वे परमेश्वर से उतना ही दूर भटकते हैं, और वे मनुष्य के सार को जानने में उतना ही अधिक अक्षम हो जाते हैं, और वे उतना ही अधिक परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से उतना ही दूर चले जाते हैं। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ अलौकिक नहीं हैं जैसा कि लोग कल्पना करते हैं, फिर भी कभी भी किसी ने परमेश्वर की इच्छा को सच में नहीं समझा है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, "लोग केवल असीम आकाश में या लहरदार समुद्र के ऊपर, या शान्त झील के ऊपर, या खोखले पत्रों और सिद्धांतों के बीच खोजते हैं।" परमेश्वर मनुष्य से जितनी अधिक अपेक्षाएँ करता है, लोगों को उतना ही अधिक लगता है कि परमेश्वर अगम्य है, और उन्हें उतना ही अधिक विश्वास होता है कि परमेश्वर महान है। इस प्रकार, उनकी चेतना में, परमेश्वर के मुँह से बोले गए सभी वचन मनुष्य के द्वारा अप्राप्य हैं, और परमेश्वर के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ते हैं; इस बीच, मनुष्य का परमेश्वर के साथ सहयोग करने के प्रति थोड़ा सा भी झुकाव नहीं होता है, और, नम्र और आज्ञाकारी होने का प्रयास करते हुए, मात्र अपने सिर को झुकाने और अपने पापों को स्वीकार करने में लगा रहता है। वैसे तो, इसे महसूस किए बिना, लोग किसी नए धर्म में, धार्मिक समारोह में प्रवेश करते हैं जो धार्मिक कलीसियाओं की अपेक्षा अधिक सख़्त होते है। यह आवश्यक बनाता है कि लोग अपनी नकारात्मक अवस्था को सकारात्मक अवस्था में रूपांतरित करने के माध्यम से ऐसी अवस्था में आएँ जो सामान्य है; यदि नहीं, तो मनुष्य और भी अधिक गहरा फँस जाएगा।
परमेश्वर कई बार अपने कथनों में पहाड़ों और समुद्र का वर्णन करने पर क्यों ध्यान केन्द्रित करता है? क्या इन वचनों के प्रतीकात्मक अर्थ है? परमेश्वर न केवल अपने देह में अपने कर्मों को मनुष्य को देखने की अनुमति देता है, बल्कि नभमण्डल में अपनी शक्तियों को समझने की भी मनुष्य को अनुमति देता है। इस तरह, बिना संदेह के विश्वास करने के साथ–साथ कि यह देह में परमेश्वर है, लोगों को व्यावहारिक परमेश्वर के कर्मों का भी पता चल जाता है, और इसलिए पृथ्वी के परमेश्वर को स्वर्ग में भेज दिया जाता है, और स्वर्ग के परमेश्वर को पृथ्वी पर नीचे लाया जाता है, केवल उसके बाद ही लोग अधिक पूर्णता से वह सब देखने में जो परमेश्वर है और परमेश्वर की सर्वसामर्थ्य का अधिक ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। जितना अधिक देह में परमेश्वर मानवजाति को जीतने में समर्थ होता है और पूरे ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए देह से पार जा सकता है, लोग उतना ही अधिक व्यावहारिक परमेश्वर को देखने के आधार पर परमेश्वर के कर्मों को देखने में सक्षम होते हैं, और इस प्रकार संपूर्ण विश्व में परमेश्वर के कार्य की सत्यता को जानते हैं कि यह नकली नहीं बल्कि वास्तविक है, और इसलिए उन्हें पता चलता है कि आज का व्यवहारिक परमेश्वर पवित्रात्मा का ���ूर्तरूप है, न कि उसी तरह के दैहिक शरीर वाला जैसा मनुष्य का है। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है, "किन्तु जब मैं अपना क्रोध निकालता हूँ, तो पहाड़ तुरन्त ही टूटकर बिखर जाते हैं, धरती तुरन्त उथल-पुथल करना आरम्भ कर देती है, पानी तुरन्त सूख जाता है, और मनुष्य तुरन्त आपदा से व्याकुल हो जाता है।" जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो वे उन्हें परमेश्वर के देह से सम्बद्ध करते हैं, और इस प्रकार, आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्य और वचन प्रत्यक्ष रूप से देह में परमेश्वर को इंगित करते हैं, जो प्रभावकारिता को बढ़ाते हैं। जब परमेश्वर बोलता है, तो यह, सभी लोगों को परमेश्वर के वचनों की प्रेरणाओं और उत्पत्तियों को समझने में असमर्थ छोड़ते हुए, ऐसा प्रायः स्वर्ग से पृथ्वी तक होता है, और एक बार और धरती से स्वर्ग तक होता है। "जब मैं आकाशों के बीच होता हूँ, तो कभी भी मेरी उपस्थिति के द्वारा तारों को खलबली में नहीं डाला जाता है। इसके बजाय, वे अपने हृदय को मेरे लिए उनके कार्य में लगाते हैं।" स्वर्ग की ऐसी ही स्थिति है। परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में सब कुछ व्यवस्थित करता है, जहाँ परमेश्वर की सेवा करने वाले सभी सेवक परमेश्वर के लिए अपना स्वयं का कार्य करते हैं। उन्होंने परमेश्वर की अवज्ञा में कभी भी कुछ नहीं किया है, इसलिए वे परमेश्वर द्वारा कहे गए संत्रास में नहीं फेंके जाते हैं, बल्कि इसके बजाय अपने हृदयों को अपने कार्य में लगाते हैं, यहाँ कभी भी कोई अव्यवस्था नहीं होती है, और इस प्रकार सभी स्वर्गदूत परमेश्वर के प्रकाश में रहते हैं। इस बीच, अपनी अवज्ञा के कारण, और क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं इसलिए, पृथ्वी के सभी लोग अंधकार में रहते हैं, और वे परमेश्वर का जितना अधिक विरोध करते हैं, उतना ही अधिक वे अंधकार में रहते हैं। जब परमेश्वर कहता है, "जितना अधिक आसमान चमकदार होता है, उसके नीचे का संसार उतना ही अधिक अंधकारमय होता है" वह इस बात का उल्लेख कर रहा है कि किस प्रकार परमेश्वर का दिन समस्त मानवजाति के करीब आ रहा है। इस प्रकार, तीसरे स्वर्ग में परमेश्वर की 6,000 वर्षों की व्यस्तता जल्द ही समाप्त हो जाएगी। पृथ्वी पर सभी चीज़ें अंतिम अध्याय में प्रवेश कर चुकी हैं, और शीघ्र ही प्रत्येक को परमेश्वर के हाथ से काट कर निकाल दिया जाएगा। लोग अंत के दिनों के समय में जितना दूर जाते हैं, उतना ही अधिक वे मनुष्य की दुनिया में भ्रष्टता का अनुभव करने में समर्थ हो सकते हैं; और वे अंत के दिनों के समय में जितना दूर जाते हैं, उतना ही अधिक वे अपनी स्वयं की देह के प्रति आसक्त होते हैं; यहाँ तक कि ऐसे कई लोग हैं जो दुनिया की दयनीय स्थिति को उलटना चाहते हैं, फिर भी वे सभी परमेश्वर के कर्मों की वजह से अपनी आहों के बीच आशा खो देते हैं। इस प्रकार, जब लोग वसंत की गर्मी को महसूस करते हैं, तो परमेश्वर उनकी आँखों को ढक देता है, और इसलिए वे उठती-गिरती तरंगों पर तैरते हैं, उनमें से एक भी सूदूर जीवन नौका तक पहुँचने में सक्षम नहीं है। क्योंकि लोग अंतर्निहित रूप से निर्बल हैं, इसलिए परमेश्वर कहता है कि कोई भी ऐसा नहीं है जो चीजों की कायपलट कर सकता है। जब लोग आशा खो देते हैं, तो परमेश्वर समस्त विश्व से बात करना शुरू करता है, वह समस्त मानवजाति को बचाना शुरू करता है, और केवल इसके बाद ही लोग उस नई जिंदगी का आनंद लेने में समर्थ होते हैं जो तब आती हैं जब एक बार चीजों की काया पलट हो जाती है। आज के लोग आत्म-वंचना के चरण पर हैं। क्योंकि उनके सामने का मार्ग बहुत उजाड़ और अस्पष्ट है, और उनका भविष्य "अपरिमित" और "बिना सीमाओं" के है, इसलिए इस युग के लोगों का युद्ध करने के प्रति कोई झुकाव नहीं है, और वे अपने दिन केवल जैसे हैनहाओ पक्षी[क] के जैसे गुज़ार सकते हैं। ऐसा कोई भी कभी भी नहीं हुआ है जिसने जीवन जीने की गंभीरता से खोज की हो, और मानवजीवन के ज्ञान की खोज की हो; इसके बजाय, वे उस दिन की प्रतीक्षा करते हैं जब स्वर्ग से उद्धारकर्ता दुनिया की दयनीय स्थिति को उलटने के लिए अचानक उतरता है, केवल उसके बाद ही वे जीने के अपने प्रयासों में ईमानदार होंगे। ऐसी ही समस्त मानवजाति की वास्तविक स्थिति और सभी लोगों की मानसिकता है।
आज, परमेश्वर इस समय के दौरान मनुष्य की मानसिकता के प्रकाश में उसके भविष्य के नये जीवन की भविष्यवाणी करता है, जो कि उस प्रकाश की चमक है जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है। परमेश्वर जो भविष्यवाणी करता है वह वही है जिसे अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जाएगा, और शैतान पर परमेश्वर की विजय का फल है "मैं सभी मनुष्यों से ऊपर चलता हूँ और हर कहीं देख रहा हूँ। कोई भी चीज कभी भी पुरानी नहीं दिखाई देती है, और कोई भी व्यक्ति वैसा नहीं है जैसा वह हुआ करता था। मैं सिंहासन पर आराम करता हूँ, मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर आराम से पीठ टिकाए हुए हूँ...." यह परमेश्वर के वर्तमान कार्य का परिणाम है। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग अपने मूल स्वरूप में वापस आ जाते हैं, जिसके कारण वे स्वर्गदूत, जिन्होंने इतने वर्षों तक कष्ट झेला था, मुक्त हो जाते हैं, ठीक जैसा कि परमेश्वर कहता है, "ऐसे चेहरे वाला जैसा कि मनुष्य के हृदय के भीतर के एक पवित्र का हो।" क्योंकि स्वर्गदूत पृथ्वी पर कार्य करते हैं और पृथ्वी पर परमेश्वर की सेवा करते हैं, और परमेश्वर की महिमा दुनिया भर में फैलती है, इसलिए स्वर्ग पृथ्वी पर लाया जाता है, और पृथ्वी को स्वर्ग तक उठाया जाता है। इसलिए, मनुष्य वह कड़ी है जो स्वर्ग और पृथ्वी को जोड़ती है; स्वर्ग और पृथ्वी अब और दूर-दूर नहीं हैं, अब और पृथक नहीं हैं, किन्तु एक के रूप में जुड़े हुए हैं। दुनिया भर में, केवल परमेश्वर और मनुष्य अस्तित्व में हैं। कोई धूल या गंदगी नहीं है, और सब कुछ नया कर दिया जाता है, जैसे कि आकाश के नीचे हरे-भरे चरागाह में लेटा हूआ भेड़ का कोई छोटा सा बच्चा, परमेश्वर के सभी अनुग्रह का आनंद उठा रहा हो। और यह इस हरियाली के आगमन की वजह से है कि जीवन की साँस आगे बढ़ती है, क्योंकि परमेश्वर हमेशा के लिए मनुष्य के साथ-साथ रहने के लिए दुनिया में आता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे परमेश्वर के मुँह से कहा गया था कि "मैं एक बार फिर से सिय्योन में शान्तिपूर्वक निवास कर सकता हूँ" यह शैतान की हार का प्रतीक है, यह परमेश्वर के विश्राम का दिन है, और इस दिन की सभी लोगों द्वारा प्रशंसा और घोषणा की जाएगी, और इसका सभी लोगों द्वारा स्मरणोत्सव मनाया जाएगा। परमेश्वर सिंहासन पर आराम भी तभी करता है जब परमेश्वर पृथ्वी पर अपना काम समाप्त कर लेता है, और यही वह क्षण है जब परमेश्वर के रहस्य सभी मनुष्य को दिखाए जाते हैं; परमेश्वर और मनुष्य सदैव सामंजस्य में होंगे, कभी भी दूर नहीं होंगे—ये राज्य के सुंदर दृश्य हैं!
रहस्यों में रहस्य छुपे हुए हैं, और परमेश्वर के वचन वास्तव में गहन और अथाह हैं!
                                                     स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I परमेश्वर का अधिकार (I)
मेरी पिछली अनेक सभाएँ परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के विषय में थीं। इन सभाओं को सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को एहसास होता है कि तुम सबने परमेश्वर के स्वभाव की समझ और ज्ञान को प्राप्त किया है? कितनी बड़ी समझ और ज्ञान को प्राप्त किया है? क्या तुम लोग उसे कोई संख्या दे सकते हो? क्या इन सभाओं ने तुम लोगों को परमेश्वर की और गहरी समझ दी है? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि यह समझ परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर का यह ज्ञान और समझ परमेश्वर के सम्पूर्ण सार-तत्व, और उसके अस्तित्‍व का ज्ञान है? नहीं, बिलकुल नहीं! क्योंकि ये सभाएँ केवल परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप के एक भाग की समझ प्रदान करती हैं—न कि उसकी समग्रता की, या उसकी सम्पूर्णता की। इन सभाओं ने परमेश्वर के द्वारा किसी समय किए गए कार्य के एक भाग को समझने के लिए तुम लोगों को सक्षम बनाया, जिसके द्वारा तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप के, साथ ही साथ जो कुछ उसने किया है उस हर एक चीज़ के पीछे क्या नज़रिया एवं सोच है, उसे देखा। परन्तु यह केवल परमेश्वर की शाब्दिक एवं मौखिक समझ है, और तुम सब अपने हृदय में अनिश्चित बने रहते हो कि इसका कितना भाग सच्चा है। वह कौन सी चीज़ है जो मुख्य रूप से यह निर्धारित करती है कि ऐसी चीज़ों के प्रति लोगों की समझ में कोई वास्तविकता है या नहीं? यह इससे निर्धारित होता है कि उन सबने अपने वास्तविक अनुभवों के दौरान परमेश्वर के वचनों और स्वभाव का वास्तव में कितना अनुभव किया है, और वे लोग इन वास्तविक अनुभवों के दौरान कितना उसे देख या समझ पाये हैं। "पिछली कई सभाओं ने हमें परमेश्वर के द्वारा किये गए कामों, परमेश्वर के विचारों, और इसके अतिरिक्त, मनुष्य के प्रति परमेश्वर का रवैया, और उसके कार्यों के आधार, साथ ही उसके कार्यों के सिद्धांतों को समझने की अनुमति दी है। इस प्रकार हमने परमेश्वर के स्वभाव को समझा है और हम परमेश्वर की सम्पूर्णता को जान पाए हैं।" क्या कभी किसी ने ऐसे वचन कहे हैं? क्या ऐसा कहना सही है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं क्यों कहता हूँ कि ऐसा नहीं है? परमेश्वर का स्वभाव, और उसका अस्तित्‍व, उन कार्यों के द्वारा जो उसने किए हैं और उन वचनों के द्वारा जो उसने कहे हैं, प्रगट होते हैं। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा किये गये कार्यों व उसके द्वारा बोले गये वचनों के द्वारा, परमेश्वर के दर्शन कर सकता है, परन्तु इससे बस यही कहा जा सकता है कि उसके द्वारा किये गये कार्यों और उसके वचनों से मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव व उसके अस्तित्‍व के एक अंश को ही समझने में सक्षम हो सकता है। यदि मनुष्य परमेश्वर की और अधिक तथा और गहरी समझ प्राप्त करने की अभिलाषा करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर के कार्य और वचनों का और गहनता से अनुभव करना होगा। यद्यपि जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों और कार्य का आंशिक रूप से अनुभव करता है तो उसे परमेश्वर की समझ का एक आंशिक भाग ही प्राप्त होता है, क्या यह आंशिक समझ परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाती है? हाँ, निश्चित रूप से यह परमेश्वर के स्वभाव, और परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। समय या स्थान या परमेश्वर किस तरह से अपना काम करता है या किस रूप में मनुष्य के सामने प्रगट होता है या किस प्रकार से अपनी इच्छा को प्रकट करता है, इन सबकी परवाह किए बगैर, वह सब-कुछ जो वह प्रकाशित एवं प्रगट करता है, वह स्वयं परमेश्वर, परमेश्वर के सार-तत्व और उसके अस्तित्‍व, को दर्शाता है। यह बिलकुल सत्य है कि परमेश्वर अपनी विशेषताओं और अस्तित्व एवं अपनी सच्ची पहचान के साथ अपना कार्य करता है; फिर भी, आज उसके वचनों को सुनकर और उस प्रचार को सुनकर, लोगों में परमेश्वर की केवल आंशिक समझ है, और इस प्रकार कुछ हद तक, इस समझ को केवल काल्पनिक ज्ञान कहा जा सकता है। अपनी वास्तविक स्थिति का ध्यान रखते हुए, तुम केवल परमेश्वर की समझ या ज्ञान को जिसे तुमने सुना, देखा या जाना है, और समझा है, जाँच सकते हो, यदि तुम में से हर एक इस वास्तविक अनुभव से होकर गुज़रता है और इसे थोड़ा-थोड़ा कर के जान पाता है। यदि मैंने इन शब्दों के साथ तुम लोगों से सहभागिता नहीं की होती, तो क्या मात्र अपने अनुभवों से तुम सभी परमेश्वर के सच्चे ज्ञान को हासिल कर पाते? ऐसा करना बहुत ही अधिक कठिन होता। क्योंकि यदि लोग परमेश्वर के अनुभव को पाना चाहते हैं तो उनके पास पहले परमेश्वर के वचन होने चाहिए। परमेश्वर के जितने वचनों को लोग खाते हैं, उतनी ही मात्रा का वे वास्तव में अनुभव कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन पथ प्रदर्शन करते हैं और मनुष्य को उसके अनुभव में मार्गदर्शन देते हैं। संक्षेप में, जिन्हें थोड़ा-बहुत सच्चा अनुभव है, उन्हें ये अनेक पिछली सभाएँ सत्य की गहरी समझ और परमेश्वर के और अधिक वास्तविक ज्ञान को हासिल करने में सहायता करेंगी। परन्तु जिन्हें कुछ भी वास्तविक अनुभव नहीं है, या जिन्हें अभी अनुभव होना ही शुरू हुआ है, या जिन्होंने अभी-अभी वास्तविकता को स्पर्श करना प्रारम्भ ही किया है, उनके लिये यह एक बड़ी परीक्षा है।
पिछली अनेक सभाओं की मुख्य विषयवस्तु परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के कार्य, और स्वयं परमेश्वर से संबंधित थी। जो कुछ भी मैंने कहा था तुम सबने उसके मुख्य और केन्द्रीय भाग में क्या देखा? इन सभाओं के द्वारा, क्या तुम लोग यह पहचान सकते हो कि वह जिसने यह काम किया था और इन स्वभावों को प्रगट किया था, वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है, जो सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? यदि तुम सबका उत्तर हाँ है, तो किस बात ने तुम लोगों को ऐसे निष्कर्ष तक पहुँचाया? किस पहलू के द्वारा तुम सभी इस निष्कर्ष तक पहुँचे? क्या कोई मुझे बता सकता है? मैं जानता हूँ कि पिछली सहभागिता ने तुम सबको गहराई से प्रभावित किया था, और परमेश्वर को जानने के लिए तुम लोगों के हृदय में एक नई शुरूआत प्रदान की थी, जो बड़ी बात है। यद्यपि तुम सबने पहले की तुलना में परमेश्वर को समझने के लिए एक बड़ी छलाँग लगाई है, परन्तु परमेश्वर की पहचान की तुम लोगों की परिभाषा को अभी भी यहोवा, व्यवस्था के युग के परमेश्वर, अनुग्रह के युग के प्रभु यीशु मसीह, और राज्य के युग के सर्वशक्तिमान परमेश्वर जैसे नामों से भी कहीं बढ़कर और अधिक उन्नत होना है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के कार्य, और स्वयं परमेश्वर के बारे में इन सभाओं ने तुम सबको परमेश्वर द्वारा किसी समय बोले गए कुछ वचनों और परमेश्वर के द्वारा किसी समय किए गए कार्य और परमेश्वर के द्वारा किसी समय प्रकाशित किए गए उसके अस्तित्व और व्यावहारिक गुणों की समझ दी है, तो भी तुम सभी "परमेश्वर" शब्द की सही परिभाषा और सटीक शुरूआती जानकारी प्रदान करने में असमर्थ हो। तुम लोगों के पास स्वयं परमेश्वर की स्थिति एवं पहचान की, दूसरे शब्दों में तुम सबके पास सभी चीज़ों एवं सम्पूर्ण सृष्टि के मध्य परमेश्वर की हैसियत की सच्ची और सटीक शुरूआती जानकारी तथा ज्ञान नहीं है। यह इसलिए है, क्योंकि स्वयं परमेश्वर व परमेश्वर के स्वभाव के विषय में पिछली सभाओं में, सभी सन्दर्भ परमेश्वर के पूर्व प्रगटीकरण और प्रकाशन पर आधारित थे जो बाइबल में उल्लिखित हैं। फिर भी मनुष्य के लिए उसके अस्तित्व और उसके व्यवहारिक गुणों की खोज करना कठिन है, जिन्हें परमेश्वर द्वारा मानवजाति के प्रबन्ध और उद्धार के दौरान, या उसके बाहर, प्रकाशित और प्रगट किया गया है। अतः, भले ही तुम लोग परमेश्वर के अस्तित्व और उसके व्‍यावहारिक गुणों को समझते हो जो उस कार्य में प्रकाशित हुए थे जिसे उसने किसी समय किया था, फिर भी परमेश्वर की पहचान और स्थिति की तुम सबकी परिभाषा उस अद्वितीय परमेश्वर से अभी भी बहुत दूर है, जो सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है, और उस रचयिता से अलग है। पिछली अनेक सभाओं ने सब को ठीक ऐसा ही महसूस करवाया था: मनुष्य परमेश्वर के विचारों को कैसे जान सकता है? यदि कोई वास्तव में जानने वाला हो, तो वह शख्स निश्चित रूप से परमेश्वर ही होगा, क्योंकि केवल परमेश्वर ही अपने विचारों को जानता है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही अपने कार्यों को करने का तरीका व उसका आधार जानता है। इस रीति से परमेश्वर की पहचान को जानना तुम लोगों को उचित और तर्कसंगत लग सकता है, परन्तु परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य से कौन यह बता सकता है कि यह वास्तव में स्वयं परमेश्वर का कार्य है, मनुष्य का कार्य नहीं है, ऐसा कार्य जो परमेश्वर के बदले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है? कौन यह देख सकता है कि यह कार्य उसकी संप्रभुता में आता है जिसके पास परमेश्वर का सार और सामर्थ्‍य है? दूसरे शब्दों में, किन विशेषताओं या सार के जरिए तुम सब यह पहचानोगे कि वह स्वयं परमेश्वर है, जिसके पास परमेश्वर की पहचान है, और जो सब चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? क्या तुम सबने इसके बारे में कभी सोचा है? यदि तुम लोगों ने नहीं सोचा है तो इससे एक बात साबित होती हैः पिछली अनेक सभाओं ने तुम लोगों को बस इतिहास के एक हिस्से और उस कार्य के दौरान परमेश्वर के नज़रिये, उसकी अभिव्यक्ति और उसके प्रकाशन की कुछ समझ दी है जिसमें परमेश्वर ने अपना काम किया था। हालाँकि ऐसी समझ तुम सभी को निस्संदेह यह पहचान करवाती है कि वह जिसने कार्य के दोनों स्तरों को पूरा किया वह स्वयं परमेश्वर है जिसमें तुम लोग विश्वास करते हो और जिसका अनुसरण करते हो और जिसका तुम सबको हमेशा अनुसरण करना चाहिए, फिर भी तुम लोग अब भी यह पहचानने में असमर्थ हो कि यह वही परमेश्वर है जो सृष्टि के समय से अस्तित्व में है, और जो अनन्तकाल तक अस्तित्व में बना रहेगा और तुम लोग यह भी पहचानने में समर्थ नहीं हो कि यही तुम सबकी अगुवाई करता है और समूची मानवजाति पर प्रभुत्व रखता है। तुम लोगों ने निश्चित रूप से इस समस्या के बारे में कभी नहीं सोचा था। वह यहोवा हो या प्रभु यीशु, सार और अभिव्यक्ति के किन पहलुओं के द्वारा तुम यह पहचान सकते हो कि वह न केवल वह परमेश्वर है जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिये, बल्कि वही मानवजाति को आज्ञा देता है और मनुष्यों की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है, इसके अतिरिक्त जो स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है जो स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? किन माध्यमों से तुम यह विश्वास करोगे कि जिस में तुम विश्वास करते हो और जिसका अनुसरण करते हो वह स्वयं परमेश्वर है जो सब वस्तुओं के ऊपर संप्रभुता रखता है? किन माध्यमों से तुम लोग उस परमेश्वर को जिस पर तुम विश्वास करते हो उस परमेश्वर से जोड़ सकते हो जो मानवजाति की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है? तुम यह कैसे पहचानोगे कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वही वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है, जो स्वर्ग और पृथ्वी, और सब में है? अगले खंड में मैं इस समस्या का समाधान करूँगा।
जिन समस्याओं के बारे में तुम सबने कभी भी नहीं सोचा और न ही उनके विषय में सोच सकते हो, ऐसी समस्याएँ हो सकती हैं जो परमेश्वर को जानने में बहुत महत्वपूर्ण हैं और इनमें उन सच्चाइयों को खोजा जा सकता है जिनकी गहराई मनुष्य नहीं नाप सकता। जब ये समस्याएँ तुम्हारे ऊपर आती हैं और तुम लोगों को इनका सामना करना ही है और तुम्हें एक चुनाव करना है, यदि तुम लोग अपनी मूर्खता और अज्ञानता के कारण पूरी तरह से उनका समाधान करने में असमर्थ हो, या इसलिए क्योंकि तुम्हारे अनुभव बिलकुल सतही हैं और तुम लोगों में परमेश्वर के सच्चे ज्ञान की कमी है, तो परमेश्वर पर विश्वास करने की राह पर वे सबसे बड़े अवरोधक और सबसे बड़ी बाधा बन जाएँगे। और इसलिये मुझे लगता है कि इस विषय में तुम लोगों के साथ संगति करना बहुत ज़रूरी है। क्या तुम लोग जानते हो कि अब तुम्हारी समस्या क्या है? क्या तुम लोग उन समस्याओं के विषय में स्पष्ट हो जिनके बारे में मैं बात कर रहा हूँ? क्या ये वे समस्याएँ हैं जिनका तुम लोग सामना करोगे? क्या ये ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें तुम लोग नहीं समझते हो? क्या ऐसी समस्याएँ हैं जो तुम्हारे साथ कभी घटित नहीं हुईं? क्या ये समस्याएँ तुम लोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं? क्या ये वास्तव में समस्याएँ हैं? इस मामले से तुम लोग काफी भ्रमित हो रहे हो जिससे पता चलता है कि तुम्हारे अंदर उस परमेश्वर की सही समझ नहीं है जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो, और यह कि तुम लोग उसे गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते। कुछ लोग कहते हैं, "मैं जानता हूँ कि वह परमेश्वर है, इसलिए मैं उसका अनुसरण करता हूँ, क्योंकि उसका वचन परमेश्वर का प्रकटीकरण है। बस इतना काफी है। और कितने सबूतों की ज़रूरत है? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर के बारे में सन्देह उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर के सार और स्वयं परमेश्वर की पहचान पर प्रश्न नहीं करना चाहिए?" इसके बावजूद कि तुम लोग इस तरह से सोचते हो या नहीं, किन्तु परमेश्वर के बारे में तुम लोगों को और भ्रमित करने के लिए, या तुम लोगों से उसे परखवाने के लिए और परमेश्वर की पहचान और उसके सार के विषय में तुम्हारे भीतर सन्देह उत्पन्न करने के लिए तो मैं ऐसे प्रश्न बिलकुल नहीं करता हूँ। बल्कि मैं ऐसा इसलिए करता हूँ ताकि मैं तुम लोगों में परमेश्वर के सार के विषय में बेहतर समझ और परमेश्वर के रुतबे के विषय म��ं एक बड़ी निश्चितता व विश्वास का उत्साह भर सकूँ, जिससे कि वे सभी जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं परमेश्वर उन सभी के हृदय में निवास करने वाला एकमात्र परमेश्वर हो, ताकि परमेश्वर की मूल पदस्थिति—सृष्टिकर्ता, सभी चीज़ों के शासक और स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के रूप में—हर जीव के हृदय में पुनः वास कर सके। यह भी एक मुख्य विषय है जिसके बारे में मैं तुम लोगों से विचार विमर्श करने वाला हूँ।
अब हम बाइबल से निम्नलिखित अंशों को पढ़ते हैं।
1. परमेश्वर सभी चीज़ों की सृष्टि करने के लिए वचनों को उपयोग करता है
उत्पत्ति 1:3-5 जब परमेश्‍वर ने कहा, "उजियाला हो," तो उजियाला हो गया। और परमेश्‍वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्‍वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्‍वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया।
उत्पत्ति 1:6-7 फिर परमेश्‍वर ने कहा, "जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।" तब परमेश्‍वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:9-11 फिर परमेश्‍वर ने कहा, "आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे," और वैसा ही हो गया। परमेश्‍वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्‍वर ने कहा, "पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें," और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:14-15 फिर परमेश्‍वर ने कहा, "दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें," और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:20-21 फिर परमेश्‍वर ने कहा, "जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।" इसलिये परमेश्‍वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्‍टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्‍टि की: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।
उत्पत्ति 1:24-25 फिर परमेश्‍वर ने कहा, "पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों," और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्‍वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।
पहले दिन, परमेश्वर के अधिकार के कारण मानवजाति के दिन और रात उत्पन्न हुए और स्थिर बने हुए हैं
आओ हम पहले अंश को देखें: "जब परमेश्‍वर ने कहा, 'उजियाला हो,' तो उजियाला हो गया। और परमेश्‍वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्‍वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्‍वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया" (उत्पत्ति 1:3-5)। यह अंश सृष्टि की शुरूआत में परमेश्वर के प्रथम कार्य का विवरण देता है और पहला दिन जिसे परमेश्वर ने गुज़ारा जिसमें एक शाम और एक सुबह थी। परन्तु वह एक असाधारण दिन थाः परमेश्वर ने सभी चीज़ों के लिए उजियाले को तैयार किया, और इसके अतिरिक्त, उजियाले को अंधियारे से अलग किया। इस दिन, परमेश्वर ने बोलना शुरू किया, और उसके वचन और अधिकार अगल-बगल अस्तित्व में थे। सभी चीज़ों के मध्य उसका अधिकार दिखाई देना शुरू हुआ, और उसके वचन के परिणामस्वरूप उसकी सामर्थ्‍य सभी चीज़ों में फैल गई। इस दिन के बाद, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ्‍य के कारण सभी चीजों को बनाया गया और वे स्थिर हो गईं, और उन्होंने परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ्‍य की वजह से काम करना प्रारम्भ कर दिया। जब परमेश्वर ने ये वचन कहे "उजियाला हो," और उजियाला हो गया। परमेश्वर ने कोई उद्यम नहीं किया था; उसके वचनों के परिणामस्वरूप उजियाला प्रगट हुआ था। इस उजियाले को परमेश्वर ने दिन कहा, जिस पर आज भी मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए निर्भर रहता है। परमेश्वर की आज्ञाओं के द्वारा, उसका सार और मूल्य कभी भी नहीं बदले, और वे कभी भी ग़ायब नहीं हुए। उनकी उपस्थिति परमेश्वर के अधिकार और उसकी सामर्थ्‍य को दिखाते हैं, सृष्टिकर्ता के अस्तित्व की घोषणा करते हैं और बार-बार सृष्टिकर्ता की हैसियत और पहचान को दृढ़ करते हैं। यह अमूर्त या काल्पनिक नहीं है, बल्कि वास्तविक ज्योति है जिसे मनुष्य के द्वारा देखा जा सकता है। उस समय के उपरान्त, इस खाली संसार में जिसमें "पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी, और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था," पहली भौतिक वस्तु पैदा हुई। यह वस्तु परमेश्वर के मुँह के वचनों से आई, और परमेश्वर के अधिकार और उच्चारण के कारण सभी वस्तुओं की सृष्टि के प्रथम कार्य के रूप में प्रगट हुई। उसके तुरन्त बाद, परमेश्वर ने उजियाले और अंधियारे को अलग-अलग होने की आज्ञा दी...। परमेश्वर के वचन के कारण हर चीज़ बदल गई और पूर्ण हो गई...। परमेश्वर ने इस उजियाले को "दिन" कहा और अंधियारे को उसने "रात" कहा। उस समय से, संसार में पहली शाम और पहली सुबह हुई जिन्हें परमेश्वर उत्पन्न करना चाहता था, और परमेश्वर ने कहा कि यह पहला दिन है। सृष्टिकर्ता के द्वारा सभी वस्तुओं की सृष्टि का यह पहला दिन था, सभी वस्तुओं की सृष्टि का प्रारम्भ था, और यह पहली बार था जब सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्‍य इस संसार में जिसे उसने सृजित किया था, प्रकट हुआ था।
इन वचनों के द्वारा, मनुष्य परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर के वचनों के अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ्‍य को देखने के योग्य हुआ। क्योंकि परमेश्वर ही ऐसी सामर्थ्‍य धारण करता है, और इस प्रकार केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा अधिकार है, क्योंकि परमेश्वर ऐसे अधिकार को धारण करता है, इस प्रकार केवल परमेश्वर के पास ही ऐसी सामर्थ्‍य है। क्या कोई मनुष्य या पदार्थ ऐसा अधिकार और सामर्थ्‍य धारण कर सकता है? क्या तुम लोगों के दिल में कोई उत्तर है? परमेश्वर को छोड़, क्या कोई सृजित या गैर-सृजित प्राणी ऐसा अधिकार धारण करता है? क्या तुम लोगों ने किसी पुस्तक या पुस्तकों में कभी किसी ऐसी चीज़ का उदाहरण देखा है? क्या कोई लेखा-जोखा है कि किसी ने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों की सृष्टि की थी? यह किसी अन्य पुस्तक या लेखे में पाया नहीं जाता हैः ये वास्तव में केवल परमेश्वर के महिमामय संसार की सृष्टि के विषय में अधिकारयुक्त और सामर्थी वचन हैं, जो बाइबल में दर्ज हैं, और ये वचन परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार, परमेश्वर की अद्वितीय पहचान के विषय में बोलते हैं। क्या ऐसे अधिकार और सामर्थ्‍य के बारे में कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर की अद्वितीय पहचान के प्रतीक हैं? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर और सिर्फ परमेश्वर ही उनको धारण किए हुए है? बिना किसी सन्देह के, सिर्फ परमेश्वर ही ऐसा अधिकार और सामर्थ्‍य धारण करता है! इस अधिकार और सामर्थ्‍य को किसी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के द्वारा धारण नहीं किया जा सकता है और न बदला जा सकता है! क्या यह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के गुणों में से एक है? क्या तुम सब इसके साक्षी बने हो? इन वचनों से लोग शीघ्रता और स्पष्टता से समझ जाते हैं कि प���मेश्वर अद्वितीय अधिकार, और अद्वितीय सामर्थ्‍य धारण करता है, और वह सर्वोच्च पहचान और हैसियत धारण किए हुए है। उपर्युक्त बातों की सहभागिता से, क्या तुम लोग कह सकते हो कि वह परमेश्वर जिस पर तुम सब विश्वास करते हो वह अद्वितीय परमेश्वर है?
दूसरे दिन, परमेश्वर के अधिकार ने मनुष्य के जीवित रहने के लिए जल का प्रबन्ध किया, और आसमान और अंतरिक्�� बनाए
आओ हम बाइबल के दूसरे अंश को पढ़ें: फिर परमेश्वर ने कहा, "फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।' तब परमेश्‍वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:6-7)। कौन-सा परिवर्तन हुआ जब परमेश्वर ने कहा "जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए"? पवित्र-शास्त्र में कहा गया हैः "तब परमेश्‍वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।" जब परमेश्वर ने ऐसा कहा और ऐसा किया तो परिणाम क्या हुआ? इसका उत्तर अंश के आखिरी भाग में हैं: "और वैसा ही हो गया।"
इन दोनों छोटे वाक्यों में एक शोभायमान घटना दर्ज है, और ये वाक्य बेहतरीन दृश्य का चित्रण करते हैं—एक ज़बर्दस्त कार्य जिसमें परमेश्वर ने जल को नियन्त्रित किया और एक अन्तर पैदा किया जिसमें मनुष्य रह सके ...
इस तस्वीर में, आकाश और जल परमेश्वर की आँखों के सामने एकदम से प्रगट होते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों के अधिकार के द्वारा विभाजित हो जाते हैं, और परमेश्वर के द्वारा निर्धारित रीति के अनुसार ऊपर और नीचे के रूप में अलग हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा बनाए गए आकाश ने न केवल नीचे के जल को ढक लिया बल्कि ऊपर के जल को भी सँभाला...। इसमें, मनुष्य बस टकटकी लगाकर देखने, भौंचक्का होने, और उस दृश्य के वैभव की तारीफ में आह भरने के सिवाए कुछ नहीं कर सकता है, जिसमें सृष्टिकर्ता ने जल को हस्तांतरित किया, और अपने अधिकार की सामर्थ्‍य से जल को आज्ञा दी और आकाश को बनाया। परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की सामर्थ्‍य और परमेश्वर के अधिकार के द्वारा परमेश्वर ने एक और महान आश्चर्यकर्म को अंजाम दिया। क्या यह सृष्टिकर्ता की सामर्थ्‍य नहीं है? आओ हम परमेश्वर के कामों का बखान करने के लिए पवित्र-शास्त्र का उपयोग करें: परमेश्वर ने अपने वचन कहे और परमेश्वर के इन वचनों के द्वारा जल के मध्य में आकाश बन गया। उसी समय, परमेश्वर के इन वचनों के द्वारा आकाश के अन्तर में एक ज़बर्दस्त परिवर्तन हुआ, और यह सामान्य अर्थों में परिवर्तन नहीं था, बल्कि एक प्रकार का प्रतिस्थापन था जिसमें कुछ नहीं से कुछ बन गया। यह सृष्टिकर्ता के विचारों से उत्पन्न हुआ था और सृष्टिकर्ता के बोले गए वचनों के द्वारा कुछ नहीं से कुछ बन गया, और, इसके अतिरिक्त, इस बिन्दु से आगे यह सृष्टिकर्ता की ख़ातिर अस्तित्व में रहेगा और स्थिर बना रहेगा, और सृष्टिकर्ता के विचारों के अनुसार, स्थानांतारित और परिवर्तित होगा और नया हो जाएगा। यह अंश सम्पूर्ण संसार की सृष्टि में सृष्टिकर्ता के दूसरे कार्य का उल्लेख करता है। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य का एक और प्रकटन था और सृष्टिकर्ता के एक और पहले कदम की शुरूआत थी। यह दिन जगत की नींव डालने के समय से लेकर दूसरा दिन था जिसे सृष्टिकर्ता ने बिताया था, और वह उसके लिए एक और बेहतरीन दिन थाः वह उजियाले के बीच में चला, आकाश को लाया, उसने जल का प्रबन्ध और नियंत्रण किया और उसके कार्य, उसका अधिकार और उसकी सामर्थ्‍य एक नए दिन के काम में लग गए ...
परमेश्वर के द्वारा इन वचनों को कहने से पहले क्या आकाश जल के मध्य में था? बिलकुल नहीं! और परमेश्वर के ऐसा कहने के बाद क्या हुआ "जल के बीच एक अन्तर हो जाए"? परमेश्वर के द्वारा इच्छित चीज़ें प्रगट हो गई थीं; जल के मध्य में आकाश था और जल विभाजित हो गया क्योंकि परमेश्वर ने कहा था "इस अंतर के कारण जल दो भाग हो जाए।" इस तरह से, परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करके, परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्‍य के परिणामस्वरूप दो नए पदार्थ, दो नई जन्मी चीज़ें सब वस्तुओं के मध्य प्रगट हुईं। इन दो नई चीज़ों के प्रकटीकरण से तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की सामर्थ्‍य की महानता का एहसास करते हो? क्या तुम लोग सृष्टिकर्ता के अद्वितीय और असाधारण बल का एहसास करते हो? ऐसे बल और सामर्थ्‍य की महानता परमेश्वर के अधिकार के कारण है और यह अधिकार स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व है और स्वयं परमेश्वर का एक अद्वितीय गुण है।
क्या यह अंश तुम लोगों को परमेश्वर की अद्वितीयता का एक और गहरा एहसास देता है? परन्तु यह जितना होना चाहिये उससे बहुत कम है; सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्‍य इससे कहीं परे है। उसकी अद्वितीयता मात्र इसलिए नहीं है क्योंकि वह किसी अन्य जीव से अलग सार धारण किए हुए है, बल्कि इसलिये कि उसका अधिकार और सामर्थ्‍य असाधारण है, असीमित है, सबसे बढ़कर है, और उससे भी बढ़कर, उसका अधिकार और जो उसके पास है और उसका अस्तित्व जीवन की सृष्टि कर सकता है, चमत्कार कर सकता है, वह प्रत्येक कौतुहलपूर्ण और असाधारण मिनट और सेकंड की सृष्टि कर सकता है, और साथ ही वह उस जीवन पर शासन करने में सक्षम है जिसकी वह सृष्टि करता है, चमत्कारों, हर मिनट और सेकंड जिसे उसने बनाया उसके ऊपर संप्रभुता रखता है।
तीसरे दिन, परमेश्वर के वचनों ने पृथ्वी और समुद्रों की उत्पत्ति की, और परमेश्वर के अधिकार ने संसार को जीवन से लबालब भर दिया
आइये आगे हम उत्पत्ति 1:9-11 "फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे।'" जब परमेश्वर ने कहा, "आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे।" तो क्या परिवर्तन हुआ? और इस स्थान पर अन्तर में उजियाले और आकाश के अलावा क्या था? पवित्र-शास्त्र में लिखा हैः "और परमेश्‍वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।" दूसरे शब्दों में, अब इस अन्तर में भूमि और समुद्र थे, और भूमि और समुद्र विभाजित हो गए थे। इन दो नई चीज़ों के प्रकटीकरण ने परमेश्वर के मुँह की आज्ञा का पालन किया, "और वैसा ही हो गया।" क्या पवित्र-शास्त्र इस प्रकार वर्णन करता है कि जब परमेश्वर यह सब कर रहा था तब बहुत व्यस्त था? क्या यह ऐसा वर्णन करता है कि परमेश्वर शारीरिक परिश्रम में लगा हुआ था? तब, परमेश्वर के द्वारा सब कुछ कैसे किया गया था? परमेश्वर ने इन नई वस्तुओं को कैसे उत्पन्न किया? स्वतः प्रगट है, परमेश्वर ने इन सब को पूरा करने के लिए और इसकी सम्पूर्णता की सृष्टि करने के लिए वचनों का उपयोग किया।
उपर्युक्त तीन अंशों में, हम ने तीन बड़ी घटनाओं के घटित होने के बारे में जाना। ये तीन घटनाएँ प्रगट हुईं और उन्हें परमेश्वर के वचनों के द्वारा अस्तित्व में लाया गया और ऐसा एक के बाद एक उसके वचनों के द्वारा हुआ, जो परमेश्वर की आँखों के सामने प्रगट हुए थे। इस प्रकार ऐसा कहा जा सकता है कि "परमेश्वर कहेगा, और वह पूरा हो जाएगा; वह आज्ञा देगा, और वह बना रहेगा" खोखले वचन नहीं हैं। परमेश्वर के इस सार की पुष्टि तत्क्षण हो गई कि जब उसने विचार धारण किया, और जब परमेश्वर ने बोलने के लिए अपना मुँह खोला तो उसका सार पूर्णतया प्रतिबिम्बित हो गया।
आओ हम इस अंश के अन्तिम वाक्य में आगे बढ़ें: "फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें,' और वैसा ही ह��� गया।" जब परमेश्वर बोल रहा था तो परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करते हुए ये सभी चीज़ें अस्तित्व में आ गईं और एक क्षण में ही, अलग-अलग प्रकार की छोटी-छोटी नाज़ुक ज़िन्दगियाँ बेतरतीब ढंग से मिट्टी से बाहर आने के लिए सिर उठाने लगीं और इससे पहले कि वे अपने शरीर से थोड़ी-सी धूल भी झाड़ पातीं, वे उत्सुकता से एक-दूसरे का अभिनन्दन करते हुए यहाँ-वहाँ मँडराने, सिर हिला-हिलाकर संकेत देने और इस संसार पर मुस्कुराने लगीं थीं। उन्होंने सृष्टिकर्ता को उस जीवन के लिए धन्यवाद दिया जो उसने उन्हें दिया था और संसार को यह घोषित किया कि वे भी इस संसार की सभी चीज़ों का एक भाग हैं और उनमें से प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता के अधिकार को दर्शाने के लिए अपना जीवन समर्पित करेगा। जैसे ही परमेश्वर के वचन कहे गए, भूमि हरी-भरी हो गई, सब प्रकार के सागपात जिनका मनुष्यों के द्वारा आनन्द लिया जा सकता था अँकुरित हो गए, और भूमि को भेदकर बाहर निकले, और पर्वत और तराइयाँ वृक्षों एवं जंगलों से पूरी तरह से भर गए...। यह बंजर संसार, जिसमें जीवन का कोई निशान नहीं था, शीघ्रता से घास, सागपात, वृक्ष एवं उमड़ती हुई हरियाली से भर गया...। घास की महक और मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू हवा में फैल गई और सुसज्जित पौधों की कतारें हवा के चक्र के साथ एक साथ साँस लेने लगीं और बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई। उसी समय, परमेश्वर के वचन के कारण और परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करके, सभी पौधों ने अपनी सनातन जीवन-यात्रा शुरू कर दी जिसमें वे बढ़ने, खिलने, फल उत्पन्न करने, और बहुगुणित होने लगे। वे अपने-अपने जीवन पथ से कड़ाई से चिपके रहे और उन्होंने सभी चीज़ों में अपनी-अपनी भूमिकाएँ अदा करनी शुरू कर दी...। उन्होंने सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण उत्पन्न होकर जीवन बिताया। वे सृष्टिकर्ता की कभी न खत्म होने वाली भोजन सामग्री और पोषण को प्राप्त करेंगे और परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्‍य को दर्शाने के लिए भूमि के हर कोने में दृढ़संकल्प के साथ ज़िन्दा रहेंगे और वे हमेशा उस जीवन-शक्ति को दर्शाते रहेंगे जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दी गई है ...
सृष्टिकर्ता का जीवन असाधारण है, उसके विचार असाधारण हैं, उसका अधिकार असाधारण है और इस प्रकार, जब उसके वचन उच्चारित हुए, तो उसका अन्तिम परिणाम था "और वैसा ही हो गया।" स्पष्ट रूप से, जब परमेश्वर कार्य करता है तो उसे अपने हाथों से काम करने की आवश्यकता नहीं होती; वह बस आज्ञा देने के लिए अपने विचारों का और आदेश देने के लिए अपने वचनों का उपयोग करता है और इस तरह काम पूरे हो जाते हैं। इस दिन, परमेश्वर ने जल को एक साथ एक जगह पर इकट्ठा किया और सूखी भूमि दिखाई दी, उसके बाद परमेश्वर ने भूमि से घास को उगाया और छोटे-छोटे पौधे जो बीज उत्पन्न करते थे, और पेड़ जो फल उत्पन्न करते थे उग आए, और परमेश्वर ने प्रजाति के अनुसार उनका वर्गीकरण किया और हर एक में उसका बीज दिया। यह सब कुछ परमेश्वर के विचारों और परमेश्वर के वचनों की आज्ञाओं के अनुसार साकार हुआ और इस नए संसार में हर चीज़ एक के बाद एक प्रगट होती गई।
अपना काम शुरू करने से पहले ही परमेश्वर के पास एक तस्वीर थी जिसे वह अपने मस्तिष्क में पूर्ण करना चाहता था और जब परमेश्वर ने इन चीज़ों को पूर्ण करना प्रारम्भ किया, ऐसा तब भी हुआ जब परमेश्वर ने इस तस्वीर की विषयवस्तु के बारे में बोलने के लिए अपना मुँह खोला था, तो परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्‍य के कारण सभी चीज़ों में बदलाव आना प्रारम्भ हो गया था। इस पर ध्यान न देते हुए कि परमेश्वर ने इसे कैसे किया या किस प्रकार अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, सब कुछ कदम-दर-कदम परमेश्वर की योजना के अनुसार और परमेश्वर के वचन के कारण पूरा होता गया, परमेश्वर के वचनों और उसके अधिकार के कारण कदम-दर-कदम आकाश और पृथ्वी के बीच में परिवर्तन होने लगा था। ये सभी परिवर्तन और घटनाएँ परमेश्वर के अधिकार और सृष्टिकर्ता के जीवन की असाधारणता और सामर्थ्‍य की महानता को दर्शाते हैं। उसके विचार सामान्य युक्तियाँ नहीं हैं या खाली तस्वीर नहीं है, बल्कि जीवनशक्ति और असाधारण ऊर्जा से भरे हुए अधिकार हैं, वे ऐसे सामर्थ्‍य हैं जो सभी चीज़ों को परिवर्तित कर सकते हैं, पुनः सुधार कर सकते हैं, फिर से नया बना सकते हैं और नष्ट कर सकते हैं। इसकी वजह से, उसके विचारों के कारण सभी चीज़ें कार्य करती हैं और उसके मुँह के वचनों के कारण, उसी समय सभी कार्य पूर्ण होते हैं...।
सभी वस्तुओं के प्रकट होने से पहले, परमेश्वर के विचारों में एक सम्पूर्ण योजना बहुत पहले से ही बन चुकी थी और एक नया संसार बहुत पहले ही आकार ले चुका था। यद्यपि तीसरे दिन भूमि पर हर प्रकार के पौधे प्रकट हुए, किन्तु परमेश्वर के पास इस संसार की सृष्टि के कदमों को रोकने का कोई कारण नहीं था; उसका इरादा लगातार अपने शब्दों को बोलने का था ताकि वह हर नई चीज़ की सृष्टि को निरन्तर पूरा कर सके। वह बोलेगा और अपनी आज्ञाओं को देगा, अपने अधिकार का इस्तेमाल करेगा, अपनी सामर्थ्‍य को दिखाएगा। उसने सभी चीज़ों और मानवजाति के लिए वह सब कुछ बनाया जिनका निर्माण करने की उसने योजना बनाई थी और उनकी सृष्टि करने की अभिलाषा की थी...।
चौथे दिन, जब परमेश्वर ने एक बार फिर से अपने अधिकार का उपयोग किया तो मानवजाति के लिए मौसम, दिन, और वर्ष अस्तित्व में आ गए
सृष्टिकर्ता ने अपनी योजना को पूरा करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल किया और इस तरह से उसने अपनी योजना के पहले तीन दिन गुज़ारे। इन तीन दिनों के दौरान, परमेश्वर व्यस्त, थका हुआ दिखाई नहीं दिया; बल्कि, उसने अपनी योजना के तीन बेहतरीन दिन गुज़ारे और संसार के मूल रूपान्तरण के महान कार्य को पूरा किया। एक बिलकुल नया संसार उसकी आँखों में दृष्टिगोचर हुआ और अंश-अंश कर के वह ख़ूबसूरत तस्वीर जो उसके विचारों में मुहरबन्द थी, अंततः परमेश्वर के वचनों में प्रगट हो गई। हर चीज़ का प्रकटीकरण एक नए जन्मे हुए बच्चे के समान था और सृष्टिकर्ता उस तस्वीर से आनंदित हुआ जो एक समय उसके विचारों में थी, जिसे अब जीवन्त कर दिया गया था। उसके दिल को थो‌ड़ी-बहुत संतुष्टि मिली, परन्तु उसकी योजना अभी शुरू ही हुई थी। पलक झपकते ही एक नया दिन आ गया था—और सृष्टिकर्ता की योजना में अगला पृष्ठ क्या था? उसने क्या कहा था? उसने अपने अधिकार का इस्तेमाल कैसे किया था? उसी दौरान इस नए संसार में कौन सी नई चीज़ें आई? सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हुए, हमारी निगाहें चौथे दिन पर आ टिकीं जिसमें परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, एक ऐसा दिन जिसमें एक और नई शुरूआत होने वाली थी। यह सृष्टिकर्ता के लिए निःसन्देह एक और बेहतरीन दिन था, और आज की मानवजाति के लिए यह एक और अति महत्वपूर्ण दिन था। यह वास्तव में, एक बहुमूल्य दिन था। वह इतना बेहतरीन क्यों था, वह इतना महत्वपूर्ण क्यों था और वह इतना बहुमूल्य कैसे था? पहले सृष्टिकर्ता के द्वारा बोले गए वचनों को सुनें...।
"फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें'" (उत्पत्ति 1:14-15)। सूखी भूमि और उसके पौधों की सृष्टि के बाद यह परमेश्वर के अधिकार का एक और उद्यम था जो सृजित गई चीज़ों के द्वारा दिखाया गया था। परमेश्वर के लिए ऐसा कार्य उतना ही सरल था, क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसी सामर्थ्‍य है; परमेश्वर अपने वचन के समान ही भला है, और उसके वचन पूरे होंगे। परमेश्वर ने ज्योतियों को आज्ञा दी कि वे आकाश में प्रगट हों, और ये ज्योतियाँ न केवल पृथ्वी के ऊपर आकाश में रोशनी देती थीं, बल्कि दिन और रात और ऋतुओं, दिनों और वर्षों के लिए भी चिन्ह के रूप में कार्य करती थी। इस प्रकार, जब परमेश्वर ने अपने वचनों को कहा, हर एक कार्य जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता था वह परमेश्वर के अभिप्राय और जिस रीति से परमेश्वर ने उन्हें नियुक्त किया था उसके अनुसार पूरा हो गया।
आकाश में जो ज्योतियाँ हैं वे आसमान के पदार्थ हैं जो प्रकाश को इधर-उधर फैला सकते हैं; वे आकाश को ज्योतिर्मय कर सकती हैं, और भूमि और समुद्र को प्रकाशमय कर सकती हैं। वे परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार लय एवं तीव्रता में परिक्रमा करती हैं और विभिन्न समयकाल में भूमि पर प्रकाश देती हैं और इस रीति से, ज्योतियों की परिक्रमा के चक्र के कारण भूमि के पूर्वी और पश्चिमी छोर पर दिन और रात होते हैं, वे न केवल दिन और रात के लिए चिन्ह हैं, बल्कि इन विभिन्न चक्रों के द्वारा वे मानवजाति के लिए त्योहारों और विशेष दिनों को भी चिन्हित करती हैं। वे चारों ऋतुओं की पूर्ण पूरक और सहायक हैं—बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु, और शीत ऋतु—जिन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा जाता है, जिस से ज्योतियाँ एकरूपता के साथ मानवजाति के लिए चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और सालों के लिए एक निरन्तर और सटीक चिन्ह के रूप में एक साथ कार्य करती हैं। यद्यपि यह केवल कृषि के आगमन के बाद ही हुआ जब मानवजाति ने समझना प्रारम्भ किया और परमेश्वर द्वारा बनाई गई ज्योतियों द्वारा चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों और वर्षों के विभाजन का सामना किया, वास्तव में चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों और वर्षों को जिन्हें मनुष्य आज समझता है वे बहुत पहले ही, चौथे दिन प्रारम्भ हो चुके थे जब परमेश्वर ने सभी वस्तुओं की सृष्टि की थी और इसी प्रकार परस्पर बदलने वाले बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु, और शीत ऋतु के चक्र भी जिन्हें मनुष्य के द्वारा अनुभव किया जाता है वे बहुत पहले ही, चौथे दिन प्रारम्भ हो चुके थे जब परमेश्वर ने सभी वस्तुओं की सृष्टि की थी। परमेश्वर के द्वारा बनाई गई ज्योतियों ने मनुष्य को इस योग्य बनाया कि वे लगातार, सटीक ढंग से और साफ-साफ दिन और रात के बीच अन्तर कर सकें, दिनों को गिन सकें, साफ-साफ चन्द्रमा की स्थितियों और वर्षों का हिसाब रख सकें। (पूर्ण चन्द्रमा का दिन एक महीने की समाप्ति को दर्शाता था और इससे मनुष्य जान गया कि ज्योतियों के प्रकाशन ने एक नए चक्र की शुरूआत की थी; अर्द्ध-चन्द्रमा का दिन आधे महीने की समाप्ति को दर्शाता था, जिसने मनुष्य को यह बताया कि चन्द्रमा की एक नई स्थिति शुरू हुई है, इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि चन्द्रमा की एक स्थिति में कितने दिन और रात होते हैं और एक ऋतु में चन्द्रमा की कितनी स्थितियाँ होती हैं, एक साल में कितनी ऋतुएँ होती हैं, सब कुछ लगातार प्रदर्शित हो रहा था।) इस प्रकार, मनुष्य ज्योतियों की परिक्रमाओं के चिन्‍हांकन से आसानी से चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और सालों का पता लगा सकता था। यहाँ से, मानवजाति और सभी चीज़ें अनजाने ही दिन-रात के क्रमानुसार परस्पर परिवर्तन और ज्योतियों की परिक्रमाओं से उत्पन्न ऋतुओं के बदलाव के मध्य जीवन बिताने लगे। यह सृष्टिकर्ता की सृष्टि का महत्व था जब उसने चौथे दिन ज्योतियों की सृष्टि की थी। उसी प्रकार, सृष्टिकर्ता के इस कार्य के उद्देश्य और महत्व अभी भी उसके अधिकार और सामर्थ्‍य से अविभाजित थे। इस प्रकार, परमेश्वर के द्वारा बनाई गई ज्योतियाँ और वह मूल्य जो वे शीघ्र ही मनुष्य के लिए लाने वाले थे, सृष्टिकर्ता के अधिकार के इस्तेमाल में एक और महानतम कार्य था।
इस नए संसार में, जिसमें मानवजाति अभी तक प्रकट नहीं हुई थी, सृष्टिकर्ता ने "साँझ और सवेरे," "आकाश," "भूमि और समुद्र," "घास, सागपात और विभिन्न प्रकार के वृक्ष," और "ज्योतियों, ऋतुओं, दिनों, और वर्षों" को उस नए जीवन के लिए बनाया जिसे वह शीघ्र उत्पन्न करने वाला था। सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्‍य हर उस नई चीज़ में प्रगट हुआ जिसे उसने बनाया था और उसके वचन और उपलब्धियाँ लेश-मात्र भी बिना किसी असंगति या अन्तराल के एक साथ घटित होती होने लगे। इन सभी नई चीज़ों का प्रकटीकरण और जन्म सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य के प्रमाण थे; वह अपने वचन के समान ही भला है और उसका वचन पूरा होगा और जो पूर्ण हुआ है वो हमेशा बना रहेगा। यह सच्चाई कभी नहीं बदलीः यह भूतकाल में ऐसा था, यह वर्तमान में ऐसा है और पूरे अनंतकाल के लिए भी ऐसा ही बना रहेगा। जब तुम लोग पवित्र-शास्त्र के उन वचनों को एक बार और देखते हो, तो क्या वे तुम्हें तरोताज़ा दिखाई देते हो? क्या तुम लोगों ने नई विषय-वस्‍तु देखी है और नई नई खोज की है? यह इसलिए है क्योंकि सृष्टिकर्ता के कार्यों ने तुम लोगों के हृदय को द्रवित कर दिया है, और अपने अधिकार और सामर्थ्‍य की दिशा में तुम सबके ज्ञान का मार्गदर्शन किया है और सृष्टिकर्ता की तुम्हारी समझ के लिए द्वार खोल दिया है और उसके कार्य और अधिकार ने इन वचनों को जीवन दिया है। इस प्रकार इन वचनों में मनुष्य ने सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक वास्तविक, सुस्पष्ट प्रकटीकरण देखा और वह सचमुच में सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता का गवाह बना है, और उसने सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य की असाधारणता को देखा है।
सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य ने चमत्कार पर चमत्कार किये हैं। उसने मनुष्य के ध्यान को आकर्षित किया है। मनुष्य उसके अधिकार के उपयोग से पैदा हुए आश्चर्यजनक कार्यों को टकटकी लगाकर देखने के सिवाए कुछ नहीं कर सकता है। उसका असीमित सामर्थ्‍य अत्यंत प्रसन्नता लेकर आता है और मनुष्य भौंचक्का हो जाता है। वह अतिउत्साह से भर जाता है और प्रशंसा में हक्का-बक्का-सा देखता है। वह भय से ग्रसित और हर्षित हो जाता है; और इससे अधिक क्या, मनुष्य ज़ाहिर तौर पर कायल हो जाता है, और उस में आदर, सम्मान, और लगाव उत्पन्न होने लग जाता है। मनुष्य की आत्मा पर सृष्टिकर्ता के अधिकार और कार्यों का एक बड़ा प्रभाव होता है जो मनुष्य की आत्मा को शुद्ध और संतुष्ट कर देता है। उसके हर एक विचार, हर एक बोल, उसके अधिकार का हर एक प्रकाशन सभी चीज़ों में अति उत्तम रचना हैं। यह एक महान कार्य है और सृजी गई मानवजाति की गहरी समझ और ज्ञान के लिए बहुत ही योग्य है। जब हम सृष्टिकर्ता के वचनों से सृजित किए गए हर एक जीवधारी की गणना करते हैं तो हमारी आत्मा परमेश्वर की सामर्थ्‍य की अद्भुतता की ओर खिंची चली जाती है और हम अगले दिन अपने आप को सृष्टिकर्ता के कदमों के निशानों के पीछे-पीछे चलते हुए पाते हैं: परमेश्वर का सभी चीज़ों की सृष्टि का पाँचवा दिन।
आइये, सृष्टिकर्ता के और कार्यों को देखते हुए, हम एक-एक अंश करके पवित्र शास्त्र को पढ़ना जारी रखें।
पाँचवे दिन, जीवन के विविध और विभिन्न रूप अलग-अलग तरीकों से सृष्टिकर्ता के अधिकार को प्रदर्शित करते हैं
पवित्र-शास्त्र कहता है, "फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।' इसलिये परमेश्‍वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्‍टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्‍टि की: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:20-21)। पवित्र-शास्त्र साफ-साफ कहता है कि इस दिन, परमेश्वर ने जल के जन्तुओं और आकाश के पक्षियों को बनाया, कहने का तात्पर्य है कि उसने विभिन्न प्रकार की मछलियों और पक्षियों को बनाया और उनकी प्रजाति के अनुसार उन्हें वर्गीकृत किया। इस तरह, परमेश्वर की सृष्टि से पृथ्वी, आकाश और जल समृद्ध हो गए ...
जैसे ही परमेश्वर के वचन कहे गए, नई ज़िन्दगियाँ, हर एक अलग आकार में, सृष्टिकर्ता के वचनों के मध्य एकदम से जीवित हो गईं। वे ��स संसार में अपने स्थान के लिए एक-दूसरे को धकेलते, कूदते और आनंद से खेलते हुए आ गए...। हर प्रकार ��वं आकार की मछलियाँ जल के आर-पार तैरने लगीं और सभी किस्मों की सीप वाली मछलियाँ रेत में उत्पन्न होने लगीं, कवचधारी, सीप वाली और बिना रीढ़ वाले जीव-जन्तु, चाहे बड़े हों या छोटे, लम्बे हों या ठिगने, विभिन्न रूपों में जल्दी से प्रगट हो गए। विभिन्न प्रकार के समुद्री पौधे शीघ्रता से उगना शुरू हो गए, विविध प्रकार के समुद्री जीवन के बहाव में बहने लगे, लहराते हुए, स्थिर जल को उत्तेजित करते हुए, मानो उनसे कहना चाहते हैं: नाचो! अपने मित्रों को लेकर आओ! क्योंकि अब तुम लोग कभी अकेले नहीं रहोगे! उस घड़ी जब परमेश्वर के द्वारा बनाए गए जीवित प्राणी जल में प्रगट हुए, प्रत्येक नए जीवन ने उस जल में जीवन-शक्ति डाल दी जो इतने लम्बे समय से शांत था और एक नए युग का सूत्रपात किया...। और तब से, वे एक-दूसरे के आस-पास रहने लगे और बिना किसी भेदभाव के एक-दूसरे से सहभागिता करने लगे। जल के भीतर जो भी जीवधारी थे, जल उनका पोषण करने लगा, और प्रत्येक जीवन, जल और उसके पोषण के कारण अस्तित्व में बना रहा। प्रत्येक जीव ने दूसरे को जीवन दिया, हर एक ने, उसी रीति से, सृष्टिकर्ता की सृष्टि की अद्भुतता, महानता और सृष्टिकर्ता के अधिकार और अद्वितीय सामर्थ्‍य की गवाही दी ...
जैसे समुद्र अब शांत न रहा, उसी प्रकार जीवन ने आकाश को भरना प्रारम्भ कर दिया। एक के बाद, छोटे-बड़े पक्षी, भूमि से आकाश में उड़ने लगे। समुद्र के जीवों से अलग, उनके पास पंख और पर थे जो उनके दुबले और आकर्षक रूप को ढंके हुए थे। वे अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए, गर्व और अभिमान से अपने परों के आकर्षक लबादे को और अपनी विशेष क्रियाओं और कुशलताओं को प्रदर्शित करने लगे जिन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें प्रदान किया गया था। वे स्वतन्त्रता के साथ हवा में लहराने लगे और कुशलता से आकाश और पृथ्वी के बीच, घास के मैदानों और जंगलों के आर-पार यहाँ वहाँ उड़ने लगे...। वे हवा के प्रिय थे, वे हर चीज़ के प्रिय थे। वे जल्द ही स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में एक सेतु बनकर सभी चीज़ों तक संदेश पहुँचाने वाले थे...। वे गीत गाने लगे, आनंद के साथ यहाँ-वहाँ झपट्टा मारने लगे, वे हर्षोल्लास एवं हँसी लेकर आए, उन्होंने कभी ख़ाली पड़े संसार में कम्पन पैदा कर दिया...। उन्होंने अपने स्पष्ट एवं मधुर गीतों से और अपने हृदय के शब्दों से उस जीवन के लिए सृष्टिकर्ता की प्रशंसा की जो उसने उन्हें दिया था। उन्होंने सृष्टिकर्ता की पूर्णता और अद्भुतता को प्रदर्शित करने के लिए हर्षोल्लास के साथ नृत्य किया, और वे उस विशेष जीवन के द्वारा जो सृष्टिकर्ता ने उन्हें दिया था, उसके अधिकार की गवाही देने में अपने सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर देंगे ...
इसके बावजूद कि वे जल में थे या आकाश में, सृष्टिकर्ता की आज्ञा के द्वारा, जीवित प्राणियों की यह अधिकता जीवन के विभिन्न रूपों में मौजूद थी, और सृष्टिकर्ता की आज्ञा के द्वारा, वे अपनी-अपनी प्रजाति के अनुसार इकट्ठे हो गए—और यह व्यवस्था और यह नियम किसी भी जीवधारी के लिए अपरिवर्तनीय था। और उनके लिए सृष्टिकर्ता के द्वारा जो भी सीमाएँ बनाई गई थीं उन्होंने कभी भी उसके पार जाने की हिम्मत नहीं की और न ही वे ऐसा करने में समर्थ थे। जैसा सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किया गया था, उसके अनुसार वे जीते और बहुगुणित होते रहे और सृष्टिकर्ता के द्वारा बनाए गए जीवन-क्रम और व्यवस्था का कड़ाई से पालन करते रहे और सजगता से उसकी अनकही आज्ञाओं, स्वर्गीय आदेशों और नियमों में बने रहे जो उसने उन्हें तब से लेकर आज तक दिये थे। वे सृष्टिकर्ता से अपने एक विशेष अन्दाज़ में बात करते थे और सृष्टिकर्ता के अर्थ की प्रशंसा करते और उसकी आज्ञा मानते थे। किसी ने कभी भी सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया और उनके ऊपर उसकी संप्रभुता और आज्ञाओं का उपयोग उसके विचारों के तहत हुआ था; कोई वचन नहीं दिए गए थे, परन्तु वह अधिकार जो सृष्टिकर्ता के लिए अद्वितीय था उसने ख़ामोशी से सभी चीज़ों का नियन्त्रण किया जिसमें भाषा की कोई क्रिया नहीं थी और जो मानवजाति से भिन्न था। इस विशेष रीति से उसके अधिकार के इस्तेमाल ने मनुष्य को नया ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाध्य किया और सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की एक नई व्याख्या की। यहाँ तुम्हें एक बात बता दूँ कि इस नए दिन में, परमेश्वर के अधिकार के इस्तेमाल ने एक बार और सृष्टिकर्ता की अद्वितीयता का प्रदर्शन किया।
आगे, हम पवित्र-शास्त्र के इस अंश के अंतिम वाक्य पर एक नज़र डालेंगे: "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।" तुम लोग इसका अर्थ क्या लगाते हो? इन वचनों में परमेश्वर की भावनाएं भरी हैं। परमेश्वर ने उन सभी चीज़ों को देखा जिन्हें उसने बनाया था जो उसके वचनों के कारण अस्तित्व में आईं और बनी रहीं और धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगीं। उस समय, परमेश्वर ने अपने वचनों के द्वारा जो विभिन्न चीज़ें बनाई थीं, और जिन विभिन्न कार्यों को पूरा किया था, क्या वह उनसे सन्तुष्ट था? उत्तर है कि "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।" तुम लोगों को क्या लगता है? इससे क्या प्रकट होता है कि "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।"? यह किसकी ओर संकेत करता है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर ने जो योजना बनाई थी और जो निर्देश दिये थे उन्हें और उन उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए, जिन्हें पूरा करने की उसने व्यवस्था की थी, परमेश्वर के पास सामर्थ्‍य और बुद्धि थी। जब परमेश्वर ने हर एक कार्य को पूरा कर लिया, तो क्या वह दु:खी हुआ? उत्तर अभी भी यही है "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।" दूसरे शब्दों में, उसने कोई खेद महसूस नहीं किया, बल्कि वह सन्तुष्ट था। इसका मतलब क्या है कि उसे कोई खेद महसूस नहीं हुआ? इसका मतलब है कि परमेश्वर की योजना पूर्ण है, उसकी सामर्थ्‍य और बुद्धि पूर्ण है, और यह कि सिर्फ उसकी सामर्थ्‍य के द्वारा ही ऐसी पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है। जब कोई मुनष्य कार्य करता है, तो परमेश्वर के समान, क्या वह देख सकता है, कि वह अच्छा है? क्या हर काम जो मनुष्य करता है उसमें पूर्णता होती है? क्या मनुष्य किसी काम को एक ही बार में पूरी अनंतता के लिए पूरा कर सकता है? जैसा कि मनुष्य कहता है, "कुछ भी पूर्ण नहीं होता, बस थोड़ा बेहतर होता है," ऐसा कुछ भी नहीं है जो मनुष्य करे और वह पूर्णता को प्राप्त कर ले। जब परमेश्वर ने देखा कि जो कुछ उसने बनाया और पूर्ण किया वह अच्छा है, परमेश्वर के द्वारा बनाई गई हर वस्तु उसके वचन के द्वारा स्थिर हुई, कहने का तात्पर्य है कि, जब "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है," तब जो कुछ भी उसने बनाया उसे चिरस्थायी रूप में स्वीकृति मिल गई, उनकी किस्मों के अनुसार उन्हें वर्गीकृत किया गया, और उन्हें पूरी अनंतता के लिए एक दृढ़ स्थिति, उद्देश्य, और कार्यप्रणाली दी गई। इसके अतिरिक्त, सब वस्तुओं के बीच उनकी भूमिका, और वह यात्रा जिन से उन्हें परमेश्वर की सभी वस्तुओं के प्रबन्धन के दौरान गुज़रना था, उन्हें परमेश्वर के द्वारा पहले से ही नियुक्त कर दिया गया था और वे बदलने वाले नहीं थे। यह सृष्टिकर्ता द्वारा सभी वस्तुओं को दिया गया स्वर्गीय नियम था।
"परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है," इन सामान्य, कम महत्व के शब्दों की कई बार उपेक्षा की जाती है, परन्तु ये स्वर्गीय नियम और स्वर्गीय आदेश हैं जिन्हें सभी प्राणियों को परमेश्वर के द्वारा दिया गया है। यह ��ृष्टिकर्ता के अधिकार का एक और मूर्त रूप है, जो अधिक व्यावहारिक और अति गंभीर है। अपने वचनों के जरिए, सृष्टिकर्ता न केवल वह सब-कुछ हासिल करने में सक्षम हुआ जिसे उसने हासिल करने का ब��ड़ा उठाया था, और वह सब-कुछ प्राप्त किया जिसे वह प्राप्त करने निकला था, बल्कि जो कुछ भी उसने सृजित किया था, उसका नियन्त्रण कर सकता था, और जो कुछ उसने अपने अधिकार के अधीन बनाया था उस पर शासन कर सकता था और इसके अतिरिक्त, सब-कुछ क्रमानुसार और निरन्तर बने रहने वाला था। सभी वस्तुएँ उसके वचन के द्वारा जीवित हुईं और मर भी गईं और उसके अतिरिक्त उसके अधिकार के कारण वे उसके द्वारा बनाई गई व्यवस्था के मध्य अस्तित्व में बनी रही और कोई भी वस्तु छूटी नहीं! यह व्यवस्था बिलकुल उसी घड़ी शुरू हो गई थी जब "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है," और वह बना रहेगा और जारी रहेगा और परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना के लिए उस दिन तक कार्य करता रहेगा जब तक वह सृष्टिकर्ता के द्वारा रद्द न कर दिया जाए! सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार न केवल सब वस्तुओं को बनाने और सब वस्तुओं के अस्तित्व में आने की आज्ञा की काबिलियत में प्रकट हुआ, बल्कि सब वस्तुओं पर शासन करने और सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखने और सब वस्तुओं में चेतना और जीवन देने और इसके अतिरिक्त, सब वस्तुओं को पूरी अनंतता के लिए बनाने की उसकी योग्यता में भी प्रगट हुआ था जिसे वह अपनी योजना में बनाना चाहता था ताकि वे एक ऐसे संसार में प्रगट हो सकें और अस्तित्व में आ जाएँ जिन्हें उसके द्वारा एक पूर्ण आकार और एक पूर्ण जीवन संरचना और एक पूर्ण भूमिका में बनाया गया था। यह भी इस तरह से सृष्टिकर्ता के विचारों में प्रकट हुआ जो किसी विवशता के अधीन नहीं था और समय, अंतरिक्ष और भूगोल के द्वारा सीमित नहीं किए गए थे। उसके अधिकार के समान, सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान अनंतकाल से लेकर अनंतकाल तक अपरिवर्तनीय बनी रहेगी। उसका अधिकार सर्वदा उसकी अद्वितीय पहचान का एक निरूपण और प्रतीक बना रहेगा और उसका अधिकार हमेशा उसकी अद्वितीय पहचान के अगल-बगल बना रहेगा!
छठे दिन, सृष्टिकर्ता ने कहा और हर प्रकार के जीवित प्राणी जो उसके मस्तिष्क में थे एक के बाद एक अपने आप को प्रगट करने लगे
स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर न होते हुए, सब वस्तुओं को बनाने के लिए सृष्टिकर्ता का कार्य लगातार पाँचवे दिन तक चलता रहा, उसके तुरन्त बाद सृष्टिकर्ता ने सब वस्तुओं की सृष्टि के छठे दिन का स्वागत किया। यह दिन एक और नई शुरूआत थी तथा एक और असाधारण दिन था। इस नए दिन की शाम के लिए सृष्टिकर्ता की क्या योजना थी? कौन से नए जीव जन्तुओं को वह उत्पन्न करेगा, उनकी सृष्टि करेगा? ध्यान से सुनो, यह सृष्टिकर्ता की वाणी है...।
"फिर परमेश्‍वर ने कहा, 'पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों,' और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्‍वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया: और परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:24-25)। इन में कौन-कौन से जीवित प्राणी शामिल हैं? पवित्र-शास्त्र कहता हैः मवेशी और रेंगने वाले जन्तु और पृथ्वी के जाति-जाति के जंगली पशु। कहने का तात्पर्य है कि उस दिन वहाँ पृथ्वी के सब प्रकार के जीवित प्राणी ही नहीं थे, बल्कि उन सभी को प्रजाति के अनुसार वर्गीकृत किया गया था और उसी प्रकार, "परमेश्‍वर ने देखा कि अच्छा है।"
पिछले पाँच दिनों की तरह, उसी सुर में, छ्ठे दिन सृष्टिकर्ता ने अपने इच्छित प्राणियों के जन्म का आदेश दिया और हर एक अपनी-अपनी प्रजाति के अनुसार पृथ्वी पर प्रकट हुआ। जब सृष्टिकर्ता अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है तो उसके कोई भी वचन व्यर्थ में नहीं बोले जाते और इस प्रकार, छ्ठे दिन हर प्राणी, जिसको उसने बनाने की इच्छा की थी, नियत समय पर प्रकट हो गया। जैसे ही सृष्टिकर्ता ने कहा "पृथ्वी से एक-एक जाति के प्राणी, उत्पन्न हों," पृथ्वी तुरन्त जीवन से भर गई और पृथ्वी के ऊपर अचानक ही हर प्रकार के प्राणियों की श्वास प्रकट हुई...। हरे-भरे घास के जंगली मैदानों में, हृष्ट-पुष्ट गाएँ अपनी पूंछों को इधर-उधर हिलाते हुए, एक के बाद एक प्रगट होने लगीं, मिमियाती हुई भेड़ें झुण्डों में इकट्ठी होने लगीं, और हिनहिनाते हुए घोड़े सरपट दौड़ने लगे...। एक पल में ही, शांत घास के मैदानों की विशालता में जीवन अंगड़ाई लेने लगा...। पशुओं के इन विभिन्न झुण्डों का प्रकटीकरण निश्चल घास के मैदान का एक सुन्दर दृश्य था जो अपने साथ असीमित जीवन शक्ति लेकर आया था...। वे घास के मैदानों के साथी और घास के मैदानों के स्वामी होंगे और प्रत्येक एक-दूसरे पर निर्भर होगा; वे भी इन घास के मैदानों के संरक्षक और रखवाले होंगे, जो उनका स्थायी निवास होगा, जो उन्हें उनकी सारी ज़रूरतों को प्रदान करेगा और उनके अस्तित्व के लिए अनंत पोषण का स्रोत होगा ...
उसी दिन जब ये विभिन्न मवेशी सृष्टिकर्ता के वचनों द्वारा अस्तित्व में आए थे, ढेर सारे कीड़े-मकौड़े भी एक के बाद एक प्रगट हुए। भले ही वे सभी जीवधारियों में सबसे छोटे थे, परन्तु उनकी जीवन-शक्ति सृष्टिकर्ता की अद्भुत सृष्टि थी और वे बहुत देरी से नहीं आए थे...। कुछ ने अपने पंखों को फड़फड़ाया, जबकि कुछ अन्य धीरे-धीरे रेंगने लगे; कुछ उछलने और कूदने लगे और कुछ अन्य लड़खड़ाने लगे, कुछ आगे बढ़कर खोल में घुस गए, जबकि अन्य जल्दी से पीछे लौट गए; कुछ दूसरी ओर चले गए, कुछ अन्य ऊँची-नीची छलांग लगाने लगे...। वे सभी अपने लिए घर ढूँढ़ने के प्रयास में व्यस्त हो गएः कुछ ने घास में घुसकर अपना रास्ता बनाया, कुछ ने भूमि खोदकर छेद बनाना शुरू कर दिया, कुछ उड़कर पेड़ों पर चढ़ गए और जंगल में छिप गए...। यद्यपि वे आकार में छोटे थे, परन्तु वे खाली पेट की तकलीफ को सहना नहीं चाहते थे और अपने घरों को बनाने के बाद, वे अपना पोषण करने के लिए भोजन की तलाश में चल पड़े। कुछ घास के कोमल तिनकों को खाने के लिए उस पर चढ़ गए, कुछ ने धूल से अपना मुँह भर लिया और अपना पेट भरा और स्वाद और आनंद के साथ खाने लगे (उनके लिए, धूल भी एक स्वादिष्ट भोजन है); कुछ जंगल में छिप गए, परन्तु आराम करने के लिए नहीं रूके, क्योंकि चमकीले गहरे हरे पत्तों के भीतर के रस ने उनके लिये रसीला भोजन प्रदान किया...। सन्तुष्ट होने के बाद भी कीड़े-मकौड़ों ने अपनी गतिविधियों को समाप्त नहीं किया, भले ही वे आकार में छोटे थे, फिर भी वे भरपूर ऊर्जा और असीमित उत्साह से भरे हुए थे और उसी प्रकार सभी जीवधारी भी, वे सबसे अधिक सक्रिय और सबसे अधिक परिश्रमी होते हैं। वे कभी आलसी न हुए और न कभी आराम से पड़े रहे। एक बार संतृप्त होने के बाद, उन्होंने फिर से अपने भविष्य के लिए परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया, अपने आने वाले कल के लिए अपने आपको व्यस्त रखा और जीवित बने रहने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ते गए...। उन्होंने मधुरता से विभिन्न प्रकार की धुनों और सुरों को गुनगुनाकर अपने आपको आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया। उन्होंने घास, वृक्षों और ज़मीन के हर इन्च में आनंद का समावेश किया और हर दिन और हर वर्ष को अद्वितीय बना दिया...। अपनी भाषा और अपने तरीकों से, उन्होंने भूमि के सभी प्राणियों तक जानकारी पहुँचायी। और अपने विशेष जीवन पथक्रम का उपयोग करते हुए, उन्होंने सब वस्तुओं को जिनके ऊपर उन्होंने निशान छोड़े थे, चिन्हित किया...। उनका मिट्टी, घास और जंगलों के साथ घनिष्ठ संबंध था और वे मिट्टी, घास और वनों में शक्ति और जीवन चेतना लेकर आए, उन्होंने सभी प्राणियों को सृष्टिकर्ता का प्रोत्साहन और अभिनंदन पहुँचाया ...
सृष्टिकर्ता की निगाहें सब वस्तुओं पर पड़ीं जिन्हें उसने बनाया था और इस पल उसकी निगाहें जंगलों और पर्वतों पर आकर ठहर गईं और उसका मस्तिष्क मोड़ ले रहा था। जैसे ही उसके वचन बोले गए, घने जंगलों और पहाड़ों के ऊपर, इस प्रकार के पशु प्रगट हुए जो पहले कभी नहीं आए थेः वे "जंगली जानवर" थे जो परमेश्वर के वचन के द्वारा बोले गए थे। लम्बे समय से प्रतीक्षारत, उन्होंने अपने अनोखे चेहरे के साथ अपने अपने सिरों को हिलाया और हर एक ने अपनी अपनी पूंछ को लहराया। कुछ के पास रोंएदार लबादे थे, कुछ कवचधारी थे, कुछ के खुले हुए ज़हरीले दाँत थे, कुछ के पास घातक मुस्कान थी, कुछ लम्बी गर्दन वाले थे, कुछ के पास छोटी पूँछ थी, कुछ के पास ख़तरनाक आँखें थीं, कुछ डर के साथ देखते थे, कुछ घास खाने के लिए झुके हुए थे, कुछ के मुँह में ख़ून लगा हुआ था, कुछ दो पाँव से उछलते थे, कुछ चार खुरों से धीरे-धीरे चलते थे, कुछ पेड़ों के ऊपर से दूर तक देखते थे, कुछ जंगलों में इन्तज़ार में लेटे हुए थे, कुछ आराम करने के लिए गुफाओं की खोज में थे, कुछ मैदानों में दौड़ते और उछलते थे, कुछ शिकार के लिए जंगलों में गश्त लगा रहे थे...; कुछ गरज रहे थे, कुछ हुँकार भर रहे थे, कुछ भौंक रहे थे, कुछ रो रहे थे...; कुछ ऊँचे सुर, कुछ नीचे सुर वाले, कुछ खुले गले वाले, कुछ साफ-साफ और मधुर स्वर वाले थे...; कुछ भयानक थे, कुछ सुन्दर थे, कुछ बड़े अजीब से थे और कुछ प्यारे-से थे, कुछ डरावने थे, कुछ बहुत ही आकर्षक थे...। सब एक-एक कर आने लगे। देखिए कि वे गर्व से कितने फूले हुए थे, उन्मुक्त-जीव थे, एक-दूसरे से बिलकुल उदासीन थे, एक-दूसरे को एक झलक देखने की भी परवाह नहीं करते थे...। सभी उस विशेष जीवन को जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया था, और अपने जंगलीपन और क्रूरता को धारण किए हुए, जंगलों और पहाड़ियों के ऊपर प्रगट हो गए। सबसे घृणित, पूरी तरह ढीठ—किसने उन्हें पहाड़ियों और जंगलों का सच्चा स्वामी बना दिया था? उस घड़ी से जब से सृष्टिकर्ता ने उनके आविर्भाव को स्वीकृति दी थी, उन्होंने जंगलों पर "दावा किया," और पहाड़ों पर भी "दावा किया," क्योंकि सृष्टिकर्ता ने पहले से ही उनकी सीमाओं को ठहरा दिया था और उनके अस्तित्व के पैमाने को निश्चित कर दिया था। केवल वे ही जंगलों और पहाड़ों के सच्चे स्वामी थे, इसलिए वे इतने प्रचण्ड और ढीठ थे। उन्हें पूरी तरह "जंगली जानवर" इसीलिए कहा जाता था क्योंकि, सभी प्राणियों में वे ही थे जो इतने जंगली, क्रूर और वश में न आने वाले थे। उन्हें पालतू नहीं बनाया जा सकता था, इस प्रकार उनका पालन-पोषण नहीं किया जा सकता था और वे मानवजाति के साथ एकता से नहीं रह सकते थे या मानवजाति के बदले परिश्रम नहीं कर सकते थे। यह इसलिए था क्योंकि उनका पालन-पोषण नहीं किया जा सकता था, वे मानवजाति के लिए काम नहीं कर सकते थे वे मानवजाति से दूर रहकर जीवन बिताते थे। मनुष्य उनके पास नहीं आ सकते थे, वे उन ज़िम्मेदारियों को निभा सकते थे जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दी गई थी: अर्थात् पर्वतों और जंगलों की सुरक्षा करना। उनके जंगलीपन ने पर्वतों की सुरक्षा की और जंगलों की हिफाज़त की और उनका वही स्वभाव उनके अस्तित्व और बढो‌तरी के लिए सबसे बेहतरीन सुरक्षा और विश्वास था। साथ ही, उनके जंगलीपन ने सब वस्तुओं के मध्य सन्तुलन को कायम और सुनिश्चित किया। उनका आगमन पर्वतों और जंगलों के लिए सहयोग और टिके रहने के लिए सहारा लेकर आया; उनके आगमन ने शांत तथा रिक्त पर्वतों और जंगलों में शक्ति और जीवन चेतना का संचार किया। उसके बाद से, पर्वत और जंगल उनके स्थायी निवास बन गए, और वे अपने घरों से कभी वंचित नहीं रहेंगे, क्योंकि पर्वत और पहाड़ उनके लिए प्रगट हुए और अस्तित्व में आए थे और जंगली जानवर अपने कर्तव्य को पूरा करेंगे और उनकी हिफाज़त करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। वैसे ही, जंगली जानवर भी सृष्टिकर्ता के प्रोत्साहन के द्वारा दृढ़ता से रहेंगे ताकि अपने सीमा क्षेत्र को थामे रह सकें और सब वस्तुओं के सन्तुलन को कायम रखने के लिए अपने जंगली स्वभाव का निरन्तर उपयोग कर सकें जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा स्थापित किया गया था और सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य को प्रकट कर सकें!
सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन, सभी चीज़ें पूर्ण हैं
परमेश्वर के द्वारा सब वस्तुओं की सृष्टि की गई, जिन में वे शामिल हैं जो चल फिर सकते थे और वे जो चल फिर नहीं सकते थे, जैसे पक्षी और मछलियाँ, जैसे वृक्ष और फूल और जिसमें मवेशी, कीड़े-मकौड़े, और छठे दिन बनाए गए जंगली जानवर भी शामिल थे—वे सभी परमेश्वर के साथ अच्छे से थे और इसके अतिरिक्त, परमेश्वर की निगाहों में ये वस्तुएँ उसकी योजना के अनुरूप, पूर्णता के शिखर को प्राप्त कर चुकी थी और एक ऐसे स्तर तक पहुँच गई थीं जहाँ तक परमेश्वर उन्हें पहुँचाना चाहता था। कदम-दर-कदम, सृष्टिकर्ता ने उन कार्यों को किया जो वह अपनी योजना के अनुसार करने का इरादा रखता था। जिन चीज़ों की वह रचना करना चाहता था, वे एक-के-बाद-एक प्रकट होती गईं और प्रत्येक का प्रकटीकरण सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रतिबिम्ब था और उसके अधिकार के विचारों का ठोस रूप था, विचारों के इन ठोस रूपों के कारण, सभी जीवधारी सृष्टिकर्ता के अनुग्रह और सृष्टिकर्ता के प्रावधान के प्रति नत-मस्तक थे। जैसे ही परमेश्वर के चमत्कारी कार्यों ने अपने आपको प्रगट किया, यह संसार परमेश्वर के द्वारा सृजी गई सब वस्तुओं से अंश-अंश करके फैल गया और यह अव्यवस्था और अँधकार से स्पष्टता और जगमगाहट में बदल गया, बेहद निश्चलता से जीवन्त और असीमित जीवन चेतना में बदल गया। सृष्टि की सब वस्तुओं के मध्य, बड़े से लेकर छोटे तक और छोटे से लेकर सूक्ष्म तक, ऐसा कोई भी नहीं था जो सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्‍य के द्वारा सृजित किया नहीं गया था और हर एक जीवधारी के अस्तित्व की एक अद्वितीय और अंतर्निहित आवश्यकता और मूल्य था। उनके आकार और ढांचे के अन्तर के बावजूद भी, उन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा ही बनाया जाना था ताकि सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन अस्तित्व में बने रहें। कई बार लोग किसी घृणित कीड़े को देखकर कहते हैं, "यह कीड़ा बहुत ही भद्दा है, ऐसा हो ही नहीं सकता कि ऐसे घृणित जीव को परमेश्वर के द्वारा बनाया जा सकता है—ऐसा हो ही नहीं सकता कि परमेश्वर किसी घृणित चीज़ को बनाए।" कितना मूर्ख़तापूर्ण नज़रिया है! इसके बजाय उन्हें यह कहना चाहिए, "भले ही यह कीड़ा इतना भद्दा है, उसे परमेश्वर के द्वारा बनाया गया है और इस प्रकार उसके पास उसका अपना अनोखा उद्देश्य होगा।" परमेश्वर के विचारों में, विभिन्न जीवित प्राणी जिन्हें उसने बनाया है, वह उन्हें हर प्रकार का और हर तरह का रूप और हर प्रकार की कार्य प्रणालियाँ और उपयोगिताएँ देना चाहता था और इस प्रकार परमेश्वर के द्वारा बनाई गई किसी भी वस्तु को एक ही साँचे में नहीं ढाला गया है। उनकी बाहरी संरचना से लेकर भीतरी संरचना तक, उनके जीने की आदतों से लेकर उनके निवास तक जिन में वे रहते हैं—हर एक चीज़ अलग है। गायों के पास गायों का रूप है, गधों के पास गधों का रूप है, हिरनों के पास हिरनों का रूप है, हाथियों के पास हाथियों का रूप है। क्या तुम कह सकते हो कि कौन सबसे अच्छा दिखता है और कौन सबसे भद्दा दिखता है? क्या तुम कह सकते हो कि कौन सबसे अधिक उपयोगी है और किसकी उपस्थिति की आवश्यकता सबसे कम है? कुछ लोगों को हाथियों का रूप अच्छा लगता है, परन्तु कोई भी खेती के लिए हाथियों का इस्तेमाल नहीं करता है; कुछ लोग शेरों और बाघों के रूप को पसंद करते हैं, क्योंकि उनका रूप सब जीवों में सबसे अधिक प्रभावकारी है, परन्तु क्या तुम उन्हें पालतू जानवर की तरह रख सकते हो? संक्षेप ���ें, जब सब जीवों की बात आती है, तो मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार को स्वीकार कर लेना चाहिये, अर्थात्, सब जीवों के सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किए गए क्रम को मान लेना चाहिये; यह सबसे सही रवैया है। सृष्टिकर्ता के मूल अभिप्रायों को खोजने और उसके प्रति आज्ञाकारी होने का एकमात्र रवैया ही सृष्टिकर्ता के अधिकार की सच्ची स्वीकार्यता और निश्चितता है। यह परमेश्वर के साथ अच्छा है तो मनुष्य के पास दोष ढूँढ़ने का कौन-सा कारण है?
अतः, सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के लिए सुर में सुर मिलाकर गाएँगी और उसके नए दिन के कार्य के लिए एक बेहतरीन भूमिका की शुरूआत करेंगी और इस समय सृष्टिकर्ता भी अपने कार्य के प्रबन्ध में एक नया पृष्ठ खोलेगा! बसंत ऋतु के अँकुरों, ग्रीष्म ऋतु की परिपक्वता, शरद ऋतु की कटनी, और शीत ऋतु के भण्डारण की व्यवस्था के अनुसार जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किया गया था, सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता की प्रबंधकीय योजना के साथ प्रतिध्वनित होंगी और वे अपने नए दिन, नई शुरूआत और नए जीवन पथक्रम का स्वागत करेंगी और वे सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता के अधीन हर दिन का अभिनन्दन करने के लिए कभी न खत्म होने वाले अनुक्रम के अनुसार जल्द ही पुनः प्रजनन करेंगी ...
कोई भी सृजित और गैर-सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता की पहचान को बदल नहीं सकता है
जब से उसने सब वस्तुओं की सृष्टि की शुरूआत की, परमेश्वर की सामर्थ्‍य प्रगट होने, और प्रकाशित होने लगी थी, क्योंकि सब वस्तुओं को बनाने के लिए परमेश्वर ने अपने वचनों का इस्तेमाल किया था। इससे निरपेक्ष कि उसने किस रीति से उनको सृजित किया था, इससे निरपेक्ष कि उसने उन्हें क्यों सृजित किया था, परमेश्वर के वचनों के कारण ही सभी चीज़ें अस्तित्व में आईं थीं और स्थिर बनी रहीं और यह सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार है। इस संसार में मानवजाति के प्रगट होने के समय से पहले, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के लिए सब वस्तुओं को बनाने के लिए अपने अधिकार और सामर्थ्‍य का इस्तेमाल किया और मानवजाति के लिए उपयुक्त जीवन्त वातावरण तैयार करने के लिए अपनी अद्वितीय पद्धतियों का उपयोग किया था। जो कुछ भी उसने किया वह मानवजाति की तैयारी के लिए था, जो जल्द ही श्वास प्राप्त करने वाली थी। दूसरे शब्दों में, मानवजाति की सृष्टि से पहले, मानवजाति से भिन्न सभी जीवधारियों में परमेश्वर का अधिकार प्रकट हुआ, ऐसी वस्तुओं में प्रकट हुआ जो स्वर्ग, ज्योतियों, समुद्रों, और भूमि के समान ही विशाल थीं और छोटे से छोटे पशुओं और पक्षियों में, हर प्रकार के कीड़े-मकौड़ों और सूक्ष्म जीवों में, जिनमें विभिन्न प्रकार के जीवाणु भी शामिल थे, जो नंगी आँखों से देखे नहीं जा सकते थे, उनमें प्रकट हुआ। प्रत्येक को सृष्टिकर्ता के वचनों के द्वारा जीवन दिया गया था, हर एक की वंशवृद्धि सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण हुई और प्रत्येक सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन जीवन बिताने लगा। यद्यपि उन्होंने सृष्टिकर्ता की श्वास को प्राप्त नहीं किया था, फिर भी वे उस जीवन व चेतना को दर्शाने लगे थे जो सृष्टिकर्ता द्वारा उन्हें अलग-अलग रूपों और संरचना के द्वारा दिया गया था; भले ही उन्हें बोलने की काबिलियत नहीं दी गई थी जैसा सृष्टिकर्ता के द्वारा मनुष्यों को दी गयी थी, फिर भी उन में से प्रत्येक ने अपने जीवन की अभिव्यक्ति का एक अन्दाज़ प्राप्त किया जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया था और वो मनुष्यों की भाषा से अलग था। सृष्टिकर्ता के अधिकार ने न केवल अचल पदार्थ प्रतीत होने वाली वस्तुओं को जीवन की चेतना दी, जिससे वे कभी भी विलुप्त न हों, बल्कि इसके अतिरिक्त, पुनः उत्पन्न करने और बहुगुणित होने के लिए हर जीवित प्राणियों को अंतःज्ञान भी दिया, ताकि वे कभी भी विलुप्त न हों और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहने के सिद्धांतों को आगे बढ़ाते जाएँ जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया है। जिस रीति से सृष्टिकर्ता अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है, वह अतिसूक्ष्म और अतिविशाल दृष्टिकोण से कड़ाई से चिपके रहना नहीं है और किसी आकार में सीमित नहीं होता; वह विश्व के संचालन को अधिकार में रखता है और सभी चीज़ों के जीवन और मृत्यु के ऊपर प्रभुता रखता है और इसके अतिरिक्त सब वस्तुओं को भली-भाँति सँभाल सकता है जिससे वे परमेश्वर की सेवा कर सकें; वह पर्वतों, नदियों, और झीलों के सब कार्यों का प्रबन्ध कर सकता है, और उनके साथ सब वस्तुओं पर शासन कर सकता है और-तो-और, वह सब वस्तुओं के लिए जो आवश्यक है उसे प्रदान कर सकता है। यह मानवजाति के अलावा सब वस्तुओं के मध्य सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार का प्रकटीकरण है। ऐसा प्रकटीकरण मात्र एक जीवनकाल के लिए नहीं है और यह कभी नहीं रूकेगा, न थमेगा और किसी व्यक्ति या चीज़ के द्वारा बदला या तहस-नहस नहीं किया जा सकता है और न ही उस में किसी व्यक्ति या चीज़ के द्वारा कुछ जोड़ा या घटाया जा सकता है—क्योंकि कोई भी सृष्टिकर्ता की पहचान की जगह नहीं ले सकता और इसलिए सृष्टिकर्ता के अधिकार को किसी सृजित किए गए प्राणी के द्वारा नहीं लिया जा सकता है और उसे किसी भी गैर-सृजित प्राणी के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के सन्देशवाहकों और स्वर्गदूतों को देखिए। उनके पास परमेश्वर की सामर्थ्‍य नहीं है और सृष्टिकर्ता का अधिकार तो उनके पास बिलकुल भी नहीं है और उनके पास परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्‍य क्यों नहीं है उसका कारण है क्योंकि उनमें सृष्टिकर्ता का सार नहीं है। गैर-सृजित प्राणी, जैसे परमेश्वर के सन्देशवाहक और स्वर्गदूत, हालांकि वे परमेश्वर की तरफ से कुछ कर सकते हैं, परन्तु वे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। यद्यपि वे परमेश्वर की कुछ सामर्थ्‍य धारण किए हुए हैं जिन्हें मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है, फिर भी उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है, सब वस्तुओं को बनाने, सब वस्तुओं को आज्ञा देने और सब वस्तुओं के ऊपर सर्वोच्चता रखने के लिए उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है। इस प्रकार परमेश्वर की अद्वितीयता को कोई गैर-सृजित प्राणी नहीं ले सकता है और उसी प्रकार कोई गैर-सृजित प्राणी परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्‍य का स्थान नहीं ले सकता। क्या तुमने बाइबल में परमेश्वर के किसी सन्देशवाहक के बारे में पढ़ा है जिसने सभी चीज़ों की सृष्टि की हो? और परमेश्वर ने सभी चीज़ों के सृजन के लिए किसी संदेशवाहक या स्वर्गदूत को क्यों नहीं भेजा? क्योंकि उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं था और इस प्रकार उनके पास परमेश्वर के अधिकार का इस्तेमाल करने की योग्यता भी नहीं थी। सभी जीवधारियों के समान, वे सभी सृष्टिकर्ता की प्रभुता के अधीन हैं और सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन हैं और इस प्रकार, इसी रीति से, सृष्टिकर्ता उनका परमेश्वर भी है और उनका शासक भी। उन में से हर एक के बीच में—भले ही वे उच्च श्रेणी के हों या निम्न, बड़ी सामर्थ्‍य के हों या छोटी—ऐसा कोई भी नहीं है जो परमेश्वर के अधिकार से बढ़कर हो सके और इस प्रकार उनके बीच में, ऐसा कोई भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की पहचान का स्थान ले सके। उन्‍हें कभी भी परमेश्वर नहीं कहा जाएगा और वे कभी भी सृष्टिकर्ता नहीं बन पाएँगे। ये न बदलने वाले सत्‍य और वास्तविकताएँ हैं!
उपरोक्त सहभागिता के जरिए, क्या हम दृढ़तापूर्वक निम्नलिखित बातों को कह सकते हैं: केवल सब वस्तुओं के सृष्टिकर्ता और शासक, वह जिसके पास अद्वितीय अधिकार और अद्वितीय सामर्थ्‍य है, क्या उसे स्वयं अद्वितीय परमेश्वर कहा ��ा सकता है? इस समय, शायद तुम लोग महसूस करो कि ऐसा प्रश्न बहुत ही गंभीर है। तुम लोग, कुछ पल के लिए, उसे समझने में असमर्थ हो और उसके भीतर के सार-तत्व नहीं समझ सकते और इस प्रकार इस पल तुम लोगों को लगेगा कि उसका उत्तर देना कठिन है। ऐसी स्थिति में, मैं अपनी सहभागिता को जारी रखूँगा। आगे, मैं चाहूँगा कि तुम लोग सामर्थ्‍य और अधिकार के उन बहुत से पहलुओं के वास्तविक कार्यों को देखो जो केवल परमेश्वर के पास है और इस प्रकार मैं तुम लोगों को स्वीकृति दूँगा कि तुम लोग सचमुच परमेश्वर की अद्वितीयता को समझो, प्रशंसा करो और परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार के अर्थ को जानो।
                                                                    स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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rossadomenica-blog · 5 years
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मसीह के कथन "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V परमेश्वर की पवित्रता (II)"...
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julianayu · 3 years
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अंतिम दिनों के मसीह के कथन "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्व...
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अध्याय 15
परमेश्वर और मनुष्य के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि परमेश्वर के वचन हमेशा सटीक सच्चाई बताते हैं, और कुछ भी छुपा नहीं है। इसलिए परमेश्वर के स्वभाव के इस पहलू को आज के प्रथम वचनों में देखा जा सकता है। एक पहलू यह है कि वे मनुष्य के सच्चे रंगों को उजागर करते हैं, और एक अन्य पहलू यह है कि वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के स्वभाव को प्रकट करते हैं। ये इस बात के कुछ स्रोत हैं कि कैसे परमेश्वर के वचन परिणामों को प्राप्त करने में सक्षम हैं। हालाँकि, लोगों को यह समझ नहीं आता है, उन्हें परमेश्वर के वचनों में हमेशा बस स्वयं का पता चलता है, लेकिन उन्होंने परमेश्वर का "विश्लेषण" नहीं किया है। ऐसा लगता है मानो कि वे उसका अपमान करने से अत्यधिक डरते हैं, कि परमेश्वर उन्हें उनकी "सतर्कता" के कारण मार डालेगा। वास्तव में, जब अधिकांश लोग परमेश्वर के वचन को खाते और पीते हैं, तो यह एक नकारात्मक पहलू से है, एक सकारात्मक पहलू से नहीं है। यह कहा जा सकता है कि लोगों ने उसके वचनों के मार्गदर्शन के अधीन अब "विनम्रता और आज्ञाकारिता पर ध्यान केंद्रित करना" आरंभ कर दिया है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों ने, उसके वचनों पर बिल्कुल ध्यान न देने से उसके वचनों की ओर अतिशय ध्यान देने तक, एक चरम से दूसरे पर जाना शुरू कर दिया है। फिर भी ऐसा कोई व्यक्ति कभी भी नहीं हुआ है, जो एक सकारात्मक पहलू से प्रवेश कर चुका हो, और कभी भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ है जिसने मनुष्य को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दिलवाने में परमेश्वर के लक्ष्य को सच में समझा हो। परमेश्वर जो कहता है उससे पता चलता है कि, उसे कलीसिया में सभी लोगों की वास्तविक स्थितियों को शुद्धता से, और बिना त्रुटि के समझने में समर्थ होने के लिए, कलीसिया की जिंदगी का व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि एक नई पद्धति अभी-अभी आरंभ की गई है, इसलिए सभी लोगों को अभी अपने नकारात्मक तत्वों से पूरी तरह पीछा छुड़ाना बाकी है; लाशों की गंध अभी भी पूरे कलीसिया में फैली हुई है। ऐसा लगता है मानो कि लोगों ने अभी-अभी दवा ली है और अभी भी भ्रम में हैं, और उन्हें अभी तक पूरी तरह से होश नहीं आया है। ऐसा लगता है मानो कि वे अभी भी मौत से डरे हुए हैं, जिसकी वजह से वे अभी भी अपने ख़ौफ़ के बीच में हैं और वे अपने आप को पार नहीं कर सकते हैं। "मनुष्य एक आत्मज्ञान रहित प्राणी है": यह वक्तव्य अभी भी कलीसिया निर्माण की पद्धति के आधार पर कहा जाता है। कलीसिया में, यद्यपि हर कोई परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देता है, फिर भी उनके स्वभाव अभी भी गहराई से जड़ जमाए हुए हैं और वे स्वयं को मुक्त करने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि लोगों का न्याय करने के लिए परमेश्वर अंतिम चरण से बोलने की पद्धति का उपयोग करता है ताकि वे परमेश्वर के वचनों की मार को स्वीकार कर लें, जबकि वे अत्यधिक अहँकारी हैं। भले ही लोग अथाह गड्ढे में पाँच महीनों के परिशोधन से गुज़रे, किन्तु उनकी वास्तविक स्थिति अब भी परमेश्वर को नहीं जानने वाले की है। वे अभी भी आत्मा में जंगली हैं—उन्होंने सिर्फ परमेश्वर की ओर अपनी संरक्षितता कुछ-कुछ बढ़ा ली है। केवल इस कदम में ही लोग परमेश्वर के वचनों को जानने के मार्ग में प्रवेश करना आरंभ करते हैं, इसलिए परमेश्वर के वचनों के सार के साथ संबंध बनाते समय, यह देखना कठिन नहीं है कि कार्य के पिछले चरण ने आज के लिए मार्ग प्रशस्त किया, और केवल आज ही सब कुछ सामान्यीकृत किया जा रहा है। लोगों की घातक कमजोरी, परमेश्वर के आत्मा को उसकी दैहिक अस्मिता से पृथक करने की चाह है ताकि वे, हमेशा विवश किए जाने से बच सकें, व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त कर सकें। यही कारण है कि परमेश्वर मनुष्य का खुशी से इधर-उधर उड़ते हुए पक्षियों के रूप में वर्णन करता है। समस्त मानवजाति की यही वास्तविक स्थिति है। यही वह है जो समस्त मानवजाति को गिराना सबसे आसान बनाता है, जो खो जाना उनके लिए सबसे आसान बनाता है। इससे यह देखा जा सकता है कि शैतान मानवजाति में जो कार्य करता है वह इससे अधिक कुछ नहीं है। शैतान लोगों में जितना अधिक ऐसा करता है, उतनी ही अधिक सख्त उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ होती हैं। वह आवश्यक बनाता है कि लोग उसके वचनों पर ध्यान दें और शैतान इसे नष्ट करने के लिए कड़ी मेहनत करता है। हालाँकि, परमेश्वर ने अपने वचनों पर अधिक ध्यान देने की लोगों को हमेशा याद दिलायी है; यह आध्यात्मिक दुनिया के युद्ध का शिखर है। इसे इस तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है: परमेश्वर इंसानों में जो करना चाहता है बिल्कुल उसे ही शैतान नष्ट करना चाहता है, और शैतान जो नष्ट करना चाहता है, वह बिल्कुल भी छुपे बिना मनुष्य के माध्यम से व्यक्त होता है। परमेश्वर लोगों में जो करता है उसका स्पष्ट प्रदर्शन होता है—उनकी स्थिति बेहतर और बेहतर हो रही है। मानवजाति में शैतान का विध्वंस भी स्पष्ट रूप से प्रस्तुत होता है—वे अधिकाधिक भ्रष्ट हो रहे हैं तथा उनकी स्थिति नीचे और नीचे डूबती रही है। यदि यह पर्याप्त भयानक होती है, तो उन्हें शैतान के द्वारा कब्जे में लिया जा सकता है। यह कलीसिया की वास्तविक स्थिति है जिसे परमेश्वर के वचनों में प्रस्तुत किया गया है, और यह आध्यात्मिक दुनिया की भी वास्तविक स्थिति है। यह आध्यात्मिक दुनिया की गतिकी का एक प्रतिबिंब है। यदि लोगों को परमेश्वर के साथ सहयोग करने का विश्वास नहीं है, तो वे शैतान द्वारा कब्जा किए जाने के खतरे में हैं। यह एक तथ्य है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के रहने के लिए अपने हृदय को पूरी तरह से अर्पित करने में सच में समर्थ हो सकता है, तो यह ठीक ऐसा है जैसा कि परमेश्वर ने कहा है: "मेरे सामने, मेरे आलिंगन की गर्माहट का स्वाद लेते हुए, मेरे आलिंगन में लेटा हुआ प्रतीत होता है।" यह दर्शाता है कि मानवजाति के बारे में परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची नहीं हैं—उसे सिर्फ इतनी ही आवश्यकता है कि वे उठें और उसके साथ सहयोग करें। क्या यह एक आसान और खुशी की बात नहीं है? और सिर्फ इस एक चीज ने सभी नायकों को चकरा दिया है? ऐसा लगता है मानो कि युद्धक्षेत्र के जनरलों को कशीदाकारी करने के लिए किसी ज़ियू लू[क] के पास बैठा दिया गया हो—ये "नायक" कठिनाई द्वारा गतिहीन हो गए हैं और उन्हें पता नहीं है कि उन्हें क्या करना चाहिए।
जिस किसी भी पहलू में मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ सबसे अधिक हैं, तो इसका अर्थ है कि मानवजाति पर शैतान के हमले उस पहलू में सबसे गंभीर होंगे, और सभी लोगों की स्थितियाँ इस माध्यम से प्रकट होती हैं। "… मेरे सामने खड़े, तुम लोगों में से कौन, शुद्ध बर्फ के जैसा गोरा, शुद्ध हरिताश्म के जैसा बेदाग़ होता?" सभी लोग अभी भी परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं और उससे कुछ छुपा रहे हैं; वे अभी भी अपने अनूठे संदेहपूर्ण व्यापार को कर रहे हैं। उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने हृदय को पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंपा है, किन्तु वे अपने उत्साह के माध्यम से उसका पारितोषिक प्राप्त करना चाहते हैं। जब लोगों के पास स्वादिष्ट भोजन होता है, तो वे परमेश्वर को एक तरफ खड़ा करवाते हैं, उसे अपनी दया पर छोड़ देते हैं। जब लोगों के पास खूबसूरत कपड़े होते हैं, तो वे अपनी स्वयं की सुंदरता का आनंद उठाते हुए दर्पण के सामने खड़े होते हैं, और अपने हृदय की गहराई से परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते हैं। जब उनकी प्रतिष्ठा होती है, जब उनके पास विलासितापूर्ण आनंद होते हैं, तो वे बस अपनी हैसियत में बैठते हैं और इसका आनंद लेना शुरू कर देते हैं, लेकिन वे परमेश्वर द्वारा उन्नति की वजह से स्वयं को विनम्र नहीं करते हैं। इसके बजाए, वे अपने आडंबरी वचनों का उपयोग करके ऊँचे स्थान पर खड़े हो जाते हैं और परमेश्वर की उपस्थिति पर ध्यान नहीं देते हैं, न ही वे परमेश्वर की बहुमूल्यता को जानने की खोज करते हैं। जब लोगों के हृदय में एक मूर्ति होती हैं या जब उनके हृदय अन्य के द्वारा अधिकार में ले लिए जाते हैं, तब वे पहले से ही परमेश्वर की उपस्थिति से इनकार कर चुके होते हैं, और ऐसा लगता है मानो कि परमेश्वर उनके हृदय में एक घुसपैठिया है। वे बहुत डरते हैं कि परमेश्वर उनके लिए अन्य लोगों के प्यार को चुरा लेगा और वे एकाकी महसूस करेंगे। परमेश्वर के इरादे के अनुसार, पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो लोगों से परमेश्वर को अनदेखा करवाएगा; यहाँ तक ​​कि लोगों के बीच का प्यार भी परमेश्वर को उस "प्रेम" से दूर करने में सक्षम नहीं होगा। सभी पार्थिव चीजें खोखली हैं, यहाँ तक ​​कि लोगों के बीच की भावनाएँ भी जिन्हें देखा नहीं जा सकता है या स्पर्श नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के अस्तित्व के बिना, सभी प्राणी समाप्त हो जाएँगे। पृथ्वी पर, सभी लोगों की अपनी स्वयं की चीजें हैं जिनसे वे प्रेम करते हैं, लेकिन एक भी ऐसा व्यक्ति कभी भी नहीं हुआ है जिसने परमेश्वर के वचनों को वह चीज़ बना दिया हो जिससे वह प्रेम करता हो। यह परमेश्वर के वचनों के बारे में लोगों की समझ का स्तर निर्धारित करता है। यद्यपि उसके वचन कठोर हैं, तब भी लोग घायल नहीं होते हैं क्योंकि वे असल में उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते हैं, इसके बजाय वे इसे एक फूल की तरह देखते ह��ं। वे उसे स्वयं स्वाद लेने के लिए एक फल की तरह इसे नहीं मानते हैं, इसलिए वे परमेश्वर के वचनों के सार को नहीं जानते। "यदि मानवजाति वास्तव में मेरी तलवार की धार को देखने में सक्षम होती, तो वह चूहों की तरह तेजी से दौड़ कर अपने बिलों में घुस जाती।" एक सामान्य व्यक्ति की स्थिति के आधार पर बोलते हुए, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद वे दंग रह जाएँगे, शर्म से भर जाएँगे, और दूसरों का सामना करने में असमर्थ होंगे। किन्तु अभी लोग ठीक विपरीत हैं—वे दूसरों के खिलाफ़ वार करने के लिए एक हथियार के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं। उन्हें वास्तव में कोई शर्म नहीं आती है!
हमें परमेश्वर के इन वचनों के साथ इस स्थिति में लाया गया है: "राज्य के भीतर, न केवल कथन मेरे मुख से निकलते हैं बल्कि मेरे पाँव भी ज़मीन पर हर जगह औपचारिक रूप से चलते हैं।" परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध में, परमेश्वर मार्ग के हर कदम को जीत रहा है। वह संपूर्ण ब्रह्मांड भर में बड़े पैमाने पर अपने कार्य का विस्तार कर रहा है, और यह कहा जा सकता है कि उसके पदचिन्ह हर जगह हैं, और उसकी जीत के चिन्ह हर जगह देखे सकते हैं। शैतान की योजनाओं में, वह देशों को तोड़ कर अलग करने के द्वारा परमेश्वर के प्रबंधन को नष्ट करना चाहता है, किन्तु परमेश्वर ने पूरे ब्रह्मांड के पुनर्गठन के लिए इसका उपयोग किया है, किन्तु इसे मिटाने के लिए नहीं। परमेश्वर हर दिन कुछ नया करता है किन्तु लोग इसके बारे में अवगत नहीं रहते हैं। लोग आध्यात्मिक दुनिया की गतिकी पर ध्यान नहीं देते हैं, इसलिए वे परमेश्वर के नये कार्य को देखने में असमर्थ हैं "ब्रह्माण्ड के भीतर, हर चीज, हृदयस्पर्शी पहलू प्रस्तुत करते हुए जिससे इंद्रियाँ मुग्ध हो जाती हैं और आत्माओं का उत्थान हो जाता है, मेरी महिमा के तेज से नयी हो जाती है, मानो कि अब मनुष्य स्वर्ग से परे स्वर्ग में विद्यमान हो, शैतान से बाधारहित, बाहरी शत्रुओं के हमलों से मुक्त, जैसा कि मानवीय कल्पना में समझा जाता है।" यह पृथ्वी पर मसीह के राज्य के आनंदपूर्ण दृश्य की भविष्यवाणी करता है, और यह मानवजाति को तीसरे स्वर्ग की स्थिति का भी परिचय देता है: वहाँ शैतान की सेनाओं के किसी भी प्रकार के आक्रमण के बिना केवल परमेश्वर की पवित्र चीजों का अस्तित्व है। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है लोगों को परमेश्वर स्वयं का पृथ्वी पर कार्य की परिस्थितियों को देखने की अनुमति देना: स्वर्ग एक नया स्वर्ग है, और उसके बाद पृथ्वी के पुरानेपन को बदल कर नया किया जाता है। क्योंकि यह परमेश्वर के स्वयं के मार्गदर्शन के अधीन जीवन है, इसलिए सभी लोग असीमित रूप से खुश हैं। लोगों की जानकारी में, शैतान मानवजाति का कैदी है और वे उसके अस्तित्व की वजह से बिल्कुल भी डरपोक या भयभीत नहीं हैं। दिव्य से सीधे निर्देश और मार्गदर्शन की वजह से, शैतान की सभी योजनाएँ शून्य हो गई हैं, जो यह भी साबित करता है कि यह अब और विद्यमान नहीं है, कि इसे परमेश्वर के कार्य द्वारा मिटा दिया गया है। यही कारण है कि यह कहा जाता है कि मनुष्य स्वर्गों से परे स्वर्ग में विद्यमान है। जो परमेश्वर ने कहा: "कभी भी कोई बाधा खड़ी नहीं हुई, न ही कभी ब्रह्माण्ड की एकता खंडित हुई है," वह आध्यात्मिक दुनिया की स्थिति के बारे में था। यही वह सबूत है जिससे परमेश्वर शैतान पर विजय की घोषणा करता है, और यह परमेश्वर की अंतिम जीत का चिन्ह है। कोई भी मनुष्य परमेश्वर का मन नहीं बदल सकता है, और कोई इसे जान नहीं सकता है। यद्यपि लोगों ने परमेश्वर के वचनों को पढ़ लिया है और उन्होंने इस पर सावधानीपूर्वक गंभीरता से विचार कर लिया है, चाहे जो भी हो, वे यह कहने में असमर्थ हैं कि इसका सार क्या है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने कहा: "मैं तारों के ऊपर से उड़ती हुई छलांग लगाता हूँ, और जब सूर्य अपनी किरणों की बौछार करता है तो मैं हंस के पंखों जितने बड़े हिमकणों के झौंकों को अपने हाथों से नीचे बहाते हुए उसकी गर्मी को मिटा देता हूँ। परंतु जब मैं अपना मन बदलता हूँ, तो सारा बर्फ पिघल कर एक नदी बन जाता है। एक ही पल में, आकाश के नीचे सब ओर बसंत फूट पड़ता है, और हरित-मणी जैसी हरियाली समस्त पृथ्वी के भूदृश्य को रूपान्तरित कर देती है।" यद्यपि लोग इन वचनों की अपने मन में कल्पना करने में समर्थ हैं, किन्तु परमेश्वर का इरादा इतना सरल नहीं है। जब स्वर्ग के नीचे हर कोई उलझन में होता है, तो परमेश्वर, लोगों के हृदय को जागृत करते हुए, उद्धार की वाणी कथन करता है। किन्तु क्योंकि सभी प्रकार की आपदाएँ पड़ रही हैं, इसलिए वे दुनिया की उदासीनता को महसूस करते हैं इसलिए वे सभी मौत की तलाश करते हैं और ठंडी, बर्फीली गुफाओं में हैं। वे बड़े बर्फीले तूफ़ान की ठंड से इस स्थिति तक जम गए हैं कि वे जीवित नहीं रह सकते हैं क्योंकि पृथ्वी पर कोई गर्मी नहीं है। यह लोगों की भ्रष्टता की वजह से है कि लोग एक दूसरे को अधिक से अधिक निर्दयता से मार रहे हैं। और कलीसिया में, अधिसंख्य लोग बड़े लाल अजगर द्वारा एक ही घूँट में निगल लिए जाएँगे। सभी परीक्षणों के गुज़र जाने के बाद, शैतान का व्यवधान हटा दिया जाएगा। रूपांतरण के बीच में, पूरी दुनिया में, इस प्रकार वसंत व्याप्त हो जाएगा और गर्मजोशी से दुनिया आवृत हो जाएगी। दुनिया ऊर्जा से भरी होगी। ये सभी समस्त प्रबंधन योजना के कदम हैं। "रात" का अर्थ जो परमेश्वर ने कहा था उस बात को संदर्भित करता है जब शैतान का पागलपन अपने चरम पर पहुँचता है, जो कि रात के दौरान होगा। क्या यह वर्तमान स्थिति नहीं है? यद्यपि सभी लोग परमेश्वर के प्रकाश के मार्गदर्शन के अधीन जीवित रहते हैं, फिर भी वे रात के अँधेरे के दुःख से गुजर रहे हैं। यदि वे शैतान के बंधन से बच कर नहीं निकल सकते हैं, तो वे अनंतकाल तक अँधेरी रात के बीच रहेंगे। फिर पृथ्वी पर देशों को देखो: परमेश्वर के कार्य के कदमों के कारण, पृथ्वी पर स्थित देश "इधर उधर भाग रहे हैं," और वे सभी अपने स्वयं की उपयुक्त मंजिल की तलाश कर रहे हैं। क्योंकि परमेश्वर का दिन अभी तक नहीं आया है, इसलिए पृथ्वी पर सब कुछ अभी भी गंदी अशांति की स्थिति में हैं। जब परमेश्वर स्पष्ट रूप से पूरे ब्रह्मांड में प्रकट होगा, तो उसकी महिमा से सिय्योन पर्वत भर जाएगा और सभी चीजें उसके हाथों की व्यवस्था के अधीन व्यवस्थित और स्वच्छ हो जाएँगी। परमेश्वर के वचन न केवल आज की बात करते हैं बल्कि कल की भविष्यवाणी भी करते हैं। आज कल की नींव है, इसलिए इस वर्तमान स्थिति में लोग परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह से समझने में असमर्थ हैं। केवल उसके वचनों के पूरी तरह से सम्पूर्ण होने के बाद ही वे उन्हें उनकी समग्रता से समझने में सक्षम होंगे।
परमेश्वर का आत्मा ब्रह्मांड में सभी जगह भरा हुआ है किन्तु वह सभी लोगों के भीतर भी कार्य करता है। इस तरह, ऐसा लगता है मानो कि लोगों के हृदय में परमेश्वर की आकृति हर जगह है, और हर स्थान में उसके आत्मा का कार्य समाविष्ट है। निस्संदेह, देह में परमेश्वर का प्रकटन शैतान के इन उदाहरणों को जीतना और अंत में उनको प्राप्त करना है। लेकिन देह में कार्य करते हुए, इन लोगों को रूपांतरित करने के लिए आत्मा भी देह के साथ सहयोग कर रहा है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के कार्य पूरे विश्व में फैले हुए हैं और कि उसके आत्मा से पूरा ब्रह्मांड भरा हुआ है, किन्तु उसके कार्य के कदमों के कारण, जो बुरा कर��े हैं उन्हें दंडित नहीं किया गया है, जबकि जो अच्छा करते हैं उन्हें पुरस्कृत नहीं किया गया है। इसलिए, उसके कर्मों की पृथ्वी पर सभी लोगों के द्वारा स्तुति नहीं की गई है। परमेश्वर सभी चीज़ों से ऊपर और उनके भीतर दोनों है, और उससे भी अधिक, वह सभी लोगों के बीच है। यह परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। क्योंकि वह स्पष्टरूप से मानवजाति के सामने प्रकट नहीं हुआ है, इसलिए लोगों ने भ्रम विकसित कर लिया है जैसे कि: "जहाँ तक मानवजाति का संबंध है, ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा अस्तित्व वास्तविक है, और फिर भी ऐसा भी प्रतीत होता है कि मेरा व्यक्तित्व नहीं है।" अब तक, परमेश्वर पर विश्वास करने वाले सभी लोगों में से, कोई भी, एक सौ प्रतिशत निश्चित नहीं है कि परमेश्वर सच में विद्यमान है। वे सभी तीन हिस्सा संदेह और दो हिस्सा विश्वास करते हैं। यह मानवजाति की वास्तविक स्थिति है। अब सभी लोग निम्नलिखित परिस्थितियों में होते हैं: वे विश्वास करते हैं कि एक परमेश्वर है, किन्तु उन्होंने उसे नहीं देखा है। या, वे यह विश्वास नहीं करते हैं कि एक परमेश्वर है, लेकिन कई कठिनाइयाँ हैं जिन्हें मानवजाति द्वारा हल नहीं किया जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ हमेशा उन्हें उलझन में डालने वाला कुछ है जिससे वे बच कर नहीं निकल सकते हैं। भले ही वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि वे हमेशा थोड़ी सी अस्पष्टता महसूस करते हैं। किन्तु यदि वे विश्वास नहीं करते हैं, तो उन्हें इसे खोने का भय होगा यदि यह वास्तव में सच होगा। यह उनकी दुविधा है।
"मेरे नाम के वास्ते, मेरे आत्मा के वास्ते, मेरी समस्त प्रबंधन योजना के वास्ते—कौन अपने शरीर की समस्त ताकत समर्पित करने में सक्षम है?" और उसने यह भी कहा: "आज, जब राज्य मनुष्यों के संसार में है, यही वह समय है कि मैं व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के संसार में आया हूँ। क्या कोई है जो, बहादुरी से, मेरी ओर से युद्ध क्षेत्र में जाता?" परमेश्वर के वचनों का लक्ष्य यह है: यदि देह में परमेश्वर सीधे उसका दिव्य कार्य नहीं करता, या यदि देहधारी परमेश्वर द्वारा नहीं, किन्तु वह मंत्रियों के माध्यम से ��ार्य करता, तो परमेश्वर बड़े लाल अजगर को जीतने में कभी ��ी समर्थ नहीं होता, और वह मानव जाति के बीच राजा के रूप में शासन करने में सक्षम नहीं होता। मानव जाति वास्तविकता में परमेश्वर स्वयं को जानने में समर्थ नहीं होगी, इसलिए यह अभी भी शैतान का शासन होगा। इस प्रकार, कार्य के इस चरण को परमेश्वर के देहधारी देह के माध्यम से अवश्य व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए। यदि देह बदल जाता तो योजना के इस चरण को कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता था क्योंकि भिन्न-भिन्न देहों का महत्व और सार एक सा नहीं है। लोग इन वचनों के केवल शाब्दिक अर्थ को ही समझ सकते हैं क्योंकि परमेश्वर मूल को पकड़ता है। परमेश्वर ने कहा: "किंतु, हर चीज पर विचार किए जाने पर, कोई भी ऐसा नहीं है जो समझता हो कि क्या यह पवित्रात्मा का कार्य है, या देह की क्रिया है। यही अकेली बात एक जीवनकाल के दौरान मनुष्य के लिए सूक्ष्म विस्तार में अनुभव पाने हेतु पर्याप्त है।" लोगों को कई वर्षों तक लगातार शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है, और उन्होंने आध्यात्मिक मामलों की धारणा को बहुत पहले ही खो दिया है। इस कारण से परमेश्वर के वचनों का सिर्फ एक वाक्य ही लोगों की आँखों के लिए दावत की तरह है। पवित्रात्मा और आत्माओं के बीच की दूरी के कारण, परमेश्वर पर विश्वास करने वाले सभी के पास उसके लिए लालसा की भावना है, और वे सभी करीब आने और अपने दिलों को उड़ेलने के इच्छुक हैं, फिर भी वे उसके संपर्क में आने का साहस नहीं करते हैं, और वे सिर्फ अचरज में रहते हैं। यह पवित्रात्मा के आकर्षण की सामर्थ्य है। क्योंकि परमेश्वर लोगों के प्यार करने के लिए एक परमेश्वर है, और उसमें उनके प्यार करने के लिए अनन्त तत्व हैं, इसलिए सभी लोग उसे प्यार करते हैं और वे सभी उस पर विश्वास करना चाहते हैं। वास्तव में, हर किसी के पास परमेश्वर के लिए प्रेम का हृदय है, यह केवल शैतान का व्यवधान है जिसने सुस्त, मंदबुद्धि, दयनीय लोगों को परमेश्वर को जानने में असमर्थ बना दिया है। यही कारण है कि परमेश्वर ने परमेश्वर की ओर मानवजाति की सच्ची भावनाओं को बताया: "मनुष्य ने अपने हृदय की अंतर्तम गहराईयों में मुझे कभी भी तिरस्कृत नहीं किया है, बल्कि, वह अपनी आत्मा की गहराई में मुझसे लिपटा रहता है। … मेरी वास्तविकता मनुष्य को अनिश्चित, अवाक् और व्यग्र कर देती है, और फिर भी वह सब स्वीकार करने के लिये तैयार है।" यह उन लोगों के हृदय की गहरी वास्तविक स्थिति है जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। जब लोग परमेश्वर को वास्तव में जान जाएँगे तो उनका उसके प्रति स्वाभाविक रूप से एक अलग रवैया होगा, और आत्मा की भूमिका के कारण वे अपने हृदय में गहराई से स्तुतियाँ कहने में समर्थ होंगे। परमेश्वर सभी लोगों की आत्माओं में गहरा है, किन्तु शैतान की भ्रष्टता के कारण उन्होंने भ्रमवश शैतान को परमेश्वर मान लिया है। आज परमेश्वर इसी पहलू से कार्य करता है, और यही आध्यात्मिक दुनिया की लड़ाई का शुरू से अंत तक केन्द्र बिन्दु रहा है।    
                                                 स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII परमेश्वर के अधिकार, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव, एवं परमेश्वर की पवित्रता का अवलोकन
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परमेश्वर के अधिकार, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव, एवं परमेश्वर की पवित्रता का अवलोकन
जब तुम अपनी प्रार्थनाओं को समाप्त करते हो, तो क्या तुम लोगों के हृदय को परमेश्वर की उपस्थिति में शांति महसूस होती है? (हाँ।) यदि किसी व्यक्ति के हृदय को शांत किया जा सकता है, तो वह परमेश्वर के वचन को सुनने एवं समझने में सक्षम होगा और वह सत्य को सुनने एवं समझने में सक्षम होगा। यदि तुम्हारा हृदय शांत होने में असमर्थ है, यदि तुम्हारा हृदय हमेशा भटकता रहता है, या हमेशा अन्य चीज़ों के बारे में सोचता रहता है, तो यह तुम्हारे एक साथ आकर परमेश्वर के वचन को सुनने पर असर डालेगा। अतः, जिस पर हम इस समय चर्चा कर रहे हैं उसके केन्द्र में क्या है? आइए हम सब उस मुख्य बिन्दु पर थोड़ा बहुत याद करें। स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है उसे जानने के लिहाज से, पहले भाग में हमने परमेश्वर के अधिकार पर चर्चा की थी। दूसरे भाग में हमने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर चर्चा की। और तीसरे भाग में हमने परमेश्वर की पवित्रता पर चर्चा की। क्या उस विशिष्ट विषयवस्तु ने तुम सभी लोगों पर कोई प्रभाव छोड़ा है जिस पर हमने हर बार चर्चा की है? पहले भाग में "परमेश्वर का अधिकार," में किस बात ने तुम लोगों पर अत्यंत गहरी छाप छोड़ी थी, किस भाग ने तुम लोगों पर सबसे अधिक प्रभाव छोड़ा था? (परमेश्वर ने पहले अधिकार एवं परमेश्वर के वचन की सामर्थ्‍य का संचार किया था; परमेश्वर अपने वचन के समान ही भला है और उसका वचन सच्चा साबित होगा। यह परमेश्वर का अंतर्निहित सार है।) (शैतान के लिए परमेश्वर की आज्ञाएँ थीं कि वह अय्यूब की परीक्षा ले सकता है, लेकिन उसके जीवन को नहीं ले सकता है। इससे हम परमेश्वर के वचन के अधिकार को देखते हैं।) क्या जोड़ने के लिए कोई और बात है? (परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी और उसके भीतर का सब कुछ बनाने के लिए वचनों का प्रयोग करता है और मनुष्य के साथ एक वाचा बांधने के लिए बोलता है और वह इंसान के ऊपर अपनी आशीषों को रखने के लिए बोलता है। ये सभी परमेश्वर के वचन के अधिकार के उदाहरण हैं। इसके अलावा जब प्रभु यीशु ने लाज़र को आज्ञा दी कि कब्र में से बाहर निकल आए तब हम देखते हैं कि ज़िन्दगी और मौत परमेश्वर के नियन्त्रण में है, जिसे नियन्त्रित करने के लिए शैतान के पास कोई शक्ति नहीं है, और यह कि चाहे परमेश्वर का कार्य देह में किया गया हो या आत्मा में, उसका अधिकार अद्वितीय है।) यह एक ऐसी समझ है जो तुमने संगति के बाद पायी है, है ना? जब हम परमेश्वर के अधिकार के बारे में बात करते हैं, तो "अधिकार" शब्द के विषय में तुम लोगों की समझ क्या है? परमेश्वर के अधिकार के दायरे के भीतर, जो कुछ परमेश्वर अंजाम देता है और प्रगट करता है उसमें, लोग क्या देखते हैं? (हम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्‍ता एवं बुद्धिमत्ता को देखते हैं।) (हम देखते हैं कि परमेश्वर का अधिकार हमेशा मौजूद है और यह कि वह सचमुच में, एवं वाकई में अस्तित्व में है।) (हम जगत के ऊपर बड़े पैमाने पर उसकी प्रभुता में परमेश्वर के अधिकार को देखते हैं, और जिस तरह वह मानव जीवन को नियन्त्रण में लेता है हम इसे छोटे पैमाने पर देखते हैं। परमेश्वर वास्तव में जीवन के छः घटनाक्रमों को नियोजित और नियन्त्रित करता है। इसके अतिरिक्त, हम देखते हैं कि परमेश्वर का अधिकार स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है, उसका प्रतिनिधित्व करता है, और कोई भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी इसे धारण नहीं कर सकता है। परमेश्वर का अधिकार उसकी हैसियत का प्रतीक होता है।) "परमेश्वर की हैसियत और परमेश्वर की पदस्थिति के प्रतीक," ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोगों को इन वचनों की सैद्धान्तिक समझ है। क्या तुममें परमेश्वर के अधिकार की सारभूत समझ है? (जब हम छोटे से थे तब से परमेश्वर ने हमारी निगरानी की है और हमारी सुरक्षा की है, और हम इस में परमेश्वर के अधिकार को देखते हैं। हम हमेशा उन स्थितियों को नहीं समझते थे जो हम पर आ पड़ती थीं, लेकिन दृश्य के पीछे परमेश्वर हमेशा हमारी सुरक्षा कर रहा था; यह भी परमेश्वर का अधिकार है।) बहुत अच्छा, ठीक कहा!
जब हम परमेश्वर के अधिकार, एवं उस मुख्य बिन्दु के बारे में बात करते हैं तो ध्यान कहाँ केन्द्रित होता है? हमें इस विषयवस्तु पर चर्चा करने की आवश्यकता क्यों है? सबसे पहले, तो इस विषय पर चर्चा करने का प्रयोजन यह है कि लोग एक सृष्टिकर्ता के तौर पर परमेश्वर के रुतबे की और हर चीज़ के मध्य उसकी स्थिति की पुष्टि करें; इस चीज़ को लोग समझ सकते हैं, देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं। जो कुछ तुम देखते हो और जो कुछ तुम महसूस करते हो, वह परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के वचन एवं संसार के ऊपर परमेश्वर के नियन्त्रण से है। अतः, जो कुछ लोग परमेश्वर के अधिकार के माध्यम से देखते हैं, परमेश्वर के अधिकार के माध्यम से सीखते हैं, और परमेश्वर के अधिकार के माध्यम से जानते हैं, उन्हें इनसे कौन सी सच्ची समझ प्राप्त होती है? यह पहली चीज़ है जिस पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। दूसरा, जब लोग उन सभी चीज़ों को देखते हैं जिन्हें परमेश्वर ने किया है एवं कहा है और अपने अधिकार के माध्यम से नियन्त्रित किया है, तो यह उन्हें परमेश्वर की बुद्धि एवं सामर्थ्य को देखने की अनुमति देता है। यह उन्हें अनुमति देता है कि हर एक चीज़ का नियन्त्रण करने के लिए परमेश्वर की महान सामर्थ्य को देखें और यह देखें कि वह कितना बुद्धिमान है जब वह ऐसा करता है। क्या यह परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार का केन्द्र बिन्दु एवं मुख्य बात नहीं है जिस पर हमने पहले चर्चा की थी? ज़्यादा समय नहीं बीता है और फिर भी कुछ लोगों ने इसे भुला दिया है, जो यह साबित करता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर के अधिकार को पूरी तरह से नहीं समझा है; कोई यह भी कह सकता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर के अधिकार को नहीं देखा है। क्या अब तुम लोग इसे थोड़ा-बहुत समझते हो? जब तुम परमेश्वर के अधिकार को कार्य करते हुए देखते हो, तो तुम सचमुच क्या महसूस करोगे? क्या तुमने वाकई में परमेश्वर की सामर्थ्य को महसूस किया है? (हमने किया है।) जब तुम संसार की उसकी सृष्टि के बारे में परमेश्वर के वचन को पढ़ते हो तो तुम उसकी सामर्थ्य को महसूस करते हो, एवं उसकी सर्वसामर्थ्य को महसूस करते हो। जब तुम मनुष्यों की नियति के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व को देखते हो, तो तुम क्या महसूस करते हो? क्या तुम उसकी सामर्थ्य एवं उसकी बुद्धि को महसूस करते हो? यदि परमेश्वर ने इस सामर्थ्य को धारण नहीं किया होता, यदि उसने इस बुद्धि को धारण नहीं किया ह���ता, तो क्या वह संसार के ऊपर और मनुष्यों की नियति के ऊपर प्रभुता रखने के योग्य होता? यदि किसी के पास अपने कार्य को करने की योग्यता नहीं है, यदि उसमें आवश्यक क्षमता नहीं है और उसमें उपयुक्त कौशल एवं ज्ञान की कमी है, तो क्या वह अपने कार्य के लायक है? वह निश्चित रूप से योग्य नहीं होगा; महान कार्य करने के लिए किसी व्यक्ति की क्षमता इस बात पर निर्भर होती है कि उसकी योग्यताएँ कितनी महान हैं। परमेश्वर ऐसी सामर्थ्य साथ ही साथ ऐसी बुद्धि को धारण किए हुए है, और इस प्रकार उसके पास वह अधिकार है; यह अद्वितीय है। क्या तुम संसार में किसी ऐसे प्राणी या व्यक्ति को जानते हो जो उसी सामर्थ्य को धारण किए हुए है जो परमेश्वर के पास है? क्या कोई ऐसा है जिसके पास स्वर्ग एवं पृथ्वी और सभी चीज़ों की सृष्टि करने की सामर्थ्य है, साथ ही साथ उनके ऊपर नियन्त्रण एवं प्रभुत्व है? क्या कोई व्यक्ति या कोई चीज़ है जो पूरी मानवता पर शासन कर सकता है एवं उसका नेतृत्व कर सकता है और सदा-मौजूद एवं सर्वउपस्थित दोनों हो सकता है? (नहीं, कोई नहीं है।) क्या अब तुम लोग उन सब का अर्थ समझते हो जो परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार में सम्मिलित है? क्या तुम लोगों के पास कुछ समझ है? (हाँ, है।) हमने अब उन बिन्दुओं का पुनःअवलोकन किया है जो परमेश्वर के अधिकार को समाविष्ट करते हैं।
दूसरे भाग में हमने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में बात की थी। हमने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सम्बन्ध में बहुत-सी बातों की चर्चा नहीं की। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस चरण में परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से न्याय एवं ताड़ना है। राज्य के युग में, विशेष रूप से, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को स्पष्ट रूप से प्रगट किया गया है। उसने ऐसे वचन कहे हैं जिन्हें उसने सृष्टि के आरम्भ के समय से कभी नहीं कहा था; और उसके वचनों में सभी लोगों ने, उन सभी ने जिन्होंने उसके वचन को देखा है, और उन सभी ने जिन्होंने उसके वचन का अनुभव किया है उन्होंने उसके धार्मिक स्वभाव को प्रगट होते हुए देखा है। तो हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में जो कुछ चर्चा कर रहे हैं उसका मुख्य बिन्दु क्या है? जो कुछ तुम लोगों ने सीखा है क्या उसके विषय में तुम लोगों ने एक गहरी समझ विकसित कर ली है? क्या तुम लोगों ने अपने किसी अनुभव से समझ प्राप्त की है? (परमेश्वर के द्वारा सदोम को इसलिए जलाया गया क्योंकि उस समय के लोग बहुत भ्रष्ट हो गए थे और इसके परिणामस्वरूप उन्होंने परमेश्वर के क्रोध को आकृष्ट किया था। इसी से ही हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हैं।) पहले, आइए हम एक नज़र डालें: यदि परमेश्वर ने सदोम का नाश नहीं किया होता, तो क्या तुम उसके धार्मिक स्वभाव के बारे में जानने में सक्षम हो पाते? तुम तब भी उसे जानने में सक्षम होते, है ना? तुम इसे उन वचनों में देख सकते हो जिन्हें उसने राज्य के युग में व्यक्त किया है, और साथ ही उसके न्याय, ताड़ना, एवं अभिशापों में भी देख सकते हो जिन्हें मनुष्य के विरूद्ध लगाया गया था। उसके द्वारा नीनवे को बख्श दिए जाने से क्या तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हो? (हाँ, देखते हैं।) इस युग में, तुम परमेश्वर की दया, प्रेम एवं सहनशीलता की कुछ बातों को देख सकते हो। तुम इसे देख सकते हो जब मनुष्य पश्चाताप करते हैं और उनके प्रति परमेश्वर का हृदय परिवर्तित होता है। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर चर्चा करने के लिए इन दो उदाहरणों को आधार वाक्य के रूप में उपयोग करने से, यह देखना बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उसका धार्मिक स्वभाव प्रगट कर दिया गया है। फिर भी, वास्तविकता में जो कुछ बाइबल की इन दो कहानियों में दर्ज किया गया है यह उन तक सीमित नहीं है। परमेश्वर के वचन एवं उसके कार्य के माध्यम से अब जो कुछ तुम लोगों ने सीखा एवं देखा है उससे, उनके विषय में तुम लोगों के वर्तमान अनुभवों से, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव क्या है? तुम लोग अपने ख़ुद के अनुभवों से चर्चा करो। (उन परिवेशों में जिन्हें परमेश्वर ने लोगों के लिए सृजा है, जब वे सत्य की खोज करने में एवं परमेश्वर की इच्छा के अंतर्गत कार्य कर पाते हैं, तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता है, उन्हें प्रबुद्ध करता है, और उन्हें उस प्रकाश को महसूस करने की अनुमति देता है जो उनके भीतर होता है। जब लोग परमेश्वर के विरूद्ध हो जाते हैं, और उसका विरोध करते हैं और उसकी इच्छा के विपरीत जाते हैं, तो उनके भीतर अंधेरा होता है, मानो परमेश्वर ने उन्हें त्याग दिया हो। यहाँ तक कि वे प्रार्थना करते हैं पर यह नहीं जानते हैं कि उससे कहना क्‍या है, लेकिन जब वे अपनी धारणाओं एवं कल्पनाओं को एक तरफ रख देते हैं, परमेश्वर के साथ सहयोग करने को तैयार हो जाते हैं और बेहतर होने के लिए संघर्ष करते हैं, तो यही वह समय है जब परमेश्वर का मुस्��ुराता हुआ चेहरा धीरे-धीरे प्रकट होना शुरू हो जाता है। इससे हमने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की पवित्रता का अनुभव किया है; परमेश्वर पवित्र राज्य में प्रकट होता है और वो गंदगी भरी जगहों में छिपा है।) (जिस रीति से परमेश्वर लोगों से व्यवहार करता है उसमें मैं उसके धार्मिक स्वभाव को देखता हूँ। हमारे भाई-बहन अपने स्‍तर एवं क्षमता में अलग-अलग हैं, और जो कुछ परमेश्वर हम में से प्रत्येक से अपेक्षा करता है वह भी भिन्न है। हम सभी विभिन्न मात्राओं में परमेश्वर की प्रबुद्धता को प्राप्त करने में सक्षम हैं, और इस रीति से मैं परमेश्वर की धार्मिकता को देखता हूँ। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य ठीक इसी रीति से मनुष्य से बर्ताव नहीं कर सकता है, केवल परमेश्वर ही ऐसा कर सकता है।) तुम सभी ने कुछ व्यवहारिक ज्ञान की बातें कही हैं।
क्या तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जानने के विषय में मुख्य बिन्दु को समझते हो? इस सम्बन्ध में, किसी व्यक्ति के पास अनुभव से बहुत सारे वचन हो सकते हैं, लेकिन कुछ मुख्य बिन्दु हैं जिनके विषय में मुझे तुम लोगों को बताना चाहिए। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने के लिए, पहले परमेश्वर की भावनाओं को समझना होगा: वह किससे नफरत करता है, वह किससे घृणा करता है, और वह किससे प्यार करता है, वह किसको बर्दाश्त करता है, वह किसके प्रति दयालु है, और किस प्रकार का व्यक्ति उस दया को प्राप्त करता है। यह जानने हेतु एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। इसके अलावा, यह समझना होगा कि परमेश्वर कितना भी प्रेमी हो उसके पास लोगों के लिए कितनी भी दया एवं प्रेम हो, परमेश्वर बर्दाश्त नहीं करता कि कोई उसकी प्रतिष्‍ठा एवं पदस्थिति को ठेस पहुँचाए, न ही वह यह बर्दाश्त करता है कि कोई उसकी मर्यादा को ठेस पहुँचाए। यद्यपि परमेश्वर लोगों से प्यार करता है, फिर भी वह उन्हें बिगाड़ता नहीं करता है। वह लोगों को अपना प्यार, अपनी दया एवं अपनी सहनशीलता देता है, लेकिन व‍ह नीच कार्य में कभी उनकी सहायता नहीं करता; उसके पास अपने सिद्धान्त एवं अपनी सीमाएँ हैं। इसकी परवाह किए बगैर कि तुमने स्वयं में किस हद तक परमेश्वर के प्रेम का एहसास किया है, इसकी परवाह किए बगैर कि वह प्रेम कितना गहरा है, तुम्हें परमेश्वर से कभी ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए जैसा तुम किसी अन्य व्यक्ति से करते हो। जबकि यह सच है कि परमेश्वर लोगों से ऐसा बर्ताव करता है जैसे वे उसके करीब हों, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को किसी अन्य ��्यक्ति के रुप में देखता है, मानो वह सृष्टि का मात्र कोई अन्य प्राणी हो, जैसे कोई मित्र या आराधना की कोई वस्तु, तो परमेश्वर उनसे अपने मुख को छिपा लेगा और उन्हें त्याग देगा। यह उसका स्वभाव है, और वह बर्दाश्त नहीं करता है कि इस मुद्दे पर कोई उससे लापरवाही के साथ बर्ताव करे। अतः परमेश्वर के वचन में उसके धार्मिक स्वभाव के विषय में अकसर कहा जाता हैः चाहे तुमने कितने ही मार्गों पर यात्रा की हो, तुमने कितना ही अधिक काम किया हो या तुमने कितना कुछ सहन किया है, जैसे ही तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को ठेस पहुँचाते हो, तो जो कुछ तुमने किया है उसके आधार पर वह तुममें से प्रत्येक को प्रतिफल देगा। इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर लोगों को ऐसा देखता है जैसे वे उसके करीबी हैं, लेकिन लोगों को परमेश्वर से एक मित्र या एक रिश्तेदार के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहिए। परमेश्वर को अपने हमउम्र दोस्त के रूप में मत समझिए। चाहे तुमने उससे कितना ही प्रेम प्राप्त किया हो, चाहे उसने तुम्हें कितनी ही सहनशीलता दी हो, तुम्हें कभी भी परमेश्वर से मात्र एक मित्र के रूप में बर्ताव नहीं करना चाहिए। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। तुम समझ गए, ठीक है? क्या मुझे इसके विषय में और अधिक कहने की ज़रूरत है? क्या इस मुद्दे पर तुम लोगों के पास पहले से ही कोई समझ है? सामान्य रूप से कहें, तो यह एक ऐसी गलती है जो लोग सबसे आसानी से इस बात की परवाह किए बगैर करते हैं कि वे सिद्धान्तों को समझते भी हैं या नहीं, या उन्होंने इसके विषय में पहले कुछ सोचा भी है या नहीं। जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है ऐसा किसी एक घटना, या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये के कारण और ऐसी दशा के कारण हो जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पास परमेश्वर की समझ है, यह कि वे उसे जानते हैं, वे शायद ऐसी चीज़ों को भी कर सकते हैं जो परमेश्वर को प्रसन्न करेंगी। वे महसूस करना शुरू कर देते हैं कि वे परमेश्वर के तुल्य हैं और यह कि वे चतुराई से परमेश्वर के मित्र हो गए हैं। इस प्रकार की भावनाएँ खतरनाक रूप से गलत हैं। यदि तुम्हारे पास इसकी गहरी समझ नहीं है, यदि तुम इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझते हो, तब परमेश्वर को ठेस पहुँचाना और उसके धार्मिक स्वभाव को ठेस पहुँचाना बहुत आसान होता है। अब तुम इसे समझ गए हो, सही है? क्या परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अद्वितीय नहीं है? क्या यह मानवजाति के व्यक्तित्व या मनुष्य के व्यक्तिगत गुणों के बराबर है? कभी नहीं, है ना? अतः, तुम्हें नहीं भूलना चाहिए कि चाहे परमेश्वर लोगों से कैसा भी बर्ताव करे, चाहे वह लोगों के बारे में किसी भी प्रकार सोचता हो, परमेश्वर की पदस्थिति, अधिकार, और हैसियत कभी नहीं बदलती है। मानवजाति के लिए, परमेश्वर हमेशा से सब का परमेश्वर और सृष्टिकर्ता है! तुम समझ गए, है ना?
तुम लोगों ने परमेश्वर की पवित्रता के बारे में क्या सीखा है? शैतान की बुराई के विपरीत होने के अलावा, परमेश्वर की पवित्रता की चर्चा में मुख्य विषय क्या था? क्या यह वही नहीं है जो परमेश्वर का अस्तित्‍व है? क्या यह उनका अस्‍तित्‍व जो ऐसा अद्वितीय है? (हाँ।) उसकी सृष्टि में किसी के भी पास यह नहीं है, अतः हम कहते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता अद्वितीय है। इस बात को तुम लोग सीख सकते हो। हमने परमेश्वर की पवित्रता पर तीन सभाएँ की थीं। क्या तुम लोग अपने शब्दों में, अपनी समझ से इसका वर्णन कर सकते हो, कि तुम लोग परमेश्वर की पवित्रता के विषय में क्या सोचते हो? (पिछली बार जब परमेश्वर ने हमसे संवाद किया था तब हम उसके सामने नीचे झुक गए थे। परमेश्वर ने हमसे अपनी आराधना के लिये साष्टांग दंडवत करने और झुकने से संबंधित सच्चाई पर सहभागिता की थी। हमने देखा था कि जब हम उसकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो परमेश्वर के सामने हमारा झुकना उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं था और इससे हमने परमेश्वर की पवित्रता को देखा।) बिलकुल सही है। और कोई बात? (मानवजाति के लिए परमेश्वर के वचनों में, हम देखते हैं कि वह सरल रूप से और स्पष्ट रूप से बोलता है, वह सीधा एवं सटीक है। शैतान गोलमोल तरीके से बोलता है और वह झूठ से भरा हुआ है। पिछली बार जब हम परमेश्वर के सामने दण्डवत् करते हुए लेटे थे तब जो कुछ हुआ था उससे, हमने देखा था कि उसके वचन एवं उसके कार्य हमेशा सैद्धान्तिक होते हैं। जब वह हमें बताता है कि हमें किस प्रकार कार्य करना चाहिए, तब वह हमेशा बिलकुल स्पष्ट एवं संक्षिप्त होता है हमें किसका पालन करना चाहिए, और हमें किस प्रकार कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन लोग इस तरह के नहीं होते हैं; जब शैतान के द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया गया था तो, लोगों ने अपने कार्यों एवं वचनों में अपने व्यक्तिगत इरादों, उद्देश्यों और इच्छाओं को हासिल करने का प्रयास किया था। जिस तरह से परमेश्वर मानवजाति की देखरेख करता है, उस देखभाल एवं सुरक्षा से जिन्हें वह उन्हें देता है, हम देखते हैं कि वह जो कुछ करता है वह बहुत ही सकारात्मक और स्पष्ट है। इसी रीति से हम परमेश्वर की पवित्रता के सार के प्रकाशन को देखते हैं।) बढ़िया कहा! क्या कोई इसमें कुछ और बात जोड़ सकता है? (परमेश्वर जब शैतान की दुष्टता उजागर करता है तो हम परमेश्वर की पवित्रता को देखते हैं। परमेश्वर जब हमें शैतान का सार दिखाता है तो हम उसकी दुष्टता को और अधिक जानने लगते हैं और हम इंसान के सभी कष्टों के स्रोत को जान जाते हैं। पहले हम शैतान के अधिकार क्षेत्र की पीड़ा से अनजान थे। जब परमेश्वर ने इसे प्रगट किया तब हमें पता चला कि प्रसिद्धि एवं सौभाग्य के पीछे भागने से जो कष्ट आते हैं, वे सब शैतान के द्वारा पैदा किये गए हैं। इसी के माध्यम से हम महसूस करते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता मानवजाति का सच्चा उद्धार है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर उद्धार पाने हेतु हमारे लिए परिस्थितियों को तैयार करता है; हो सकता है वह हमें किसी धनी परिवार में पैदा न करे, लेकिन वह यह सुनिश्चित करता है कि हम एक उपयुक्त परिवार में और एक उपयुक्त वातावरण में पैदा हों। साथ ही वह हमें शैतान के नुकसान और पीड़ा से भी बचाता है, ताकि अंतिम दिनों में परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने के लिये हमारे पास अनुकूल परिस्थितियाँ, सामान्य विचार एवं सामान्य विवेक हो सके। इन सब में हम परमेश्वर की योजनाओं की बारीकी को, उसकी व्यवस्थाओं को भी देखते हैं और यह भी देखते हैं कि वह किस प्रकार उन्हें क्रियान्वित करता है। हमें शैतान के प्रभाव से बचाने के उसके विस्तृत कार्य को हम बेहतर ढंग से देख सकते हैं और हम मानवजाति के लिए परमेश्वर की पवित्रता और उसके प्रेम को देखते हैं।) क्या उसमें जोड़ने के लिए कोई और बात है? (भ्रष्ट इंसान में परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान या उसके लिये प्रेम का अभाव है। चूँकि हम परमेश्वर की पवित्रता के मूल-तत्व को नहीं समझते हैं, आराधना में हमारा उसके सामने झुकना अशुद्ध है, इसका एक गुप्त अभिप्राय होता है और इसे जानबूझकर किया जाता है, जो परमेश्वर को दुःखी करता है। परमेश्वर शैतान से बहुत अलग है; शैतान चाहता है कि लोग उससे अत्यधिक प्यार एवं उसकी चापलूसी करें और झुककर उसकी आराधना करें। शैतान में आदर्शों की कमी है। इससे मैं परमेश्वर की पवित्रता की सराहना करता हूँ।) बहुत अच्छा! परमेश्वर की पवित्रता के बारे में हमने जो कुछ संगति की है उससे, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर की पूर्णता को देखा है? (देखा है।) क्या तुम लोगों ने देखा है कि किस प्रकार परमेश्वर सभी सकारात्मक चीज़ों का स्रोत है? क्या तुम लोग यह देखने में सक्षम हो कि किस प्रकार परमेश्वर सत्य एवं न्याय का मूर्त रूप है? क्या तुम लोग देखते हो कि किस प्रकार परमेश्वर प्रेम का स्रोत है? क्या तुम लोग देखते हो कि किस प्रकार वह सब जिसे परमेश्वर करता है, वह सब जिसे वह जारी करता है, और वह सब जिसे वह प्रगट करता है वह त्रुटिहीन है? (हमने इसे देखा है।) ये अनेक उदाहरण परमेश्वर की पवित्रता के विषय में समस्त मुख्य बिन्दु हैं जिन्हें मैं बताता हूँ। आज शायद ये वचन तुम लोगों के लिए महज सिद्धान्त हों, लेकिन एक दिन जब तुम उसके वचन एवं उसके कार्य से सच्चे स्वयं परमेश्वर का अनुभव करोगे और देखोगे, तब तुम अपने दिल की गहराई से कहोगे कि परमेश्वर पवित्र है, परमेश्वर मानवजाति से भिन्न है, उसका हृदय, उसका स्वभाव और उसका सार पवित्र है। इस पवित्रता से इंसान उसकी पूर्णता देख सकता है, और साथ ही साथ इंसान यह भी देख सकता है कि परमेश्वर की पवित्रता का सार निष्कलंक है। उसकी पवित्रता का सार यह निर्धारित करता है कि वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है, और यह मनुष्य को दिखाता है, और साबित करता है कि वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है। क्या यह मुख्य बिन्दु नहीं है? (है।)
आज हमने पिछली सभाओं की विषयवस्तु के अनेक भागों की समीक्षा की है। हम यहाँ अपनी समीक्षा को पूरा करेंगे। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग प्रत्येक वस्तु एवं विषय के मुख्य बिन्दुओं को आत्मसात करोगे। इन्हें सिर्फ सिद्धान्त न समझो; जब भी तुम लोगों के पास समय हो तो उन्हें समझने का प्रयास करो। उन्हें याद रखो और अमल में लाओ और तुम वाकई वह सब सीख जाओगे जो मैंने परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप के सच्चे प्रकाशन के विषय में कहा है। लेकिन यदि तुम उन्हें केवल अपनी किताब में लिख लोगे और उन्हें पढ़ोगे नहीं या उन पर विचार नहीं करोगे तो तुम उन्हें कभी नहीं समझ पाओगे। अब तुम समझ गए न? इन तीन अंशों पर वार्तालाप करने के बाद, लोगों ने परमेश्वर की हैसियत, उसके सार, और उसके स्वभाव के विषय में एक सामान्य—या यहाँ तक कि विशिष्ट—समझ प्राप्त कर ली होगी। लेकिन क्या उनके पास परमेश्वर की पूर्ण समझ होगी? (नहीं।) अब, परमेश्वर के विषय में तुम लोगों की अपनी समझ में, क्या ऐसे अन्य क्षेत्र हैं जहाँ तुम लोग महसूस करते हो कि तुम लोगों को एक गहरी समझ की आवश्यकता है? कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव, एवं उसकी पवित्रता की समझ को प्राप्त कर लेने के बाद, कदाचित् तुमने अपने मन में उसकी अद्वितीय हैसियत एवं पद स्थिति के विषय में एक पहचान स्थापित कर ली होगी, फिर भी, इससे पहले कि तुम एक गहरी समझ को प्राप्त कर सको, तुम्हें अपने अनुभव से उसके कार्यों, उसकी सामर्थ्य एवं उसके सार को जानना होगा और उसकी समीक्षा करनी होगी। तुम लोगों ने अभी इन संगतियों को सुना है अतः तुम लोग अपने अपने हृदय में विश्वास के इस लेख को स्थापित कर सकते हो: परमेश्वर सचमुच में मौजूद है, और यह एक तथ्य है कि वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्‍व रखता है। किसी भी मनुष्य को उसके धार्मिक स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए और उसकी पवित्रता एक निश्चितता है जिस पर कोई मनुष्य प्रश्न नहीं कर सकता है। ये तथ्य हैं। इन संगतियों से लोगों के हृदय में परमेश्वर की हैसियत एवं पदस्थिति का आधार बनता है। एक बार जब यह आधार बन जाए, तो, लोगों को परमेश्वर के बारे में और अधिक जानने का प्रयास करना चाहिये।
                                                             स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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अध्याय 14
मनुष्य ने परमेश्वर के वचन से कभी भी कुछ नहीं सीखा है। इसके बजाय, मनुष्य परमेश्वर के वचन की केवल सतह को ही सँजोए रखता है, किन्तु इसके सही अर्थ को नहीं जानता है। इसलिए, यद्यपि अधिकांश लोग परमेश्वर के वचन से प्रेम करते हैं, फिर भी परमेश्वर कहता है कि वे वास्तव में इसे सँजोए नहीं रखते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के दृष्टिकोण में, भले ही उसका वचन एक मूल्यवान वस्तु है, फिर भी लोगों ने इसकी सच्ची मिठास को नहीं चखा है। इसलिए, वे केवल "बेर के फलों के विचारों से अपनी प्यास बुझा सकते हैं,"[क] और इस तरह अपने लालची हृदय को शांत कर सकते हैं। परमेश्वर का आत्मा न केवल सभी लोगों के बीच कार्य में लगा है, बल्कि इसमें परमेश्वर के वचन की प्रबुद्धता भी है। बात सिर्फ इतनी है कि लोग इतने लापरवाह हैं कि वास्तव में इसके सार की सराहना करने में अक्षम हैं। मनुष्य के मन में, यह राज्य का युग है जो अब पूरी तरह से महसूस किया जा रहा है, किन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है। यद्यपि परमेश्वर उसी की भविष्यवाणी करता है जो उसने पूरा किया है, वास्तविक राज्य अभी तक पूरी तरह से पृथ्वी पर नहीं आया है। बजाय, मानवजाति में परिवर्तन के साथ, कार्य में प्रगति के साथ, पूर्व से आती हुई चमकती बिजली के साथ, अर्थात्, परमेश्वर के वचन के गहरे होते जाने के साथ, राज्य धीरे धीरे पृथ्वी पर आएगा, धीरे-धीरे किन्तु पूरी तरह से पृथ्वी पर आ जाएगा। राज्य के आने की प्रक्रिया पृथ्वी पर दिव्य कार्य की प्रक्रिया भी है। इसी के साथ-साथ, परमेश्वर ने पूरी पृथ्वी के पुनर्गठन के लिए पूरे ब्रह्माण्ड में उस कार्य को आरंभ कर दिया है जो कि इतिहास के किसी भी युग में नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, इजरायल राज्य में परिवर्तन, संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्यविप्लव, मिस्र में परिवर्तन, सोवियत संघ में परिवर्तन, और चीन में तख्तापलट सहित, संपूर्ण ब्रह्मांड में भारी परिवर्तन हैं। जब पूरा ब्रह्मांड शांत हो जाता है और सामान्य रूप से बहाल हो जाता है, तभी पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पूरा होगा; तभी राज्य पृथ्वी पर आएगा। यही "जब विश्व के सभी राष्ट्र तितर-बितर हो जाते हैं, यह ठीक तब होगा जब मेरा राज्य स्थापित होकर आकार ले लेगा और साथ ही जब मैं भी रूपान्तरित होकर समस्त विश्व की ओर मुड़ूँगा।" इन वचनों का स��ी अर्थ है। परमेश्वर मानवजाति से कुछ भी नहीं छुपाता है, उसने लगातार अपनी समृद्धि ��े बारे में लोगों को बताया है, किन्तु वे उसका अर्थ नहीं समझ सकते हैं, वे केवल मूर्ख की तरह उसके वचन को स्वीकार करते हैं। कार्य के इस चरण पर, मनुष्य ने परमेश्वर की अगाधता को सीखा है और इसके अलावा वह महसूस कर सकता है कि उसे समझने का कार्य कितना विशाल है; इस कारण से उन्होंने महसूस किया है कि परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे कठिन कार्य है। वे पूरी तरह से असहाय ह��ं—यह एक सुअर को गाना सिखाने जैसा है, या चूहेदानी में फँसे किसी चूहे की तरह है। निस्संदेह, इस बात की परवाह किए बिना कि किसी व्यक्ति के पास कितनी सामर्थ्य है या किसी व्यक्ति का कौशल कितना निपुण है, या चाहे किसी व्यक्ति के अंदर असीम क्षमताएँ हैं, जब परमेश्वर के वचन की बात आती है, तो ये बातें कोई मायने नहीं रखती हैं। यह ऐसा है मानो कि परमेश्वर की नज़रों में मानवजाति, किसी भी मूल्य से पूरी तरह से रहित, जले हुए कागज़ की राख का ढेर है, उपयोग की तो बात ही छोड़ो। यही "मनुष्य की भ्रष्टता के साथ मैं मनुष्यों से और भी अधिक छिप गया हूँ उनके लिए अधिक से अधिक अथाह बन गया हूँ" वचनों के सही अर्थ का परिपूर्ण उदाहरण है। इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य प्राकृतिक अनुक्रम का अनुसरण करता है और मानव के बोधात्मक अंग क्या समझ सकते हैं इसके आधार पर किया जाता है। जब मानवजाति का स्वभाव दृढ़ और अविचलित होता है, तो परमेश्वर जिन वचनों को बोलता है वे पूरी तरह से उनकी धारणाओं के अनुरूप होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो कि परमेश्वर और मानवजाति की धारणाएँ, बिना किसी अंतर के, बिल्कुल एक जैसी हैं। यह लोगों को परमेश्वर की वास्तविकता के बारे में कुछ-कुछ अवगत कराता है, किन्तु यह परमेश्वर का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर धरती पर अपना सच्चा कार्य शुरू करने से पहले लोगों को औपचारिक रूप से बसने की अनुमति देता है। इसलिए, इस शुरुआत के दौरान जो कि मानवजाति के लिए भ्रामक है, मानवजाति को महसूस होता है कि उसके पूर्व के विचार गलत थे और परमेश्वर और मनुष्य स्वर्ग और पृथ्वी के समान भिन्न हैं और बिल्कुल भी समान नहीं हैं। क्योंकि मनुष्य की धारणाओं के आधार पर परमेश्वर के वचनों का अब और मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, इसलिए मनुष्य तुरंत एक नई रोशनी में परमेश्वर को देखना शुरू कर देता है, और उसके बाद वे विस्मय से परमेश्वर को टकटकी लगा कर देखते हैं, मानो कि व्यावहारिक परमेश्वर उतना ही अगम्य है जितना कि अदृश्य और अस्पृश्य परमेश्वर है, मानो कि परमेश्वर का देह केवल बाह्य रूप से और उसके सार के बिना है। लोगों को लगता है कि[ख] यद्यपि वह पवित्रात्मा का देहधारण है, फिर भी वह पवित्रात्मा के रूप में परिवर्तित हो सकता है और किसी भी समय बह कर दूर जा सकता है। इसलिए, लोगों ने कुछ-कुछ संरक्षित मानसिकता विकसित कर ली है। परमेश्वर के उल्लेख पर, लोग उसे अपनी धारणाओं के वस्त्र पहनाते हैं, यह कहते हैं कि वह बादलों और कोहरे पर सवारी कर सकता है, पानी पर चल सकता है, मनुष्य के बीच अचानक प्रकट हो सकता है और गायब हो सकता है, और कुछ अन्य लोगों के पास और भी अधिक वर्णनात्मक स्पष्टीकरण भी हैं। मानवजाति की अज्ञानता और अंतर्दृष्टि के अभाव की वजह से, परमेश्वर ने कहा "जब वे मानते हैं कि उन्होंने मेरा विरोध किया है या मेरी प्रशासनिक राजाज्ञा का अपमान किया है, तो मैं तब भी अपनी आँख मूँद लेता हूँ।"
जब परमेश्वर मानवजाति के कुरूप पक्ष और उसकी आंतरिक दुनिया को प्रकट करता है, तो वह, जरा से भी विचलन के बिना, सचमुच में पूर्णतः सही होता है। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि इसमें कुछ भी त्रुटि नहीं होती है। यह वो सबूत है जो पूरी तरह से लोगों को मनाता है। परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत की वजह से, उसके कई वचन और कर्म ऐसी छाप छोड़ते हैं जिसे मिटाना असंभव है, और लोगों को उसके बारे में गहरी समझ होती हुई प्रतीत होती है, मानो कि वे उन चीज़ों को खोज लेते हैं जो उसमें अधिक मूल्यवान है। "उनकी स्मृति में, मैं ऐसा परमेश्वर हूँ जो मनुष्यों को ताड़ित करने की अपेक्षा उन पर दया दिखाता है, या मैं परमेश्वर स्वयं हूँ जिसके कहने का आशय वह नहीं होता जो वो कहता है। ये सब मनुष्यों के विचारों में जन्मी कल्पनाएँ हैं और ये तथ्यों के अनुसार नहीं है।" यद्यपि मानवजाति ने परमेश्वर के वास्तविक चेहरे को कभी महत्व नहीं दिया है, फिर भी वे "उसके स्वभाव के पार्श्व पक्ष" को बहुत अच्छी प्रकार से जानते हैं; वे हमेशा परमेश्वर के वचनों और कार्यों में दोष निकालते रहते हैं। इसका कारण यह है कि मानवजाति, परमेश्वर के कर्मों को केवल निम्नतर समझते हुए, हमेशा नकारात्मक चीजों पर ध्यान देने और सकारात्मक चीजों की उपेक्षा करने के लिए तैयार रहती है। परमेश्वर जितना अधिक कहता है कि वह विनम्रतापूर्वक अपने निवास स्थान में खुद को छुपाता है, उतना ही अधिक मानवजाति उससे अपेक्षा करती है। वे कहते हैं: "यदि देहधारी परमेश्वर मनुष्य के हर कर्म को देख रहा है और मानव जीवन का अनुभव ले रहा है, तो ऐसा क्यों है कि अधिकांश समय परमेश्वर हमारी वास्तविक स्थिति के बारे में नहीं जानता है। क्या इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर सचमुच छुपा हुआ है?" यद्यपि परमेश्वर मानव हृदय में गहराई से देखता है, तब भी वह, अस्पष्ट और अलौकिक ना होते हुए, मानवजाति की वास्तविक स्थिति के अनुसार कार्य करता है। मानवजाति के भीतर के पुराने स्वभाव से पूरी तरह से छुटकारा पाने के लिए, परमेश्वर ने विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से बोलने का कोई प्रयास नहीं छोड़ा है: उनकी वास्तविक प्रकृति को अनावृत करना, उनकी अवज्ञा पर न्याय घोषित करना; एक पल कहना कि वह सभी लोगों के साथ निपटेगा, और अगले पल कहना कि वह लोगों के एक समूह को बचाएगा; या तो मानवजाति पर अपेक्षाएँ रखना है या उन्हें चेतावनी देना; बारी-बारी से उनके भीतरी भाग का विश्लेषण करना, बारी-बारी से उपाय प्रदान करना। इस प्रकार, परमेश्वर के वचन के मार्गदर्शन के अधीन, ऐसा लगता है मानो कि मानवजाति ने पृथ्वी के हर कोने में यात्रा की हो और एक भरे-पूरे उद्यान में प्रवेश किया हो जहाँ प्रत्येक फूल सबसे सुंदर होने के लिए स्पर्धा करता हो। परमेश्वर जो कुछ भी कहेगा मानवजाति उसके वचन में प्रवेश करेगी, ठीक वैसे जैसे कि परमेश्वर कोई चुंबक हो और लोहे वाली कोई चीज़ उसकी ओर आकर्षित हो जाएगी। जब वे "मानवजाति मुझ पर कोई ध्यान नहीं देती है, इसलिए मैं भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेता हूँ। मनुष्य मुझ पर कोई ध्यान नहीं देता है, इसलिए मुझे भी उन पर प्रयास लगाने की आवश्यकता नहीं है। क्या दोनों संसारों का यही सर्वोत्तम नहीं है?" इन वचनों को देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के सभी लोगों को, पूरी तरह से भयभीत करते हुए, फिर से अथाह गड्ढे में धक्का दे दिया गया हो या फिर से उनके मर्म स्थल पर चोट की हो, और इस तरह वे फिर से मेरे कार्य करने की पद्धति में फिर से प्रवेश करते हैं।[ग] वे विशेष रूप से "यदि, राज्य में मेरे लोगों में से एक के रूप में, तुम लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो, तो तुम लोग मेरे द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत कर दिए जाओगे!" वचन के संबंध में भ्रमित होते हैं। अधिकांश लोगों के हृदयविदारक आँसू आ जाते हैं: "अथाह गड्ढे में से चढ़ कर बाहर निकलना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, इसलिए यदि मैं इसमें फिर से गिर जाऊँ तो मुझे बिल्कुल भी आशा नहीं होगी। मुझे, अपने जीवन में हर तरह की कठिनाइयों और परेशानियों से गुज़र कर, मानव जीवन में कुछ भी नहीं मिला है। विशेष रूप से, आस्था में आने के बाद, मैं अपने प्रियजनों से परित्याग, परिवारों से उत्पीड़न, संसारिक लोगों से लांछन से गुजरा, और मैंने दुनिया की ख��शी का आनंद नहीं उठाया। यदि मैं फिर से अथाह गड्ढे में गिरता हूँ, तो क्या मेरी ज़िन्दगी और भी अधिक व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" (मनुष्य जितना अधिक इस बारे में सोचता है वह उतना ही अधिक दुःखी होता है।) "मेरी सभी उम्मीदें परमेश्वर के हाथों में सौंप दी गई हैं। यदि परमेश्वर मेरा परित्याग करता है, तो इससे अच्छा कि मैं अभी मर जाऊँ ...। ठीक है, सभी कुछ परमेश्वर ने पूर्वनियत किया है, अब मैं केवल परमेश्वर से प्यार करने की कोशिश कर सकता हूँ, अन्य सब कुछ गौण है। मेरा ऐसा भाग्य किसने बनाया?" मनुष्य जितना अधिक सोचते हैं, वे परमेश्वर के मानकों और उसके वचनों के उद्देश्य के उतना ही अधिक करीब होते हैं। इस तरह से उसके वचनों का उद्देश्य प्राप्त होता है। जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों को देखते हैं उसके बाद, उन सभी के भीतर एक वैचारिक संघर्ष होता है। उनका एकमात्र विकल्प भाग्य के आदेशों के प्रति समर्पण करना है, और इस तरह से परमेश्वर का उद्देश्य प्राप्त होता है। परमेश्वर के वचन जितना अधिक कठोर होते हैं, परिणामस्वरूप उतनी ही अधिक जटिल मानवजाति की आंतरिक दुनिया बन जाती है। यह किसी घाव को स्पर्श करने जैसा है; जितना कस कर इसे स्पर्श किया जाता है उतना ही अधिक दर्द पहुँचाता है, इस हद तक कि वे जीवन और मृत्यु के बीच मँडराते हैं और यहाँ तक ​​कि जीवित बचे रहने का विश्वास भी खो देते हैं। इस तरह, जब मानवजाति सबसे अधिक पीड़ित होती है और निराशा की गहराईयों में होती है केवल तभी वे अपने सच्चे हृदय परमेश्वर को सौंप सकते हैं। मानवजाति की प्रकृति है ऐसी है कि यदि यदि लेशमात्र भी आशा बची रहती है तो वे सहायता के लिए परमेश्वर के पास नहीं जाएँगे, बल्कि प्राकृतिक उत्तरजीविता के आत्मनिर्भर तरीके अपनाएँगे। इसका कारण यह है कि मानवजाति की प्रकृति दंभी है, और वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं। इसलिए, परमेश्वर ने कहा: "एक भी मनुष्य सुख में होने के समय मुझसे प्रेम करने में समर्थ नहीं है। एक भी व्यक्ति अपने शांति और आनंद के समय में नहीं पहुँचा है ताकि मैं उनकी खुशी में सहभागी हो सकूँ।" यह निस्संदेह निराशाजनक है: परमेश्वर ने मानवजाति बनाई, किन्तु जब वह मानव दुनिया में आता है, तो वे उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, उसे अपने इलाके से निकाल देते हैं, मानो कि वह कोई भटकता हुआ अनाथ हो, या दुनिया में एक राज्यविहीन व्यक्ति हो। कोई भी परमेश्वर से अनुरक्त महसूस नहीं करता है, कोई भी वास्तव में उसे प्यार नहीं करता है, किसी ने भी उसके आने का स्वागत नहीं किया है। इसके बजाय, जब वे परमेश्वर के आगमन को देखते हैं, तो उनके हर्षित चेहरे पलक झपकते ही उदास हो जाते हैं, मानो कि अचानक कोई तूफान आ रहा हो, मानो कि परमेश्वर उनके परिवार की खुशियों को छीन लेगा, मानो कि परमेश्वर ने मानवजाति को कभी भी आशीष नहीं दिया हो, बल्कि इसके बजाय मानवजाति को केवल दुर्भाग्य ही दिया हो। इसलिए, मानवजाति के मन में, परमेश्वर उनके लिए कोई वरदान नहीं है, बल्कि कोई ऐसा है जो हमेशा उन्हें शाप देता है; इसलिए, मानवजाति उस पर ध्यान नहीं देती है, वे उसका स्वागत नहीं करते हैं, वे उसके प्रति हमेशा उदासीन रहते हैं, और यह कभी भी नहीं बदला है। क्योंकि मानवजाति के हृदय में ये बातें हैं, इसलिए परमेश्वर कहता है कि मानवजाति अतर्कसंगत और अनैतिक है, और यहाँ तक ​​कि उन भावनाओं को भी उनमें महसूस नहीं किया जा सकता है जिनसे मनुष्यों को सुसज्जित होना माना जा सकता है। मानवजाति परमेश्वर की भावनाओं के लिए कोई मान नहीं दिखाती है, किन्तु परमेश्वर से निपटने के लिए तथाकथित "धार्मिकता" का उपयोग करती है। मानवजाति कई वर्षों से इसी तरह की है और इस कारण से परमेश्वर ने कहा है कि उनका स्वभाव नहीं बदला है। यह दिखाता है कि उनके पास कुछ पंखों से अधिक सार नहीं है। ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य मूल्यहीन अभागे हैं क्योंकि वे स्वयं को नहीं सँजोए रखते हैं। यदि वे स्वयं से भी प्यार नहीं करते हैं, किन्तु स्वयं को ही रौंदते हैं, तो क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता है कि वे मूल्यहीन हैं? मानवजाति एक अनैतिक स्त्री की तरह है जो स्वयं के साथ खेल खेलती है और जो दूषित किए जाने के लिए स्वेच्छा से स्वयं को दूसरों को देती है। किन्तु फिर भी, वे अब भी नहीं जानते हैं कि वे कितने अधम हैं। उन्हें दूसरों के लिए कार्य करने, या दूसरों के साथ बातचीत करने, स्वयं को दूसरों के नियंत्रण के अधीन करने में खुशी मिलती है; क्या यह वास्तव में मानवजाति की गंदगी नहीं है? यद्यपि मैं मानवजाति के बीच किसी जीवन से नहीं गुज़रा हूँ, मुझे वास्तव में मानव जीवन का अनुभव नहीं रहा है, फिर भी मुझे मनुष्य की हर हरकत, उसके हर क्रिया-कलाप, हर वचन और हर कर्म हर की बहुत स्पष्ट समझ है। मैं मानवजाति को उसकी गहरी शर्मिंदगी तक उजागर करने में भी सक्षम हूँ, इस हद तक कि वे अपनी चालाकियाँ दिखाने का और अपनी वासना को मार्ग देने का अब और साहस नहीं करते हैं। घोंघे की तरह, जो अपने खोल में शरण ले लेता है, वे अपनी स्वयं की बदसूरत स्थिति को उजागर करने का अब और साहस नहीं करते हैं। क्योंकि मानवजाति स्वयं को नहीं जानती है, इसलिए उनका सबसे बड़ा दोष अपने आकर्षण का दूसरों के सामने स्वेच्छा से जुलूस निकालना है, अपने कुरूप चेहरे का जूलूस निकालना है; यह कुछ ऐसा है जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है। क्योंकि लोगों के बीच संबंध असामान्य हैं, और लोगों के बीच कोई सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं हैं, इसलिए परमेश्वर के साथ उनका सामान्य[घ] संबंध तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर ने बहुत अधिक कहा है, और ऐसा करने में उसका मुख्य उद्देश्य मानवजाति के हृदय में एक स्थान को अधिकार में लेना है, लोगों को उनके हृदय की सभी मूर्तियों से छुटकारा दिलवाना है, ताकि परमेश्वर समस्त मानवजाति पर सामर्थ्य का उपयोग कर सके और पृथ्वी पर होने का अपना उद्देश्य प्राप्त कर सके।
                                                स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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