Ramayana
।। रामायण।।
महर्षि वाल्मीकि को रामायण रचना की प्रेरणा
एक दिन महर्षि वाल्मीकि मध्याहन के समय स्नान के लिए तमसा नदी की ओर जा रहे थे। चारों ओर बिखरी हुई वंसत ऋतु की छटा उनके मन को लुभा रही थी। नये पत्तों, फलांे और फूूलों से युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी शोभा से मन को मोहित कर रहे थे। रंग-बिरंगे पक्षी मधुर स्वर में गुंजार कर रहे थे। तमसा नदी का जल स्वच्छ था। उसमें रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। नदी के किनारे बैठे पक्षी उड़-उड़कर पानी में अपनी चोंच डुबाकर कुछ पकड़ रहे थे।
प्रकृति की इस सुन्दरता को देखकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय पुलकित हो रहा था। सहसा क्रौ´च पक्षी के स्वर ने उनके ध्यान को आकृष्ट किया । उन्होंन देखा कि क्रौ´च पक्षी का एक जोड़ा नदी तट पर स्वच्छन्द विचरण कर रहा है। वे एक-दुसरे के पीछे भागते, आपस में चोंच मिलाते हुए अठखेलियाँ कर रहे थे। इस दृश्य को महामुनि देख ही रहे थे कि किसी पापी बहेलिया ने क्रा´ैच पक्षी को बाण से मार दिया। बाण से घायल, रक्त से लथपथ क्रो´च को धरती पर छटपटाते देखकर क्रा´च करुण स्वर में विलाप करने लगी। क्रौ´च के करुण क्रन्दन को सुनकर मुनि का हृदय करुणा से भर गया। उनके हृदय में शोकरुपी अग्नि करुण रस के श्लोक के माध्यम से इस प्रकार निकल पड़ी-
मा निषाद् प्रतिष्ठांत्वमगमंः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
(हे निषाद्! तुम सहस्रों वर्षों तक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकोगे क्योंकि तुमने काम-मोहित क्रौच के जोड़े में से क्रौच की हत्या कर दी है।)
यह श्लोक वेदों के अतिरिक्त नए छन्द की उत्पत्ति थी। इस प्रकार का उच्चारण करते हुए महर्षि वाल्मीकि शोकाकुल हो उठे। अरे! पक्षी के दुःख से दुखी मैंने यह क्या कह दिया। इसी समय चतुरानन भगवान ब्रह्मा महामुनी वाल्मीकि के समक्ष प्रकट हुए और बोले - ’’हे महामुनी ! दुःखी मनुष्यों पर दया करना महान लोगों का स्वाभाविक कत्र्तव्य है। श्लोक उच्चरित करते हुए आपने इसी धर्म का पालन किया है। अतः इस विषय में शोक करने कि आवश्यकता नहीं है। सरस्वती मेरी इच्छा से आप में प्रवृत्त हुई है। अब आप अनुष्टुप छन्दों में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पु़़़त्र राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कीजिए। राम की कथा तो सक्षेंप में आप नारद द्वारा सुन हि चुके हैं। मेरी कृपा से समस्त रामचरित आपको ज्ञात हो जाएगा। जब तक पृथ्वी पर पर्वत, नदी और समुद्र स्थित रहेंगे तब तक संसार में रामायण की कथा प्रचिलित रहेगी ।’’ऐसा कहकर भगवान ब्रह्मा अन्तर्धान हो गए।
ब्रह्मा जी से प्रेणा प्राप्त करने के बाद वाल्मीकि, श्लोकों में राम के चरित्र का वर्णन करने लगे। ब्रह्मा की कृपा से राम का सम्पूर्ण चरित्र उनके समक्ष प्रत्यक्ष रुप से दृष्टिगोचर होता गया। चैबिस हजार श्लोकों में वाल्मीकि जी ने रामायण नामक आदि महाकाव्य की रचना की। इसको ज्ञानरुपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है।
श्रीरामचन्द्र जी और सीता जी का यश अमृत के समान है।
राम सुप्रेमहि पोषक पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी।।
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुःख दारिद दोषा।।
अर्थात् यह जल श्रीरामचन्द्र जी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। संसार के जन्म-मृत्यु रुपी श्रम को सोख लेता है और पाप, ताप, दरिद्रता आदि दोषों को नष्ट करता है।
आदि काण्ड (बाल काण्ड)
मड्गलाचरण-
वर्णानामर्थसंघानां रसाना छन्दसामपि।
मड्गलानां च कत्र्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
अर्थात् अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और म��्गल कार्यौ को करने वाली सरस्वती जी और गणेश जी की मैं वंदना करता हूँ।
अयोध्या पुरी का वर्णन
सरयू नदी के किनारे स्थित कोशल नामक राज्य की राजधानी अयोध्या थी। इसी अवधपुरी में, त्रेता युग में रधुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए। अयोध्या नगरी बारह योजन लंम्बी और योजन चैड़ी थी। नगर के चारों ओर ऊँची - ऊँची दीवारें थीं और उसका बाहरी भाग गहरी खाईं से धिरा हुआ था। हजारों सैनिक और महारथी इस नगर की रक्षा थे।
राजमहल नगर के मध्य में स्थित था। राजमहल से आठ सड़कें और परकोटे(चहारदीवारी) तक बनी हुई थीं। यह नगर सुन्दर उद्यानों, सरोवरों और क्रीड़ागृहों से परिपूर्ण था। नगर में अनेक विशाल भवन थे जिसमें विदृान, कलाकार,व्यापारी आदि रहते थे।नगर में चारो ओर सुख और शंाति का वातावरण था। यहाँ के निवासी सुखी, सम्पन्न और खुशहाल थे।
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ
अवधपुरी में रधुकुलशिरोमणि राजा दशरथ धर्मात्मा, गुणों के भण्डार और ज्ञानी थे। सगर, रधु,दिलीप आदि उनके पूर्वज थे। उनके राज्य में, उनके मुख्यमंत्री सुमन्त्र के अतिरिक्त अन्य सुयोग्य मंत्री भी थे, जो राज्य संचालन में सहयोग देते थे। वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि कुलपुरोहित के साथ परामर्श कर राजा सदैव अपनी प्रजा के हित के लिए तत्पर रहते थे। राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं - कौशल्या, सुमित्रा, और कैेकेयी। ये सभी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। वे विनम्र स्वभाव और पति की अनुगामिनि थीं। श्री हरि के चरण-कमलों में अनका दृढ़ प्रेम था।
धन,मान यश से युक्त होते हुए भी राजा दशरथ को संतान का सुख प्राप्त नहीे था।
एक बार भूपति मन माहि। भै गलानि मोरें सुत नाहिं।।
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।
( एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं। राजा तुरन्त गुरु वशिष्ट के घर गए और चरणों में प्रमाण कर बहुत विनय की। )
राजा ने गुरु वशिष्ठ को अपना सारा दुःख सुनाया। गुरु वशिष्ठ ने राजा को पुत्र-कामेष्टि यज्ञ करने कि सलह दी।
यह की सारी तैयारियाँ विघि-विघान से होनें लगीं। अनेक ऋषि, मुनि और राजाओं को इस यज्ञ में आमंत्रित किया गाया। यज्ञ कराने के लिए ऋषि ऋष्यशृंग को बुलाया गया। यज्ञशाला का निर्माण सरयू नदी के तट पर कराया गया । वेद-मंत्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में आहुतियाँ पड़ने लगीं। आहुतियाँ पूर्ण होने स्वय अग्निदेव हविष्यात्र (खीर) लेकर प्रकट हुए।
ऋष्यशृंग ने अग्निदेव से खीर का पात्र राजा दशरथ को दे दिया। राजा परमानन्द में मग्न हो गए। उन्होंने खीर का पात्र कौशल्या को देकर कहा कि तुम लोग इसको बाँट लो। कौशल्या ने खीर का आधा भाग स्वयं ले लिया। श्ेाष आधा भाग सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने आधे भाग के दो भाग कर एक भाग अपने लिए रखा और दुसरा भाग कैकेयी को दे दिया। कैकेयी ने उस खीर का आधा ही सेवन किया और आधा फिर सुमित्रा को वापस दे दिया।
इस प्रकार सभी रानियाँ गर्भवती हुई। वे बहुत हर्षित हुई। उन्हें अपार सुख मिला।
रामावतार
पवित्र चैत्र मास की नवमी तिथि थी। शुल्क पक्ष की उस शुभ धड़ी में दीनों पर दया करने वाले, कौशल्या जी हितकारी कृपालु प्रभु, श्रीराम अवतरित हुए।
भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रुप बिचारी।।
रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए - लक्ष्मण और शत्रुध्न। कैकेयी ने भरत को जन्म दिया।
इस अवसर पर आकाश से फूलों की वर्षा हो रही थी। राजा दशरथ पुत्रों के जन्म का समाचार सुनकर मानों ब्रह्मानन्द में समा गए। अयोध्या पुरी में घर-घर मङ्गलगान गाए जाने लगे। राजा और प्रजा सभी आनन्दमग्न हो गए।
चारों राजकुमार अपनी बालक्रीड़ा से नगरवासियों को मंत्र-मुग्ध करते हुए बड़े होने लगे। भगवान राम ने अनेक बाल लीलाएँ कीं और अपने सेवकों को आनन्दित किया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने लगे। लक्ष्मण जी बचपन से ही रामचन्द्र जी के प्रति अनुराग रखने वाले थे और सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। इसी प्रकार शत्रुधन भरत जी को प्राणों से प्रिय थे।
विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा
जब चारों भाई कुमारावस्था में पहुँचे तब राजा दशरथ ने कुलगुरु वशिष्ठ से उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। सभी राजकुमारों नें कुछ ही समय में वेद, शास्त्र, पुराण, शस्त्र विद्या और राजनीति, विनम्रता आदि गुणों का भी भण्डार था। उनके साहस, पराक्रम के साथ ही शालीनता, विनम्रता आदि गुणों का भी भण्डार था। उनके चरित्र को देखकर माता-पिता अत्यन्त हर्षित होते थे।
राजकुमारों के युवा हो जाने पर राजा दशरथ ने उनके विवाह के विषय में विचार किया। उन्होंने अपने कुलपुरोहित, मंत्रियों को बुलाया और इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि द्वारपाल ने महर्षि विशवामित्र के आगमन की सुचना दी। मुनि का आगमन सुनकर राजा तुरन्त अनके स्वागत के लिए आगे बढे़ और दण्डवत् करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें आसन पर बिठाया। उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार कर उनके आने का कारण इस प्रकार पुछा-
तब मन हरिष वचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
तब विश्वामित्र ने कहा - ’’हे राजन ! राक्षसराज रावण के दो अनुचर मारिच और सुबाहु हमारे यज्ञ में बहुत बाधा पहुँचाते हैं। इसलिए यज्ञ रक्षा हेतु हम आपके वीर पुत्रों लक्ष्मण सहित राम को माँगने के लिए आए हैं। आप उन्हें मेरे साथ भेज दीजिए। आप डरें नहीं, राम की भी भलाई इसमें हैं।‘‘यह सुनकर राजा का हृदय मानों काप उठा। राजा ने मुनि से कहा - ‘‘मेरे पुत्र मुझे प्रणों के समान प्यारे हैं। कहाँ वे अत्यन्त डरावने क्रूर राक्षस और कहा परम किशोर अवस्था के ये मेरे पुत्र ? उनका सामना ये कैसे कर पाएँगे ? मैं अपनी सेना के साथ स्वयं चलकर आपके यज्ञ की रक्षा करूँगा। आप मुझे पुत्र-वियोग दुःखी न कीजिए।‘‘
तब राजगुरू वशिष्ठ जी ने राजा को अनेक प्रकार से समझाते हुए कहा- ‘‘महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरूष हैं, तपस्वी हैं और अनेक विद्याओं के ज्ञाता हैं। वे किसी कारणवश ही आपके पास आए है। आप राम-लक्ष्मण को जाने दें। इनके जैसा बलवान और बुद्धिमान कोई नहीं है।‘‘
इस प्रकार राजा दशरथ का सदेंह समाप्त हो गया और उन्होनें राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दे दी। राम-लक्ष्मण, धनुष-बाण धारण कर माता-पिता से आर्शीवाद लेकर विश्वामित्र के साथ चल दिए। जब वे सरयू नदी के किनारे पहुँचे तो विश्वामित्र ने उन्हें हाथ-मुँह धोकर अपने पास आने को कहा। उन्होनें राम-लक्ष्मण को बला-अतिबला नामक गुप्त विद्याएँ प्रदान कीं जिससे उनके शरीर में नवीन स्फूर्ति आ गई। उनका आत्मबल और बढ़ गया। उस दिन उन्होनें सरयू नदी के किनारे विश्राम किया।
ताड़का संहार
अगले दिन वे सरयू नदी के किनारे पुःन आगे चल दिए। सरयू और गंगा के संगम को पार कर वे एक भयानक जंगल में पहुँच गए। सारा वन-प्रदेश हिंसक पशुओं की आवाजों से गुँज रहा था। महिर्ष विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को बताया कि यहाँ से दो कोस दूरी पर ही ताड़का नामक राक्षस रहती है। वह बड़ी ही बलवती, भयानक और दुष्टा है। वह और उसका पुत्र मारिच दोनों ने मिलकर यहाँ उत्पात मचा रखा है। तुम्हें ��सका वध करना हैं। स्त्री जाति समझ कर तुम्हें उस पर दया नहीं करनी है।
राम ने विश्वामित्र से कहा, आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है और धनुष की डोर खीेेेंच कर उसी दिशा की ओर बाण छोड़ दिया। धनुष की टंकार से दिशाएँ गूँज उठीं। राक्षसी ताड़का भी आवाज सुनकर गरजती हुई दौड़ी। राम के पास पहुँच कर उसने अपनी मायावी विद्यायों का प्रयोग किया। धुल के बादल उड़ाए, पत्थरों की वर्षा की। लेकिन राम के सामने टिक न सकी। राम ने उसे बाणों से घायल कर दिया। वह राम की ओर जैसे ही झपटी, उन्हानें ऐसा तीक्ष्ण बाण छोड़ा जो हृदय चीरता हुआ निकल गया। विश्वामित्र ने हर्षित होकर राम को गले से लगा लिया। तब ऋषि ने दंडचक्र, कालचक्र, ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य अस्त्र राम को दिए।
इसके बाद मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ लेकर अपने सिद्धाश्रम में आए। वहाँ आश्रमवासियों ने भक्तिपुर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया। प्रातः श्रीराम ने मुनि से कहा - ‘‘आप निडर होकर यज्ञ प्रारम्भ कीजिए।‘‘ यज्ञ प्रारम्भ हो गया। पाँच दिन तक निर्विघ्न यज्ञ होने के बाद छठे दिन आकाश में घोर गर्जना सुनाई दी। दो विशालकाय राक्षस मारीच और सुबाहु वहाँ पहुँच गए। उनके साथ अनेक राक्षसों की सेना भी थी। श्रीराम ने मारिच के ऊपर बिना फलवाला बाण चलाया जिससे वह सौ योजन विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा। फिर सुबाहु को अग्निबाण से मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मण ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। यह देखकर सारे देवता और मुनि राम की स्तुति करने लगे। विश्वामित्र का यज्ञ बिना किसी बाधा के सम्प��्न हो गया।
राम ने विश्वामित्र से पुछा - ‘‘अब हमें क्या कार्य करना है ?‘‘ विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि जनकपुरी में एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया गया है। तुम दोनों हमारे साथ वहाँ चलो। वहाँ एक विचित्र धनुष है, जिसे कोई उठा नहीं पाता है, तुम वह धनुष भी देखना।
राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का मिथिला को प्रस्थान
राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ जनकपुरी (मिथिला) की ओर चल पड़े। अनेक अन्य ऋषि भी उनके साथ थे। विश्वामित्र उन्हें विभिन्न्ा स्थानों की जानकारी देते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। मार्ग में, उन्होंनेें सोन नदी को पार किया। अब वे एक सुन्दर वन-प्रदेश में पहुँच गए। विश्वामित्र उन्हें बताया कि बहुत पहले मैं यहाँ का राजा था। उन्होनें अपने पूर्वजों के बारे में भी विस्तार से बताया। रात को उन्होनें वहाँ विश्राम किया। विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पति, पार्वति कथा, स्वामिकार्तिक के जन्म की भी विस्तार से राम-लक्ष्मण को सुनाई।
अहिल्या उद्धार
मिथिला के पास पहुँचने पर उन्हें एक आश्रम दिखाई दिया। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं दिखाई पड़ रहा था। इस सुनसान आश्रम को देखकर राम ने उसके विषय में मुनि से पूछा। मुनि ने बताया कि यह गौतम ऋषि का आश्रम है। जब वे अपनी पत्नी अहिल्या के साथ यहाँ रहते थे उस समय यहा कि शोभा दर्शनीय थी।
एक दिन की घटना है कि रात को ही सबेरा समझकर ऋषि गंगा-स्नान करने के लिए चले गए। तदोपरान्त इन्द्र गौतम ऋषि के भेष में आश्रम में आ गए। जब गौतम ऋषि वापस आए तो उन्होनें इन्द्र को आश्रम से निकलते हुए देख लिया। वे क्रोधित हो गए और उन्होनें अहिल्या को शाप दे दिया कि ‘‘अब तू यहाँ समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर हजारों वर्षों तक केवल हवा पीती हुई राख में पड़ी रहेगी। जब दशरथ पुत्र राम का पदार्पण यहाँ होगा तब तू शापमुक्त हो जाएगी।
यह कथा सुनकर राम का हृदय द्रवित हो गया। उन्होनें आगे बढ़कर पत्थर का शरीर धारण किए हुए अहिल्या के चरण स्पर्श किए। श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करने वाले स्पर्श को पाते ही सचमुच वह तपोमुर्ति अहिल्या प्रकट हो गईं। उन्होनें हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की और महर्षि गौतम के पास चली गईं।
श्रीराम-सीता विवाह
मिथिलापति जनक जी को जब मुनि विश्वामित्र के आने का समाचार प्राप्त हुआ तो वे मंत्रियों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों और गुरू (शतानन्द जी) के साथ उनके स्वागत के लिए द्वार पर आए। राजा ने विश्वामित्र के चरणों पर मस्तक रखकर उनका अभिवादन किया। उनके कुशल सामाचार पूछे। जब उन्होंने राम और लक्ष्मण को देखा तो उनके तेज से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने विश्वामित्र से पूछा - ‘‘ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? मेरा वैरागी मन इन्हें देखकर इस प्रकार मुग्घ हो रहा है जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर।‘‘ तब विश्वामित्र ने बताया -‘‘ ये रघुकुलशिरोमण महाराज दशरथ के पुत्र हैं। इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकार मेरे यज्ञ की रक्षा की है।‘‘ मुनि के चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में ले आए और एक सुन्दर महल(जो सभी ऋतुओं में सुखदायक था।) मे ठहराया।
अगले दिन, जनक जी ने शतानन्द जी को मुनि विश्वामित्र के पास भेजा। मुनि विश्वामित्र ऋषियों, लक्ष्मण एवं श्रीराम सहित धनुष यज्ञशाला देखने गए। वहाँ अन्य देशों के राजा एवं गणमान्य लोग भी उपस्थि थे। राजा ने उनको ऊँचे आसन पर बिठाया एवं मुनि के चरणों की वंदना कर अपनी प्रतिज्ञा के विषय में बताया हौर अपनी यज्ञशाला दिखाई। जब विश्वामित्र ने सुनाभ नामक धनुष देखने की इच्छा व्यक्त की तब जनक जी उन लोगों को साथ लेकर उस धनुष के पास गए। जनक जी ने बताया कि यह धनुष शिव जी का है। यह हमारे पूर्वज देवरात को देवताओं ने प्रदान किया था। मेरी प्रतिज्ञा सुनकर, अनेक राजा, देव-दानव आदि यहाँ आए परन्तु कोई इस धनुष को हिला भी नहीं सका।
तब जनक जी की व्यथा को समझते हुए मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम की ओर इशारा किया। गुरू की आज्ञा पाकर श्रीराम ने धनुष को उठा लिया और धनुष की प्रत्यंचा खीचंकर बीच से तोड़ दिया। धनुष के टूटने से भयंकर ध्वनि हुई। जिस समय धनुष टूटा उस समय वहाँ जनक जी सहित हजारों लोग उपस्थ्ति थे।
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।
कौसिक रूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।
राजा जनक हर्ष से गदगद हो गए। सारे ब्रह्माण्ड में जय-जयकार की ध्वनि गूँज उठी। राजा जनक ने मुनि विश्वामित्र से कहा - ‘‘हे मुनिवर! टापकी कृपा से मुझे अपनी पुत्री सीता के निए मनचाहा वर मिल गया। यदि आप आज्ञा दे ंतो मैं दशरथ के पास यह सदेंश भेजकर बारात ले आने का निमंत्रण भेज दूँ। उनकी सहमति पाकर राजा जनक ने मंत्रियों को अयोध्या जाने का आदेश दिया।
जब राजा दशरथ को सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। महल में जाकर राजा ने यह शुभ समाचार सभी रानियों को बताया। रानियाँ भी अत्यन्त आनन्दित हुईं महल में आनन्द का वातावरण छा गया।
राजा दशरथ गुरू वशिष्ठ से आज्ञा लेकर बारात ले जाने की तैयारी में जुट गए। हाथी, धोड़ा, रथ आदि से सजी बारात ने चतुरंगिणी सेना के साथ मिथिला की ओर प्रस्थान किया। पाचँवें दिन बारात मिथिला जा पहुँची। राजा जनक ने बारातियों का विधिवत् स्वागत-सतकार किया और सबको जनवासे में आ गए। राम-लक्ष्मण ने पिता का अभिवादन किया। राजा दशरथ ने विश्वामित्र के चरण छुए और कहा - ‘‘हे मुनिवर! आपकी कृपा से मुझे आज यह शुभ दिन देखने को मिल रहा है।‘‘
उस समय मिथिला की सजावट देखने योग्य थी। प्रत्येक घर पर वन्दनवार लगे थे। सखियाँ मंगलगीत गा रही थीं। विवाह-मंडप की शोभा अतुलनीय थी। उसे हीरे और मणियों से सजाया गया था।
महाराज दशरथ गुरू वशिष्ठ के साथ चारों राजकुमार को लेकर विवाह-मंडप में आए। राजा जनक भी अपनी चारों राजकुमार��यों को लेकर मंडप में आए। राजा जनक ने महाराज दशरथ से सीता के विषय में बताया - ‘‘यह कन्या मुझे हल चलाते समय पृथ्वी से प्राप्त हुई थी। आपके वीर पुत्र राम ने मेरी प्रतिज्ञा पुरी कर इसको वरण करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है‘‘। साथ ही जनक ने बताया - ‘‘ये मेरी दूसरी बेटी उर्मिला है तथा दो अन्य बेटियाँ मेरे छोटे भाई कुशाध्वज की हैं। बड़ी बेटी का नाम मांडवी और छोटी बेटी का नाम श्रुतकीर्ति है।‘‘ आप लक्ष्मण के लिए मांडवी और शत्रुधन के लिए श्रुतकिीर्ति को स्वीकार करने की कृपा करें। राजा जनक के प्रस्वात को राजा दशरथ ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सीता ने श्रीराम के गले में वरमाला पहनाई। देवतागणों ने फूलों की वर्षा की।
रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।
इसके बाद कुलबुरू वशिष्ठ और शतानन्द जी ने वेद-मंत्रों के उच्चारण के साथ विधिवत् विवाह सम्पन्न्ा कराया।
महाराज दशरथ का जनक जी ने विधिवत् स्वागत-सत्कार किया। अब वे बारात लेकर अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। राजा दशरथ, नववधुओं, बारातियों को लेकर कुछ दुर ही गए थे कि अचानक क्रुद्ध परशुराम फरसा और धनुष-बाण लेकर सामने उपस्थित हो गए। उनको देखते ही सब लोगों के मन में मलिनता छा गई।
परशुराम क्रोधित होते हुए श्रीराम से बोले - ‘‘राम ! शिव जी के पुराने धनुष को तोड़कर तुम स्वयं को बहुत बड़ा बलवान समझ रहे हो। मैं तुम्हारे अंहकार को नष्ट कर दूँगा।‘‘
उनके क्रोध को देखकर दशरथ ने बहुत अनुनय-विनय से उनको समझाने का प्रयास किया लेकिन परशुराम का क्रोध शान्त नहीं हुआ। परशुराम, राम से पुःन बोले-‘‘मेरे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर दिखाओ। यदि ऐसा नहीं कर सके तो मैं अपने फरसे से तुम्हारा वध कर दूँगा।‘‘
राम ने शान्त भाव से उनसे धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और बोले - ‘‘अब मैं आपकी आज तक की गई तपस्या का प्रभाव नष्ट करता हूँ। साथ ही मनोगति से आकाश में विचरण करने की शक्ति भी नष्ट करता हूँ।‘‘
अब परशुराम ने राम को पहचान लिया और उनके समझ नतमस्तक होकर क्षमा-याचना करने लगे। उन्होंने राम से अनुरोध किया कि वे उनकी मनोगति को नष्ट न करें जिससे वे महेन्द्र पर्वत पर वापस जा सकें। मुस्कराकर राम ने उनकी बात स्वीकार कर ली। अब परशुराम, राम की प्रंशसा करते हुए वापस चले गए।
अयोध्या में बारात पहुँच गई। चारों ओर आनन्द का वातावरण छा गया। अयोघ्या का कोना-कोना शंख और मृदंग की ध्वनियों से गूँज उठा। देवतागण हर्षित होकर पुष्प वर्षा कर रहे थे। स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं। रानियों ने पुत्र-वधुओं की आरती उतार कर उन्हें घर में प्रवेश कराया। उस समय राजा दशरथ के महल की शोभा निराली थी।
चारों राजकुमार सर्वगुणसम्पन्न्ा पत्नी आनन्दित थे। सीता ने अपने रूप गुण और सेवाभाव से सभी का मन मोह लिया।
कोश्ल राज्य में मानों सौभाग्य का आगमन हो गया। दिन-प्रतिदिन सुख-समृद्धि में वृद्धि होने लगी। श्रीराम का यश तीनों लोको में छा गया।
अयोध्या काण्ड
श्रीराम के राज्यभिषेक की तैयारियाँ
कैकेय देश से भरत के मामा युधाजित भरत को ले जाने के लिए अयोध्या पहुँचे। जब उन्हें बारात का समाचार ज्ञात हुआ तो चे भी जनकपुर चले गए। जनकपुर से वापस आने के कुछ दिन बाद राजा दशरथ ने उनके साथ भरत और शत्रुध्न को भेज दिया। वे नाना और मामा के लाड़-प्यार के कारण इच्छा होते हुए भी अपने नगर लौट नहीं पा रहे थे। इस तरह भरत और शत्रुध्न को ननिहाल में रहते हुए कई दिन व्यतीत हो गए
इस अयोध्या में राम राज-काज में पिता की सहायता करने लगे। वे सदा प्रजा के हित के विषय में सोचते थे और सदैव सदाचार का पालन करते थे। वे सदा प्रजा के हित के विषय में सोचते थे और सदैव सदाचार का पालन करते थे। वे शूरवीर,पराक्रमी होने के साथ नम्र और विद्वान भी थे। वे बड़ों का आदर करते थे और छोटों से प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे। क्रोध में भी उनकी वाणी कभी कटु नहीं होती थी। ऐसे राम से भला प्रजा कैसे न होती? राम के कुशल व्यवहार और कार्य को देखकर दशरथ भी बहुत संतुष्ट थे। स्वयं वृद्ध होने के कारण उन्होने राम को युवराज बनाने का विचार किया। इस विषय में राजा ने अपने मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श किया। दशरथ ने कैकेयराज और मिथिलानरेश के अलावा सभी मित्र राजाओं को भी विचार-विमर्श के लिए बुलाया।
निर्धारित समय पर सभा-भवन में सभी राजागण उपस्थित हुए। राजा के मंत्रिगण और अयोध्यावासी भी वहाँ उपस्थित थे। राजा ने उनके समक्ष राम को युवराज बनाने का प्रस्ताव रखा। सभी ने एकमत से इस बात को स्वीकार कर लिया। सबने राम के गुणों की प्रशंसा की। राजा ने सबको धन्यवाद दिया और घोषित किया कि कल राम का राज्यभिषेक होगा। सभी को इस उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। अब सुमन्त्र द्वारा राम को सभा में बुलाया गया । राजा दशरथ ने राम से कहा - ‘‘प्रजा ने तुम्हें अपना राजा चुना है। सर्वहित में तुम राजधर्म का पालन करते हुए इस कुल की मर्यादा की रक्षा करना।‘‘
यह निर्णय कर राजा राजभवन में चले गए। वहाँ उन्होनें राम को बुलाया। उन्होंने राम को समझाते हुए कहा - ‘‘पुत्र, अब मैं वृद्ध हो गया हूँ। मेरे जीवन का अब कोई ठिकाना नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि अब राज-काज तुम सँभालो। शुभ कार्यों में लोग तरह-तरह की बाधाँए पहुँचाने की कोशीश करते हैं इसलिए आज की रात तुम सावधान रहना।‘‘
श्राम ने यह शुभ समाचार अपनी माता कौशल्या को सुनाया। हर्षित होकर माँ ने उनको गले से लगा लिया। रानी ने ब्राह्माणों को बहुत-सा दिया। वे मंगलकलश सजाने लगीं। धीरे-धीरे यह समाचार नगर में फैल गया। सभी हर्षित होकर राज्यभिषेक की तैयारी में लग गए-
राम राज अभिषेक सुनि। हियँ हरषे नर नारि।।
लगे सुमंगल सजन सब। बिधि अनुकुल बिचारी।।
कैकेयी का कोप-भवन में जाना
अयोध्या में एक ओर तो राज्याभिषेेक की तैरारियाँ चल रही थीं तथा दूसरी ओर एक षड़यन्त्र रचा जा कहा था। षड़यन्त्र को रचने वाली कैकेयी की मंदबुद्धि दासी मंथरा थी। वह कुबड़ी और बदसूरत होने के साथ-साथ बड़ी ही दुष्ट प्रवृति की थी।
राम के राज्यभिषेक का समाचार सुनते ही मंथरा का हृदय जल उठा। वह तुरन्त कैकयी के पास गई और उन्हें भड़काना प्रारम्भ कर दिया। उसने कैकयी से कहा - ‘‘रानी तुम कैसी नादान हो ? तुम्हारे लिए विपत्ति का बीज बोया जा रहा है और तुम निश्ंिचत होकर बैठी हो।‘‘ कैकयी ने आश्चर्यचकित होकर मंथरा से पुछा - ‘‘क्या बात है ? साफ-साफ क्यों नहीं बताती ? राज्य में सब कुशल तो है।‘‘ मंथरा बोली - वैसे सब ठीक है। बस तुम्हारे ही सुखों का अन्त होने वाला है। रात की माता चतुर और गंभीर हैं। उन्होंने अवसर पाकर अपनी बात बता ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज दिया उसे आप बस कौशल्या की ही सलाह समझिए!
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाई निज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूत ननिअउरें। राम मातु मत जनबा रउरें।।
कौशल्या ने भरत की अनुपस्थ्तिि में राम के राजतिलक के लिए सारी तैयारियाँ करवा लीं।‘‘ यह सुनकर कैकेयी बोली - ‘‘यह तो बड़ी की बात है। मेंरे लिए तो भरत और राम एकसमान हैं। लो, यह हार उपकार में ले लो।‘‘
मंथरा ने हार स्वीकार नहीं किया, वह बोली - ‘‘रानी, आप कितने सरल स्वभाव वाली हैं, अपना अच्छा-बुरा भी नहीं पहचानती हैं। आपको तो पास आपको तो पास आया हुआ संकट भी दिखाई नहीं दे रहा हंै।‘‘
इतना सुनने के बाद भी जब कैकयी पर कुछ असर नहीं हुआ तो मंथरा ने कपट की अनेक कहानियाँ सुनाकर रानी को भड़काया । वह कहने लगी - ‘‘राम के राजा होते ही भरत मारे-मारे घुमेंगे। कौशल्या राजमाता होते ही अपने साथ बुरा व्यवहार करने लगेंगी।‘‘
अब मंथरा की बातों का असर कैकयी पर होने लगा। उसने इस संकट से बचने का उपाय पुछा। म नही मन खुश होकर मंथरा ने कहा - ‘‘एक ही उपाय है। किसी तरह राम को वन भेज दिया जाए और भरत का राज्यतिलक हो जाए। रानी याद कीजिए, जब एक बार राजा दशरथ शंबासुर के विरूद्ध इन्द्र की सहायता के लिए गए थे ओैर आपने युद्ध क्षेत्र में राजा के प्राणों की रक्षा की थी तब राजा ने खुश होकर आपको दो वरदान मँागने के लिए कहा था। जो आपने उस समय नहीं मँागे थे । अब समय आ गया था कि आप वे दोनों वरदान माँग लीजिए। आप कोप-भवन में चली जाइए और जब राजा सौगन्ध खा कर वचन दे दें, तो एक वरदान से भरत का राजतिलक और दूसरे से राम को चैदह वर्ष का वनवास माँग लीजिए।‘‘
मंथरा की बातों में आकर कैकेयी कोप-भवन में नली गई। जब राजा को यह बात ज्ञात हुई तो राजा सहम गए और अपनी प्रिय रानी कैकयी को मनाने के लिए कोप-भवन में गए। राजा बोले - ‘‘हे प्राण प्रिये ! आप क्यों नाराज है ? किसने आपका अपमान किया है ? किस कंगाल को राजा बना दूँ ? मैं राम की सौगन्ध खा कर कहता हूँ कि आप जो कहेंगी उसे पूरा करूँगा।‘‘
जब राजा ने वचन पूरा करने की सौगन्ध खा ली, तो कैकेयी ने दो वरदान माँगे। एक वरदान से भरत का राजतिलक और दूसरा से राम को चैदह वर्ष का वनवास। राम के वनवास की बात सुनकर राजा पर मानो वज्रपात हो गया। वे अचेत हो गए। जब होश आया तो कैकयी को समझाते हुए कहने लगे - ‘‘भरत का राजतिलक तो ठीक है लेकिन राम को वनवास मत भेजो। मेरे राम पर दया करो। उसका क्या अपराध है ?‘‘
लेकिन कैकेयी अपनी बात पर अडिग ही रही। उसने राजा से कहा - ‘‘हे राजन ! आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। राजा शिवि, दधीचि और बलि ने अपने वचन की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया। आप सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। रघुवंशियों के विषय में तो कहा गया है -
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जाय पर वचन न जाई।।
लेकिन आप की बात तो रघुवंशियों जैसी नहीं है।‘‘ राजा समझ गए कि अब कुछ नहीं हो सकता। वे रातभर बेहोश वहीं पड़े रहे। प्रातः सुमन्त्र राजमहल में गए जहाँ राजा और कैकयी थे। राजा की दशा देखकर वह काँप गए। वे समझ गए कि यह कोई कैकयी का ही षड़यन्त्र है। राजा के दुःख का कारण पूछने पर कैकयी ने कहा - ‘‘महराज राम को ही अपने मन की बान बताएँगे।‘‘
सुमन्त्र राम को बुला लाए। साथ में लक्ष्मण भी आ गए। राम को देखते ही राजा के ओंठ सूख गए और आँखे आँसुओं से भर गईं। लेकिन वे कुछ बोल नहीं सके। केवल हे राम ! कहकर बेहोश हो गए। राम के पूछने पर कैकेयी ने अपने वरदानों की बात बताई और कहने लगीं -‘‘ पुत्र स्नेह के कारण राजा धर्म संकट में पड़ गए हैं। यदि सम्भव हो तो राजा की आज्ञा का पालन करो।‘‘ राम ने कहा - पिताजी की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए मैं अभी वन को प्रस्थान करता हूँ। आप भरत के रालतिलक की तैयारियाँ कीजिए।‘‘
इसके बाद राम माता कौशल्या के पास गए और उनसे सभी बातें बताईं। यह सुनकर माता के हृदय में भयानक संताप छा गया। वह व्याकुल होकर विलाप करने लगीं। माता कौशल्या को दुःखी देखकर लक्ष्मण क्रोधित होने लगे ! लेकिन राम ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत कराया और कहने लगे - ‘‘मेरे वन जाने की तैयारी करो।‘‘
राम का वन-गमन
माता कौषल्या के पैर छूकर जब राम ने वन ताने की आज्ञा माँगी तो कौशल्या ने कहा - ‘‘पुत्र, मैं तुम्हे वन जाने की अनुमति नहीं दे सकती हूँ। तुम्हारे पिता कैकेयी की बातों में आ गए हैं। तुम्हारा क्या अपराध है जो तुम वन जाओगे ? राजा की आज्ञा उचित नहीं है। तुम उसे मत मानो।‘‘
राम ने माता को समझाते हुए कहा - ‘‘पिताजी की आज्ञा का पालन करना मेरा कत्र्तव्य है। आपको भी उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। आप मुझे वन जाने की अनुमति दे दिजिए।‘‘ उन्होंने लक्ष्मण को समझाया - ‘‘इसमें कैकयी माँ अथवा पिताश्री का कोई दोष नही है। यह सब भाग्यवश हो रहा है।‘‘ इस बात पर लक्ष्मण नाराज होते हुए बोले - ‘‘भाग्य पर भरोसा कायर लोग करते हैं। आप सिंहासन पर विराजमान हों। अगर किसी ने इस बात का विरोध किया तो मैं सारी अयोध्या में आग लगा दूँगा।‘‘
राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा - ‘‘मुझे राज्य का मोह नहीं है। मेरे लिए वन अथवा राजसिंहासन एकसमान हैं। मैं रघुवशियों के अनुकुल व्यव्हार करूँगा।‘‘ लक्ष्मण कुछ कह न सके। कौशल्या व्याकुल होकर राम को अनेक प्रकार से समझाया और वन जाने की आज्ञा माँगी। माता ने विवश होकर कहा - ‘‘पुत्र जाओ धर्म तुम्हारी रक्षा करे। मेरे सभी पुण्य कर्मों का फल तुम्हें प्राप्त हो जाए। मेरा रो��-रोम तुम्हें आर्शीवाद ��े रहा है।‘‘
माता से आज्ञा प्राप्त कर राम सीता के पहुँचे। सीता से सब बातें बताकर, उन्होंने कहा - ‘‘मेरी अनुपस्थिति में तुम माता-पिता की सेवा करना। भरत के साथ कभी भी शत्रुवत् व्यवहार न करना। अब हम लोग चैदह वर्ष बाद मिलेंगे।‘‘ इतना सुनकर सीता व्याकुल हो गईं। उन्होने राम से कहा - ‘‘पिताजी ने मुझे शिक्षा दी थी कि सुख-दुःख में हमेशा पति के साथ रहना। इसलिए मैं भी आपके साथ रहना। इसलिए मैं भी आपके साथ वन चलँूगी।‘‘
राम ने सीता को अनेक प्रकार से समझाया लेकिन सीता को साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। अब लक्ष्मण भी साथ जाने के लिए अनुरोध करने लगे। अंत में, राम ने उन्हें भी साथ ले जाने का निश्चय किया । राम ने लक्ष्मण से कहा - ‘‘माता से आज्ञा लेकर गुरु वशिष्ठ से दिव्य अस्त्र-शस्त्र ले आओ।‘‘
अब राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पिता से वन-गमन की आज्ञा माँगने के लिए उनके पास गए। वहाँ राजा, युमित्रा और कैकयी के साथ बैठे हुए थे। वे बहुत दुःखी थे। जब राम ने उनका पैर छूकर वन जाने की अनुमति माँगी तो राजा कुछ बोल न सके। वे बेहोश हो गए। होश आने पर उन्होंने कहा - ‘‘पुत्र, तुम वन मत जाओ। कैकेयी के कारण मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी मैंने ऐसा कह दिया। तुम अयोध्या का राजा बनकर राज सँभालो।‘‘ रात ने कहा-‘‘आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो आपका वचन झूठा होगा। रधुकुल की परम्परा भी नष्ट होगी। मुझे राज्य का तनिक भी मोह नही है। मुझे वन जाने दिजिए।‘‘
राम ने कैकयी द्वारा लाए गए वल्कल वस्त्र धारण कर दिए। सीता ने भी तपस्विनी के वस्त्र पहन लिए। उनकी ऐसी अवस्था देखकर सारे नगरवासी कैकेयी और दशरथ को भला-बुरा कहने लगे। सभी दुःख से व्याकुल होकर विलाप करने लगे। माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को समझाया - ‘‘पुत्र, राम और सीता की सेवा करना तथा उनकी रक्षा करना।‘‘ सबकी अनुमति लेकर राम, लक्ष्मण और सीता राजमहल से बाहर आ गए। सभी नगरवासी,स्त्री, पुरुष रोते-बिलखते उनके पीछे-पीछे चलने लगे। सुमन्त्र ने उन तीनों को रथ पर बिठाया और वन की ओर प्रस्थान किया।
श्रीराम को वन जाते हुए देखकर सभी अयोध्यावासी व्याकुल होकर रथ के पीछे दौड़ने लगे। राजा दशरथ और माता कौशल्या का दुःख तो अवर्णनी था। हा राम! हा राम! हा लक्ष्मण! केे स्वर चारों दिशाओं में गूँजने लगे। जब राम का रथ आँखों से ओझल हो गया तो राजा दशरथ बेसुध होकर भूमि पर गिर पड़े। रानियाँ उन्हें कौशल्या के महल में ले गईं। पूरी अयोध्या शोक में डूब गई।
अपने प्रति प्रजा के प्रेम को देखकर श्री राम का दयालु हृदय करुणा से भर गया आया। प्रजा उनके रथ के पीछे-पीछे चली आ रही थी। वे रथ से नीचे उतर गए और नगरवासियों के साथ-साथ पैदल चलने लगे। राम ने लोगो को बहुत समझाया, बहुत उपदेश दिया लेकिन प्रजा प्रेमवश लौट नहीं रही थी।
सायंकाल होते-होते वे तमसा नदी के किनारे पहँुच गए। वहाँ पर उन्होंने रात को विश्राम करने का निश्चय किया। वहीं भूमि पर तिनके की शैय्या पर राम और सीता विश्राम करने लगे। लक्ष्मण और सुमन्त्र उनकी रक्षा हेतु पहरा देने लगें। शोक और थकान के कारण सभी नगरवासी सो गए। जब रात्रि के दो प्रहर बीत गए तब राम जी ने सुमन्त्र से चुपचाप रथ ले चलने को कहा। सुमन्त्र ने ऐसा ही किया। सबेरा होते ही नगरवासियों ने देखा कि श्रीराम चले गए। सब लोग ‘हा राम ! हा राम ! पुकारते हुए चारों ओर दौड़ने लगे। इस प्रकार लोग प्रलाप करते हुए व संताप से भरे हुए अयोध्या लौंट आए।
शृगंवेापुर में निषादराज गुह द्वारा आतिथ्य
स्ुाबह होने तक राम, लक्ष्मण और सीता बहुत दूर जा चुके थे। अब वे गोमती नदी के किनारे पहुँच गए। गोमती नदी पार करके वे कुछ ही देर में सई नदी के तट पर पहँुच गए। यहीं पर कोशल राज्य की सीमा समाप्त होती थी। राम, लक्ष्मण और सीता सहित रथ से उतरे और वहाँ खड़े होकर उन्होंने अपनी मातृभूमि को प्रणाम किया, और माता-पिता तथा अयोध्या को याद कर करुण स्वर में सुमन्त्र से बोले -‘‘अब न जाने कब अपने माता-पिता से मिलने और सरयू के तट पर भ्रमण का अवसर मिले।‘‘
तभी सीमा पर रहने वाले-से लोग वहँा एकत्र को गए। पूरी बात ज्ञात होने पर वे दशरथ और कैकयी को धिक्कारने लगे तथा स्वयं राम के साथ चलने को तैयार हो गए। उनकी प्रीति देखकर राम की आँखंे भर आईं। उन्होेंने सबको समझाया और आगे चल पड़े।
संध्या होते-होते वे गंगा नदी के किनारे बसे शृंगवेरपुर गाँव में जा पहुँचे। यहँा निषादों के राजा गुह रहते थे। जब उन्होंने यह समाचार सुना तो वे आनन्दित होकर अपने प्रियजनों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर राम के स्वागत के लिए पहँुचे। दण्डवत् करके वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को देखने लगे। राम ने उन्हें गले से लगा लिया। गुह ने राम से कह-‘‘आप कृपा करके शृंगवेरपुर में पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए जिससे लोग मेरे सौभाग्य की सहारना करें।‘‘ राम ने गुह से कहा - ‘‘तुम्हारी बात उचित है परन्तु पिता की आज्ञा के अनुसार मेरा गाँव में निवास मे निवास करना उचित नहीं हैं। मुझे वन में रहना है।‘‘ यह सुनकर निषादरात गुह के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। राम वहाँ तृण शैय्या पर ही सोए।
दूसरे दिन राम ने सुमन्त्र से अयोध्या वापस जाने के लिए कहा। उन्होनें पिता और माताओं को अपना प्रणाम कहा। उन्होनें सुमन्त्र से कहा - ‘‘भरत से कहना कि वे सभी माताओं के साथ समान व्यवहार करें और पिताश्री का ध्यान रखें।‘‘ इस तरह समझदार राम ने सुमन्त्र को अयोध्या वापस भेज दिया।
अब राम ने निषादराज गुह से विदा ली और गंगा पार कर वत्सदेश में पहँुच गए। वे दुर्गम मार्गो पर चलते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। आगे राम, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण चल रहे थे। संध्या होने पर वे एक वृक्ष के नीचे रुक गए। वहाँ उन्होनें कंदमुल फल खाए। राम दुःखी होकर लक्ष्मण से कहने लगे - ‘‘मुझे माता चिंता है। मैं उनकी सेवा नहीं कर पारा, इस बात का मुझे दुःख है। तुम अयोध्या वापस लौट जाओ और माता की सेवा करना।‘‘ उन्हांेने रात्रि वही पर व्यतीत की।
इस तरह पद यात्रा करते हुए वे गंगा-यमुना के संगम पर स्थित भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँचे। चित्रकुट की प्राकृतिक शोभा से आकर्षित होकर राम ने कुछ दिन वहाँ बिताने का निश्चय किया। लक्ष्मण ने मंदाकिनी नदी के किनारे एक पर्णकुटी बनाई। राम , लक्ष्मण और सीता वहीं रहने लगे।
राजा दशरथ के प्राण त्याग
इधर जब सुमन्त्र अयोध्या वापस गए तो अयोध्यावासी तथा राजा-रानी सभी लोग उनसे राम, लक्ष्मण और सीता के विषय में पुछने लगे। सभी दुःख से व्याकुल होकर रो-रो कर राजा को बताया। राजा हा राम! हा जानकी ! कहकर विलाप करने लगे और सुमन्त्र विलाप करने लगे और सुमन्त्र से कहने लगे - ‘‘मुझे भी वहीं पहुँचा दो जहाँ राम , सीता और लक्ष्मण हैंै। नहीं तो अब प्राण निकलना ही चाहते हैं।‘‘
सखा राम सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहि त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ।।
ऐसा कहकर राजा पृथ्वी पर गिर पड़े। वे दुःखी होकर तड़पने लगे। सभी रानियाँ विलाप करके रो रही थीं। राजा के महल में कोहराम मच गया। राजा के प्राण कण्ठ में आ गए। वह रात युग के समान बड़ी हो गई थी। तभी राजा को अंधे तपस्वी श्रवण कुमार के पिता का शाप याद आ गया। उन्हानें कौश्ल्या से कहा-‘‘यह हमारे विवाह से पहले की घटना है जो तम्हें ज्ञात नहीं हैं। वर्षा ऋतु में मैं एक बार सरयु नदी के किनारे शिकार खलने गया था। अचानक मुझे नदी में किसी जानवर के पानी पीने की आवाज सुनाई दी। मैंने आवाज की ओर निशाना साध का बाण चला दिया। तभी मुझे किसी आदमी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। मैं घबराकर वहाँ गया तो देखा एक बालक घायल अवस्था में पड़ा है। अंतिम साँसे लेते हुए उसने मुझे बताया कि मेरे अंधे माता-पिता के प्यासे हैं। उन्हें पानी पिला दीजिए।‘‘ मैं पानी लेकर उसके माता-पिता के पास गया। उन्होेेंने मुझे अपना बेटा समझकर कहा - ‘‘बेटा श्रवण इतनी देर कहाँ लगा दी ?‘‘ मेरे मुँह से तो आवाज ही नहीं निकल रही थी। मैनें धीमी आवाज में कहा - मैं श्रवण कुमार नहीं अयोघ्या का राजा दशरथ हूँ। मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है। श्रवण कुमार मेरे बाण से मारा गया।‘‘ इतना सुनते ही वे करूण स्वर में विलाप करने लगे। उन्होंनें मुझे शाप - ‘‘हे राजन ! पुत्र के वियोग में जैसे आज हमारे प्राण निकल हैं वैसे ही तड़प-तड़प कर तुम्हारी भी मृत्यु होगी।‘‘ ऐसा कहकर उन दोनों ने प्राण त्याग दिए।
‘‘कौशल्या ऐसा लगता है अब वह शाप सच होने का समय आ गया है। मेरे प्रााण प्यारे राम। तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता।‘‘ राम, राम कहकर विलाप करते हुए राजा दशरथ ने पुत्र के वियोग में शरीर त्याग दिया -
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि सघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।
To be continue...
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hey 🇭🇰Cantonese🇲🇴 learners!
I got recommended this keyboard App called TypeDuck🦆by anwar @ Insta that you may like to check out! (If you haven't heard of, or aren't already using, that is!)
Even though I have yet to try it (long story involving my phone being wonky so I can't install this for myself, for now), cantonese4parents @ Insta already has, and it's available on Playstore, so I'd expect it has been vetted safe enough!
Apparently if you use this keyboard to type out in 粵拼 Jyutping (Cantonese Romanisation, equivalent to Mandarin's Pinyin system), it will show you not only the Jyutping spelling but also the English meaning alongside the 漢字 Chinese characters! ↓
Besides English, it apparently supports some less common language translations like “Hindi, Nepali and Urdu” (quoting from their website) too.
Very useful I think, for anyone who's not good at recognising/mapping the 漢字 to the 粵拼 yet! 😺
Trivia: If you're wondering why this App is called “TypeDuck” 🦆, it's because it's a play on 打得 in Cantonese (Jyutping: daa² dak¹), which means “able to type”! Great pun! Yes? 😸
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Things in KOTLC universe that are canon, actually, I'm Shanon's keyboard
Keefe is not a natural blond. He started dying his hair in his second year.
When Fitz and Keefe were in their second year, a rumor arose that Biana was the result of an affair, and because Lord Cassius was starting to get associated with the Vackers through their son's friendship, he didn't want any rumors to spark about his own son. To make Keefe look more like him, Cassius had Keefe start dying his hair.
Sophie was named at birth Sophia, but since no one ever calls her that she accidentally gave Alden the name Sophie when her legal papers were being made. Now she's just gaslighting the entire lost cities into believing her name's Sophie and the only one who knows is Dex, Biana, and Tam.
Tam has a lisp. Keefe used to tease him about it until Tam shoved him down a flight of stairs.
Rayni has killed three people. The first time she used her ability, and for a while, she hoped that the black swan member survived, but later she learned through Tam he died. The second time she set someone on fire like how you can use a magnifying glass to start fires with light. The third time she stabbed a girl around her own age in the chest. Rayni held her hand as she bled out.
Rayni is the tallest out of the Solroof kids. She's five-seven, Wylie is five-six, Linh is five-two and Tam is five feet even.
During the time that Dex wasn't involved much, like around flashback, he hit a massive growth spurt and is almost as tall as Fitz, but because of his bad posture, he looks shorter.
Dex also didn't get a haircut for a while, so for a short period of time, he had a mullet off-screen.
Tam is trans ftm. He managed to keep it a secret from Tiergan and Wylie for a while, but when Tiergan had to enroll him in Foxfire he found out. By then, he had already come out to Rayni.
Tam and Linh didn't actually dye their hair with metal. They would occasionally sneak into the lost cities and shoplift out hair dye.
Tam and Linh talk to each other in Vietnamese when they want to have private conversations.
If we're going off the normal high school languages, (Spanish, German, French, and Mandarin) I think Sophie would choose German. If her school had extra, (I have a friend whose school offered Japanese, Arabic, ASL, and maybe some more, but she goes to a private school) I think Sophie would be on the fence between Arabic and ASL, before ultimately choosing Arabic. She read Frankenstein and saw Clerval's love for Arabic poetry and wanted to understand it herself, but at the same time, because she was always surrounded by noise, she liked the quiet. She picked Arabic because it would be more useful.
Upon manifesting as a Polyglot, Sophie really wanted to learn ASL but found out her ability wouldn't instantly make her fluent bc it wasn't something she heard.
Rayni talks to herself in Hindi
Wylie does actually know ASL, and Sophie was absolutely delighted. She made him teach her a bunch of words.
The Diznees speak to each other in English all the time, partly for privacy and partly to annoy their snotty customers.
Tam's dead name is Tien.
Tam and Linh both took piano lessons. Linh liked learning the music, but Tam preferred to either make stuff up or sound out his favorite songs. Later, Tam learned to play guitar, and he mostly played bass.
Rayni can play piano, violin, and cello. She wanted to be a musician and introduce more human-style music to the lost cities.
Rayni never graduated, but Tiergan tried to get her to return to Foxfire so she could enter the nobility.
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