अनुशासन के आठ अंग
अष्टांग शब्द संस्कृत के दो शब्दों ‘अष्ट’और ‘अंग’से मिलकर बना है। ‘अष्ट’संख्या आठ को संदर्भित करती है जबकि ‘अंग’ का अर्थ है शरीर या अंग। इसलिए अष्टांग योग, योग के आठ अंगों का एक पूर्ण मिलन है जो कि योग सूत्रों के दर्शन की विभिन्न शाखाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जीवन के ��िभिन्न क्षेत्र में अनुशासन के लिए महर्षि पतंजलि ने साधन पाद में इसके बारे में बताया है। योग दर्शन में वर्णित यह आठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
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सर्वांगीण व्यायाम यौगिक जॉगिङ्ग
सहज या सूक्ष्म व्यायाम में कुल बारह क्रियाओं का समावेश है। यद्यपि इनका अलग से कोई नाम नहीं है, इन्हें मात्र स्थिति-संख्या के रूप में ही जाना जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इन सूक्ष्म व्यायामों का मुख्य उद्देश्य शरीर में स्फूर्ति लाकर आसन-प्राणायाम के लिए शरीर को तैयार करना है। इसीलिए इसे आसन-प्राणायाम के पूर्व करने का विधान है। प्रस्तुत हैं सूक्ष्म व्यायाम की स्थितियां:-
स्थिति-1:
प्रारम्भिक स्थिति में सहज रूप से एक ही स्थान पर खड़े होकर इस प्रकार दौड़ें, जिसमें लम्बा गहरा श्वास लेते व छोड़ते हुए बन्द मुठी सहित हाथों की कोहनियाँ मुड़कर सामने से कन्धों तक आयें तथा नीचे सीधी होकर जंघाओं के बगल तक जायें। इसी क्रिया के दौरान पैरों के घुटने इस प्रकार मोड़ें कि एड़ियाँ नितम्बों से यथासम्भव स्पर्श करें। इस क्रिया में वेगात्मक रूप से एक हाथ मोड़ने के दौरान नीचे से उसी तरफ का पैर मुड़ेगा।
श्वास विधि: दायें हाथ व दायें पैर को मोड़ते समय लम्बा श्वास भरना व विपरीत ओर से करते हुए श्वास बाहर छोड़ना आदर्श विधि है।
स्थिति-2:
दूसरी क्रिया में प���ली स्थिति के अन्तर्गत हाथों की कोहनियाँ न मोड़ते हुए, उन्हें यथासम्भव ऊपर की ओर सीधा करें तथा सीधा रखते हुए नीचे जंघाओं के बगल तक लायें, बारी-बारी से पंजों पर खड़े होकर घुटनों को यथाशक्ति मोड़ते हुए एड़ियों को नितम्बों से लगाने का प्रयास करें। श्वास क्रम पहली स्थिति के समान रहेगा।
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मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य
सुखी जीवन का मार्ग
सभी मनुष्य पूर्ण सुखी जीवन जीना चाहते हैं। पूर्णसुख, शान्ति, संतुष्टि, पूर्ण तृप्ति व शुभ यह सब मानव मात्र की समान आकांक्षा है। इस पूर्ण सुख, पूर्ण शान्ति, संतुष्टि, पूर्ण तृप्ति व शुभ की प्राप्ति में यँू तो बहुत सी बाधाएं हैं परन्तु इसमें दो प्रमुख बाधाएं हैं एक अज्ञान व दूसरा अभाव। अज्ञान का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है और जिस-जिस क्षेत्र में हमारा अज्ञान, मिथ्याज्ञान, अल्पज्ञान, भ्रान्तज्ञान या अयथार्थज्ञान नहीं होगा, उस-उस क्षेत्र में हमें पूर्ण सुख, शान्ति, संतुष्टि, तृप्ति या शुभ की प्राप्ति हो सकती है। अत: सामान्यत: सभी क्षेत्रों का सामान्य सत्यज्ञान या यथार्थज्ञान सभी मुनष्यों को होना ही चाहिये। पूर्ण ज्ञान-विज्ञान या विशेष ज्ञान, आनुभूतिक या अनुसंधानात्मक ज्ञान तो व्यक्तिको सीमित क्षेत्रों का ही हो सकता है। दूसरा है अभाव अर्थात् किसी भी तरह की दरिद्रता। नितान्त आवश्यक संसाधनों के बिना जीवन निर्वाह असंभव है तथा सुखी-जीवन के लिए दरिद्रता नहीं वैभव, शक्ति, संपदा या धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति अर्थात् अभ्युदय होना ही चाहिए। अभ्युदय व नि:श्रेयस की प्राप्ति यही धर्म है। अभाव से मुक्त, अभ्युदय से युक्ततथा अज्ञान से मुक्तव नि:श्रेयस युक्तदिव्य ज्ञान व दिव्य जीवन यही मानव मात्र के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अज्ञान व अभाव से मुक्तनि:श्रेयस व अभ्युदय से युक्तसमाधि व समृद्धि पूर्वक ही सभी जीवन जीना चाहते हैं। नि:श्रेयस से सहज समाधि व अभ्यदुय से सात्विक समृद्धि युक्तजीवन में ही पूर्ण सुख की प्राप्ति या अनुभूति होती है।
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आयुर्वेद में सलाद प्रकरण
भोजन के साथ सलाद का महत्वपूर्ण सम्बंध है। सलाद वह पक्ष है जिसके कारण आहार न केवल स्वादिष्ट बनता है, अपितु उसकी पौष्टिकता भी बढ़ जाती है। सलाद में सम्मिलित पदार्थों का बिना पका होना इसकी अनिवार्यता है। हरित या ताजे एवं बिना पकाए कच्चे भोज्य पदार्थों का प्रयोग होने के कारण ही संस्कृत में सलाद को 'हरितक’ कहते हैं।
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देशोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती
जब भारत के आकाश में संक��� की घनघोर घटा छायी हुई थी। देश परतन्त्रता पाश में जकड़ा हुआ कराह रहा था। वेद भास्कर के प्रकाश को अज्ञान, पाखण्ड रूपी राहू ने ग्रस रखा था। दीन, दलित, और नारी जाति की दयनीय दशा देखकर पत्थर भी द्रवित हो सकते थे। दरिद्रता, अभाव, अन्याय और अत्याचार रूपी राक्षस अट्टाहास कर रहे थे। ऐसे समय में सौराष्ट्र राज्य की टंकारा नगरी में स्वनाम धन्य श्री करसनजी तिवारी के घर में एक विलक्षण बालक का जन्म हुआ। नाम रखा गया मूलशंकर। मानो यही बालक आगे चलकर शंकर के मूलरूप को जानकर, समूची दुनिया को उसका सत्यस्वरूप बताकर देशवासियों को कल्याण पथ पर चलने की प्रेरणा देगा। समाज में व्याप्त समस्त कुरीतियों और समस्याओं के उन्मूलन के लिए ही मूलशंकर का अवतरण हुआ था। महाशिवरात्रि के दिन शिवालय में रात्रि का दृश्य देखकर प्रबल वैराग्य हुआ। निकल पड़े सच्चे शिव की खोज में। जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत भटकते रहे। स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा ली। मथुरा में ब्रह्मर्षि विरजानन्द की कुटिया में गुरुचरणों में बैठकर वेद एवं आर्ष ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। साधना की, देश की दुरव्यवस्था को देखकर निकल पड़े, देशोद्धारक के लिए, सोये देश को जगाने के लिए, पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए, लुप्त होती जा रही प्राचीन आर्ष शिक्षा पद्धति और गुरुकुलीय परम्परा को पुनरुज्जीवित करने के लिए।
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जीवन की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण खोज
एक छोटी सी कहानी से शुरु करते हैं जिसमें एक सम्राट् का इकलौता बेटा कुसंग में पडक़र शराबी जुआरी आदि दोषों से लिप्त हो गया तथा गलत रास्ते पर चल पड़ा।
सम्राट् ने बहुत समझाया पर सब व्यर्थ रहा। आखिर एक दिन मजबूर होकर राजा ने उसे यह सोचकर घर से निकाल दिया कि वह रोयेगा, पछतायेगा, लौटकर आयेगा, माफी मांगेगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह घर से चला गया और कीचड़ में धंसता ही चला गया। वह खूब शराब पीकर पड़ा रहता था, सम्राट् चिन्तित हुआ कि राज्य को आगे कौन सम्भालेगा? फिर जैसा भी हो, है तो आखिर बेटा ही। वर्षों बीत जाने पर राजा ने अपने एक व्यक्ति को उसे बुलाने के लिए भेजा, पर राजकुमार ने उसकी एक न सुनी, उसकी तरफ देखा तक नहीं और वह वापस लौट आया। फिर दूसरे मन्त्री को भेजा पर वह उससे इतनी मित्रता कर बैठा कि खुद भी उसी के रंग में रंग गया। वह भी पीने लगा और वहीं रह गया।
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जीवन की उत्पत्ति
श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में कहा गया है - अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से निष्पन्न होता है। कर्मों वेद से और वेद अक्षरब्रह्म से प्रकट हुआ। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है। अर्थात ठोस से द्रव होते हुए वायु बनाने में तप या ताप, यज्ञ अग्नि से आकाश रूपी शुन्य में पहुंचाकर उसके गति के परमोत्कर्ष से फिर बीज रूपी सूक्ष्म ठोस में परिणत करने की प्रक्रिया कर्म ही जीव उत्पत्ति के कारक है, और उसको जिस शक्ति ने कराता है वह ही परमात्मा तत्व है। वह ही सृष्टीकर्ता है।
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सेवा, साधना, साधन व साध्य के पथ की बाधाओं व भ्रान्तियों का निवारण
पतंजलि योगपीठ संस्था एवं पतंजलि संगठन के राष्ट्र व विश्वव्यापी विस्तार, गौरवपूर्ण योगदान, यश व दिव्य वैभव को देखकर करोड़ों देशवासियों को आत्म-सम्मान व स्वाभिमान की अनुभूति होती है। साथ ही एक दिव्य प्रेरणा भी मिलती है कि जब एक अकिंचन संन्यासी एवं आचार्य बिना किसी स्वार्थ के साधना, सेवा एवं साध्य के प्रति अपने दिव्य संकल्प के बल पर शून्य से प्रारम्भ करके इतना बड़ा दिव्य विश्वव्यापी सेवा कार्य कर सकते हैं तो हममें भी बहुत कुछ करने की शक्ति है और हम भी देश, धर्म, संस्कृति, मानवता, राष्ट्र व विश्व के लिए कुछ बड़ा करें, तभी भारत विश्वगुरु, विश्व की आर्थिक, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक महाशक्ति परम वैभवशाली बनेगा। बड़े कार्यों के सन्दर्भ में बहुत सी कुण्ठाएँ या भ्रान्तियाँ भी हमारे मन में होती हैं, हम उनको भी निर्मूल करना चाहते हैं।
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वर्तमान शिक्षा व्यवस्था चुनौती और समाधान
शिक्षा किसी भी देश के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक तत्वों में से एक है। प्राचीनकाल से भारतीय शिक्षा के विषय में मान्यता रही है कि यह व्यक्ति को न सिर्फ बुद्धिमान, विवेकशील, समझदार, नैतिक, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, दयालु, संवेदनशील बनाती है बल्कि रुढ़िवादी परम्पराओं से मुक्त एक प्रबुद्ध नागरिक भी बनाती है। हमारी शिक्षा का उद्देश्य हमेशा से यही रहा है कि वह अज्ञानता से मुक्ति और स्वार्थपरता से छुटकारा दिलाये। सदियों से ऐसी ही शिक्षा पद्धति से शिक्षित समूह मिलकर एक शिक्षित समाज की रचना करते रहे हैं जो देश को उन्नत और समृद्ध बनाने में हमेशा से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता चला आया है।
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अपनी प्राथमिकताओं को पहचानें
प्रभु-अनुग्रह से यह मानव-जीवन सबसे श्रेष्ठ है और इसकी श्रेष्ठता का भान जिस समय व्यक्ति को होता है, उसी समय से जीवन अप्रतिरोध के साथ निरन्तर उन्नति करता है। ईश्वर की अनुकम्पा से मानव को अप्रतिम कुशलता व क्षमता का अमूल्य भंडार मिला है, लेकिन इस भंडार को पाने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए, जिससे वह जीवन में कुशल बन सके, स्वयं के साथ-साथ संपूर्ण समाज व राष्ट्र की उन्नति कर सके।
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वैश्विक भू-राजनीति अखंड भारत का उभार
21वीं शताब्दी ईस्वी में वैश्विक भू-राजनीति की नई घटनाओं के कारण विश्व का प्राचीनतम स्वाभाविक राष्ट्र भारत पुन: विश्व शक्ति के रुप में उभरेगा, यह बात मैंने सर्वप्रथम परम पूज्य स्वामी रामदेवजी के मंच पर पंतजलि योगपीठ में 2013 में कही थी, जो आस्था चैनल पर प्रसारित भी हुई थी। गोवा की सनातन संस्था में भी एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में मैंने यही बात विस्तार से कही थी।
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जीवन की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण खोज
एक छोटी सी कहानी से शुरु करते हैं एक सम्राट् का इकलौता बेटा एक बार कुसंग में पड़कर शराबी, जुआरी आदि दोषों से लिप्त होकर गलत रास्ते पर चल पड़ा।
सम्राट् ने बहुत समझाया पर सब व्यर्थ रहा। आखिर मजबूर होकर राजा ने उसे एक दिन घर से निकाल दिया, सोचा था रोयेगा, पछतायेगा लौटकर आयेगा, माफी मांगेगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह घर से चला गया और कीचड़ में धंसता ही चला गया।
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