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भूल जाना एक क्षणिक सुख है
जैसे प्रेम एक क्षणिक अनुभूति
वास्तव में प्रेम और याद का न आना अथवा भूल जाना
जीवन की ही तरह क्षणिक है
मैं खोज़ में हूँ उसकी जो शाश्वत है
पर वह न प्रेम है... न जीवन... न तुम्हें भूल जाना
तुम्हें बिसराने के ठीक पहले
जो अंतिम क्षण होता है
तुम्हारी याद के आलिंगन में मेरा
वही क्षण मुझे ईश्वर की उपस्थिति का भान देता है
मैं उस क्षण में ठहर जाना चाहती हूँ
पर ये हो नहीं पाता
समय अपनी कटार से काट देता है
मेरी अनुभूतियों की डोर
और मैं...
एक बार फिर भटक जाती हूँ
तुमसे मिलने और तुम्हारे बिछड़ जान��� के बीच की धाराओं में
तुम्हें याद करने और तुम्हें भूल जाने की राहों में
नहीं चुन पाती कौन सी राह ले जाएगी मुझे अंतिम छोर पर
मैं कहती थी न... हमारे बीच जो है उसके लिए
प्रेम बहुत छोटा शब्द है
देखो न... समस्त ब्रह्मांड भी नहीं समेट पा रहा है
हमारे इस प्रेम-अप्रेम के सह-संबंधों की तरंगों के आयामों को।
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सवाल बहुत है मेरी ज़िंदगी में मगर
मेरी किस्मत में कोई जवाब नहीं है
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रखिये सम्भाल कर कुछ ज़ख्मों को इसलिए भी
कि ख़ुशियों के मिराज तुम्हारी आँखों को काबिज़ न कर सकें।
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ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी से लड़ते लड़ते
हर एक पल हम जियें हैं मरते मरते
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उदासियाँ
कितनी गहरी हों कि
फूट पड़े उनमें से हंसी का कोई फुआरा?
कितनी गीली हो जाये
दिल की जमीं कि
पौध नई उम्मीदों की उग आए?
जीवन से मृत्यु के बीच के
लंबे सफ़र में
मिलते हैं कितने ही लोग
मृत्यु से जीवन के सफ़र तक
खामोशी कितनी गहरी हो कि
अनकही कोई बात समय के पार से
तैरती चली आये?
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प्रकृति के गर्भ से जब जन्मी थी कवितायें
सरल सहज नम जो थी कवितायें
वो सब माँओं ने ले ली
पथरीली ऊबड़खाबड़ बेरंग कवितायें
जिनके हिस्से आयी, वो युगपुरुष हुये
स्वछंद हवा में उड़ती रही जिनकी कवितायें
वो कलाकार अथवा कवि हो गये
कविताओं के मृत देह जिनको मिली
वो सब धर्म की राह पर चल दिये
कवितायें जो जन्मी नही
परन्तु जिन्होंने सहा जीवनचक्र का घात
वो ही अजन्मा रही कवितायें हैं
“मेरी कवितायें”
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पाषाणों के पास भी होता होगा सरल ह्रदय
कि बहती हुई नदी की दीवानगी देख कर
वे दे न पाएं मार्ग नदी को
तो घिस कर अपना बदन
नदी के लिए मार्ग बना लेते हैं, मगर
जीवन की जिजिविषा से लबरेज़ मानव
के ह्रदय में कैसा पाषण रखा होगा
कि उसको नहीं जगा पाती
अश्रुओं की बहती कोई नदी।
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मेरे लिए प्रेम
ईश्वर तक पहुंचने का अंतिम मार्ग था
जिस पर चलते हुए मैंने सीखा
पत्थरों, सुखी नदियों, झरे फूलों और
तितलियों के टूटे हुए परों से प्रेम करना
खंडित प्रतिमाओं को पूजने का विधान भी
मुझे प्रेम के अंधविश्वास ने सिखाया
हर ठोकर पर प्रार्थना का एक पुलिंदा बना कर
उड़ा देना ऊंचे आसमान की कठोर दीवारों तक
कितना कुछ सिखाया प्रेम ने मुझे मगर
प्रेम ने कभी नहीं बताया
प्रेम के मार्ग पर चलते हुए
नहीं पहुंचा जा सकता ईश्वर तक
प्रेम पगडंडी पर चलते हुए नहीं आता कोई गांव
नहीं बुझती प्यास, प्रेम के सूखे कुएं से किसी की भी
प्रेम का अंतिम पड़ाव होती है प्रतीक्षा
जहाँ पर बैठे हुए पथिकों को
नहीं खोज़ पाया आज तक कोई ईश्वर।
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ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रैं ह्रः हन-हन, दह-दह, पच-पच, गृहाण-गृहाण, मारय-मारय, मर्दय-मर्दय, महा महा, भैरव भैरव रूपेण, धूनय-धूनय, कम्पय कम्पय, विघ्नय-विघ्नय, विश्वेश्वर, शोभय-शोभय, कटु-कटु मोहय हुं फट् स्वाहा।।
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