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खबर का मुख्य उद्देश्य समाज में विश्वास , आस्था और भाईचारे की नींव को मजबूत करना होता है ना रोष , नफरत और दहशत की अग्नि को फैलाना । परंतु क्या वर्तमान समय में पत्रकारिता के संदर्भ यही बात कही जा सकती है ? यदि कोई हादसा , घटना या दुर्घटना समाज के बड़े तबके में सनसनी पैदा करने में सक्षम नहीं है तब भी क्या वो आजकल अखबार में छप जाने के काबिल हो सकती है? पत्रकारिता का ध्येय येन केन प्रकारेण स्वयं के उत्थान के लिए चटपटी खबरें बनाना और फैलाना नहीं अपितु राष्ट्र के हित में कटु सत्य को सामने लाना है होता है जो कि वर्तमान समय में लगभग लुप्तप्राय हीं है। नकारात्मक पत्रकारिता पर व्ययंगात्मक रूप से चोट पहुंचाती हुई प्रस्तुत है मेरी कविता "खबर हादसे की"।
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दुर्योधन ने अपने अनुभव पर आधारित जब इस सत्य का उद्घाटन किया कि अश्वत्थामा द्वारा लाए गए वो पांच कटे हुए नर मुंड पांडवों के नहीं है, तब अश्वत्थामा को ये समझने में देर नहीं लगी कि वो पाँच कटे हुए नरमुंड पांडवों के पुत्रों के हैं। इस तथ्य के उदघाटन होने पर एक पल को तो अश्वत्थामा घबड़ा जाता है, परंतु अगले ही क्षण उसे ये बात धीरे धीरे समझ में आने लगती है कि भूल उससे नहीं अपितु उन पांडवों से हुई थी जिन्होंने अश्वत्थामा जैसे प्रबल शत्रु को हल्के में ले लिया था। भले हीं अश्वत्थामा के द्वारा भूल चूक से पांडवों के स्थान पर उनके पुत्रों का वध उसके हाथों से हो गया था , लेकिन उसके लिए ये अनपेक्षित और अप्रत्याशित फल था जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। प्रस्तुत है मेरी कविता "दुर्योधन कब मिट पाया का इकतालिसवां भाग।
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दुर्योधन बड़ी आशा के साथ अश्वत्थामा के हाथों से पांच कटे हुए सर को अपने हाथ लेता है और इस बात की पुष्टि के लिए कि कटे हुए वो पांच सरमुंड पांडवों के हीं है, उसे अपने हाथों से दबाता है। थोड़े हीं प्रयास के बाद जब वो पांचों सरमुंड दुर्योधन की हाथों में एक पपीते की तरह फुट पड़ते हैं तब दुर्योधन को अश्वत्थामा के द्वारा की गई गलती का एहसास होता है। दुर्योधन भले हीं पांडवों के प्रति नफरत की भावना से भरा हुआ था तथापि उनकी शारीरिक शक्ति से अनभिज्ञ नहीं था। उसे ये तो ज्ञात था हीं कि भीम आदि के सर इतने कोमल नहीं हो सकते जिसे इतनी आसानी से फोड़ दिया जाए। ये बात तो दुर्योधन को समझ में आ हीं गया था कि अश्वत्थामा के हाथों पांचों पांडव नहीं अपितु कोई अन्य हीं मृत्यु को प्राप्त हुए थे। प्रस्तुत है मेरी कविता "दुर्योधन कब मिट पाया का चालीसवां भाग।
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लक्ष्मण जी द्वारा राक्षसी सुर्पनखा के नाक और कान काटने की घटना सर्वविदित है। सुर्पनखा राक्षसराज लंकाधिपति रावण की बहन थी। जब प्रभु श्रीराम अपनी माता कैकयी की जिद पर अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को गए तब वनवास के दौरान सुर्पनखा श्रीराम जी और लक्ष्मण जी पर कामासक्त हो उनसे प्रणय निवेदन करने लगी।
परंतु श्रीराम जी ने उसका प्रणय निवेदन ये कहकर ठुकरा दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी के साथ रहते है । रामजी ने कहा कि लक्ष्मण जी बिना पत्नी के अकेले हैं इसलिए यदि वो चाहे तो लक्ष्मण जी पास अपना प्रणय निवेदन लेकर जा सकती है।
तत्पश्चात सुर्पनखा लक्ष्मण जी के पास प्रणय निवेदन लेकर जा पहुंची। जब लक्ष्मण जी ने भी उसका प्रणय निवेदन ठुकरा दिया तब क्रुद्ध होकर सुर्पनखा ने सीताजी को मारने का प्रयास किया। सीताजी की जान बचाने के लिए मजबूरन लक्ष्मण जी को सूर्पनखा के नाक काटने पड़े। सुर्पनखा से सम्बन्धित ये थी घटना जिसका वर्णन वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड में किया गया है।
वाल्मिकी रामायण में एक और राक्षसी का वर्णन किया गया है जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने सुर्पनखा की तरह हीं काटे थे। सुर्पनखा और इस राक्षसी के संबंध में बहुत कुछ समानताएं दिखती है। दोनों की दोनों हीं राक्षसियां लक्ष्मण जी पर मोहित होती है और दोनों की दोनों हीं राक्षसियां लक्ष्मण जी से प्रणय निवेदन करती हैं । लक्ष्मण जी न केवल दोनों के प्रणय निवेदन को अस्वीकार करते हैं अपितु उनके नाक और कान भी काटते हैं।
परंतु दोनों घटनाओं में काफी कुछ समानताएं होते हुए भी काफी कुछ असमानताएं भी हैं। लक्ष्मण जी द्वारा सुर्पनखा और इस राक्षसी के नाक और कान काटने का वर्णन वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड में किया गया है। हालांकि सुर्पनखा का जिक्र सीताजी के अपहरण के पहले आता है, जबकि उक्त राक्षसी का वर्णन सीताजी के अपहरण के बाद आता है। आइए देखते हैं, कौन थी वो राक्षसी?
सीताजी को अपहृत कर अपनी राजधानी लंका ले जाते हुए राक्षसराज रावण का सामना पक्षीराज जटायु से होता है। जटायु रावण के हाथो घायल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसका अंतिम जल संस्कार श्रीराम के हाथों द्वारा संपन्न होता है।
पक्षीराज जटायु का अंतिम जल संस्कार संपन्न करने के बाद जब श्रीराम और लक्ष्मण पश्चिम दिशा की तरफ घने जंगलों में आगे को बढ़ते हैं तो उनका सामना मतंग मुनि के आश्रम के आस पास उक्त राक्षसी होता है। इसका घटना का जिक्र वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड के उनसठवें सर्ग अर्थात 59 वें सर्ग में कुछ इस प्रकार होता है।
[आरण्यकाण्ड:]
[एकोनिसप्ततितम सर्ग:अर्थात उनसठवाँ सर्ग]
श्लोक संख्या 1-2
तस्मै प्रस्थितो रामलक्ष्मणौ ।
अवेक्षन्तौ वने सीतां पश्चिमां जग्मतुर्दिशम् ॥1॥
पक्षिराज [ यहां पक्षीराज का तात्पर्य जटायु से है] की जल क्रियादि पूरी कर, श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण वहाँ से रवाने हो, वन में सीता को ढूंढते हुए पश्चिम दिशा की ओर चले ॥1॥
तौ दिशं दक्षिणां गत्वा शरचापासिधारिणौ ।
अमिता पन्थानं प्रतिजग्मतुः ॥2॥
फिर धनुष वाण खड्ड हाथों में ले दोनों भाई उस मार्ग से जिस पर पहले कोई नहीं चला था, चल कर, पश्चिम दक्षिण के कोण
की ओर चले ॥ 2 ॥
श्लोक संख्या 3-5
अनेक प्रकार के घने झाड़, वृक्षवल्ली, लता आदि होने के कारण वह रास्ता केवल दुर्गम हो नहीं था, बल्कि भयंकर भी था ॥ 3॥
व्यतिक्रम्य तु वेगेन व्यालसिंहनिषेवितम्।
सुभीमं तन्महारण्यं व्यतियातौ महाबलौ ॥ 4॥
इस मार्ग को तय कर, वे अत्यन्त बलवान दोनों राजकुमार, ऐसे स्थान में पहुँचे, जहाँ पर अजगर सर्प और सिंह रहते थे । इस महा भयंकर महारण्य को भी उन दोनों ने पार किया ॥4॥
ततः परं जनस्थानात्रिक्रोशं गम्य राघवौ ।
क्रौञ्चारण्यं विविशतुर्गहनं तो महौजसौ ॥5॥
तदनन्तर चलते चलते वे दोनों बड़े पराक्रमी राजकुमार जन स्थान से तीन कोस दूर, क्रौञ्ज नामक एक जङ्गल में पहुँचे ॥ 5॥
वाल्मिकी रामायण के आरण्यकाण्ड के उनसठवाँ सर्ग के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 5 तक श्रीराम जी द्वारा जटायु के अंतिम संस्कार करने के बाद सीताजी की खोज में पश्चिम दिशा में जाने का वर्णन किया गया है, जहां पर वो दोनों भाई अत्यंत हीं घने जंगल पहुंचे जिसका नाम क्रौञ्ज था।
फिर श्लोक संख्या 6 से श्लोक संख्या 10 तक श्रीराम जी और लक्ष्मण जी द्वारा उस वन को पार करने और मतंग मुनि के आश्रम के समीप जाने का वर्णन किया गया है । वो जंगल बहुत हीं भयानक था तथा अनगिनत जंगली पशुओं और जानवरों से भरा हुआ था।
यहीं पर श्लोक संख्या 11 से श्लोक संख्या 11 से श्लोक संख्या 18 तक इस राक्षसी का वर्णन आता है जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने काट डाले थे। तो इस राक्षसी के वर्णन की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती है।
श्लोक संख्या 10-12.
दोनों दशरथनन्दनों ने वहाँ पर एक पर्वत कन्दरा देखी । वह पाताल की तरह गहरी थी और उसमें सदा अंधकार छाया रहता था ॥10॥
आसाद्य तौ नरव्याघ्रौ दर्यास्तस्या विदूरतः ।
ददृशाते महारूपां राक्षसी विकृताननाम् ॥11॥
उन दोनों पुरुषसिंहों ने, उस गुफा के समीप जा कर एक भयङ्कर रूप वाली विकरालमुखी राक्षसी को देखा ॥12॥
भवदामल्पसत्त्वानां वीभत्सां रौद्रदर्शनाम् ।
लम्बोदरीं तीक्ष्णदंष्ट्रां कलां परुषत्वचम् ॥12॥
वह छोटे जीव जन्तुओं के लिये बड़ी डरावनी थी। उसका रूप बड़ा घिनौना था । वह देखने में बड़ी भयंकर थी, क्योंकि उसकी डाढ़े बड़ी पैनी थीं और पेट बड़ा लंबा था । उसकी खाल बड़ी कड़ी थी ॥12॥
श्लोक संख्या 13-14.
भक्षयन्तीं मृगान्भीमान्त्रिकटां मुक्तमूर्धजाम् ।
प्रेक्षेतां तौ ततस्तत्र भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥13॥
वह बड़े बड़े मृगों को खाया करती थी, वह विकट रूप वाली और सिर के बालों को खोले हुए थी । ऐसी उस राक्षसी को उन दोनों भाइयों ने देखा ॥13॥
सा समासाद्य तौ वीरों व्रजन्तं भ्रातुरग्रतः ।
एहि रंस्यात्युक्त्वा समालम्बत' लक्ष्मणम् ॥14॥
वह राक्षसी इन दोनों भाइयों को देख और आगे चलते हुए लक्ष्मण को देख, बोली- आइए हम दोनों विहार करें, तदनन्तर उसने लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया ॥14।।
श्लोक संख्या 15-16.
उवाच चैनं वचनं सौमित्रिमुपगृह्य सा ।
अहं त्वयोमुखी नाम लाभस्ते त्वमसि प्रियः ॥15॥
वह लक्ष्मण जी को चिपटा कर कहने लगी- मेरा अधोमुखी नाम है , तुम मुझे बड़े प्रिय हो । बड़े भाग्य से तुम मुझे मिले हो ।।15॥
नाथ पर्वतकूटेषु नदीनां पुलिनेषु च ।
आयुःशेषमिमं वीर त्वं मया सह रंस्यसे ।।16॥
हे नाथ ,दुर्गम पर्वतों में और नदियों के तटों पर जीवन के शेष दिनों तक मेरे साथ तुम विहार करना ॥16॥
श्लोक संख्या 17-18.
एवमुक्तस्तु कुपितः खड्गमुद्धृत्य लक्ष्मणः ।
कर्णनासौ स्तनौ चास्या निचकर्तारिसूदनः ॥ 17॥
उसके ऐसे वचन सुन, लक्ष्मण जी ने कुपित हो और म्यान से तलवार निकाल उसके नाक, कान और स्तनों को काट डाला ॥ 17॥
कर्णनासे निकृत्ते तु विश्वरं सा विनद्य च ।
यथागतं प्रदुद्राव राक्षसी भीमदर्शना ।।18।।
जब उसके कान और नाक काट डाले गये, तब वह भयङ्कर राक्षसी भर नाद करती जिधर से आयी थी उधर ही को भाग खड़ी हुई ॥18॥
तो ये दूसरी राक्षसी जिसका नाम अधोमुखी था उसके नाक और कान भी लक्ष्मण जी ने काटे थे। हालांकि इस राक्षसी के नाम के अलावा और कोई जिक्र नहीं आता है वाल्मिकी रामायण में। जिस तरह से सुर्पनखा के खानदान के बारे में जानकारी मिलती है , इस तरह की जानकारी अधोमुखी राक्षसी के बारे में नहीं मिलती। उसके माता पिता कौन थे, उसका खानदान क्या था, उसके भाई बहन कौन थे इत्यादि, इसके बारे में वाल्मिकी रामायण कोई जानकारी नहीं देता है।
हालांकि उसकी शारीरिक रूप रेखा के बारे ये वर्णन किया गया है कि वो अधोमुखी राक्षसी दिखने में बहुत हीं कुरूप थी और पहाड़ के किसी कंदरा में रहती थी। चूंकि वो घने जंगलों में हिंसक पशुओं के बीच रहती थी इसलिए उसके लिए हिंसक होना, मृग आदि का खाना कोई असामान्य बात नहीं थी जिसका वर्णन वाल्मिकी रामायण में किया गया है ।
उसके निवास स्थल के बारे में निश्चित हीं रूप से अंदाजा लगाया जा सकता है । उसका निवास स्थल निश्चित रूप से हीं बालि के साम्राज्य किष्किंधा नगरी के आस पास हीं प्रतीत होती है। ये घटना मतंग मुनि के आश्रम के आस पास हीं हुई होगी। मतंग मुनि सबरी के गुरु थे जिनका उद्धार राम जी ने किया थे । ये मतंग मुनि वो ही थे जिनके श्राप के कारण बालि इस जगह के आस पास भी नहीं फटकता था।
जब बालि ने दुदुंभी नामक राक्षस का वध कर उसके शरीर को मतंग मुनि के आश्रम के पास फेंक दिया था तब क्रुद्ध होकर मतंग मुनि ने बालि को ये श्राप दिया था कि अगर बालि इस आश्रम के आस पास आएगा तो मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इसी कारण बालि वहां नहीं आता था।
यही कारण था कि जब बालि अपने छोटे भाई सुग्रीव से क्रोधित हो गया तब सुग्रीव अपनी जान बचाने के लिए मतंग मुनि के आश्रम के पास हीं रहते थे। जाहिर सी बात है , ये घटना बालि के साम्राज्य किष्किंधा नगरी के आस पास हीं घटित हुई प्रतीत होती है।
इस घटना को ध्यान से देखते हैं तो ज्ञात होता है कि लक्ष्मण जी अपने भाई राम जी से आगे चल रहे हैं। ये एक छोटे भाई का उत्तम चरित्र दिखाता है। जब सीताजी और रामजी साथ थे तो हमेशा उनके पीछे आदर भाव से चलते थे और जब सीताजी के अपहरण के कारण राम जी अति व्यथित हैं तो उनके आगे रहकर ढाल की तरह उनकी रक्षा करते हैं।
कोई यह जरूर कह सकता है कि सुर्पनखा के नाक और कान तब काटे गए थे जब उसने सीताजी को मारने का प्रयास किया परंतु यहां पर तो अधोमुखी ने केवल प्रणय निवेदन किया था। परंतु ध्यान देने वाली बात ये है कि ये घटना सीताजी के अपहरण और जटायु के वध के बाद घटित होती है। जाहिर सी बात है लक्ष्मण जी अति क्षुब्धवस्था में थे।
जब एक व्यक्ति अति क्षुब्धवस्था में हो, जिसकी भाभी का बलात अपहरण कर लिया गया हो, जिसके परम हितैषी जटायु का वध कर दिया गया हो, और जो स्वभाव से हीं अति क्रोधी हो, इन परिस्थितियों में कोई जबरदस्ती प्रणय निवेदन करने लगे तो परिणाम हो भी क्या सकता था? तिस पर प्रभु श्रीराम जी भी लक्ष्मण जी को मना करने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए ये घटना घटित हुई होगी।
यहां पर ये दिखाई पड़ता है कि प्रभु श्रीराम की दिशा निर्देश लक्ष्मण जी को शांत करने के लिए अति आवश्यक थी। चूंकि श्रीराम जी अपनी पत्नी सीताजी के अपहृत हो जाने के कारण अत्यंत दुखी होंगे और लक्ष्मण जी के क्रोध को शांत करने हेतु कोई निर्देश न दे पाए होंगे, यही कारण होगा कि राक्षसी अधोमुखी द्वारा मात्र प्रणय निवेदन करने पर हीं लक्ष्मण जी ने उसके नाक और कान काट डाले। तो ये थी राक्षसी अधोमुखी जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने राक्षसी सुर्पनखा की तरह हीं काटे थे।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-39
दुर्योधन को गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु के उपरांत घटित होने वाली वो सारी घटनाएं याद आने लगती हैं कि कैसे अश्वत्थामा ने कुपित होकर पांडवों पर वैष्णवास्त्र का प्रयोग कर दिया था। वैष्णवास्त्र के सामने प्रतिरोध करने पर वो अस्त्र और भयंकर हो जाता और प्राण ले लेता। उससे बचने का एक हीं उपाय था कि उसके सामने झुक जाया जाए, इससे वो शस्त्र शांत होकर लौट जाता। केशव के समझाने पर भीम समेत सारे पांडव उस शस्त्र के सामने झुक गए। भले हीं पांडवों की जान श्रीकृष्ण के हस्तक्षेप के कारण बच गई हो एक बात तो निर्विवादित हीं थी कि अश्वत्थामा के समक्ष सारे पांडवों ने घुटने तो टेक हीं दिए थे। प्रस्तुत है मेरी दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया का उनचालिसवां भाग।

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एकलव्य :महाभारत का महाउपेक्षित महायोद्धा
महाभारत में अर्जुन , भीम , भीष्म पितामह , गुरु द्रोणाचार्य , कर्ण , जरासंध , शिशुपाल अश्वत्थामा आदि पराक्रमी योद्धाओं के पराक्रम के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। किसी भी साधारण पुरुष के बारे में पूछें तो इनके बारे में ठीक ठाक जानकारी मिल हीं जाती है।
एक कर्ण को छोड़कर बाकि जितने भी उक्त महारथी थे उनको अपने समय उचित सम्मान भी मिला था । यद्यपि कर्ण को समाज में उचित सम्मान नहीं मिला था तथापि उसे अपने अपमान के प्रतिशोध लेने का भरपूर मौका भी मिला था ।
भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण को कौरव सेना का सेनापति भी नियुक्त किया था। महार्षि वेदव्यास ने भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह हीं महाभारत के एक अध्याय को कर्ण में नाम पर समर्पित किया था और इसे कर्ण पर्व के नाम से भी जाना जाता है।
इन सबकी मृत्यु कब और कैसे हुई , इसकी जानकारी हर जगह मिल हीं जाएगी , परन्तु महाभारत का एक और महान योद्धा जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण , जरासंध , शिशुपाल आदि जैसे महारथियों के समकक्ष माना , उसे महाभारत ग्रन्थ के महज कुछ पन्नों में समेट दिया गया । आइये देखते हैं कि महाभारत का वो महावीर और महा उपेक्षित योद्धा कौन था ?
महाभारत ग्रन्थ के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में इस महायोद्धा का वर्णन जरासंध आदि महारथियों के साथ आता है । जब अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से ये पूछते हैं कि उन्होंने पांडवों की सुरक्षा के लिए कौन कौन से उपाय किये , तब अध्याय एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ,अर्थात अध्याय संख्या 181 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जरासंध आदि योद्धाओं के वध के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 1 की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती हैं ।
अर्जुन उवाच कथमस्मद्धितार्थ ते कैश्च योगैर्जनार्दन।
जरासंधप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः ॥1॥
अर्जुन ने पूछा जनार्दन, आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन किन उपायों से जरासंध आदि राजाओं का वध कराया है ? ॥1॥
श्रीवासुदेव उवाच जरासंधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानी स्युर्भयंकराः ॥2॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन , अगर जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य आदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते ॥2॥
दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही वो कौरवों का पक्ष लेते ॥3॥
ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः।
धार्तराष्ट्रां चमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव ॥4॥
वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़ता पूर्वक युद्ध करनेवाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे ॥4॥
सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः।
सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमिमाम् ॥5॥
सूतपुत्र कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते ॥5॥
योगैरपि हता यैस्ते तन्मे शृणु धनंजय ।
अजय्या हि विना योगैमधे ते दैवतैरपि ॥6॥
धनंजय , वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें मैं बतलाता हूँ, मुझसे सुनो। बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे ॥6॥
एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम् ।
योधयेत् समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम् ॥7॥
कुन्तीनन्दन , उनमें से अलग अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समराङ्गण में अकेला ही युद्ध कर सकता था॥7॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि अध्याय 181 के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 7 तक भगवान श्रीकृष्ण पांडव के 4 महारथी शत्रुओ के नाम लेते हैं जिनके नाम कुछ इस प्रकार है कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य।
यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने निषादनन्दन एकलव्य का नाम कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल जैसे महावीरों के साथ लिया है और आगे ये भी कहा है कि ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते।
फिर एक एक करके इन सब शत्रुओ के वध के उपाय के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 8 से श्लोक संख्या 16 तक भीम द्वारा महाबली जरासंध के साथ मल्लयुद्ध तथा फिर भीम द्वारा जरासंध के वध के में बताते हैं ।
जरासंध के वध के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह निकलकर आती है कि भीम के साथ उसके युद्ध होने के कछ दिनों पहले उसका श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के साथ भी युद्ध हुआ था जिसमे कि जरासंध का गदा टूट गया था। जरासंध अपने उस गदा के साथ लगभग अपराजेय हीं था।
अगर भीम को जरासंध के साथ उस गदा के साथ युद्ध करना पड़ता तो वो उसे कभी जीत नहीं सकते थे। जरासंध के गदा विहीन होने के कारण हीं श्रीकृष्ण द्वारा सुझाए गए तरीके का अनुसरण करने पर भीम जरासंध का वध कर पाते हैं । आगे के श्लोक संख्या 17 से श्लोक 21 तक निषादनन्दन एकलव्य के पराक्रम और फिर आगे शिशुपाल के बारे में भगव���न श्रीकृष्ण चर्चा करते हैं।
त्वद्धितार्थ च नैषादिरअष्ठेन वियोजितः।
द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः ॥ 17॥
तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्य पराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छल पूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था ॥17॥
स तु बद्धा१लित्राणो नेषादिदृढविक्रमः।
अतिमानी वनचरो बभौ राम इवापरः ॥18॥
सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था॥18॥
एकलव्यं हि साङ्गुष्ठमशका देवदानवाः ।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित् ॥19॥
भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बचपन में घटी उस घटना का जिक्र करते हैं जब छल द्वारा गुरु द्रोणाचार्य ने उससे उसका अंगूठा मांग लिया था। शायद यही कारण है कि कृष्ण एकलव्य के बारे में बताते हैं कि वो हाथ में दस्ताने पहनकर वन में विचरता था। अंगूठा कट जाने के कारण एकलव्य शायद अपने हाथों को बचाने के लिए ऐसा करता होगा।
एकलव्य के बचपन की कहानी कुछ इस प्रकार है। निषाद पुत्र एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण करना चाहता था , परन्तु जाति व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़े हुए सामाजिक व्यवस्था के आरोपित किए गए बंधन के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अस्त्र और शस्त्रों का ज्ञान देने से मना कर दिया था।
एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों कौरवों और पांडवों के साथ वन में भ्रमण करने को निकले तो उनके साथ साथ पांडवों का पालतू कुत्ता भी चल रहा था। वो कुत्ता इधर उधर घूमते हुए वन में उस जगह जा पहुंचा जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। एकलव्य को धनुर्विद्या का अभ्यास करते देख वो जोर जोर से भौंकने लगा।
घटना यूं घटी थी कि गुरु द्रोणाचार्य के मना करने पर एकलव्य ने हार नहीं मानी और गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर , उन्हीं को अपना गुरु बना लिया और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। उस समय जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था तो पांडवों का वो ही पालतू कुत्ता बार बार भौंक कर उसके अभ्यास में विघ्न पैदा करने लगा।
मजबूर होकर एकलव्य ने उस कुत्ते की मुख में वाणों की ऐसी वर्षा कर दी कि कुत्ते का मुख भी बंद हो गया और कुत्ते को कोई चोट भी नहीं पहुंची । उसकी ऐसी प्रतिभा देखकर सारे पांडव जन , विशेषकर अर्जुन बहुत चिंतित हुए क्योकि उस तरह वाणों के चलाने की निपुणता तो अर्जुन में भी नहीं थी ।
जब ये बात गुरु द्रोणाचार्य को पता चली तो उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लिया क्योंकि एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा स्थापित कर उन्हीं को अपना गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । एकलव्य की भी महानता इस बात से भी झलकती है कि गुरु के कहने पर उसने अपना अंगूठा हँसते हँसते गुरु द्रोणाचार्य को दान में दे दिया ।
एक तरफ तो वो गुरु थे जो सामाजिक व्यवस्था की जकड़न के कारण एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर देते हैं तो दूसरी तरफ वो ही शिष्य एकलव्य है जो उसी गुरु के मांगने पर हंसते हंसते अपना अंगूठा दान कर देता है। शायद यही कारण था कि श्रीकृष्ण निषाद नन्दन को सत्यनिष्ठ योद्धा की संज्ञा से पुकारते हैं।
एकलव्य का ये अंगूठा दान महाभारत में कर्ण द्वारा किए गए कवच कुंडल दान की याद दिलाता है। जिस प्रकार कर्ण के अंगूठा मांगने पर भगवान इंद्र का नाम कलंकित हुआ तो ठीक इसी प्रकार एकलव्य द्वारा किए गए अंगूठा दान ने गुरु द्रोणाचार्य के जीवन पर एक ऐसा दाग लगा दिया जिसे वो आजीवन धो नहीं पाए।
ये वो ही निषादराज एकलव्य था जिसके पराक्रम के बारे में श्रीकृष्ण जी आगे कहते हैं कि सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा जिस योद्धा की तुलना परशुराम जी से की जा रही हो , उसके परक्राम के बारे में अनुमान लगाना कोई मुश्किल कार्य नहीं । श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे भी एकलव्य के पराक्रम के बारे में कुछ इस प्रकार बताते है ।
कुन्तीकुमार, यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे ॥19॥
किमुमानुषमात्रेण शक्यःस्यात् प्रतिवीक्षितुम्।
दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम् ॥20॥
फिर कोई मनुष्य मात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था ? उसकी मुट्ठी मजबूत थी, वह अस्त्र-विद्या का विद्वान था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था ॥20॥
त्वद्धितार्थ तु स मया हतः संग्राममूर्धनि ।
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ॥21॥
तुम्हारे हित के लिये मैंने ही युद्ध के मुहाने पर उसे मार डाला था । पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखों के सामने ही मारा गया था ॥21॥
इसी एकलव्य के बारे में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। एक अंगूठा कट जाने के बाद भी एकलव्य की तुलना भगवान श्रीकृष्ण परशुराम जी से करते हैं। ये सोचने वाली बात है अगर उसका अंगूठा सुरक्षित होता तो किस तरह की प्रतिभा का प्रदर्शन करता।
उसकी योग्यता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है उस महायोद्धा एकलव्य का वध भगवान श्रीकृष्ण को करना पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे बताते हैं कि महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पहले उन्होंने स्वयं निषाद पुत्र एकलव्य का वध कर दिया थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इतने बड़े विशाल ग्रन्थ में महज 4 श्लोकों में हीं निषाद नन्दन एकलव्य के पराक्रम और उसके वध के बारे में जानकारी दी गई है। कर्ण के लिए तो एक अध्याय कर्ण पर्व के रूप में समर्पित है तो वहीं पर महाभारत के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में मात्र चार श्लोकों में हीं इस महान धनुर्धारी महापराक्रमी योद्धा को निपटा दिया गया है ।
अगर आप किसी से भी जरासंध , शिशुपाल या कर्ण के पराक्रम और उनकी मृत्यु के बारे में पूछे तो उनके बारे में सारी जानकारी बड़ी आसानी से मिल जाती है परन्तु अंगूठा दान के बाद एकलव्य का क्या हुआ , उसका वध भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों , कैसे और कहाँ किया , कोई जानकारी नहीं मिलती।
हालांकि कुछ किदवंतियों के अनुसार एकलव्य को भगवान श्रीकृष्ण का मौसेरा भाई बताया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अंगूठा दान के बाद एकलव्य अर्जुन और अन्य पांडवों से ईर्ष्या रखने लगा था।
महाभारत युद्ध होने से पहले जब जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया तब एकलव्य जरासंध का साथ दे रहा था। इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण ने एकलव्य का वध किया था। परंतु ये किदवंती हीं है। महाभारत के अध्याय संख्या 181 में इन बातों का कोई जिक्र नहीं आता हैं।
अगर इन बातों में कुछ सच्चाई होती तो जब भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बारे में चर्चा करते हैं तो इन घटनाओं का जिक्र जरूर करते। कारण जो भी रहा हो , ये बात तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है निषादराज पांडवों से ईर्ष्या करता था तथा भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हीं उसका वध हुआ था।
देखने वाली बात ये है कि कर्ण और अर्जुन दोनों ने महान गुरुओ से शिक्षा ली थी। एक तरफ अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था जो उ��की छत्र छाया में आगे बढ़ा था।
तो दूसरी तरफ कर्ण ने भगवान परशुराम से अस्त्र और शस्त्रों की शिक्षा ली थी। एकलव्य की महानता इस बात से साबित होती है कि उसको किसी भी गुरु का दिशा निर्देश नहीं मिला था।
निषाद राज एकलव्य स्वयं के अभ्यास द्वारा हीं कुशल योद्धा बना था। स्वयं के अभ्यास द्वारा एकलव्य ने ऐसी महानता और निपुणता हासिल कर ली थी जिसकी कल्पना ना तो अर्जुन कर सकता था और ना हीं कर्ण।
एकलव्य वो महान योद्धा था जिसकी तुलना खुद भगवान श्रीकृष्ण कर्ण , जरासंध , शिशुपाल , परशुराम इत्यादि के साथ करते हैं और एकलव्य को इनके समकक्ष मानते है , उसकी वीरता और पराक्रम के बारे में मात्र 4 श्लोक? इससे बड़ी उपेक्षा और हो हीं क्या सकती है ?
एकलव्य जैसे असाधारण योद्धा की मृत्यु के बारे में केवल एक श्लोक में वर्णन , क्या इससे भी ज्यादा कोई किसी योद्धा की उपेक्षा कर सकता है? कर्ण को महाभारत का भले हीं उपेक्षित पात्र माना जाता रहा हो परन्तु मेरे देखे एकलव्य , जिसने बचपन में अर्जुन और कर्ण से बेहतर प्रतिभा का प्रदर्शन किया और वो भी बिना किसी गुरु के , उससे ज्यादा उपेक्षित पात्र और कोई नहीं।
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित

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#सत्य #आनंद #ईश्वर #अनुभूति #God #Bliss #Truth #Experience
कहते हैं कि ईश्वर ,जो कि त्रिगुणातित है, अपने मूलस्व रूप में आनंद हीं है, इसीलिए तो उसे सदचित्तानंद के नाम से भी जाना जाता है। इस परम तत्व की एक और विशेषता इसकी सर्वव्यापकता है यानि कि चर, अचर, गोचर , अगोचर, पशु, पंछी, पेड़, पौधे, नदी , पहाड़, मानव, स्त्री आदि ये सबमें व्याप्त है। यही परम तत्व इस अस्तित्व के अस्तित्व का कारण है और परम आनंद की अनुभूति केवल इसी से संभव है। परंतु देखने वाली बात ये है कि आदमी अपना जीवन कैसे व्यतित करता है? इस अस्तित्व में अस्तित्वमान क्षणिक सांसारिक वस्तुओं से आनंद की आकांक्षा लिए हुए निराशा के समंदर में गोते लगाता रहता है। अपनी अतृप्त वासनाओं से विकल हो आनंद रहित जीवन गुजारने वाले मानव को अपने सदचित्तानंद रूप का भान आखिर हो तो कैसे? प्रस्तुत है मेरी कविता "भगवान बताएं कैसे :भाग-1"?
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जिस प्रकार भारतीय धर्मग्रंथों को ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक नहीं माना जाता रहा है ठीक उसी प्रकार इन धर्मग्रंथों में दिखाए गए महान व्यक्तित्व भी। इसका कुल कारण ये है कि इन धर्मग्रंथों को कभी भी पश्चिमी इतिहासकारों के तर्ज पर समय के सापेक्ष तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत नहीं किया गया।
लेकिन क्या इसका मतलब ये हैं कि हम अपने पौराणिक महानायकों को मिथक की श्रेणी में रखकर इनकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर हीं प्रश्न उठाने लगे ? या कि बेहतर ये होगा कि इस तथ्य को जानकार कि ऐसा घटित हीं क्यों हुआ , इसकी तह तक जाये और प्रमाण के साथ भगवान श्रीकृष्ण आदि जैसे महान व्यक्तित्व के प्रमाणिकता की पुष्टि करे ? मेरे देखे दूसरा विकल्प हीं श्रेयकर है।
और यदि हम दूसरा विकल्प चुनकर सत्य की तहकीकात करें तो हमे ये सत्य प्रमाणिक रूप से नि��ल कर आता है कि आज से, अर्थात वर्तमान साल 2022 से लगभग 4053 साल पहले भगवान श्रीकृष्ण का अस्तित्व इस धरती पर था। आइए देखते हैं कैसे?
सर्वप्रथम ये देखते हैं पुराणों और वेदों में वर्णित व्यक्तित्वों को संदेह से देखे जाने का कारण क्या है ? फिर आगे प्रमाण की बात कर लेंगे। वेद , पुराण, महाभारत आदि ग्रंथों का मुख्य ध्येय भारतीय मनीषियों द्वारा अर्जित किए गए परम अनुभव और ज्ञान को आम जन मानस में प्रवाहित करना था। अपनी इसी शैली के कारण आज भगवान श्रीकृष्ण , श्रीराम जी आदि को ऐतिहासिक रूप से उस तरह से प्रमाणित नहीं माना जाता जैसे कि गौतम बुद्ध , महावीर जैन मुनि, गुरु नानक साहब जी इत्यादि महापुरुषों को।
लेकिन इन धर्मग्रंथों का यदि ध्यान से हम अवलोकन करेंगे तो तो इनके ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक होने के अनगिनत प्रमाण मिलने लगते हैं। इन धर्मग्रंथों में रचित पात्र मात्र किदवंती नहीं अपितु वास्तविक महानायक हैं। जरूरत है तो मात्र स्वयं के नजरिए को बदलने की, जो कि पश्चिमी इतिहासकारों के प्रभाव के कारण दूषित हो गए हैं।
चंद्रगुप्त मौर्य, धनानंद, चाणक्य, पुष्यमित्र शुंग इत्यादि के ऐतिहासिक प्रमाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।चंद्रगुप्त के पोते सम्राट अशोक को तो ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक माना जाता है। सम्राट अशोक के चिन्ह को हीं इस देश का राज चिन्ह बना दिया गया है। ऐसे में अगर इनसे संबंधित जानकारी किसी धर्म ग्रंथों में मिलता है तो फिर इनकी प्रमाणिकता पर संदेह उठाना कहां से उचित होगा?
अगर कोई आपसे ये कहे कि किसी वेद या पुराण में सम्राट चंद्रगुप्त, चाणक्य, वृहद्रथ, पुष्यमित्र शुंग, नंद वंश इत्यादि में बारे में विस्तार से वर्णन किया गया हो तो क्या आप श्रीकृष्ण या प्रभु श्रीराम की प्रमाणिकता पर आप संदेह कर पाएंगे? आइए देखते हैं इन तथ्यों में से एक ऐसा तथ्य तो वेद और पुराण की लिखी गई घटनाओं के प्रमाणिकता की पुष्टि करते हैं।
यदि हम भारतीय इतिहास को खंगाले तो सिकंदर के समकालीन होने के कारण नंद वंश तक का जिक्र बड़ी आसानी से मिल जाता है। परंतु नंद वंश के पहले आने वाले राजाओं की वंशावली का क्या? इनके बारे में कहां से जानकारी मिल सकती है?
पुराणों की गहराई से अवलोकन करने से बहुत तथ्य ऐसे मिलते हैं जिनकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इनमे से एक ऐसा ग्रंथ भागवद पुराण है जो श्रीकृष्ण के समकालीन जरासंध से लेकर नंदवंश, मौर्य वंश, शुंग वंश, तुर्क, यूनानी वंश, बहलिक वंश इत्यादि के बारे में बताता है।
भगवाद पुराण वेद व्यास द्वारा रचित 18 पुराणों में से एक पुराण है जो कि अर्जुन के पोते राजा परीक्षित और महात्मा शुकदेव के वार्तालाप के बीच आधारित है। ये ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से ओत प्रोत है।
इस ग्रंथ में शुकदेव जी कलियोग में होने वाले घटनाओं का वर्णन करते हैं। इसी प्रक्रिया के दौरान वो राजा परीक्षित को महाभारत काल के बाद से लेकर भविष्य में आने वाले राजवंशों का वर्णन करते हैं। इसी दौरान वो जरासंध, सम्राट चंद्रगुप्त, चाणक्य, वृहद्रथ, पुष्यमित्र शुंग, नंद वंश, कण्व वंश आदि के बारे में राजा परीक्षित को बताते हैं। आइए देखते हैं इसकी चर्चा कैसे की गई है।
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार महाभारत की घटना द्वापर युग में हुई थी। युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण के बाद और राजा परीक्षित के अवसान के बाद कलियुग का आगमन होता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि महाभारत की घटना घटने के बाद हीं कालियुग का पदार्पण होता है। कलियुग में आने वाले राजवंशों और लोगो के व्यवहार का वर्णन भागवद पुराण में किया गया है।
भागवद पुराण के नवम स्कन्ध [अर्थात 9 वें स्कन्ध] के बाइंसवें अध्याय के श्लोक संख्या से श्लोक संख्या 40 से 45 में राजा क्षेमक , जो कि सोमवंश का अंतिम राजा था, उसके बारे में बताया गया है कि द्वापर युग का वो अंतिम राजा होगा तथा उसके आने के बाद कलियुग की शुरुआत हो जाती है। इसके बाद श्लोक संख्या 46 से श्लोक संख्या 49 तक मगध वंश का वर्णन किया गया है। ये कुछ इस प्रकार है।
जरासन्ध के पुत्र सहदेव से मार्जारि, मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से अयुतायु और अयुतायु से निरमित्र नामक पुत्र होगा ॥ 46 ॥ निरमित्र के सुनक्षत्र, सुनक्षत्र के बृहत्सेन, बृहत्सेन के कर्मजित, कर्मजित के सृतञ्जय, सृतञ्जय के विप्र और विप्र के पुत्र का नाम होगा शुचि ॥ 47 ॥ शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्म सूत्र, धर्मसूत्र से शम, शम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल का जन्म होगा ॥ 48 ॥ सुबल का सुनीथ, सुनीथ का सत्यजित, सत्यजित का विश्वजित और विश्वजित का पुत्र रिपुञ्जय होगा। ये सब बृहद्रथवंश के राजा होंगे। इनका शासनकाल एक हजार वर्षके भीतर ही होगा ।। 49 ।।
जरासन्ध
[मगध वंश , 23 राजा, लगभग 1000साल]
[यह श्रीकृष्ण का समकालीन शासक था , तथा उनकी उपस्थिति में हीं भीम ने जरासंध का वध किया था]
।
सहदेव
।
मार्जारि
।
श्रुतश्रवा
।
अयुतायु
।
निरमित्र
।
सुनक्षत्र
।
बृहत्सेन
।
कर्मजित
।
सृतञ्जय
।
विप्र
।
शुचि
।
क्षेम
।
सुव्रत
।
धर्मसूत्र
।
शम
।
द्युमत्सेन
।
सुमति
।
सुबल
।
सुनीथ
।
सत्यजित
।
विश्वजित
।
रिपुञ्जय
इस प्रकार हम देखते हैं कि भागवद पुराण के नवम स्कन्ध के 22 वें अध्याय में जरासंध के पूरे वंश के बारे में चर्चा की गई है , जिसका कार्यकाल लगभग 1000 माना गया है। इसके बाद की घटने वाली घटनाओं का वर्णन भागवद पुराण के 12 वें स्कन्ध में अति विस्तार से किया गया है।
भागवद पुराण के द्वादश स्कन्ध [अर्थात 12 वें स्कन्ध] के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 43 में, जब महात्मा शुकदेव महाराजा परीक्षित को कलियुग में आने वाले राजवंशों का वर्णन करते हैं तो इन सारे राज वंशों के बारे में विस्तार से बताते हैं। इसकी शुरुआत राजा परीक्षित के प्रश्न पूछने से होती है।
जब राजा परीक्षित भगवान श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के बाद आने वाले राजवंशों के बारे में पूछते हैं तब इसके उत्तर में शुकदेवजी कलियुग ने आने वाले राजवंशों के बारे में चर्चा करते हैं। इसी क्रम में चंद्रगुप्त मौर्य का भी जिक्र आता है। आइए देखते हैं कि भागवद पुराण में इस बात को कैसे लिखा गया है।
राजा परीक्षित ने पूछा भगवन , यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण जब अपने परम धाम पधार गये, तब पृथ्वी पर किस वंश का राज्य हुआ ? तथा अब किसका राज्य होगा ? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ 1 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा – प्रिय परीक्षित मैंने तुम्हें नवें स्कन्ध में यह बात बतलायी थी कि जरासन्ध के पिता बृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्री का नाम होगा शुनक वह अपने स्वामी को मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योत को राज सिंहासन पर अभिषिक्त करेगा।
प्रद्योत का पुत्र होगा पालक, पालक का विशाखयूप, विशाखयूप का राजक और राजक का पुत्र होगा नन्दिवर्द्धन। प्रद्योत वंश में यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी 'प्रद्योतन' ये एक सौ अड़तीस वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 2-4॥
श्री कृष्ण स्वर्गारोहण
I
बृहद्रथ
[लगभग 1000साल]
I
जरासन्ध
I
पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय
[जरासंध के वंश का अंतिम राजा]
I
मंत्री शुनक-प्रद्योत
I
प्रद्योत वंश
[पाँच नरपति]
[एक सौ अड़तीस वर्ष, अर्थात 148 वर्ष ]
I
पालक
I
विशाखयूप
I
राजक
I
नन्दिवर्द्धन
इसके पश्चात शिशुनाग नाम का राजा होगा। शिशुनाग का काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्मा का पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ 5 ॥ क्षेत्रज्ञ का विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भक का पुत्र अजय होगा ॥ 6 ॥ अजय से नन्दिवर्द्धन और उससे महानन्दि का जन्म होगा। शिशुनाग वंश में ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुगमें तीन सौ साठ वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित, महानन्दि की शूद्रा पत्नी के गर्भ से नन्द नाम का पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान होगा। महानन्दि 'महापद्म' नामक निधि का अधिपति होगा। इसीलिये लोग उसे 'महापद्म' भी कहेंगे। वह क्षत्रिय राजाओंके विनाशका कारण बनेगा। तभी से राजालोग - प्रायः शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ।। 7-9॥
नन्दिवर्द्धन
।
शिशुनाग
[शिशूनाग वंश में 10 राजा और इसका कार्यकाल 360 साल तक]
।
काकवर्ण
।
क्षेमधर्मा
।
क्षेत्रज्ञ
।
विधिसार
[बिम्बिसार के नाम से भी जाना जाता है और ये गौतम बुद्ध का समकालीन था]
।
अजातशत्रु
[गौतम बुद्ध का समकालीन था]
।
दर्भक
।
अजय
।
नन्दिवर्द्धन
।
महानन्दि
।
नन्द
[इसे महापद्म के नाम से भी जाना जाता है]
।
चंद्रगुप्त मौर्य
[चाणक्य की सहायता से सम्राट बना जो कि सिकंदर का समकालीन था]
महापद्म पृथ्वी का एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासन का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियों के विनाश में हेतु होने की दृष्टि से तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये 10 ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्ष तक इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ 11 ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्व विख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रों का नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुग में मौर्य वंशी नरपति पृथ्वी का राज्य करेंगे ॥ 12 ॥ वही ब्राह्मण पहले पहल चन्द्रगुप्त मौर्य को राजाके पद पर अभिषिक्त करेगा।
चन्द्रगुप्त का पुत्र होगा वारिसार और वारिसार का अशोकवर्द्धन ॥ १३ ॥ अशोकवर्द्धन का पुत्र होगा सुयश । सुयश का सङ्गत, सङ्गत का शालिशूक और शालिक का सोमशर्मा ॥ १४ ॥ सोमशर्मा का शतधन्वा और शतधन्वा का पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंश विभूषण परीक्षित्, मौर्यवंश के ये दस नरपति कलियुग में एक सौ सैंतीस वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। बृहद्रथ का सेनापति होगा पुष्यमित्र शुङ्ग। वह अपने स्वामीको मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा।
चंद्रगुप्त मौर्य
[मौर्य वंश, 10 राजा, 137 साल]
।
वारिसार
[इसे बिम्बिसार के रूप में भी जाना जाता है]
।
अशोकवर्धन
[इसे महान सम्राट अशोक, चंडाशोक के नाम से भी जाना जाता है। इसने बौद्ध धर्म को पूरे विश्व में फैलाने का काम किया और इसके द्वारा निर्माण किए गए सिंह स्तंभ को भारत देश के राजकीय चिन्ह के रूप में आंगीकर किया गया है]
।
सुयश
।
सङ्गत
।
शालिक
।
शालिशूक
।
सोमशर्मा
।
शतधन्वा
।
बृहद्रथ
।
पुष्यमित्र शुङ्ग
पुष्यमित्र का अग्निमित्र और अग्निमित्र का सुज्येष्ठ होगा ॥ 15-16 ॥ सुज्येष्ठ का वसुमित्र , वसुमित्र का भद्रक और भद्रक का पुलिन्द, पुलिन्द का घोष और घोष का पुत्र होगा वज्रमित्र ॥ 17 ॥वज्रमित्र का भागवत और भागवत का पुत्र होगा देवभूति । शुङ्गवंश के ये दस नरपति एक सौ बारह वर्ष तक पृथ्वी का पालन करेंगे ॥ 18 ॥
पुष्यमित्र शुङ्ग
[शुङ्ग वंश, 10 राजा, 112 वर्ष]
।
अग्निमित्र
।
सुज्येष्ठ
।
वसुमित्र
।
भद्रक
।
पुलिन्द
।
घोष
।
वज्रमित्र
।
भागवत
।
देवभूति
।
वसुदेव
परीक्षित, शुङ्ग वंशी नरपतियों का राज्यकाल समाप्त होने पर यह पृथ्वी कण्व वंशी नरपतियों के हाथमें चली जायगी । कण्व वंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओं की अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंश का अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्री कण्व वंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबल से स्वयं राज्य करेगा वसुदेवका पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्र का नारायण और नारायण का सुशर्मा । सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा ॥ 19-20 ॥ कण्व वंश के ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ 21 ॥ प्रिय परीक्षित, कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा - बली, वह अन्ध्र जाति का बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा ॥ 22 ॥
वसुदेव
[कण्व वंश, 4 राजा, 345 साल ]
।
भूमित्र
।
नारायण
।
सुशर्मा
।
बली [शुद्र वंश]
इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ 23 ॥ पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिबिलक होगा। चिविलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन ।। 24- 22 ॥ परीक्षित, सुनन्दन का पुत्र होगा चकोर; चकोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी 'बहु' कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटे का नाम होगा शिवस्वाति वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा।
बली
[शुद्र वंश, 23 राजा, 456 साल]
।
कृष्ण
।
श्रीशान्तकर्ण
।
पौर्णमास
।
लम्बोदर
।
चिबिलक
।
मेघस्वाति
।
अटमान
।
अनिष्टकर्मा
।
हालेय
।
तलक
।
पुरीषभीरु
।
सुनन्दन
।
चकोर
।
शिवस्वाति
।
गोमतीपुत्र
।
पुरोमान
।
मेद
।
शिरा
।
शिवस्कन्द
।
यशश्री
।
विजय
।
चन्द्रविज्ञ
।
सात आभीर
शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरोमान ॥ 26 ॥ पुरोमान का मेद, मेद का शिरा, शिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यशश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे - चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ 27 ॥ परीक्षित, ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे ॥ 28 ॥ परीक्षित, इसके पश्चात् अवभृति नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वी का राज्य करेंगे। ये सब के सब बड़े लोभी होंगे ॥ 29 ॥ इनके दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ 30 ॥ मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे, तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे।
सात आभीर [43 राजा, 1099 साल]
।
दस गर्दभी
।
सोलह कङ्क
।
दस गुरुण्ड
।
ग्यारह मौन नरपति [300 साल]
जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नामकी नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वङ्गिरि, वङ्गिरिका भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक ये एक सौ छः वर्षतक राज्य करेंगे ।। 31- 33 ।। इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब के सब बाहिक कहलायेंगे। उनके पश्चात पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा ॥ 34 ॥ परीक्षित, बाह्निकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्न देश के तथा सात ही कोसल देश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर- भूमि के शासक और कुछ निषध देश के स्वामी होंगे ॥ 35 ॥
ग्यारह मौन नरपति [300 साल]
।
भूतनन्द [3 राजा, 106 साल]
।
वङ्गिरि
।
शिशुनन्दि
शिशुनन्दि
।
बाहिक
।
पुष्पमित्र[क्षत्रिय]
।
दुर्मित्र
।
विश्वस्फूर्जि
इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्वस्फूर्जि । यह पूर्वोक्त पुरञ्जय के अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा । यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा ॥ 36 ॥ इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा। यह अपने बल वीर्यसे क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ 37 ॥
परीक्षित, ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ 38 ॥ सिन्धुतट, काश्मीर मण्डल पर प्रायः शूद्रों का संस्कार एवं ब्रह्मतेज से हीन नाममात्रके द्विजों का और म्लेच्छोंका राज्य होगा ॥ 39 ॥
चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्ती पुरी और परीक्षित, ये सब के सब राजा आचार विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में राज्य करेंगे। ये सब के सब परले सिरे के झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातों को लेकर ही ये क्रोध के मारे आग बबूला हो जाया करेंगे ॥ 40॥
ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणों को मारने में भी नहीं हिचकेंगे। दूसरे की स्त्री और धन हथिया लेनेके लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते क्षण में रुष्ट तो क्षण में तुष्ट । इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी ॥ 41 ॥ इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य कर्मका पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुणसे अंधे बने राजा के वेषमें वे म्लेच्छ हो होंगे।
वे लूट खसोट कर अपनी प्रजाका खून चूसेंगे ॥ 42 ॥ जब ऐसे लोगों का शासन होगा, तो देश की प्रजामें भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषणकी वृद्धि हो जायगी। राजा लोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपस में भी एक दूसरेको उत्पीड़ित करेंगे और अन्ततः सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे ।। 43 ।।
यदि हम भागवद पुराण में वर्णित इन ऐतिहासिक घटनाओं को देखे तो ये तय हो जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का पदार्पण इस धरती पर लगभग 4000 साल पहले हुआ है। अभी 2022 चल रहा है। चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ईसा पूर्�� माना जाता है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल से पहले के राजवंशों का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है।
चंद्रगुप्त से पहले मगध के नरेश जरासंध के वंश के शासकों का वर्णन किया गया है, जिसकी अवधि तकरीबन 1000 साल की बताई गई है। तो मगध वंश के पश्चात प्रद्योत वंश का वर्णन किया गया है, जिसकी अवधि लगभग 148 साल की बताई गई है।
इसी प्रकार प्रद्योत वंश के अवसान के बाद शिशुनाग वंश के बारे में बताया गया है जिसमें 10 राजा हुए और इसका कार्यकाल लगभग 360 साल तक रहा है। इसी शिशुनाग वंश का अंतिम शासक नंद हुआ था जिसका वध करने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य सत्ताधीन हुआ था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जरासंध और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच तीन वंशों का जिक्र है। खुद जरासंध का मगध वंश जिसमे कि 23 राजा हुए और जिन्होंने लगभग 1000 साल तक शासन किया। फिर उसके बाद प्रद्योत वंश जिसमे कि 5 राजा हुए तथा जिसकी अवधि लगभग 148 साल की बताई गई।
फिर प्रद्योत वंश के बाद शिशुनाग वंश के बारे में बताया गया है कि जिसमें 10 राजा हुए और इसका कार्यकाल लगभग 360 साल साल बताया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जरासंध और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच लगभग 38 [23+5+10] राजाओं का वर्णन किया गया है तथा इसके बीच का समय 1508 साल [1000+148+360] का समय अंतराल आता है।
चंद्रगुप्त मौर्य का खुद का शासन काल लगभग 345 ईसा पूर्व बताया गया है। इसप्रकार हम देखे तो जरासंध का अस्तित्व लगभग 1853 ईसा पूर्व [1508+345] आता है। यदि वर्तमान समय से इस अवधि को देखें तो जरासंध का अस्तित्व लगभग 4053 साल [2200+1853] पहले आता है।
जरासंध भगवान श्रीकृष्ण का समकालीन था। जरासंध भगवान श्रीकृष्ण के मामा कंस का दामाद भी था। जरासंध ने श्रीकृष्ण पर 21 बार चढ़ाई भी की थी तथा जरासंध का वध भगवान श्रीकृष्ण की सलाहानुसार भीम ने उनकी हीं उपस्थिति में की थी। इसप्रकार हम कह सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण आज से लगभग 4000 साल पहले इस धरती पर अवतरित हुए थे।
ठीक इसी प्रकार ये भी कहा जा सकता है कि महाभारत की घटना भी कोई कपोल कल्पित घटना नहीं है , बल्कि निश्चित रूप से ये घटना आज से लगभग 4000 साल पहले घटित हुई है। इसे मात्र एक साहित्यिक रचना मान लेने की भूल पश्चिमी इतिहासकारों से हुई है। वास्तविकता तो ये है कि महाभारत का युद्ध प्रमाणिक रूप से लड़ा गया था।
भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम को केवल कहानियों का हिस्सा मान लेना उचित नहीं जान पड़ता। भागवद पुराण में वर्णित घटनाओं के आधार पर ये निश्चित रूप कहा जा सकता है कि जिस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर प्रमाणिक थे , बिल्कुल उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी।
इस कहानी में भगवान श्रीकृष्ण की प्रमाणिकता को साबित करने के लिए चंद्रगुप्त का इस्तेमाल एक मानक के रूप में किए जाने का कारण ये है कि भागवद पुराण में वर्णित राजाओं में चंद्रगुप्त मौर्य को पहला शासक है।जिसकी प्रमाणिकता के बारे में पश्चिमी इतिहासकार भी संदेह नहीं करते।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान कृष्ण की उपस्थिति को ठीक उसी तरह से प्रमाणिक माना जा सकता है जिस प्रकार कि गौतम बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य, सिकंदर, पोरस, अजातशत्रु, बिम्बिसार, चाणक्य और आम्रपाली इत्यादि के अस्तित्व को। ये बिल्कुल स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण इस धरती पर ठीक उसी प्रकार अस्तित्वमान थे जिस प्रकार कि गौतम बुद्ध।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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आम बोल चाल की भाषा में जब वाद विवाद के दौरान कोई अपनी मर्यादा को लांघने लगता है, अपनी हदें पार करने लगता है तब प्रायः उसे लक्ष्मण रेखा नहीं पार करने की चेतावनी दी जाती है।
आखिर ये लक्ष्मण रेखा है क्या जिसके बारे में बार बार चर्चा की जाती है? आम बोल चाल की भाषा में जिस लक्ष्मण रेखा का इस्तेमाल बड़े धड़ल्ले से किया जाता है, आखिर में उसकी सच्चाई क्या है? इस कहानी की उत्पत्ति कहां से होती है? ये कहानी सच है भी या नहीं, आइए देखते हैं?
किदवंती के अनुसार जब प्रभु श्रीराम अपनी माता कैकयी की इक्छानुसार अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को गए तब रावण की बहन सुर्पनखा श्रीराम जी पर कामासक्त हो उनसे प्रणय निवेदन करने लगी।
जब श्रीराम जी ने उसका प्रणय निवेदन ये कहकर ठुकरा दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी के साथ रहते है तब वो लक्ष्मण जी के पास प्रणय निवेदन लेकर जा पहुंची। जब लक्ष्मण जी ने भी उसका प्रणय निवेदन ठुकरा दिया तब क्रुद्ध हो सुर्पनखा ने सीताजी को मारने का प्रयास किया । सीताजी की जान बचाने के लिए मजबूरन लक्ष्मण को सूर्पनखा के नाक काटने पड़े।
लक्ष्मण जी द्वारा घायल लिए जाने के बाद सूर्पनखा सर्वप्रथम राक्षस खर के पास पहुँचती है और अपने साथ हुई सारी घटनाओं का वर्णन करती है ।
सूर्पनखा के साथ हुए दुर्व्यवहार को जानने के बाद राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ मिलकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी पर आक्रमण कर देता है ।
लेकिन सूर्पनखा की आशा के विपरीत राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ श्रीराम और लक्ष्मण जी के साथ युद्ध करते हुए मारा जाता है । अब सूर्पनखा के पास और कोई चारा नहीं बचता है सिवाए इसके कि वो अपने भाई रावण से सहायता मांगे ।
इसके बाद घायल सुर्पनखा रावण के पहुंच कर प्रतिशोध लेने को कहती है। रावण अपने मामा मरीच के साथ षडयंत्र रचता है। रावण का मामा मारीच सोने के मृग का वेश बनाकर वन में रह रहे श्रीराम , सीताजी और लक्ष्मण जी के पास पहुंचता है।
सीताजी उस सोने के जैसे दिखने वाले मृग पर मोहित हो श्रीराम जी से उसे पकड़ने को कहती है। सीताजी के जिद करने पर श्रीराम उस सोने के बने मारीच का पीछा करते करते जंगल में बहुत दूर निकल जाते हैं।
जब श्रीराम उस सोने के मृग बने रावण के मामा मारीच को वाण मारते हैं तो मरने से पहले मारीच जोर जोर से हे लक्ष्मण और हे सीते चिल्लाता हैं। ये आवाज सुनकर सीता लक्ष्मण जी को श्रीराम जी की सहायता हेतु जाने को कहती है।
लक्ष्मण जी शुरुआत में तो जाने को तैयार नहीं होते हैं, परंतु सीताजी के बार बार जिद करने पर वो जाने को मजबूर हो जाते हैं। लेकिन जाने से पहले वो कुटिया के चारो तरफ अपने मंत्र सिद्ध वाण से एक रेखा खींच देते हैं।
वो सीताजी को ये भी कहते हैं कि श्रीराम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में ये रेखा उनकी रक्षा करेगा। अगर वो उस रेखा से बाहर नहीं निकलती हैं तो वो बिल्कुल सुरक्षित रहेगी।
जब लक्ष्मण जी बाहर चले जाते हैं तो योजनानुसार रावण सीताजी के पास सन्यासी का वेश बनाकर भिक्षा मांगने पहुंचता है। सीताजी भिक्षा लेकर आती तो हैं लेकिन लक्ष्मण जी द्वारा खींची गई उस रेखा से बाहर नहीं निकलती।
ये देखकर सन्यासी बना रावण भिक्षा लेने से इंकार कर देता हैं। अंत में सीताजी लक्ष्मणजी द्वारा खींची गई उस लकीर के बाहर आ जाती है और उनका रावण द्वारा अपहरण कर लिया जाता है।
लक्ष्मण जी द्वारा सीताजी की रक्षा के लिए खींची गई उसी तथाकथित लकीर को आम बो�� चाल की भाषा में लक्ष्मण रेखा के नाम से जाना जाता है। इस कथा के अनुसार लक्ष्मण जी ने सीताजी की रक्षा के लिए जो लकीर खींच दी थी, अगर वो उसका उल्लंघन नहीं करती तो वो रावण द्वारा अपहृत नहीं की जाती।
महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण को तथ्यात्मक प्रस्तुतिकरण के संबंध में सबसे अधिक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता हैं। आइए देखते हैं महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण में इस तथ्य को कैसे उल्लेखित किया गया है। वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड के पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ( अर्थात 45 वें भाग) में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है।
इस घटना की शुरुआत मारीच के श्रीराम जी द्वारा वाण से घायल करने और मरने से पहले मारीच द्वारा सीता और लक्ष्मण को पुकारने और सीता द्वारा इस पुकार को सुनकर घबड़ाने से शुरू होती है। इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से शुरू होता है।
जब जानकी जी ने उस वन में पति के कण्ठस्वर के सदृश स्वर में आर्त्तनाद सुना, तब वे लक्ष्मण से बोलीं कि, जा कर तुम श्रीराम चन्द्र जी को देखो तो ॥ १ ॥
न हि से हृदयं स्थाने जीवावतिष्ठते ।
क्रोशतः परमार्तस्य श्रुतः शब्दो मया भृशम् ॥ २ ॥
इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं, चित्त न जाने कैसा हो रहा है , क्योंकि मैंने परम पीड़ित और अत्यन्त चिल्लाते हुए श्रीराम चन्द्र जी का शब्द सुना है ॥ २ ॥
आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥३॥
अतः तुम वन में जा कर इस प्रकार आर्त्तनाद करने वाले
अपने भाई की रक्षा करो और दौड़ कर शीघ्र जाओ क्योंकि उनको इस समय रक्षण की आवश्यकता है ॥ ३॥
रक्षसां वशमापनं सिंहानामिव गोषम् ।
न जगाम तथोक्तस्तुभ्रातुराज्ञाय शासनम् ॥४॥
जान पड़ता है, वे राक्षसों के वश में जा पड़े हैं, इसी से वे सिंहों के बीच में पड़े हुए बैल की तरह विकल हैं। सीता जी के इस कहने पर भी लक्ष्मण जी न गये, क्योंकि उनको उनके भाई श्रीरामचन्द्र जाते समय आश्रम में रह कर, सीता की रखवाली करने की आज्ञा दे गये थे ॥४॥
तमुवाच ततस्तत्र कुपिता जनकात्मजा ,
सौमित्र मित्ररूपेण भ्रातुस्त्वमसि त्वमसि शत्रुवत् ॥५॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि जब घबड़ाकर सीताजी लक्ष्मण जी से श्रीराम चंद्र जी की रक्षा करने को कहती है, तब भी लक्ष्मण जी नहीं जाते हैं। इसका कारण ये था कि श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी को सीता जी की रक्षा करने की आज्ञा दे गए थे।
अपनी बात को न मानते देख सीताजी क्रोध में आ जाती हैं वो लक्ष्मण जी को अनगिनत आरोप लगाने लगती हैं ताकि लक्ष्मण जी उनकी बात मानने को बाध्य हो जाएं। आगे देखते है क्या हुआ।
तब तो सीता जी ने क्रोध कर लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण , तुम अपने भाई के मित्ररूपी शत्रु हो ॥ ५ ॥ ( यदि ऐसा न होता तो ) तुम क्या उस महा तेजस्वी श्रीराम चन्द्र जी के दिन इसी प्रकार निश्चिन्त और स्थिर बैठे रहते ।
देखो जिन श्रीरामचन्द्र जी के अधीन में हो कर, तुम वन में आए हो, उन्हीं श्रीरामचन्द्र जी के प्राण जब संकट में पड़े हैं, तब मैं यहाँ रह कर ही क्या करूँगी (अर्थात यदि तुम न जायोगे तो मैं जाऊँगी)।
अब्रवीलक्ष्मणस्वस्तां सीतां मृगवधूमिव । पन्नगासुरगन्धर्वदेवमानुषराक्षसः ॥१०॥
अशक्यस्तव वैदेहि भर्ता जेतुं न संशयः ।
दानवेषु च घोरेषु न स विद्येत शोभने ॥१२॥
देव देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु पतत्रिषु ॥११॥
राक्षसेषु पिशाचेषु किन्नरेषु मृगेषु च ।
यो रामं प्रति युध्येत समरे वासवोपमम् ।
अवध्यः समरे राम्रो नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥१३॥
जब जानकी जी ने प्राँखों में आंसू भर कर, यह कहा ।।८।। तब लगी के समान डरी हुई सीता जी से लक्ष्मण जी बोले कि, पन्नग, तुर, गन्धर्व, देवता, मनुष्य, राक्षस , कोई भी तुम्हारे पति (श्रीरामचन्द्र जी) को नहीं जीत सकता । इसमें कुछ भी सन्देह मत करना ।।१०।।
हे सीते ! हे शोभने ! देवताओं, मनुष्यों, गन्ध, पक्षियों, राक्षसों, पिशाचों किन्नरों, मृगों, भयङ्कर वानरों में कोई भी ऐसा नहीं. जो इन्द्र के समान पराक्रमी श्रीराम चन्द्र के समाने रण क्षेत्र में खड़ा रह सके । युद्धक्षेत्र में श्री रामचन्द्र जी अजेय हैं। अतः तुमको ऐसा कहना उचित नहीं ||११|| १२||१३||
श्रीरामचन्द्र की अनुपस्थिति में, मैं तुम्हें इस वन में अकेली छोड़ कर नहीं जा सकता। बड़े बड़े बलवानों की भी यह शक्ति नहीं कि, वे श्रीराम चन्द्र।जी के बल को रोक सकें ॥१४॥
त्रिभिर्लेोकैः समुद्युक्तः सेश्वरैरपि सामरैः ।
हृदयं निर्वृतं तेऽस्तु सन्तापस्त्यज्यतामयम् ||१५||
अगर तीनों लोक और समस्त देवताओं सहित इन्द्र इकट्ठे हो जाएँ , तो भी श्रीराम चन्द्र जी का सामना नहीं कर सकते । यतः तुम सन्ताप को दूर कर, आनन्दित हो ॥ १५ ॥
न च तस्य स्वरो व्यक्तं मायया केनचित्कृतः ॥१६॥
आगमिष्यति ते भर्ता शीघ्रं हत्वा मृगोत्तमम् ॥
उस उत्तम मृग को मार तुम्हारे पति शीघ्र आ जायगे । जो शब्द तुमने सुना है, वह श्रीरामचन्द्र जी का नहीं है, यह तो किसी का बनावटी शब्द है ॥१६॥
खरस्य निधनादेव जनस्थानवधं प्रति
राक्षसा विविधा वाचो विसृजन्ति महावने ॥१९॥
बल्कि गंधर्व नगर की तरह यह उस राक्षस की माया है। हे सीते ! महात्मा श्रीरामचन्द्र जी मुझको, तुम्हें धरोहर की तरह सौंप गये हैं । अतः हे वरारोहे ! मैं तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना नहीं चाहता |
हे वैदेही ! एक बात और है जनस्थान निवासी खर आदि राक्षसों का वध करने से राक्षसों से हमारा वैर हो गया है । इस महावन में राक्षस लोग हम लोगों को धोखा देने के लिये भाँति भाँति की बोलियां बोला करते हैं ॥१७॥१८॥१६॥
सहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि ।
लक्ष्मणेनैवमुक्ता सा क्रुद्धा संरक्तलोचना ।।२०।।
और साधुओं को पीड़ित करना राक्षसों का एक प्रकार का खेल है । अतः तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। जब लक्ष्मण ने इस प्रकार कहा, तब सीता जी के नेत्र क्रोध के मारे लाल हो गये ॥२०॥
लक्ष्मण जी सीताजी जी इन बातों को सुनकर भी विचलित नहीं होते। उन्हें अपने अग्रज श्रीराम जी की शक्ति पर अपार आस्था है। उल्टे वो सीताजी को समझाने की कोशिश करने लगते हैं। लक्ष्मण जी की कोशिश होती है कि जिस प्रकार उनकी आस्था श्रीराम जी में हैं उसी तरह का विश्वास सीताजी में भी स्थापित हो जाए।
लक्ष्मण जी सीताजी ये भी समझाते हैं कि खर इत्यादि राक्षसों का वध करने से सारे राक्षस उनके विरुद्ध हो गए हैं। इस कारण तरह तरह की ध्वनि निकाल कर ऊनलोगों को परेशान करने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु सीताजी पर इसका ठीक विपरीत असर होता है।
इन बातों को सुनकर सीताजी क्रोध में आ जाती हैं और उग्र होकर लक्ष्मण जी को अनगिनत बातें कहती हैं जिस कारण लक्ष्मण जी को मजबूरन सीताजी को अकेला छोड़कर जाना पड़ता है। वो आगे इस प्रकार कहते हैं।
मैं तो श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा मान, तुम्हें अकेली छोड़ कर, नहीं जाता था किन्तु हे बरानने , तुम्हारा मङ्गल हो , लो मैं श्रीरामचन्द्र के पास जाता हूँ ॥ ३३ ॥
रक्षन्तु त्वां विशालाक्षि समग्रा वनदेवताः।
निमित्तानि हि घोराणि यानि प्रादुर्भवन्ति मे ॥३४॥
अपि त्वां सह रामेण पश्येयं पुनरागतः ॥३५॥
लक्ष्मणेनैवमुक्ता सा रुदन्ती जनकात्���जा ।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं तीव्रं बाष्पपरिप्लुता ॥३६॥
हे विशालाचि ! समस्त वनदेवता तुम्हारी रक्षा करें। इस समय बड़े बुरे बुरे शकुन मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं ॥ ३४ ॥ क्या मैं श्रीरामचन्द्र सहित लौट, फिर तुम्हें ( यहाँ ) देख सकूँगा ॥३५॥
विशालनयना जनकनन्दिनी को ऐसे व्यार्त्तभाव से, उदास हो रोते हुए देख, लक्ष्मण ने उनको समझाया बुझाया, किन्तु जानकी जे अपने देवर से फिर कुछ भी न कहा (अर्थात रूठ गयीं )॥ ४०॥
ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः
कृताञ्जलिः किञ्चिदभिप्रणम्य च।
अन्वीक्षमाणो बहुशश्च मैथिलीं जगाम रामस्य समीपमात्मवान् ॥४१॥
तदनन्तर जितेन्द्रिय लक्ष्मण जी हाथ जोड़ और बहुत झुक कर सीता जी को प्रणाम कर और बार बार सीता को देखते हुए श्रीरामचन्द्र के पास चल दिये ॥४१॥
तथा परुषमुक्तस्तु कुपितो राघवानुजः
स विकाङ्क्षन्भृशं रामं प्रतस्थे न चिरादिव ॥१॥
इस प्रकार जानकी की कटूक्तियों से कुपित हो, लक्ष्मण जी वहां से जाने की बिलकुल इच्छा न रहते भी, श्रीराम चन्द्र जी के पास तुरन्त चल दिये ॥१॥
जब लक्ष्मण जी के बार बार समझाने पर भी सीता जी नहीं मानती, उल्टे लक्ष्मण जी को बुरा भला कहने लगती हैं तब लक्ष्मण जी के बार और कोई उपाय नहीं रह जाता हैं सिवाए इसके कि सीताजी की आज्ञानुसार वो प्रभु श्रीराम के पास पहुंचकर उनकी रक्षा करें । हालांकि उनके मन में शंका के अनगिनत बादल मंडराने लगते हैं फिर भी लक्ष्मण जी सीताजी को अकेले छोड़कर जाने को बाध्य हो जाते हैं । इसके बाद क्या होता है, आइए देखते हैं।
इतने में एकान्त अवसर पा, रावण ने सन्यासी का भेष बनाया और वह तुरन्त सीता के सामने जा पहुँचा ॥२॥
काषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही ।
वामे चांसेऽवसज्ज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू ॥३॥
उस समय रावण स्वच्छ रुमा रङ्ग के कपड़े पहिने हुए था, उसके सिर पर चोटी थी, सिर पर छत्ता लगाये और पैरों में खड़ाऊ पहिने हुए था । उसके वाम कंधे पर त्रिदण्ड था और हाथ में कमण्डलु लिये हुए था ॥३॥
तदासाद्य दशग्रीवः क्षिमनन्तरमास्थितः ।
अभिचक्राम देहीं परिव्राजकरूपवृत् || २||
जब इस प्रकार रावण ने सीता जी की प्रशंसा की तब उस संन्यास वेषधारी रावण को आया हुआ देख, सीता जी ने उसका यथा विधि प्रातिथ्य किया ॥ ३२॥
सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली
उपनीयासनं पूर्वं पाद्येनाभिनिमन्त्र्य च।
अब्रवीत्सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शनम् ।। ३३ ।।
सीता ने पहले उसे बैठने को आसन दिया,।फिर पैर धोने का जल दिया, फिर फल आदि भोज्य पदार्थ देते हुए कहा, यह सिद्ध किये हुए पदार्थ हैं ( अर्थात् भूंजे हुए अथवा पकाये हुए ) ॥ ३३ ॥
द्विजाति वेषेण समीक्ष्य मैथिली समागतं पात्र कुसुम्भ भ्धारिणम् ।
अशक्य मुद्वेष्टुमपायदर्शनं यद्ब्राह्मणवत्तदाऽङ्गना ॥ ३४ ॥
सीताजी को अकेले पाकर रावण सन्यासी का वेश बनाए हुए वहां पहुंचता है । रावण के सन्यासी वेश में स्वयं की प्रशंसा करते हुए देख सीताजी सर्वप्रथम उसका आदर करती हैं और खाने के लिए फल आदि भी प्रदान करती हैं। फिर सीताजी रावण से उसका परिचय जानना चाहती है। जब उत्तर में रावण अपना अभिमान भरा परिचय देता है। सीताजी जी प्रतिउत्तर में रावण को अपने पति श्रीराम चंद्र जी के अद्भुत पराक्रम का वर्णन करने लगती हैं।
अब आप अपना नाम, गोत्र और कुल ठीक ठीक बतलाइये और यह भी बतलाइये कि, आप अकेले इस दण्डकवन में क्यों फिरते हैं ॥ २४ ॥
एवं ब्रुवन्त्यां सीतायां रामपत्न्यां महाबलः ।
प्रत्युवाचोत्तरं तीव्रं रावणो राक्षसाधिपः ।। २५।।
जब सीता जी ने ऐसे वचन कहे, तब महावली राक्षस नाथ रावण ने ये कठोर वचन कहे ॥ २५ ॥
येन वित्रासिता लोकाः सदेवासुरपन्नगाः ।
अहं स रावणो नाम सीते रक्षोगणेश्वरः || २६ ॥
हे सीते ! जिसके डर से देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित तीनों लोक थरथराते हैं, मैं वही राक्षसों का राजा रावण हूँ ॥ २६ ॥
सीता जी अपना परिचय देते हुए कहती जो सब शुभ लक्षणों से युक्त और वटवृक्ष की तरह सबको सदैव सुखदायी हैं, उन सत्यप्रतिज्ञ और महाभाग श्रीरामचन्द्र की मैं अनुगामिनी हूँ ३४ ॥
"कूपोदकं वटच्या युवतीनां स्तनद्वयम् । शीतकाले भवेत्युष्णमुष्णकाले च शीतलम् ॥" ]
महावाहुं महोरस्कं सिंहविक्रान्तगामिनम् नृसिंहं सिंहसङ्काशमहं राममनुव्रता ।। ३५ ।।
महावाहु, चौड़ी छाती वाले, सिंह जैसी चाल चलने वाले, पुरुष सिंह, और सिंह से समान पराक्रमी श्रीरामचन्द्र की मैं अनुगामिनी हूँ || ३५ ॥
पूर्णचन्द्राननं रामं राजवत्सं जितेन्द्रियम्
पृथुकीर्त्ति महात्मानमहं राममनुव्रता ॥ ३६ ॥
मैं उन राजकुमार एवं जितेन्द्रिय श्रीराम की अनुगामिनी हूँ, जिनका मुख पूर्णमासी के चन्द्रमा के तुल्य है, जिनकी कीर्ति दिग दिगन्त व्यापिनी है और जो महात्मा हैं ॥ ३६॥
त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिच्छसि सुदुर्लभाम्
नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुमादित्यस्य प्रथा यथा ॥ ३७ ॥
सो तू शृगाल के समान हो कर, सिंहनी के तुल्य मुझे चाहता है । किन्तु तू मुझे उसी प्रकार नहीं छू सकता, जिस प्रकार सूर्य की प्रभा को कोई नहीं छू सकता ॥ ३७॥
सीताजी रावण के अभिमान भरे शब्दों से डरती नहीं अपितु राम जी पराक्रम से उसे परिचय करवाते हुए उसे धमकाती भी है। स्वयं के लिए अपमान जनक शब्दों का प्रयोग होते देखा रावण क्रोध में आकर अपना रौद्र रूप प्रकट करता है और फिर सीताजी का बलपूर्वक अपहरण कर लेता है।
हे भीरु ! यदि तू मेरा तिरस्कार करेगी, तो पीछे तुझको वैसे ही पछताना पड़ेगा, जैसे उर्वशी अप्सरा राजा पुरूरवा के लात मार कर, पछतायी थी ॥१८॥
अङ्गुल्या न समो रामो मम युद्धे स मानुषः ।
तव भाग्येन सम्प्राप्तं भजस्व वरवर्णिनि ।।१९॥
राम मनुष्य है, वह युद्ध में मेरी एक अंगुली के वल के समान भी ( वलवान् ) नहीं है । (अर्थात् उसमें इतना भी बल नहीं, जितना मेरी एक अंगुली में है) अतः वह युद्ध में मेरा सामना कैसे कर सकता है। हे वरवर्णिनी ! इसे तू अपना सौभाग्य समझ कि, मैं यहाँ आया हूँ । अतः तू मुझे अङ्गीकार कर ॥ १६ ॥
एवमुक्ता तु वैदेही क्रुद्धा संरक्तलोचना ।
अब्रवीत्परुषं वाक्यं रहिते राक्षसाधिपम् ॥२०॥
रावण के ऐसे वचन सुन, सीता कुपित हो और लाल लाल नेत्र कर, उस निर्जन वन में रावण से कठोर वचन बोली ॥ २० ॥
कथं वैश्रवणं देवं सर्वभूतनमस्कृतम्
भ्रातरं व्यपदिश्य त्वमशुभं कर्तुमिच्छसि ॥२१॥
हे रावण ! तू सर्वदेवताओं के पूज्य कुवेर को अपना भाई बतला कर भी, ऐसा बुरा काम करने को ( क्यों ) उतारु हुआ है ? ॥२१॥
मैं प्रकाश में बैठा बैठा अपनी भुजाओं से इस पृथिवी को उठा सकता हूँ, और समुद्र को पी सकता हूँ और काल को संग्राम में मार सकता हूँ ॥३॥
अर्क रुन्ध्यां शरैस्तीक्ष्णैर्निर्भिन्द्यां हि महीतलम् । कामरूपिणमुन्मत्ते पश्य मां कामदं पतिम् ॥४॥
मैं अपने पैने बाणों से सूर्य की गति को रोक सकता हूँ और पृथिवी को विदीर्ण कर सकता हूँ । हे उन्मत्ते ! मुझ इच्छारूपधारी और मनोरथ पूर्ण करने वाले पति को देख । ( अर्थात् मुझे अपना पति बना ) ॥४॥
एवमुक्तवतस्तस्य सूर्यकल्पे शिखिप्रभे । क्रुद्धस्य 'हरिपर्यन्ते ��क्ते नेत्र बभूवतुः ॥५॥
ऐसा कहते हुए रावण की पीली आँखे मारे क्रोध के प्रज्वलित भाग की तरह लाल हो गयीं ॥५॥
सद्यः सौम्यं परित्यज्य भिक्षुरूपं स रावणः । स्वं रूपं कालरूपार्थं भेजे वैश्रवणानुजः ॥६॥
उसी क्षण कुबेर के छोटे भाई रावण ने अपने उस संन्यासी भेष को त्याग, काल के समान भयङ्कर रूप धारण किया ॥६॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड के पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ( अर्थात 45 वें भाग) में इस घटनाक्रम में लक्ष्मण द्वारा सीताजी की रक्षा करने के लिए किसी भी प्रकार की लकीर या रेखा को खींचने का वर्णन नहीं आता है।
जब सीताजी रावण से उसका परिचय पूछती हैं तो वो सन्यासी वेश में हीं अपना सम्पूर्ण परिचय देता है। रावण यहां पर सीता जी के किसी लकीर से बाहर आने का इंतजार नहीं करता, बल्कि सीताजी के पूछने पर सन्यासी वेश में हीं अपना परिचय दे देता है।
रावण द्वारा स्वयं को राक्षस राज बताए जाने का सीता जी पर कोई असर नहीं होता। सीताजी का यहां साहसी व्यक्तित्व रूप प्रकाशित होता है। वो रावण से डरती नहीं अपितु उसे धमकाती भी हैं। ऐसी साहसी स्त्री के लिए भला किसी रेखा की जरूरत हो भी क्या सकती थी।
लक्ष्मण रेखा के खींचे जाने की कहानी कब , कहाँ , कैसे और क्यों प्रचलित हो गई इसके बांरे में ना तो ठीक ठीक जानकारी हीं प्राप्त है और ना हीं कोई ठीक ठीक से अनुमान हीं लगा सकता है।
अब कारण जो भी रहा हो लेकिन ये बात तो तय हीं हैं कि किसी ने इसके बारे में तथ्यों को खंगाला नहीं । सुनी सुनी बातों को मानने से बेहतर तो ये है कि प्रमाणिक ग्रंथों में इसकी तहकीकात की जाय , और जहाँ तक तथ्यों के प्रमाणिकता का सवाल है , वाल्मीकि रामायण से बेहतर ग्रन्थ भला कौन सा हो सकता है ?
और जब हम लक्ष्मण रेखा के सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण की जाँच पड़ताल करते हैं तो ये तथ्य निर्विवादित रूप से सामने निकल कर आता है कि लक्ष्मण रेखा कभी अस्तित्व में आई हीं नहीं थी।
वाल्मिकी रामायण के अरण्यक कांड इस तरह की लक्ष्मण रेखा खींचने का कोई जिक्र हीं नहीं आता है। लक्ष्मण रेखा की घटना जो कि आम बोल चाल की भाषा में सर्वव्याप्त है दरअसल कभी अस्तित्व में था हीं नहीं। लक्ष्मण रेखा की वास्तविक सच्चाई ये है कि लक्ष्मण रेखा कभी खींची हीं नहीं गई।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
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एक व्यक्ति का व्यक्तित्व उस व्यक्ति की सोच पर हीं निर्भर करता है। लेकिन केवल अच्छा विचार का होना हीं काफी नहीं है। अगर मानव कर्म न करे और केवल अच्छा सोचता हीं रह जाए तो क्या फायदा। बिना कर्म के मात्र अच्छे विचार रखने का क्या औचित्य? प्रमाद और आलस्य एक पुरुष के लिए सबसे बड़े शत्रु होते हैं। जिस व्यक्ति के विचार उसके आलस के अधीन होते हैं वो मनोवांछित लक्ष्य का संधान करने में प्रायः असफल हीं साबित होता है। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो" का षष्ठम और अंतिम भाग।
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