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#सत्य अर्थ
shopsalary · 2 years
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परम सत्य क्या है : Satya Ka Kya Arth Hai, उद्देश्य, परिभाषा
सत्य क्या है, Satya Ka Kya Arth Hai : 1.सत्य शाश्वत है, धर्म है 2.जन्म व मृत्यु सत्य है 3.दया व कर्तव्यों का पालन सत्य है 4.सत्य परमेश्वर
परम सत्य क्या है : Satya Ka Kya Arth Hai, परम सत्य को जानने से पहले आपको परम सत्य के ज्ञान को समझना जरुरी है। जिससे तीन रूपों में व्यक्त किया गया हैं, ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवन, के रूप व्यक्त किया गया हैं। इन तीन दिव्य पक्षों को सूर्य के हष्टान्त द्वारा समझ सकते हैं। क्योंकि उनके भी तीन अलग अलग पक्ष हैं। – जैसे धुप (प्रकाश), सूर्य की सतह तथा सूर्यलोक स्वयं। जो सूर्य के प्रकाश का अध्ययन करता…
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amitgopal390 · 1 year
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राम नाम सत्य है क्यों बोला जाता है?
राम नाम सत्य है क्यों बोला जाता है? इस नश्वर संसार में कोई भी इंसान अमर नहीं है। हर जन्म लेने वाले प्राणी को आखिरकार इस दुनिया से विदा लेना पड़ता है। जब किसी इंसान की मृत्यु हो जाती है तो आपने देखा होगा कि शव यात्रा के दौरान साथ में चलने वाले लोग राम नाम सत्य है बोलते हैं। ऐसा लोग क्यों करते हैं और इसके पीछे की वजह क्या है, आइए जानते हैं। राम नाम सत्य हैं क्यों कहा जाता हैं? हमारे हिंदू धर्म में…
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rootinformation · 2 years
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कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त की व्याख्या करें saptanga theory of kautilya
कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त की व्याख्या करें saptanga theory of kautilya
कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त :- प्राचीन भारत के मौर्य युग ने दुनिया को एक महत्वपूर्ण ग्रंथ दिया था, कौटिल्य का अर्थशास्त्र । यह राजनीतिक राज्य-व्यवस्था में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है । कौटिल्य को भारतीय मेकियावेली के रूप में जाना जाता है क्योंकि वह निर्मम और चतुर रणनीति और नीतियों के कारण युद्धकला सहित राज्यस्तरीय दृष्टिकोण को दर्शाता है । ‘प्रकृति‘ की स्थिति…
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naveensarohasblog · 22 days
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गीता अध्याय 12 श्लोक 3 से 4 में गीता बोलने वाले को लिखा है
कहा है कि - "जो हमेशा उस सर्वव्यापी की पूजा करते हैं, जिनके बारे में
मैं भी नहीं जानता, एक जो हमेशा एक जैसा है, स्थिर, अपरिवर्तित,
प्रकट अर्थात छुपे, अमर परम अक्षर ब्रह्म; वे
भक्त जो सभी जीवों के हितेषी हैं, जो देखते हैं
सब पर समान रूप से, मुझे ही प्राप्त करो। " अर्थ है कि तत्वदर्शी
संतों को सचिदानंद घन ब्रह्म का ज्ञान है (सत्य-
सुखदाता परमात्मा अर्थात परम अक्षर ब्रह्म जिनका ज्ञान है
गीता बोलने वाले के पास भी नहीं है। एक नहीं मिलने के कारण
तत्वदर्शी संत, भक्त ब्रह्म विचार का 'ॐ' मंत्र कहते हैं
यह परम अक्षर ब्रह्म का होना है। जिसके परिणामस्वरूप, वे बने रहते हैं
काल के जाल में। इसलिए उसने कहा है कि - 'वो पुजारी आता है
सिर्फ मुझे। 'परमात्मा कबीर ने 'सोहम' मंत्र का आविष्कार करके भक्तों को बताया है, लेकिन उन्होंने फिर भी सरनाम गुप्त रखा है। यह है
सुख वेद में लिखा है :-
SohM shabd hum jag mein laaye | Saar shabd Hum gupt chhupaay ||
SohM oopar aur hai Satsukrit ek naam |
Sab hanso ka baas hai, nahin basti nahin thaam ||
Satguru SohM naam de, gujh beeraj vistaar |
Bin SohM seejhae nahin, mool mantra nij saar ||
सोम नाम का जाप परम ब्रह्म का होता है
जो गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में स्पष्ट है। सरनाम के बिना, 'सोहम'
और 'ॐ' दोनों ही पूर्ण मोक्ष नहीं देते। ओम का जाप है
ब्रह्म (गीता के वक्ता)। अपने जप से महाइन्द्र के लोक में जाता है
ब्रह्मलोक में निर्मित, सोहम नाम के जाप से, नकली के पास जाता है
ब्रह्मलोक में ही निर्मित सत्यलोक।
पूजा के काल में भक्त भी कहता रहता है
-"सभी के साथ अच्छी चीजें हो सकती हैं। "
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः |
Sarve bhadrani pashyantu, ma kashchit dukhbhaag bhavet ||
अर्थ:- "सभी प्राणी सुखी हों, सभ��� रोगमुक्त हों,
अर्थात स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी का न हो
कष्ट। "शुभकामनाओं का यह मंत्र रचने से, कोई आशीर्वाद देता है"
सभी लोग और प्रार्थना करते रहें। जिसके परिणाम स्वरूप पुण्य कमाई
और इस भक्त की भक्ति का धन इच्छाओं के माध्यम से समाप्त होता है और
आशीर्वाद। तत्वदर्शी संत का भक्त ऐसी गलती कभी नहीं करता।
इसलिए गीता के वक्ता ने कहा है कि - 'वह परम का पुजारी
अक्षर ब्रह्म भी मेरे पास ही आता है, क्योंकि भक्ति समाप्त हो गई थी
सभी के लिए आशीर्वाद और मंगल की कामना करते हुए, कुछ खर्च हुआ
महास्वरग (ब्रह्मलोक में महान स्वर्ग) और फिर चक्रव्यूह में चला जाता है
जीवन और मरण का और 84 लाख जीवों का जन्म
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी प्राप्त करने के लिए अवश्य सुनें संत रामपाल जी महाराज के मंगल प्रवचन Sant Rampal Ji Maharaj YouTube चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8:30 बजे तक। संत रामपाल जी महाराज ही इस विश्व में एकमात्र पूर्ण गुरु है। आप सभी से विनम्र निवेदन है कि संत रामपाल जी महाराज से बिना एक सेकंड बर्बाद किये निःशुल्क नाम दीक्षा लें, और अपना मानव जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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indrabalakhanna · 8 months
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#SantRampalJiMaharaj ने_ आदि सनातन धर्म महान का शास्त्र अनुकूल अर्थ समझाया _ "आदि सनातन धर्म के नियमों+मर्यादा का पालन करने वाला ही सच्चा_हिंदू /सिक्ख/ मुस्लिम/ ईसाई/आर्य/ जाट/जैनी और बुद्ध है"| प्रतिदिन देखिये🙏साधना 📺 चैनल यू ट्यूब 7:30 p.m से 8:30 p.m
अपनी पूर्ण जानकारी के लिए सुनते रहिए 100% सत्य प्रमाण के साथ शास्त्र अनुकूल आध्यात्मिक सत्य तत्व ज्ञान + सत्संग के अंत में नाम दीक्षा लेने की आपको पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है,अत: कृपा पूर्ण सत्संग सुनने का योग करें📕🙏
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brijpal · 7 months
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#GodMorningTuesday
प्रभु की परिभाषा क्या है ?
उत्तर :- प्रभु का अर्थ है स्वामी, मालिक। इसी के पर्यायवाची नाम हैं राम, अल्लाह, रब, परमात्मा आदि। हम उसे साहेब कहते हैं। अविनाशी होने के कारण सत साहेब कहते हैं।
क्योंकि सत्य का अर्थ अविनाशी होता है।
वह परमात्मा कबीर जी हैं।
📲अधिक जानकारी के लिए Sant Rampal Ji Maharaj Youtube Channel पर विजिट करें।
Watch sadhna TV 7:30pmDaily 📺
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noisywagonllamapizza · 11 months
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#सत्संग_से_ही_सुख_है
सत्संग का अर्थ है यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार जिसमे केवल सत्य हो, असत्य ना हो। ऐसा दिया जाने वाला अध्यात्म ज्ञान सत्संग कहलाता है।
सत्संग उस परमेश्वर का यथार्थ ज्ञान देना है जिसकी भक्ति करके जीव इस भवसागर से पार होकर 84 लाख योनियो मे जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है। जिसे मुक्ति, मोक्ष प्राप्त हो जाना कहते हैं।
जिसके विस्तार मे किसी भी प्रकार की शंका जीव को ना रहे वो ही सत्संग है और उसे स्वयं संत या सतगुरु ही करते है। सत्संग का वर्णन करते हुए पूर्ण परमात्मा कबीर साहिब कहते है,
संत समागम, हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय।
सूत दारा और लक्ष्मी यह तो पापी घर भी होए।।
निश्चित ही अब आप ये समझ सकते है कि सतगुरु सत्संग का कितना मह्त्व है इस मानव जीवन में ।
अधिक जानकारी के लिए देखे साधना टीवी पर प्रसारित लाइव सत्संग 07.30 से 08.30 तक ।
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divyavisharad · 1 year
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लीडरशिप
जो अर्जुन के संशय का समाधान करें वहीं कृष्ण है । हम किसी न किसी के लिए कृष्ण हैं और कोई हमारा कृष्ण है । मतलब हम किसी को राह दिखा रहें है और कोई हमे राह दिखा रहा है । जितने भी महान लोग है वो सभी अच्छे लीडर भी हैं। एक अच्छा नेतृव समाज का उत्थान ही करता है । चलिए लीडरशिप के महत्व को समझते हैं । आज कल AI का चलन बढ़ गया हैं । लोगो को लगता है AI सारे jobs को सीमित कर देगा । एक नई दुनिया जहां मशीनें वो सभी काम करेंगी जो पहले केवल इन्सान ही कर सकता था । अब लोगो को एक फुल प्रूफ करियर ऑप्शन चाहिए जो सही भी है । चलिए मैं आपको बताता हूं जैसे घोड़ागाड़ी की जगह मोटरगाड़ी ने ले लिया वैसे जाहिर सी बात है AI अभी वर्तमान जॉब को सीमित करेगा और कुछ नए जॉब उत्पन्न करेगा । पर एक क्षेत्र है जहां कोई टेक्नोलॉजी का उपयोग बहुत कम है और वह है लीडरशिप । मनुष्य का लीडर कभी AI या टेक्नोलॉजी तो नहीं हो सकता। मनुष्य का लीडर मनुष्य ही होगा हमेशा यह अखण्ड सत्य है । AI का अर्थ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस होता है लेकिन अब आप समझ गए होंगे की ज्यादा इंटेलिजेंस मनुष्य के पास है तो अब से इस आर्टिकल के लिए AI हमारे लिए ऑल्टरनेटिव इंटेलिजेंस है । एक अच्छा लीडर उसके अंदर के व्यतित्व से बनता है ना की ऑल्टरनेटिव इंटेलिजेंस से । Human resource management आज के समय एक कला है और इसके लिए एक विशेष वर्ग के लोग काम कर रहें हैं जिन्हें हम HR कहते है क्या सच में यह इतना जटिल काम जिसके लिए हमे निपुण लोगों को काम पर रखना पड़ता है । लीडरशिप केवल विशेष लोगो की जागीर नहीं है इसको सब को सीखना चाहिए क्यों की " हम किसी न किसी के लिए कृष्ण हैं और कोई हमारा कृष्ण है " , लीडरशिप एक कला है समय के साथ इंसान निपुण होता जाता है पर आज के दुनिया में धैर्य कहा उनको आत्मज्ञान को 30 सेकंड की वीडियो से प्राप्त करना है और लीडरशिप के गुण एक लेख से । इसलिए मुझे इस लेख पर ज्यादा ध्यान देना आवश्यक हो गया है । लेकिन फिर भी एक अच्छा लीडर एक दिन में नही बनता । समय के साथ बनता है और जन्म से कोई लीडर नही होता है । इसलिए कोई भी बन सकता है । मैं इकोनॉमिक्स का विद्यार्थी हूं और अभी तक इकोनॉमिक्स में ज्यादातर शॉर्टेजेस और डिमांड और सप्लाई के बारे में ही बात की जाती है जैसे oil , technology, money इत्यादि । पर मुझे लगता है केवल लीडरशिप के कमी के कारण सभी अधिकांश शॉर्टेज उत्पन्न होते है । कहने का अर्थ है एक अच्छा लीडर अर्थवस्था को स्थिर कर सकता है । एक अच्छा लीडर आजादी दिला सकता है जैसे बापू । अच्छे लीडर के उदाहरण समाज में कई है इसलिए सारे उदाहरण पे ध्यान देने का काम आप पर छोड़ता हूं । मेरे लिए अच्छा लीडर एक दूरदर्शी नागरिक है और देश के उत्थान की नींव है । मेरे बातों से यह ना समझें की लीडर मतलब केवल पॉलिटिकल लीडर । लीडर की जरूरत हर क्षेत्र में है जैसे पॉलिटिकल, एडमिनिस्ट्रेटिव, एजुकेशन , स्पोर्ट्स, लॉ एंड आर्डर इत्यादि | यहां पे मैं एक Palindrome से आपको बताना चाहता हूं " A Man a Plan a Canal Panama " इस लाइन की दो खासियत है 1. आगे और पीछे दोनो तरफ से पढ़ने पर यह एक ही जैसा साउंड करती है । 2. यह एक प्रेरक लाइन है जिसका मतलब है एक मैन था , उसके पास एक प्लान था , और वह प्लान एक canal का था । उसका नाम है आज पनामा है । मै अब आप से पूछता हूं वह एक मैन कौन है , एक लीडर । हां एक लीडर उसने दुनिया को पनामा दिया और आज इस नहर का दुनिया में कितना महत्व है मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है यह जग जाहिर है । एक अच्छा लीडर मानवता के लिए वरदान है ।
चलिए देखते है लीडरशिप के गुण [ Attributes ]
1. पेशेवर ज्ञान और क्षमता
एक अच्छा नेता बनने के लिए व्यक्ति को अपने क्षेत्र के बारे में ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान निरंतर अध्ययन और कड़ी मेहनत से आता है। जितना अधिक आप जानते हैं आप उतने अधिक सक्षम बनते हैं। ज्ञात तथ्यों के आधार पर सही निर्णय लेने के लिए ज्ञान आवश्यक है।
2. निर्णय लेने की क्षमता
एक अच्छे नेता में निर्णय लेने की क्षमता होती है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसने जो निर्णय लिया है उसके लिए पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करता है।
3. पूर्ण न्याय और निष्पक्षता
किसी भी व्यक्ति को पदावनत होना पसंद नहीं है और फिर भी यदि निष्पक्ष रूप से किया जाए तो वे इसे स्वीकार करते हैं। एक अच्छा नेता प्रत्येक अधीनस्थ के साथ उचित व्यवहार करता है। एक अच्छा नेता यह सुनिश्चित करता है कि वह न केवल सीखने और विकास के समान अवसर प्रदान करे बल्कि उसी गलती के लिए समान सजा भी प्रदान करे।
4. नैतिक और शारीरिक साहस
नैतिक साहस: यह सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता है। एक अच्छा नेता दूसरों की परवाह किए बिना अपने विचारों और विश्वासों को सामने रखने में सक्षम होता है।
शारीरिक साहस: डरना और यह दिखाना कि आपको डर है, दो अलग-अलग चीजें हैं। एक अच्छा नेता दिखाता है कि वह सबसे कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए काफी साहसी है क्योंकि वह जानता है कि वह जो कुछ भी करता है या जैसा व्यवहार करता है उसका उसके अधीनस्थों पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
5. निष्ठा
शीर्षक से ही काफी समझ में आता है। यदि आप दूसरों से वफादारी की उम्मीद करते हैं तो आपको पहले उनके प्रति वफादार होना होगा।
6. मानव संसाधन प्रबंधन
अपने अधीनस्थों को संभालना सीखना एक ऐसी कौशल जो नेता होने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। एक नेता दृढ़ होना चाहिए लेकिन उसमें एक अच्छी sence of humor होनी चाहिए ताकि आप अपने लोगों को उनकी निराशा से बाहर निकाल सकें। आप कभी नहीं जानते कि दूसरे किस समस्या से जूझ रहे हैं, इसलिए एक अच्छा नेता हमारें साथी के भावनाओं को समझने में सक्षम होना चाहिए।
चाहे आप नेता हों या नेता बनने जा रहे हों या फिर यदि आप अनुयायी हों, दो सबसे मौलिक पहलू जो अधिकांश लोगों में कमी होती हैं और कोई भी नेतृत्व इसे ठीक नहीं कर सकता हैं वो हैं अनुशासन (समय पर आना महत्वपूर्ण है) और चरित्र (जानना कि आप कौन हो वास्तव में)।
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इनके अलावा भी कई गुण हैं लेकिन महत्वपूर्ण गुण यही हैं । एक लीडर को राह कौन दिखाएगा यह सवाल भी आता है उसका जवाब है आपकी अपनी अंतरात्मा जो पवित्र होती है उसको सुनिए साथ में यह 6 गुण को आत्मसात करिए आप अच्छे लीडर अवश्य बनेंगे । किस के लिए लीडर बने , मतलब कोई विशेष कारण। उसका जवाब है "Be the change you wish to see in the world. इस वाक्य को ध्यान में रखें । मुझे उम्मीद है आप अच्छे लीडर बनेंगे और अपना और अपनो के साथ समाज का उत्थान करेगें । जय हो ।
- @divyavisharad
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iskconchd · 1 year
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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप 2.39 https://srimadbhagavadgita.in/2/39 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ २.३९ ॥ TRANSLATION यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है । अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो! हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो । PURPORT वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है – विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है । और योग का अर्थ है – इन्द्रियों का निग्रह । अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था । वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् अपने बन्धु-बान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा । दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धान्त तो इन्द्रियतृप्ति था । उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक हैं, क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अन्त हो जाता है । अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा । उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सारे जीव शाश्र्वत प्राणी हैं, वे भूतकाल में प्राणी थे, वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सैम शाश्र्वत आत्मा हैं । हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र) बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक् सत्ता बनी रहती है । भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यन्त विशद् वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोश की शब्दावली में इस विशद् अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है । इस सांख्य का नास्तिक-कपिल के सांख्य-दर्शन से कोई सरोकार नहीं है । इस नास्तिक-कपिल के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति के समक्ष श्रीमद्भागवत मे�� वास्तविक सांख्य-दर्शन पर प्रवचन किया ��ा । उन्होंने स्पष्ट बताया है कि पुरुष या परमेश्र्वर क्रियाशील हैं और वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि कि उत्पत्ति करते हैं । इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है । वेदों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमें आणविक जीवात्माएँ प्रविष्ट कर दीं । ये सारे जीव भौतिक-जगत् में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते रहते हैं और माया के वशीभूत् होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं । इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है । यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अन्तिम पाश है और अनेकानेक जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानी वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है । अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है – शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम । फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है । यह बुद्धियोग अध्याय दस के दसवें श्लोक में वर्णित है जिससे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क बताया गया है जो सबके हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, किन्तु ऐसा सम्पर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है । अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है । अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भक्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं । इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं । इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक-कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहाँ पर उल्लिखित सांख्य-योग का अनीश्र्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है । न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था, और न कृष्ण ने ऐसी ईश्र्वरविहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिन्ता की । वास्तविक सांख्य-दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमद्भागवत में हुआ है, किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है । यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन । भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग या कर्मयोग तक लाने के लिए किया । अतः भगवान् कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही हैं । ये दोनों भक्तियोग हैं । अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य-योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं (सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः) । निस्सन्देह अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग का भक्तियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी बुद्धिहीन व्यक्तियों का दावा है कि भगवद्गीता में अनीश्र्वरवादी सांख्य का ही वर्णन हुआ है । अतः मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि बुद्धियोग का अर्थ कृष्णभावनामृत में, पूर्ण आनन्द तथा भक्ति के ज्ञान में कर्म करना है । जो व्यक्ति भगवान् की तुष्टि के लिए कर्म करता है, चाहे वह कर्म कितना भी कठिन क्यों न हो, वह बुद्धियोग के सिद्धान्त के अनुसार कार्य करता है और दिव्य आनन्द का अनुभव करता है । ऐसी दिव्य व्यस्तता के कारण उसे भगवत्कृपा से स्वतः सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम किये बिना ही उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाति है । कृष्णभावनामृत कर्म तथा फल प्राप्ति की इच्छा से किये गये कर्म में, विशेषतया पारिवारिक या भौतिक सुख प्राप्त करने की इन्द्रिय तृप्ति के लिए किये गये कर्म में, प्रचुर अन्तर होता है । अतः बुद्धियोग हमारे द्वारा सम्पन्न कार्य का दिव्य गुण है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.39 eṣā te ’bhihitā sāṅkhye buddhir yoge tv imāṁ śṛṇu buddhyā yukto yayā pārtha karma-bandhaṁ prahāsyasi TRANSLATION Thus far I have described this knowledge to you through analytical study. Now listen as I explain it in terms of working without fruitive results. O son of Pṛthā, when you act in such knowledge you can free yourself from the bondage of works. PURPORT According to the Nirukti, or the Vedic dictionary, saṅkhyā means that which describes things in detail, and sāṅkhya refers to that philosophy which describes the real nature of the soul. And yoga involves controlling the senses. Arjuna’s proposal not to fight was based on sense gratification. Forgetting his prime duty, he wanted to cease fighting, because he thought that by not killing his relatives and kinsmen he would be happier than by enjoying the kingdom after conquering his cousins and brothers, the sons of Dhṛtarāṣṭra. In both ways, the basic principles were for sense gratification. Happiness derived from conquering them and happiness derived by seeing kinsmen alive are both on the basis of personal sense gratification, even at a sacrifice of wisdom and duty. Kṛṣṇa, therefore, wanted to explain to Arjuna that by killing the body of his grandfather he would not be killing the soul proper, and He explained that all individual persons, including the Lord Himself, are eternal individuals; they were individuals in the past, they are individuals in the present, and they will continue to remain individuals in the future, because all of us are individual souls eternally. We simply change our bodily dress in different manners, but actually we keep our individuality even after liberation from the bondage of material dress. An analytical study of the soul and the body has been very graphically explained by Lord Kṛṣṇa. And this descriptive knowledge of the soul and the body from different angles of vision has been described here as Sāṅkhya, in terms of the Nirukti dictionary. This Sāṅkhya has nothing to do with the Sāṅkhya philosophy of the atheist Kapila. Long before the imposter Kapila’s Sāṅkhya, the Sāṅkhya philosophy was expounded in the Śrīmad-Bhāgavatam by the true Lord Kapila, the incarnation of Lord Kṛṣṇa, who explained it to His mother, Devahūti. It is clearly explained by Him that the puruṣa, or the Supreme Lord, is active and that He creates by looking over the prakṛti. This is accepted in the Vedas and in the Gītā. The description in the Vedas indicates that the Lord glanced over the prakṛti, or nature, and impregnated it with atomic individual souls. All these individuals are working in the material world for sense gratification, and under the spell of material energy they are thinking of being enjoyers. This mentality is dragged to the last point of liberation when the living entity wants to become one with the Lord. This is the last snare of māyā, or sense gratificatory illusion, and it is only after many, many births of such sense gratificatory activities that a great soul surrenders unto Vāsudeva, Lord Kṛṣṇa, thereby fulfilling the search after the ultimate truth. Arjuna has already accepted Kṛṣṇa as his spiritual master by surrendering himself unto Him: śiṣyas te ’haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam. Consequently, Kṛṣṇa will now tell him about the working process in buddhi-yoga, or karma-yoga, or in other words, the practice of devotional service only for the sense gratification of the Lord. This buddhi-yoga is clearly explained in Chapter Ten, verse ten, as being direct communion with the Lord, who is sitting as Paramātmā in everyone’s heart. But such communion does not take place without devotional service. One who is therefore situated in devotional or transcendental loving service to the Lord, or, in other words, in Kṛṣṇa consciousness, attains to this stage of buddhi-yoga by the special grace of the Lord. The Lord says, therefore, that only to those who are always engaged in devotional service out of transcendental love does He award the pure knowledge of devotion in love. In that way the devotee can reach Him easily in the ever-blissful kingdom of God. Thus the buddhi-yoga mentioned in this verse is the devotional service of the Lord, and the word Sāṅkhya mentioned herein has nothing to do with the atheistic sāṅkhya-yoga enunciated by the imposter Kapila. One should not, therefore, misunderstand that the sāṅkhya-yoga mentioned herein has any connection with the atheistic Sāṅkhya. Nor did that philosophy have any influence during that time; nor would Lord Kṛṣṇa care to mention such godless philosophical speculations. Real Sāṅkhya philosophy is described by Lord Kapila in the Śrīmad-Bhāgavatam, but even that Sāṅkhya has nothing to do with the current topics. Here, Sāṅkhya means analytical description of the body and the soul. Lord Kṛṣṇa made an analytical description of the soul just to bring Arjuna to the point of buddhi-yoga, or bhakti-yoga. Therefore, Lord Kṛṣṇa’s Sāṅkhya and Lord Kapila’s Sāṅkhya, as described in the Bhāgavatam, are one and the same. They are all bhakti-yoga. Lord Kṛṣṇa said, therefore, that only the less intelligent class of men make a distinction between sāṅkhya-yoga and bhakti-yoga (sāṅkhya-yogau pṛthag bālāḥ pravadanti na paṇḍitāḥ). Of course, atheistic sāṅkhya-yoga has nothing to do with bhakti-yoga, yet the unintelligent claim that the atheistic sāṅkhya-yoga is referred to in the Bhagavad-gītā. One should therefore understand that buddhi-yoga means to work in Kṛṣṇa consciousness, in the full bliss and knowledge of devotional service. One who works for the satisfaction of the Lord only, however difficult such work may be, is working under the principles of buddhi-yoga and finds himself always in transcendental bliss. By such transcendental engagement, one achieves all transcendental understanding automatically, by the grace of the Lord, and thus his liberation is complete in itself, without his making extraneous endeavors to acquire knowledge. There is much difference between work in Kṛṣṇa consciousness and work for fruitive results, especially in the matter of sense gratification for achieving results in terms of family or material happiness. Buddhi-yoga is therefore the transcendental quality of the work that we perform. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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mala-dasi · 2 years
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#भक्ति_से_भगवान_तक
प्रश्न- प्रभु की परिभाषा क्या है ? उत्तर : - प्रभु का अर्थ है स्वामी  मालिक।इसी के पर्यायवाची नाम हैं राम ,अल्लाह ,रब , परमात्मा आदि। हम उसे साहेब कहते हैं अविनाशी होने के कारण सत साहेब कहते हैं क्योंकि सत्य का अर्थ अविनाशी होता है
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bakaity-poetry · 1 year
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कायरता व साहस के बीच
कायरता व साहस के–
जिन्दा हूँ बीच मैं,
पूनों और मावस की
निन्दा में मस्त रह,
सूरज और चन्दा से
बहुत-बहुत डरता हूँ !!
इसीलिए कभी-कभी
उँगली फिराने से
होंठ मुझे अपने ये
उस गोरी महिला के
बालदार होंठों-से लगते हैं,
जो महिला
कुलशील-प्रदर्शन हित
घर के कुछ सत्यों को ढांककर
अन्य के ‘तथ्यों’ का उद्घाटन करती है,
इसीलिए, स्वर को मैं यथा-साध्य
भद्रता की ललित
तडिल्लतायों में ऊँचा उठाता हुआ
आँखें लाल करके भी मुस्काता रहता हूँ ।
सभ्य हूँ, सुसंस्कृत हूँ
आरामकुर्सियाँ चार
डाल दालान में
मित्रों के सम्मुख मैं
नित्य सत्य बनता हूँ
उग्र बहुत बनता हूँ
(सूर्य की उपमा ध्वन्यर्थ भरी
चन्द्र-किरन-उत्प्रेक्षा-)
अनदेखे हिमालय की अर्थ-भरी
चित्रात्मक समीक्षा कर
सफलता का मोर-मुकुट
��ूब पहन लेता हूँ
(संस्कृति की
व्याख्या का
लैसंस
पास मेरे है)
डरता हूँ पग-पग मैं,
डगमग है मति इतनी—-
आंखों में
उलट-पुलट होते है
मकान-घर-भवन सभी ।
(मिर्गी नित आती”’
ज्वलत् रक्त अग्नि ज्वाल लाल देख
गहन जल अथाह नील ताल देख
सिर इतना चकराता कि
अभी-अभी गिरूँगा मैं)
यद्यपि कर पाता मैं
अपने हित उन्नति के
लिए न कुछ
(बड़े-बड़े मगरमच्छ
चट करते बीच में
फेंके गये दाने जो मेरे हित)
फिर भी देहान्त तक
जीवन-आयोजना बनाता हूँ
और इसी अनबूझे धतूरे के
ज़हरीले नशे में हाय
मुर्गी के नपुंसक पंख फड़फड़ाता हुआ
उड़ता हूँ उस बौने वृक्ष तक
किन्तु लाल कलगी से अपने ही,
अकस्मात् डरकर मैं
वापिस ज़मीन पर सिहर उतर आता हूँ !!
अभी मुझे कई बार
देने हैं अंडे जो
दानव के पेट में विवश चले जायेंगे ।
बनेंगे न कभी मुर्ग-मुर्गी वे
और मुझे किसी एक
अनपेक्षित पल में ही
हाय ! हाय !
मृत्यु-कष्ट-ग्रस्त-त्रस्त होना है !!
चाकू कलेजे में
घुसेगा और
अंधेरे के सघन-पर्त-परदे में
सांस बन्द होगी ही ।
तब तक किन्तु
जीना है !!
साहस व कायरता
के बीच मुझे
ज़िन्दा ही रहना है !!
कल तक यदि रह सका मैं जीवित
एक और कविता लिख डालूँगा अनसोची अनकही ।
~ मुक्तिबोध
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santram · 2 years
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शीर्षक:- हरियाणा के गाँव- धनाना (जिला-सोनीपत) की मिट्टी के कण-कण को नमन: जहाँ 8 सितंबर 1951 को पूर्ण परमात्मा के अवतार प्रकट हो चुके हैं।
प्रस्तावना:- पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) के अवतार संत रामपाल दास जी महाराज जी का जन्म, भारत देश की पवित्र धरती पर जाट किसान श्री नंदराम जाटयाण S/o श्री अभेराम जाटयाण S/0 श्री मेदाराम जाटयाण के घर माता भक्तमति इंद्रो देवी जी की पवित्र कोख से गाँव धनाना धाम, तहसील गोहाना, जिला-सोनीपत (तत्कालीन - रोहतक) प्रांत-हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) में 8 सितंबर 1951 को हुआ संत रामपाल जी महाराज के विषय में आज आपको वो अनसुनी सत्य जानकारी बताएँगे जिसे ध्यान से पढ़-सुन लिया तो दांतों तले उंगली दबाओगे और उस महान संत की निंदा में बोलें अपने शब्दों के लिए पश्चाताप भी करोगे। विश्व में यदि किसी प्रांत की मिट्टी को पवित्र मिट्टी या किन्हीं व्यक्तियों को परम सौभाग्यशाली इंसानों का दर्जा दिया जा सकता है तो वो मिट्टी भी हरियाणा प्रांत की है और इंसान भी हरियाणा के क्योंकि हरियाणा का अर्थ होता है (हरि यानि भगवान) और ( आणा यानि आना) अर्थात् जिस पवित्र भूमि पर स्वयं हरि यानि परमात्मा आते हैं, और यह भी सत्य है कि भगवान आते हैं तो कोई सिर पर सींग या अन्य विशेष आडंबर करके नहीं आते हैं। भगवान साधु संत व महात्मा के रूप में आते हैं। फिर समय अनुसार आगे चलकर उनकी पहचान उनके विचार / ज्ञान और परमार्थ से होती है विशेष विवेचन :- श्री रामचंद्र व श्री कृष्ण चंद्र जी, श्री विष्णु जी सतगुण के अवतार हैं। श्री विष्णु जी तीन लोकों (पृथ्वी, स्वर्ग तथा पाताल लोक) के प्रभु / स्वामी हैं।
गरीब, धन्य जननी धन्य भूमि, धन्य नगरी धन्य देश धन्य करणी, धन्य कुल धन्य, जहाँ साधु प्रवेश ।।
गरीब, जा उदर साधु बसे, सो उदर है पाक सनकादिक से उपजहीं, सुखदेव बोले साख।।
गरीब, नारी - नारी भेद है, एक मैली एक पाख। जा उदर प्रहलाद थे, जाकूँ जोडूं हाथ ।।
गरीब, नारी - नारी भेद हैं, एक उज्जवल एक गंध जा माता प्रणाम है, जिन्हों जन्में भरथरी गोपीचंद ।।
विषय विस्तार:- संत रामपाल जी पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) के अवतार हैं। पूर्णब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) कौन है ? उत्तर :- गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने गीता ज्ञान बताने वाले से (जिसे हिन्दू समाज श्री कृष्ण यानि श्री विष्णु कहता है, उससे पूछा कि आप ने गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में जो "तत् ब्रह्म" कहा है, वह क्या है? इसका उत्तर गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में दिया कि वह "परम अक्षर ब्रह्म है।" फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 5,7 में अपनी भक्ति करने को कहा है। जो मेरी भक्ति करेगा, वह मुझे प्राप्त होगा। गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में कहा है कि उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने वाला उसको प्राप्त होगा। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में उसी को अपने से अन्य पुरुषोत्तम "परमात्मा" तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करने वाला तथा अविनाशी कहा है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान बोलने वाले ने अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। उसी की कृपा से उसका भक्त परम शांति को तथा सनातन (अविनाशी) परम धाम यानि सत्यलोक को प्राप्त होता है।
संत रामपाल जी महाराज ने सर्व शास्त्रों से व आँखों देखने वाले संतों की वाणी से सिद्ध कर दिया है कि वह पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) कबीर है। कौन कबीर? जो काशी में जुलाहे का अभिनय करके सशरीर सत्यलोक से आकर सशरीर चला गया था। परम अक्षर ब्रह्म (पूर्ण ब्रह्म) असंख ब्रह्मंडों का स्वामी/ प्रभु है। उसके अवतार संत रामपाल जी महाराज हैं।
अवतार श्री विष्णु जी का हो, चाहे पूर्ण ब्रह्म का, लीला एक जैसी ही करता है। जैसे कोई खिलाड़ी जिला स्तर पर खेलता है। कोई प्रांत स्तर पर कोई राष्ट्रीय स्तर पर खेलता है तो कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलता है। सबके नियम एक जैसे होते हैं। इसी प्रकार जैसे-जैसे जीवन श्री विष्णु के अवतारों ने जीया, वैसे ही पूर्ण ब्रह्म के अवतार संत रामपाल जी महाराज जी रहे हैं।
उदाहरण के लिए :- त्रेतायुग में श्री विष्णु अवतार, श्री रामचंद्र जी को आज विशेषकर हिन्दू समाज भगवान मानता है। विचार कीजिए, वे भी आप और हमारी तरह माता-पिता से जन्मे थे। उन्होंने भी विवाह करवाया था। बच्चे भी उत्पन्न किये थे। अपना कर्म भी करते थे। लेकिन फिर भी भगवान अर्थात् ( महापुरूष) कहलाए। ठीक इसी तरह आज से मात्र लगभग पाँच हजार सात सौ वर्ष पहले द्वापर युग में जन्में श्री कृष्ण जी को भी विशेषकर हिन्दू समाज भगवान मानता है। लेकिन गहन विचार करने की बात यह है कि जिस राम और कृष्ण को आज उनके परलोक जाने के अनेक वर्षों बाद भगवान की उपाधि देकर पूजा जा रहा है। क्या उस समय उन महापुरूषों को समाज ने भगवान, परमात्मा या महापुरुष का दर्जा दिया था? बिल्कुल नहीं दिया था। यदि श्री रामचंद्र जी की सौतेली माता कैकई उन्हें भगवान या श्री विष्णु जी का अवतार मानती तो कभी भी भगवान के साथ दोगला व्यवहार करते हुए, अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य और भगवान राम के लिए राजा दशरथ से वनवास का वचन नहीं मांगती ।
यदि लंकापति रावण, श्री रामचंद्र जी को भगवान या श्री विष्णु का अवतार मानता तो स्वपन में भी भगवान की पत्नी को अपनी पत्नी बनाने की गंदी नीयत से अपहरण नहीं करता। कहने का तात्पर्य है कि उस समय के समाज के दुर्व्यवहार के कारण श्री रामचंद्र जी ने आजीवन कष्ट उठाया। अयोध्या राज्य का सुख भोगने का समय आया तो 14 वर्ष का जंगल में वनवास हो गया। पीछे से पिता का निधन हो गया । ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी पिता की चिता को अग्नि भी नहीं दे सके। सीता जी को रावण उठा ले गया। 12 वर्ष सीता जी रावण की कैद में रही करोड़ों व्यक्ति युद्ध में मरे तब कहीं जाकर सीता जी अयोध्या वापस आई। कुछ ही दिनों बाद एक धोबी के व्यंग्य करने पर गर्भवती सीता जी को अयोध्या से निष्कासित कर दिया गया। जंगल में ही सीता जी ने पुत्र को जन्म दिया और आजीवन सीता जी अपने पति से दूर रही। कहने का तात्पर्य है कि आजीवन श्री रामचंद्र जी दुःखी रहे, ना राज्य का सुख भोगा, ना पत्नी और बच्चों का और वही समाज आज उन्हें भगवान का दर्जा देकर उनकी प्रतिमा बनाकर व स्वयं ही उनमें प्राण प्रतिष्ठा करके मंदिरों में स्थापित करके पूजा कर रहा है। इसी तरह यदि द्वापर युग में श्री कृष्ण जी को उनका मामा मथुरा नरेश कंस उन्हें विष्णु अवतार या भगवान मानता तो अपना दुश्मन समझकर उन्हें मारने का प्रयास नहीं करता। यदि जरासंध, कालयवन, शिशुपाल, पूतना और दुर्योधन आदि उन्हें विष्णु अवतार या भगवान मानते तो आजीवन उनके साथ लड़ाई-झगड़ा नहीं करते रहते।
श्री कृष्ण जी ने इसी समाज से दुःखी होकर मथुरा त्यागकर गुजरात राज्य में द्वारिका नगर बसाना पड़ा। आज यह समाज उसी मथुरा में जाकर श्री कृष्ण जी की पूजा करके उन्हें खुश करना चाहता है। जिस समय के समाज ने आजीवन उन्हें दुःखी किया था। वे उस समय भी तीन लोक के स्वामी (भगवान) थे। आज भी हैं। कर्म खराब करने वालों ने कर्म खराब किए। आज तक निंदा के पात्र हैं। अर्थात् जब कोई महापुरूष इस धरती पर हमारा मार्गदर्शन करने आता है तो उस समय हम उन्हें ना पहचानकर अपने जैसा एक जीव समझकर मजाक उड़ाते हैं। उनकी निंदा-चुगली करके अपने कर्म बिगाड़ते रहते हैं और उस महापुरूष के चले जाने के बाद उनकी दुःख भरी कहानी को लीला का नाम देकर उन्हें भगवान बनाकर सोने-चांदी, पत्थर की प्रतिमा और मंदिर बनाकर मनमुखी पूजा शुरू कर देते हैं। अच्छा होता है कि उनको उनके जीवन काल में सम्मान दें व उनसे लाभ लें।
अतः विशेषकर भारतवर्ष की पवित्र भूमि हरियाणा के सर्व शिक्षित समाज भाई-बहन व बड़े-बुजुर्गों से प्रार्थना है :- आज पुनः सदियों उपरांत हरियाणा की मिट्टी का भाग्य उदय हुआ है कि परमशक्ति 8 सितंबर 1951 से सतगुरू रामपाल जी महाराज जी के रूप में स्वयं धरती पर प्रकट है। शंका :- यदि संत रामपाल जी महाराज इतनी ही बड़ी शक्ति, महापुरूष या भगवान हैं तो लगभग
8 साल से जेल में क्यों हैं?
यदि किसी महापुरूष या साधु-संत के जेल जाने मात्र से ही वह गंदा या चरित्रहीन हो जाता है तो विचार कीजिए। 33 करोड़ देवी-देवताओं को रावण ने अपनी सिद्धि-शक्ति से युद्ध में पराजित करके जेल में डाल रखा था। फिर उन देवताओं की आज घर-घर पूजा क्यों? जेल तो महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह आदि नेक महापुरूषों / क्रांतिकारियों ने भी काटनी पड़ी थी। फिर हर वर्ष उनकी जयंती क्यों मनाई जाती है? 600 वर्ष पूर्व संत कबीर साहेब जी को भी दिल्ली का बादशाह सिकंदर लोधी अपने हाथों से हथकड़ी पहनाकर काशी से किले तक लाया था। फिर उनकी महिमा क्यों की जाती है? जेल तो काफी संख्या में देश के MLA, विधायक और मंत्री भी काट चुके हैं। फिर उनके हाथों में देश की सत्ता क्यों? भगवान श्री कृष्ण जी का तो जन्म ही जेल में हुआ था। फिर उन्हें भगवान का दर्जा क्यों? सती अनुसूईया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं को अपनी सिद्धि-शक्ति से शक्तिहीन करके 6-6 महीने के बालक बनाकर पालने में डाल दिया था। फिर तीनों देवियों की प्रार्थना पर वापस बालक से देव बनाया। फिर उन देवताओं की घर-घर में फोटो और पूजा क्यों? आदि-आदि और अनेकों प्रमाण आपको अपने ही इतिहास और शास्त्रों में मिल जाएँगे।
जिस समय श्री रामचंद्र जी का विवाह होना था। उस समय राजा दशरथ के कुल गुरू ऋषि वशिष्ठ जी ने लगन सोधा था। कहा था कि ऐसी लगन लिखी है कि बच्चे सदा सुखी रहेंगे। ऋषि वशिष्ठ को त्रिकालदर्शी (भूत-भविष्य, वर्तमान का जानने वाला) माना जाता था। विवाह के तुरंत बाद श्री रामचंद्र जी को वनवास हो गया। बन बन में भटका। बेटे के वियोग में छत से गिरकर दशरथ मर गया। सीता जी का अपहरण हो गया। उस लगन ने क्या बचाव किया?
कबीर, वशिष्ठ मुनि से त्रिकाली योगी, सोध के लगन धरै । सीता हरण मरण दरशथ का बण-बण राम फिरै।।
बुद्धिमान समाज गहनता से विचार करे कि : श्री रामचंद्र जी ने तीन लोक के भगवान होते हुए भी 14 वर्ष तक वनवास क्यों भोगा? वे आज भी हिन्दू समाज के पूज्य हैं। (उस समय का वनवास काटना आज की जेल से कहीं ज्यादा कष्टदायक था।) आज जेल में समय पर भोजन, पानी, मकान, मेडिकल व परिवार से मिलाई सहित अनेक सुविधा बंदियों को मिलती है। लेकिन 14 वर्ष के वनवास में श्री रामचंद्र जी ने कितने असहनीय कष्ट उठाये थे। कल्पना करके ही कलेजा मुँह को आता है। ना समय पर खाना, ना रहने को मकान, ऊपर से जंगली जानवर व राक्षसों का भय। सर्दी, गर्मी, बरसात, आंधी-तूफान का सामना और ना ही परिवार से मिलाप ।
कबीर जी ने कहा है कि : जो कंचन बिष्टा में पड़े, तो भी घटे न ताका मोल । अर्थात् यदि स्वर्ण (Gold) टट्टी (Latrin) में गिर जाए तो भी उसकी कीमत कम नहीं होती । इसीलिए हिन्दू समाज ने उनको पहचान लिया कि श्री रामचंद्र जी तथा श्री कृष्ण जी दोनों श्री विष्णु जी के अवतार थे। इसलिए पूज रहे हैं। ठीक इसी प्रकार हमने संत रामपाल जी को पहचान लिया, ये पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) के अवतार हैं। हम इसलिए जेल में होते हुए भी इनकी पूजा करते हैं।
प्रिय पाठको ! यदि 14 साल तक वनवास में कष्ट उठाकर श्री रामचंद्र जी एक महापुरूष और पूजा के योग्य हो सकते हैं तो संत रामपाल जी महाराज क्यों नहीं? ना तो संत जी के ऊपर ऐसा कोई बलात्कार या 420 का मुकदमा चल रहा है और ना ही ऐसा कुछ साबित हुआ है। अतः किसी भी महापुरूष पर आध्यात्मिक ज्ञान की कमी से या मीडिया की तथ्य रहित खबरों को आधार बनाकर कीचड़ उछालना व निंदा करना सबसे बड़ा पाप का भागी बनना है जो आगे चलकर महाकष्ट देगा।
संत रामपाल जी महाराज जो सत्भक्ति दे रहे हैं, यही भक्ति सतयुग में करते थे। सत्भक्ति करने से परमात्मा प्रसन्न होकर समय पर वर्षा करते थे। अन्न-धन की भी कोई कमी नहीं होती थी। सभी मानव स्वस्थ व सुखी जीवन जीते थे। पिता के सामने पुत्र की म���त्यु नहीं होती थी। आज का मानव सत्भक्ति न करने से महादुःखी है।
शंका :- हिन्दू धर्म के गुरू कहते हैं कि संत रामपाल जी महाराज श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री महेश, श्री दुर्गा जी व गणेश जी की निंदा करते हैं। संत रामपाल जी महाराज तीन बार में नाम दीक्षा देते हैं। प्रथम बार में ब्रह्मा-सावित्री जी, विष्णु-लक्ष्मी जी, शिव-पार्वती जी, दुर्गा जी, श्री गणेश जी के आदि मंत्र देते हैं। इन मंत्रों को आजीवन जपना होता है। इन मंत्रों के जाप से दुःख दूर होते हैं। संसारिक सुख मिलता है। आध्यात्मिक उन्नति होती है। इन मंत्रों का अन्य धर्म गुरूओं को ज्ञान नहीं है। दूसरी व तीसरी
बार में पूर्ण मोक्ष के नाम मंत्र देते हैं। सतगुरु रामपाल जी महाराज से नामदीक्षा लेने के बाद मोक्ष निश्चित है। यदि मर्यादा में रहकर भक्ति करेंगे तो इस जीवन में आने वाले सर्व दुःख दूर होंगे। करोड़ों भक्त नाम-दीक्षा लेकर सुखी जीवन जी रहे हैं।
संत रामपाल जी महाराज के मुख्य उद्देश्य :
1. विश्व को सत्भक्ति देकर मोक्ष प्रदान करना।
2. समाज से जाति-पाति के भेद को मिटाना ।
3. युवाओं में नैतिक और आध्यात्मिक जागृति लाना ।
4. समाज से हर प्रकार के नशे को दूर करना ।
5. समाज से दहेज रूपी कुरीति को जड़ से खत्म करना ।
6. समाज में शांति व भाईचारा स्थापित करना ।
7. समाजिक बुराईयों को समाप्त करके स्वच्छ समाज तैयार करना
8. भ्रष्टाचार को खत्म करना ।
9. मानव समाज से पाखंडवाद को खत्म करना ।
उपसंहार:- संत रामपाल महाराज जी ने सन् 1994 से गुरूदेव स्वामी रामदेवानंद महाराज जी के आदेश से नाम दीक्षा देना, सत्संग करना शुरू किया था। आज सन् 2022 तक (27 वर्षों) में करोड़ों अनुयाई हो गए हैं। इन 27 वर्षों में दस वर्ष तो जेल में रहे हैं। आज भी हैं यानि 17 वर्षों में विश्व में तहलका मचा दिया है। क्या ये पूर्ण ब्रह्म के अवतार के लक्षण नहीं हैं? इससे स्वसिद्ध है ये परम अक्षर ब्रह्म के अवतार हैं। यदि आप जी को शंका है और आप संत रामपाल जी महाराज और उनकी समर्थता के विषय में जानना ही चाहते हैं तो आप निष्पक्ष भाव से अपने आत्म कल्याण के लिए लगातार 3 महीने तक रोजाना जब भी आपको समय मिले, दिन या रात्रि में 30 मिनट या 1 घण्टा सत्संग सुनना शुरू कीजिए। आपके ऐसे-ऐसे बिगड़े हुए और अटके हुए काम जो सभी प्रयासों व लाखों रूपये बर्बाद करने से भी ठीक नहीं हो सकते हैं, मात्र सत्संग सुनने से ही ठीक होने शुरू हो जाएँगे। आपको या आपके परिवार में किसी को कोई असाध्य रोग या तकलीफ है जिसके आगे डॉक्टर भी हाथ जोड़ चुके हैं, चाहे कैंसर, एड्स या अन्य कैसा भी लाइलाज रोग क्यों ना हो, आप एक बार हृदय से गुरूदेव को दंडवत् प्रणाम करके संकल्प लें कि हे महाराज! आपके भगत आपको पूर्ण परमात्मा का अवतार बताते हैं। यदि यह सत्य है तो आज से ही मैं आपके सत्संग सुनना शुरू कर रहा हूँ। आप मुझे सद्बुद्धि दें कि आपके तत्त्वज्ञान युक्त सत्संग समझ सकूँ। हे महाराज! साथ ही आप जी मेरे विश्वास को दृढ़ करने के लिए मुझे कुछ राहत प्रदान करें। (जो भी आपको शारीरिक या अन्य भयंकर कष्ट है) यदि आप पर कोई कष्ट नहीं है तो भी यह प्रार्थना करके सत्संग सुनना शुरू कर दीजिए ताकि भविष्य में आने वाले दुःखों का आपको सामना ही ना करना पड़े। यकीन मानिए! यदि सच्ची नीयत से प्रार्थना करके सत्संग सुनना शुरू कर देंगे तो 100% राहत मिलनी शुरू हो जाएगी क्योंकि परमात्मा के मुख से उच्चारित वाणी अर्थात् सत्संग रूपी दवा कानों के माध्यम से आत्मा में प्रवेश करती है जिससे पाप कर्म समाप्त होते हैं क्योंकि पाप कर्मों की अधिकता के चलते ही जीव पर तरह-तरह के कष्ट आते हैं, जो पाप हम किसी अपने से कमजोर या दुर्बल व्यक्ति को दुःखी करके, चोरी-जॉरी, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, झूठ आदि बोलकर कमाते ही रहते हैं। [आप जी प्रतिदिन साधना टी.वी. चैनल पर रात्रि 7:30 से 8:30 बजे तक सत्संग सुन सकते हैं। इसके अलावा जब चाहे अपने मोबाईल पर Youtube में सर्च करें Sant Rampal Ji Maharaj, वहाँ पर 2 से 3 घंटे का संत रामपाल जी महाराज जी का सत्संग अवश्य सुनें। उसके बाद आपको महसूस होगा कि जिन शास्त्रों (गीता, वेद, कुरान, पुराण) को पढ़ना और समझना हम पहाड़ जैसा कार्य समझा करते थे ।
संत रामपाल जी महाराज जी ने अपने तत्त्वज्ञान से इनको समझना पहली कक्षा के कायदे से भी अधिक सरल कर दिया है। लगातार 3 महीने सत्संग सुनकर आपको संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा प्रदत्त शास्त्र प्रमाणित सत्भक्ति समझ आएगी। यदि आप उनसे जुड़ना चाहते हैं तो नीचे दिए गए सम्पर्क सूत्रों पर संपर्क करके उनसे जुड़ें और नाम -दीक्षा लेकर अपना कल्याण करवाएँ।
सम्पर्क सूत्र:- 8222880541, 8222880542, 8222880543, 8222880544, 8222880545
प्रार्थी संत रामपाल जी महाराज की सर्व संगत
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kaminimohan · 2 years
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Freetreespeak (काव्यस्यात्मा) 1256
जितने दिन काशी में रहूँगा
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जितने दिन काशी में रहूँगा
निश्चिंत रहूँगा
गलियाँ जो मुझे मंज़िल तक पहुँचाती है
उनकी निरंतरता को देखता रहूँगा
अविमुक्त क्षेत्र में मुक्ति को आगे बढ़ता रहूँगा।
निसंकोच घाट की सीढ़ियों से
अनवरत बहती गंगा जल को
हाथो में लेकर सिर-माथे धरूंगा।
माथे की गरमाहट को
थोड़ा ठंडक थोड़ा सुकून दूँगा।
बनारस में कोई गया गुज़रा कभी नहीं रहा
यह सबकी स्मृतियों की राख को संजोकर रखता है
भूलता नहीं निरंतर जागता और देखता है।
दिन-रात दुहाई राम नाम के सत्य की देता है
सबके कानों में राम नाम की मिश्री घोलता है
जो फाँक रहा धूल जिंदगी की
वो भी फक्कड़ निर्लिप्त रहता है।
यह जिंदा शहर कविता रचता है
शायद सबको श्मशान क्षेत्र का
आकर्षण खींचता है
कविता के शब्द-देह से आती गंध
सबको घेरता है।
मैं,
अनर्थ और व्यर्थ का अर्थ
क़तई नहीं देखता हूँ
खींचकर हाथों और
मींच कर आँखों को
जो हैं बाकी
उसे खोजता हूँ
रोज़ सुबह-ए-बनारस की
अप्रतिम लालिमा लिए
किरण-गान में किरण-किरण
अनवरत बंधता चलता हूँ।
और जब भी उतरता हूँ
शहर की भीड़ में
जीवन मुझे और मैं जीवन को निमंत्रण देता हूँ।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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deepjams4 · 2 years
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कर्म!
श्रीकृष्ण का निःस्वार्थ कर्म का ज्ञानोपदेश
दर्शनशास्त्र है फलेच्छा रहित निर्वहन का!
उसपर अनुसरण की बात तो दूर की ठहरी
उसके लिए शायद ही यत्न करता है कोई!
कहते हैं उसका सही अर्थ अर्जुन ने समझा
और स्वयं निष्काम कर्म का भाव अपनाया!
समझें तो अर्जुन संदेश का मात्र माध्यम था
विश्व का मार्ग प्रशस्त करना ही उद्देश्य था!
आज बस परिणाम पर ही परमार्थ निर्भर है
अत: वर्तमान ने सार ही दुष्कर बना दिया है!
ईमानदारी से किये गय��� प्रयासों का द्वंद्व है
लालसा से वशीभूत भ्रमित सोच ��े साथ!
क्या किसी के भी अंतर्मन का संयम होगा
जो ज्ञान सार बनकर जीवन में समा जाए!
बिन आस कोई जो स्वयं समर्पित हो सके
वो कर्मठ व्यक्तित्व कहाँ कोई मिल पाये!
बात भरणपोषण के लिए संघर्षों की नहीं
न है जीवनयापन में खड़े हुए अवरोधों की!
अवरोधों पर विजय का लक्ष्य अनिवार्य है
लक्ष्य प्राप्ति में दिशा का विशेष तात्पर्य है!
कौन जाने सिद्धि के लिए प्रयत्न का सत्य
क्या कर्म है फल सिद्धि या लक्ष्य वेद्धव्य!
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naveensarohasblog · 1 year
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#गीता_तेरा_ज्ञान_अमृत_Part_2
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जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान जिस समय (सन् 2012 से लगभग 5550 वर्ष पूर्व) बोला गया, उस समय कोई धर्म नहीं था। हिन्दू धर्म यानि आदि शंकराचार्य द्वारा चलाई गई पाँच देव उपासना वाली परंपरा को अपनाने वाले हिन्दू कहे जाने लगे। (वास्तव में यह सनातन पंथ है जो लाखों वर्षों से चला आ रहा है।) उस (हिन्दू धर्म) की स्थापना आदि (प्रथम) शंकराचार्य जी ने सन् 2012 से 2500 वर्ष पूर्व की थी। आदि शंकराचार्य जी का जन्म ईसा मसीह से 508 वर्ष पूर्व हुआ था। आठ वर्ष की आयु में उन्हें उपनिषदों का ज्ञान हो गया। सोलह वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य जी ने एक विरक्त साधु से दीक्षा ली जो गुफा में रहता था। कई-कई दिन बाहर नहीं निकलता था। उस महात्मा ने आदि शंकराचार्य जी को बताया कि ‘‘जीव ही ब्रह्म है।‘‘ (अयम् आत्मा ब्रह्म) का पाठ पढ़ाया तथा चारों वेदों में यही प्रमाण बताया। लोगों ने आदि शंकराचार्य जी से पूछा कि यदि जीव ही ब्रह्म है तो पूजा की क्या आवश्यकता है? आप भी ब्रह्म, हम भी ब्रह्म (ब्रह्म का अर्थ परमात्मा) इस प्रश्न से आदि शंकराचार्य जी असमंजस में पड़ गए। आदि शंकराचार्य जी ने अपने विवेक से कहा कि श्री विष्णु, श्री शंकर की भक्ति करो।
फिर पाँच देवताओं की उपासना का विधान दृढ़ किया - 1) श्री ब्रह्मा जी 2) श्री विष्णु जी 3) श्री शिव जी 4) श्री देवी जी 5) श्री गणेश जी।
परंतु मूल रूप में इष्ट रूप में तमगुण शंकर जी को ही माना है। यह विधान आदि शंकराचार्य जी ने 20 वर्ष की आयु में बनाया अर्थात् 488 ईशा पूर्व हिन्दू धर्म की स्थापना की थी। उसके प्रचार के लिए भारत वर्ष में चारों दिशाओं में एक-एक शंकर मठ की स्थापना की। आदि शंकराचार्य जी ने
गिरी साधु बनाए जो पर्वतों में रहने वाली जनता में अपने धर्म को दृढ़ करते थे।
पुरी साधु बनाए जो गाँव-2 में जाकर अपने धर्म को बताकर क्रिया कराते थे।
सन्यासी साधु बनाए जो विरक्त रहकर जनता को प्रभावित करके अपने साथ लगाते थे।
वानप्रस्थी साधु बनाए जो वन में रहने वाली जनता को अपना मत सुनाकर अपने साथ जोड़ते थे।
वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) तथा गीता व पुराणों, उपनिषदों को सत्यज्ञानयुक्त पुस्तक मानते थे जो आज तक हिन्दू धर्म के श्रद्धालु इन्हीं धार्मिक ग्रन्थों को सत्य मानते हैं। इस प्रकार हिन्दू धर्म की स्थापना ईसा से 488 वर्ष पूर्व (सन् 2012 से 2500 वर्ष पूर्व) हुई थी। आदि शंकराचार्य जी 30 वर्ष की आयु में असाध्य रोग के कारण शरीर त्यागकर भगवान शंकर के लोक में चले गए क्योंकि वे शंकर जी के उपासक थे, उन्हीं के लोक से इसी धर्म की स्थापना के लिए आए माने गए हैं। उस समय बौद्ध धर्म तेजी से फैल रहा था। उसको उन्हांेने भारत में फैलने से रोका था। यदि बौद्ध धर्म फैल जाता तो चीन देश की तरह भारतवासी भी नास्तिक हो जाते।
ईसाई धर्म की स्थापना:-
श्री ईसा मसीह जी से ईसाई धर्म की स्थापना हुई। ईसा जी की जब 32 वर्ष की आयु थी, उनको क्रश पर कीलें गाढ़कर विरोधी धर्म गुरूओं ने गवर्नर पर दबाव बनाकर मरवा दिया था।
ईसा जी को उसी प्रभु ने ‘‘इंजिल‘‘ नामक ग्रन्थ देकर उतारा था जिसने गीता तथा वेदों का ज्ञान दिया था। ‘‘इंजिल‘‘ पुस्तक में भिन्न ज्ञान नहीं है क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान तो पहले गीता, वेदों में बताया जा चुका था। वह किसी धर्म विशेष के लिए नहीं है। वह गीता तथा वेदों वाला ज्ञान मानव मात्र के लिए है। ईसा जी के लगभग छः सौ वर्ष पश्चात् हजरत मुहम्मद जी ने इस्लाम धर्म की स्थापना की। मुहम्मद जी को पवित्र ‘‘र्कुआन् शरीफ‘‘ ग्रन्थ उसी ब्रह्म ने दिया था। इसमें भी भक्ति विधि सम्पूर्ण नहीं है, सांकेतिक है क्योंकि भक्ति का ज्ञान वेदों, गीता में बता दिया था। इसलिए र्कुआन् शरीफ ग्रन्थ में पुनः बताना अनिवार्य नहीं था। जैसे गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में, यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा जिसने सर्व सृष्टि की रचना की है, उसके विषय में किसी तत्वदर्शी सन्त से पूछो, वे ठीक-ठीक ज्ञान तथा भक्तिविधि बताऐंगे।
जो सन्त उस पूर्ण परमात्मा का ज्ञान जानता है तो वह सत्य साधना भी जानता है।
बाईबल ग्रन्थ का ज्ञान भी गीता ज्ञान दाता ने ही दिया है, (बाईबल ग्रन्थ तीन पुस्तकों का संग्रह है - 1. जबूर, 2. तौरत, 3. इंजिल) बाईबल ग्रन्थ के उत्पत्ति ग्रन्थ में प्रारम्भ में ही लिखा है कि परमेश्वर ने मनुष्यों को अपनी सूरत अर्थात् स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया है, नर-नारी करके उत्पत्ति की है। छः दिन में सृष्टि की रचना करके परमेश्वर ने 7वें दिन विश्राम किया।
र्कुआन् शरीफ:- पुस्तक र्कुआन् शरीफ में सूरति फूर्कानि नं. 25 आयत नं. 52 से 59 में कहा है कि अल्लाह कबीर ने छः दिन में सृष्टि रची, फिर ऊपर आकाश में तख्त (सिंहासन) पर जा विराजा। उस परमेश्वर की खबर किसी बाहखबर अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से पूछो। र्कुआन् के लेख से स्पष्ट है कि र्कुआन् शरीफ का ज्ञान दाता भी उस पूर्ण परमात्मा अर्थात् अल्लाहु अकबर (अल्लाह कबीर) के विषय में पूर्ण ज्ञान नहीं रखता।
र्कुआन् शरीफ की सूरति 42 की प्रथम आयत में उन्हीं तीन मन्त्रों का सांकेतिक ज्ञान है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में हैं। कहा है कि ब्रह्मणः अर्थात् सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति के ’’ऊँ-तत्-सत्’’ तीन नाम के स्मरण करो। र्कुआन् शरीफ में सूरति 42 की प्रथम आयत में इन्हीं को सांकेतिक इस प्रकार लिखा हैः- ’’अैन्-सीन्-काॅफ’’
’’अन्’’ हिन्दी का ‘‘अ‘‘ अक्षर है जिसका संकेत ओम् की ओर है। अैन् का भावार्थ ओम् से है, सीन् = स अर्थात् जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में दूसरा तत् मन्त्र है, उसका वास्तविक जो मन्त्रा है, उसका पहला अक्षर ’’स’’ है, यही ओम + सीन् या तत् मिलकर सतनाम दो मन्त्र का बनता है और र्कुआन् शरीफ में जो तीसरा मन्त्र ’’काफ’’ = ’’क’’ है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में लिखे तीन नामों में अन्तिम ’’सत्’’ मन्त्र है। (जैसे गुरू मुखी में क को कका, ख को खखा तथा ग को गगा, ऊ को ऊड़ा, ई को इड़ा कहते तथा लिखते हैं। इसी प्रकार कुरान में अ, स, क को लिखा है।)
‘‘सत्‘‘ मन्त्र सांकेतिक है परन्तु वास्तविक जो नाम है, उसका पहला अक्षर ’’क’’ है, (वह ‘‘करीम’’ मंत्र है) जिसे सारनाम भी कहते हैं। जिन भक्तों को मेरे (संत रामपाल दास) से तीनों मन्त्रों का उपदेश प्राप्त है, वे उन दोनों सांकेतिक मन्त्रों के वास्तविक नामों को जानते हैं।
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indrabalakhanna · 10 months
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हमारे सभी धर्मो के वेद शास्त्र पुराण पवित्र धार्मिक ग्रंथो में सत्य तत्व ज्ञान से भरा अनमोल खजाना मिलता है_ पूर्ण परमेश्वर कबीर जी हैं🙏 कबीर वाणी__ अमर करूं सतलोक पठाऊँ , ताते बंदी छोड़ कहांऊँ🥀 कलयुग मध्य सतयुग लाऊँ, ताते बंदी छोड़ कहाउं 🙏
साधु तारे पिण्ड को, सिद्ध तारे अंण्ड 🥀 सतगुरु सो ही जानियो तार देवे ब्रह्मांड🙏
अल्लाह हू अकबर अल्लाह हू कबीर इसका साफ अर्थ है की अल्लाह बादशाह है अल्लाह का नाम कबीर है अल्लाह सहशरीर है देखा जा सकता है अल्लाह तो चींटी के पेर के पायल की आवाज भी सुन सकता है आप आत्मा और मन में क्या सोचते हैं वह भी जानता है हर कार्य करने में समर्थ है फिर सुबह-सुबह उसे बांग देकर क्यों बुलाते हैं यह तो अल्लाह का अपमान है अल्लाह कोई बहरा थोड़ी है विचार कीजिए विवेक लगाइए आपको मनुष्य जन्म मिला है बड़ा अनमोल है अल्लाह हू अकबर अल्लाह हू कबीर
सभी मुसलमान बहन भाइयों से अल्लाह की दासी की प्रार्थना है आप ��पने धार्मिक ग्रंथों को जानो अल्लाह ने तो कहीं भी मांस खाने का+जीव हिंसा करने का आदेश नहीं दिया है, एक तरफ तो मुसलमान भाई अल्लाह को खुश करने के लिए खुद को कष्ट देते हैं दूसरी ओर उसी की आत्मा को आप काटकर उसी अल्लाह को कष्ट देते हो क्योंकि अल्लाह ने तो कहा है हम सारे उसी की संतान हैं और वह अल्लाह आकार में है सहशरीर है धर्म के अनुसार पवित्र भक्ति करने से मिलेगा वह नमाज से नहीं, अल्लाह की सच्ची इबादत और उसके सच्चे जाप मंत्र से मिलेगा नमाज तो एक प्रार्थना है जो करनी भी चाहिए लेकिन अल्लाह को पाने के लिए या अल्लाह से अपने लिए सुख सुविधा रहम पाने के लिए हमें उसकी इबादत की सही विधि पानी होगी जिसको देने का अधिकारी केवल बाखबर तत्वदर्शी संत है वह तत्वदर्शी संत वर्तमान में , केवल संत रामपाल जी महाराज जी हैं जो पूरे विश्व का पूरे मानव समाज का सभी धर्मों की आत्माओं का उद्धार करने आए हैं अल्लाह की सही भक्ति विधि से हमारे पाप कर्मों को जो काट सकते हैं हमें सब सुख सुविधा दे सकते हैं संत रामपाल जी महाराज जी परमात्मा की सही भक्ति विधि देकर हमें मोक्ष प्रदान कर सकते हैं🙏🙏🙏
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